Input,Context,Output ऐसा सम्वाठा छाया हुआ थश माफ़ संघार से जीवन का लोप हो गया हो |,सेवा और दया का कितना अनुपम दृश्य था ! सहसा एक युवक के कानों में उस बालिका के रोने की आवाज पड़ी ।,"ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था, मानो संसार से जीवन का लोप हो गया हो ।" सेवा ओर दया का किफना झनुफ्रम धेश्य था ! सहसा एक युवक के कानों में उठ बालिका के रोने की आवाज पड़ी ।,"ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था, मानो संसार से जीवन का लोप हो गया हो ।",सेवा और दया का कितना अनुपम दृश्य था ! सहसा एक युवक के कानों में उस बालिका के रोने की आवाज पड़ी । इन मू्ों को कोई कैसे समझाये कि यहाँ बच्चों को लाने का काम नही |,सेवा और दया का कितना अनुपम दृश्य था ! सहसा एक युवक के कानों में उस बालिका के रोने की आवाज पड़ी ।,इन मूर्खों को कोई कैसे समझाए कि यहाँ बच्चों को लाने का काम नहीं । "लड़की सुप तो हो गयी, पर सशय की दृष्टि से देख देख सिसक रही थी |",इन मूर्खों को कोई कैसे समझाए कि यहाँ बच्चों को लाने का काम नहीं ।,"लड़की चुप तो हो गयी, पर संशय की दृष्टि से देख-देखकर सिसक रही थी ।" इस मरन का कोई उत्तर न दे सकी |,"लड़की चुप तो हो गयी, पर संशय की दृष्टि से देख-देखकर सिसक रही थी ।",इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सकी । उनके साथ यद्द भी सेवासमिति में दाखिल हो गया था ।,इस प्रश्न का कोई उत्तर न दे सकी ।,उसके साथ यह भी सेवा-समिति में दाखिल हो गया था । "महमूद- कोन जाने, वे भी यहीं कुचल कुचला गये हों ।",उसके साथ यह भी सेवा-समिति में दाखिल हो गया था ।,"महमूद-कौन जाने, वे भी यहाँ कुचल-कुचला गये हों ।" तत्र दोनों उस तरफ गये जहाँ मैदान में बहुत से यात्री पडे हुए. थे ।,"महमूद-कौन जाने, वे भी यहाँ कुचल-कुचला गये हों ।","तब दोनों उस तरफ गये, जहाँ मैदान में बहुत से यात्री पड़े हुए थे ।" किसी की लड़की तो नदी खो गयी ?,"तब दोनों उस तरफ गये, जहाँ मैदान में बहुत से यात्री पड़े हुए थे ।",किसी की लड़की तो नहीं खो गयी ? तीसरे दिन समाचारपत्रों में नोटिस दिया गया ओर दो दिन वहाँ ओर रहकर समिति आगरे लो गयी ।,किसी की लड़की तो नहीं खो गयी ?,तीसरे दिन समाचार-पत्र में नोटिस दिया गया और दो दिन वहाँ और रहकर समिति आगरे लौट गयी । लडकी की भी अपने साथ लेती गयी ।,तीसरे दिन समाचार-पत्र में नोटिस दिया गया और दो दिन वहाँ और रहकर समिति आगरे लौट गयी ।,लड़की को भी अपने साथ लेती गयी । यह नाम सुनकर आप खुशी से अकड़ जाते थै; पर पँशन केवल २५) मिलती थो; इसलिए तहसीलदार साहब को बाजारः-हाट खुद ही करना पड़ता था ।,लड़की को भी अपने साथ लेती गयी ।,"यह नाम सुनकर आप खुशी से अकड़ जाते थे, पर पेंशन केवल २५) मिलती थी, इसलिए तहसीलदार साहब को बाजार-हाट खुद ही करना पड़ता था ।" मुन्शीनीने पहले ही से सिफारिश पहुँचानी शुरू की थी ।,"यह नाम सुनकर आप खुशी से अकड़ जाते थे, पर पेंशन केवल २५) मिलती थी, इसलिए तहसीलदार साहब को बाजार-हाट खुद ही करना पड़ता था ।",मुंशीजी ने पहले ही से सिफारिश पहुँचानी शुरू कर दी थी । उस दिन से पिता और पुत्र मे आये-दिन वमचस मचती रहती थी ।,मुंशीजी ने पहले ही से सिफारिश पहुँचानी शुरू कर दी थी ।,उस दिन से पिता और पुत्र में आये दिन बमचख मचती रहती थी । "बह जमाना लड़ गया, जब विद्वानों की कदर थी, अ्रत्र तो विद्वान टके सेर मिलते हैं, कोई वात नहीं पूछता |",उस दिन से पिता और पुत्र में आये दिन बमचख मचती रहती थी ।,"वह जमाना लद गया जब विद्वानों की कद्र थी, अब तो विद्वान टके सेर मिलते हैं, कोई बात नहीं पूछता ।" वहाँ सभी उनका आदर करते थे; लेकिन यह उन्हें न था ।,"वह जमाना लद गया जब विद्वानों की कद्र थी, अब तो विद्वान टके सेर मिलते हैं, कोई बात नहीं पूछता ।","वहाँ सभी उनका आदर करते थे, लेकिन यह उन्हें मंजूर न था ।" कालेज का प्रच्यापक इतने वेतन पर राजी न हुआ ।,"वहाँ सभी उनका आदर करते थे, लेकिन यह उन्हें मंजूर न था ।",कॉलेज का कोई अध्यापक इतने वेतन पर राजी न हुआ । इसरे दिन से चक्रंबर ने लडकी को पढ़ाना शुरू कर दिया |,कॉलेज का कोई अध्यापक इतने वेतन पर राजी न हुआ ।,दूसरे दिन से चक्रधर ने लड़की को पढ़ाना शुरू कर दिया । चक्रधर महीने के अन्त मे रुपए. लाते और माता के हाथ इ देते ।,दूसरे दिन से चक्रधर ने लड़की को पढ़ाना शुरू कर दिया ।,चक्रधर महीने के अन्त में रुपए लाते और माता के हाथ पर रख देते । वह यही प्रयत्त करते थे कि ठाऊर साइब की उपस्थिति ही मे उसे पढायें ।,चक्रधर महीने के अन्त में रुपए लाते और माता के हाथ पर रख देते ।,वह यही प्रयत्न करते थे कि ठाकुर साहब की उपस्थिति ही में उसे पढ़ायें । "यदि कमी ठाकुर साइच कही चले बाते, तो चक्रपर को महान्‌ सकद का सामना करना पड़ता था ।",वह यही प्रयत्न करते थे कि ठाकुर साहब की उपस्थिति ही में उसे पढ़ायें ।,"यदि कभी ठाकुर साहब कहीं चले जाते, तो चक्रधर को महान् संकट का सामना करना पड़ता ।" एक दिन चक्रधर इसी सकठ भे जा फेंसे ।,"यदि कभी ठाकुर साहब कहीं चले जाते, तो चक्रधर को महान् संकट का सामना करना पड़ता ।",एक दिन चक्रधर इसी संकट में जा फँसे । "मैंने दादाजी से, भाई जी से, पश्डितजी से, लौंगी अम्मों से, भाभी से यही श्ढा की, पर स॑ंब लोग यहो कहते थे कि रामचन्द्र तो भगवान्‌ हैं, उनके विषय में कोई शद्जा हो ही नही सकती ।",एक दिन चक्रधर इसी संकट में जा फँसे ।,"मैंने दादाजी से, भाइयों से, पंडितजी से, लौंगी अम्माँ से, भाभी से यही शंका की, पर सब लोग यही कहते थे कि रामचन्द्र तो भगवान हैं, उनके विषय में कोई शंका हो ही नहीं सकती ।" आपने श्राज मेरे मन की बात कही ।,"मैंने दादाजी से, भाइयों से, पंडितजी से, लौंगी अम्माँ से, भाभी से यही शंका की, पर सब लोग यही कहते थे कि रामचन्द्र तो भगवान हैं, उनके विषय में कोई शंका हो ही नहीं सकती ।",आपने आज मेरे मन की बात कही । "जब्र उनके आने का समय होता, तो वह पहले ही से बैठ जाती ओर उनका इन्तजार करती |",आपने आज मेरे मन की बात कही ।,"जब उनके आने का समय होता, तो वह पहले ही से आकर बैठ जाती और उनका इन्तजार करती ।" ठाकुर साहब ने पुरजा लोटा दिया--व्यर्थ की लिखा- पढ़ी करने की उन्हें न'थी और कहा--उनको जो कुछ कहना हो खुद आकर कहें ।,"जब उनके आने का समय होता, तो वह पहले ही से आकर बैठ जाती और उनका इन्तजार करती ।","ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ की लिखा-पढ़ी करने की उन्हें फुर्सत न थी और कहा-उनको जो कुछ कहना हो, खुद आकर कहें ।" "ठाकुर साहब हँसकर धीलें--बाह बाबूजी, वाह ! आप भी अच्छे मीजी जीव हैं ।","ठाकुर साहब ने पुरजा लौटा दिया-व्यर्थ की लिखा-पढ़ी करने की उन्हें फुर्सत न थी और कहा-उनको जो कुछ कहना हो, खुद आकर कहें ।","ठाकुर साहब हँसकर बोले-वाह ! बाबूजी, वाह ! आप भी अच्छे मौजी जीव हैं ।" "सोचिए, मुझे एक मुश्त देने में कितनी असुविधा होगी ! खेर, जाइये दस पॉच दिन मे रुपये मिल जायेंगे ।","ठाकुर साहब हँसकर बोले-वाह ! बाबूजी, वाह ! आप भी अच्छे मौजी जीव हैं ।","सोचिए, मुझे एकमुश्त देने में कितनी असुविधा होगी ! खैर, जाइए, दस-पाँच दिन में रुपए मिल जायेंगे ।" बोले--मिल जायेंगे ।,"सोचिए, मुझे एकमुश्त देने में कितनी असुविधा होगी ! खैर, जाइए, दस-पाँच दिन में रुपए मिल जायेंगे ।",बोले-मिल जायेंगे । चक्रधर--इस वक्त कोई ऐसी जरूरत नहीं है ।,बोले-मिल जायेंगे ।,चक्रधर-इस वक्त कोई जरूरत नहीं है । ढादाजी मे बढ़ा ऐज दे कि किसी के रुपये देते हुए उन्हें मोह लगता है ।,चक्रधर-इस वक्त कोई जरूरत नहीं है ।,दादाजी में बड़ा ऐब है कि किसी के रुपए देते हुए उन्हें मोह लगता है । "देखिए, में जाऊर' चक्रधर ने रोककर कह्--नहीं नहीं, कोई जरूरत नही ।",दादाजी में बड़ा ऐब है कि किसी के रुपए देते हुए उन्हें मोह लगता है ।,"देखिए, मैं जाकर-- चक्रधर ने रोककर कहा-नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं ।" "श्रगर अपने लिए कभी मोटर मेंगयानी हो तो तुरत मँँगवा लेंगे, पहाड़ों पर जाना हो, तो तुरन्त चले जायेंगे, पर जिसके रुपए आते है, उसको न देँगे ।","देखिए, मैं जाकर-- चक्रधर ने रोककर कहा-नहीं-नहीं, कोई जरूरत नहीं ।","अगर अपने लिए कभी मोटर मँगवानी हो, तो तुरन्त मँगवा लेंगे ! पहाड़ों पर जाना हो, तो तुरन्त चले जायेंगे, पर जिसके रुपए आते हैं, उसको न देंगे ।" उनके सामने हो एक कुरसी पर भुशी बद्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे ओर नाई खड़ा पता भले रहा या ।,"अगर अपने लिए कभी मोटर मँगवानी हो, तो तुरन्त मँगवा लेंगे ! पहाड़ों पर जाना हो, तो तुरन्त चले जायेंगे, पर जिसके रुपए आते हैं, उसको न देंगे ।",उनके सामने ही एक कुर्सी पर मुंशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पँखा झल रहा था । चक्रघर के प्राण सूख गये ।,उनके सामने ही एक कुर्सी पर मुंशी वज्रधर बैठे फर्शी पी रहे थे और नाई खड़ा पँखा झल रहा था ।,चक्रधर के प्राण सूख गये । किन्तु स्नेहमयी माता कब्र सुननेवाली थी ।,चक्रधर के प्राण सूख गये ।,किंतु स्नेहमयी माता कब सुनने वाली थी । चक्रघर ने गरदन फेर ली |,किंतु स्नेहमयी माता कब सुनने वाली थी ।,चक्रधर ने गर्दन फेर ली । "श्राज तक कभी न मारा; पर आज पीट चलेगी, नहीं तो जाकर चुपके से वाहर बैठ ।",चक्रधर ने गर्दन फेर ली ।,"आज तक कभी न मारा पर आज पीट दूँगी, नहीं तो जाकर चुपके से बाहर बैठ ।" जरा यहाँ तो आओ |,"आज तक कभी न मारा पर आज पीट दूँगी, नहीं तो जाकर चुपके से बाहर बैठ ।",जरा यहाँ तो आओ । चक्रघर के रहे-सरि होश भी उड़ गये ।,जरा यहाँ तो आओ ।,चक्रधर के रहे-सहे होश भी उड़ गये । "इस वैमनस्य फो मिटाने के लिए आपने जो डपाय बताये “हैं, वे बहुत हो विचारपूर्ण हैं ।",चक्रधर के रहे-सहे होश भी उड़ गये ।,"इस वैषम्य को मिटाने के लिए आपने जो उपाय बताए हैं, वे बहुत ही विचारपूर्ण हैं ।" ( यशोदानन्दन मे ) राजा साइब्र की इनके ऊपर बड़ी कृपा है ।,"इस वैषम्य को मिटाने के लिए आपने जो उपाय बताए हैं, वे बहुत ही विचारपूर्ण हैं ।",(यशोदानन्दन से) राजा साहब की इनके ऊपर बड़ी कृपा है । इधर ही से गणेश के घर जाकर कहना कि तहसीलदार साइच ने एक होॉड़ी श्रच्छा दद्दी माँगा है ।,(यशोदानन्दन से) राजा साहब की इनके ऊपर बड़ी कृपा है ।,इधर ही से गणेश के घर जाकर कहना कि तहसीलदार साहब ने एक हाँड़ी अच्छा दही माँगा है । "उधर की फ्रिक थी, पर मेहमान को छोड़- कर न जा सकते थे ।",इधर ही से गणेश के घर जाकर कहना कि तहसीलदार साहब ने एक हाँड़ी अच्छा दही माँगा है ।,उधर की फिक्र थी; पर मेहमान को छोड़कर न जा सकते थे । "श्राँखों में सुरमा भो था, बालों में तेल भी, मानो उन्हीं का व्याह होनेवाला है ।",उधर की फिक्र थी; पर मेहमान को छोड़कर न जा सकते थे ।,"आँखों में सुरमा भी था, बालों में तेल भी, मानो उन्हीं का ब्याह होने वाला है ।" "बड़ का स्वभाव, विचार, सिद्धान्त सभी आपसे मिलते हैं ओर मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों एक साथ रहकर सुखी होंगे ।","आँखों में सुरमा भी था, बालों में तेल भी, मानो उन्हीं का ब्याह होने वाला है ।","मेरी पुत्री का स्वभाव, विचार, सिद्धान्त सभी आपसे मिलते हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों एक साथ रहकर सुखी होंगे ।" "मेरी दो वहुएँ हैं, लड़की की मा है; किन्तु सब-कीसच फूहड़; किसी में भी वह तमीज नहीं |","मेरी पुत्री का स्वभाव, विचार, सिद्धान्त सभी आपसे मिलते हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि आप दोनों एक साथ रहकर सुखी होंगे ।","मेरी दो बहुएँ हैं, लड़की की माँ है; किन्तु सब-की-सब फूहड़, किसी में भी वह तमीज नहीं ।" पान की तश्तरी ओर तसवोर लिये हुए घर में चले आये! ।,"मेरी दो बहुएँ हैं, लड़की की माँ है; किन्तु सब-की-सब फूहड़, किसी में भी वह तमीज नहीं ।",पान की तश्तरी और तसवीर लिए हुए घर में चले आये । उसने तल्वीर ले लो ओर लालटेन के सामने ले ज:कर वोली-यह बहू को तलोर है ।,पान की तश्तरी और तसवीर लिए हुए घर में चले आये ।,उसने तसवीर ले ली और लालटेन के सामने ले जाकर बोली-यह बहू की तसवीर है । "« मिनकू-कितना ही छोड़-छाड़ दिया है, लेकिन आजकल के नीमिखियों ने अ्रच्छे ही होंगे |",उसने तसवीर ले ली और लालटेन के सामने ले जाकर बोली-यह बहू की तसवीर है ।,"झिनकू-कितना ही छोड़-छाड़ दिया है, लेकिन आजकल के नौसिखियों से अच्छे ही होंगे ।" "उनका गला मेंजा हुआ था, इस कला मे निपुण ये, ऐसा मस्त ह हर गाया कि सुनने वाले भूम-कूम गये ।","झिनकू-कितना ही छोड़-छाड़ दिया है, लेकिन आजकल के नौसिखियों से अच्छे ही होंगे ।","उनका गला मँजा हुआ था, इस कला में निपुण थे, ऐसा मस्त होकर गाया कि सुनने वाले झूमझूम गये ।" वज्रधर ने तो वाहन्वाह का तार बॉघ दिया ।,"उनका गला मँजा हुआ था, इस कला में निपुण थे, ऐसा मस्त होकर गाया कि सुनने वाले झूमझूम गये ।",वज्रधर ने तो वाह-वाह का तार बाँध दिया । समाँ बंध गया |,वज्रधर ने तो वाह-वाह का तार बाँध दिया ।,समाँ बंध गया । "चक्रधर ने यह आवाज सुनी, तो दिल में कह “यह महाशय भा उसो ढुकरी के लोगों मे हैं, उसी रम मे रेंगे हुए ।",समाँ बंध गया ।,"चक्रधर ने यह आवाज सुनी तो दिल में कहा, यह महाशय भी उसी टुकरी के लोगों में हैं, उसी रंग में रंगे हुए ।" "वज़्घर ने कद्--भाई साहब, आपने तो कमाल कर दिया ।","चक्रधर ने यह आवाज सुनी तो दिल में कहा, यह महाशय भी उसी टुकरी के लोगों में हैं, उसी रंग में रंगे हुए ।","वज्रधर ने कहा-भाई साहब, आपने तो कमाल कर दिया ।" "कैसी रहो, मिनकू ?","वज्रधर ने कहा-भाई साहब, आपने तो कमाल कर दिया ।","कैसी रही, झिनकू ?" आपने हम सबा का रंग फोका कर दिया |,"कैसी रही, झिनकू ?",आपने हम सबों का रंग फीका कर दिया । चक्रधर ने भेपते हुए. कह्द--मै गाने को बुरा नहीं समझता ।,आपने हम सबों का रंग फीका कर दिया ।,चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-मैं गाने को बुरा नहीं समझता । "यशोदानन्दन -तुम्हें नजाल में नहीं फेसाता बेटा, त॒म्हें ऐसा सच्चा मन्त्री, ऐसा सच्चा सहायक ओर ऐसा सच मित्र दे रहा हूँ, जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना अपने जीवन का सुख्य कत्तंव्य |",चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-मैं गाने को बुरा नहीं समझता ।,"यशोदानन्दन-तुम्हें जंजाल में नहीं फँसाता बेटा, तुम्हें ऐसा सच्चा मंत्री, ऐसा सच्चा सहायक और ऐसा सच्चा मित्र दे रहा हूँ, जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना अपने जीवन का मुख्य कर्त्तव्य समझेगी ।" चक्रधर बडे सकट में पड़े |,"यशोदानन्दन-तुम्हें जंजाल में नहीं फँसाता बेटा, तुम्हें ऐसा सच्चा मंत्री, ऐसा सच्चा सहायक और ऐसा सच्चा मित्र दे रहा हूँ, जो तुम्हारे उद्देश्यों को पूरा करना अपने जीवन का मुख्य कर्त्तव्य समझेगी ।",चक्रधर बड़े संकट में पड़े । यशोदानन्दन--इन हीतों से में आपका दामन छोड़नेवाला नहीं हूँ ।,चक्रधर बड़े संकट में पड़े ।,यशोदानन्दन-इन हीलों से मैं आपका दामन छोड़ने वाला नहीं हूँ । "समा, सीधे आदमी हैं, होटल में लुट जायेंगे, साथ लेता आया ।",यशोदानन्दन-इन हीलों से मैं आपका दामन छोड़ने वाला नहीं हूँ ।,"मैंने समझा, सीधे आदमी हैं, होटल में लुट जायेंगे, साथ लेता आया ।" "मे तो उसी को लाकर दो चार दिन के किए यहाँ ठदरा सकता हूँ, पर शायद्‌ आपके घर के लोग यह पसन्द न करेंगे ।","मैंने समझा, सीधे आदमी हैं, होटल में लुट जायेंगे, साथ लेता आया ।",मैं तो उसी को लाकर दो-चार दिन के लिए यहां ठहरा सकता हूँ; पर शायद आपके घर के लोग यह पसन्द न करेंगे । "बोले-जी हाँ, यह मुनासिच नही मालूम द्वोता ।",मैं तो उसी को लाकर दो-चार दिन के लिए यहां ठहरा सकता हूँ; पर शायद आपके घर के लोग यह पसन्द न करेंगे ।,"बोले-जी हाँ, यह मुनासिब नहीं मालूम होता ।" "चक्रधर यों तीसरे पहर पढाने जाया करते थे, पर आज ६ बजते-चजते जा पहुँचे ।","बोले-जी हाँ, यह मुनासिब नहीं मालूम होता ।","चक्रधर यों तो तीसरे पहर पढ़ाने जाया करते थे, पर आज नौ बजते-बजते जा पहुँचे ।" लौंगी उस वक्त लोडी थी |,"चक्रधर यों तो तीसरे पहर पढ़ाने जाया करते थे, पर आज नौ बजते-बजते जा पहुँचे ।",लौंगी उस वक्त लौंडी थी । "लोग कहते हैँ, पहले वह इतनी दुबली थी कि फ़रूक ठो तो उड़ जाय, पर गहिणी का पद पाते ही उसको प्रतिमा स्थुल्ल रूप घारण करने लगी |",लौंगी उस वक्त लौंडी थी ।,"लोग कहते हैं, पहले वह इतनी दुबली थी कि फूँक दो तो उड़ जाय; पर गृहिणी का पद पाते ही उसकी प्रतिमा स्थूल रूप धारण करने लगी ।" बरसाती नदी का जल ग्रद़द्दों ओर गढ़हियों में भर गया था ।,"लोग कहते हैं, पहले वह इतनी दुबली थी कि फूँक दो तो उड़ जाय; पर गृहिणी का पद पाते ही उसकी प्रतिमा स्थूल रूप धारण करने लगी ।",बरसाती नदी का जल गड़हों और गड़हियों में भर गया था । यह उसी की सुजनता थी जो नोकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती थो ।,बरसाती नदी का जल गड़हों और गड़हियों में भर गया था ।,"यह उसी की सज्जनता थी, जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती ।" मनोरमा पर तो चह भाण देती थी ।,"यह उसी की सज्जनता थी, जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती ।",मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी । ठाकुर साहब की भोहें तन गयीं ।,मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी ।,ठाकुर साहब की भौंहें तन गयीं । "वेचारे गरीब आदमो हैं; सकोच के मारे नहों मॉँगते, कई महीने तो चढ़ गये ?",ठाकुर साहब की भौंहें तन गयीं ।,"बेचारे गरीब आदमी हैं; संकोच के मारे नहीं माँगते, कई महीने तो चढ़ गये ?" "कहता था कि कोई ईसाइन रख लो, दोन्‍चार रुपये में काम चल' जायगा |","बेचारे गरीब आदमी हैं; संकोच के मारे नहीं माँगते, कई महीने तो चढ़ गये ?",कहता था कि कोई ईसाइन रख लो; दो-चार रुपए में काम चल जायगा । चक्रधर--म इस वक्त एक दूसरे हो काम से आया हैँ ।,कहता था कि कोई ईसाइन रख लो; दो-चार रुपए में काम चल जायगा ।,चक्रधर-मैं इस वक्त एक दूसरे ही काम से आया हूँ । शायद दोन्‍तोन दिन लगेंगे ।,चक्रधर-मैं इस वक्त एक दूसरे ही काम से आया हूँ ।,शायद दो-तीन दिन लगेंगे । "ठाकुर-हों हाँ, शौक से जाइए, सुभमे पूछने की जरूरत न थी ।",शायद दो-तीन दिन लगेंगे ।,"ठाकुर-हाँ-हाँ, शौक से जाइए, मुझसे पूछने की जरूरत न थी ।" मनोस्मा-- और जो उस वक्त मेरे पास न हुए. तो ?,"ठाकुर-हाँ-हाँ, शौक से जाइए, मुझसे पूछने की जरूरत न थी ।",मनोरमा-और जो उस वक्त मेरे पास न हुए तो ? "चक्रघर--तो फिर कमी मॉगूगा ! मनोरमा--तो आप सुभसे अभी माँग लीजिए, अमी मेरे पास रुपए, हैं, दे दूँगी |",मनोरमा-और जो उस वक्त मेरे पास न हुए तो ?,"चक्रधर-तो फिर कभी माँगूगा! मनोरमा-तो आप मुझसे अभी माँग लीजिए, अभी मेरे पास रुपए हैं, दे दूँगी ।" फिर आप त्त जाने किस वक्त माँग बैठे ।,"चक्रधर-तो फिर कभी माँगूगा! मनोरमा-तो आप मुझसे अभी माँग लीजिए, अभी मेरे पास रुपए हैं, दे दूँगी ।",फिर आप न जाने किस वक्त माँग बैठे ? चकैधर--इस वक्त तो सुझे जरूरत नहीं ।,फिर आप न जाने किस वक्त माँग बैठे ?,चक्रधर-इस वक्त तो मुझे जरूरत नहीं । "मनोरमा--जी नही, लेते जाइए |",चक्रधर-इस वक्त तो मुझे जरूरत नहीं ।,"मनोरमा-जी नहीं, लेते जाइए ।" मेरे पास खर्च्च हो जायँगे ।,"मनोरमा-जी नहीं, लेते जाइए ।",मेरे पास खर्च हो जायेंगे । घोड़ों के साओों पर गगा- जसुनी काम किया हुआ था ।,मेरे पास खर्च हो जायेंगे ।,घोड़ों के साजों पर गंगाजमुनी काम किया हुआ था । चार खबार भाले उठाये पीछे दौढ़ते चले आत थे ।,घोड़ों के साजों पर गंगाजमुनी काम किया हुआ था ।,चार सवार भाले उठाए पीछे दौड़ते चले आते थे । नन्‍जाने क्‍यों मुझे बहुत मानती हैं ।,चार सवार भाले उठाए पीछे दौड़ते चले आते थे ।,न जाने क्यों मुझे बहुत मानती हैं । चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-- ः जाती ।,न जाने क्यों मुझे बहुत मानती हैं ।,चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-तब भूल जाती । "मनोरमा--आप अगर मुझसे बिना धताये चले जायँगे, तो मैं कुछ न पढगी ।",चक्रधर ने मुस्कराकर कहा-तब भूल जाती ।,"मनोरमा-आप अगर मुझसे बिना बताए चले जायेंगे, तो मैं कुछ न पढूँगी ।" वतला ही दूँ ।,"मनोरमा-आप अगर मुझसे बिना बताए चले जायेंगे, तो मैं कुछ न पढूँगी ।",बतला ही दूँ । "अच्छा, हँसना मत |",बतला ही दूँ ।,"अच्छा, हँसना मत ।" मनोरमा भी उनके साथ साथ आयी ।,"अच्छा, हँसना मत ।",मनोरमा भी उनके साथ-साथ आयी । "णंच वह बरामदे से नीचे उत्तरे, तो प्रणाम किया और तुरत अपने कमरे में लौट आयी ।",मनोरमा भी उनके साथ-साथ आयी ।,"जब वह बरामदे से नीचे उतरे, तो प्रणाम किया और तुरन्त अपने कमरे में लौट आयी ।" "भू सन्ध्या समय जब रेलगाढ़ी बनारस से चली, तो यशोदानन्दन ने चक्रधर से पूछा-- क्यों मैया, तम्हारी राय में कूठ चोलना किसी दशा मे क्षम्य है, या नहीं ?","जब वह बरामदे से नीचे उतरे, तो प्रणाम किया और तुरन्त अपने कमरे में लौट आयी ।","पांच संध्या समय जब रेलगाड़ी बनारस से चली तो यशोदानन्दन ने चक्रधर से पूछा-क्यों भैया, तुम्हारी राय में झूठ बोलना किसी दशा में क्षम्य है या नहीं ?" "चक्रधर ने विस्मित होकर कह्य-मे तो समभता हैँ, नहीं ।","पांच संध्या समय जब रेलगाड़ी बनारस से चली तो यशोदानन्दन ने चक्रधर से पूछा-क्यों भैया, तुम्हारी राय में झूठ बोलना किसी दशा में क्षम्य है या नहीं ?","चक्रधर ने विस्मित होकर कहा-मैं तो समझता हूँ, नहीं ?" मेंने अदल्या के विपय में आप से भूठी बातें कही हैं ।,"चक्रधर ने विस्मित होकर कहा-मैं तो समझता हूँ, नहीं ?",मैंने अहिल्या के विषय में आपसे झूठी बातें कही हैं । यशोदानन्दन--विचित्र कथा है ।,मैंने अहिल्या के विषय में आपसे झूठी बातें कही हैं ।,यशोदानन्दन-विचित्र कथा है । तुम तो उस बक्त बहुत छोटठेन्से रहे होगे ।,यशोदानन्दन-विचित्र कथा है ।,तुम तो उस वक्त बहुत छोटे-से रहे होंगे । यह निश्चय करके आपके यहाँ श्राया ।,तुम तो उस वक्त बहुत छोटे-से रहे होंगे ।,यह निश्चय करके आपके यहाँ आया । मैंने आपसे सारा इततान्त कह दिया ।,यह निश्चय करके आपके यहाँ आया ।,मैंने आपसे सारा वृत्तान्त कह दिया । "अब आपको अ्रख्तियार है, उसे अयनायेँ या त्यागें ।",मैंने आपसे सारा वृत्तान्त कह दिया ।,"अब आपको अख्तियार है, उसे अपनायें या त्यागें ।" "हाँ, इतना कह सकता हूँ कि ऐसा रक्ष आप फिर न पायेंगे |","अब आपको अख्तियार है, उसे अपनायें या त्यागें ।","हाँ, इतना कह सकता हूँ कि ऐसा रत्न आप फिर न पायेंगे ।" "एक तरफ अहल्या का अनुपम सौन्दर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता पिता का विरोध और लोक-निन्दा का मय, मन में तक सम्राम होने लगा ।","हाँ, इतना कह सकता हूँ कि ऐसा रत्न आप फिर न पायेंगे ।","एक तरफ अहिल्या का अनुपम सौंदर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता-पिता का विरोध और लोकनिंदा का भय; मन में तर्क-संग्राम होने लगा ।" वह स्वतन्त्रता के उपासक थे ओर निर्भी- कता स्वतन्त्रता की पहली सीदी है ।,"एक तरफ अहिल्या का अनुपम सौंदर्य और उज्ज्वल चरित्र था, दूसरी ओर माता-पिता का विरोध और लोकनिंदा का भय; मन में तर्क-संग्राम होने लगा ।",वह स्वतंत्रता के उपासक थे और निर्भीकता स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है । हद भाव से बोले--मेरी ओर से आप जरा भो शंका न करें ।,वह स्वतंत्रता के उपासक थे और निर्भीकता स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है ।,दृढ़ भाव से बोले-मेरी ओर से आप जरा भी शंका न करें । में इतना भीर नहीं हूँ कि ऐसे कामों भे समाज-निन्दा से डरूँ |,दृढ़ भाव से बोले-मेरी ओर से आप जरा भी शंका न करें ।,मैं इतना भीरु नहीं हूँ कि ऐसे कामों में समाज-निन्दा से डरूँ । यह कहकर यशोदानन्दन ने ज्लपना सितार उठा लिया ओर बजाने लगे |,मैं इतना भीरु नहीं हूँ कि ऐसे कामों में समाज-निन्दा से डरूँ ।,यह कहकर यशोदानन्दन ने अपना सितार उठा लिया और बजाने लगे । और न चाँदनी कभी इतनी सुहृदय और विहृत्तित |,यह कहकर यशोदानन्दन ने अपना सितार उठा लिया और बजाने लगे ।,और न चाँदनी कभी इतनी सुहृदय और विहसित । इस नगर को देखते ही चक्रधर को कितनी हो ऐतिहासिक घथ्नाएँ: याद आ गयों |,और न चाँदनी कभी इतनी सुहृदय और विहसित ।,इस नगर को देखते ही चक्रधर को कितनी ही ऐतिहासिक घटनाएँ याद आ गयीं । "इधर हिन्दुश्नों को भी यह जिद है कि चाहे खून की नदी बह जाय, पर कुरबानी न होने पायेगी ।",इस नगर को देखते ही चक्रधर को कितनी ही ऐतिहासिक घटनाएँ याद आ गयीं ।,"इधर हिंदुओं को भी यह जिद है कि चाहे खून की नदी बह जाय, पर कुरबानी न होने पाएगी ।" यशोदानन्दन ने पूछा--ख्याजा मध्मूद कुछ न बोले ।,"इधर हिंदुओं को भी यह जिद है कि चाहे खून की नदी बह जाय, पर कुरबानी न होने पाएगी ।",यशोदानन्दन ने पूछा-ख्वाजा महमूद कुछ न बोले ? राघा-- वह्दी तो उस जलसे के प्रधान थे ।,यशोदानन्दन ने पूछा-ख्वाजा महमूद कुछ न बोले ?,राधा-वही तो उस जलसे के प्रधान थे । "यशोदानन्दन ने आत्म ग्लानि से पीड़ित होकर क्द्वा--जिस आदमी को श्राज २५ बरसों से देखता थाता हूँ, जिसके साथ कालेज में पटठा, जो इसी समिति का किसी जमाने में मेम्बर था, उसपर क्योंकर विश्वास न करता |",राधा-वही तो उस जलसे के प्रधान थे ।,"यशोदानन्दन ने आत्मग्लानि से पीड़ित होकर कहा-जिस आदमी को आज २५ बरसों से देखता आया हूँ, जिसके साथ कॉलेज में पढ़ा, जो इसी समिति का किसी जमाने में मेंबर था उस पर क्योंकर विश्वास न करता ?" राधा--बहुत अ्रच्छा हो यदि आप इस समय यही ठहर जायें ।,"यशोदानन्दन ने आत्मग्लानि से पीड़ित होकर कहा-जिस आदमी को आज २५ बरसों से देखता आया हूँ, जिसके साथ कॉलेज में पढ़ा, जो इसी समिति का किसी जमाने में मेंबर था उस पर क्योंकर विश्वास न करता ?","राधा-बहुत अच्छा हो, यदि आप इस समय यहीं ठहर जायें ।" "जो औरो पर बीतेगी वही सुपर भी बोतेगी, इससे क्या भागना |","राधा-बहुत अच्छा हो, यदि आप इस समय यहीं ठहर जायें ।","जो औरों पर बीतेगी, वही मुझ पर भी बीतेगी, इससे क्या भागना ।" "चलो, पहले उन्हीं से बार्ते होगी ।","जो औरों पर बीतेगी, वही मुझ पर भी बीतेगी, इससे क्या भागना ।",चलो पहले उन्हीं से बातें होंगी । मेरे द्वार प्रर तो इस वक्त बड़ा जद्ताव होगा |,चलो पहले उन्हीं से बातें होंगी ।,मेरे द्वार पर तो इस वक्त बड़ा जमाव होगा । मुसाफिरों की छुड़ियाँ छोन ली जाती थी ।,मेरे द्वार पर तो इस वक्त बड़ा जमाव होगा ।,मुसाफिरों की छड़ियाँ छीन ली जाती थीं । "दूकानें सब बन्द थीं, कैंजड़े भी. सागर वेचते न नजर आते थे ।",मुसाफिरों की छड़ियाँ छीन ली जाती थीं ।,"दुकानें सब बन्द थीं, कुँजड़े भी साग बेचते न नजर आते थे ।" मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी न हुई थी ।,"दुकानें सब बन्द थीं, कुँजड़े भी साग बेचते न नजर आते थे ।",उनके मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी न हुई थी । "वेठक मे आपकी चारपाई डलवा देना ओर देखो, अगर देवसयोग से मै लोटकर न आ सकूँ, तो धबराने को बात नहीं ।",उनके मुहल्ले में आज तक कभी कुरबानी न हुई थी ।,"बैठक में आपकी चारपाई डलवा देना और देखो, अगर दैव संयोग से मैं लौटकर न आ सकूँ, तो घबराने की बात नहीं ।" "अगर में लाटकर न आ सके, तो तुम घर में ऋहला देना कि अहल्या का पाणि अहण आप ही के साथ. कर दिया जाय ।","बैठक में आपकी चारपाई डलवा देना और देखो, अगर दैव संयोग से मैं लौटकर न आ सकूँ, तो घबराने की बात नहीं ।","अगर मैं लौटकर न आ सकूँ, तो तुम घर में कहला देना कि अहिल्या का पाणिग्रहण आप ही के साथ कर दिया जाय ।" "यय्रपि किसो के हाथ में लाठी या डण्डे न थे, 5 पर उनके मुख निहाद के जोश से तमतमाये हुए ये ।","अगर मैं लौटकर न आ सकूँ, तो तुम घर में कहला देना कि अहिल्या का पाणिग्रहण आप ही के साथ कर दिया जाय ।",यद्यपि किसी के हाथ में लाठी या डण्डे न थे; पर उनके मुख जिहाद के जोश से तमतमाए हुए थे । मुख से शिष्ठता कल्क रही थी ।,यद्यपि किसी के हाथ में लाठी या डण्डे न थे; पर उनके मुख जिहाद के जोश से तमतमाए हुए थे ।,मुख से शिष्टता झलक रही थी । "यशोदानन्दन ने त्योरियों बदलकर कहा -क्यों झ्पाजा साहब, श्रापको याद है, एस मुहल्ले में कभी कुरबानी हुई है ?",मुख से शिष्टता झलक रही थी ।,"यशोदानन्दन ने त्यौरियाँ बदलकर कहा-क्यों ख्वाजा साहब, आपको याद है, इस मुहल्ल में कभी कुरबानी हुई है ?" "मुसल्लमाना को शुद्धि करने का आप को पूरा हक हासिल है, लेकिन कम-से कम्र पाँच सौ बरसा मे आपके यहाँ शुद्धि की कोई मिसाल नहीं मिलतो |","यशोदानन्दन ने त्यौरियाँ बदलकर कहा-क्यों ख्वाजा साहब, आपको याद है, इस मुहल्ल में कभी कुरबानी हुई है ?","मुसलमानों की शुद्धि करने का आपको पूरा हक हासिल है, लेकिन कम से कम पाँच सौ बरसों में आपके यहाँ शुद्धि की कोई मिसाल नहीं मिलती ।" आप लोगों ने एक सुर्दा हऊ को झिन्दा किया है |,"मुसलमानों की शुद्धि करने का आपको पूरा हक हासिल है, लेकिन कम से कम पाँच सौ बरसों में आपके यहाँ शुद्धि की कोई मिसाल नहीं मिलती ।",आप लोगों ने एक मुर्दा हक को जिंदा किया है । "जच आप हमें जेर करने के लिए. नये नये हथियार निकाल रहे हैँ, तो हमारे लिए. इसके सिवा श्र क्या चारा है कि अपने हृथियारो को दूनी ताकत से चलाये ।",आप लोगों ने एक मुर्दा हक को जिंदा किया है ।,"जब आप हमें जेर करने के लिए नए-नए हथियार निकाल रहे हैं, तो हमारे लिए इसके सिवा और क्या चारा है कि अपने हथियारों को दूनी ताकत से चलायें ।" "यशोदानन्दन ताँगे से उतर पड़े और ललकारकर वोले--क्यों भाइयो, क्‍या “विचार है ?","जब आप हमें जेर करने के लिए नए-नए हथियार निकाल रहे हैं, तो हमारे लिए इसके सिवा और क्या चारा है कि अपने हथियारों को दूनी ताकत से चलायें ।","यशोदानन्दन तांगे से उतर पड़े और ललकारकर बोले-क्यों भाइयों, क्या विचार है ?" "यशोदानन्दन- खूब सोच लो, क्या करने जा रहे हो ।","यशोदानन्दन तांगे से उतर पड़े और ललकारकर बोले-क्यों भाइयों, क्या विचार है ?","यशोदानन्दन-खूब सोच लो, क्या करने जा रहे हो ।" आदमियों को यों उत्तेज्ञिते करके यशोदानन्दन आगे बढे ओर जनता महावीर आर अरामचन्द्र' की जय ध्वनि से वायुमएडल को कम्पायमान करती हुई उनके पीछे चली |,"यशोदानन्दन-खूब सोच लो, क्या करने जा रहे हो ।",आदमियों को यों उत्तेजित करके यशोदानन्दन आगे बढ़े और जनता 'महावीर' और 'श्रीरामचन्द्र' की जयध्वनि से वायुमण्डल को कम्पायमान करती हुई उनके पीछे चली । "यशोदानन्दन--केसी बातें करते हो, जी ! क्या यहाँ खडे होकर अपनी आंखो से गो की हत्या होते देखें ?",आदमियों को यों उत्तेजित करके यशोदानन्दन आगे बढ़े और जनता 'महावीर' और 'श्रीरामचन्द्र' की जयध्वनि से वायुमण्डल को कम्पायमान करती हुई उनके पीछे चली ।,"यशोदानन्दन-कैसी बातें करते हो, जी! क्या यहाँ खड़े होकर अपनी आँखों से गौ की हत्या होते देखें ।" चक्रधर-- तो फिर जाइए; लेक्नि उस गो को बचाने के लिए आप को अपने-एक - भाई का खून करना पड़ेगा ।,"यशोदानन्दन-कैसी बातें करते हो, जी! क्या यहाँ खड़े होकर अपनी आँखों से गौ की हत्या होते देखें ।","चक्रधर-तो फिर जाइए, लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा ।" "सिर थामकर बोलें--अ्रगर भेरे सक्त से आपकी क्रोधाग्नि शान्त होती हो, तो यह मेरे लिए. सौभाग्य की बात ४ ।","चक्रधर-तो फिर जाइए, लेकिन उस गौ को बचाने के लिए आपको अपने एक भाई का खून करना पड़ेगा ।","सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शान्त होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है ।" "फिर दूसरा पत्थर आ्राया, पर अब को चक्रघर को चोट न लगी ।","सिर थामकर बोले-अगर मेरे रक्त से आपकी क्रोधाग्नि शान्त होती हो, तो यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है ।",फिर दूसरा पत्थर आया; पर अबकी चक्रधर को चोट न लगी । यह कहते हुए सुशी यशोदानन्दन घर की तरफ चलते ।,फिर दूसरा पत्थर आया; पर अबकी चक्रधर को चोट न लगी ।,यह कहते हुए मुंशी यशोदानन्दन घर की तरफ चले । अपनी सस्था पर स्वेच्छाचारी राजाज्रों की भोँवि शासन करना चाहते थे ।,यह कहते हुए मुंशी यशोदानन्दन घर की तरफ चले ।,अपनी संस्था पर स्वेच्छाचारी राजाओं की भाँति शासन करना चाहते थे । आलोचनागों को सहन करने की उनमे सामथ्य ही न थी |,अपनी संस्था पर स्वेच्छाचारी राजाओं की भाँति शासन करना चाहते थे ।,आलोचनाओं को सहन करने की उनमें सामर्थ्य ही न थी । "एक आदमी--सुनो, सुनो, यही तो अभी हिन्दुओं के सामने खडा था ।",आलोचनाओं को सहन करने की उनमें सामर्थ्य ही न थी ।,"एक आदमी-सुनो-सुनो, यही तो अभी हिंदुओं के सामने खड़ा था ।" तीसरा आदमी--इसी ने शायद उन्हें समका-बुकाकर हटा दिया है ।,"एक आदमी-सुनो-सुनो, यही तो अभी हिंदुओं के सामने खड़ा था ।",तीसरा-इसी ने शायद उन्हें समझा-बुझाकर हटा दिया है । लेकिन क्या यह लाजमी है कि इसो जगह कुरत्रानी की जाय ?,तीसरा-इसी ने शायद उन्हें समझा-बुझाकर हटा दिया है ।,लेकिन क्या यह लाजिमी है कि इसी जगह कुरबानी की जाय ? इसलाम ने कमी दूसरे मजहबवाला को दिलजारी नहीं की ।,लेकिन क्या यह लाजिमी है कि इसी जगह कुरबानी की जाय ?,इस्लाम ने कभी दूसरे मजहब वालों की दिलजारी नहीं की । मोलवी साइव की उदरडता पर चिढ़कर बोले क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरब/नी यहीं हो ?,इस्लाम ने कभी दूसरे मजहब वालों की दिलजारी नहीं की ।,मौलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले-क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यहीं हो ? "स्याजा -आपकऊो तो अपने दलवे-मांडे से काम है, जिम्मेदारी ते हमारे ऊपर आधयेगो, दूकाने तो हमारी लुझेंगी, आपके पास फटे बोरिये आर फूटे बधने के सिवा ओर क्‍या रखा है ।",मौलवी साहब की उद्दण्डता पर चिढ़कर बोले-क्या शरीयत का हुक्म है कि कुरबानी यहीं हो ?,"ख्वाजा-आपको तो अपने हलवे-मांडे से काम है, जिम्मेदारी तो हमारे ऊपर आयेगी, दूकानें तो हमारी लुटेंगी, आपके पास फटे बोरिए और फूटे बंधने के सिवा और क्या रखा है ?" "जब्र वे लोग मखलहत देखकर किनारा कर गये, ता हम भी अयनी लिंद से बाज आ जाना चाहिए ।","ख्वाजा-आपको तो अपने हलवे-मांडे से काम है, जिम्मेदारी तो हमारे ऊपर आयेगी, दूकानें तो हमारी लुटेंगी, आपके पास फटे बोरिए और फूटे बंधने के सिवा और क्या रखा है ?",जब वे लोग मसलहत देखकर किनारा कर गये तो हमें भी अपनी जिद से बाज आ जाना चाहिए । "निराशा और क्रोध से कॉपते हुए. बोले--माइयो, एक गरीब, वेकस जानवर को मारना चह्मादुरी नदी ।",जब वे लोग मसलहत देखकर किनारा कर गये तो हमें भी अपनी जिद से बाज आ जाना चाहिए ।,"निराशा और क्रोध से काँपते हुए बोले-भाइयों, एक गरीब बेकस जानवर को मारना बहादुरी नहीं ।" "जब वे चले गये, तो आप लोग शेर हो गये ?","निराशा और क्रोध से काँपते हुए बोले-भाइयों, एक गरीब बेकस जानवर को मारना बहादुरी नहीं ।",जब वे चले गये तो आप लोग शेर हो गये ? एक आदमी--तो क्‍यों चले गये ?,जब वे चले गये तो आप लोग शेर हो गये ?,एक आदमी-तो क्यों चले गये ? गौ-रच्ा का लोश दिखाते ।,एक आदमी-तो क्यों चले गये ?,गौ-रक्षा का जोश दिखाते । चक्रघधर- भाग नही खड़े हुए ओर न लड़ने मे वे आपसे कम ही हई ।,गौ-रक्षा का जोश दिखाते ।,चक्रधर-भाग नहीं खड़े हुए और न लड़ने में वे आपसे कम ही हैं । "श्रगर आपकी गिजा है, तो शोक से खाइए ।",चक्रधर-भाग नहीं खड़े हुए और न लड़ने में वे आपसे कम ही हैं ।,"अगर आपकी गिजा है, तो शौक से खाइए ।" "सभी आदमी चकित हो-होकर , की ओर ताकने लगे ।","अगर आपकी गिजा है, तो शौक से खाइए ।",सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर ताकने लगे । श्रव कुछ कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कोमो में इत्तफाक हो जाय |,सभी आदमी चकित हो-होकर चक्रधर की ओर ताकने लगे ।,अब कुछ-कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमों में इत्तफाक हो जाय । "ख्वाजा--काश, तुम-जैसे समभदार तुम्हारे ओर भाशे भी होते ।",अब कुछ-कुछ उम्मीद हो रही है कि शायद दोनों कौमों में इत्तफाक हो जाय ।,"ख्वाजा-काश, तुम जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते ।" मगर यहाँ तो लोग हमे मलिच्छु कहते हैँ |,"ख्वाजा-काश, तुम जैसे समझदार तुम्हारे और भाई भी होते ।",मगर यहाँ तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं । "चक्रधर को श्राते देखकर यशोदानन्दन अपने कमरे से निकल आये ओर उन्हें छाती से लगाते हुए चोले--मैया, आज तुम्हारा धैय श्र साहस देखकर में दग रह गया |",मगर यहाँ तो लोग हमें मलिच्छ कहते हैं ।,"चक्रधर को आते देखकर यशोदानन्दन अपने कमरे से निकल आये और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया ।" यह उन लोगा वी शराफत थी कि उन्होंने मेरी अनुनय-विनय सुन ली ।,"चक्रधर को आते देखकर यशोदानन्दन अपने कमरे से निकल आये और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले-भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया ।",यह उन लोगों की शराफत थी कि उन्होंने अनुनय-विनय सुन ली । "अनुनय विनय हमने भो सैकड़ो ही बार की, लेकिन हर दफे गुत्थी ओर उलभतो ही गयी ।",यह उन लोगों की शराफत थी कि उन्होंने अनुनय-विनय सुन ली ।,"अनुनय-विनय हमने भी सैकड़ों ही बार की, लेकिन हर दफे गुत्थी और उलझती ही गयी ।" "श्रहल्या, आज तुम्हारी पाक परीक्षा होगी ।","अनुनय-विनय हमने भी सैकड़ों ही बार की, लेकिन हर दफे गुत्थी और उलझती ही गयी ।","अहिल्या, आज तुम्हारी पाक-परीक्षा होगी ।" वेचारे रास्ते में मिल गये |,"अहिल्या, आज तुम्हारी पाक-परीक्षा होगी ।",बेचारे रास्ते में मिल गये । "अहल्या[--वागीएवरी से) अम्भाँ, जरा उन्हें अन्द्र बुला लेना, तो दर्शन करेंगे |",बेचारे रास्ते में मिल गये ।,"अहिल्या-(वागीश्वरी से) अम्माँ, जरा उन्हें अन्दर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे ।" "जब वह मुसलमानों के सामने श्राकर खड़े हुए, तो मेरा कलेजा घड़कने लगा कि कहीं सब-के सब उनपर हृद न पड़े ।","अहिल्या-(वागीश्वरी से) अम्माँ, जरा उन्हें अन्दर बुला लेना, तो दर्शन करेंगे ।",जब वह मुसलमानों के सामने आकर खड़े हुए तो मेरा कलेजा धड़कने लगा कि कहीं सबके सब उन पर टूट न पड़ें । "ज्योही लोग चोके से जैठें, अहल्या ने कमरे की सफाई करनी शुरू की ।",जब वह मुसलमानों के सामने आकर खड़े हुए तो मेरा कलेजा धड़कने लगा कि कहीं सबके सब उन पर टूट न पड़ें ।,"ज्यों ही लोग चौके से उठे, अहिल्या ने कमरे की सफाई करनी शुरू की ।" इन कामों से फुरसत पाकेर उसने एकान्त में बैठकर फूलों को एक माला गूँनी शुरू की ।,"ज्यों ही लोग चौके से उठे, अहिल्या ने कमरे की सफाई करनी शुरू की ।",इन कामों से फुर्सत पाकर उसने एकान्त में बैठकर फूलों की माला गूँथनी शुरू की । एक क्षण में यशोदानन्दनजी चक्रधर को लिये हुए कमरे में आये ।,इन कामों से फुर्सत पाकर उसने एकान्त में बैठकर फूलों की माला गूँथनी शुरू की ।,एक क्षण में यशोदानन्दनजी चक्रधर को लिए हुए कमरे में आये । वागीश्वरी ओर अहल्या दोनो खड़ी हो गयीं ।,एक क्षण में यशोदानन्दनजी चक्रधर को लिए हुए कमरे में आये ।,वागीश्वरी और अहिल्या दोनों खड़ी हो गयीं । चकघधर--नौकरी करने की तो मेरी इच्छा ही नहीं दे |,वागीश्वरी और अहिल्या दोनों खड़ी हो गयीं ।,चक्रधर-नौकरी करने की तो मेरी इच्छा ही नहीं है । "वागीश्वरी--ओऔर जब विवाह हो जायगा, तत्र क्या करोगे ?",चक्रधर-नौकरी करने की तो मेरी इच्छा ही नहीं है ।,"वागीश्वरी-और जब विवाह हो जायगा, तब क्या करोगे ?" "चक्रधर--उस उक्त सिर पर जो आयेगी, देखी जायगी ।","वागीश्वरी-और जब विवाह हो जायगा, तब क्या करोगे ?","चक्रधर-उस वक्त सिर पर जो आयेगी, देखी जायगी ।" चक्रधर पिठाइयों खाने लगे |,"चक्रधर-उस वक्त सिर पर जो आयेगी, देखी जायगी ।",चक्रधर मिठाइयाँ खाने लगे । "इतने में महरी ने आऊर कहा--बडी बहूजी, मेरे लाला को रात से खाँसी आ रही है, तिल-भर भी नहीं रुकनी, कोई दवाई दे दो ।",चक्रधर मिठाइयाँ खाने लगे ।,"इतने में महरी ने आकर कहा-बड़ी बहूजी, मेरे लाला को रात से खाँसी आ रही है; तिल भर नहीं रुकती, दवाई दे दो ।" वागीश्वरी दवा देने चलो गयी ।,"इतने में महरी ने आकर कहा-बड़ी बहूजी, मेरे लाला को रात से खाँसी आ रही है; तिल भर नहीं रुकती, दवाई दे दो ।",वागीश्वरी दवा देने चली गयी । "अदल्या--वह उपहार नहीं, भक्त की भेंठ है ।",वागीश्वरी दवा देने चली गयी ।,"अहिल्या-यह उपहार नहीं, भक्त की भेंट है ।" अहल्या--आपने आ्राज इस शहर के हिन्दू सात्र की लाज रख ली ।,"अहिल्या-यह उपहार नहीं, भक्त की भेंट है ।",अहिल्या-आपने आज इस शहर के हिंदू मात्र की लाज रख ली । चक्रघर को भी लोगों ने उस पंचायत का एक ओम्बर बनाया ।,अहिल्या-आपने आज इस शहर के हिंदू मात्र की लाज रख ली ।,चक्रधर को लोगों ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया । "व गीएबरी--मै दिल्लगी नहीं कर रही हूँ, सचमुच पूछती हूँ ।",चक्रधर को लोगों ने उस पंचायत का एक मेम्बर बनाया ।,"वागीश्वरी-मैं दिल्लगी नहीं कर रही हूँ, सचमुच पूछती हूँ ।" "कोन जाने, राजी हो जायें ।","वागीश्वरी-मैं दिल्लगी नहीं कर रही हूँ, सचमुच पूछती हूँ ।","कौन जाने, राजी हो जायें ।" "इनके पेस और कुछु हो या न हो, हृदय अवशः है ।","कौन जाने, राजी हो जायें ।","उनके पास और कुछ हो या न हो, हृदय अवश्य है ।" "उनके दोस्तों में यही ऐसे थे, जिसपर लौंगी की असीम कृपा दटि थी |","उनके पास और कुछ हो या न हो, हृदय अवश्य है ।","उनके दोस्तों में यही ऐसे थे, जिस पर लौगी की असीम कृपादृष्टि थी ।" बिना हर्र फिटकरी रग चोज्ा हो जाता था ।,"उनके दोस्तों में यही ऐसे थे, जिस पर लौगी की असीम कृपादृष्टि थी ।",बिना हर्र-फिटकरी रंग चोखा हो जाता था । एक कहार भी नोकर रख लिया ओर ठाकुर साहब के घर से दो चार कुरत्ियोँ उठवा लाये ।,बिना हर्र-फिटकरी रंग चोखा हो जाता था ।,एक कहार भी नौकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो-चार कुर्सियाँ उठवा लाए । "बह महारानी के पय्टीदार थे ओर इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर- चाकर, घोड़ा-याड़ो, सभी कुछ ४ पड़ता था |",एक कहार भी नौकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो-चार कुर्सियाँ उठवा लाए ।,"वह महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी सभी कुछ रखना पड़ता था ।" "निर्मेला--जो थ्ाग में कृदेगा, आप जलेगा, मुझे कथा करना है ।","वह महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी सभी कुछ रखना पड़ता था ।","निर्मला-जो आग में कूदेगा, आप जलेगा, मुझे क्या करना है ।" निर्मेला-दोपटर तक तो लौट आओगे न ?,"निर्मला-जो आग में कूदेगा, आप जलेगा, मुझे क्या करना है ।",निर्मला-दोपहर तक लौट आओगे न ? "हाँ, इसका वादा करता हूँ कि स्थासत मिलने के साल भर बाद मर कौढ़ी कोड़ी सूद के साथ चुका दूँगा ।",निर्मला-दोपहर तक लौट आओगे न ?,"हाँ, इसका वादा करता हूँ कि रियासत मिलने के साल भर बाद कौड़ी-कौड़ी सूद के साथ चुका दूँगा ।" ये बला के चघड हीते हैं ।,"हाँ, इसका वादा करता हूँ कि रियासत मिलने के साल भर बाद कौड़ी-कौड़ी सूद के साथ चुका दूँगा ।",ये बला के चीमड़ होते हैं । "सेरा वश चले, तो आज इन सर्वो को तोप पर उड़ा दूँ ।",ये बला के चीमड़ होते हैं ।,"मेरा वश चले, तो आज इन सबों को तोप पर उड़ा दूँ ।" "पिताजी ने केवल पॉच हजार लिये थे, जिनके पचास इजार हो गये ।","मेरा वश चले, तो आज इन सबों को तोप पर उड़ा दूँ ।","पिताजी ने केवल पाँच हजार लिए थे, जिनके पचास हजार हो गये ।" पिताजी का मुझे यह श्रन्तिम उपदेश था कि कर्ज ऊमी मत लेना ।,"पिताजी ने केवल पाँच हजार लिए थे, जिनके पचास हजार हो गये ।",पिताजी का मुझे यह अन्तिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना । "बह अपनी सपत्नियो पर उसी भाँति शासन करना चाइतो थी, जैमे फोई सास अयनी बहुओ पर करती है ।",पिताजी का मुझे यह अन्तिम उपदेश था कि कर्ज कभी मत लेना ।,"वह अपनी सपत्नियों पर उसी भाँति शासन करना चाहती थीं, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर करती है ।" "वह यह भूल जाती थी कि ये उनकी बहुएँ नही, सपक्ियोँ हैं |","वह अपनी सपत्नियों पर उसी भाँति शासन करना चाहती थीं, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर करती है ।","वह यह भूल जाती थीं कि ये उनकी बहुएँ नहीं, सपत्नियाँ हैं ।" यह रानी जगदोशपुर की सगी बहन भी |,"वह यह भूल जाती थीं कि ये उनकी बहुएँ नहीं, सपत्नियाँ हैं ।",यह रानी जगदीशपुर की सगी बहन थीं । वह घर मे इस तरह रहती थी मानों थीं ही नहीं ।,यह रानी जगदीशपुर की सगी बहन थीं ।,"वह घर में इस तरह रहती थीं, मानो थी ही नहीं ।" उन्हें यह श्रसह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतो से चुत चीत भी करें ।,"वह घर में इस तरह रहती थीं, मानो थी ही नहीं ।",उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतों से बातचीत भी करें । जरा भी शरम-लिहाज नहीं कि बाहर कोन वैठा हुआथ्रा है ।,उन्हें यह असह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतों से बातचीत भी करें ।,जरा भी शरमलिहाज नहीं कि बाहर कौन बैठा हुआ है । "बसुपती--कर्म तो तुमने किये हैं, भोगेगा कोन ?",जरा भी शरमलिहाज नहीं कि बाहर कौन बैठा हुआ है ।,"वसुमती-कर्म तो तुमने किए हैं, भोगेगा कौन ?" यह निश्चय किये बिना आप यहाँ से न जाने पायेंगे ।,"वसुमती-कर्म तो तुमने किए हैं, भोगेगा कौन ?",यह निश्चय किए बिना आप यहां से न जाने पायेंगे । रशेहिणी--सुना आपने ?,यह निश्चय किए बिना आप यहां से न जाने पायेंगे ।,रोहिणी-सुना आपने ? "ऐसे ही न्वायशील होते, तो सन्‍्तान का मुँह देखने को न तरसते ! ठाकुर साहब को ये शब्द वाण-से लगे |",रोहिणी-सुना आपने ?,ऐसे ही न्यायशील होते तो संतान का मुँह देखने को न तरसते! ठाकुर साहब को ये शब्द बाण-से लगे । मुशीजी से च्रोले--ज्योतिष की भविष्यवाणी के विषय में झपके क्‍या विचार है |,ऐसे ही न्यायशील होते तो संतान का मुँह देखने को न तरसते! ठाकुर साहब को ये शब्द बाण-से लगे ।,मुंशीजी से बोले-ज्योतिष की भविष्यवाणी के विषय में आपके क्या विचार हैं ? ज्योतिष के धनी कइने पर भी सम्भव है कि मैं जिन्दगी मर कौडियों की मुहृताज रहूँ |,मुंशीजी से बोले-ज्योतिष की भविष्यवाणी के विषय में आपके क्या विचार हैं ?,ज्योतिष के धनी कहने पर भी सम्भव है कि मैं जिंदगी भर कौड़ियों को मोहताज रहूँ । "बहुत दिनो से मगल का ब्रत भी रखते थे, लेकिन इन अनुग़ना पर अप उन्हें विश्वास न था |",ज्योतिष के धनी कहने पर भी सम्भव है कि मैं जिंदगी भर कौड़ियों को मोहताज रहूँ ।,"बहुत दिनों से मंगल का व्रत भी रखते थे, लेकिन इन अनुष्ठानों पर अब उन्हें विश्वास न था ।" "बोले- यदि आय यहाँ के किसी विद्वान ज्योतिषी से परेचित हों, तो कृत करके उन्हें मेरे यहाँ भेज दोरजि 'एगा ।","बहुत दिनों से मंगल का व्रत भी रखते थे, लेकिन इन अनुष्ठानों पर अब उन्हें विश्वास न था ।","बोले-यदि आप यहाँ के किसी विद्वान् ज्योतिषी से परिचित हों, तो कृपा करके उन्हें मेरे यहाँ भेज दीजिएगा ।" "मुथशी--आ्राज ही लीजिए, यहाँ एक से एक बढकर ज्योतिषी पढ़े हुए हैं ।","बोले-यदि आप यहाँ के किसी विद्वान् ज्योतिषी से परिचित हों, तो कृपा करके उन्हें मेरे यहाँ भेज दीजिएगा ।","मुंशी-आज ही लीजिए, यहाँ एक से एक बढ़कर ज्योतिषी पड़े हुए हैं ।" "मैं तो जैसे सहारानीनी को समभता हूँ, वैसे दी श्रापको भी समभता हूँ ।","मुंशी-आज ही लीजिए, यहाँ एक से एक बढ़कर ज्योतिषी पड़े हुए हैं ।","मैं तो जैसे महारानीजी को समझता हूँ, वैसे ही आपको भी समझता हूँ ।" मुशी-आप इससे निश्चिन्त रहें |,"मैं तो जैसे महारानीजी को समझता हूँ, वैसे ही आपको भी समझता हूँ ।",मुंशी-आप इससे निश्चित रहें । ठाकुर-- जरा इसका भी पता लगाइएगा कि श्राजकल उनका भोजन कौन बनाता ड्डै ।,मुंशी-आप इससे निश्चित रहें ।,ठाकुर-जरा इसका भी पता लगाइएगा कि आजकल उनका भोजन कौन बनाता है । मैं गीदड़ की भाँति स्वार्थ के लिए बीच में कृदना अपमान-जनक सममभता हूँ ।,ठाकुर-जरा इसका भी पता लगाइएगा कि आजकल उनका भोजन कौन बनाता है ।,मैं गीदड़ की भाँति अपने स्वार्थ के लिए बीच में कूदना अपमानजनक समझता हूँ । "बात बनाते हुए बोले--नहीं, नहीं, मेरा मतलब आपने गलत समझा) छीः ! मे इतना नीच नहीं ।",मैं गीदड़ की भाँति अपने स्वार्थ के लिए बीच में कूदना अपमानजनक समझता हूँ ।,"बात बनाते हुए बोले-नहीं, नहीं, मेरा मतलब आपने गलत समझा ! छी:! छी:! मैं इतना नीच नहीं ।" "मैं केदल इसलिए पूछुता था कि नया रसोइया , है या नहीं ।","बात बनाते हुए बोले-नहीं, नहीं, मेरा मतलब आपने गलत समझा ! छी:! छी:! मैं इतना नीच नहीं ।",मैं केवल इसलिए पूछता था कि नया रसोइया कुलीन है या नहीं । "इतने में हिरिया ने आकर मुशीजी से कह्द--बाबा, मालकिन ने कहा है कि श्राप लगें, तो मुझसे मिल लीजिएगा ।",मैं केवल इसलिए पूछता था कि नया रसोइया कुलीन है या नहीं ।,"इतने में हिरिया ने आकर मुंशीजी से कहा-बाबा, मालकिन ने कहा है कि आप जाने लगें तो मुझसे मिल लीजिएगा ।" "जा, अन्द्र बैठ ! यह कह कर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए,, मानो मुशी जी को विदा कर रहे हैं |","इतने में हिरिया ने आकर मुंशीजी से कहा-बाबा, मालकिन ने कहा है कि आप जाने लगें तो मुझसे मिल लीजिएगा ।","जा, अन्दर बैठ! यह कहकर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए मानो मुंशीजी को विदा कर रहे हैं ।" "वह इतने खुश ये, [हवा में उड़े जा रहे हैं ।","जा, अन्दर बैठ! यह कहकर ठाकुर साहब उठ खड़े हुए मानो मुंशीजी को विदा कर रहे हैं ।","वह इतने खुश थे, मानो हवा में उड़े जा रहे हैं ।" चक्रघर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुँच चुकी थी |,"वह इतने खुश थे, मानो हवा में उड़े जा रहे हैं ।",सात चक्रधर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुँच चुकी थी । नगर तभ्य सम्ताज मुक्तकंठ से उनकी तारीफ कर रहा था ।,सात चक्रधर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुँच चुकी थी ।,नगर का सभ्य समाज मुक्त कंठ से उनकी तारीफ कर रहा था । यत्रपे चक्रघर गभीर आदमी पर अपनी कीति की प्रशंसा से उन्हें सच्चा आनन्द मिल रहा था ।,नगर का सभ्य समाज मुक्त कंठ से उनकी तारीफ कर रहा था ।,"यद्यपि चक्रधर गंभीर आदमी थे, पर अपनी कीर्ति की प्रशंसा से उन्हें सच्चा आनन्द मिल रहा था ।" पानी से कपड़े लथपथ हो गये ये |,"यद्यपि चक्रधर गंभीर आदमी थे, पर अपनी कीर्ति की प्रशंसा से उन्हें सच्चा आनन्द मिल रहा था ।",पानी से कपड़े लथपथ हो गये थे । "उन्हें देखते ही हारा फेककर दीड़ी और प.स आकर बोली--आ्राप कब आये, बाबूजी ?",पानी से कपड़े लथपथ हो गये थे ।,"उन्हें देखते ही हजारा फेंककर दौड़ी और पास आकर बोली-आप कब आये, बाबूजी ?" "मुझे तो यही धुन थी कि इस वक्त कुर्बानी न होने दूँगा, इसके सिवा दिल मे और कोई खयाल न था ।","उन्हें देखते ही हजारा फेंककर दौड़ी और पास आकर बोली-आप कब आये, बाबूजी ?","मुझे तो यही धुन थी कि इस वक्त कुरबानी न होने दूँगा, इसके बिना दिल में और खयाल न था ।" "क्षमा कीनिएगा, में उस समय वहाँ होतो, तो शआापको पकडकर खींच लाती |","मुझे तो यही धुन थी कि इस वक्त कुरबानी न होने दूँगा, इसके बिना दिल में और खयाल न था ।","क्षमा कीजिएगा, मैं उस समय वहाँ होती, तो आपको पकड़कर खींच लाती ।" ठाठट से रहना ही सम्पता नहीं |,"क्षमा कीजिएगा, मैं उस समय वहाँ होती, तो आपको पकड़कर खींच लाती ।",ठाट से रहना ही सभ्यता नहीं । "मनोरमा--( मुस्फराकर ) अच्छा, अगर इस वक्त आपको पॉच लाख रुपए मिल जायें, तो थ्राप ले या न लें ?",ठाट से रहना ही सभ्यता नहीं ।,"मनोरमा--(मुस्कराकर) अच्छा, अगर इस वक्त आपको पाँच लाख रुपए मिल जायें तो आप लें या न लें ?" उसी तरह वह भी आपके सामने आकर खड़ो हो गयी होंगी श्रोर खड़ी- खड़ी चली गयी होंगी ।,"मनोरमा--(मुस्कराकर) अच्छा, अगर इस वक्त आपको पाँच लाख रुपए मिल जायें तो आप लें या न लें ?",उसी तरह वह भी आपके सामने आकर खड़ी हो गयी होंगी और खड़ी-खड़ी चली गयी होंगी । "चकधर शरम से सिर फुकाकर बोले--हाँ, मनो समा, हुआ तो ऐसा ही ।",उसी तरह वह भी आपके सामने आकर खड़ी हो गयी होंगी और खड़ी-खड़ी चली गयी होंगी ।,"चक्रधर शरम से सिर झुकाकर बोले-हाँ, मनोरमा, हुआ तो ऐसा ही ।" उसने दो एक वार कुछ बोलने का साहस भी किया |,"चक्रधर शरम से सिर झुकाकर बोले-हाँ, मनोरमा, हुआ तो ऐसा ही ।",उसने दो बार कुछ बोलने का साहस भी किया । आप मुझसे बता नहीं रहे हैँ ।,उसने दो बार कुछ बोलने का साहस भी किया ।,आप मुझसे बता नहीं रहे । "कर्तव्य स्थागी है, उसमें कभी परिवरतंन नहीं होता |",आप मुझसे बता नहीं रहे ।,"कर्त्तव्य स्थायी है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता ।" "मनोरमा--हाँ, लेकिन श्रादर्श आदर्श ही रहता है, यथार्थ नद्दीं हो सकता |","कर्त्तव्य स्थायी है, उसमें कभी परिवर्तन नहीं होता ।","मनोरमा-हाँ, लेकिन आदर्श आदर्श ही रहता है, यथार्थ नहीं हो सकता ।" उसका वन चत्े तो वह पति का मुँह तक न देखे |,"मनोरमा-हाँ, लेकिन आदर्श आदर्श ही रहता है, यथार्थ नहीं हो सकता ।",उसका बस चले तो वह पति का मुँह तक न देखे । माता अपने ऊुूप बालक को भी सुन्दर समझती है |,उसका बस चले तो वह पति का मुँह तक न देखे ।,माता अपने कुरूप बालक को भी सुन्दर समझती है । मै यही कहना चाहा था कि सुन्दरता के विषय में सब्र की राय एक-सी नहीं हो सकदी ।,माता अपने कुरूप बालक को भी सुन्दर समझती है ।,मैं यही कहना चाहता था कि सुन्दरता के विषय में सबकी राय एक-सी नहीं हो सकती । मनोरमा--आप फिर मांगने लगे ।,मैं यही कहना चाहता था कि सुन्दरता के विषय में सबकी राय एक-सी नहीं हो सकती ।,मनोरमा-आप फिर भागने लगे । "सहसा धर के अन्दर से किती के ककंश शब्द कान में आये, फिर लौंगी का रोना सुनायी दिया |",मनोरमा-आप फिर भागने लगे ।,"सहसा घर के अन्दर से किसी के कर्कश शब्द कान में आये, फिर लौंगी का रोना सुनाई दिया ।" चक्रघर ने पूछा--यह तो लौंगी रो रही है ?,"सहसा घर के अन्दर से किसी के कर्कश शब्द कान में आये, फिर लौंगी का रोना सुनाई दिया ।",चक्रधर ने पूछा-यह लौंगी रो रही है ? हैं तो मेरे सगे भाई और पढे-लिखे भी खूब हैं; शेकिन भलमनसी छू भी नहीं गयी ।,चक्रधर ने पूछा-यह लौंगी रो रही है ?,"हैं तो सगे भाई और पढ़े-लिखे भी खूब हैं, लेकिन भलमनसी छू भी नहीं गयी ।" "जब आते है, लौंगी अ्रम्मों से कूठ-मूठ तकरार करते हैं ।","हैं तो सगे भाई और पढ़े-लिखे भी खूब हैं, लेकिन भलमनसी छू भी नहीं गयी ।","जब आते हैं, लौंगी अम्माँ से झूठमूठ तकरार करते हैं ।" "लम्बे, छुरहरे एवं रूपवान्‌ थे, आँखों पर ऐनक थी, मुँह में पान का बीड़ा, देह पर तनजेत्र का कुरता, माँग निकली हुई |","जब आते हैं, लौंगी अम्माँ से झूठमूठ तकरार करते हैं ।","लंबे, छरहरे एवं रूपवान् थे; आँखों पर ऐनक थी, मुँह में पान का बीड़ा, देह पर तनजेब का कुर्ता, माँग निकली हुई ।" "बोले- महाशय, इससे यह पूछिए कि श्रत्र यह बुढ़िया हुईं, इसके मरने के दिन आये, क्रयों नहीं किसी तीथस्थान में जाकर अपने कल्लुबरत जीवन के बचे हुए, दिन काटती ?","लंबे, छरहरे एवं रूपवान् थे; आँखों पर ऐनक थी, मुँह में पान का बीड़ा, देह पर तनजेब का कुर्ता, माँग निकली हुई ।","बोले-महाशय, इससे यह पूछिए कि अब यह बुढ़िया हुई, इसके मरने के दिन आये, क्यों नहीं किसी तीर्थ-स्थान में जाकर अपने कलुषित जीवन के बचे हुए दिन काटती ?" "मैंने दादाजी से कह था कि इसे बृन्दावन पहुँचा दीजिए, ओर वह तैयार भी हो गये थे; पर इसने सैकड़ों बहाने किये ओर वहाँ न गयी ।","बोले-महाशय, इससे यह पूछिए कि अब यह बुढ़िया हुई, इसके मरने के दिन आये, क्यों नहीं किसी तीर्थ-स्थान में जाकर अपने कलुषित जीवन के बचे हुए दिन काटती ?",मैंने दादाजी से कहा था कि इसे वृन्दावन पहुँचा दीजिए और वह तैयार भी हो गये थे; पर इसने सैकड़ों बहाने किए और वहाँ न गयी । इसक्रे घर में रहते हुए इस किस भले श्रादमी के द्वार पर जा सकते हूं |,मैंने दादाजी से कहा था कि इसे वृन्दावन पहुँचा दीजिए और वह तैयार भी हो गये थे; पर इसने सैकड़ों बहाने किए और वहाँ न गयी ।,इसके घर में रहते हुए हम किस भले आदमी के द्वार पर जा सकते हैं ? थ्राज मैं निश्चय करके आया हूँ. कि इसे घर के बाहर निकाशनकर दी छोड़ेंगा ।,इसके घर में रहते हुए हम किस भले आदमी के द्वार पर जा सकते हैं ?,आज मैं निश्चय करके आया हूँ कि इसे घर के बाहर निकालकर ही छोडूँगा । "लीगी--तो त्रच्चा सुनो, जत्र तक मालिक जीता है, लौंगी इसी घर में रहेगी श्र इसी तरह रहेगी ।",आज मैं निश्चय करके आया हूँ कि इसे घर के बाहर निकालकर ही छोडूँगा ।,"लौंगी-तो बच्चा, सुनो, जब तक मालिक जीता है, लौंगी इसी घर में रहेगी और इसी तरह रहेगी ।" "जब वढ न रहेगा, तो जो कुछ सिर पर पढ़ेगी, केल लगी |","लौंगी-तो बच्चा, सुनो, जब तक मालिक जीता है, लौंगी इसी घर में रहेगी और इसी तरह रहेगी ।","जब वह न रहेगा, तो जो कुछ सिर पर पड़ेगी, झेल लूँगी ।" खायी है कभी उसकी बनायो हुई कोई चीन ?,"जब वह न रहेगा, तो जो कुछ सिर पर पड़ेगी, झेल लूँगी ।",खाई है कभी उसकी बनाई हुई कोई चीज ? मनोरमा चुपचाप पिर भ्कुकाये दोनों को बातें सुन रहो थी ।,खाई है कभी उसकी बनाई हुई कोई चीज ?,मनोरमा चुपचाप सिर झुकाए दोनों की बातें सुन रही थी । "मातृ स्नेह का जो कुछु खुख उसे मिला था, लौंगी ही से मिला था |",मनोरमा चुपचाप सिर झुकाए दोनों की बातें सुन रही थी ।,"मातृस्नेह का जो कुछ सुख उसे मिला था, लौंगी से ही मिला था ।" "इस,लए गुरुसेवकर्तिह की यह निर्दुयता उसे बहुत बुरी मालूम होती थी ।","मातृस्नेह का जो कुछ सुख उसे मिला था, लौंगी से ही मिला था ।",इसलिए गुरुसेवकसिंह की यह निर्दयता उसे बहुत बुरी मालूम होती थी । "प्रुश्किल से एक आदमी ऐसा निकलता है, जो थैयं से काम ले ।",इसलिए गुरुसेवकसिंह की यह निर्दयता उसे बहुत बुरी मालूम होती थी ।,"मुश्किल से एक आदमी ऐसा निकलता है, जो धैर्य से काम ले ।" "ह्वो, में आपके साथ चलने को तैयार हूँ ।","मुश्किल से एक आदमी ऐसा निकलता है, जो धैर्य से काम ले ।","हां, मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ ।" गुरसेवक--क्या आप लौंगी का यहाँ रहना श्रनुचित नहीं समभते ?,"हां, मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ ।",गुरुसेवक-क्या आप लौंगी का यहाँ रहना अनुचित नहीं समझते ? "गुरुसेवकर्सिह वहाँ न होते, तो वह जरूर कह उठती-आप मेरे मुँह से बात ले गये ।",गुरुसेवक-क्या आप लौंगी का यहाँ रहना अनुचित नहीं समझते ?,गुरुसेवकसिंह वहाँ न होते तो वह जरूर कह उठती-आप मेरे मुँह से बात ले गये । गुरु- सेवकर्तिंह भी उनके पीछे-पीछे चले ।,गुरुसेवकसिंह वहाँ न होते तो वह जरूर कह उठती-आप मेरे मुँह से बात ले गये ।,गुरुसेवकसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले । "जब वह चले गये, तो मनोर्मा बोली--आपने मेरे मन को बात कद्दी ।",गुरुसेवकसिंह भी उनके पीछे-पीछे चले ।,"जब वह चले गये, तो मनोरमा बोली-आपने मेरे मन की बात कही ।" इस बवृद्धावस्था में भी उनकी विलास-ब्त्ति श्रणुमात्र भी कम न हुई थी ।,"जब वह चले गये, तो मनोरमा बोली-आपने मेरे मन की बात कही ।",इस वृद्धावस्था में भी उनकी विलास वृत्ति अणुमात्र भी कम न हुई थी । "हमारी कर्मेन्द्रियाँ मते ही जर्जर हो जायें, चेष्टाएँ तो इद्ध नहीं होती! कहते हैं, बुद्रापा मरी हुई अ्रभिलाषाओ की समाधि है, या पुराने पापो का पश्चाचाप, पर रानी देवप्रिया का बुढापा अ्रतृत्त तृष्णा थी और अपूर्ण विलासाराधना |",इस वृद्धावस्था में भी उनकी विलास वृत्ति अणुमात्र भी कम न हुई थी ।,"हमारी कर्मेन्द्रियाँ भले ही जर्जर हो जायें, चेष्टाएँ तो वृद्ध नहीं होती! कहते हैं, बुढ़ापा मरी हुई अभिलाषाओं की समाधि है या पुराने पापों का पश्चात्ताप; पर रानी देवप्रिया का बुढ़ापा अतृप्त तृष्णा थी और अपूर्ण विलासाराधना ।" परलोक की उन्हें कमी भूलकर भी याद न श्राती थी ।,"हमारी कर्मेन्द्रियाँ भले ही जर्जर हो जायें, चेष्टाएँ तो वृद्ध नहीं होती! कहते हैं, बुढ़ापा मरी हुई अभिलाषाओं की समाधि है या पुराने पापों का पश्चात्ताप; पर रानी देवप्रिया का बुढ़ापा अतृप्त तृष्णा थी और अपूर्ण विलासाराधना ।",परलोक की उन्हें कभी भूलकर भी याद न आती थी । इस पूजा श्रौर अत के सिवा वह इस महान्‌ उद्देश्य को पूरा करने के लिए मॉँति भाँति के रसों और पुष्टिकारक औपधियों का सेवन करती रहती थी ।,परलोक की उन्हें कभी भूलकर भी याद न आती थी ।,इस पूजा और व्रत के सिवा वह इस महान् उद्देश्य को पूरा करने के लिए भाँति-भाँति के रसों और पुष्टिकारक औषधियों का सेवन करती रहती थीं । "कुर्रियोँ मिणने और रग को चमकाने के लिए भी कितने ही प्रकार के पाउडरों, उपटनों श्र तेलों से काम लिया जाता था |",इस पूजा और व्रत के सिवा वह इस महान् उद्देश्य को पूरा करने के लिए भाँति-भाँति के रसों और पुष्टिकारक औषधियों का सेवन करती रहती थीं ।,"झुर्रियाँ मिटाने और रंग को चमकाने के लिए कितने ही प्रकार के पाउडरों, उबटनों और तेलों से काम लिया जाता था ।" बद्घावस्था उनके लिए नरक से कम भयक्लर न थी ।,"झुर्रियाँ मिटाने और रंग को चमकाने के लिए कितने ही प्रकार के पाउडरों, उबटनों और तेलों से काम लिया जाता था ।",वृद्धावस्था उनके लिए नरक से कम भयंकर न थी । "उन्हें निस पप्तय जितने घन की जरूरत हो, उतना तुरन्त देना मैनेजर का काम था |",वृद्धावस्था उनके लिए नरक से कम भयंकर न थी ।,"उन्हें जिस समय जितने धन की जरूरत हो, उतना तुरन्त देना मैनेजर का काम था ।" रानी की अ्रतियि-शाला हमेशा आवाद रहती थी ।,"उन्हें जिस समय जितने धन की जरूरत हो, उतना तुरन्त देना मैनेजर का काम था ।",रानी की अतिथिशाला हमेशा आबाद रहती थी । उनकी रसप्यी कल्तना प्रेस के आधात-प्रत्याघःत से एक विशेष स्कूर्ति का अनुभत्र करती थी ।,रानी की अतिथिशाला हमेशा आबाद रहती थी ।,उनकी रसमयी कल्पना प्रेम के आघात-प्रत्याघात से एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव करती थी । एक दिन ठाकुर हरिप्तेवकरसिह मनोरमा को रानी साहब के पास ले गये ।,उनकी रसमयी कल्पना प्रेम के आघात-प्रत्याघात से एक विशेष स्फूर्ति का अनुभव करती थी ।,एक दिन ठाकुर हरिसेवकसिंह मनोरमा को रानी साहब के पास ले गये । रानी उसे देखकर मोहित हो गृथीं |,एक दिन ठाकुर हरिसेवकसिंह मनोरमा को रानी साहब के पास ले गये ।,रानी उसे देखकर मोहित हो गयीं । वह किसी कारण से न श्राती तो उसे बुला भेजतीं |,रानी उसे देखकर मोहित हो गयीं ।,"वह किसी कारण से न आती, तो उसे बुला भेजतीं ।" हरिसित्रक सिह का उद्देश्य कदाचित्‌ यही था कि वहाँ मनोरमा को रईसो ओर राज- कुम्ारों को आकर्षित करने का मौका मिलेगा ।,"वह किसी कारण से न आती, तो उसे बुला भेजतीं ।",हरिसेवकसिंह का उद्देश्य कदाचित् यही था कि वहाँ मनोरमा को रईसों और राजकुमारों को आकर्षित करने का मौका मिलेगा । "रानी साहत्र को आज कुछ ज्र था, चेश गिरी हुईं थी, सिर उठाने को जी न चाहता था, पर पड़े रहने का अव- सर न था |",हरिसेवकसिंह का उद्देश्य कदाचित् यही था कि वहाँ मनोरमा को रईसों और राजकुमारों को आकर्षित करने का मौका मिलेगा ।,"रानी साहब को आज कुछ ज्वर था, चेष्टा गिरी हुई थी, सिर उठाने को जी न चाहता था; पर पड़े रहने का अवसर न था ।" अग्र वह लेटी न रह सकी; सेमलकर उठी; आलमारी में से एक शीशी निकाली |,"रानी साहब को आज कुछ ज्वर था, चेष्टा गिरी हुई थी, सिर उठाने को जी न चाहता था; पर पड़े रहने का अवसर न था ।",अब वह लेटी न रह सकीं; सँभलकर उठीं; आलमारी में से एक शीशी निकाली । गुजराती---आप कमी इनाम तो देती नही ।,अब वह लेटी न रह सकीं; सँभलकर उठीं; आलमारी में से एक शीशी निकाली ।,गुजराती-आप कभी इनाम तो देतीं नहीं । "बस, बखान करके रह जाती हैं ! रानी--श्रच्छा, च्ता क्‍या लेगी ?",गुजराती-आप कभी इनाम तो देतीं नहीं ।,"बस, बखान करके रह जाती हैं ! रानी-अच्छा, बता क्या लेगी ?" मैं कूला-घर में जाती हूँ ।,"बस, बखान करके रह जाती हैं ! रानी-अच्छा, बता क्या लेगी ?",मैं जरा घर में जाती हूँ । "यह एक विशाल भवन था, बहुत ऊँचा और इतना लम्बा-चोड़ा कि भूले पर बैठकर खूब पँंग ली जा सकती यी |",मैं जरा घर में जाती हूँ ।,"यह एक विशाल भवन था, बहुत ऊँचा और इतना लम्बा-चौड़ा कि झूले पर बैठकर खूब पेंगें ली जा सकती थीं ।" रानी--बड़ी देर लगायी ! तेरी राह देखते-देखते आँखें थक गयीं |,"यह एक विशाल भवन था, बहुत ऊँचा और इतना लम्बा-चौड़ा कि झूले पर बैठकर खूब पेंगें ली जा सकती थीं ।",रानी-बड़ी देर लगाई! तेरी राह देखते-देखते आँखें थक गयीं । "आ, तत्र तक कोई गीत सुना ।",रानी-बड़ी देर लगाई! तेरी राह देखते-देखते आँखें थक गयीं ।,"आ, तब तक कोई गीत सुना ।" "रानी--अच्छा, बता, ससार मे सबसे अश्रमूल्य रत्न कौन-सा है ?","आ, तब तक कोई गीत सुना ।","रानी-अच्छा बता, संसार में सबसे अमूल्य रत्न कौन-सा है ?" "देख, सबसे इली बात हे--कटाक्ष करने की फला में निपुण होना ।","रानी-अच्छा बता, संसार में सबसे अमूल्य रत्न कौन-सा है ?","देख, सबसे पहली बात है, कटाक्ष करने की कला में निपुण होना ।" "चतुर खिलाड़ी एक बॉस की छुड़ी से वह काम कर सकता है, दूसरे सगीन और वनन्‍्दूक से भी नहीं कर सकते |","देख, सबसे पहली बात है, कटाक्ष करने की कला में निपुण होना ।","चतुर खिलाड़ी एक बाँस की छड़ी से वह काम कर सकता है, जो दूसरे संगीन और बन्दूक से भी नहीं कर सकते ।" उसे रानी की रसिकता पर कुतृ्‌इल हो रहा ! ।,"चतुर खिलाड़ी एक बाँस की छड़ी से वह काम कर सकता है, जो दूसरे संगीन और बन्दूक से भी नहीं कर सकते ।",उसे रानी की रसिकता पर कुतूहल हो रहा था । "वह कितनी ही वार यहाँ आयी थी, पर रानी को कमी इतना मदमत्त न पाया था |",उसे रानी की रसिकता पर कुतूहल हो रहा था ।,वह कितनी ही बार यहाँ आयी थी; पर रानी को कभी इतना मदमत्त न पाया था । "हों, इन तरह ।",वह कितनी ही बार यहाँ आयी थी; पर रानी को कभी इतना मदमत्त न पाया था ।,"हाँ, इस तरह ।" यह कहकर रानी ने मनोरमा को शकुणिविलास ओर लोचन कटाक्ष का ऐसा बौशल दिखाया कि मनोरमा का अशान मन भी एक क्षण के लिए चचल हो डठा ।,"हाँ, इस तरह ।",यह कहकर रानी ने मनोरमा को भ्रकुटि-विलास और लोचन-कटाक्ष का ऐसा कौशल दिखाया कि मनोरमा का अज्ञात मन भी एक क्षण के लिए चंचल हो उठा । "कयाक्ष में कितनी उत्तेजक शक्ति है, इसका कुछ अ्रन॒प्तान हो गया ।",यह कहकर रानी ने मनोरमा को भ्रकुटि-विलास और लोचन-कटाक्ष का ऐसा कौशल दिखाया कि मनोरमा का अज्ञात मन भी एक क्षण के लिए चंचल हो उठा ।,"कटाक्ष में कितनी उत्तेजक शक्ति है, इसका कुछ अनुमान हो गया ।" राजकुमार अ्रब भी नहीं आये ?,"कटाक्ष में कितनी उत्तेजक शक्ति है, इसका कुछ अनुमान हो गया ।",राजकुमार अब भी नहीं आये ? "जल्द आना, नही तो मै गिर पड्ढँ गी ! मत्ोरमा दवा लाने गयी, तो राजकुमार इन्द्रविक्रमसिंद को मोटर से उतरते देखा ।",राजकुमार अब भी नहीं आये ?,"जल्द आना, नहीं तो मैं गिर पडूँगी ! मनोरमा दवा लाने गयी, तो राजकुमार इन्द्रविक्रम को मोटर से उतरते देखा ।" कोई ३० वर्ष की अवस्था थी |,"जल्द आना, नहीं तो मैं गिर पडूँगी ! मनोरमा दवा लाने गयी, तो राजकुमार इन्द्रविक्रम को मोटर से उतरते देखा ।",कोई तीस वर्ष की अवस्था थी । "मुख से सयम, तेज ओर संकल्प कन्क रहा था |",कोई तीस वर्ष की अवस्था थी ।,"मुख से संयम, तेज और संकल्प झलक रहा था ।" "ऊ चा कद था, गोरा रग, चौड़ी छाती ऊँथा मस्तक, श्राँखों में इतनी चमक और तेजी थी कि दृदय में चुभ जाती थी ।","मुख से संयम, तेज और संकल्प झलक रहा था ।","ऊंचा कद था, गोरा रंग, चौड़ी छाती, ऊँचा मस्तक, आँखों में इतनी चमक और तेजी थी कि हृदय में चुभ जाती थी ।" वह उठकर भूले पर घा बैठी ।,"ऊंचा कद था, गोरा रंग, चौड़ी छाती, ऊँचा मस्तक, आँखों में इतनी चमक और तेजी थी कि हृदय में चुभ जाती थी ।",वह उठकर झूले पर जा बैठीं । भूला घीरे धीरे कूलने लगा ।,वह उठकर झूले पर जा बैठीं ।,झूला धीरे-धीरे झूलने लगा । एक क्षण मे राजकुमार ने मूले-घर में प्रवेश किया |,झूला धीरे-धीरे झूलने लगा ।,एक क्षण में राजकुमार ने झूलाघर में प्रवेश किया । "जड़ रानी--जी नहीं, प्रतीक्षा नैराश्य को योद में विश्राम कर रही है ।",एक क्षण में राजकुमार ने झूलाघर में प्रवेश किया ।,"रानी-जी नहीं, प्रतीक्षा नैराश्य की गोद में विश्राम कर रही है ।" इतने देर क्‍यों राह दिखायी ?,"रानी-जी नहीं, प्रतीक्षा नैराश्य की गोद में विश्राम कर रही है ।",इतनी देर क्यों राह दिखाई ? हि राजकुमार-मेरा अपराध नहीं |,इतनी देर क्यों राह दिखाई ?,राजकुमार-मेरा अपराध नहीं । ते आते तो मैं क्या कर लेतो ?,राजकुमार-मेरा अपराध नहीं ।,न आते तो मैं क्या कर लेती ? आज रात-भर केद रखूंगी |,न आते तो मैं क्या कर लेती ?,आज रात भर कैद रखूँगी । राजऊमार--मेरे कठोर हाथ उन्हें स्पश करने-योग्य नहीं हैं ।,आज रात भर कैद रखूँगी ।,राजकुमार-मेरे कठोर हाथ उन्हें स्पर्श करने योग्य नहीं हैं । राजः कुमार का देव-स्वरूप हो उनकी वासना-चूत्ति को लजित कर रहा था ।,राजकुमार-मेरे कठोर हाथ उन्हें स्पर्श करने योग्य नहीं हैं ।,राजकुमार का देव स्वरूप ही उनकी वासना-वृत्ति को लज्जित कर रहा था । उन्हें ऐसा मालूम हो रह था कि इतकी ऑवें मेरे ममस्थल में छुभी जा रही हं ।,राजकुमार का देव स्वरूप ही उनकी वासना-वृत्ति को लज्जित कर रहा था ।,उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि इनकी आँखें मेरे मर्मस्थल में चुभी जा रही हैं । वह उन तीत नेत्रों से बचना चाहती थी |,उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि इनकी आँखें मेरे मर्मस्थल में चुभी जा रही हैं ।,वह उन तीव्र नेत्रों से बचना चाहती थीं । उन्होंने मुस्कराकर कहां“ गुलेधि से विंदा डुआा पौधा लू के कोंके न सह सकेगा ।,वह उन तीव्र नेत्रों से बचना चाहती थीं ।,उन्होंने मुस्कराकर कहा-गुलाब से सिंचा हुआ पौधा लू के झोंके न सह सकेगा । श्रत्र आपके मुँह से केवल यह सुनना चाइता हूँ कि आपने मेरी भेंट स्वीकार कर ली ?,उन्होंने मुस्कराकर कहा-गुलाब से सिंचा हुआ पौधा लू के झोंके न सह सकेगा ।,अब आपके मुँह से केवल यह सुनना चाहता हूँ कि आपने मेरी भेंट स्वीकार कर ली ? श्र मैं अपने योवनकाल की चित्र-मात्र हूँ ।,अब आपके मुँह से केवल यह सुनना चाहता हूँ कि आपने मेरी भेंट स्वीकार कर ली ?,अब मैं अपने यौवनकाल का चित्र-मात्र हूँ । "उनका चेहरा पीला पड़ गया, ऊ्ररियाँ दिखायी देने लगों ।",अब मैं अपने यौवनकाल का चित्र-मात्र हूँ ।,"उनका चेहरा पीला पड़ गया, झुर्रियाँ दिखाई देने लगीं ।" "राजकुमार से गम्भीर भाव से कह्य--हाँ प्रिये, में ही था ।","उनका चेहरा पीला पड़ गया, झुर्रियाँ दिखाई देने लगीं ।","राजकुमार ने गम्भीर भाव से कहा-हाँ प्रिये, मैं ही था ।" "तुम्हें याद है, हम झौर ठुम इसी जगदद, इती हौज के किनारे शाम को चैठा करते थे ?","राजकुमार ने गम्भीर भाव से कहा-हाँ प्रिये, मैं ही था ।","तुम्हें याद है, हम और तुम इसी जगह, हौज के किनारे शाम को बैठा करते थे ?" आइने की गर्द साफ़ हो गयी ।,"तुम्हें याद है, हम और तुम इसी जगह, हौज के किनारे शाम को बैठा करते थे ?",आयीने की गर्द साफ हो गयी । उसे कुछ-कुछ सन्देद्द हो रद्दा था कि में सो तो नहीं रही हूँ ।,आयीने की गर्द साफ हो गयी ।,उसे कुछ-कुछ सन्देह हो रहा था कि मैं सो तो नहीं रही हूँ । "कितने हो ऐसे जीव दिखायी दिये, जिनके सामने यहाँ सत्मान मस्तक झुकर्ता था, वहाँ उनका नग्न स्वरूप देखकर उनसे घृणा होती थी ।",उसे कुछ-कुछ सन्देह हो रहा था कि मैं सो तो नहीं रही हूँ ।,"कितने ही ऐसे जीव दिखाई दिए, जिनके सामने यहाँ सम्मान से मस्तक झुकता था, वहाँ उनका नग्न स्वरूप देखकर उनसे घृणा होती थी ।" सदसा एक दिन मैं मी लुप्त हो गया |,"कितने ही ऐसे जीव दिखाई दिए, जिनके सामने यहाँ सम्मान से मस्तक झुकता था, वहाँ उनका नग्न स्वरूप देखकर उनसे घृणा होती थी ।",सहसा एक दिन मैं लुप्त हो गया । वहाँ मै कई वैज्ञा नेे परीक्षाएँ करता रहा ।,सहसा एक दिन मैं लुप्त हो गया ।,वहाँ मैं कई वैज्ञानिक परीक्षाएँ करता रहा । "मैने सोचा था, विशान द्वारा जीव का तत्व निकाल लूँगा, पर सात वर्षा तक अनवरत परिश्रम करने पर -भी मनोरथ न पूरा हुआ |",वहाँ मैं कई वैज्ञानिक परीक्षाएँ करता रहा ।,"मैंने सोचा था, विज्ञान द्वारा जीव का तत्त्व निकाल लूँगा; पर सात वर्षों तक अनवरत परिश्रम करने पर भी मनोरथ न पूरा हुआ ।" एक दिन मैं बर्लिन की ग्रधान प्रयोगशाला में बैठा हुआ यद्दी सोच रहा था कि एक तिब्बती मिक्तु श्रा निकला |,"मैंने सोचा था, विज्ञान द्वारा जीव का तत्त्व निकाल लूँगा; पर सात वर्षों तक अनवरत परिश्रम करने पर भी मनोरथ न पूरा हुआ ।",एक दिन मैं बर्लिन की प्रधान प्रयोगशाला में बैठा हुआ यही सोच रहा था कि एक तिब्बती भिक्षु आ निकला । "मुझे चिन्तित देखकर वह एक क्षण गेरी ओर ताकता रह्य, फिर बोला--वाल्ू से मोती नहीं निकलते, भौतिक ज्ञान से आत्मा का शान नहीं भाप्त होता |",एक दिन मैं बर्लिन की प्रधान प्रयोगशाला में बैठा हुआ यही सोच रहा था कि एक तिब्बती भिक्षु आ निकला ।,"मुझे चिंतित देखकर वह एक क्षण मेरी ओर ताकता रहा फिर बोला-बालू से मोती नहीं निकलते, भौतिक ज्ञान से आत्मा का ज्ञान नहीं प्राप्त होता ।" भिह्तु ने हेंसकर कह्द--आपके मन की इच्छा तो आपके मुख पर लिसी हुई है ।,"मुझे चिंतित देखकर वह एक क्षण मेरी ओर ताकता रहा फिर बोला-बालू से मोती नहीं निकलते, भौतिक ज्ञान से आत्मा का ज्ञान नहीं प्राप्त होता ।",भिक्षु ने हँसकर कहा-आपके मन की इच्छा तो आपके मुख पर लिखी हुई है । मेरे मन में बात वैठ गयी ।,भिक्षु ने हँसकर कहा-आपके मन की इच्छा तो आपके मुख पर लिखी हुई है ।,मेरे मन में बात बैठ गयी । अ्रन्त में उसी के साथ तिब्बत चलने की 5हरी |,मेरे मन में बात बैठ गयी ।,अन्त में उसी के साथ तिब्बत चलने की ठहरी । "मेरे मित्रों को वह बात मालूम हुई, तो वे भी मेरे साथ चलने पर तैयार ह्वे -अये ।",अन्त में उसी के साथ तिब्बत चलने की ठहरी ।,मेरे मित्रों को यह बात मालूम हुई तो वे भी मेरे साथ चलने पर तैयार हो गये । लेकिन शेप पॉचों मित्रो ने तो पाली और संस्कृत के ऐसे-ऐसे अन्थ रतन खोज निकाले कि उन्हें यहाँ ते ले जाना कठिन दो गया |,मेरे मित्रों को यह बात मालूम हुई तो वे भी मेरे साथ चलने पर तैयार हो गये ।,लेकिन शेष चारों मित्रों ने तो पाली और संस्कृत के ऐसे-ऐसे ग्रन्थ खोज निकाले कि उन्हें यहाँ से ले जाना कठिन हो गया । "शरू-ऋतु थी, जलाशय हम से ढक गये थे ।",लेकिन शेष चारों मित्रों ने तो पाली और संस्कृत के ऐसे-ऐसे ग्रन्थ खोज निकाले कि उन्हें यहाँ से ले जाना कठिन हो गया ।,शरद-ऋतु थी; जलाशय हिम से ढक गये थे । मेरे मित्र लोग तो पहले हो चले गये थे |,शरद-ऋतु थी; जलाशय हिम से ढक गये थे ।,मेरे मित्र लोग तो पहले ही चले गये थे । अ्रकेला मैं ही रह गया था |,मेरे मित्र लोग तो पहले ही चले गये थे ।,अकेला मैं ही रह गया था । "सामने फा दृश्य अत्यन्त मनोरम था, मानो स्व का द्वार खुला हुआ है |",अकेला मैं ही रह गया था ।,"सामने का दृश्य अत्यन्त मनोरम था, मानो स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है ।" उसका वलान करना उसका अपमःन करना है |,"सामने का दृश्य अत्यन्त मनोरम था, मानो स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है ।",उसका बखान करना उसका अपमान करना है । "मेरे मन में उनके दर्शनों की तीन उत्करठा हुई, पर मेरे लिए ऊपर चढना असाव्य था |",उसका बखान करना उसका अपमान करना है ।,"मेरे मन में उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई, पर मेरे लिए ऊपर चढ़ना असाध्य था ।" मेरा मन कह रहा था कि इन्ही से ठुके श्मशान प्राप्त दोगा ।,"मेरे मन में उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई, पर मेरे लिए ऊपर चढ़ना असाध्य था ।",मेरा मन कह रहा था कि इन्हीं से तुझे आत्मज्ञान प्राप्त होगा । एक वर्ष गुजर गया श्रोर महात्माजी के दशन न हुए ।,मेरा मन कह रहा था कि इन्हीं से तुझे आत्मज्ञान प्राप्त होगा ।,एक वर्ष गुजर गया और महात्माजी के दर्शन न हुए । "वहाँ की सुरम्थता अजीण हो गयी, वह कप्नीय प्राकृतिक छुटा आँखों में खटकने लगी |",एक वर्ष गुजर गया और महात्माजी के दर्शन न हुए ।,"वहां की सुरम्यता अजीर्ण हो गयी, वह कमनीय प्राकृतिक छटा आँखों में खटकने लगी ।" "विवश होकर स्व में भी रहना पड़े, तो वह नरक-उुल्प हो जाय ।","वहां की सुरम्यता अजीर्ण हो गयी, वह कमनीय प्राकृतिक छटा आँखों में खटकने लगी ।",विवश होकर स्वर्ग में भी रहना पड़े तो वह नरक-तुल्य हो जाय । "में अकेला था, न कोई यन्त्र, न सन्‍्त्र, न कोई रक़ुक, न प्रद्शक, मोजन का भी ठिकाना नहीं, प्रा्यों पर खेलना था ।",विवश होकर स्वर्ग में भी रहना पड़े तो वह नरक-तुल्य हो जाय ।,"मैं अकेला था; न कोई यंत्र, न मंत्र, न कोई रक्षक, न प्रदर्शक; भोजन का भी ठिकाना नहीं, प्राणों पर खेलना था ।" इतनी कुशल थी कि गरमी के दिन आ गये थे |,"मैं अकेला था; न कोई यंत्र, न मंत्र, न कोई रक्षक, न प्रदर्शक; भोजन का भी ठिकाना नहीं, प्राणों पर खेलना था ।",इतनी कुशल थी कि गर्मी के दिन आ गये थे । इधर-उधर बहुत निगाह दौड़ायी; पर ऐसा कोई उतार न दिखायी दिया जहाँ से उतरकर दरें को पार कर सकता |,इतनी कुशल थी कि गर्मी के दिन आ गये थे ।,"इधर-उधर बहुत निगाह दौड़ाई, पर ऐसा कोई उतार न दिखाई दिया, जहाँ से उतरकर दर्रे को पार कर सकता ।" संयोग से एक जगह दोनों ओर दो छोटे-छोटे इच्त दिखायो दिये ।,"इधर-उधर बहुत निगाह दौड़ाई, पर ऐसा कोई उतार न दिखाई दिया, जहाँ से उतरकर दर्रे को पार कर सकता ।",संयोग से एक जगह दोनों ओर दो छोटे-छोटे वृक्ष दिखाई दिए । वार-चार पूरा जोर लगाकर लंगर फ्रेंकता था; पर लंगर चहाँ तक्‌ न पहुँचता था ।,संयोग से एक जगह दोनों ओर दो छोटे-छोटे वृक्ष दिखाई दिए ।,बार-बार पूरा जोर लगाकर लंगर फेंकता था; पर लंगर वहाँ तक न पहुँचता था । "दर्रे के किनारे और चद्यान में केवल एक बालिरित, और कहीं-कहीं एक हाथ का श्रन्तर था ।",बार-बार पूरा जोर लगाकर लंगर फेंकता था; पर लंगर वहाँ तक न पहुँचता था ।,"दर्रे के किनारे और चट्टान में केवल एक बालिश्त, और कहीं-कहीं एक हाथ का अन्तर था ।" "चद्यान से चिमट-चिमठकर चलता हुआ दो-तोन अणटों के बाद मैं एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचा, जहां चद्ान की तेजी चहुत कम द्वो गयी थी ।","दर्रे के किनारे और चट्टान में केवल एक बालिश्त, और कहीं-कहीं एक हाथ का अन्तर था ।","चट्टान से चिमट-चिमटकर चलता हुआ, दो-तीन घंटों के बाद मैं एक ऐसे स्थान पर जा पहुंचा, जहां चट्टान की तेजी बहुत कम हो गयी थी ।" व्यर्थ प्राण खोये |,"चट्टान से चिमट-चिमटकर चलता हुआ, दो-तीन घंटों के बाद मैं एक ऐसे स्थान पर जा पहुंचा, जहां चट्टान की तेजी बहुत कम हो गयी थी ।",व्यर्थ प्राण खोए । इतना ज ही से तो उद्धार न होगा कि में पूर्व जन्म मे क्या था |,व्यर्थ प्राण खोए ।,इतना जानने ही से तो उद्धार न होगा कि मैं पूर्वजन्म में क्या था । यद्दी सोचते-सोचते न-जाने कब मेरी खेतना वा अपहरण हो गया ।,इतना जानने ही से तो उद्धार न होगा कि मैं पूर्वजन्म में क्या था ।,यही सोचते-सोचते न जाने कब मेरी चेतना का अपहरण हो गया । जीव अनन्त है ।,यही सोचते-सोचते न जाने कब मेरी चेतना का अपहरण हो गया ।,जीव अनन्त है । आपमें श्रमानुषीय शक्ति है ।,जीव अनन्त है ।,आपमें अमानुषीय शक्ति है । यह तो साधारण मनुष्य भी श्रम्याथ से कर: सकता है ।,आपमें अमानुषीय शक्ति है ।,यह तो साधारण मनुष्य भी अभ्यास से कर सकता है । आरा पूर्व-जन्म में मेशा ही नाम डारविन था ।,यह तो साधारण मनुष्य भी अभ्यास से कर सकता है ।,पूर्व जन्म में मेरा ही नाम डारविन था । अब प्राय-शास्र का खोजी हूँ ।,पूर्व जन्म में मेरा ही नाम डारविन था ।,अब प्राणशास्त्र का खोजी हूँ । "में कुर्तीं से उठ बैठा और मद्दात्माजी के चरणों पर झ्ुक्ने लगा, किन्तु उन्होंने मुझे रोककर कहा - ठम सु्े_ शिलाओं पर चलते देखकर विस्मित हो गये, पर वह समय आा रहा है, जब आनेवाली ज्यति जल, स्थल और आकाश में समान रीति से चल सकेगी ।",अब प्राणशास्त्र का खोजी हूँ ।,"मैं फुर्ती से उठ बैठा और महात्माजी के चरणों पर झुकने लगा; कितु उन्होंने मुझे रोककर कहा-तुम मुझे शिलाओं पर चलते देख विस्मित हो गये, पर वह समय आ रहा है, जब आने वाली जाति जल, स्थल और आकाश में समान रीति से चल सकेगी ।" "महत्मा--नहीं, में पहले ही कह चुका कि मै योगी नहीं, अगोगी हूँ ।","मैं फुर्ती से उठ बैठा और महात्माजी के चरणों पर झुकने लगा; कितु उन्होंने मुझे रोककर कहा-तुम मुझे शिलाओं पर चलते देख विस्मित हो गये, पर वह समय आ रहा है, जब आने वाली जाति जल, स्थल और आकाश में समान रीति से चल सकेगी ।","महात्मा-नहीं, मैं पहले ही कह चुका कि मैं योगी नहीं, प्रयोगी हूँ ।" "ठमने तो विज्ञन पदा है, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि सम्पूर्ण ब्रह्मारड विद्यत्‌ का अपार सागर है ।","महात्मा-नहीं, मैं पहले ही कह चुका कि मैं योगी नहीं, प्रयोगी हूँ ।","तुमने तो विज्ञान पढ़ा है, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विद्युत का अपार सागर है ।" आपका जूठन मैं मी खा लूशा ।,"तुमने तो विज्ञान पढ़ा है, क्या तुम्हें मालूम नहीं कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड विद्युत का अपार सागर है ।",आपका जूठन मैं भी खा लूँगा । महात्मा (ँसकर) अभी नहीं खा सकते |,आपका जूठन मैं भी खा लूँगा ।,महात्मा-(हँसकर) अभी नहीं खा सकते । श्रमी तुम्हारी पाचन-शक्ति इतनी चलवान नहीं है ।,महात्मा-(हँसकर) अभी नहीं खा सकते ।,अभी तुम्हारी पाचन-शक्ति इतनी बलवान नहीं है । "जब वह शक्ति हमे भोजन करने की श्रपेज्ञा कही आसानों से मिल सकती है, तो उदर को क्यों अनावश्यक वस्तुओं से भरें ।",अभी तुम्हारी पाचन-शक्ति इतनी बलवान नहीं है ।,जब वह शक्ति हमें भोजन करने की अपेक्षा कहीं आसानी से मिल सकती है तो उदर को क्यों अनावश्यक वस्तुओं से भरें ? भोजन करते ही मेरी आँखें खुल सी गयीं ।,जब वह शक्ति हमें भोजन करने की अपेक्षा कहीं आसानी से मिल सकती है तो उदर को क्यों अनावश्यक वस्तुओं से भरें ?,भोजन करते ही मेरी आँखें खुल-सी गयीं । यह भोजन करके तो मुझे ऐसा मालूम होने लया कि मै श्राकाश में उड़ सकता है |,भोजन करते ही मेरी आँखें खुल-सी गयीं ।,यह भोजन करके तो मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि मैं आकाश में उड़ सकता हूँ । लम्बाई उसकी चोगुनी थी ।,यह भोजन करके तो मुझे ऐसा मालूम होने लगा कि मैं आकाश में उड़ सकता हूँ ।,लम्बाई उसकी चौगुनी थी । ऊँची इतनी कि हमारे ऊँचे-से-ऊँचे मोनार भी उसके पेट में समा सकते ये ।,लम्बाई उसकी चौगुनी थी ।,ऊँची इतनी कि हमारे ऊँचे-ऊँचे मीनार भी उसके पेट में समा सकते थे । जरा ओर आगे वढा तो सगीत की ध्वनि कानों में आयी ।,ऊँची इतनी कि हमारे ऊँचे-ऊँचे मीनार भी उसके पेट में समा सकते थे ।,जरा और आगे बढ़ा तो संगीत की ध्वनि कानों में आयी । "मनोयोग की जटिल क्रियाश्रों द्वारा जो सिद्धि बरसों में प्रास होती थी, वह अब च्षर्खों में हो जाती है ।",जरा और आगे बढ़ा तो संगीत की ध्वनि कानों में आयी ।,"मनोयोग की जटिल क्रियाओं द्वारा जो सिद्धि बरसों में प्राप्त होती थी, वह अब क्षणों में हो जाती है ।" "भद्दात्माजी पर इन शब्दों का वही श्रसर पड़ा, जो मैं चाहता था ।","मनोयोग की जटिल क्रियाओं द्वारा जो सिद्धि बरसों में प्राप्त होती थी, वह अब क्षणों में हो जाती है ।","महात्माजी पर इन शब्दों का वही असर पड़ा, जो मैं चाहता था ।" मुमे विश्वास है कि शीघ्र ही मेरी चत्धलोक को यात्रा सफल होगी |,"महात्माजी पर इन शब्दों का वही असर पड़ा, जो मैं चाहता था ।",मुझे विश्वास है कि शीघ्र ही मेरी चन्द्रलोक की यात्रा सफल होगी । यूरप के वैज्ञानिकों की तैयारियों देख-देखकर मुझे हँसी श्राती है ।,मुझे विश्वास है कि शीघ्र ही मेरी चन्द्रलोक की यात्रा सफल होगी ।,यूरोप के वैज्ञानिकों की तैयारियाँ देख-देखकर मुझे हंसी आती है । मैं--बह दिन हमारे लिए सोभाग्य ओर गत्र का होगा ।,यूरोप के वैज्ञानिकों की तैयारियाँ देख-देखकर मुझे हंसी आती है ।,मैं-वह दिन हमारे लिए सौभाग्य और गर्व का होगा । "में मर जाऊ गा, किन्तु इस गुप्त ज्ञान का प्रचार न करूँगा |",मैं-वह दिन हमारे लिए सौभाग्य और गर्व का होगा ।,"मैं मर जाऊँगा, किंतु इस गुप्त ज्ञान का प्रचार न करूँगा ।" "राजकुमार--वह दृश्य याद है, जत्र मे लताकुज्ञ में घास पर बेठा हुआ हुम्हें पुष्पाभूषणों से अलंकृत कर रहा था ?","मैं मर जाऊँगा, किंतु इस गुप्त ज्ञान का प्रचार न करूँगा ।","राजकुमार-वह दृश्य याद है, जब मैं लता-कुंज में घास पर बैठा हुआ तुम्हें पुष्पाभषणों से अलंकृत कर रहा था ?" राजकुमार- एक क्षण भे मेरी आँखें खुल गयीं ।,"राजकुमार-वह दृश्य याद है, जब मैं लता-कुंज में घास पर बैठा हुआ तुम्हें पुष्पाभषणों से अलंकृत कर रहा था ?",राजकुमार-एक क्षण में मेरी आँखें खुल गयीं । "पर जो कुछ देखा था, वह सब शआराँखों में फिर रह्म था, मानों बचपन की वातें हों ।",राजकुमार-एक क्षण में मेरी आँखें खुल गयीं ।,"पर जो कुछ देखा था, वह सब आँखों में फिर रहा था, मानो बचपन की बातें हों ।" महात्मा - वह अभी जीवित है |,"पर जो कुछ देखा था, वह सब आँखों में फिर रहा था, मानो बचपन की बातें हों ।",महात्मा-वह अभी जीवित है । मुझे अ्रच्र वहाँ एक एक क्षण एक-एक युग हो गया ।,महात्मा-वह अभी जीवित है ।,मुझे अब वहाँ एक-एक क्षण एक-एक युग हो गया । "तत्न मुझे गले से लगाकर , एक यान पर बैठा दिया ।",मुझे अब वहाँ एक-एक क्षण एक-एक युग हो गया ।,तब मुझे गले से लगाकर एक यान पर बैठा दिया । यान मुझे हरिद्वार पहुँचा कर आपही आप लोट गया ।,तब मुझे गले से लगाकर एक यान पर बैठा दिया ।,यान मुझे हरिद्वार पहुँचाकर आप-ही-आप लौट गया । महात्मा के अन्तिम शब्द भूल गये ओर मैं वहाँ तुमसे मिल गया ।,यान मुझे हरिद्वार पहुँचाकर आप-ही-आप लौट गया ।,महात्मा के अन्तिम शब्द भूल गये और मैं वहाँ तुमसे मिल गया । देवप्रिया ने उसका कोई उत्तर न दिया ।,महात्मा के अन्तिम शब्द भूल गये और मैं वहाँ तुमसे मिल गया ।,देवप्रिया ने इसका कोई उत्तर न दिया । फौन स्री इतनी सोभाग्यवती हुई है ?,देवप्रिया ने इसका कोई उत्तर न दिया ।,कौन स्त्री इतनी सौभाग्यवती हुई है ? श्रव मुझे किसी बात की अमिलाषा नहीं रही ।,कौन स्त्री इतनी सौभाग्यवती हुई है ?,अब मुझे किसी बात की अभिलाषा नहीं रही । "सम्मव है, इनकी दया-हष्टि मुझपर सदैव बनी रहे, लेकिन मे रमिवास की युवतियों को कोन मेँह दिखाऊँगी, जनता के सामने कैसे निकलेगी |",अब मुझे किसी बात की अभिलाषा नहीं रही ।,"सम्भव है, इनकी दया-दृष्टि मुझ पर सदैव बनी रहे, लेकिन मैं रनिवास की युवतियों को कौन मुँह दिखाऊँगी, जनता के सामने कैसे निकलूँगी ?" में रूप-सोन्दर्य का मूल्य जानता हूँ ओर उसका मुझपर कोई आकर्षण नहीं हो सकता |,"सम्भव है, इनकी दया-दृष्टि मुझ पर सदैव बनी रहे, लेकिन मैं रनिवास की युवतियों को कौन मुँह दिखाऊँगी, जनता के सामने कैसे निकलूँगी ?",मैं रूप-सौंदर्य का मूल्य जानता हूँ और उनका मुझ पर कोई आकर्षण नहीं हो सकता । "हाँ, ठ॒म्हारे सन्‍्तोष के लिए मुझे वह क्रियाएँ करनी पड़ेंगी, जो महात्माजी ने चलते-चलते वतायी थी ।",मैं रूप-सौंदर्य का मूल्य जानता हूँ और उनका मुझ पर कोई आकर्षण नहीं हो सकता ।,"हाँ, तुम्हारे संतोष के लिए मुझे वह क्रियाएँ करनी पड़ेंगी, जो महात्माजी ने चलते-चलते बताई थीं ।" "सम्मव है, तुम्हें राजभवन के बदले कसी वन में इच्तो के नीचे रहना पड़े, र्ल-जटित आभूषणों के बदले वन्य पुष्पो पर द्वी सन्‍्तोष करना पड़े |","हाँ, तुम्हारे संतोष के लिए मुझे वह क्रियाएँ करनी पड़ेंगी, जो महात्माजी ने चलते-चलते बताई थीं ।","सम्भव है, तुम्हें राजभवन के बदले किसी वन में वृक्षों के नीचे रहना पड़े, रत्न-जटित आभूषणों के बदले वन्य पुष्पों पर ही संतोष करना पड़े ।" इसो बीच में तुम यात्रा की तैयारियों कर लेना ।,"सम्भव है, तुम्हें राजभवन के बदले किसी वन में वृक्षों के नीचे रहना पड़े, रत्न-जटित आभूषणों के बदले वन्य पुष्पों पर ही संतोष करना पड़े ।",इसी बीच में तुम यात्रा की तैयारी कर लेना । मे अब एक कण के लिए भी आपको न छोड़गी ।,इसी बीच में तुम यात्रा की तैयारी कर लेना ।,मैं अब एक क्षण के लिए भी आपको न छोडूँगी । राणकुमार--थों चलने से लोगो के मन में भाँति-भॉति की शकाएँ होंगी ।,मैं अब एक क्षण के लिए भी आपको न छोडूँगी ।,राजकुमार-यों चलने से लोगों के मन में भांति-भांति की शंकाएँ होंगी । "इसलिए, तुम किसी तीथ॑-यात्रा - रानी ने बात काटकर कहां--मुझे अब लोक-निन्दा का भय नहीं है ।",राजकुमार-यों चलने से लोगों के मन में भांति-भांति की शंकाएँ होंगी ।,इसलिए तुम किसी तीर्थयात्रा.... रानी ने बात काटकर कहा-मुझे अब लोकनिंदा का भय नहीं है । अलोकिक बातो को समझने ऊे लिए अलोकिक बुद्धि चाहिए. ओर मैं इससे वश्चित हूँ ।,इसलिए तुम किसी तीर्थयात्रा.... रानी ने बात काटकर कहा-मुझे अब लोकनिंदा का भय नहीं है ।,अलौकिक बातों को समझने के लिए अलौकिक बुद्धि चाहिए और मैं इससे वंचित हूँ । "श्रभी बहुत दिन गुजरेंगे, जब मैं इस स्वप्त को यथाथ समभंगी ।",अलौकिक बातों को समझने के लिए अलौकिक बुद्धि चाहिए और मैं इससे वंचित हूँ ।,"अभी बहुत दिन गुजरेंगे, जब मैं इस स्वप्न को यथार्थ समझूगी ।" में तब तक कुँवर विशालसिंह को सूचना दे दूँ. कि वह श्राकर अपना राज्य सँमालें ।,"अभी बहुत दिन गुजरेंगे, जब मैं इस स्वप्न को यथार्थ समझूगी ।",मैं तब तक कुँवर विशालसिंह को सूचना दे दूं कि वह आकर अपना राज्य सँभालें । "कुँवर साहब लेटने गये, तो रानी ने विशालसिंह4के नाम पत्र लिखा -- कुबर विशालसिंदजी', इतने दिनों तक मायाजाल में फंसे रहने के बाद अब मेरा चित्त रुसार से विरक्त गया है ।",मैं तब तक कुँवर विशालसिंह को सूचना दे दूं कि वह आकर अपना राज्य सँभालें ।,"कुँवर साहब लेटने गये, तो रानी ने विशालसिंह के नाम पत्र लिखा : कुँवर विशालसिंहजी, इतने दिनों तक मायाजाल में फँसे रहने के बाद मेरा चित्त संसार से विरक्त हो गया है ।" किसी तीय॑ स्थान में ही अपने जीवन के शेष दिन कार्टगी ।,"कुँवर साहब लेटने गये, तो रानी ने विशालसिंह के नाम पत्र लिखा : कुँवर विशालसिंहजी, इतने दिनों तक मायाजाल में फँसे रहने के बाद मेरा चित्त संसार से विरक्त हो गया है ।",किसी तीर्थस्थान में ही अपने जीवन के शेष दिन काटूँगी । मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदूबुद्धि दे ओर आपकी की कोर्ति देश-देशान्तरों में फैलाये ! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे लिए इससे बढ़कर आनन्द को और कोई बात न होगी ।,किसी तीर्थस्थान में ही अपने जीवन के शेष दिन काटूँगी ।,मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह आपको सद्बुद्धि दे और आपकी कीर्ति देश-देशान्तरों में फैलाए ! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे लिए इससे बढ़कर आनन्द की और कोई बात न होगी । "इस समूह में से उसने खोजकर अपनी सोहाग की साड़ी निकाल ली, जिसे पहने आज २५ बंध हो गये ।",मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह आपको सद्बुद्धि दे और आपकी कीर्ति देश-देशान्तरों में फैलाए ! मैं आपको विश्वास दिलाती हूँ कि मेरे लिए इससे बढ़कर आनन्द की और कोई बात न होगी ।,"इस समूह में से उसने खोजकर अपनी सोहाग की साड़ी निकाल ली, जिसे पहने आज पच्चीस वर्ष हो गये ।" फिर वह अपने आभूषणो की कोठरी मे गयी ।,"इस समूह में से उसने खोजकर अपनी सोहाग की साड़ी निकाल ली, जिसे पहने आज पच्चीस वर्ष हो गये ।",फिर वह अपने आभूषणों की कोठरी में गयी । "गुजराती--सरकार नहीं खोयी, तो में कैसे सोती ?",फिर वह अपने आभूषणों की कोठरी में गयी ।,"गुजराती-सरकार नहीं सोईं, तो मैं कैसे सोती ?" ! मुझे मी साथ ले चलिएगा ?,"गुजराती-सरकार नहीं सोईं, तो मैं कैसे सोती ?",""" ""मुझे भी साथ ले चलिएगा ?" "बता, तुमे क्‍या उपहार दूँ ?",""" ""मुझे भी साथ ले चलिएगा ?","बता, तुझे क्या उपहार दूँ ?" "अपने कऋष्ण से कह दें, ग्ाढ़ी-मर बस्तन भेज दें ।","बता, तुझे क्या उपहार दूँ ?","अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी भर बरतन भेज दें ।" "मंगवान्‌ सब दुख दें, पर बुरी संगत न दें ।","अपने कृष्ण से कह दें, गाड़ी भर बरतन भेज दें ।","भगवान सब दु:ख दें, पर बुरी संगत न दें ।" "जाकर वाहर कह्द दे, वकवान प्रसाद किसी हलवाई से बनवा ले ।","भगवान सब दु:ख दें, पर बुरी संगत न दें ।","जाकर बाहर कह दें, पकवान, प्रसाद किसी हलवाई से बनवा लें ।" विशालसिंह--छमसे तो बारतार कह्द कि उनके मुँह न लगा करो ।,"जाकर बाहर कह दें, पकवान, प्रसाद किसी हलवाई से बनवा लें ।",विशालसिंह-तुमसे तो बार-बार कहा कि उसके मुँह न लगा करो । "इन्हें मेरा रहना जहर लगता दे, तो क्या करूँ |",विशालसिंह-तुमसे तो बार-बार कहा कि उसके मुँह न लगा करो ।,"उन्हें मेरा रहना जहर लगता है, तो क्या करूँ ?" घर छोड़ फर निकल जाऊँ ?,"उन्हें मेरा रहना जहर लगता है, तो क्या करूँ ?",घर छोड़कर निकल जाऊँ ? न जाने क्‍यों तुम्हें ब्याह का शोक चराया था ।,घर छोड़कर निकल जाऊँ ?,न जाने क्यों तुम्हें ब्याह का शौक चर्राया था ? रह्दी लड़ाई-कगड़े की बात |,न जाने क्यों तुम्हें ब्याह का शौक चर्राया था ?,रही लड़ाई-झगड़े की बात । "साफसाफ कहते हो, फिर मुकरते क्‍यों हो ?",रही लड़ाई-झगड़े की बात ।,साफ-साफ कहते हो फिर मुकरते क्यों हो । मे स्वभाव से ही भगड़ालू हूँ ।,साफ-साफ कहते हो फिर मुकरते क्यों हो ।,मैं स्वभाव से ही झफड़ालू हूँ । "जो कुछ बचो-खुची, बह आपके सिर में हूं स दी गयी ।",मैं स्वभाव से ही झफड़ालू हूँ ।,"जो कुछ बची-खुची, वह आपके सिर में हूँस दी गयी ।" "सच कहता हूँ, जिन्दगी से तग आ गया |","जो कुछ बची-खुची, वह आपके सिर में हूँस दी गयी ।",सच कहता हूँ जिंदगी से तंग आ गया । यह ग्राग तुम्हीं लगा रही हो ।,सच कहता हूँ जिंदगी से तंग आ गया ।,यह सब आग तुम्हीं लगा रही हो । बसुमती--कह्ाँ सागकर जाओगे ?,यह सब आग तुम्हीं लगा रही हो ।,वसुमती-कहाँ भागकर जाओगे ? "विवाह क्या किया था, भोग विलास करने ए, या तुमसे कोई बड़ी सुन्दरी होगी ।",वसुमती-कहाँ भागकर जाओगे ?,"विवाह क्या किया था, भोग-विलास करने के लिए या तुमसे कोई बड़ी सुन्दरी होगी ?" "तुम उसके मन के हो, सारी जलन इसी बात की है ।","विवाह क्या किया था, भोग-विलास करने के लिए या तुमसे कोई बड़ी सुन्दरी होगी ?","तुम उसके मन के नहीं हो, सारी जलन इसी बात की है ।" "बस, उसका मिजाज और आस- पर चदू जाता दै ।","तुम उसके मन के नहीं हो, सारी जलन इसी बात की है ।","बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है ।" "दो दिन, चार दिन, दस दिन रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो ग बिल्ली हो जाती है या नहीं ।","बस, उसका मिजाज और आसमान पर चढ़ जाता है ।","दो दिन, चार दिन रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं ।" वसुमती-अओर क्‍या हो ?,"दो दिन, चार दिन रूठी पड़ी रहने दो, फिर देखो, भीगी बिल्ली हो जाती है या नहीं ।",वसुमती-और क्या हो ? विशालसिह--हँसकर नहीं कहता |,वसुमती-और क्या हो ?,विशालसिंह-हँसकर नहीं कहता । "डॉटता हूँ, फटकारता हूँ |",विशालसिंह-हँसकर नहीं कहता ।,"डाँटता हूँ, फटकारता हूँ ।" "बसुमती--डाँटते होंगे, मगर प्रेम के साथ |","डाँटता हूँ, फटकारता हूँ ।",वसुमती-डाँटते होगे; मगर प्रेम के साथ । कमी-कमी तुम्हारों लम्पटता पर मुझे हँसी आती है ।,वसुमती-डाँटते होगे; मगर प्रेम के साथ ।,कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता पर मुझे हँसी आती है । आदमी ने स्त्री की पूजा की कि वह उनकी श्राँखों से गिरा |,कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता पर मुझे हँसी आती है ।,आदमी ने स्त्री की पूजा की कि वह उनकी आँखों से गिरा । "रामप्रिया मुँह फेरकर मुस्करायी ओर बोली--बरहन, तुम सन्न गुर बताये देती हो, किसके माथे जायगी ?",आदमी ने स्त्री की पूजा की कि वह उनकी आँखों से गिरा ।,"रामप्रिया मुँह फेरकर मुस्कराई और बोली-बहन, तुम सब गुर बताए देती हो, किसके माथे जायगी ?" "आदमियों को बुलाओ, यह सामान यहाँ से ले जायें |","रामप्रिया मुँह फेरकर मुस्कराई और बोली-बहन, तुम सब गुर बताए देती हो, किसके माथे जायगी ?","आदमियों को बलाओ, यह सामान यहाँ से ले जायें ।" "मालूम होता था, प्रथ्वी पाताल में चली गयी है, या किसी विराट जन्तु ले उसे निगल लिया है |","आदमियों को बलाओ, यह सामान यहाँ से ले जायें ।","मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गयी है या किसी विराट जन्तु ने उसे निगल लिया है ।" मोमबत्तियों का प्रकाश उस तिमिर-सागर में पॉव रखते फॉपता था ।,"मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गयी है या किसी विराट जन्तु ने उसे निगल लिया है ।",मोमबत्तियों का प्रकाश तिमिर सागर में पाँव रखते काँपता था । मूर्ति की भाँति खडे रहे |,मोमबत्तियों का प्रकाश तिमिर सागर में पाँव रखते काँपता था ।,मूर्ति की भाँति खड़े रहे । "बेहया, निलंज तो है ही, कुछ पूछ और गालियाँ देने लगे, तो मुँह में ओर भी कालिख लग जाय ।",मूर्ति की भाँति खड़े रहे ।,"बेहया, निर्लज्ज तो है ही, कुछ पूढू और गालियाँ देने लगे, तो मुँह में और भी कालिख लग जाय ।" चक्रघर--किसे ?,"बेहया, निर्लज्ज तो है ही, कुछ पूढू और गालियाँ देने लगे, तो मुँह में और भी कालिख लग जाय ।",चक्रधर-किसे ? मेरा धर्म नहीं है कि मैं उसे मनाने जाऊं! शाप पक्के खार्यगी |,चक्रधर-किसे ?,मेरा धर्म नहीं है कि मैं उसे मनाने जाऊँ! आप धक्के खायेंगी । "महरी--क्या जानूँ, वाबूजी ?",मेरा धर्म नहीं है कि मैं उसे मनाने जाऊँ! आप धक्के खायेंगी ।,"महरी-क्या जानूँ, बाबूजी ?" अपने मा बाप को क्‍या कहूँ ।,"महरी-क्या जानूँ, बाबूजी ?",अपने माँ-बाप को क्या कहूँ ? ऐसा नीच क्रौर निर्दयी आदमी ससार में न होगा ।,अपने माँ-बाप को क्या कहूँ ?,ऐसा नीच और निर्दयी आदमी संसार में न होगा । रोहिणी--ठम पूछुनेवाले कीन होते हो ?,ऐसा नीच और निर्दयी आदमी संसार में न होगा ।,रोहिणी-तुम पूछने वाले कौन होते हो ? ज्री होने ही से बावली नहीं हो गयी हूँ ।,रोहिणी-तुम पूछने वाले कौन होते हो ?,स्त्री होने ही से बावली नहीं हो गयी हूँ । ८१ रोहिणी--जबरदस्ती रोकोगे ?,स्त्री होने ही से बावली नहीं हो गयी हूँ ।,रोहिणी-जबरदस्ती रोकोगे ? रोहिणी - सामने से हट जाओ |,रोहिणी-जबरदस्ती रोकोगे ?,रोहिणी-सामने से हट जाओ । "वह कहकर रोहिणो घर की ओर लौट पढ़ीः लेकिन चक्रधर का उसके ऊपर कहाँ तक अ्रसर पढ़ा और कहों तक स्वयम्‌ अपनी सहज वुद्धि का, इसका अनुमान कौन कर उक्ता है ।",रोहिणी-सामने से हट जाओ ।,"यह कहकर रोहिणी घर की ओर लौट पड़ी; लेकिन चक्रधर का उसके ऊपर कहाँ तक असर पड़ा और कहाँ तक स्वयं अपनी सहज बुद्धि का, इसका अनुमान कौन कर सकता है ?" "उसने अपनो टेक को मर्यादा की वेदी पर वलिदान कर दिया या; पर ८२ [ कायाकल्प इसके साथ ही उन व्यग्य वाक्यों की रचना भी करती थी, जिनसे वह कुँवर साइच का स्वागत करना चाहती थी ।","यह कहकर रोहिणी घर की ओर लौट पड़ी; लेकिन चक्रधर का उसके ऊपर कहाँ तक असर पड़ा और कहाँ तक स्वयं अपनी सहज बुद्धि का, इसका अनुमान कौन कर सकता है ?","उसने अपनी टेक को मर्यादा की वेदी पर बलिदान कर दिया था; पर उसके साथ ही उन व्यंग्य वाक्यों की रचना भी कर ली थी, जिससे वह कुँवर साहब का स्वागत करना चाहती थी ।" "जब्र दोनों आदमी घर पहुँचे, तो विशालसिंह श्रभी तक वहाँ मूर्तिबत्‌ खढ़े थे, महरी भी खढ़ी थी ।","उसने अपनी टेक को मर्यादा की वेदी पर बलिदान कर दिया था; पर उसके साथ ही उन व्यंग्य वाक्यों की रचना भी कर ली थी, जिससे वह कुँवर साहब का स्वागत करना चाहती थी ।","जब दोनों आदमी घर पहुँचे, तो विशालसिंह अभी तक वहाँ मूर्तिवत् खड़े थे, महरी भी खड़ी थी ।" "हाँ, मिजाज नाजुक है, बात वर्दश्ति नहीं कर सकतीं |","जब दोनों आदमी घर पहुँचे, तो विशालसिंह अभी तक वहाँ मूर्तिवत् खड़े थे, महरी भी खड़ी थी ।","हाँ, मिजाज नाजुक है; बात बर्दाश्त नहीं कर सकतीं ।" "श्रगर आप न पहुँच जाते, तो बढ़ो मुश्किल पड़ती |","हाँ, मिजाज नाजुक है; बात बर्दाश्त नहीं कर सकतीं ।",अगर आप न पहुँच जाते तो बड़ी मुश्किल पड़ती । आपका यह एड्सान कभी न भूलूँ गा ।,अगर आप न पहुँच जाते तो बड़ी मुश्किल पड़ती ।,आपका यह एहसान कभी न भूलूँगा । आगे आगे दो घोड़ों पर मुशी वज्जघर और ठाकुर इस्सिवकसिंह ये ।,आपका यह एहसान कभी न भूलूँगा ।,आगे-आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरिसेवकसिंह थे । ठाकुर साहब भी हिन्दु- स्तानी लिवास में थे ।,आगे-आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरिसेवकसिंह थे ।,ठाकुर साहब भी हिंदुस्तानी लिबास में थे । "मुशीजी खुशी से मुख्कशते ये, पर ठाकुर साइव का मुख मलिन था ।",ठाकुर साहब भी हिंदुस्तानी लिबास में थे ।,"मुंशीजी खुशी से मुस्कराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था ।" कु वर साहव ने एक ही निगाह में उसे आशद्योपांत पढ़ लिया ओर उनके मुख पर मन्द हास्य की आभा भलकने लगी ।,"मुंशीजी खुशी से मुस्कराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था ।",कुँवर साहब ने एक ही निगाह में आद्योपांत पढ़ लिया और उनके मुख पर मंद हास्य की आभा झलकने लगी । "में इस समय यह भी जता देना अ्रपना कर्तव्य समझता हूँ कि मै श्रत्याचार का घोर शत्रु हूँ और ऐए३ंे महापुरुषों को, जो प्रजा पर अत्याचार करने के अम्यस्त हो रहे है, मुझसे जरा भी नर्र्म की आशा न रखनी चाहिए ।",कुँवर साहब ने एक ही निगाह में आद्योपांत पढ़ लिया और उनके मुख पर मंद हास्य की आभा झलकने लगी ।,"मैं इस समय यह भी जता देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि मैं अत्याचार का घोर शत्रु हूँ और ऐसे महापुरुषों को, जो प्रजा पर अत्याचार करने के अभ्यस्त रहे हैं, मुझसे जरा भी नरमी की आशा न रखनी चाहिए ।" सच्से कान खड़े हो गये और इरि सेवक को तो ऐसा मालूम हुआ कि यह निशाना म॒ुझी पर दे |,"मैं इस समय यह भी जता देना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि मैं अत्याचार का घोर शत्रु हूँ और ऐसे महापुरुषों को, जो प्रजा पर अत्याचार करने के अभ्यस्त रहे हैं, मुझसे जरा भी नरमी की आशा न रखनी चाहिए ।",सबके कान खड़े हो गये और हरिसेवक को तो ऐसा मालूम हुआ कि यह निशाना मुझी पर है । "खैर, ब्योदी पर पहुँचा तो सन्नाठा छाया हुआ था ।",सबके कान खड़े हो गये और हरिसेवक को तो ऐसा मालूम हुआ कि यह निशाना मुझी पर है ।,"खैर, ड्योढ़ी पर पहुँचा तो सन्नाटा छाया हुआ था ।" सभी कर्मचारी मुँह फेस्फेरकर हँसते ये ।,"खैर, ड्योढ़ी पर पहुँचा तो सन्नाटा छाया हुआ था ।",सभी कर्मचारी मुँह फेर-फेरकर हँसते थे । "जो लोग बाहर चले गये थे, वे भी यह ताण्डव-हवत्य देखने के लिए आ पहुँचे ।",सभी कर्मचारी मुँह फेर-फेरकर हँसते थे ।,"जो लोग बाहर चले गये थे, वे भी यह तांडव नृत्य देखने के लिए आ पहुँचे ।" नाचते नाचते आनन्द से विह्लल होकर मुशीजी गाने लगे |,"जो लोग बाहर चले गये थे, वे भी यह तांडव नृत्य देखने के लिए आ पहुँचे ।",नाचते-नाचते आनंद से विह्वल होकर मुंशीजी गाने लगे । "उनका उछुलकर आगे जाना, फिर उछुलकर पीछे आना, झुकना और सुना, आर एक एक अग को फेरना वास्तव में आझाश्वयंजनक था ।",नाचते-नाचते आनंद से विह्वल होकर मुंशीजी गाने लगे ।,"उनका उछलकर आगे जाना, फिर उछलकर पीछे आना, झुकना और मुड़ना, और एक-एक अंग को फेरना वास्तव में आश्चर्यजनक था ।" इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त श्रा पहुँचा ।,"उनका उछलकर आगे जाना, फिर उछलकर पीछे आना, झुकना और मुड़ना, और एक-एक अंग को फेरना वास्तव में आश्चर्यजनक था ।",इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त आ पहुँचा । घर तक न गये ।,इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त आ पहुँचा ।,घर तक न गये । में किसीकी बुराई न करूँगा ।,घर तक न गये ।,मैं किसी की बुराई न करूँगा । ८७ विशालसिंह--आपको पुरानी कया मालूम नहीं |,मैं किसी की बुराई न करूँगा ।,विशालसिंह-आपको पुरानी कथा मालूम नहीं । इसने मुझपर बड़े-बड़े जुल्म किये हैं |,विशालसिंह-आपको पुरानी कथा मालूम नहीं ।,इसने मुझ पर बड़े-बड़े जुल्म किए हैं । ऐसो बातें आपके दिल में न श्रानी चाहिए ।,इसने मुझ पर बड़े-बड़े जुल्म किए हैं ।,ऐसी बातें आपके दिल में न आनी चाहिए । वह कमी आमदनी ओर खच का हिंसाव न देखती थीं ।,ऐसी बातें आपके दिल में न आनी चाहिए ।,वह कभी आमदनी और खर्च का हिसाब न देखती थीं । गद्दी के उत्सव के लिए रुपयों का कोई न- फोई ओर प्रबन्ध करना पड़ेगा |,वह कभी आमदनी और खर्च का हिसाब न देखती थीं ।,गद्दी के उत्सव के लिए रुपयों का कोई-न-कोई और प्रबंध करना पड़ेगा । "विशालसिंह--खेर, देखा जायगा |",गद्दी के उत्सव के लिए रुपयों का कोई-न-कोई और प्रबंध करना पड़ेगा ।,"विशालसिंह-खैर, देखा जायगा ।" यह कहकर कँँवर साहब घर में गये ।,"विशालसिंह-खैर, देखा जायगा ।",यह कहकर कुँवर साहब घर में गये । "क वर साहब ने कमरे में कश्म रखते ही कहा--रोहिणी, ईश्वर ने आज हमारी अमिलाघा प्री की |",यह कहकर कुँवर साहब घर में गये ।,"कुँवर साहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा-रोहिणी, ईश्वर ने आज हमारी अभिलाषा पूरी की है ।" लिस बात फी आशा न थी. वह पूरी हो गयी ।,"कुँवर साहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा-रोहिणी, ईश्वर ने आज हमारी अभिलाषा पूरी की है ।","जिस बात की आशा न थी, वह पूरी हो गयी ।" "जन कुछ न था, तभी मिज्ञाज न मिलता था |","जिस बात की आशा न थी, वह पूरी हो गयी ।","जब कुछ न था, तभी मिजाज न मिलता था ।" "जगाकर बोले “क्‍या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनायें ।","जब कुछ न था, तभी मिजाज न मिलता था ।","जगाकर बोले-क्या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनायें ।" "छथ तक जो बात मन में थी, वह आ्राज तुमने खोल दी ।","जगाकर बोले-क्या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनायें ।","अब तक जो बात मन में थी, वह आज तुमने खोल दी ।" "वसुमती - हाँ, अभी भोले नादान बच्चे हो, समझ में क्‍यों आयेगा ।","अब तक जो बात मन में थी, वह आज तुमने खोल दी ।","वसुमती-हाँ, अभी भोले-नादान बच्चे हो, समझ में क्यों आयेगा ?" यह जलन अब नहीं सह्दी जातो |,"वसुमती-हाँ, अभी भोले-नादान बच्चे हो, समझ में क्यों आयेगा ?",यह जलन अब नहीं सही जाती । "में यहाँ से बाहर पाँव निका- लती, तो छिर काट लेते, नही तो कैसी खुशामदे कर रदे हो ।",यह जलन अब नहीं सही जाती ।,"मैं यहाँ से बाहर पाँव निकालती, तो सिर काट लेते, नहीं तो कैसी खुशामदें कर रहे हो ।" "किसी के ह्वार्थों में भी जस नही, किसी को लातों में मी जस है ।","मैं यहाँ से बाहर पाँव निकालती, तो सिर काट लेते, नहीं तो कैसी खुशामदें कर रहे हो ।",किसी के हाथों में भी जस नहीं; किसी की लातों में भी जस है । मैं इधर ही आा रहा या |,किसी के हाथों में भी जस नहीं; किसी की लातों में भी जस है ।,मैं इधर ही आ रहा था । "वसुमती--मुभसे बातें न बनाओ, समझ गये ।",मैं इधर ही आ रहा था ।,"वसुमती-मुझसे बातें न बनाओ, समझ गये ?" "श्रौरत होते, तो किसी भले आदमी का घर बसता ।","वसुमती-मुझसे बातें न बनाओ, समझ गये ?",औरत होते तो किसी भले आदमी का घर बसता । रोते-ही-रोते उम्र बीत गयी ।,औरत होते तो किसी भले आदमी का घर बसता ।,रोते ही रोते उम्र बीत गयी । वाहर आकर महफिल मे बैठ गये ।,रोते ही रोते उम्र बीत गयी ।,बाहर आकर महफिल में बैठ गये । उसका श्रानन्द उठाने के लिए लोगों के हृदय कानों के पास आ बैठे थे |,बाहर आकर महफिल में बैठ गये ।,उसका आनन्द उठाने के लिए लोगों के हृदय कानों के पास आ बैठे थे । किन्तु इस आनन्द ओर सुधा के श्रनन्त प्रवाह मे एक प्राणी हृदय की ताप से विकल हो रहा था |,उसका आनन्द उठाने के लिए लोगों के हृदय कानों के पास आ बैठे थे ।,किंतु इस आनन्द और सुधा के अनन्त प्रवाह में एक प्राणी हृदय के ताप से विकल हो रहा था । जब मुशीजी पूछते--वहों क्या बात कर आये ?,किंतु इस आनन्द और सुधा के अनन्त प्रवाह में एक प्राणी हृदय के ताप से विकल हो रहा था ।,जब मुंशीजी पूछते-वहाँ क्या बात कर आये ? "ज्योंद्ी मौका मिला, निक्र करूँगा |",जब मुंशीजी पूछते-वहाँ क्या बात कर आये ?,"ज्यों ही मौका मिला, जिक्र करूँगा ।" खब्र इस वात की जरूरत न होगी कि लड़की के पिता से विवाह का खचे माँगा जाय |,"ज्यों ही मौका मिला, जिक्र करूँगा ।",अब इस बात की जरूरत न होगी कि लड़की के पिता से विवाह का खर्च माँगा जाय । *झद्दारे सामने की तो बात है ।,अब इस बात की जरूरत न होगी कि लड़की के पिता से विवाह का खर्च माँगा जाय ।,तुम्हारे सामने की तो बात है । तब्र उसकी उम्र तीन-चार वरस की थी |,तुम्हारे सामने की तो बात है ।,तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी । बस ! ४ वजघर---मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूँ ।,तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी ।,बस! वज्रधर-मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूँ । ठ॒म्हीं ने इतने दिनों नेक-नामी के साथ तहसीलदारी नहीं को दे ।,बस! वज्रधर-मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूँ ।,तुम्हीं ने इतने दिन नेकनामी के साथ तहसीलदारी नहीं की है । "खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुशीजी ने कह्ा--कमल दावात लाओ, में इसी वक्त यशोदानन्दन को खत लिख दूँ ।",तुम्हीं ने इतने दिन नेकनामी के साथ तहसीलदारी नहीं की है ।,"खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशीजी ने कहा-कलम-दवात लाओ, मैं इसी वक्त यशोदानन्दन को खत लिख दूँ ।" चज्रधर---तुम फोई शहर के काजी हो ?,"खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशीजी ने कहा-कलम-दवात लाओ, मैं इसी वक्त यशोदानन्दन को खत लिख दूँ ।",वज्रधर-तुम कोई शहर के काजी हो ? "बज्नप्रर--कैसी वेतुकी बाते करते हो, जी ! जिस लड़की के मा-बाप का पता नहीं. उससे विवाह करके क्‍या खानदान का नाम इवाश्रोगे ?",वज्रधर-तुम कोई शहर के काजी हो ?,"वज्रधर-कैसी बेतुकी बातें करते हो, जी ! जिस लड़की के माँ-बाप का पता नहीं, उससे विवाह करके क्या खानदान का नाम डुबाओगे ?" चज़घर--तुम्हारे सिर नयी रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था ।,"वज्रधर-कैसी बेतुकी बातें करते हो, जी ! जिस लड़की के माँ-बाप का पता नहीं, उससे विवाह करके क्या खानदान का नाम डुबाओगे ?",वज्रधर-तुम्हारे सिर नई रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था ? ए.काएक यह कया कायापलट हो गयी ?,वज्रधर-तुम्हारे सिर नई रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था ?,एकाएक यह क्या कायापलट हो गयी ? « चक्रधर--तो मेरा भी यही निश्चय है कि म॑ और कही विवाह न करूँगा ।,एकाएक यह क्या कायापलट हो गयी ?,चक्रधर्-तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूँगा । "अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो मैं जीवन पर्यन्त अविवाहित ही रहूँगा, लेकिन यह असम्भव है कि कहीं और बिवाह कर लूँ ।",चक्रधर्-तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूँगा ।,"अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो जीवन-पर्यंत अविवाहित ही रहूँगा, लेकिन यह असम्भव है कहीं और विवाह कर लूँ ।" "मनोरमा बोली--आज आप बड़ी जल्दी आ गये; लेकिन देखिए, मे श्रापको तैयार मिली |","अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो जीवन-पर्यंत अविवाहित ही रहूँगा, लेकिन यह असम्भव है कहीं और विवाह कर लूँ ।","मनोरमा बोली-आज आप बड़ी जल्दी आ गये, लेकिन देखिए, मैं आपको तैयार मिली ।" आज आप किसी न-किसी बात पर रोये हैँ |,"मनोरमा बोली-आज आप बड़ी जल्दी आ गये, लेकिन देखिए, मैं आपको तैयार मिली ।",आज आप किसी-न-किसी बात पर रोए हैं । "मनोरमा खिलखिलाकर हँस पड़ी ओर बोली--बावू नी, कभी कभी श्राप बड़ी मौलिक बात कहते हैं ।",आज आप किसी-न-किसी बात पर रोए हैं ।,"मनोरमा खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली-बाबूजी, कभी-कभी आप बड़ी मौलिक बात कहते हैं ।" "क्या रोना ओर हँसना वालकों ही के लिए, हैं ?","मनोरमा खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली-बाबूजी, कभी-कभी आप बड़ी मौलिक बात कहते हैं ।",क्या रोना और हँसना बालकों ही के लिए है ? "चक्रधर ने लेख पढ़ा, तो दय रह गये |",क्या रोना और हँसना बालकों ही के लिए है ?,"चक्रधर ने लेख पढ़ा, तो दंग रह गये ।" लेख में इन्ही तीनों श्रगो की विस्तार के साथ व्याख्या की गयी थी ?,"चक्रधर ने लेख पढ़ा, तो दंग रह गये ।",लेख में इन्हीं तीनों अंगों की विस्तार के साथ व्याख्या की गयी थी । केवल इतना बता दो कि ये विचार वुम्दारे मन में क्योंकर आये ?,लेख में इन्हीं तीनों अंगों की विस्तार के साथ व्याख्या की गयी थी ।,केवल इतना बता दो कि ये विचार तुम्हारे मन में क्यों कर आये । "मनोरमा--जो कुछ श्रॉखों देखा, वही लिखा ।",केवल इतना बता दो कि ये विचार तुम्हारे मन में क्यों कर आये ।,"मनोरमा-जो कुछ आँखों देखा, वही लिखा ।" "काल पर हम विजय पाते हैं, अपनी सुकीति से, यश से, त्रत से |","मनोरमा-जो कुछ आँखों देखा, वही लिखा ।","काल पर हम विजय पाते हैं, अपनी सुकीर्ति से, यज्ञ से, व्रत से ।" "आत्मा पर विजय थाने का आशय निलंजता या विघषय-वासना नहों, वल्करि इच्छाओं का दमन फरना और कुब्ृत्तियों को रोकना हे |","काल पर हम विजय पाते हैं, अपनी सुकीर्ति से, यज्ञ से, व्रत से ।","आत्मा पर विजय पाने का आशय निर्लज्जता या विषयवासना नहीं, बल्कि इच्छाओं का दमन करना और कुवृत्तियों को रोकना है ।" दुबंलताओं की ओर मारी प्रज्धत्ति स्वय इतनी बलवती है कि उसे उधर ठकेलने की जरूरत नहीं ।,"आत्मा पर विजय पाने का आशय निर्लज्जता या विषयवासना नहीं, बल्कि इच्छाओं का दमन करना और कुवृत्तियों को रोकना है ।",दुर्बलता की ओर हमारी प्रवृत्ति स्वयं इतनी बलवती है कि उसे उधर ढकेलने की जरूरत नहीं । ऐडवर्य पाते ही हमें अपना पूर्व-जीवन विस्थ्ृत हो जाता है |,दुर्बलता की ओर हमारी प्रवृत्ति स्वयं इतनी बलवती है कि उसे उधर ढकेलने की जरूरत नहीं ।,ऐश्वर्य पाते ही हमें अपना पूर्व जीवन विस्मृत हो जाता है । "कमी सलाम करता हूँ, तो द्वाथ तक नही उठाते |",ऐश्वर्य पाते ही हमें अपना पूर्व जीवन विस्मृत हो जाता है ।,"कभी सलाम करता हूँ, तो हाथ तक नहीं उठाते ।" इतने में ठाकुर हरिसेवक श्राकर बैठ गये ।,"कभी सलाम करता हूँ, तो हाथ तक नहीं उठाते ।",इतने में ठाकुर हरिसेवक आकर बैठ गये । "मनोस्मा को पढाने के लिए क्तिने ही मास्टर आये, कोई भी दो-चार महीनों से ज्यादा न ठहरा |",इतने में ठाकुर हरिसेवक आकर बैठ गये ।,"मनोरमा को पढ़ाने के लिए कितने ही मास्टर आये, कोई भी दो-चार महीने से ज्यादा न ठहरा ।" “लौंगी देवी मी आ पहुँचीं ।,"मनोरमा को पढ़ाने के लिए कितने ही मास्टर आये, कोई भी दो-चार महीने से ज्यादा न ठहरा ।",लौंगी देवी भी आ पहुँची । "ठाकुर साहब का समथन करके बोलीं -देवता-रूप हैं, देवता-रूप ! मेरी तो इन्हें देखकर भूख प्यास बन्द हो जाती दे |",लौंगी देवी भी आ पहुँची ।,"ठाकुर साहब का समर्थन करके बोली-देवता रूप हैं, देवता रूप ! मेरी तो इन्हें देखकर भूख-प्यास बंद हो जाती है ।" हरिसिवक - यह ओर ही विचार के आदमी हैं |,"ठाकुर साहब का समर्थन करके बोली-देवता रूप हैं, देवता रूप ! मेरी तो इन्हें देखकर भूख-प्यास बंद हो जाती है ।",हरिसेवक-यह और ही विचार के आदमी हैं । मनोरमा सिर क्ुकाये दोनो प्राणियों की बातें सुन रही थी श्रौर किसी शका से उसका दिल काँप रहा था ।,हरिसेवक-यह और ही विचार के आदमी हैं ।,मनोरमा सिर झुकाए दोनों प्राणियों की बातें सुन रही थी और किसी शंका से उसका दिल काँप रहा था । किसी श्रादमी में स्वभाव के विपरीत आचरण देखकर शका होती ही है ।,मनोरमा सिर झुकाए दोनों प्राणियों की बातें सुन रही थी और किसी शंका से उसका दिल काँप रहा था ।,किसी आदमी में स्वभाव के विपरीत आचरण देखकर शंका होती है । "वह यही सोच रही थी कि मुस्सेवकर्सिह कन्घे पर वन्दूक रखे, शिकारी कपड़े पहने एक कमरे से निकल आये ओर बोले--कहिए महाशय, दादाजी तो आज आपसे बहुत प्रसन्न मालूम होते थे ।",किसी आदमी में स्वभाव के विपरीत आचरण देखकर शंका होती है ।,"वह यही सोच रही थी कि गुरुसेवकसिंह कन्धे पर बन्दूक रखे, शिकारी कपड़े पहने एक कमरे से निकल आये और बोले-कहिए, महाशय ! दादाजी तो आज आपसे बहुत प्रसन्न मालूम होते थे ।" गुद्सेवक-मेल ?,"वह यही सोच रही थी कि गुरुसेवकसिंह कन्धे पर बन्दूक रखे, शिकारी कपड़े पहने एक कमरे से निकल आये और बोले-कहिए, महाशय ! दादाजी तो आज आपसे बहुत प्रसन्न मालूम होते थे ।",गुरुसेवक-मेल ? गुरुसेवक--सच ! उस जगह का वेतन तो ४-५ सौ से कम न होगा ।,गुरुसेवक-मेल ?,गुरुसेवक-सच ! उस जगह का वेतन तो चार-पाँच सौ से कम न होगा । यहाँ भी अ्रपने धरवालो के बहुत दबाने से आते हैं ।,गुरुसेवक-सच ! उस जगह का वेतन तो चार-पाँच सौ से कम न होगा ।,यहाँ भी अपने घरवालों के बहुत दबाने से आते हैं । "यह कहते हुए, वह कमरे में चले गये |",यहाँ भी अपने घरवालों के बहुत दबाने से आते हैं ।,यह कहते हुए वह कमरे में चले गये । पानो आ गया तो जरूर भींग जायेंगे |,यह कहते हुए वह कमरे में चले गये ।,पानी आ गया तो जरूर भीग जायेंगे । ३१ ध मुद्दत के चाद जगदीशपुर के भाग जगे ।,पानी आ गया तो जरूर भीग जायेंगे ।,तेरह मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जागे । शहर से सामान लद लद॒र॒र जगदौशपुर जाने लगा ।,तेरह मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जागे ।,शहर से सामान लद-लदकर जगदीशपुर जाने लगा । घरटे दो घण्टे के लिए भो वहाँ जाते तो सारा समय शर-कलट सुनने में कद जाता था श्रोर कोई काम देखने की मुदलत न मिलती थी ।,शहर से सामान लद-लदकर जगदीशपुर जाने लगा ।,घण्टे-दो घण्टे के लिए भी वहाँ जाते तो सारा समय गृहकलह सुनने में कट जाता था और कोई काम देखने की मुहलत न मिलती थी । "दीयाने साइबर से उन्हाने जार देकर कट दिया था कि बिता पूरी मजदूरी दिये किमी से काम न लीजिए, लेकिन यद उनकी शक्ति के बाहर था कि आठों पहर बेठे रह |",घण्टे-दो घण्टे के लिए भी वहाँ जाते तो सारा समय गृहकलह सुनने में कट जाता था और कोई काम देखने की मुहलत न मिलती थी ।,"दीवान साहब से उन्होंने जोर देकर कह दिया कि बिना पूरी मजदूरी दिए किसी से काम न लीजिए, लेकिन यह उनकी शक्ति के बाहर था कि आठों पहर बैठे रहें ।" फिर गद्दी के उत्वव में थोड़ा बहुत कट होना स्वाभाविक समरूकर और मो कोई न बोलता था |,"दीवान साहब से उन्होंने जोर देकर कह दिया कि बिना पूरी मजदूरी दिए किसी से काम न लीजिए, लेकिन यह उनकी शक्ति के बाहर था कि आठों पहर बैठे रहें ।",फिर गद्दी के उत्सव में थोड़ा-बहुत कष्ट होना स्वाभाविक समझकर और भी कोई न बोलता था । "सुन रखा था कि राजा साहब उड़े दयालु, प्रजा-पत्सल पुरुष हैं, इसमे लोग खुशी से इस न पर योग दे रहे थे |",फिर गद्दी के उत्सव में थोड़ा-बहुत कष्ट होना स्वाभाविक समझकर और भी कोई न बोलता था ।,"सुन रखा था कि राजा साहब बड़े दयालु, प्रजावत्सल हैं, इससे लोग खुशी से इस अवसर पर योग दे रहे थे ।" रानी साहब के समय की सी घोघलो तो इनके समय में न होगी ।,"सुन रखा था कि राजा साहब बड़े दयालु, प्रजावत्सल हैं, इससे लोग खुशी से इस अवसर पर योग दे रहे थे ।",रानी साहब के समय की-सी धांधली तो उनके समय में न होगी । "चक्रपर को रोज खपरें मिल्लती रहतो थीं कि प्रजा पर बढ़े-बड़े अत्या- चार हो रदे हें, लेकिन वह राजा साहब से शिफ्रायत करके उन्हें असमजस में न डालना चाइते ये |",रानी साहब के समय की-सी धांधली तो उनके समय में न होगी ।,"चक्रधर को रोज खबरें मिलती थीं कि प्रजा पर बड़े-बड़े अत्याचार हो रहे हैं, लेकिन वह राजा साहब से शिकायत करके उन्हें असमंजस में न डालना चाहते थे ।" अकसर खुद जाकर मजूरों ओर कारीगरो को समभझाते ये |,"चक्रधर को रोज खबरें मिलती थीं कि प्रजा पर बड़े-बड़े अत्याचार हो रहे हैं, लेकिन वह राजा साहब से शिकायत करके उन्हें असमंजस में न डालना चाहते थे ।",अक्सर खुद जाकर मजदूरों और कारीगरों को समझाते थे । राजमवन का कल्लेतर नया हो गया ।,अक्सर खुद जाकर मजदूरों और कारीगरों को समझाते थे ।,राजभवन का कलेवर नया हो गया । "सारे कस्बे भे रोशनी के फाटक बन गये, तिल्लकोत्खव का विशाल पण्डाल तैयार हो गया ।",राजभवन का कलेवर नया हो गया ।,"सारे कस्बे में रोशनी के फाटक बन गये, तिलकोत्सव का विशाल पण्डाल तैयार हो गया ।" कर्मचारियों को नई वरदियाँ बनवा दी गयीं |,"सारे कस्बे में रोशनी के फाटक बन गये, तिलकोत्सव का विशाल पण्डाल तैयार हो गया ।",कर्मचारियों को नई वर्दियाँ बनवा दी गयीं । "मेहमानों के लिए जो कप बनाये गये थे, वे भी वसन्ती थे ।",कर्मचारियों को नई वर्दियाँ बनवा दी गयीं ।,"मेहमानों के लिए जो कैंप बनाए गये थे, वे भी वसन्ती थे ।" सन्ध्या का समय था |,"मेहमानों के लिए जो कैंप बनाए गये थे, वे भी वसन्ती थे ।",सँध्या का समय था । "वह कोई नयी वात करते हुए डरते रहते थे कि फ्हीं लोग कहने लगें कि ऐश्वर्य पाकर मतबाला हो गया, अपने को भूल गया |",सँध्या का समय था ।,"वह कोई नई बात करते हुए डरते थे कि कहीं लोग कहने लगे कि ऐश्वर्य पाकर मतवाला हो गया, अपने को भूल गया ।" - मुशी-दीवान साहब तो आते हिचकते थे ।,"वह कोई नई बात करते हुए डरते थे कि कहीं लोग कहने लगे कि ऐश्वर्य पाकर मतवाला हो गया, अपने को भूल गया ।",मुंशीजी-दीवान साहब तो आते हिचकते थे । मैने कहा कि इन्तजाम की चात में कैसी हिचक |,मुंशीजी-दीवान साहब तो आते हिचकते थे ।,मैंने कहा कि इन्तजाम की बात में कैसी हिचक ? "मैने उस वक्त तो कर्ज ही नहीं लिया, जब्र कौड़ी-कोडी का मुहताज था |",मैंने कहा कि इन्तजाम की बात में कैसी हिचक ?,"मैंने उस वक्त तो कर्ज ही नहीं लिया, जब कौड़ी-कौड़ी का मोहताज था ।" दीवान--तो अत्र महाराज क्या हुक्म देते हूँ ?,"मैंने उस वक्त तो कर्ज ही नहीं लिया, जब कौड़ी-कौड़ी का मोहताज था ।",दीवान-तो अब महाराज क्या हुक्म देते हैं ? "किसी जोहरी को बुलाकर उनके दाम लगवाइए ! दोवान--मदह्याराज, इसमे तो रियासत की बढनामी है ।",दीवान-तो अब महाराज क्या हुक्म देते हैं ?,"किसी जौहरी को बुलाकर उनके दाम लगवाइए! दीवान-महाराज, इसमें तो रियासत की बदनामी है ।" राश--मे अयने तिजकोत्सव के लिए अमामियों पर जुल्म न कहूंगा ।,"किसी जौहरी को बुलाकर उनके दाम लगवाइए! दीवान-महाराज, इसमें तो रियासत की बदनामी है ।",राजा-मैं अपने तिलकोत्सव के लिए असामियों पर जुल्म न करूँगा । इससे तो कही अ्रच्चछा है कि उत्सव ही न हो |,राजा-मैं अपने तिलकोत्सव के लिए असामियों पर जुल्म न करूँगा ।,इससे तो कहीं अच्छा है कि उत्सव ही न हो । मेरा तो पुराना तजरवा है |,इससे तो कहीं अच्छा है कि उत्सव ही न हो ।,मेरा तो पुराना तजुरबा है । मेरे कानों तक कोई शिकायत न शआाये ।,मेरा तो पुराना तजुरबा है ।,मेरे कानों तक कोई शिकायत न आये । राजा और प्रजा का सम्बन्ध ही ऐसा है ।,मेरे कानों तक कोई शिकायत न आये ।,राजा और प्रजा का सम्बंध ही ऐसा है । हमारी अ्रँगरेजी सरकार ही को देखिए |,राजा और प्रजा का सम्बंध ही ऐसा है ।,हमारी अंग्रेजी सरकार ही को देखिए । "चलिए, दौवान साहब, अर हुजूर्‌ को सित[र का शौक करने दीजिए |",हमारी अंग्रेजी सरकार ही को देखिए ।,"चलिए, दीवान साहब, अब हुजूर को सितार का शोक करने दीजिए ।" "लेकिन चन्दे जन्न वसूल होने लगे श्रोर शोर मचा, तो किसी ने कर्मचारियों की तम्बीह नहीं की ।","चलिए, दीवान साहब, अब हुजूर को सितार का शोक करने दीजिए ।","लेकिन चन्दे जब वसूल होने लगे और शोर मचा, तो किसी ने कर्मचारियों की तम्बीह नहीं की ।" फिर तो वह अन्धेर मचा कि सारे इलाके में कुदराम पड़ गया ।,"लेकिन चन्दे जब वसूल होने लगे और शोर मचा, तो किसी ने कर्मचारियों की तम्बीह नहीं की ।",फिर तो वह अँधेर मचा कि सारे इलाके में कुहराम मच गया । यहाँ तक कि कर्मचारियों के श्रत्याचार देखकर चक्रघर का भी खून उन्नल पड़ा ।,फिर तो वह अँधेर मचा कि सारे इलाके में कुहराम मच गया ।,यहाँ तक कि कर्मचारियों के अत्याचार देखकर चक्रधर का भी खून उबल पड़ा । आखिर विवश द्वोकर एक दिन चक्रपर ने राजा साहत्र से शिकायत कर ही दी ।,यहाँ तक कि कर्मचारियों के अत्याचार देखकर चक्रधर का भी खून उबल पड़ा ।,आखिर विवश होकर एक दिन चक्रधर ने राजा साहब से शिकायत कर ही दी । चक्रधर--श्रापको आसामियो का स्वभाव तो मालूम होगा ?,आखिर विवश होकर एक दिन चक्रधर ने राजा साहब से शिकायत कर ही दी ।,चक्रधर-आपको असामियों का स्वभाव तो मालूम होगा ? राजा--यह में नही मानता ।,चक्रधर-आपको असामियों का स्वभाव तो मालूम होगा ?,राजा-यह मैं नहीं मानता । "जिसको ऊिसी चात को अखर होती है, वह चुप नही बैठा रहता |",राजा-यह मैं नहीं मानता ।,"जिसको किसी बात की अखर होती है, वह चुपचाप नहीं बैठा रहता ।" "देखू, लोग क्या करते हूँ ।","जिसको किसी बात की अखर होती है, वह चुपचाप नहीं बैठा रहता ।","देखूँ, लोग क्या करते हैं ।" "समिति के सेवकों के साथ रियासत मे दारा करना शुरू करूँ, देखे, लोग कैसे रुपये वसूल करते हूँ, पर राजा साहब की बदनामी का खयाल करफे रुक गये ।","देखूँ, लोग क्या करते हैं ।","समिति के सेवकों के साथ रियासत में दौरा करना शुरू करूँ, देखूँ, लोग कैसे रुपए वसूल करते हैं; पर राजा साहब की बदनामी का ख्याल करके रुक गये ।" "अभी राजभवन ही में ये कि मुशीजी अपना पुराना तहसीलटारी के दिना का श्रोवर- कोर डाठे, मोटरकार से उतरे ओर इन्हें देखकर वोले--तुम यहाँ क्‍या करने थे ये ?","समिति के सेवकों के साथ रियासत में दौरा करना शुरू करूँ, देखूँ, लोग कैसे रुपए वसूल करते हैं; पर राजा साहब की बदनामी का ख्याल करके रुक गये ।","अभी राजभवन ही में थे कि मुंशीजी अपना पुराना तहसीलदारी के दिनों का ओवरकोट डाले, मोटरकार से उतरे और इन्हें देखकर बोले-तुम यहाँ क्या करने आये थे ?" आप तो यों कभी मुरकाये न रहते थे |,"अभी राजभवन ही में थे कि मुंशीजी अपना पुराना तहसीलदारी के दिनों का ओवरकोट डाले, मोटरकार से उतरे और इन्हें देखकर बोले-तुम यहाँ क्या करने आये थे ?",आप तो यों कभी मुरझाए न रहते थे । इतनी दुदंशा पर भी हमारी आँखें नहीं खुलती ।,आप तो यों कभी मुरझाए न रहते थे ।,इतनी दुर्दशा पर भी हमारी आँखें नहीं खुलतीं । राजा साहब की जात से लोगों को कैसी कैसी आशाएँ थी; लेकिन अभी गद्दी पर बैठे छः महीने भी नहीं हुए श्रोर इन्होने भी वही पुराना दड् अ्रख्तियार कर लिया |,इतनी दुर्दशा पर भी हमारी आँखें नहीं खुलतीं ।,"राजा साहब की जात से लोगों को कैसी-कैसी आशाएँ थीं, लेकिन अभी गद्दी पर बैठे छह महीने भी नहीं हुए और इन्होंने भी वही पुराना ढँग अख्तियार कर लिया है ।" प्रजा से डण्हो के जोर से रुपये वसूल किये जा रहे हैं आर कोई फरियाद नहीं सुनता ।,"राजा साहब की जात से लोगों को कैसी-कैसी आशाएँ थीं, लेकिन अभी गद्दी पर बैठे छह महीने भी नहीं हुए और इन्होंने भी वही पुराना ढँग अख्तियार कर लिया है ।",प्रजा से डण्डों के जोर से रुपए वसूल किए जा रहे हैं और कोई फरियाद नहीं सुनता । "बोले -त्रम मेरी जगह होती, ते असामियों को मना कर देती ! |",प्रजा से डण्डों के जोर से रुपए वसूल किए जा रहे हैं और कोई फरियाद नहीं सुनता ।,"बोले-तुम मेरी जगह होतीं, तो असामियों को मना कर देतीं ?" "खुलम खुला कटती, खबरदार ! राजा के आदमियों को कोई एक पैसा भी न दे ।","बोले-तुम मेरी जगह होतीं, तो असामियों को मना कर देतीं ?","खुल्लमखुल्ला कहती, खबरदार, राजा के आदमियों को कोई एक पैसा भी न दे ।" उस वक्त जबान भी न खुलेगी ।,"खुल्लमखुल्ला कहती, खबरदार, राजा के आदमियों को कोई एक पैसा भी न दे ।",उस वक्त जबान न खुलेगी । "बह सोचती थी, कहीं लालाजी ने गुम्से में श्राकर चाबूजी को अलग कर दिया तो ?",उस वक्त जबान न खुलेगी ।,"वह सोचती थी, कहीं राजाजी ने गुस्से में आकर बाबूजी को अलग कर दिया तो ?" "कहीं ऊंदी बवर्दियो की वहार थी, तो कहीं केसरिये थाने की ।","वह सोचती थी, कहीं राजाजी ने गुस्से में आकर बाबूजी को अलग कर दिया तो ?","कहीं ऊदी वर्दियों की बहार थी, तो कहीं केसरिए बाने की ।" "कोई दो बजे रात को सोकर 5 कर उठता था, कोई दो बजे दिन को |","कहीं ऊदी वर्दियों की बहार थी, तो कहीं केसरिए बाने की ।","कोई दो बजे रात को सोकर उठता था, कोई दो बजे दिन को ।" "भगवान किसी भाँति कुशल से यद्द उत्सव समाप्त कर दें, अब कान पकडे कि ऐसी भूल कभी न होगी ! किसी अ्निष्ट की शका उन्हें हरदम उद्दिग्न रखती थी ।","कोई दो बजे रात को सोकर उठता था, कोई दो बजे दिन को ।","भगवान् किसी भाँति कुशल से यह उत्सव समाप्त कर दें, अब कान पकड़े कि ऐसी भूल न होगी! किसी अनिष्ट की शंका उन्हें हरदम उद्विग्न रखती थी ।" "न बाहर गन्दगी थी, न मन मे मलिनता |","भगवान् किसी भाँति कुशल से यह उत्सव समाप्त कर दें, अब कान पकड़े कि ऐसी भूल न होगी! किसी अनिष्ट की शंका उन्हें हरदम उद्विग्न रखती थी ।","न बाहर गन्दगी थी, न मन में मलिनता ।" नरेशों के कैम्प मे पराधीनता का शज्य था ओर अँगरेजी कैम्प में स्वाधीनता का ।,"न बाहर गन्दगी थी, न मन में मलिनता ।",नरेशों के कैंप में पराधीनता का राज्य था और अंग्रेजी कैंप में स्वाधीनता का । महिलाओ का रग रूप देखकर आँखों मे चकाचोंध हो जाती थी ।,नरेशों के कैंप में पराधीनता का राज्य था और अंग्रेजी कैंप में स्वाधीनता का ।,महिलाओं का रंग-रूप देखकर आँखों में चकाचौंध हो जाती थी । ऐसा मालूम होता था कि ईश्वर ने लियों को निन्‍दा और परिहास के लिए ही रचा है ।,महिलाओं का रंग-रूप देखकर आँखों में चकाचौंध हो जाती थी ।,ऐसा मालूम होता था कि ईश्वर ने स्त्रियों को निंदा और परिहास के लिए ही रचा है । मनोरमा को महिलाओं की सेवा सत्कार का भार सौंपा गया था; फिन्तु उसे यद यह चरित्र देखने में विशेष आनन्द आता था |,ऐसा मालूम होता था कि ईश्वर ने स्त्रियों को निंदा और परिहास के लिए ही रचा है ।,मनोरमा को महिलाओं के सेवा-सत्कार का भार सौंपा गया था; किंतु उसे यह चरित्र देखने में विशेष आनन्द आता था । "वेगारो से न सह जाता था, इसी लिए कि उनकी आँतें जलती थी ।",मनोरमा को महिलाओं के सेवा-सत्कार का भार सौंपा गया था; किंतु उसे यह चरित्र देखने में विशेष आनन्द आता था ।,"बेगारों से न सहा जाता था, इसीलिए कि उनकी आँतें जलती थीं ।" "दिन मर धूप में जलते, रात-भर क्तुघा की आग मे ।","बेगारों से न सहा जाता था, इसीलिए कि उनकी आँतें जलती थीं ।","दिन भर धूप में जलते, रात भर क्षुधा की आग में ।" हवथन की तैयारियाँ हो रही थी |,"दिन भर धूप में जलते, रात भर क्षुधा की आग में ।",हवन की तैयारियाँ हो रही थीं । "क्रिसी कैम्प में घास न थी और ठाकुर हरिसेवक हृटर लिये हुए, चमारो को पीट रहे थे ।",हवन की तैयारियाँ हो रही थीं ।,किसी कैंप में घास न थी और ठाकुर हरिसेवक हंटर लिए हुए चमारों को पीट रहे थे । "चौधरी ने हाथ वॉधकर कहा -- हुजूर, घास तो रात ही को पहुँचा दी गयी थी, में आप जाकर रल्वा आया था ।",किसी कैंप में घास न थी और ठाकुर हरिसेवक हंटर लिए हुए चमारों को पीट रहे थे ।,"चौधरी ने हाथ बाँधकर कहा-हुजूर, घास तो रात ही को पहुँचा दी गयी थी, मैं आप जाकर रखवा आया था ।" "चोधरी डरुडा लेकर युवक को मारने दौड़ा, पर उसके पहले ही ठाकुर साइब्र ने भपटकर उसे चार पॉच हटर सड़ाप सड़ाय लगा दिये |","चौधरी ने हाथ बाँधकर कहा-हुजूर, घास तो रात ही को पहुँचा दी गयी थी, मैं आप जाकर रखवा आया था ।",चौधरी डंडा लेकर युवक को मारने दौड़ा; पर उसके पहले ही ठाकुर साहब ने झपटकर उसे चार-पाँच हंटर सड़ाप-सड़ाप लगा दिए । "नगी देह, चमड़ा फट गया, स्ून निकल आया |",चौधरी डंडा लेकर युवक को मारने दौड़ा; पर उसके पहले ही ठाकुर साहब ने झपटकर उसे चार-पाँच हंटर सड़ाप-सड़ाप लगा दिए ।,"नंगी देह, चमड़ा फट गया, खून निकल आया ।" राजा साहब श्रपने खेमे में तिलक के भड़कीले'सजीले बल्ल धारण कर रहे ये ।,"नंगी देह, चमड़ा फट गया, खून निकल आया ।",राजा साहब अपने खेमे में तिलक के भड़कीले-सजीले वस्त्र धारण कर रहे थे । एक आदमी उनकी पाग सवार रह्या था |,राजा साहब अपने खेमे में तिलक के भड़कीले-सजीले वस्त्र धारण कर रहे थे ।,एक आदमी उनकी पाग संवार रहा था । "बस्त्रों मे इतनी तेज बढ़ानेवाली शक्ति है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी न थी ।",एक आदमी उनकी पाग संवार रहा था ।,"वस्त्रों में तेज बढ़ानेवाली इतनी शक्ति है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी न थी ।" क्रोध से वावले होकर वह श्रपनी बन्दूक लिये खेमे से निकल आये और कई आद- मियों के साथ बाड़े के द्वार पर जा पहुँचे ।,"वस्त्रों में तेज बढ़ानेवाली इतनी शक्ति है, इसकी उन्हें कभी कल्पना भी न थी ।",क्रोध से बावले होकर वह अपनी बन्दूक लिए खेमे से निकल आये और कई आदमियों के साथ बाड़े के द्वार पर आ पहुँचे । "चौधरी--काम तो आपका करे, खाने किसके घर जायेँ ?",क्रोध से बावले होकर वह अपनी बन्दूक लिए खेमे से निकल आये और कई आदमियों के साथ बाड़े के द्वार पर आ पहुँचे ।,"चौधरी-काम तो आपका करें, खाने किसके घर जायें ?" ठुम सबन्के सब मुझे बदनाम करना चाहते हो |,"चौधरी-काम तो आपका करें, खाने किसके घर जायें ?",तुम सबके-सब मुझे बदनाम करना चाहते हो । "तुम्हारी यही मरजी है, तो यही सद्दी ।",तुम सबके-सब मुझे बदनाम करना चाहते हो ।,"तुम्हारी यही मर्जी है, तो यही सही ।" चौघरी--वह समय ही लद॒ गया है |,"तुम्हारी यही मर्जी है, तो यही सही ।",चौधरी-वह समय ही लद गया है । अब तो सेवा-सम्मती हमारी पीठ पर है ।,चौधरी-वह समय ही लद गया है ।,अब तो सेवा समिति हमारी पीठ पर है । "जिसे मित्र समझता था, वही श्रास्तीन का साँप निकला ।",अब तो सेवा समिति हमारी पीठ पर है ।,जिसे मित्र समझता था वही आस्तीन का साँप निकला । "उसी वक्त एक ओर सशज्न पुलिस के जवान ओर दूसरी ओर से चक्र- घर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखायी दिये ।",जिसे मित्र समझता था वही आस्तीन का साँप निकला ।,"उसी वक्त एक ओर सशस्त्र पुलिस के जवान और दूसरी ओर से चक्रधर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखाई दिए ।" "सबसे बढ़ी बात वह कि मुशी वज्भघर खुद एक बन्दूक लिये पैंतरे बदल रहे थे, मानों सारे आदमियों को कचा ही खा जायँगे |","उसी वक्त एक ओर सशस्त्र पुलिस के जवान और दूसरी ओर से चक्रधर, समिति के कई युवकों के साथ आते हुए दिखाई दिए ।","सबसे बड़ी बात यह कि मुंशी वज्रधर खुद एक बन्दूक लिए पैंतरे बदल रहे थे, मानो सारे आदमियों को कच्चा ही खा जायेंगे ।" थे सभी आदमी इस वक्त भज्लाये हुए हैं ।,"सबसे बड़ी बात यह कि मुंशी वज्रधर खुद एक बन्दूक लिए पैंतरे बदल रहे थे, मानो सारे आदमियों को कच्चा ही खा जायेंगे ।",ये सभी आदमी इस वक्त झल्लाए हुए हैं । "इस शुस अवसर पर एक हत्या भो हुईं, तो वह सहस्तो रूप धारण करके ऐसा भयकर अमिनय दिखायेगी कि सारी रियासत मे ह्वाह्यकार मच जायगा ।",ये सभी आदमी इस वक्त झल्लाए हुए हैं ।,"इस शुभ अवसर पर एक हत्या भी हुई, तो वह सहस्रों रूप धारण करके ऐसा भयंकर अभिनय दिखाएगी कि सारी रियासत में हाहाकार मच जायगा ।" "राजा साहब शअ्रपनी टेक पर अडना जानते थे, किन्तु इस सप्तय उनका दिल काँप उठा ।","इस शुभ अवसर पर एक हत्या भी हुई, तो वह सहस्रों रूप धारण करके ऐसा भयंकर अभिनय दिखाएगी कि सारी रियासत में हाहाकार मच जायगा ।",राजा साहब अपनी टेक पर अड़ना जानते थे; किंतु इस समय उनका दिल काँप उठा । "चह्दी दूकानदार, जो दिन भर टेनी मारता है, प्रात काल आइहक से मोल जोल तक नहीं करता ।",राजा साहब अपनी टेक पर अड़ना जानते थे; किंतु इस समय उनका दिल काँप उठा ।,"वही दुकानदार, जो दिन भर टेनी मारता है, प्रात:काल ग्राहक से मेलजोल तक नहीं करता ।" चक्रपर--आपने इन लोगों को अपने पास आने का ग्रयसर कय दिया ?,"वही दुकानदार, जो दिन भर टेनी मारता है, प्रात:काल ग्राहक से मेलजोल तक नहीं करता ।",चक्रधर-आपने इन लोगों को अपने पास आने का अवसर कब दिया ? यह सारी आग इन्हीं को लगायी हुई है |,चक्रधर-आपने इन लोगों को अपने पास आने का अवसर कब दिया ?,यह सारी आग इन्हीं की लगाई हुई है । प्रजा को बहकाना श्रोर भडकाना इन लोगों ने अपना धर्म चना रखा है |,यह सारी आग इन्हीं की लगाई हुई है ।,प्रजा को बहकाना और भड़काना इन लोगों ने अपना धर्म बना रखा है । यहाँ से हर एक आदमी को दोनो वक्त भोजन दिया जाता था |,प्रजा को बहकाना और भड़काना इन लोगों ने अपना धर्म बना रखा है ।,यहाँ हर एक आदमी को दोनों वक्त भोजन दिया जाता था । "दूसरे ने जो कुछ कह दिया, . उमे सच समझ लेता है ।",यहाँ हर एक आदमी को दोनों वक्त भोजन दिया जाता था ।,दूसरों ने जो कुछ कह दिया उसे सच समझ लेता है । प्रजा ऐसो व॒तें सुन-सुनकर शेर हो गयी हे ।,दूसरों ने जो कुछ कह दिया उसे सच समझ लेता है ।,प्रजा ऐसी बातें सुन-सुनकर शेर हो गयी है । में खुद प्रजा से यहो चार्ते कहना चाहता हूँ ।,प्रजा ऐसी बातें सुन-सुनकर शेर हो गयी है ।,मैं खुद प्रजा से यही बातें कहना चाहता हूँ । राजा तो तुम्दाग गुलाम है ।,मैं खुद प्रजा से यही बातें कहना चाहता हूँ ।,राजा तो तुम्हारा गुलाम है । "हरिसेवक--हुजूर, इन लोगो को बातें कहों तक कहूँ ।",राजा तो तुम्हारा गुलाम है ।,"हरिसेवक-हुजूर, इन लोगों की बातें कहाँ तक कहूँ ।" "चक्रपर ने केँफलाकर कहा--ठाकुर साहब, आप मेरे स्वामी हे लेकिन क्षमा कीजिए, आप मेरे साथ बडा अन्याय कर रहे है ।","हरिसेवक-हुजूर, इन लोगों की बातें कहाँ तक कहूँ ।","चक्रधर ने झुंझलाकर कहा-ठाकुर साहब, आप मेरे स्वामी हैं, लेकिन झमा कीजिए, आप मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रहे हैं ।" "राजा-- तो बुा्य नहीं मानता, जरा भी नहीं ।","चक्रधर ने झुंझलाकर कहा-ठाकुर साहब, आप मेरे स्वामी हैं, लेकिन झमा कीजिए, आप मेरे साथ बड़ा अन्याय कर रहे हैं ।","राजा-मैं तो बुरा नहीं मानता, जरा भी नहीं ।" हजारो आदमी साँस बन्द किये सुन रहे थे कि ये लोग क्या फैसला करते हैं और यहाँ इन लोगों को मजाक यक रहा है |,"राजा-मैं तो बुरा नहीं मानता, जरा भी नहीं ।",हजारों आदमी साँस बन्द किए हुए सुन रहे थे कि ये लोग क्या फैसला करते हैं और यहाँ उन लोगों को मजाक सूझ रहा है । उनकी स्वाभाविक्र शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया ।,हजारों आदमी साँस बन्द किए हुए सुन रहे थे कि ये लोग क्या फैसला करते हैं और यहाँ उन लोगों को मजाक सूझ रहा है ।,उनकी स्वाभाविक सहन-शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया । "यह उस सिंह की गरज थी, जिसके दाँत और पजे हट गये हों ।",उनकी स्वाभाविक सहन-शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया ।,"यह उस सिंह की गरज थी, जिनके दाँत और पंजे टूट गये हों ।" श्रभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे |,"यह उस सिंह की गरज थी, जिनके दाँत और पंजे टूट गये हों ।",अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे । तिल- मिलाकर वन्दूक लिये हुए चक्रधर के पीछे दोढ़े ओर ऐसे जोर से उन पर कुन्दा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद्‌ वही ठण्डे हो जाते ।,अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे ।,तिल-मिलाकर बन्दूक लिए हुए चक्रधर के पीछे दौड़े और ऐसे जोर से उन पर कुन्दा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद वहीं ठण्डे हो जाते । कुन्दा पीठ में लगा और उसके भोंके ले चक्रधर कई द्वाथ पर जा गिरे |,तिल-मिलाकर बन्दूक लिए हुए चक्रधर के पीछे दौड़े और ऐसे जोर से उन पर कुन्दा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद वहीं ठण्डे हो जाते ।,कुन्दा पीठ में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ पर जा गिरे । "जितने वेफिक्रे, शोहदे, लुच्चे तमाशा देखने आये थे, वे सत्र उपठ्रवकारियों मे मिल गये ।",कुन्दा पीठ में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ पर जा गिरे ।,"जितने बेफिक्रे, शोहदे, लच्चे तमाशा देखने आये थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गये ।" यहाँ तक कि नरेशो के कैम्प तक पहुँचते पहुँचते उनकी सख्यां दूनी हो गयी |,"जितने बेफिक्रे, शोहदे, लच्चे तमाशा देखने आये थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गये ।",यहाँ तक कि नरेशों के कैंप तक पहुँचते-पहुँचते उनकी सँख्या दूनी हो गयी । कोई नाश्ता कर रहा था श्रार कोई लेटा नाकरो से चम्पी करा रह था ।,यहाँ तक कि नरेशों के कैंप तक पहुँचते-पहुँचते उनकी सँख्या दूनी हो गयी ।,कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चम्पी करा रहा था । जनता उत्तेजित होकर आदशंयादो हो जाती है |,कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चम्पी करा रहा था ।,जनता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है । आज ही तो उसके मुँह से पूरी बात भी न निकलने पायी थी फरि गोलियों की दूसरी वाद श्आायी और कई आदमियों के साथ दोना नेताओं का काम तमाम कर गयी ।,जनता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है ।,आज ही तो--- उसके मुँह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गयी । किन्तु शुरुसेवक के दृदय में दया थी ।,आज ही तो--- उसके मुँह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गयी ।,किन्तु गुरुसेवक के हृदय में दया थी । एक मजदूर- कोई चिन्ता नहीं |,किन्तु गुरुसेवक के हृदय में दया थी ।,एक मजदूर-कोई चिंता नहीं । "मजदूर-- हम आज मरने के लिए. कमर बॉधकर * अँग्रेजी कैम्प से फिर गोलियों की बाठ आयी और कई आदमियों के साथ यह आदमी भी गिर गया, ओर टसके गिरते ही सारे समूह मे खलबली पड गयी |",एक मजदूर-कोई चिंता नहीं ।,"मजदूर-हम आज मरने के लिए कमर बाँधकर.... अंग्रेजी कैंप से फिर गोलियों की बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ यह आदमी भी गिर गया, और उसके गिरते ही सारे समूह में खलबली पड़ गयी ।" श्रभी तक इन लोगो को न मालूम था कि गोलियों किधर से आ रही हैँ |,"मजदूर-हम आज मरने के लिए कमर बाँधकर.... अंग्रेजी कैंप से फिर गोलियों की बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ यह आदमी भी गिर गया, और उसके गिरते ही सारे समूह में खलबली पड़ गयी ।",अभी तक इन लोगों को न मालूम था कि गोलियाँ किधर से आ रही हैं । पोथा-- यही सब तो राजाओं को बियाडे हुए हैं ।,अभी तक इन लोगों को न मालूम था कि गोलियाँ किधर से आ रही हैं ।,चौथा-यही सब तो राजाओं को बिगाड़े हुए हैं । लोग चुपक्रे-चुपके दाये-बायें से सरकने लगे थे ।,चौथा-यही सब तो राजाओं को बिगाड़े हुए हैं ।,लोग चुपके-चुपके दायें-बायें से सरकने लगे थे । अब तो यहाँ भी भगदड़ पढ़ी |,लोग चुपके-चुपके दायें-बायें से सरकने लगे थे ।,अब तो यहाँ भी भगदड़ पड़ी । एक क्षण में सारी लेडियाँ गायत्र हो गयीं ।,अब तो यहाँ भी भगदड़ पड़ी ।,एक क्षण में सारी लेडियाँ गायब हो गयीं । "केवल वही लोग रह गये, जो मोस्चे पर खड़े थे ओर जिनके लिए. भागना मोत के मुँह में जाना था; मगर उन सत्रो के हाथों मे मार्टिन ओर मॉजर के यन्त्र थे ।",एक क्षण में सारी लेडियाँ गायब हो गयीं ।,"केवल वही लोग रह गये, जो मोरचे पर खड़े थे और जिनके लिए भागना मौत के मुँह में जाना था; मगर उन सबों के हाथों में मार्टिन और मॉजर के यन्त्र थे ।" "एक का सिर फट गया था, दूसरे की वाँह छूट गयी थी ।","केवल वही लोग रह गये, जो मोरचे पर खड़े थे और जिनके लिए भागना मौत के मुँह में जाना था; मगर उन सबों के हाथों में मार्टिन और मॉजर के यन्त्र थे ।",एक का सिर फट गया था; दूसरे की बाँह टूट गयी थी । भांगने की कल्पना द्दी से उन्हें घृणा होती है ।,एक का सिर फट गया था; दूसरे की बाँह टूट गयी थी ।,भागने की कल्पना ही से उन्हें घृणा होती थी । "मजदूर--यारो, बस, एक हल्ला और ! चक्रधर--हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे न उठे ।",भागने की कल्पना ही से उन्हें घृणा होती थी ।,"खबरदार! मजदूर-यारो, बस एक हल्ला और ! चक्रधर-हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे न उठे ।" "मजदूर--मैया, तुम सान्त-सान्त बका करते हो; लेकिन उसका फल क्या होता दै ।","खबरदार! मजदूर-यारो, बस एक हल्ला और ! चक्रधर-हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे न उठे ।","मजदूर-भैया, तुम शान्त-शान्त बका करते हो; लेकिन उसका फल क्या होता है ।" "सान्‍्त रहने से तो ओर भी हमारी दुरगत होती,है ।","मजदूर-भैया, तुम शान्त-शान्त बका करते हो; लेकिन उसका फल क्या होता है ।",शान्त रहने से तो और भी हमारी दुरगत होती है । मजदूर--हमारी फाँसो तो हो ही जायगी ।,शान्त रहने से तो और भी हमारी दुरगत होती है ।,मजदूर-हमारी फाँसी तो हो ही जायगी । मिस्टर सिम--हम सबको इनाम दिलायेगा ।,मजदूर-हमारी फाँसी तो हो ही जायगी ।,मिस्टर जिम-हम सबको इनाम दिलाएगा । "अब अ्रपने को कलकित मत करो, जाओ |",मिस्टर जिम-हम सबको इनाम दिलाएगा ।,"अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ ।" वह उठे ओर अगरेजी कैम्प की ओर भागे ।,"अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ ।",वह उठे और अंग्रेजी कैम्प की ओर भागे । अँगरेजी केम्प में ही स्थिति सचसे भयावह थी ।,वह उठे और अंग्रेजी कैम्प की ओर भागे ।,अंग्रेजी कैम्प में ही स्थिति सबसे भयावह थी । एक भी मजदूर न रद्द गया ।,अंग्रेजी कैम्प में ही स्थिति सबसे भयावह थी ।,एक भी मजदूर न रह गया । केवल तिलक मण्डप से अभो तक आग की ज्याला निकल रही थो ।,एक भी मजदूर न रह गया ।,केवल तिलक-मण्डल से अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी । "बाजार लुटा, गोलियाँ चलीं, आदमी मक्खियों की तरह मारे गये, पर राजा साहब मण्डप के सामने ही खड़े रहे ।",केवल तिलक-मण्डल से अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी ।,"बाजार लुटा, गोलियां चलीं, आदमी मक्खियों की तरह मारे गये; पर राजा मंडप के सामने ही खड़े रहे ।" रियासत का डाक्टर सजन मनुष्य था |,"बाजार लुटा, गोलियां चलीं, आदमी मक्खियों की तरह मारे गये; पर राजा मंडप के सामने ही खड़े रहे ।",रियासत का डॉक्टर सज्जन मनुष्य था । चारो तरफ अँधेरा था |,रियासत का डॉक्टर सज्जन मनुष्य था ।,चारों तरफ अंधेरा था । तिलक मणए्डप की आग भी बुझ चुको थी ।,चारों तरफ अंधेरा था ।,तिलक मण्डप की आग भी बुझ चुकी थी । उस अबकार में ये लोग लालटेन लिये घायलों को तअध्षताल ले जा रहे थे ।,तिलक मण्डप की आग भी बुझ चुकी थी ।,उस अंधकार में ये लोग लालटेन लिए घायलों को अस्पताल ले जा रहे थे । "चक्रधर ने साचा--मैंने ऐसा कोई अपराध तो नहा किया है, जिसका यह दण्ड हो ।",उस अंधकार में ये लोग लालटेन लिए घायलों को अस्पताल ले जा रहे थे ।,"चक्रधर ने सोचा-मैंने ऐसा कोई अपराध तो नहीं किया, जिसका यह दंड हो ।" "अन्द्र मिस्टर जिम और भिस्टर सिम रोद्र रूप धारण किये सिगार पी रहे थे, मानों क्रोघाग्नि मुँह से निकज्ञ रहो हो ।","चक्रधर ने सोचा-मैंने ऐसा कोई अपराध तो नहीं किया, जिसका यह दंड हो ।","अन्दर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किए सिगार पी रहे थे, मानो क्रोधाग्नि मुँह से निकल रही हो ।" दीवान साहब क्रोघ से आंखें लात किये भेज पर हाथ रखे कुछ कह रहे थे ओर मुशी वच्नघर हाथ बाँचे एक फोने में खड़े ये ।,"अन्दर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किए सिगार पी रहे थे, मानो क्रोधाग्नि मुँह से निकल रही हो ।",दीवान साहब क्रोध से आँखें लाल किए मेज पर हाथ रखे कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बाँधे एक कोने में खड़े थे । चक्रधर को देखते हो मिस्टर जिम ने कहा--राजा साइच्र कईता है कि यह सब तुम्द्दारी शरारत है ।,दीवान साहब क्रोध से आँखें लाल किए मेज पर हाथ रखे कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बाँधे एक कोने में खड़े थे ।,चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा-राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है । "वज़्घधर--वेटा, मैं अमर थोड़े ही दिनों का मेहमान हूँ ।",चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा-राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है ।,"वज्रधर-बेटा, मैं अब थोड़े ही दिनों का मेहमान हूँ ।" "हरिसेवक-- तइसीलदार साहब, आप व्यर्थ हेगन होते हैं ।","वज्रधर-बेटा, मैं अब थोड़े ही दिनों का मेहमान हूँ ।","हरिसेवक-तहसीलदार साहब, आप व्यर्थ हैरान होते हैं ।" "तुपने श्रच्छा शहादत दिया, तो तुम्हारा पेंशन बह्मयल रखा जायगा ।","हरिसेवक-तहसीलदार साहब, आप व्यर्थ हैरान होते हैं ।","तुमने अच्छा शहादत दिया, तो तुम्हारा पेंशन बहाल रखा जायगा ।" "हाँ, इतना ही चाहता हूँ कि फिर ऐसे हगामे न खड़े हों ।","तुमने अच्छा शहादत दिया, तो तुम्हारा पेंशन बहाल रखा जायगा ।","हाँ, इतना ही चाहता हूँ कि ऐसे हँगामे न खड़े हों ।" "मुके श्राप पकड सकते हैं, कैद कर सकते हैं ।","हाँ, इतना ही चाहता हूँ कि ऐसे हँगामे न खड़े हों ।","मुझे आप पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं ।" "अ्रगर आप उन्हें कर्महीन, चुद्धिदीन, पुरुषार्थदीन मनुष्य का तन घारण करनेवाले सियार ओर सुअर बनाना चाहते हैं, तो बनाइए, पर इससे न श्रापकी कोरति होगी, न ईश्वर प्रसन्न होंगे श्रौर न स्वय आपको श्रात्मा दो तु/ होगी ।","मुझे आप पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं ।","अगर आप उन्हें कर्महीन, बुद्धिहीन, पुरुषार्थहीन मनुष्य का तन धारण करने वाले सियार और सुअर बनाना चाहते हैं, तो बनाइए, पर इससे न आपकी कीर्ति होगी, न ईश्वर प्रसन्न होंगे और न स्वयं आपकी आत्मा ही तुष्ट होगी ।" इसने प्रजा में असन्तोष को आग भड़कायी ।,"अगर आप उन्हें कर्महीन, बुद्धिहीन, पुरुषार्थहीन मनुष्य का तन धारण करने वाले सियार और सुअर बनाना चाहते हैं, तो बनाइए, पर इससे न आपकी कीर्ति होगी, न ईश्वर प्रसन्न होंगे और न स्वयं आपकी आत्मा ही तुष्ट होगी ।",इसने प्रजा में असन्तोष की आग भड़काई । "यो पढ़ी रहती थी, नैंसे कोई चिड़िया पिंजरे में |",इसने प्रजा में असन्तोष की आग भड़काई ।,"यों पड़ी रहती थी, जैसे कोई चिड़िया पिंजरे में ।" "कभी चुपके-चुपके कोप-मवन के द्वार तक जाती, कमी खिड़को से भॉँकती; पर राजा साहव को स्थोरियों देखकर उलठे पॉव लौट आती ।","यों पड़ी रहती थी, जैसे कोई चिड़िया पिंजरे में ।","कभी चुपके-चुपके कोपभवन के द्वार तक जाती, कभी खिड़की से झाँकती; पर राजा साहब की त्योरियाँ देखकर उलटे पाँव लौट आती ।" "डरती थी कि कहीं वह कुछु खा न लें, कही माग न जायेँ ।","कभी चुपके-चुपके कोपभवन के द्वार तक जाती, कभी खिड़की से झाँकती; पर राजा साहब की त्योरियाँ देखकर उलटे पाँव लौट आती ।","डरती थी कि कहीं वह कुछ खा न लें, कहीं भाग न जायें ।" मनोर्मा--ऊपरर ही तो थी ।,"डरती थी कि कहीं वह कुछ खा न लें, कहीं भाग न जायें ।",मनोरमा-ऊपर ही तो थी । छृदय आँखों में रो रहा था |,मनोरमा-ऊपर ही तो थी ।,हृदय आँखों में रो रहा था । "मनोरमा ने पूछा--आप जानती है, राजा साहम कढ़ों हैं ?",हृदय आँखों में रो रहा था ।,"मनोरमा ने पूछा-आप जानती हैं, राजा साहब कहाँ हैं ?" "मनोरमा--भ्रापको मालूम है, राजा साहब इस वक्त कह्दों मिलेंगे ?","मनोरमा ने पूछा-आप जानती हैं, राजा साहब कहाँ हैं ?","मनोरमा-आपको मालूम है, राजा साहब इस वक्त कहाँ मिलेंगे ?" "भॉककर अन्दर देखा, राजा साइबच कमरे में दहलते थे ओर मूंछे ऐंठ रहे थे ।","मनोरमा-आपको मालूम है, राजा साहब इस वक्त कहाँ मिलेंगे ?","झाँककर अन्दर देखा, राजा साहब कमरे में टहलते थे और मूँछे ऐंठ रहे थे ।" "कोई दूसरा आदमी होता, तो शायद्‌ वह उस पर भल्ला पड़ते, निकन्र जाने को कहते, किन्तु मनोरमा के मान प्रदीस्त सौन्दय ने उन्हें परास्त कर दिया |","झाँककर अन्दर देखा, राजा साहब कमरे में टहलते थे और मूँछे ऐंठ रहे थे ।","कोई दूसरा आदमी होता, तो शायद वह उस पर झल्ला पड़ते, निकल जाने को कहते; किन्तु मनोरमा के मान-प्रदीप्त सौंदर्य ने उन्हें परास्त कर दिया ।" "सरोष नेन्रों से ताकती हुईं बोली--उसका कणठ श्रावेश से कॉप रद्य था-महाराज, मैं आपसे यह पूछने आयी हूँ कि क्या प्रभुत्व और पशुता एक ह्वी वस्तु है, या उनमे कुछ अन्तर है ?","कोई दूसरा आदमी होता, तो शायद वह उस पर झल्ला पड़ते, निकल जाने को कहते; किन्तु मनोरमा के मान-प्रदीप्त सौंदर्य ने उन्हें परास्त कर दिया ।","सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली-उसका कण्ठ आवेश से काँप रहा था-महाराज, मैं आपसे यह पूछने आयी हूँ कि क्या प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु है या उनमें कुछ अन्तर है ?" तुम्हारी त्योरियाँ चदी हुई हं ।,"सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली-उसका कण्ठ आवेश से काँप रहा था-महाराज, मैं आपसे यह पूछने आयी हूँ कि क्या प्रभुत्व और पशुता एक ही वस्तु है या उनमें कुछ अन्तर है ?",तुम्हारी त्योरियाँ चढ़ी हुई हैं । यह मेँवें क्‍यों तनी हुई हैं ?,तुम्हारी त्योरियाँ चढ़ी हुई हैं ।,यह भँवें क्यों तनी हुई हैं ? मनोर्मा--मैं आपके सामने फरियाद करने आयी हैं ।,यह भँवें क्यों तनी हुई हैं ?,मनोरमा-मैं आपके सामने फरियाद करने आयी हूँ । मनोरमा के मुख से ये जज्ञते हुए शब्द सुनकर राजा दंय रह गये |,मनोरमा-मैं आपके सामने फरियाद करने आयी हूँ ।,मनोरमा के मुख से ये जलते हुए शब्द सुनकर राजा दंग रह गये । राजा साहब नम्नवा से बोले--चक्रघर को ठुप कैसे जानती हो ?,मनोरमा के मुख से ये जलते हुए शब्द सुनकर राजा दंग रह गये ।,राजा साहब नम्रता से बोले-चक्रधर को तुम कैसे जानती हो ? "जत्र उन पर इन्हीं कठोर हाथों से मैने आघात किया, तो श्रव ऐसी बातें सुनकर तुम्हें विश्वास न श्रायेगा ।",राजा साहब नम्रता से बोले-चक्रधर को तुम कैसे जानती हो ?,"जब उन पर इन्हीं कठोर हाथों से मैंने आघात किया, तो अब ऐसी बातें सुनकर तुम्हें विश्वास न आयेगा ।" एक वस्तु चाहे न हों; पर उनमें फून ओर चिनगारी का सम्बन्ध अवश्य है ।,"जब उन पर इन्हीं कठोर हाथों से मैंने आघात किया, तो अब ऐसी बातें सुनकर तुम्हें विश्वास न आयेगा ।","एक वस्तु चाहे न हों, पर उनमें फूस और चिनगारी का सम्बन्ध अवश्य है ।" "वह वोरात्मा हैँ श्रोर उनके साथ मैंने जा श्रन्याय किया है, उसका मुझे लीवन-पर्यन्त दुःख रहेगा ।","एक वस्तु चाहे न हों, पर उनमें फूस और चिनगारी का सम्बन्ध अवश्य है ।","वह वीरात्मा हैं और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन-पर्यंत दु:ख रहेगा ।" "ईश्वर जानता है, मेरे मन में प्रजा-हत के कैसे-कैसे होसले थे |","वह वीरात्मा हैं और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन-पर्यंत दु:ख रहेगा ।","ईश्वर जानता है, मेरे मन में प्रजाहित के लिए कैसे-कैसे हौसले थे ।" "इतने श्रांदमियों के बीच में मै अकेला, निस्सह्ाय, मित्रहीन प्राणो हैँ ।","ईश्वर जानता है, मेरे मन में प्रजाहित के लिए कैसे-कैसे हौसले थे ।","इतने आदमियों के बीच में मैं अकेला, निस्सहाय, मित्रहीन प्राणी हूँ ।" मैं आपसे यह आग्रह न करूँगी |,"इतने आदमियों के बीच में मैं अकेला, निस्सहाय, मित्रहीन प्राणी हूँ ।",मैं आपसे यह आग्रह करूँगी । मैने ऐसी मघुर वाणी कभी न छुनी थी |,मैं आपसे यह आग्रह करूँगी ।,मैंने ऐसी मधुर वाणी कभी न सुनी थी । "जब वह आँखों से ओमकल हो गयी, तो वह कुर्सी पर लेट गये ।",मैंने ऐसी मधुर वाणी कभी न सुनी थी ।,"जब वह आँखों से ओझल हो गयी, तो वह कुर्सी पर लेट गये ।" उनके छुदय मे एक विचित्र श्राकांक्षा अंकुरित हो रही थी ।,"जब वह आँखों से ओझल हो गयी, तो वह कुर्सी पर लेट गये ।",उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हो रही थी । "एक आधघ मरभुक्खे पत्तों की राह न देख- कर कभी-कभी रक्त का स्वाद ले लेते हैं; लेकिन अधिकाश मएडली उस समय का इन्त- जार कर रही है, जब निद्रादेवी उनके सामने पत्तल रखकर कहेगी-प्यारे, खाझो जितना खा सको; पियो, जितना पी सको ।",उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हो रही थी ।,"एक आध मरभुक्खे पत्तलों की राह न देखकर कभी-कभी रक्त का स्वाद ले लेते हैं, लेकिन अधिकांश मण्डली उस समय का इन्तजार कर रही है, जब निद्रा देवी उनके सामने पत्तल रखकर कहेंगी--प्यारे, आओ जितना खा सको खाओ, जितना पी सको पिओ ।" हमारी शान्त-शिक्ञा की तह में द्वेंप छिपा हुआ था ।,"एक आध मरभुक्खे पत्तलों की राह न देखकर कभी-कभी रक्त का स्वाद ले लेते हैं, लेकिन अधिकांश मण्डली उस समय का इन्तजार कर रही है, जब निद्रा देवी उनके सामने पत्तल रखकर कहेंगी--प्यारे, आओ जितना खा सको खाओ, जितना पी सको पिओ ।",हमारी शान्त शिक्षा की तह में द्वेष छिपा हुआ था । सवार के लिए घोड़े का श्रढ़ जाना या विगड़ जाना एक वात है |,हमारी शान्त शिक्षा की तह में द्वेष छिपा हुआ था ।,सवार के लिए घोड़े का अड़ जाना या बिगड़ जाना एक बात है । "वह साधु नहीं है, जिसका वल धरम है, वह विद्वान्‌ नदी है, जिसमा वल तक है |",सवार के लिए घोड़े का अड़ जाना या बिगड़ जाना एक बात है ।,"वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है, वह विद्वान नहीं है, जिसका बल तर्क है ।" "उनदी इच्छा इसके सिधा ओर क्या है कि सभी आदमी अपनी अपनी ओखें बन्द कर रखें, उन्‍हें अपने आगे-पीछे, दायें-चार्ये देखने का हक नहीं |","वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है, वह विद्वान नहीं है, जिसका बल तर्क है ।","उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी-अपनी आँखें बन्द कर रखें, उन्हें अपने आगे-पीछे, दाएं-बाएं देखने का हक नहीं ।" बह इसी सोच विचार में पड़े हुए ये कि एकाएक मुशी बज्भघर कमरे में दाखिल हुए. ।,"उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी-अपनी आँखें बन्द कर रखें, उन्हें अपने आगे-पीछे, दाएं-बाएं देखने का हक नहीं ।",वह इसी सोच-विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुए । "उसे हमारे छुख दुख की जरा भी चिन्ता नहीं होती, फोरन्‌ वेवफाई कर जाता है ।",वह इसी सोच-विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुए ।,"उसे हमारे सुख-दुख की जरा भी चिंता नहीं होती, फौरन बेवफाई कर जाता है ।" "हम जरा बीमार हो जायें, किसी स्थान का जल-वायु जरा हमारे अथ्रनुकूल हो जाय कि वस, हमारे प्यारे वस्र, जिनके लिए हमने दो की दूकान को खाक छान डाली थी, हमारा साथ छोड़ देते हैं |","उसे हमारे सुख-दुख की जरा भी चिंता नहीं होती, फौरन बेवफाई कर जाता है ।","हम जरा बीमार हो जायें, किसी स्थान की जलवायु जरा हमारे अनुकूल हो जाय कि बस, हमारे प्यारे वस्त्र, जिनके लिए हमने दर्जी की दुकान की खाक छान डाली थी, हमारा साथ छोड़ देते हैं ।" "उन्हें श्रपना वनाओ, अपने नहीं होते ।","हम जरा बीमार हो जायें, किसी स्थान की जलवायु जरा हमारे अनुकूल हो जाय कि बस, हमारे प्यारे वस्त्र, जिनके लिए हमने दर्जी की दुकान की खाक छान डाली थी, हमारा साथ छोड़ देते हैं ।","उन्हें अपना बनाओ, अपने नहीं होते ।" "श्रगर जब्र दस्ती गले लगाओ, तो चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, हम ठम्दारे नदीं |","उन्हें अपना बनाओ, अपने नहीं होते ।","अगर जबरदस्ती गले लगाओ, तो चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, हम तुम्हारे नहीं ।" "मुशी वज्भघर वी अचकन भी, जो उनकी अ्ल्पकालीन लेपिन ऐतिहासिक तदसीलदारी की यादगार थी, घुकार पुकारकर कहती थी-में श्रव इनकी नहीं ।","अगर जबरदस्ती गले लगाओ, तो चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, हम तुम्हारे नहीं ।","मुंशी वज्रधर की अचकन भी, जो उनकी अल्पकालीन लेकिन ऐतिहासिक तहसीलदारी की यादगार थी, पुकार-पुकारकर कहती थी-मैं अब इनकी नहीं ।" यहाँ तो बढ़ा अंघेरा है ।,"मुंशी वज्रधर की अचकन भी, जो उनकी अल्पकालीन लेकिन ऐतिहासिक तहसीलदारी की यादगार थी, पुकार-पुकारकर कहती थी-मैं अब इनकी नहीं ।",यहाँ तो बड़ा अँधेरा है । "चलो, वाहर इवका खड़ा है, बैठ लो |",यहाँ तो बड़ा अँधेरा है ।,"चलो, बाहर इक्का खड़ा है, बैठ लो ।" "पहले बहुत यॉ्यों करता रद्द, लेकिन मैने पिंड न छोड़ा ।","चलो, बाहर इक्का खड़ा है, बैठ लो ।","पहले बहुत यों-त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा ।" सरकारी सुलानिपत और वह भी तहसीलठारी सत्र कुछ सिखा देती है ।,"पहले बहुत यों-त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा ।",सरकारी मुलाजिमत और वह भी तहसीलदारी सब कुछ सिखा देती है । "अंगरेजी को तो तुम जानते ही हो, भेमों के गुलाम होते है |",सरकारी मुलाजिमत और वह भी तहसीलदारी सब कुछ सिखा देती है ।,"अंग्रेजों को तो तुम जानते ही हो, मेमों के गुलाम होते हैं ।" मेम ने जावर हजरत को डॉटा--क्यों तहमोल- दार साहब को दिक कर रहे हो ?,"अंग्रेजों को तो तुम जानते ही हो, मेमों के गुलाम होते हैं ।",मेम ने जाकर हजरत को डाँटा-क्यों तहसीलदार साहब को दिक कर रहे हो ? "यह डॉट पछी, तो हजरत के होश ठिकाने हुए ।",मेम ने जाकर हजरत को डाँटा-क्यों तहसीलदार साहब को दिक कर रहे हो ?,"वह डाँट पड़ी, तो हजरत के होश ठिकाने हुए ।" "हम श्रभी जेलर को लिखता है कि उससे पूद्ी, राजी है ?","वह डाँट पड़ी, तो हजरत के होश ठिकाने हुए ।",हम अभी जेलर को लिखता है कि उससे पूछो राजी है ? चक्रधर ने सिर नीचा करझे कह्य--श्रभी तो मैने कुछ निश्चय नहीं किया ।,हम अभी जेलर को लिखता है कि उससे पूछो राजी है ?,चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा-अभी तो मैंने कुछ निश्चय नहीं किया । चलो; हइसफनामा लिख दो ।,चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा-अभी तो मैंने कुछ निश्चय नहीं किया ।,"चलो, हलफनामा लिख दो ।" "अब अयने सिर पर पड़ी, तो केने सारो बला तुम्हारे सिर ठेलकर निकल गये |","चलो, हलफनामा लिख दो ।","अब अपने सिर पर पड़ी, तो कैसे सारी बला तुम्हारे सिर ठेलकर निकल गये ।" "जत्र सारी दुनिया अपना मतलत्र निकलने की घुन में है, तो तुम्हों दुनिया की फिक्र में क्यों अपने को बरव्ाद करो ?","अब अपने सिर पर पड़ी, तो कैसे सारी बला तुम्हारे सिर ठेलकर निकल गये ।","जब सारी दुनिया अपना मतलब निकालने की धुन में है, तो तुम्ही दुनिया की फिक्र में क्यों अपने को बरबाद करो ?" "हम अपने काम से काम है, या दुनिया के भझंगढ़ों से ?","जब सारी दुनिया अपना मतलब निकालने की धुन में है, तो तुम्ही दुनिया की फिक्र में क्यों अपने को बरबाद करो ?",हमें अपने काम से काम है या दुनिया के झगड़ों से ? "जब से तुम आये हो, एक घू८ पानी तक मुँह मे नहीं डाला |",हमें अपने काम से काम है या दुनिया के झगड़ों से ?,"जब से तुम आये हो, एक घूँट पानी तक मुँह में नहीं डाला ।" इसी तरह दो-चार दिन श्रोर रहीं तो प्राण निकल जायेंगे ।,"जब से तुम आये हो, एक घूँट पानी तक मुँह में नहीं डाला ।","इसी तरह दो-चार दिन और रहीं, तो प्राण निकल जायेंगे ।" "तुम्दारे सिर का बोझ पल जायगा ! यह लो, वार्डर मुझे बुलाने आ रहे हैं |","इसी तरह दो-चार दिन और रहीं, तो प्राण निकल जायेंगे ।","तुम्हारे सिर का बोझ टल जायगा! यह लो, वॉर्डन मुझे बुलाने आ रहे हैं ।" चक्रघर करुणा से विह्लल हो गये ।,"तुम्हारे सिर का बोझ टल जायगा! यह लो, वॉर्डन मुझे बुलाने आ रहे हैं ।",चक्रधर करुणा से विह्वल हो गये । तुर्त उत्तर दिया--मे जरा वह प्रतिजञा-पत्र देखना चाहता हूँ |,चक्रधर करुणा से विह्वल हो गये ।,तुरन्त उत्तर दिया-मैं जरा वह प्रतिज्ञापत्र देखना चाहता हूँ । श्रॉसू उमड़ रहे ये; पर जेलर के सामने केसे रोते ?,तुरन्त उत्तर दिया-मैं जरा वह प्रतिज्ञापत्र देखना चाहता हूँ ।,आँसू उमड़ रहे थे; पर जेलर के सामने कैसे रोते ? एक सप्ताह के बाद मिस्टर जिम के इजलास मे मुकदमा चलने लगा ।,आँसू उमड़ रहे थे; पर जेलर के सामने कैसे रोते ?,एक सप्ताह बाद मिस्टर जिम के इलजास में मुकद्दमा चलने लगा । "अक्सर यह साहब के दोनों बच्चों को खिलाया करते, कन्धे पर लेकर दोढ़ते, मिठाश्यों ला लाकर खिलाते श्रोर मेम साइब की दँसानेवाले लतीफे सुनाते ।",एक सप्ताह बाद मिस्टर जिम के इलजास में मुकद्दमा चलने लगा ।,"अक्सर यह साहब के दोनों बच्चों को खिलाया करते, कन्धे पर लेकर दौड़ते, मिठाइयाँ ला-लाकर खिलाते और मेम साहब को हँसाने वाले लतीफे सुनाते ।" "जी तो यही चाहता है कि हुजूर कम्बख्त का मुँट न देग्बू, लेकिन कलेवा नहों मानता ।","अक्सर यह साहब के दोनों बच्चों को खिलाया करते, कन्धे पर लेकर दौड़ते, मिठाइयाँ ला-लाकर खिलाते और मेम साहब को हँसाने वाले लतीफे सुनाते ।","जी तो यही चाहता है कि हुजूर, कमबख्त का मुँह न देखू लेकिन कलेजा नहीं मानता ।" "उसके मुख पर अब पढले की-सी श्ररुण श्राभा, वह चश्चलता, वह प्रफुल्नता नहीं है ।","जी तो यही चाहता है कि हुजूर, कमबख्त का मुँह न देखू लेकिन कलेजा नहीं मानता ।","उसके मुख पर अब पहले की-सी अरुण आभा, वह चंचलता, वह प्रफुल्लता नहीं है ।" "उसकी जगह दृद सकल्‍्प, विशाल करुणा, अ्रलोकिक घैयें ओर गदरी चिन्ता का फीका रग छाया हुआ है, मानो कोई विरागिनी है, जिसके मुख पर हास्य की मृदु रेखा! कभी खिची ही नहीं |","उसके मुख पर अब पहले की-सी अरुण आभा, वह चंचलता, वह प्रफुल्लता नहीं है ।","उसकी जगह दृढ़ संकल्प, विशाल करुणा, अलौकिक धैर्य और गहरी चिंता का फीका रंग छाया हुआ है, मानो कोई वैरागिनी है, जिसके मुख पर हास्य की मृदु-रेखा कभी खिंची ही नहीं ।" "उन्हें आश्रय ही देने के लिए. बढ रानी बनतो है, अपने लिए बह कोई मझवे नहीं बॉघती ।","उसकी जगह दृढ़ संकल्प, विशाल करुणा, अलौकिक धैर्य और गहरी चिंता का फीका रंग छाया हुआ है, मानो कोई वैरागिनी है, जिसके मुख पर हास्य की मृदु-रेखा कभी खिंची ही नहीं ।","उन्हें आश्रय ही देने के लिए वह रानी बनती है, अपने लिए वह कोई मंसूबे नहीं बांधती ।" उसने इसी अवसर के लिए कई दिन से ये वाक्य रच रखे ये |,"उन्हें आश्रय ही देने के लिए वह रानी बनती है, अपने लिए वह कोई मंसूबे नहीं बांधती ।",उसने इसी अवसर के लिए कई दिन से वाक्य रट रखे थे । धोरे-घोरे कमरा खाली हो गया |,उसने इसी अवसर के लिए कई दिन से वाक्य रट रखे थे ।,धीरे-धीरे कमरा खाली हो गया । "जब जिम कठघरे से नीचे उतरे, तो मुशीजी आँखों मे ऑस भरे उनके पास आये ओर बोले--मिस्टर जिम, में तुम्हें आदमी समझता था; पर वुम पत्थर निकले |",धीरे-धीरे कमरा खाली हो गया ।,"जब जिम कटघरे से नीचे उतरे, तो मुंशीजी आँखों में आँसू भरे उनके पास आये और बोले-मिस्टर जिम, मैं तुम्हें आदमी समझता था, पर तुम पत्थर निकले ।" "यह धाँधली उसी वक्त तक चलेगी, जब तक यहां के लोगों की आँखें वन्‍्द्‌ हैं |","जब जिम कटघरे से नीचे उतरे, तो मुंशीजी आँखों में आँसू भरे उनके पास आये और बोले-मिस्टर जिम, मैं तुम्हें आदमी समझता था, पर तुम पत्थर निकले ।","यह धाँधली उसी वक्त तक चलेगी, जब तक यहाँ के लोगों की आँखें बंद हैं ।" "चक्रघर जेल पहुँचे, तो शाम हो गयी थी ।","यह धाँधली उसी वक्त तक चलेगी, जब तक यहाँ के लोगों की आँखें बंद हैं ।","चक्रधर जेल पहुँचे, तो शाम हो गयी थी ।" लोग ओर तसला भी दिया गया ।,"चक्रधर जेल पहुँचे, तो शाम हो गयी थी ।",लोटा और तसला भी दिया गया । "चक्रधर जत्र ये कपडे पहनकर खडे हुए, तो उनके सुख पर विचित्र शान्ति की कूवक दिखायी दी, मानों किसी ने जीवन का तत्व प्रा लिया हो ।",लोटा और तसला भी दिया गया ।,"चक्रधर जब ये कपड़े पहनकर खड़े हुए, तो उनके मुख पर विचित्र शान्ति की झलक दिखाई दी, मानो किसी ने जीवन का तत्त्व पा लिया हो ।" "उन्दोंने वही किया, जो उनका कतंव्य था ओर क्तंव्य का पालन ही चित्त की शान्ति का मूल-मन्त्र है ।","चक्रधर जब ये कपड़े पहनकर खड़े हुए, तो उनके मुख पर विचित्र शान्ति की झलक दिखाई दी, मानो किसी ने जीवन का तत्त्व पा लिया हो ।","उन्होंने वही किया, जो उनका कर्त्तव्य था और कर्त्तव्य का पालन ही चित्त की शान्ति का मूल मंत्र है ।" "मनोरमा, तुम क्यो मेरे कोपड़े मे आय लगाती हो ?","उन्होंने वही किया, जो उनका कर्त्तव्य था और कर्त्तव्य का पालन ही चित्त की शान्ति का मूल मंत्र है ।","मनोरमा, तुम क्यों मेरे झोंपड़े में आग लगाती हो ?" "ह॒म्हें मालूम है, ठम मुझे किधर खींचे लिये जाती हो ?","मनोरमा, तुम क्यों मेरे झोंपड़े में आग लगाती हो ?","तम्हें मालम है, तुम मुझे किधर खींचे लिए जाती हो ?" ये बाते कल सुन्हें भूल जायेगी ।,"तम्हें मालम है, तुम मुझे किधर खींचे लिए जाती हो ?",ये बातें कल तुम्हें भूल जायेंगी । "किसी राजा रईस से तुम्हारा विवाह हो जावगा, फिर मुझे भूलकर भी न याद करोगी |",ये बातें कल तुम्हें भूल जायेंगी ।,"किसी राजा-रईस से तुम्हारा विवाह हो जायगा, फिर भूलकर भी न याद करोगी ।" "राजा साहब को श्र अपनी रानियाँ गँवारिने-सी ज॑चती थीं, जिन्हें इसका जरा भी श्ञान न था कि अपने को इस नयी परिस्थिति के अनुकूल कैसे बनायें, कैसे जीवन का आनन्द उठायें |","किसी राजा-रईस से तुम्हारा विवाह हो जायगा, फिर भूलकर भी न याद करोगी ।","राजा साहब को अब अपनी रानियाँ गँवारिनें-सी जँचती थीं, जिन्हें इसका जरा भी ज्ञान न था कि अपने को इस नई परिस्थिति के अनुकूल कैसे बनायें, कैसे जीवन का आनन्द उठायें ।" वे केवल आमभूपणों ही पर हू रही थीं ।,"राजा साहब को अब अपनी रानियाँ गँवारिनें-सी जँचती थीं, जिन्हें इसका जरा भी ज्ञान न था कि अपने को इस नई परिस्थिति के अनुकूल कैसे बनायें, कैसे जीवन का आनन्द उठायें ।",वे केवल आभूषणों ही पर टूट रही थीं । "यहाँ तक कि रामप्रिया भी श्रपने हिस्से के लिए, लड़ने-गढ़ने मे सड्लोच न करती थी |",वे केवल आभूषणों ही पर टूट रही थीं ।,यहाँ तक कि रामप्रिया भी अपने हिस्से के लिए लड़ने-झगड़ने में संकोच न करती थी । राजा साहव के हृदय में नयी नयी प्रेम-कल्पनाएँ अकुरित होने लगीं ।,यहाँ तक कि रामप्रिया भी अपने हिस्से के लिए लड़ने-झगड़ने में संकोच न करती थी ।,राजा साहब के हृदय में नई-नई प्रेम-कल्पनाएँ अंकुरित होने लगी । "वाणी कितनी मधुर थी, पतिभा मे डूबी हुई, एक एक ब्द दुदय की पविन्षता मे रगा हुआ ।",राजा साहब के हृदय में नई-नई प्रेम-कल्पनाएँ अंकुरित होने लगी ।,"वाणी कितनी मधुर थी, प्रतिभा में डूबी हुई, एक-एक शब्द हृदय की पवित्रता में रंगा हुआ ।" "कितनी अदभुत रूप-छुटा है, मानों ऊषा के दृदय से ज्योतिमय मधुर सगीत की कोमल, सरस, शीतल न्वनि निकल रही हो |","वाणी कितनी मधुर थी, प्रतिभा में डूबी हुई, एक-एक शब्द हृदय की पवित्रता में रंगा हुआ ।","कितनी अद्भुत रूप छटा है, मानो ऊषा के हृदय से ज्योतिर्मय मधुर संगीत कोमल, सरस, शीतल ध्वनि निकल रही हो ।" "ृद्य कितना उदार है, कितना कोमल ! ऐसी रमणी के साथ जीवन कितना शआनन्दमय, कितना हु कायाकबप ] 4३३ कल्याणमय हो सकता है! जो बालिका एक साधारण व्यक्ति के प्रति इतनी श्रद्धा रख सक्तो है, वह अपने पति के साथ कितना प्रेम करेगी, इसकी कल्पना से उनका चित्त फूल उठता था ।","कितनी अद्भुत रूप छटा है, मानो ऊषा के हृदय से ज्योतिर्मय मधुर संगीत कोमल, सरस, शीतल ध्वनि निकल रही हो ।","हृदय कितना उदार है, कितना कोमल ! ऐसी रमणी के साथ जीवन कितना आनन्दमय, कितना कल्याणमय हो सकता है ! जो बालिका एक साधारण व्यक्ति के प्रति इतनी श्रद्धा रख सकती है, वह अपने पति के साथ कितना प्रेम करेगी, कल्पना से उनका चित्त फूल उठता था ।" जीवन स्वर्ग-तुल्य हो जञायगा |,"हृदय कितना उदार है, कितना कोमल ! ऐसी रमणी के साथ जीवन कितना आनन्दमय, कितना कल्याणमय हो सकता है ! जो बालिका एक साधारण व्यक्ति के प्रति इतनी श्रद्धा रख सकती है, वह अपने पति के साथ कितना प्रेम करेगी, कल्पना से उनका चित्त फूल उठता था ।",जीवन स्वर्ग तुल्य हो जायगा । वह उनके इरादों को भाप गयी थी ओर उन्हे दूर ही रखना चाहती थी ।,जीवन स्वर्ग तुल्य हो जायगा ।,वह उनके इरादों को भाँप गयी थी और उन्हें दूर ही रखना चाहता था । आखिर उन्होने भुन्शीजी को अपना भेदिया बनाना निश्चय किया |,वह उनके इरादों को भाँप गयी थी और उन्हें दूर ही रखना चाहता था ।,आखिर उन्होंने मुंशीजी को अपना एक भेदिया बनाना निश्चय किया । "मुशी-हुजूर, मेने अ्रपनी उम्र मे ऐसी अच्छी फसल नहीं देखी |",आखिर उन्होंने मुंशीजी को अपना एक भेदिया बनाना निश्चय किया ।,"मुंशी-हुजूर, मैंने अपनी उम्र में ऐसी अच्छी फसल नहीं देखी ।" "जत्र ईश्वर ने अब तक सतान न दी, तो अब कोन-सी आशा है ?","मुंशी-हुजूर, मैंने अपनी उम्र में ऐसी अच्छी फसल नहीं देखी ।","जब ईश्वर ने अब तक संतान न दी, तो अब कौनसी आशा है ?" "॥॒ मुशी--गरीबपरवर, अभी आपकी उम्र हो क्या है ।","जब ईश्वर ने अब तक संतान न दी, तो अब कौनसी आशा है ?","मुंशी-गरीबपरवर, अभी आपकी उम्र ही क्या है ।" ऐसी स््री आसानी से नही मिल सक्रती |,"मुंशी-गरीबपरवर, अभी आपकी उम्र ही क्या है ।",ऐसी स्त्री आसानी से नहीं मिल सकती । "श्राप जानते हैं न, दीवान साहब के घर को स्वामिनी लौंगी ?",ऐसी स्त्री आसानी से नहीं मिल सकती ।,"आप जानते हैं न, दीवान साहब के घर की स्वामिनी लौंगी है ?" और है मी अमिमानिनी ।,"आप जानते हैं न, दीवान साहब के घर की स्वामिनी लौंगी है ?","और, है भी अभिमानिनी ।" "उसे घमका- कर, मारने का मय दिखाकर, श्राप उससे जो काम चाहें करा सकते हैं ।","और, है भी अभिमानिनी ।","उसे धमकाकर, मारने का भय दिखाकर, आप उससे जो काम चाहें करा सकते हैं ।" दोवान साइब मनोरमा के साथ गगा-स्नान को गये हुए. थे ।,"उसे धमकाकर, मारने का भय दिखाकर, आप उससे जो काम चाहें करा सकते हैं ।",दीवान साहब मनोरमा के साथ गंगास्नान को गये हुए थे । लौगी अकेली बैठी हुईं थी |,दीवान साहब मनोरमा के साथ गंगास्नान को गये हुए थे ।,लौंगी अकेली बैठी हुई थी । लौंगो--ओऔर नहीं क्‍या छैला-जवान हैं ?,लौंगी अकेली बैठी हुई थी ।,लौंगी-और नहीं क्या छैला जवान हैं ? बात जो थी मेने साफ-साफ कह दी |,लौंगी-और नहीं क्या छैला जवान हैं ?,"बात जो थी, मैंने साफ-साफ कह दी ।" यह चारपाई पर बैठकर पान चत्राना भूल जायगा |,"बात जो थी, मैंने साफ-साफ कह दी ।",यह चारपाई पर बैठकर पान चबाना भूल जाइएगा । "लौंगी--तहसीलदार साइब, तुम तो घमकाते हो, नैसे दम राजा के हाथों विक गये हों |",यह चारपाई पर बैठकर पान चबाना भूल जाइएगा ।,"लौंगी-तहसीलदार साहब, तुम तो धमकाते हो, जैसे हम राजा के हाथों बिक गये हों ।" "रानी रूठेंगी, श्रपना सोहाग लेंगी ।","लौंगी-तहसीलदार साहब, तुम तो धमकाते हो, जैसे हम राजा के हाथों बिक गये हों ।","रानी रूठेगी, अपना सोहाग लेंगी ।" भगवान्‌ का दिया खाने-भर को बहुत है |,"रानी रूठेगी, अपना सोहाग लेंगी ।",भगवान् का दिया खाने को बहुत है । "तुम अपना मुँह चन्द रखो, इम दीवान साह्य को राजी कर लेंगे ।",भगवान् का दिया खाने को बहुत है ।,"तुम अपना मुँह बन्द रखो, हम दीवान साहब को राजी कर लेंगे ।" "ठाकुर साहब चाहे इस वक्त तुम्दारा कहना मान जाये, पर जब चरखे में फेंदंग तो सारा गुस्सा ठम्हों पर उतारेंगे ।","तुम अपना मुँह बन्द रखो, हम दीवान साहब को राजी कर लेंगे ।","ठाकुर साहब चाहे इस वक्त तुम्हारा कहना मान जायें, पर जब चरखे में फँसेंगे, तो सारा गुस्सा तुम्हीं पर उतारेंगे ।" यह भी जानतो थी फि दीवान साहय के दिल मे ऐसा खयाल श्राना असम्भव नहीं है ।,"ठाकुर साहब चाहे इस वक्त तुम्हारा कहना मान जायें, पर जब चरखे में फँसेंगे, तो सारा गुस्सा तुम्हीं पर उतारेंगे ।",यह भी जानती थी कि दीवान साहब के दिल में ऐसा खयाल आना असम्भव नहीं है । "कहीं प॑ छे से कोई आफत आयी, तो मेरे ही सिर के चाल नोचे जायँंगे ।",यह भी जानती थी कि दीवान साहब के दिल में ऐसा खयाल आना असम्भव नहीं है ।,"कहीं पीछे से कोई आफत आयी, तो मेरे ही सिर के बाल नोंचे जायेंगे ।" "ढुर्दीं कोई बात बता दो, जो मेरी इच्छा से हुई दवा |","कहीं पीछे से कोई आफत आयी, तो मेरे ही सिर के बाल नोंचे जायेंगे ।","तुम्हीं कोई बात बता दो, जो मेरी इच्छा से हुई हो ?" तुम करते हो अपने ही मन की |,"तुम्हीं कोई बात बता दो, जो मेरी इच्छा से हुई हो ?",तुम करते हो अपने मन की । "हों, मे अपना घर्मं समझ के भूक लेती हूँ ।",तुम करते हो अपने मन की ।,"हाँ, मैं अपना धर्म समझ के भूक लेती हूँ ।" तू क्‍या चाहती है कि मैं श्रपनी जबान कथ्वा लू ?,"हाँ, मैं अपना धर्म समझ के भूक लेती हूँ ।",तू क्या चाहती है कि मैं अपनी जबान कटवा लूँ ? "मैं कहती हैं, म॒ुके यह विवाह एक आँख नहीं भाता |",तू क्या चाहती है कि मैं अपनी जबान कटवा लूँ ?,"मैं कहती हूँ, मुझे यह विवाह एक आँख नहीं भाता ।" म॒के बाल नुचवाने की चूता नहीं है |,"मैं कहती हूँ, मुझे यह विवाह एक आँख नहीं भाता ।",मुझे बाल नुचवाने का बूता नहीं है । है ठाकुर-क्या मुझे बिलकुल गया गुजर सममती है ?,मुझे बाल नुचवाने का बूता नहीं है ।,ठाकुर-क्या मुझे बिलकुल गया-गुजरा समझती है ? मैं जरा झगड़े से वंचता 0 तो दूने समझ लिया कि इनमे कुछ दम ही नहीं है ।,ठाकुर-क्या मुझे बिलकुल गया-गुजरा समझती है ?,"मैं जरा झगड़े से बचता हूँ, तो तूने समझ लिया कि इनमें कुछ दम ही नहीं है ।" "लाख गयान्रीता हूँ, वो भी ज्षत्रिय हूँ ।","मैं जरा झगड़े से बचता हूँ, तो तूने समझ लिया कि इनमें कुछ दम ही नहीं है ।","लाख गया-बीता हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ ।" "दीवान साहब उसी जोश में उठे, अ्राकर मुशीनी से बोलें--आप राजा साइन से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मजूर नहीं |","लाख गया-बीता हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ ।","दीवान साहब उसी जोश में उठे, आकर मुंशीजी से बोले-आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मंजूर नहीं ।" लौंगी भी ठाकुर साहब के पीछे-पीछे श्रायी थी ।,"दीवान साहब उसी जोश में उठे, आकर मुंशीजी से बोले-आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मंजूर नहीं ।",लौंगी भी ठाकुर साहब के पीछे-पीछे आयी थी । "मनोरमा--ससार के घर्मग्रन्य, उपनिषदों से लेकर कुरान तक, उन लोगों के रचे हुए है जो रोटियों को सुदताज थे ।",लौंगी भी ठाकुर साहब के पीछे-पीछे आयी थी ।,"मनोरमा-संसार के धर्मग्रन्थ , उपनिषदों से लेकर कुरान तक, उन लोगों के रचे हुए हैं, जो रोटियों के मोहताज थे ।" "उन्होंने अंगूर खयटे समझकर घन की निन्‍्दा की, तो कोई आधर्य नहीं ।","मनोरमा-संसार के धर्मग्रन्थ , उपनिषदों से लेकर कुरान तक, उन लोगों के रचे हुए हैं, जो रोटियों के मोहताज थे ।",उन्होंने अंगूर खट्टे समझकर धन की निन्दा की तो कोई आश्चर्य नहीं । "अगर कुछ ऐसे आदमी है, जो घनी होकर भी घन की निनन्‍्दा करते ह, वो में उन्हें धूर्त उमभती हूँ, जिन्हें अपने सिद्धान्त पर व्यवहार करने का साहस नहीं |",उन्होंने अंगूर खट्टे समझकर धन की निन्दा की तो कोई आश्चर्य नहीं ।,"अगर कुछ ऐसे आदमी हैं, जो धनी होकर भी धन की निन्दा करते हैं, तो मैं उन्हें धूर्त समझती हूँ, जिन्हें अपने सिद्धान्त पर व्यवहार करने का साहस नहीं ।" "मुशीजी ने विजय-गरव से हँसकर कद्दा--कढ्िए, दीवान साइब, मेरी डिग्री हुई कि अब भी नहीं ?","अगर कुछ ऐसे आदमी हैं, जो धनी होकर भी धन की निन्दा करते हैं, तो मैं उन्हें धूर्त समझती हूँ, जिन्हें अपने सिद्धान्त पर व्यवहार करने का साहस नहीं ।","मुंशीजी ने विजय गर्व से हँसकर कहा-कहिए, दीवान साहब, मेरी डिग्री हुई कि अब भी नहीं ?" "क्‍यों मनोरमा, है न यद्दी बात ?","मुंशीजी ने विजय गर्व से हँसकर कहा-कहिए, दीवान साहब, मेरी डिग्री हुई कि अब भी नहीं ?","क्यों मनोरमा, है न यही बात ?" "ठाकुर साइव की ओर श्राँखें मारकर बोले--मनोरमा, मेरे विचार तुम्दारे विचारों से बिलकुल मिलते हैँ ।","क्यों मनोरमा, है न यही बात ?",ठाकुर साहब की ओर आँखें मारकर बोले-मनोरमा मेरे विचार तुम्हारे विचार से बिलकुल मिलते हैं । "लड़का माहुर माँगे, तो क्या मान्चाप उसे माहुर दे देंगे ?",ठाकुर साहब की ओर आँखें मारकर बोले-मनोरमा मेरे विचार तुम्हारे विचार से बिलकुल मिलते हैं ।,"लड़का माहुर माँगे, तो क्या माँ-बाप उसे माहुर दे देंगे ?" "लौगी--जब तक मा-ब्रप जोते हैं, तब तक लड़कों को बोलने का अखितयार ही क्या है ।","लड़का माहुर माँगे, तो क्या माँ-बाप उसे माहुर दे देंगे ?","लौंगी-जब तक माँ-बाप जीते हैं, तब तक लड़कों को बोलने का अख्तियार ही क्या है ?" "ठाकुर-साहब, मै इस विषय में साचकर जवाघर दूँगा ।","लौंगी-जब तक माँ-बाप जीते हैं, तब तक लड़कों को बोलने का अख्तियार ही क्या है ?","ठाकुर-साहब, मैं इस विषय में सोचकर जवाब दूंगा ।" "राजा साहब कहेंगे, फिर गये ही किस जिरते पर ये ।","ठाकुर-साहब, मैं इस विषय में सोचकर जवाब दूंगा ।","राजा साहब कहेंगे, फिर गये ही किस बिरते पर थे ?" शायद यह भी समर्के कि इसे मामला तय करने को तमीज हो नही |,"राजा साहब कहेंगे, फिर गये ही किस बिरते पर थे ?",शायद यह भी समझें कि इसे मामला तय करने की तमीज ही नहीं । "तहसोलदारी नहीं की, भाड़ कोंकता रहा, इसले २ आपने जाकर दून को हकिनी शुरू फी--हुजूर, बुढ़िया चला को चुड़ेल है; हत्थे पर तो आती दी नहीं, इधर भी भुकती दे, उधर भी; ओर दोवान साहब तो निरे मिद्री के ढेल्ले हूँ ।",शायद यह भी समझें कि इसे मामला तय करने की तमीज ही नहीं ।,"तहसीलदारी नहीं की, भाड़ झोंकता रहा, इसलिए आपने जाकर दूर की हाँकनी शुरू की-हुजूर, बुढ़िया बला की चुडैल है, हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है, उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं ।" मुशी--उन्हीं की वातें सुनकर तो लौंगी भी चकरायी ।,"तहसीलदारी नहीं की, भाड़ झोंकता रहा, इसलिए आपने जाकर दूर की हाँकनी शुरू की-हुजूर, बुढ़िया बला की चुडैल है, हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है, उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं ।",मुंशी-उन्हीं की बातें सुनकर तो लौंगी भी चकराई । "कायदा तो यही है कि उघर से री गणेश' होता, लेकिन राजाश्रों में श्रक्‍्सर पुरुष की ओर से मी छेड़छाड़ होती है ।",मुंशी-उन्हीं की बातें सुनकर तो लौंगी भी चकराई ।,"कायदा तो यही है कि उधर से 'श्रीगणेश' होता, लेकिन राजाओं में अक्सर पुरुष की ओर से भी छेड़छाड़ होती है ।" पश्चिम में तो सनातन से यही प्रथा चली आ्रायी है ।,"कायदा तो यही है कि उधर से 'श्रीगणेश' होता, लेकिन राजाओं में अक्सर पुरुष की ओर से भी छेड़छाड़ होती है ।",पश्चिम में तो सनातन से यही प्रथा चली आयी है । एक भी पका वाल न रइने दिया |,पश्चिम में तो सनातन से यही प्रथा चली आयी है ।,एक भी पका बाल न रहने दिया । रात के ६ बजते बजते दीवान साहब ओर मनोरमा आ गये ।,एक भी पका बाल न रहने दिया ।,रात के नौ बजते-बजते दीवान साहब और मनोरमा आ गये । उसकी देह पर एक मी आ्राभूषण न था ।,रात के नौ बजते-बजते दीवान साहब और मनोरमा आ गये ।,उसकी देह पर एक भी आभूषण न था । केवल एक सुफेद खाड़ी पहने हुए. यी |,उसकी देह पर एक भी आभूषण न था ।,केवल एक सफेद साड़ी पहने हुए थी । दोवान साहब इस समय बहुत चिन्तित मालूम छोते ये ।,केवल एक सफेद साड़ी पहने हुए थी ।,दीवान साहब इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते थे । उसका मुखमण्डल लजा से आरक्त हो गया |,दीवान साहब इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते थे ।,उसका मुखमण्डल लज्जा से आरक्त हो गया । मेरी हार्दिक इच्छा सदैव यही रही दे कि किसी वन्धन में न पढ़ं ।,उसका मुखमण्डल लज्जा से आरक्त हो गया ।,मेरी हार्दिक इच्छा सदैव यही रही है कि किसी बन्धन में न पडूँ । "राजा ने मुस्कराते हुए कह्ा--मनोस्मा, प्रेम तो कोई बन्घन नहीं है |",मेरी हार्दिक इच्छा सदैव यही रही है कि किसी बन्धन में न पडूँ ।,"राजा ने मुस्कराते हुए कहा-मनोरमा, प्रेम तो कोई बन्धन नहीं है ।" में आपको अपनी कुछ्ली पहले ही से बताये देती हूँ ।,"राजा ने मुस्कराते हुए कहा-मनोरमा, प्रेम तो कोई बन्धन नहीं है ।",मैं आपको अपनी कुंजी पहले ही से बताए देती हूँ । ( मुस्फ़राकर ) में रानी तो बनना चाहती हूँ; पर किसी राजा की रानो नहीं |,मैं आपको अपनी कुंजी पहले ही से बताए देती हूँ ।,(मुस्कराकर) मैं रानी तो बनना चाहती हूँ पर किसी राजा की रानी नहीं । "में घन की लोडी बनकर नहीं, उसकी रानी बनकर रहेँगी |",(मुस्कराकर) मैं रानी तो बनना चाहती हूँ पर किसी राजा की रानी नहीं ।,"मैं धन की लौंडी बनकर नहीं, उसकी रानी बनकर रहूँगी ।" "दूसरा कहता--धन्नासिंह, मै तुमे न जाने दूँगा, ऊपर से ऐसा ढकेलू गा कि हड्डियों हृूट जायेगी |","मैं धन की लौंडी बनकर नहीं, उसकी रानी बनकर रहूँगी ।","दूसरा कहता-- धन्नासिंह, मैं तुझे न जाने दूँगा, ऊपर से ऐसा ढकेलूँगा कि हड्डियाँ टूट जायेंगी ।" "भगवान्‌ से कद दूँगा कि ऐसे पापी को बैकुएठ में रखोगे, तो तुम्हारे नरक में स्थार लोटेंगे |","दूसरा कहता-- धन्नासिंह, मैं तुझे न जाने दूँगा, ऊपर से ऐसा ढकेलूँगा कि हड्डियाँ टूट जायेंगी ।",भगवान से कह दूँगा कि ऐसे पापी को बैकुंठ में रखोगे तो तुम्हारे नरक में सियार लोटेंगे । वैकुण्ठ तो जब्र जानें कि वहाँ ताड़ी ओर शराब की नदियाँ बहती हों ।,भगवान से कह दूँगा कि ऐसे पापी को बैकुंठ में रखोगे तो तुम्हारे नरक में सियार लोटेंगे ।,बैकुण्ठ तो तब जानें कि वहाँ ताड़ी और शराब की नदियाँ बहती हों । "चौथा कहता--अजी यहाँ से बोरियों गॉजा श्रोर चरस लेते चलेंगे, वहाँ के ' रखवाले क्या धूस न खाते होंगे ?",बैकुण्ठ तो तब जानें कि वहाँ ताड़ी और शराब की नदियाँ बहती हों ।,"चौथा कहता-अजी, यहाँ से बोरियों गाँजा और चरस लेते चलेंगे, वहाँ के रखवाले क्या घूस न खाते होंगे ?" "कठिन परिस्थिति में उनका थैय ओर साहस, उनकी सद्ददयता और सहिष्णुता, उनकी बुद्धि ओर प्रतिभा अपना मोलिक रूप दिखाती हैं ।","चौथा कहता-अजी, यहाँ से बोरियों गाँजा और चरस लेते चलेंगे, वहाँ के रखवाले क्या घूस न खाते होंगे ?","कठिन परिस्थितियों में उनका धैर्य और साहस, उनकी सहृदयता और सहिष्णुता, उनकी बुद्धि और प्रतिभा अपना मौलिक रूप दिखाती है ।" इस भाँति कई महीने गुजर गये ।,"कठिन परिस्थितियों में उनका धैर्य और साहस, उनकी सहृदयता और सहिष्णुता, उनकी बुद्धि और प्रतिभा अपना मौलिक रूप दिखाती है ।",इस भाँति कई महीने गुजर गये । "चक्र घर ने देखा, अब श्रनर्थ हुआ चाहता है, तो तीर की तरह भापे, कैदियों के बोच में घुसकर धन्नासिंद का हाथ पकड़ लिया आर वोले --हट जाश्रो, क्या करते हो ?",इस भाँति कई महीने गुजर गये ।,"चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्नासिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले-हट जाओ, क्या करते हो ?" "जत्र यह रोज गालियाँ देता है, बात बात पर हटर जमाता है, तत्र ईश्वर कशँ सोया रहता है, जो इस घड़ी जाग उठा |","चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्नासिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले-हट जाओ, क्या करते हो ?","जब यह रोज गालियाँ देता है, बात-बात पर हंटर जमाता है, तब ईश्वर कहाँ सोया रहता है, जो इस घड़ी जाग उठा ?" "पहले इससे पूछी» अग्र तो किप्ती को गालियाँ न देगा, मारने तो न दौड़ेगा ?","जब यह रोज गालियाँ देता है, बात-बात पर हंटर जमाता है, तब ईश्वर कहाँ सोया रहता है, जो इस घड़ी जाग उठा ?","पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियाँ न देगा, मारने तो न दौड़ेगा ?" "दूसरा कैदो--दगावाण है, मार के गिरा दो ।","पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियाँ न देगा, मारने तो न दौड़ेगा ?","दूसरा कैदी-दगाबाज है, मारके गिरा दो ।" खुदा जाने किस हिकमत से उन सत्रों को मिलाये हुए है ।,"दूसरा कैदी-दगाबाज है, मारके गिरा दो ।","खुदा जाने, किस हिकमत से उन सबों को मिलाए हुए है ।" कैदियों में खलबली पड गयी |,"खुदा जाने, किस हिकमत से उन सबों को मिलाए हुए है ।",कैदियों में खलबली पड़ गयी । केंदियों पर कुन्दों की मार पठनी शुरू हो गयी थी ।,कैदियों में खलबली पड़ गयी ।,कैदियों पर कुन्दों की मार पड़नी शुरू हो गयी थी । चक्रवर को बढ़ते देखकर उन सब्ो ने पत्थरों की वर्षा करनी शुरू की ।,कैदियों पर कुन्दों की मार पड़नी शुरू हो गयी थी ।,चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सब ने पत्थरों की वर्षा शुरू की । एकाएक चक्रधर ठिठक गये |,चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सब ने पत्थरों की वर्षा शुरू की ।,एकाएक चक्रधर ठिठक गये । एक एक सिपाही पर दस दस केदी टूट पढ़े ओर दम-के दम में उनकी बन्दूर्के छीन ली ।,एकाएक चक्रधर ठिठक गये ।,एक-एक सिपाही पर दस-दस कैदी टूट पड़े और दम-के-दम में उनकी बन्दूकें छीन लीं । उन्हें विश्वास था कि झुन्दों की मार पड़ते ही केदी भाग जायगे |,एक-एक सिपाही पर दस-दस कैदी टूट पड़े और दम-के-दम में उनकी बन्दूकें छीन लीं ।,उन्हें विश्वास था कि कुन्दों की मार पड़ते ही कैदी भाग जायेंगे । "फिर वे एक साथ में नहीं, उघर-उघर विखरे खड़े थे |",उन्हें विश्वास था कि कुन्दों की मार पड़ते ही कैदी भाग जायेंगे ।,"फिर वे एक साथ में नहीं, इधर-उधर बिखरे खड़े थे ।" इससे उनकी शक्ति ओर भी कम दो गयी थी ।,"फिर वे एक साथ में नहीं, इधर-उधर बिखरे खड़े थे ।",इससे उनकी शक्ति और भी कम हो गयी थी । कैदियों ने तुरन्त उनकी मुश्कें चढा दींओर बन्दूके लेललेकर उनके सिर पर खड़े हो गये ।,इससे उनकी शक्ति और भी कम हो गयी थी ।,कैदियों ने तुरन्त उनकी मुश्कें चढ़ा दीं और बन्दूकें ले-लेकर उनके सिर पर खड़े हो गये । चक्रधर--घन्नासिंद हट जाओ ।,कैदियों ने तुरन्त उनकी मुश्कें चढ़ा दीं और बन्दूकें ले-लेकर उनके सिर पर खड़े हो गये ।,"चक्रधर-धन्नासिंह, हट जाओ ।" "चक्रधर--हम कद्दतें हें, हट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा ।","चक्रधर-धन्नासिंह, हट जाओ ।","चक्रधर-हम कहते हैं, हट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा ।" "धघन्नासिंद--श्रच्छा हो चाहे बुरा, हमारे साथ इन लोगों ने जो सलूक किये हैं, उसका मजा चखाये बिना न छोड़ंगे ।","चक्रधर-हम कहते हैं, हट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा ।","धन्नासिंह-अच्छा हो चाहे बुरा, हमारे साथ इन लोगों ने जो सलूक किए हैं, उसका मजा चखाए बिना न छोड़ेंगे ।" "अभी फोन सुख भोग रदे हैं, जो सजा को डरे |","धन्नासिंह-अच्छा हो चाहे बुरा, हमारे साथ इन लोगों ने जो सलूक किए हैं, उसका मजा चखाए बिना न छोड़ेंगे ।","अभी कौन सुख भोग रहे हैं, जो सजा को डरें ?" चक्रधर--मेरे देखते तो यह अनथ न होने पायेगा |,"अभी कौन सुख भोग रहे हैं, जो सजा को डरें ?",चक्रधर-मेरे देखते तो यह अनर्थ न होने पायेगा । है इतने में सदर फाटक पर शोर मचा |,चक्रधर-मेरे देखते तो यह अनर्थ न होने पायेगा ।,इतने में सदर फाटक पर शोर मचा । दाहिने हाथ से कन्बे को पकड़कर बैठ गये ।,इतने में सदर फाटक पर शोर मचा ।,दाहिने हाथ से कन्धे को पकड़कर बैठ गये । "धन्नातिंद ने उन्हें आते देखा, तो उसके पॉव रुक गये ।",दाहिने हाथ से कन्धे को पकड़कर बैठ गये ।,"धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पाँव रुक गये ।" धन्नासिह--दरोगा के बच जाने का कलक रह गया |,"धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पाँव रुक गये ।",धन्नासिंह-दारोगा के बच जाने का कलंक रह गया । "दारोगा--नहीं हुजूर, इसने तो कैदियों को समभका-बुकाकर ठरणडा किया |",धन्नासिंह-दारोगा के बच जाने का कलंक रह गया ।,"दारोगा-नहीं हुजूर, इसने तो कैदियों को समझा-बुझाकर ठण्डा किया ।" निम--हम कुछ नहीं समझता ।,"दारोगा-नहीं हुजूर, इसने तो कैदियों को समझा-बुझाकर ठण्डा किया ।",जिम-तुम कुछ नहीं समझता । "ठुमका हर पटक कैदी पर निगाह रखनी चाहिए, ।",जिम-तुम कुछ नहीं समझता ।,तुमको हर एक कैदी पर निगाह रखनी चाहिए । "जब फोई पढा-लिखा आदमी मजहन्र की बात चीत करे, तो फोरन्‌ समझ लो कि वह कोई सानिश करना चाहता है ।",तुमको हर एक कैदी पर निगाह रखनी चाहिए ।,"जब कोई पढ़ा-लिखा आदमी मजहब की बात करे, तो फौरन समझ लो कि वह कोई साजिश करना चाहता है ।" कड़े-से-कढ़े काम खुशी से करता गा ?,"जब कोई पढ़ा-लिखा आदमी मजहब की बात करे, तो फौरन समझ लो कि वह कोई साजिश करना चाहता है ।",कड़े से कड़े काम खुशी से करता होगा ? ऐसा वेजबान श्रादमी तो मैंने कभी देखा ही नहीं |,कड़े से कड़े काम खुशी से करता होगा ?,ऐसा बेजबान आदमी तो मैंने कभी देखा ही नहीं । निम--ऐसा आदमी निह्ायत खोफनाक होता है ।,ऐसा बेजबान आदमी तो मैंने कभी देखा ही नहीं ।,जिम-ऐसा आदमी निहायत खौफनाक होता है । हम इस पर मुकदमा चलायेगा |,जिम-ऐसा आदमी निहायत खौफनाक होता है ।,हम इस पर मुकदमा चलाएगा । "एक बार डाँटकर कह दीजिए--च्ुपचाप वैठो रह, त॒के इन वातों से क्या मतलब ?",हम इस पर मुकदमा चलाएगा ।,"एक बार डाँटकर कह दीजिए-चुपचाप बैठी रह, तुझे इन बातों से क्या मतलब ?" कोई सच्चा आदमी तो यह्ट स्वाँग मरने न जायगा ।,"एक बार डाँटकर कह दीजिए-चुपचाप बैठी रह, तुझे इन बातों से क्या मतलब ?",कोई सच्चा आदमी तो यह स्वाँग भरने न जायगा । कोई परिडत बनाना पड़ेगा ।,कोई सच्चा आदमी तो यह स्वाँग भरने न जायगा ।,कोई पंडित बनाना पड़ेगा । यह कहकर मुन्शीजीने मिनकू को बुलाया ।,कोई पंडित बनाना पड़ेगा ।,यह कहकर मुंशीजी ने झिनकू को बुलाया । तोंद के बगैर परिडत कुछ जँचता नहीं ।,यह कहकर मुंशीजी ने झिनकू को बुलाया ।,तोंद के बगैर पंडित कुछ जँचता नहीं । मुन्शी-कोई बड़ा परिडत भी है बिना तोंद का ?,तोंद के बगैर पंडित कुछ जँचता नहीं ।,मुंशी-कोई बड़ा पंडित भी है बिना तोंद का ? "फोई श्रनाड़ी थोड़े ही हूँ ! खैर, तोनों आदमी मोटर पर बैठे ओर एक क्षण में घर जा पहुँचे |",मुंशी-कोई बड़ा पंडित भी है बिना तोंद का ?,"कोई अनाड़ी थोड़े ही हूँ! खैर, तीनों आदमी मोटर पर बैठे और एक क्षण में घर जा पहुँचे ।" "आज न-जाने कया समझकर इस वक्त आ गये, नहीं तो दोपहर के 'पहले कोई लाख रुपए, भी दे तो नहीं जाते ।","कोई अनाड़ी थोड़े ही हूँ! खैर, तीनों आदमी मोटर पर बैठे और एक क्षण में घर जा पहुँचे ।","आज न जाने क्या समझकर इस वक्त आ गये, नहीं तो दोपहर के पहले कोई लाख रुपए दे, तो नहीं जाते ।" परिडतजी बढ़े गे के साथ मोटर से उतरे और जाकर आसन पर बैठे |,"आज न जाने क्या समझकर इस वक्त आ गये, नहीं तो दोपहर के पहले कोई लाख रुपए दे, तो नहीं जाते ।",पंडितजी बड़े गर्व के साथ मोटर से उतरे और जाकर आसन पर बैठे । "आखिर मुशीजी बोले--यह क्या गजन्न करती हो, लॉगी रानी ! अपने घर बुलाकर महात्माओं की यही इजत की जाती है ?",पंडितजी बड़े गर्व के साथ मोटर से उतरे और जाकर आसन पर बैठे ।,"आखिर मुंशीजी बोले-यह क्या गजब करती हो, लौंगी रानी! अपने घर पर बुलाकर महात्माओं की यह इज्जत की जाती है ?" "लॉगी--लाला, तुमने बहुत दिनो तहसीलदारी की है, तो मैंने भी धूप म॑ बाल “नहीं पकाये हैँ |","आखिर मुंशीजी बोले-यह क्या गजब करती हो, लौंगी रानी! अपने घर पर बुलाकर महात्माओं की यह इज्जत की जाती है ?","लौंगी-लाला, तुमने बहुत दिनों तहसीलदारी की है, तो मैंने भी धूप में बाल नहीं पकाए हैं ।" "मुझे क्रोध तो इन पर ( दोवान ) आता है, तुम्हें क्या कहूँ ?","लौंगी-लाला, तुमने बहुत दिनों तहसीलदारी की है, तो मैंने भी धूप में बाल नहीं पकाए हैं ।","मुझे क्रोध तो इन दीवान पर आता है, तुम्हें क्या कहूँ ?" "मिनकू - माता, ठुने मेरा बड़ा अ्रपमान किया है ।","मुझे क्रोध तो इन दीवान पर आता है, तुम्हें क्या कहूँ ?","झिनकू-माता, तूने मेरा बड़ा अपमान किया है ।" अब में यहाँ एक क्षय भी नहीं ठहरूँगा |,"झिनकू-माता, तूने मेरा बड़ा अपमान किया है ।",अब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं ठहरूंगा । "लॉगी--क्यों, ठहरोगे क्‍यों नहीं ?",अब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं ठहरूंगा ।,"लौंगी-क्यों, ठहरोगे क्यों नहीं ?" मारे दंसी के मुँह से बात न निकलती थी ।,"लौंगी-क्यों, ठहरोगे क्यों नहीं ?",मारे हँसी के मुँह से बात तक न निकलती थी । लगा दो आग घर मे |,मारे हँसी के मुँह से बात तक न निकलती थी ।,लगा दो आग घर में । "अमी मर जायगी, मगर जन्म-भर के डुःख से तो छूट जायगी |",लगा दो आग घर में ।,अभी मर जायगी. मगर जन्म-भर के दु:ख से तो छूट जायगी । घन ओर मरतवा अपने पौरुख से मिलता है |,अभी मर जायगी. मगर जन्म-भर के दु:ख से तो छूट जायगी ।,धन और मरतबा अपने पौरुष से मिलता है । लड़को वेचकर धन नहीं कमाया जाता |,धन और मरतबा अपने पौरुष से मिलता है ।,लडकी बेचकर धन नहीं कमाया जाता । धोखा देकर पेट पालने से मर जानो: अच्छा है ।,लडकी बेचकर धन नहीं कमाया जाता ।,धोखा करके पेट पालने से मर जाना अच्छा है । "जरा देर के बाद बोले-- दीवान साहब, , अगर आप की मरजी हो, तो मैं जाकर राजा साइब से कह दूँ कि दोवान साइबर है मजूर नहीं है ।",धोखा करके पेट पालने से मर जाना अच्छा है ।,"जरा देर के बाद बोले-दीवान साहब, अगर आपकी मरजी हो, तो मैं जाकर राजा साहब से कह दूँ कि दीवान साहब को मंजूर नहीं है ।" लोंगी--क्या साफ ताफ कह दीजिएगा ?,"जरा देर के बाद बोले-दीवान साहब, अगर आपकी मरजी हो, तो मैं जाकर राजा साहब से कह दूँ कि दीवान साहब को मंजूर नहीं है ।",लौंगी-क्या साफ-साफ कह दीजिएगा ? "घत्र नेवता दे चुके, तब तो खिलाना हो पड़ेगा, चाहें लोटा-पाली बेचकर हो क्यो न बिलाओो |",लौंगी-क्या साफ-साफ कह दीजिएगा ?,"जब नेवता दे चुके, तब तो खिलाना ही पड़ेगा, चाहे लोटा-थाली बेचकर ही क्यों न खिलाओ ।" बचना मुश्किल दे ।,"जब नेवता दे चुके, तब तो खिलाना ही पड़ेगा, चाहे लोटा-थाली बेचकर ही क्यों न खिलाओ ।",बचना मुश्किल है । "कोई अ्रश्ात भय, कोई अलक्षित बेदना, कोई अतृतत कामना, कोई गुप्त चिन्ता, दृदय को मथा करती थी ।",बचना मुश्किल है ।,"कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिंता, हृदय को मथा करती थी ।" लॉगी मनोरमा के मनोमावों को जानतो थी ।,"कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिंता, हृदय को मथा करती थी ।",लौंगी मनोरमा के मनोभावों को जानती थी । उसे गल्ले में बाँध लेने से क्षघा तो न मिटेगी ।,लौंगी मनोरमा के मनोभावों को जानती थी ।,उसे गले में बाँध लेने से क्षुधा तो न मिटेगी । "राजा--हाँ, यह भो सुना ।",उसे गले में बाँध लेने से क्षुधा तो न मिटेगी ।,"राजा-हाँ, यह भी सुना ।" राजा--कद् नहीं सकता ।,"राजा-हाँ, यह भी सुना ।",राजा-कह नहीं सकता । सरल-दृदय बालिका हे ।,राजा-कह नहीं सकता ।,सरल हृदय बालिका है । यहाँ की हवा में आनन्द था ।,सरल हृदय बालिका है ।,यहाँ की हवा में आनन्द था । राजा--जी हाँ ! सुनकर बढ़ा अफसोस हुआ ।,यहाँ की हवा में आनन्द था ।,राजा-जी हाँ! सुनकर बड़ा अफसोस हुआ । लिम--ऐसे शआ्रादमी के लिए इतनी ही सजा काफी नहीं |,राजा-जी हाँ! सुनकर बड़ा अफसोस हुआ ।,जिम-ऐसे आदमी के लिए इतनी ही सजा काफी नहीं । "राजा-मैने सुना है कि उसके कन्वे से गहरा जख्म है ओर आपसे यह अर करता हूँ कि उसे शहर के बड़े अस्पताल मे रवा जाय, जहाँ उसका अच्छा इलाज हो सक्रे ।",जिम-ऐसे आदमी के लिए इतनी ही सजा काफी नहीं ।,"राजा-मैंने सुना है कि उसके कन्धे में गहरा जख्म है और आपसे यह अर्ज करता हूँ कि उसे शहर के बड़े अस्पताल में रखा जाय , जहाँ उसका अच्छा इलाज हो सके ।" "आपकी इतनी कृपा हो जाय, तो उस गरीब की जान बच जाय ओर सारे जिले में आपका नाम हो जाय ।","राजा-मैंने सुना है कि उसके कन्धे में गहरा जख्म है और आपसे यह अर्ज करता हूँ कि उसे शहर के बड़े अस्पताल में रखा जाय , जहाँ उसका अच्छा इलाज हो सके ।","आपकी इतनी कृपा हो जाय तो उस गरीब की जान बच जाय , और जिले में आपका नाम हो जाय ।" लिम--हम एक बागी के साथ कोई रिश्रायत नहीं कर सकता ।,"आपकी इतनी कृपा हो जाय तो उस गरीब की जान बच जाय , और जिले में आपका नाम हो जाय ।",जिम-हम एक बागी के साथ कोई रिआयत नहीं कर सकता । "उसका खाल खींच लिया जाता, या उसके दोनों हाथ काठ लिये जाते ।",जिम-हम एक बागी के साथ कोई रिआयत नहीं कर सकता ।,"उसका खाल खींच लिया जाता, उसके दोनों हाथ काट लिए जाते ।" "राजा--हुजूर, दुश्मनों के साथ रिश्रायत करना उनको सबसे वड़ी सजा देना दे ।","उसका खाल खींच लिया जाता, उसके दोनों हाथ काट लिए जाते ।","राजा-हुजूर, दुश्मनों के साथ रिआयत करना उनको सबसे बड़ी सजा देना है ।" उसे मलमनसी से आप नहीं जीत सकता |,"राजा-हुजूर, दुश्मनों के साथ रिआयत करना उनको सबसे बड़ी सजा देना है ।",उसे भलमनसी में आप नहीं जीत सकता । "नहीं, मैं अमी इसका पिण्ड न छोड़ंगा ।",उसे भलमनसी में आप नहीं जीत सकता ।,"नहीं, मैं कभी इसका पिण्ड न छोडूँगा ।" "सोचने लगे, इतनी यत गये अगर मुलाकात हो भी गयी, तो वात-चीत करने का मौका कहाँ |","नहीं, मैं कभी इसका पिण्ड न छोडूँगा ।","सोचने लगे, इतनी रात गये अगर मुलाकात हो भी गयी, तो बातचीत करने का मौका कहाँ ?" शरात्र के नशे में चूर होगा |,"सोचने लगे, इतनी रात गये अगर मुलाकात हो भी गयी, तो बातचीत करने का मौका कहाँ ?",शराब के नशे में चूर होगा । मगर कम-से-कप्त मुझे देखकर इतना तो समझ जायगा कि वह वेचारे श्रमी तक खडे हैं ।,शराब के नशे में चूर होगा ।,मगर कम-से-कम मुझे देखकर इतना तो समझ जायगा कि यह बेचारे अभी तक खड़े हैं । राजा साहब मोटर से उतरकर खडे है गये |,मगर कम-से-कम मुझे देखकर इतना तो समझ जायगा कि यह बेचारे अभी तक खड़े हैं ।,राजा साहब मोटर से उतरकर खडे हो गये । "राजा को देखते ही बोला--ओ, श्रो, तुम यहाँ क्यो खड़ा है ?",राजा साहब मोटर से उतरकर खडे हो गये ।,"राजा को देखते ही बोला-ओ, ओ ! तुम यहाँ क्यों खड़ा है ?" इतनी रात को उसके चगसे पर आना इस बात का सबूत समझा जायगा कि उनकी नीयत श्रच्छी नहीं थी |,"राजा को देखते ही बोला-ओ, ओ ! तुम यहाँ क्यों खड़ा है ?",इतनी रात को उसके बंगले पर आना इस बात का सबूत समझा जाय गा कि उनकी नीयत अच्छी नहीं थी । इसका जरा भी खयाल न फीनिएगा कि मैं शाम से श्रत्॒ तक आपके दरवाजे पर खड़ा हूँ ?,इतनी रात को उसके बंगले पर आना इस बात का सबूत समझा जाय गा कि उनकी नीयत अच्छी नहीं थी ।,इसका जरा भी खयाल न कीजिएगा कि मैं शाम से अब तक आपके दरवाजे पर खड़ा हूँ ? राजा--इतना तो आप कर ही सकते हूँ कि में उनका इलाज करने के लिए अयना डाक्टर जेज् के अन्दर भेज् दिया करूँ ?,इसका जरा भी खयाल न कीजिएगा कि मैं शाम से अब तक आपके दरवाजे पर खड़ा हूँ ?,राजा-इतना तो आप कर ही सकते हैं कि मैं उनका इलाज करने के लिए अपना डॉक्टर जेल के अन्दर भेज दिया करूँ ? "क्रोध ने वारी चिन्ताश्रों को, सारी कमजोरियो को निगल लिया ।",राजा-इतना तो आप कर ही सकते हैं कि मैं उनका इलाज करने के लिए अपना डॉक्टर जेल के अन्दर भेज दिया करूँ ?,"क्रोध ने सारी चिंताओं को, सारी कमजोरियों को निगल लिया ।" शाप तो पहलवान हैं |,"क्रोध ने सारी चिंताओं को, सारी कमजोरियों को निगल लिया ।",आप तो पहलवान हैं । "बिम--मार्नेंगे, मानेंगे, हम सुबह होते हो हुक्म देगा ।",आप तो पहलवान हैं ।,"जिम-मानेंगे, मानेंगे; हम सुबह होते ही हुक्म देगा ।" जिम्र भी गद काड़कर उठा श्ौर राना साहब से बड़े तपाक के साय हाथ मिलाकर उन्हें रखसत किया ।,"जिम-मानेंगे, मानेंगे; हम सुबह होते ही हुक्म देगा ।",जिम भी गर्द झाड़कर उठा और राजा साहब से बड़े तपाक के साथ हाथ मिलाकर उन्हें रुखसत किया । "जिम्त साहब के साईंस के सिवा ओर किसी ने यह मन्लयुद्ध नहीं देखा या, श्रोर उसकी मारे डर के बोलने की हिम्मत न पड़ी ।",जिम भी गर्द झाड़कर उठा और राजा साहब से बड़े तपाक के साथ हाथ मिलाकर उन्हें रुखसत किया ।,"जिम साहब के साईस के सिवा और किसी ने मल्लयुद्ध नहीं देखा था, और उसकी मारे डर के बोलने की हिम्मत न पड़ी ।" "सजनता से तो नहीं, पर इस भय से जरूर वादा एग करेगा ।","जिम साहब के साईस के सिवा और किसी ने मल्लयुद्ध नहीं देखा था, और उसकी मारे डर के बोलने की हिम्मत न पड़ी ।","सज्जनता से तो नहीं, पर इस भय से जरूर वादा पूरा करेगा ।" . मनोरमा--एक किताब पढ रही थी ।,"सज्जनता से तो नहीं, पर इस भय से जरूर वादा पूरा करेगा ।",मनोरमा-एक किताब पढ़ रही थी । "भेरे लिए उन्होंने इतना कष्ट, इतना अपमान सद्दा |",मनोरमा-एक किताब पढ़ रही थी ।,"मेरे लिए इन्होंने इतना कष्ट, इतना अपमान सहा ।" "जब दृत्तान्त समाप्त हुआ, तो वह प्रेम और भक्ति से गद्गदू होकर राजा साहब के पैरों पर गिर पढ़ी ओर काँपती हुई आवाज से बोली--मैं श्रापका यह एहसान कभी न भूलूँगी ।","मेरे लिए इन्होंने इतना कष्ट, इतना अपमान सहा ।","वृत्तान्त समाप्त हुआ, तो वह प्रेम और भक्ति से गद्गद होकर राजा साहब के पैरों पर गिर पड़ी और काँपती हुई आवाज से बोली-मैं आपका यह एहसान कभी न भूलूँगी ।" वह एक उपा- सक की मॉँति अपने उपास्य देव के लिए बाग में फूल तोड़ने आयी थी; पर वांग की शोभा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी |,"वृत्तान्त समाप्त हुआ, तो वह प्रेम और भक्ति से गद्गद होकर राजा साहब के पैरों पर गिर पड़ी और काँपती हुई आवाज से बोली-मैं आपका यह एहसान कभी न भूलूँगी ।",वह एक उपासक की भाँति अपने उपास्य देव के लिए बाग में फूल तोड़ने आयी थी; पर बाग की शोभा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी । "फूल लेकर चली, तो वाग को सुरम्य छुटा उसकी श्राँखों में समायी हुई थी ।",वह एक उपासक की भाँति अपने उपास्य देव के लिए बाग में फूल तोड़ने आयी थी; पर बाग की शोभा देखकर उस पर मुग्ध हो गयी ।,"फूल लेकर चली, तो बाग की सुरम्य छटा उसकी आँखों में समाई हुई थी ।" सखबेरे परवाना पहुँचा ।,"फूल लेकर चली, तो बाग की सुरम्य छटा उसकी आँखों में समाई हुई थी ।",सवेरे परवाना पहुँचा । दारोगा--आप कुछ सिदढ़ी तो नहीं हो गये हूं ?,सवेरे परवाना पहुँचा ।,दारोगा-आप कुछ सिड़ी तो नहीं हो गये हैं ? चक्रधर--कई आदमियों को मुझसे भी ज्यादा चोट श्रायी है ।,दारोगा-आप कुछ सिड़ी तो नहीं हो गये हैं ?,चक्रधर-कई आदमियों को मुझसे भी ज्यादा चोट आयी है । चक्रवर का यद्द विशाल त्याग उसके हृदय में खठ्फता था; पर उसकी आत्मा को मुग्ध कर रह्य या ।,चक्रधर-कई आदमियों को मुझसे भी ज्यादा चोट आयी है ।,चक्रधर का यह विशाल त्याग उसके हृदय में खटकता था; पर उसकी आत्मा को मुग्ध कर रहा था । अब उसे मालूम हुआआा कि मै घोखे में था ।,चक्रधर का यह विशाल त्याग उसके हृदय में खटकता था; पर उसकी आत्मा को मुग्ध कर रहा था ।,अब उसे मालूम हुआ कि मैं धोखे में था । "पहले उन्होंने निश्चय किया था कि सेवा-कार्य में ही श्रपना जीवन बिता दूँगा, लेकिन चक्रघर की दशा देखकर आँखें खुल गयीं ।",अब उसे मालूम हुआ कि मैं धोखे में था ।,पहले उन्होंने निश्चय किया था कि सेवा में ही अपना जीवन बिता दूंगा; लेकिन चक्रधर की दशा देखकर आँखें खुल गयीं । "यह तो न स्वार्थ है, न परमाथ, केवल शञग में कूदना हे, तलवार पर गरदन रखना दैे |",पहले उन्होंने निश्चय किया था कि सेवा में ही अपना जीवन बिता दूंगा; लेकिन चक्रधर की दशा देखकर आँखें खुल गयीं ।,"यह तो न स्वार्थ है, न परमार्थ, केवल आग में कूदना है, तलवार पर गर्दन रखना है ।" मनोरमा तो शायद उनका मुँह भी न देखे ।,"यह तो न स्वार्थ है, न परमार्थ, केवल आग में कूदना है, तलवार पर गर्दन रखना है ।",मनोरमा तो शायद उनका मुँह न देखे । "हाँ, में बदनाम हो जाऊ गा |",मनोरमा तो शायद उनका मुँह न देखे ।,"हाँ, मैं बदनाम हो जाऊँगा ।" मनोरमा--तुम्दारी श्ात्मा क्या कहती है ?,"हाँ, मैं बदनाम हो जाऊँगा ।",मनोरमा-तुम्हारी आत्मा क्या कहती है ? मनोरमा--मैं यह न मान गी ।,मनोरमा-तुम्हारी आत्मा क्या कहती है ?,मनोरमा-मैं यह न मानूँगी । पहले-पदल जेल के दारोगा पर चही गम पड़े ये |,मनोरमा-मैं यह न मानूँगी ।,पहले-पहल जेल के दारोगा पर वही गर्म पड़े थे । "आपिका फ॒र्तव्य वही है, जो मैं कह रही हूँ ।",पहले-पहल जेल के दारोगा पर वही गर्म पड़े थे ।,आपका कर्त्तव्य वही है जो मैं कह रही हूँ । इनमें उदारता और सजनता नाम फो मी नहीं होती |,आपका कर्त्तव्य वही है जो मैं कह रही हूँ ।,इनमें उदारता और सज्जनता नाम को भी नहीं होती । "मनोरमा--मैयाजी, आपकी यह सारी शकाएँ निम्मूल हैं ।",इनमें उदारता और सज्जनता नाम को भी नहीं होती ।,"मनोरमा-भैयाजी, आपकी यह सारी शंकाएँ निर्मूल हैं ।" मनोरमा--मैं बिना लिखवाये यहाँ से जाऊगी ही नहीं |,"मनोरमा-भैयाजी, आपकी यह सारी शंकाएँ निर्मूल हैं ।",मनोरमा-मैं बिना लिखवाए यहाँ से जाऊँगी ही नहीं । मनोरमा--टठालमठोल न कीजिए |,मनोरमा-मैं बिना लिखवाए यहाँ से जाऊँगी ही नहीं ।,मनोरमा-टालमटोल न कीजिए । सनोस्मा के पास आकर बोले--तुम्हारे घर से चला श्रा रहा हूँ ।,मनोरमा-टालमटोल न कीजिए ।,मनोरमा के पास आकर बोले-तुम्हारे घर से चला आ रहा हूँ । "मनोरमा-मैने समझा था, आपके श्राने के वक्त तक लोट आऊंगी |",मनोरमा के पास आकर बोले-तुम्हारे घर से चला आ रहा हूँ ।,"मनोरमा-मैंने समझा था, आपके आने के वक्त तक लौट आऊँगी ।" "राजा--खैर, श्रभी कुछ ऐसो देर नहीं हुईं ।","मनोरमा-मैंने समझा था, आपके आने के वक्त तक लौट आऊँगी ।","राजा-खैर, अभी कुछ ऐसी देर नहीं हुई ।" मनोरमा ने एक भटके से अयना दाथ छुड़ा लिया ओर त्योरियोँ बदलकर बोली-- एक बार कह दिया कि में न जाऊँगी |,"राजा-खैर, अभी कुछ ऐसी देर नहीं हुई ।",मनोरमा ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और त्योरियाँ बदलकर बोली-एक बार कह दिया कि मैं न जाऊँगी । "तनकर बोली--हाँ, इसी लिए: बैठी हूँ, तो फ़िर ?",मनोरमा ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और त्योरियाँ बदलकर बोली-एक बार कह दिया कि मैं न जाऊँगी ।,"तनकर बोली-हाँ, इसीलिए बैठी हूँ, तो फिर ?" एक निरपराघ आदमी को आपके ह्वार्थों सवा य॑- मय अन्याय से बचाने के लिए मेरी निगरानी को जरूरत है ।,"तनकर बोली-हाँ, इसीलिए बैठी हूँ, तो फिर ?",एक निरपराध आदमी को आपके हाथों स्वार्थमय अन्याय से बचाने के लिए मेरी निगरानी की जरूरत है । "आपकी जगद्ट कोई दूसरा आदमी चाबूनी पर जान-बूककर ऐसा घोर श्रन्याय करता, तो शायद मेरा वश चलता तो उसके हाय कटवा लेती |",एक निरपराध आदमी को आपके हाथों स्वार्थमय अन्याय से बचाने के लिए मेरी निगरानी की जरूरत है ।,"आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जान-बूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, तो शायद मेरा बस चलता, तो उसके हाथ कटवा लेती ।" "गुरुसेवक फा मुँह नन्‍्हा सा हो गया, ओर राजा साहब तो मानो रो दिये ।","आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जान-बूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, तो शायद मेरा बस चलता, तो उसके हाथ कटवा लेती ।","गुरुसेवक का मुँह नन्हा-सा हो गया, और राजा साहब तो मानो रो दिए ।" आखिर चुपचाप अपनी मोटर की श्रोर चले |,"गुरुसेवक का मुँह नन्हा-सा हो गया, और राजा साहब तो मानो रो दिए ।",आखिर चुपचाप अपनी मोटर की ओर चले । "जत्र वह मोटर पर बैठ गये, तो मनोरमा भी घीरे से उनके पास आयी और स्नेद सिंचित नेत्रों से देखकर बोली--मैं कल आपके साथ श्रवश्य चलूँगी |",आखिर चुपचाप अपनी मोटर की ओर चले ।,जब वह मोटर पर बैठ गये तो मनोरमा भी धीरे से उनके पास आयी और स्नेह सिंचित नेत्रों से देखकर बोली-मैं कल आपके साथ अवश्य चलूँगी । राजा ने मन्न्र-मुग्ध नेत्रों से उसकी श्लोर ताका ओर गदूगद्‌ होकर बोले--ठुम इसकी जरा भी चिन्ता न करो ।,जब वह मोटर पर बैठ गये तो मनोरमा भी धीरे से उनके पास आयी और स्नेह सिंचित नेत्रों से देखकर बोली-मैं कल आपके साथ अवश्य चलूँगी ।,राजा ने मन्त्र-मुग्ध नेत्रों से उसकी ओर ताका और गद्गद होकर बोले-तुम इसकी जरा भी चिंता न करो । "लो, अब खुश द्ोकर मुसकरा दो |",राजा ने मन्त्र-मुग्ध नेत्रों से उसकी ओर ताका और गद्गद होकर बोले-तुम इसकी जरा भी चिंता न करो ।,"लो, अब खुश होकर मुस्करा दो ।" "देखो, वह हँसी आयी ! मनोरमा म्ुसकरा पड़ी ।","लो, अब खुश होकर मुस्करा दो ।","देखो, वह हँसी आयी! मनोरमा मुस्करा पड़ी ।" "मनोरमा कुरसो पर बैठी उनकी ओर इस तरह ताक रही थी, मानो किसी बालक ने अपनी कागज की नाव लइरों में डाल दी हो और उसको लहरों के साथ हिलते हुए बहते देखने में मस्त हो ।","देखो, वह हँसी आयी! मनोरमा मुस्करा पड़ी ।","मनोरमा कुर्सी पर बैठी उनकी ओर इस तरह ताक रही थी, मानो किसी बालक ने अपनी कागज की नाव लहरों में डाल दी हो और उसको लहरों के साथ हिलते हुए बहते देखने में मग्न हो ।" "वालक का दृदय भी उसी भाँति कमी उछुलता है, कभी घत्रराता है ओर कभी बैठ जाता है ।","मनोरमा कुर्सी पर बैठी उनकी ओर इस तरह ताक रही थी, मानो किसी बालक ने अपनी कागज की नाव लहरों में डाल दी हो और उसको लहरों के साथ हिलते हुए बहते देखने में मग्न हो ।","बालक का हृदय भी उसी भाँति कभी उछलता है, कभी घबराता है और कभी बैठ जाता है ।" उसका मन स्वम साम्राज्य में जा पहुँचा ।,"बालक का हृदय भी उसी भाँति कभी उछलता है, कभी घबराता है और कभी बैठ जाता है ।",उसका मन स्वप्न-साम्राज्य में जा पहुँचा । वह श्रपने द्वार पर सहदेलियों के साथ गुड़ियों खेल रही हूँ ।,उसका मन स्वप्न-साम्राज्य में जा पहुँचा ।,वह अपने द्वार पर सहेलियों के साथ गुड़िया खेल रही है । "ज्योतिषी उसका हाथ देखकर चिन्ता में द्वब जाते हैं. ओर अन्त में संद्ग्धि स्वर मे कहते ईं>तेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, तू उसके विरुद्ध करेगी ओर दुःख उठायेगी |",वह अपने द्वार पर सहेलियों के साथ गुड़िया खेल रही है ।,"ज्योतिषी उसका हाथ देखकर चिंता में डूब जाते हैं और अन्त में संदिग्ध स्वर में कहते हैं-तेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, तू उसके विरुद्ध करेगी और दुःख उठाएगी ।" ओर गुठ्सेवक लेम्प के सामने बैठे तमबीज लिख रहे ये ।,"ज्योतिषी उसका हाथ देखकर चिंता में डूब जाते हैं और अन्त में संदिग्ध स्वर में कहते हैं-तेरे भाग्य में जो कुछ लिखा है, तू उसके विरुद्ध करेगी और दुःख उठाएगी ।",और गुरुसेवक लैम्प के सामने बैठे तजवीज लिख रहे थे । "गुरुसेवक ने कद्दा - शाम नहीं हुई है, बारह बज रहे हैं |",और गुरुसेवक लैम्प के सामने बैठे तजवीज लिख रहे थे ।,"गुरुसेवक ने कहा-शाम नहीं हुई है, बारह बज रहे हैं ।" "गुदसेवक--चस, छरा देर में खत्म हुई जाती है |","गुरुसेवक ने कहा-शाम नहीं हुई है, बारह बज रहे हैं ।","गुरुसेवक-बस, जरा देर में खत्म हुई जाती है ।" "गुरुसेवक ने बड़ी-बढ़ी आँखें करके पूछा--क्यो, फाड़ क्‍यों डाले ?","गुरुसेवक-बस, जरा देर में खत्म हुई जाती है ।","गुरुसेवक ने बड़ी-बड़ी आँखें करके पूछा-क्यों, फाड़ क्यों डालूं ?" "यह पहली तनवीज है, जो मेने पक्तपात-रहित होकर लिखी है श्रीर जितना संतोष आज मुझे अपने फैसले पर है, उत्मा ओर कभी न हुआ या ।","गुरुसेवक ने बड़ी-बड़ी आँखें करके पूछा-क्यों, फाड़ क्यों डालूं ?","यह पहली तजवीज है, जो मैंने पक्षपात रहित होकर लिखी है और जितना संतोष आज मुझे अपनी फैसले पर है, उतना और कभी न हुआ था ।" "मैं इन तीन घरटों में बिना चाय का एक प्याला पिये ४० प्रष्ठ लिख गया, नहीं तो हर दस मिनट में चाय पीनी ही पढ़ती थी ।","यह पहली तजवीज है, जो मैंने पक्षपात रहित होकर लिखी है और जितना संतोष आज मुझे अपनी फैसले पर है, उतना और कभी न हुआ था ।","मैं इन तीन घंटों में बिना चाय का एक प्याला पिये चालीस पृष्ठ लिख गया, नहीं तो हर दस मिनट में चाय पीनी पड़ती थी ।" "गुर्सेवक--सचाई आप दी भ्रपना इनाम है, यह पुरानी कहावत है ।","मैं इन तीन घंटों में बिना चाय का एक प्याला पिये चालीस पृष्ठ लिख गया, नहीं तो हर दस मिनट में चाय पीनी पड़ती थी ।","गुरुसेवक-सचाई आप ही अपना इनाम है, यह पुरानी कहावत है ।" यहाँ आकर रानी बन गयी ।,"गुरुसेवक-सचाई आप ही अपना इनाम है, यह पुरानी कहावत है ।",यहाँ आकर रानी बन गयी । क्‍या वह प्रेम को छोड़कर घन के पीछे दौड़ी जा रही है ?,यहाँ आकर रानी बन गयी ।,क्या वह प्रेम को छोड़कर धन के पीछे भागी जा रही है ? "वह मन में कहने लगी--वाबूजी, ठमने कभी मेरी ओ्ोर आँख उठाकर देखा है ?",क्या वह प्रेम को छोड़कर धन के पीछे भागी जा रही है ?,"वह मन में कहने लगी-बाबूजी, तुमने कभी मेरी ओर आँख उठाकर देखा है ?" "ऐसे न्यायचीर आर सत्यवादी प्राणी बिरले द्वो होते है, सबके मुँह से यही बात निकलतो थो ।","वह मन में कहने लगी-बाबूजी, तुमने कभी मेरी ओर आँख उठाकर देखा है ?","ऐसे न्यायवीर और सत्यवादी प्राणी विरले ही होते हैं, सबके मुँह से यही बात निकलती थी ।" "बस, श्राठों पहर उसी चार हाथ लम्बी श्रोर तीन हाय चौड़ी कोठरी में पड़े रहो ।","ऐसे न्यायवीर और सत्यवादी प्राणी विरले ही होते हैं, सबके मुँह से यही बात निकलती थी ।","बस, चारों पहर उसी चार हाथ लम्बी और तीन हाथ चौड़ी कोठरी में पड़े रहो ।" "जेल के विधाताश्रों में चाहे जितने अ्रवगुण हो, पर वे मनोविज्ञान के परिडत होते हैँ |","बस, चारों पहर उसी चार हाथ लम्बी और तीन हाथ चौड़ी कोठरी में पड़े रहो ।","जेल के विधाताओं में चाहे जितने अवगुण हों, पर वे मनोविज्ञान के पण्डित होते हैं ।" वाडेर खाना रखकर किवाड़ बन्द कर देता था ।,"जेल के विधाताओं में चाहे जितने अवगुण हों, पर वे मनोविज्ञान के पण्डित होते हैं ।",वार्डन खाना रखकर किवाड़ बन्द कर देता था । "वू वह जावू है, जो मनुष्य को श्राँलें रहते अन्घा, कान रहते बहरा, जीम रहते गंगा बना देती है ।",वार्डन खाना रखकर किवाड़ बन्द कर देता था ।,"तू वह जादू है, जो मनुष्य को आँखें रहते अन्धा, कान रहते बहरा, जीभ रहते गूंगा बना देती है ।" "गन्ध है, किन्ठ ज्ञान तो मिन्नता में है ।","तू वह जादू है, जो मनुष्य को आँखें रहते अन्धा, कान रहते बहरा, जीभ रहते गूंगा बना देती है ।","गन्ध है, किन्तु ज्ञान तो भिन्नता में है ।" "पूब-ससार का सिद्धान्त ढोंग मालूम होता है, जो लोगों ने दुखियों ओर दुबलों के ऑस पोंछुने के लिए गठढ लिए हैं ।","गन्ध है, किन्तु ज्ञान तो भिन्नता में है ।","पूर्व संसार का सिद्धान्त ढोंग मालूम होता है, जो लोगों ने दुखियों और दुर्बलों के आँसू पोंछने के लिए गढ़ लिए हैं ।" फिर एकाएक विचार्घारा पल्ग जाती ।,"पूर्व संसार का सिद्धान्त ढोंग मालूम होता है, जो लोगों ने दुखियों और दुर्बलों के आँसू पोंछने के लिए गढ़ लिए हैं ।",फिर एकाएक विचारधारा पलट जाती । "सारी मन की अश्रशान्ति, क्रोध और हिंसात्मक बृत्तियां उसी विजय में मग्न हो गयी |",फिर एकाएक विचारधारा पलट जाती ।,"सारी मन की अशान्ति, क्रोध और हिंसात्मक वृत्तियां उसी विजय में मग्न हो गयीं ।" मन अन्तर्जगत्‌ की सैर करने लगा |,"सारी मन की अशान्ति, क्रोध और हिंसात्मक वृत्तियां उसी विजय में मग्न हो गयीं ।",मन अन्तर्जगत् की सैर करने लगा । "यहाँ रवि की मधुर प्रभात-किस्णों में, इन्दु की मनोहर छा में, वायु, “के कोमल सग्रीत में, आकाश को निर्मल नीलिमा में, एक विचित्र ही श्रानन्द था |",मन अन्तर्जगत् की सैर करने लगा ।,"यहां रवि की मधुर प्रभात किरणों में, इन्दु की मनोहर छटा में, वायु के कोमल संगीत में, आकाश की निर्मल नीलिमा में एक विचित्र ही आनन्द था ।" वह किसी समाधिस्थ योगी की भाँति घरों इस अ्न्त्लोंक में विचरते रहते ।,"यहां रवि की मधुर प्रभात किरणों में, इन्दु की मनोहर छटा में, वायु के कोमल संगीत में, आकाश की निर्मल नीलिमा में एक विचित्र ही आनन्द था ।",वह किसी समाधिस्थ योगी की भाँति घंटों इस अन्तर्लोक में विचरते रहते । "इसलिए, नहीं कि वह अरन्धकार से ऊच्र गये थे; चल्कि इसोलिए, कि वह अपने मन में उमढ़नेवाले भायों को लिखना चाहते थे ।",वह किसी समाधिस्थ योगी की भाँति घंटों इस अन्तर्लोक में विचरते रहते ।,"इसलिए नहीं कि वह अन्धकार से ऊब गये थे, बल्कि इसलिए कि वह अपने मन में उमड़ने वाले भावों को लिखना चाहते थे ।" विचार को ऐसे श्रयाह सागर में ड्रबने का मौका फिर न मिलेगा और ये मोती फिर हाथ न श्रायेंगे; लेकिन कैसे मिले ।,"इसलिए नहीं कि वह अन्धकार से ऊब गये थे, बल्कि इसलिए कि वह अपने मन में उमड़ने वाले भावों को लिखना चाहते थे ।","विचार को ऐसे अथाह सागर में डूबने का मौका फिर न मिलेगा और ये मोती फिर हाथ न आयेंगे, लेकिन कैसे मिलें ?" चक्रधर को चरित्र शान प्रास करने का यह चहुत ही अच्छा अवसर मिलता था |,"विचार को ऐसे अथाह सागर में डूबने का मौका फिर न मिलेगा और ये मोती फिर हाथ न आयेंगे, लेकिन कैसे मिलें ?",चक्रधर को चरित्र ज्ञान प्राप्त करने का यह बहुत ही अच्छा अवसर मिलता था । "उनकी विवेक-बुद्धि, जो क्षण भर के लिए. मोह में फँस गयी थी, जाग उठी |",चक्रधर को चरित्र ज्ञान प्राप्त करने का यह बहुत ही अच्छा अवसर मिलता था ।,"उनकी विवेक बुद्धि जो क्षण भर के लिए मोह में फँस गयी थी, जाग उठी ।" यह कहते-कहते लजा से उनकी जबान बन्द हो गयी ।,"उनकी विवेक बुद्धि जो क्षण भर के लिए मोह में फँस गयी थी, जाग उठी ।",यह कहते-कहते लज्जा से उनकी जबान बन्द हो गयी । "चक्रधर के साथ इतनी रिश्रायत मो न की गयी थी, पर यशोदानन्दन श्रवसर पढ़ने पर खुशामद भी कर सकते ये ।",यह कहते-कहते लज्जा से उनकी जबान बन्द हो गयी ।,"चक्रधर के साथ इतनी रियायत भी न की गयी थी, पर यशोदानन्दन अवसर पड़ने पर खुशामद भी कर सकते थे ।" "श्रपना सारा जोर लगाकर अनन्त में उन्होंने आज्ञा प्राप्त फर ही ली- अपने लिए, नहीं, अ्रहल्या के लिए ।","चक्रधर के साथ इतनी रियायत भी न की गयी थी, पर यशोदानन्दन अवसर पड़ने पर खुशामद भी कर सकते थे ।","अपना सारा जोर लगाकर अन्त में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली-अपने लिए नहीं, अहिल्या के लिए ।" उस विरहिणी की दशा दिनों दिन खराब दो जाती थी |,"अपना सारा जोर लगाकर अन्त में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली-अपने लिए नहीं, अहिल्या के लिए ।",उस विरहणी की दशा दिनोंदिन खराब होती जाती थी । "पति को ऐसी कठिन तपस्या देखकर उसे श्राप ही आप वनाव-श्ज्ञार से, खाने पीने से, हँसने-घोलने से अर्ुाचि होती थी ।",उस विरहणी की दशा दिनोंदिन खराब होती जाती थी ।,"पति की ऐसी कठिन तपस्या देखकर उसे आप ही आप बनाव-श्रृंगार से, खाने-पीने से, हंसने-बोलने से अरुचि होती थी ।" "लोग आग पर पतयों की माँति गिरते हैं, लेकिन श्रहल्या के लिए, वही कोठरी की जमीन थी और एक फटा हुआ कम्बल |","पति की ऐसी कठिन तपस्या देखकर उसे आप ही आप बनाव-श्रृंगार से, खाने-पीने से, हंसने-बोलने से अरुचि होती थी ।","लोग आग पर पतंगों की भांति गिरते हैं, लेकिन अहिल्या के लिए वही कोठरी की जमीन थी और एक फटा हुआ कंबल ।" इसका उसके पास यद्दी जवाब था--म॒झेक जरा भी कष्ट नहीं ।,"लोग आग पर पतंगों की भांति गिरते हैं, लेकिन अहिल्या के लिए वही कोठरी की जमीन थी और एक फटा हुआ कंबल ।",इसका उसके पास यही जवाब था-मुझे जरा भी कष्ट नहीं । चित्त की इत्ति ही बदल गयी ।,इसका उसके पास यही जवाब था-मुझे जरा भी कष्ट नहीं ।,चित्त की वृत्ति ही बदल गयी । "कोन जाने, हृदय वदल गया हो |",चित्त की वृत्ति ही बदल गयी ।,"कौन जाने, हृदय बदल गया हो ।" "यद्द भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ह्वी मूच्छी न आ जाय, करों में चिल्ला कर रोने न लगू ।","कौन जाने, हृदय बदल गया हो ।","यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मूर्छा न आ जाय , कहीं मैं चिल्लाकर रोने न लगूं ।" अइल्या का कलेजा घड़क रहा या ।,"यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मूर्छा न आ जाय , कहीं मैं चिल्लाकर रोने न लगूं ।",अहिल्या का कलेजा धड़क रहा था । "उसकी आँखों में वार- वार आँय उमड़ आते हैं, पर पी जाती है ।",अहिल्या का कलेजा धड़क रहा था ।,उसकी आँखों में बार-बार आँसू उमड़ आते हैं पर पी जाती है । "बार-बार ठठी साँसें खीचते हैँ, पर मुँह नहीं खुलता |",उसकी आँखों में बार-बार आँसू उमड़ आते हैं पर पी जाती है ।,"बार-बार ठंडी साँसें खींचते हैं, पर मुँह नहीं खुलता ।" "श्रगर कुछ दिन घोर इसी तरह घुली, तो शायद प्राण ही न बचें |","बार-बार ठंडी साँसें खींचते हैं, पर मुँह नहीं खुलता ।","अगर कुछ दिन और इसी तरह घुली, तो शायद प्राण ही न बचें ।" "किन शब्दों में दिलासा दूँ, क्या कहकर समम्काऊ |","अगर कुछ दिन और इसी तरह घुली, तो शायद प्राण ही न बचें ।","किन शब्दों में दिलासा दूं, क्या कहकर समझाऊँ ?" "यहाँ तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया शआ्रायी, घड़ी देखकर बोली--ठुम लोग यों द्वी कच्न तक खड़े रहोगे ?","किन शब्दों में दिलासा दूं, क्या कहकर समझाऊँ ?","यहाँ तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया आयी, घड़ी देखकर बोली-तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोगे ?" अ्रत्र तक में दसरों का उपकार करने का स्वप्न देखा करता था |,"यहाँ तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया आयी, घड़ी देखकर बोली-तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोगे ?",अब तक मैं दूसरों का उपकार करने का स्वप्न देखा करता था । अम्माँ ओर बावूजी में कई महीनों से खट्पठ है ।,अब तक मैं दूसरों का उपकार करने का स्वप्न देखा करता था ।,अम्माँ और बाबूजी में कई महीनों से खटपट है । आ्राजकल स्वास्थ्य भी विगढ़ गया है; पर शआ्राराम करने की तो उन्होंने कसम खा लो है ।,अम्माँ और बाबूजी में कई महीनों से खटपट है ।,आजकल स्वास्थ्य भी बिगड़ गया है; पर आराम करने की तो उन्होंने कसम खा ली है । चक्रधर विरक्त से होकर बोले--दोनों क्रादमी फिर घर्मान्धता के चक्कर में पड़ गये होंगे ।,आजकल स्वास्थ्य भी बिगड़ गया है; पर आराम करने की तो उन्होंने कसम खा ली है ।,चक्रधर विरक्त होकर बोले-दोनों आदमी फिर धर्मान्धता के चक्कर में पड़ गये होंगे । में तो नीति ही का घर्म समझता हूँ श्रोर सभी सम्प्रदायों की नीति एकन्सी है ।,चक्रधर विरक्त होकर बोले-दोनों आदमी फिर धर्मान्धता के चक्कर में पड़ गये होंगे ।,मैं तो नीति ही को धर्म समझता हूँ और सभी सम्प्रदायों की नीति एक-सी है । "हमे कृष्ण, राम, ईसा मुहम्मठ, बुद्ध सभी महात्माश्रों का समान आदर करना चाहिए ।",मैं तो नीति ही को धर्म समझता हूँ और सभी सम्प्रदायों की नीति एक-सी है ।,"हमें कृष्ण, राम, ईसा, मुहम्मद, बौद्ध सभी महात्माओं का समान आदर करना चाहिए ।" "बुरे हिन्दू से ग्रच्छा मुतलमान उतना ही श्रच्छा है, निंतना बुरे मुसलमान से अच्छा हिन्दू ।","हमें कृष्ण, राम, ईसा, मुहम्मद, बौद्ध सभी महात्माओं का समान आदर करना चाहिए ।","बुरे हिन्दू से अच्छा मुसलमान उतना ही अच्छा है, जितना बुरे मुसलमान से अच्छा हिन्दू ।" अदृल्या को तृष्णापूर्ण नेत्नों से देखते हुएए चले गये ।,"बुरे हिन्दू से अच्छा मुसलमान उतना ही अच्छा है, जितना बुरे मुसलमान से अच्छा हिन्दू ।",अहिल्या को तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखते हुए चले गये । इस विषय में वह बड़े बडे दाशिनकों से भी दो कदम आगे बढे हुए ये ।,अहिल्या को तृष्णापूर्ण नेत्रों से देखते हुए चले गये ।,इस विषय में वह बड़े-बड़े दार्शनिकों से भी दो कदम आगे बढ़े हुए थे । "वह लाख बुरे हों; फिर भी उनसे कहीं अ्रच्छे हैं, जो पद पाकर अ्रपने को भूल जाते हैँ, जमीन पर पाँव द्वी नहीं रखते ।",इस विषय में वह बड़े-बड़े दार्शनिकों से भी दो कदम आगे बढ़े हुए थे ।,"वह लाख बुरे हों, फिर भी उनसे कहीं अच्छे हैं, जो दर पाकर अपने को भूल जाते हैं, जमीन पर पाँव ही नहीं रखते ।" "यों तो कामघेनु भी सबकी इच्छा पूरी नहीं कर सकती; पर मुंशीनी की शरण आकर दुःखी द्वदय फो शान्ति अवश्य मिलती है, उसे श्राशा की ऋलक दिखायी देने लगती है |","वह लाख बुरे हों, फिर भी उनसे कहीं अच्छे हैं, जो दर पाकर अपने को भूल जाते हैं, जमीन पर पाँव ही नहीं रखते ।","यों तो कामधेनु भी सबकी इच्छा पूरी नहीं कर सकती; पर मुंशीजी की शरण आकर दु:खी हृदय को शान्ति अवश्य मिलती है, उसे आशा की झलक दिखाई देने लगती है ।" "मिनकू--वदो, चाहे न कहे, में तो अब्र तुम्दारे दरवाजे से टलने का नहीं ।","यों तो कामधेनु भी सबकी इच्छा पूरी नहीं कर सकती; पर मुंशीजी की शरण आकर दु:खी हृदय को शान्ति अवश्य मिलती है, उसे आशा की झलक दिखाई देने लगती है ।","झिनकू-कहो, चाहे न कहो, मैं तो अब तुम्हारे दरवाजे से टलने का नहीं ।" "बुढिया के राज में हकीम-डाक्टर लुटते थे, अब गुनियों फी कदर है ।","झिनकू-कहो, चाहे न कहो, मैं तो अब तुम्हारे दरवाजे से टलने का नहीं ।","बुढ़िया के राज में हकीम डॉक्टर लूटते हैं, अब गुनियों की कदर है ।" "हमसे तो कोई ऐसी बात * मुन्शी--बड़े आदमियों से मिलने जाया करो, तो तमीज से बात किया करो |","बुढ़िया के राज में हकीम डॉक्टर लूटते हैं, अब गुनियों की कदर है ।","हमसे तो कोई ऐसी बात.... मुन्शीजी-बड़े आदमियों से मिलने जाया करो, तो तमीज से बात किया करो ।" "नया माल , आया दे, हुकुम हो तो कुछ कपड़े भेजूँ ।","हमसे तो कोई ऐसी बात.... मुन्शीजी-बड़े आदमियों से मिलने जाया करो, तो तमीज से बात किया करो ।","नया माल आया है, हुक्म हो तो कुछ कपड़े भेजूँ ।" अपना मतलब कहे साफ साफ |,"नया माल आया है, हुक्म हो तो कुछ कपड़े भेजूँ ।",अपना मतलब कहो साफ-साफ । "बस, रुपए में एक श्राना बहुत है ।",अपना मतलब कहो साफ-साफ ।,"बस, रुपए में एक आना बहुत है ।" आपके वधधीले से जाकर भला ऐसी दगा करूँ ।,"बस, रुपए में एक आना बहुत है ।",आपके वसीले से जाकर भला ऐसा दगा करूँ । "सेतमेत में जस मिले, तो लेने मे क्या हरज है ।",आपके वसीले से जाकर भला ऐसा दगा करूँ ।,"सेंतमेंत में जस मिले, तो लेने में क्या हर्ज है ?" "के. यह कहकर मुन्शीजञी ने मीरा का यह पद गाना शुरू किया--- राम की दिवानी, मेरा दरद न जाने कोइ ।","सेंतमेंत में जस मिले, तो लेने में क्या हर्ज है ?","यह कहकर मुंशीजी ने मीरा का यह पद गाना शुरू किया- राम की दिवानी, मेरा दर्द न जाने कोइ ।" "घायल की गति घायल जाने, जो फोई घायल होइ; शेपनाग पे सेज पिया की, केद्दि विधि मिलनो हाइ ।","यह कहकर मुंशीजी ने मीरा का यह पद गाना शुरू किया- राम की दिवानी, मेरा दर्द न जाने कोइ ।","घायल की गति घायल जानै, जो कोई घायल होइ, शेषनाग पै सेज पिया की, केहि विधि मिलनो होइ ।" "राम की दिवानी . - -- मिनकू- वाह भैया, वाह ! चोला मस्त कर दिया ।","घायल की गति घायल जानै, जो कोई घायल होइ, शेषनाग पै सेज पिया की, केहि विधि मिलनो होइ ।","राम की दिवानी..... झिनकू-वाह भैया, वाह ! चोला मस्त कर दिया ।" यही नहीं कि तुम तो तूम-ताना' का तार बॉध दो ओर सुननेवाले तुम्हारा मुँह ताकते रहें |,"राम की दिवानी..... झिनकू-वाह भैया, वाह ! चोला मस्त कर दिया ।",यह नहीं कि तुम तो 'तूम ताना' का तार बाँध दो और सुनने वाले तुम्हारा मुँह ताकते रहें । "जिस गाने से मन में मक्ति, वैराग्य, प्रेम ओर झानन्द की तरगे न उठ, वह गाना नहीं है |",यह नहीं कि तुम तो 'तूम ताना' का तार बाँध दो और सुनने वाले तुम्हारा मुँह ताकते रहें ।,"जिस गाने से मन में भक्ति, वैराग्य प्रेम और आनन्द की तरंगें न उठे, वह गाना नहीं है ।" "मिनकू--अच्छा, अ्रव की में भी कोई ऐसी ही चीज उनाता हूँ; मगर मजा जन्र है कि हारपोनियम तुम्हारे हाथ में हो |","जिस गाने से मन में भक्ति, वैराग्य प्रेम और आनन्द की तरंगें न उठे, वह गाना नहीं है ।","झिनकू-अच्छा, अब की मैं भी कोई ऐसी ही चीज सुनाता हूँ मगर मजा जब है कि हारमोनियम तुम्हारे हाथ में हो ।" "युवकु---मैंने सुना है कि जगदीशपुर में किसी एकाउंट की जगह खाली है, श्राप तिफारिश कर दें, तो शायद्‌ वह जगद्ट मुके मिल जाय ।","झिनकू-अच्छा, अब की मैं भी कोई ऐसी ही चीज सुनाता हूँ मगर मजा जब है कि हारमोनियम तुम्हारे हाथ में हो ।","युवक-मैंने सुना है कि जगदीशपुर में किसी एकाउंटेंट की जगह खाली है, आप सिफारिश कर दें, तो शायद वह जगह मुझे मिल जाय ।" "मैं न दीवान हूँ, न मुहाफिण, ने मुन्सरिस |","युवक-मैंने सुना है कि जगदीशपुर में किसी एकाउंटेंट की जगह खाली है, आप सिफारिश कर दें, तो शायद वह जगह मुझे मिल जाय ।","मैं न दीवान हूँ, न मुहाफिज, न मुंसरिम ।" "युवक--जनाब, आप सब कुछ दे ।","मैं न दीवान हूँ, न मुहाफिज, न मुंसरिम ।","युवक-जनाब, आप सब कुछ हैं ।" मुन्शी--यह् तो आप पहले ही कह जुके ।,"युवक-जनाब, आप सब कुछ हैं ।",मुंशी-यह तो आप पहले ही कह चुके । आ्राप तैरना जानते हैं ?,मुंशी-यह तो आप पहले ही कह चुके ।,आप तैरना जानते हैं ? तो आप सिफ हिसाब करना जानते हैं श्रोर शायद अगरेनी घोल ओर लिख लेते होंगे ।,आप तैरना जानते हैं ?,तो आप सिर्फ हिसाब करना जानते हैं और शायद अंग्रेजी बोल और लिख लेते होंगे । इतने दिनों में आपने सिफे हिसाव लगाना सीखा |,तो आप सिर्फ हिसाब करना जानते हैं और शायद अंग्रेजी बोल और लिख लेते होंगे ।,इतने दिनों में आपने सिर्फ हिसाब लगाना सीखा । हमारे यहाँ तो कितने दी आदमी छः महीने में ऐसे अच्छे मुनीच हो गये हैं. कि बड़ी-चढ़ी दृकानें सैमाल सकते हैं ।,इतने दिनों में आपने सिर्फ हिसाब लगाना सीखा ।,हमारे यहाँ तो कितने ही आदमी छ: महीने में ऐसे अच्छे मुनीम हो गये हैं कि बड़ी-बड़ी दुकानें सँभाल सकते हैं । आपके लिये यहाँ जगह नहीं है ।,हमारे यहाँ तो कितने ही आदमी छ: महीने में ऐसे अच्छे मुनीम हो गये हैं कि बड़ी-बड़ी दुकानें सँभाल सकते हैं ।,आपके लिए यहाँ जगह नहीं है । "मुंशीजी नगे सिर, नगे-पाँव दौड़े |",आपके लिए यहाँ जगह नहीं है ।,"मुंशीजी नंगे सिर, नंगे पाँव दौड़े ।" मैं झ्रापफो इस वक्त एक बड़ी खुशखबरी सुनाने आयी हूँ ।,"मुंशीजी नंगे सिर, नंगे पाँव दौड़े ।",मैं आपको इस वक्त एक बड़ी खुशखबरी सुनाने आयी हूँ । मुंशो--क्या लल्लू ?,मैं आपको इस वक्त एक बड़ी खुशखबरी सुनाने आयी हूँ ।,"मुंशी-क्या, लल्लू ?" "इतना सुनना था कि मुन्शीजी वेतहाशा दौड़े ओर घर में जाकर हॉफते हुए निम॑ला से बोले--छुनती हे, लल्लू फल आयेंगे |","मुंशी-क्या, लल्लू ?","इतना सुनना था कि मुंशीजी बेतहाशा दौड़े और घर में जाकर हाँफते हुए निर्मला से बोले-सुनती हो, लल्लू कल आयेंगे ।" "सुन्शीजी सदा लुगाऊ थे, जो कुछ पाते ये, बाहर ही-धाइर उड़ा देते थे ।","इतना सुनना था कि मुंशीजी बेतहाशा दौड़े और घर में जाकर हाँफते हुए निर्मला से बोले-सुनती हो, लल्लू कल आयेंगे ।","मुंशीजी सदा लुटाऊ थे, जो कुछ पाते थे, बाहर ही बाहर उड़ा देते थे ।" तुस््त मोटर से उतर पड़ी ओर दीवानखाने में आकर खड़ी हो गयी ।,"मुंशीजी सदा लुटाऊ थे, जो कुछ पाते थे, बाहर ही बाहर उड़ा देते थे ।",तुरन्त मोटर से उतर पड़ी और दीवानखाने में आकर खड़ी हो गयी । यहाँ भी अँघेरा हो गया ।,तुरन्त मोटर से उतर पड़ी और दीवानखाने में आकर खड़ी हो गयी ।,यहाँ भी अँधेरा हो गया । इतने में मगला आकर खड़ी हो गयी |,यहाँ भी अँधेरा हो गया ।,इतने में मंगला आकर खड़ी हो गयी । श्रकेले पढ़े-पड़े मेरा जी घबराता है ।,इतने में मंगला आकर खड़ी हो गयी ।,अकेले पड़े-पड़े मेरा जी घबराता है । गव- नेर साहब शतरज खेल रहे थे ।,अकेले पड़े-पड़े मेरा जी घबराता है ।,गवर्नर साहब शतरंज खेल रहे थे । "मेने समझा, अबकी मात हुई; लेकिन सहसा मुझे ऐसी चाल यूके गयी कि हाथ से जाती बाजी लौट पढ़ी |",गवर्नर साहब शतरंज खेल रहे थे ।,"मैंने समझा, अबकी मात हुई, लेकिन सहसा मुझे ऐसी चाल सूझ गयी कि हाथ से जाती बाजी लौट पड़ी ।" सारे मुहरे घरे ही रह गये ।,"मैंने समझा, अबकी मात हुई, लेकिन सहसा मुझे ऐसी चाल सूझ गयी कि हाथ से जाती बाजी लौट पड़ी ।",सारे मुहरे धरे ही रह गये । "यह सुनकर सभी सन्नादे में श्रा गये, मगर कोल हार चुके थे शोर स्लियों के सामने ये सब जरा सजनता का स्वॉग भरते हैं, मजबूर होकर गवर्नर साहब को वादा करना पड़ा; पर बार-बार पछुताते थे श्रोर कहते थे; श्रापकी निम्मेदारी पर छोड़ रहा हैँ ।",सारे मुहरे धरे ही रह गये ।,"यह सुनकर सभी सन्नाटे में आ गये, मगर कौल हार चुके थे और स्त्रियों के सामने ये सब जरा सज्जनता का स्वाँग भरते हैं, मजबूर होकर गवर्नर साहब को वादा करना पड़ा, पर बार-बार पछताते थे और कहते थे, आपकी जिम्मेदारी पर छोड़ रहा हूँ ।" "खैर, मुझे कल मालूम हुआ कि रिद्ई का हुक्म हो गया है; ओर सुझे आशा दे कि कल किसी वक्त वह यहाँ आ जायेंगे |","यह सुनकर सभी सन्नाटे में आ गये, मगर कौल हार चुके थे और स्त्रियों के सामने ये सब जरा सज्जनता का स्वाँग भरते हैं, मजबूर होकर गवर्नर साहब को वादा करना पड़ा, पर बार-बार पछताते थे और कहते थे, आपकी जिम्मेदारी पर छोड़ रहा हूँ ।","खैर, मुझे कल मालूम हुआ कि रिहाई का हुक्म हो गया है, और मुझे आशा है कि कल किसी वक्त वह यहाँ आ जायेंगे ।" माताओं को चाहिए कि अ्रपने पुत्रों को साइसी ओर घीर बनायें ।,"खैर, मुझे कल मालूम हुआ कि रिहाई का हुक्म हो गया है, और मुझे आशा है कि कल किसी वक्त वह यहाँ आ जायेंगे ।",माताओं को चाहिए कि अपने पुत्रों को साहसी और वीर बनायें । "पहले रानी देवप्रिया फो देखकर में भी यही सोचा करती थी पर मालूम हुआ कि ऐडश्वय से न बुद्धि बदती है, न तेज |",माताओं को चाहिए कि अपने पुत्रों को साहसी और वीर बनायें ।,"पहले रानी देवप्रिया को देखकर मैं भी यही सोचा करती थी, पर अब मालूम हुआ कि ऐश्वर्य से न बुद्धि बढ़ती है, न तेज ।" "- ,४ यह कहकर उसने मगला के गले में वाह डाल दीं शोर प्रेम से सने हुए शब्दों में पेली--देख लेना, हम ठुम कैसे मजे से गाती-चजाती हैं ।","पहले रानी देवप्रिया को देखकर मैं भी यही सोचा करती थी, पर अब मालूम हुआ कि ऐश्वर्य से न बुद्धि बढ़ती है, न तेज ।",यह कहकर उसने मंगला के गले में बाँहे डाल दी और प्रेम से सने हुए शब्दों में बोली-देख लेना; हम-तुम कैसे मजे से गाती-बजाती हैं । सनोस्म--कृष और दया की बात करने के लिए में त॒म्हें नहीं घुला रही हूँ ।,यह कहकर उसने मंगला के गले में बाँहे डाल दी और प्रेम से सने हुए शब्दों में बोली-देख लेना; हम-तुम कैसे मजे से गाती-बजाती हैं ।,मनोरमा-कृपा और दया की बात करने के लिए मैं तुम्हें नहीं बुला रही हूँ । ऐसी बातें सुनते-सुनते ऊब्र गयी हूँ ।,मनोरमा-कृपा और दया की बात करने के लिए मैं तुम्हें नहीं बुला रही हूँ ।,ऐसी बातें सनते-सुनते ऊब गयी हूँ । "१ यह कहते-कइते उसने अपने गले से मोतियों का हार निकालकर मगला के गले में डाल दिया और मुसकराकर चोली--देखो श्रम्माँनी, यह हार इसे श्रच्छा लगता है न ?",ऐसी बातें सनते-सुनते ऊब गयी हूँ ।,"यह कहते-कहते उसने अपने गले से मोतियों का हार निकालकर मंगला के गले में डाल दिया और मुस्कराकर बोली-देखो अम्मांजी, यह हार इसे अच्छा लगता है न ?" "मुशीजी वोले-ले मंगला, तूने तो पहले ही मुलाकात में मोतियों का द्वार मार लिया, लोग मुँह ही ताकते रह गये ।","यह कहते-कहते उसने अपने गले से मोतियों का हार निकालकर मंगला के गले में डाल दिया और मुस्कराकर बोली-देखो अम्मांजी, यह हार इसे अच्छा लगता है न ?","मुंशीजी बोले-ले, मंगला, तूने तो पहली ही मुलाकात में मोतियों का हार मार लिया, और लोग मुँह ही ताकते रह गये ।" मगला तो मेरी छोटो वहन है ।,"मुंशीजी बोले-ले, मंगला, तूने तो पहली ही मुलाकात में मोतियों का हार मार लिया, और लोग मुँह ही ताकते रह गये ।",मंगला तो मेरी छोटी बहिन है । "इसकी सूरत बाबू जी से बिलकुल मिलती है, मरदों के कपड़े पहना दिये जाये, तो पहचानना मुश्किल हो जाय |",मंगला तो मेरी छोटी बहिन है ।,"इसकी सूरत तो बाबूजी से बिलकुल मिलती है, मरदों के कपड़े पहना दिए जायं तो, तो पहचानना मुश्किल हो जाये ।" "श्राप सोचती होंगी, ये कपड़े पहने क्या जायगी ।","इसकी सूरत तो बाबूजी से बिलकुल मिलती है, मरदों के कपड़े पहना दिए जायं तो, तो पहचानना मुश्किल हो जाये ।","आप सोचती होंगी, ये कपड़े पहने क्या जायगी ।" "जब मोटर चली गयी, तो निर्मला ने कह्म-स्षात्‌ देवी है ।","आप सोचती होंगी, ये कपड़े पहने क्या जायगी ।",जब मोटर चली गयी तो निर्मला ने कहा-साक्षात् देवी है । "मीठा हो, तो जूठा भी अच्छा, नहीं वो कहाँ जाकर गिरा उस कँगली लड़की पर, जिसके माँ-चाप का भी पता नहीं |",जब मोटर चली गयी तो निर्मला ने कहा-साक्षात् देवी है ।,"मीठा हो, तो जूठा भी अच्छा, नहीं तो कहाँ जाकर गिरा उस कँगली पर जिसके माँ-बाप का भी पता नहीं ।" वे-ब्ात-की बात करते हो ।,"मीठा हो, तो जूठा भी अच्छा, नहीं तो कहाँ जाकर गिरा उस कँगली पर जिसके माँ-बाप का भी पता नहीं ।",बे-बात की बात करते हो । "ऐसी ओरतों को प्रसन्न रखने के लिए , घन चाहिए |",बे-बात की बात करते हो ।,ऐसी औरतों को प्रसन्न रखने के लिए धन चाहिए । राजा साहब की चिर सचित पुत्र लालसा भी इसे प्रेम त्रद्ग में मग्न हो गयी ।,ऐसी औरतों को प्रसन्न रखने के लिए धन चाहिए ।,राजा साहब की चिर संचित पुत्र लालसा भी इस प्रेम-तरंग में मग्न हो गयी । मनोरमा पर उन्होंने अपनी यह महान अमिलापा भी श्रर्पिंत कर दी ।,राजा साहब की चिर संचित पुत्र लालसा भी इस प्रेम-तरंग में मग्न हो गयी ।,मनोरमा पर उन्होंने अपनी यह महान् अभिलाषा भी अर्पित कर दी । "एक दिन, केबल एक दिन उन्होंने मनोरमा से कहद्दा था--मुमे अत्र केवल एक इच्छा और है ।",मनोरमा पर उन्होंने अपनी यह महान् अभिलाषा भी अर्पित कर दी ।,"एक दिन, केवल एक दिन उन्होंने मनोरमा से कहा था-मुझे अब केवल एक इच्छा और है ।" "सनन्‍्तान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए, गदी है ।","एक दिन, केवल एक दिन उन्होंने मनोरमा से कहा था-मुझे अब केवल एक इच्छा और है ।","सन्तान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्यों को परखने के लिए गढ़ी है ।" "एकान्त म॑ बैठे हुए. वह मन में भाँतिस्भाँति को स्दु कल्पनाएँ किया करते लेकिन भनोरमा के सम्मुख आते ही उन पर भ्रद्धा का अनुराग छा जाता, मार्नो किसे देव मन्दिर मे आ गये हों |","सन्तान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्यों को परखने के लिए गढ़ी है ।","एकान्त मैं बैठे हुए वह मन में भाँति-भाँति की मृदु कल्पनाएँ किया करते, लेकिन मनोरमा के सम्मुख आते ही उन पर श्रद्धा का अनुराग छा जाता, मानो किसी देव मन्दिर में आ गये हों ।" "कविता में और सब रस थे, केवल »£ गारःरस न था |","एकान्त मैं बैठे हुए वह मन में भाँति-भाँति की मृदु कल्पनाएँ किया करते, लेकिन मनोरमा के सम्मुख आते ही उन पर श्रद्धा का अनुराग छा जाता, मानो किसी देव मन्दिर में आ गये हों ।","कविता में और सब रस थे, केवल शृंगार रस न था ।" शाम के सुगन्धित नव पन्लवों मे फोयल अपनी मधुर तान अलाप रही थी ।,"कविता में और सब रस थे, केवल शृंगार रस न था ।",आम के सुगन्धित नव पल्लवों में कोयल अपनी मधुर तान अलाप रही थी । ओर मनो- रमा आइने के सामने खडी श्रपनी केश-राशि का जाल सजा रही थी ।,आम के सुगन्धित नव पल्लवों में कोयल अपनी मधुर तान अलाप रही थी ।,और मनोरमा आयीने के सामने खड़ी अपनी केश-राशि का जाल सजा रही थी । यो बन-ठनकर मनोरमा ने बगलवाले कमरे का परदा उठाया ओर दवे पाँव अन्दर गयी |,और मनोरमा आयीने के सामने खड़ी अपनी केश-राशि का जाल सजा रही थी ।,यों बन-ठनकर मनोरमा ने बगलवाले कमरे का परदा उठाया और दबे पाँव अन्दर गयी । दोनों सखियों श्राघी रात तक बातें करती रही थी ।,यों बन-ठनकर मनोरमा ने बगलवाले कमरे का परदा उठाया और दबे पाँव अन्दर गयी ।,दोनों सखियां आधी रात तक बातें करती रही थीं । "मगर में डरती हूँ, कहीं तुम्हे नगर न लग जाय |",दोनों सखियां आधी रात तक बातें करती रही थीं ।,"मगर मैं डरती हूँ, कहीं तुम्हें नजर न लग जाय ।" मनोरमा--जुल्ूस का प्रबन्ध ठीक है न ?,"मगर मैं डरती हूँ, कहीं तुम्हें नजर न लग जाय ।",मनोरमा-जुलूस का प्रबन्ध ठीक है न ? मनोरमा ने रष्ट होकर कह्- राजा साहब से मैंने पूछ लिया दे |,मनोरमा-जुलूस का प्रबन्ध ठीक है न ?,मनोरमा ने रुष्ट होकर कहा-राजा साहब से मैंने पूछ लिया है । जाइये [ दोवान साहब के जाने के बाद मनोरमा फिर मेज पर बैठकर लिखने लगी |,मनोरमा ने रुष्ट होकर कहा-राजा साहब से मैंने पूछ लिया है ।,दीवान साहब के जाने के बाद मनोरमा फिर मेज पर बैठकर लिखने लगी । "वह , लिखने में इतनी तल्‍लीन हो गयी थी कि उसे राजा साहब के आकर बैठ जाने की उस वक्त तक खबर न हुई, जब तक कि उन्हें उनके फेफड़ों ने खाँसने पर मजबूर न कर फायाकक्प ] १८९ दिया ।",दीवान साहब के जाने के बाद मनोरमा फिर मेज पर बैठकर लिखने लगी ।,"वह लिखने में इतनी तल्लीन हो गयी थी कि उसे राजा साहब के आकर बैठ जाने की उस वक्त तक खर न हुई, जब तक कि उन्हें उनके फेफड़ों ने खाँसने पर मजबूर न कर दिया ।" "खॉँसी दबकर उत्तरोत्तर प्रचएण्ड होती जाती थी, यहों तक कि अन्त में वह वह निकल ही पढ़ी -कुछ छोंक थी, कुछ खाँसो ओर कुछ इन दोनों का सम्मिश्रण, मानो कोई बन्दर गुर्रा रहा हो ।","वह लिखने में इतनी तल्लीन हो गयी थी कि उसे राजा साहब के आकर बैठ जाने की उस वक्त तक खर न हुई, जब तक कि उन्हें उनके फेफड़ों ने खाँसने पर मजबूर न कर दिया ।","खाँसी दबकर उत्तरोत्तर प्रचण्ड होती जाती थी, -यहाँ तक कि अन्त में वह निकल ही पड़ी-कुछ छींक थी, कुछ खाँसी और कुछ इन दोनों का सम्मिश्रण, मानो कोई बंदर गुर्रा रहा हो ।" "मनोरभा ने चौंककर शॉखे उठायीं, तो देखा कि राजा साहब बैठे हुए. उसकी ओर प्रेम विहल नेत्रों से ताक रहे हं ।","खाँसी दबकर उत्तरोत्तर प्रचण्ड होती जाती थी, -यहाँ तक कि अन्त में वह निकल ही पड़ी-कुछ छींक थी, कुछ खाँसी और कुछ इन दोनों का सम्मिश्रण, मानो कोई बंदर गुर्रा रहा हो ।","मनोरमा ने चौंककर आँखें उठाईं, तो देखा कि राजा साहब बैठे हुए उसकी ओर प्रेम-विह्वल नेत्रों से ताक रहे हैं ।" "मनोरसा--आपकी खाँसी बढ़ती दी जाती है, ओर श्राप इसकी कुछ दवा नहीं करते |","मनोरमा ने चौंककर आँखें उठाईं, तो देखा कि राजा साहब बैठे हुए उसकी ओर प्रेम-विह्वल नेत्रों से ताक रहे हैं ।","मनोरमा-आपकी खाँसी बढ़ती ही जाती है, और आप इसकी कुछ दवा नहीं करते ।" बाबू चक्रधर तो १० बजे की डाक से श्रा रहे हैं न ?,"मनोरमा-आपकी खाँसी बढ़ती ही जाती है, और आप इसकी कुछ दवा नहीं करते ।",बाबू चक्रधर तो दस बजे की डाक से आ रहे हैं न ? "मतोरमा--जी हाँ, बहुत कुछ पूरी हो गयी हैं ।",बाबू चक्रधर तो दस बजे की डाक से आ रहे हैं न ?,"मनोरमा-जी हाँ, बहुत कुछ पूरी हो गयी हैं ।" मनोर्मा--यही तो में भी चाहतो हूँ ।,"मनोरमा-जी हाँ, बहुत कुछ पूरी हो गयी हैं ।",मनोरमा-यही तो मैं भी चाहती हूँ । आप यहीं उनका स्वागत कीनियेगा |,मनोरमा-यही तो मैं भी चाहती हूँ ।,आप यहीं उनका स्वागत कीजिएगा । "सरकार यों भी हम लोगों पर सन्देद्द करती है, तब तो वह सत्त बाँधकर हमारे पीछे पढ़ जायगी |",आप यहीं उनका स्वागत कीजिएगा ।,"सरकार यों भी हम लोगों पर सन्देह करती है, तब तो वह सत्तू बाँधकर हमारे पीछे पड़ जायगी ।" "शान्ति राज्य मे नहीं, सत्तोष में है ।","सरकार यों भी हम लोगों पर सन्देह करती है, तब तो वह सत्तू बाँधकर हमारे पीछे पड़ जायगी ।","शांति राज्य में नहीं, संतोष में है ।" "मनोरमप्ा ने राजा की ओर बड़ी करुण दृश्टि से देखकर कहा--यह ठीक है; लेकिन जब्र में जा रही हूँ, तो श्रापके जाने की जरूरत नहीं |","शांति राज्य में नहीं, संतोष में है ।","मनोरमा ने राजा की ओर बड़ी करुण दृष्टि से देखकर कहा-यह ठीक है, लेकिन जब मैं जा रही हूँ तो आपके जाने की जरूरत नहीं ।" बड़े त्यागी पुरुष ई ।,"मनोरमा ने राजा की ओर बड़ी करुण दृष्टि से देखकर कहा-यह ठीक है, लेकिन जब मैं जा रही हूँ तो आपके जाने की जरूरत नहीं ।",बड़े त्यागी पुरुष हैं । "तुम्हें संकोच होता हो, तो में कद दूँ ।",बड़े त्यागी पुरुष हैं ।,"तुम्हें संकोच होता है, तो मैं कह दूँ ।" शाना--मेरी झौर उनकी तो बहुत पुरानी मुलाकात है |,"तुम्हें संकोच होता है, तो मैं कह दूँ ।",राजा-मेरी और उनकी तो बहुत पुरानी मुलाकात है । उनकी दृष्टि मकरन्द के प्यासे अ्रमर की भाँति मनोरमा के मुख-कमल का माघुयंरत-पान कर रही यी ।,राजा-मेरी और उनकी तो बहुत पुरानी मुलाकात है ।,उनकी दृष्टि मकरन्द के प्यासे भ्रमर की भाँति मनोरमा के मुख-कमल का माधुर्य रसपान कर रही थी । उसकी घाँकी अदा आ्राव उनकी आँखों में खुबी जाती थी ।,उनकी दृष्टि मकरन्द के प्यासे भ्रमर की भाँति मनोरमा के मुख-कमल का माधुर्य रसपान कर रही थी ।,उसकी बाँकी अदा आज उनकी आँखों में खुबी जाती थी । ; राजा--दीवान साहब रियासत के सच्चे शुमचिन्तक हैं ।,उसकी बाँकी अदा आज उनकी आँखों में खुबी जाती थी ।,राजा-दीवान साहब रियासत के सच्चे शुभचिंतक हैं । उसका एक एक अग आनद से पुलकित हो रद्द था ।,राजा-दीवान साहब रियासत के सच्चे शुभचिंतक हैं ।,उसका एक-एक अंग आनंद से पुलकित हो रहा था । मुशी बच्र- घर इधर उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करवे-फिरते ये ।,उसका एक-एक अंग आनंद से पुलकित हो रहा था ।,मुंशी वज्रधर इधर-उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते फिरते थे । "स्टेशन के बाहर हाथी, घोड़े, वग्धियों, मोटर पैर जमाये खढ़ी थीं ।",मुंशी वज्रधर इधर-उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते फिरते थे ।,"स्टेशन के बाहर हाथी. घोड़े, बग्घियाँ, मोटर पैर जमाए खड़ी थीं ।" णगदीशपुर का बढ बड़े अनोहर स्वरों मे विजय गान कर रहा था |,"स्टेशन के बाहर हाथी. घोड़े, बग्घियाँ, मोटर पैर जमाए खड़ी थीं ।",जगदीशपुर का बैंड बड़े मनोहर स्वरों में विजय-गान कर रहा था । "मुशी वज्र्धर बहुत चीखे चिल्लाये, लेकिन कौन सुनता है ।",जगदीशपुर का बैंड बड़े मनोहर स्वरों में विजय-गान कर रहा था ।,"मुंशी वज्रधर बहुत चीखे-चिल्लाए, लेकिन कौन सुनता है ?" दीवान साहब ने तुरन्त सैनिरो को उसके सामने से भोड़ दटाते र्दने के लिए घुला लिया था ।,"मुंशी वज्रधर बहुत चीखे-चिल्लाए, लेकिन कौन सुनता है ?",दीवान साहब ने तुरन्त सैनिकों को उसके सामने से भीड़ हटाते रहने के लिए बुला लिया था । "ठिठक गयी श्रोर एक छ्ली की आड़ से चक्रघर को देखा, एक रक्त-हीन, मलीन-मुख, क्षीण-मूर्ति सिर कुकाये खड़ी थी, मानो जमीन पर वैर रखते डर रहो है कि कहीं गिर न पड़े ।",दीवान साहब ने तुरन्त सैनिकों को उसके सामने से भीड़ हटाते रहने के लिए बुला लिया था ।,"ठिठक गयी और एक स्त्री की आड़ से चक्रधर को देखा, एक रक्तहीन, मलिन-मुख, क्षीण मूर्ति सिर झुकाए खड़ी थी, मानो जमीन पर पैर रखते डर रही है कि कहीं गिर न पड़े ।" मुझे तमाशा न बनाइये |,"ठिठक गयी और एक स्त्री की आड़ से चक्रधर को देखा, एक रक्तहीन, मलिन-मुख, क्षीण मूर्ति सिर झुकाए खड़ी थी, मानो जमीन पर पैर रखते डर रही है कि कहीं गिर न पड़े ।",मुझे तमाशा न बनाइए । "ये बातें सुनी, तो विगड़कर बोले--तमाशा नदी बनना था, तो दूसरों के लिए प्राण देने का क्‍यों तैयार हुए ये ?",मुझे तमाशा न बनाइए ।,"ये बातें सुनीं, तो बिगड़कर बोले-तमाशा नहीं बनना था, तो दूसरे के लिए प्राण देने को क्यों तैयार हुए थे ।" "तुम दूसरों के लिए इतनो मुसीबत फेत्कर यह सम्मान पा रहे हो, तो इसमे मेंपने को क्‍या बात है, भला ! देखता तो हूँ. कि कीई एक छांट-मोटा व्याख्यान दे देता है, ते पन्नों मे देयता ई कि मेरी तारीफ हो रही है या नहीं ।","ये बातें सुनीं, तो बिगड़कर बोले-तमाशा नहीं बनना था, तो दूसरे के लिए प्राण देने को क्यों तैयार हुए थे ।","तुम दूसरों के लिए इतनी मुसीबतें झेलकर यह सम्मान पा रहे हो, तो इसमें झेंपने की क्या बात है, भला! देखता हूँ कि कोई एक छोटा-मोटा व्याख्यान देता है, तो पत्रों में देखता है कि मेरी तारीफ हो रही है या नहीं ।" "तुम्दीं अरनो इज्जत न करोगे, ता दूमरे क्यों करने लगे ।","तुम दूसरों के लिए इतनी मुसीबतें झेलकर यह सम्मान पा रहे हो, तो इसमें झेंपने की क्या बात है, भला! देखता हूँ कि कोई एक छोटा-मोटा व्याख्यान देता है, तो पत्रों में देखता है कि मेरी तारीफ हो रही है या नहीं ।","तुम्हीं अपनी इज्जत न करोगे, तो दूसरे क्यों करने लगे ?" और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुश्रा ।,"तुम्हीं अपनी इज्जत न करोगे, तो दूसरे क्यों करने लगे ?",और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ । "इसके बाद तरह तरह की चोकियाँ थीं, जिनके द्वारा राजनैतिक समत््याश्रों का चित्रण किया गया था ।",और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ ।,"इसके बाद तरह-तरह की चौकियाँ थीं, उनके द्वारा राजनीतिक समस्याओं का चित्रण किया गया था ।" "फिर भॉँति-माँति की गायन मडलियाँ यी, जिनमें कोई ढोल मजीरे पर राजनैतिक गीत गाती थीं, कोई डरडे वजा-बजाकर राष्ट्रीय हर गगा' सुना रही थीं, और दोचार सजन चने घोर गरम और चूरन प्रमलवेत” की वाणियों का पाठ कर रहे ये |","इसके बाद तरह-तरह की चौकियाँ थीं, उनके द्वारा राजनीतिक समस्याओं का चित्रण किया गया था ।","फिर भाँति-भाँति की गायन मंडलियाँ थीं, जिनमें कोई ढोल-मंजीरे पर राजनीतिक गीत गाती थीं, कोई डंडे बजा-बजाकर राष्ट्रीय 'हर गंगा' सुना रही थीं और दो-चार सज्जन 'चने जोर गरम और चूरन अमलबेत' की वाणियों का पाठ कर रहे थे ।" "जलूस नदेसर, चेतगन, दशाश्वमेघ ओर चोक होता हुआ दोपहर होते-होते कब्रीर चोरे पर पहुँचा ।","फिर भाँति-भाँति की गायन मंडलियाँ थीं, जिनमें कोई ढोल-मंजीरे पर राजनीतिक गीत गाती थीं, कोई डंडे बजा-बजाकर राष्ट्रीय 'हर गंगा' सुना रही थीं और दो-चार सज्जन 'चने जोर गरम और चूरन अमलबेत' की वाणियों का पाठ कर रहे थे ।","जुलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक होता हुआ दोपहर होते-होते कबीर चौरे पर पहुँचा ।" "राजा साहब चक्रधर से जेल के सम्बन्ध में बातें करते रहे, पर मनोरमा वहाँ मो चुप ही रही ।","जुलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक होता हुआ दोपहर होते-होते कबीर चौरे पर पहुँचा ।",राजा साहब चक्रधर से जेल के सम्बन्ध में बात करते रहे पर मनोरमा वहाँ चुप ही रही । "श्राप लोगों को जात न होगा कि पूज्यवर बाबू चक्रधर रानी साहत्रा के गुरु रह चुके हैं, और वह उन्हें श्रव भी उसी माव से देखतो हैं ।",राजा साहब चक्रधर से जेल के सम्बन्ध में बात करते रहे पर मनोरमा वहाँ चुप ही रही ।,"आप लोगों को ज्ञात न होगा कि पूज्यवर बाबू चक्रधर रानी साहिबा के गुरु रह चुके हैं, और वह उन्हें अब भी उसी भाव से देखती हैं ।" राजा साहब बोल ही रहे थे कि मनोरमा पर्डाल से निकल आयी और मोटर पर बैठकर राज्य-मबन चली गयी ।,"आप लोगों को ज्ञात न होगा कि पूज्यवर बाबू चक्रधर रानी साहिबा के गुरु रह चुके हैं, और वह उन्हें अब भी उसी भाव से देखती हैं ।",राजा साहब बोल ही रहे थे कि मनोरमा पंडाल से निकल आयी और मोटर पर बैठकर राजभवन चली गयी । रास्ते-भर वह शेती रही |,राजा साहब बोल ही रहे थे कि मनोरमा पंडाल से निकल आयी और मोटर पर बैठकर राजभवन चली गयी ।,रास्ते-भर वह रोती रही । उतका मन चक्रघर से एकान्त मं वार्तें करने के लिए. विकल हो रहा था ।,रास्ते-भर वह रोती रही ।,उसका मन चक्रधर से एकान्त में बातें करने के लिए विकल हो रहा था । श्र किस प्रकार मे तुम्दारी सेवा करती ?,उसका मन चक्रधर से एकान्त में बातें करने के लिए विकल हो रहा था ।,और किस प्रकार मैं तुम्हारी सेवा करती ? शामि- याना उखाड़ लिया गया था |,और किस प्रकार मैं तुम्हारी सेवा करती ?,शामियाना उखाड़ दिया गया था । मनोरमा को इस समय बड़ी लज्ा आयी |,शामियाना उखाड़ दिया गया था ।,मनोरमा को इस समय बड़ी लज्जा आयी । नाहक इतनी जल्दी की; पर अत्र पछुताने से क्या होता या ?,मनोरमा को इस समय बड़ी लज्जा आयी ।,"नाहक इतनी जल्दी की, पर अब पछताने से क्या होता था ?" चकन- धर ने उसे देख लिया ओर समोप आकर प्रत्तन्न भाव से वोले+में तो स्वयं आपकी सेवा में आनेवाला था ।,"नाहक इतनी जल्दी की, पर अब पछताने से क्या होता था ?",चक्रधर ने उसे देख लिया और समीप आकर प्रसन्न भाव से बोले-मैं तो स्वयं आपकी सेवा में आने वाला था । "जेल में कोई फट न था, चल्कि सच पूछिए ते मुझे वह्लें बहुत आराम था ।",चक्रधर ने उसे देख लिया और समीप आकर प्रसन्न भाव से बोले-मैं तो स्वयं आपकी सेवा में आने वाला था ।,"जेल में कोई कष्ट न था, बल्कि सच पूछिए तो मुझे वहां बहुत आराम था ।" आपकी तवीयत अब फैसो है ?,"जेल में कोई कष्ट न था, बल्कि सच पूछिए तो मुझे वहां बहुत आराम था ।",आपकी तबीयत अब कैसी है ? "जरूरत है जनता में जाशति फैलाने की, उनमे उत्साह ओर श्रात्मचल का सचार करने की |",आपकी तबीयत अब कैसी है ?,"जरूरत है जनता में जागृति फैलाने की, उनमें उत्साह और आत्मबल का संचार करने की ।" "* मनोरमा-श्रच्छा, तो मे आपके साथ देहातों में घूमेंगी ।","जरूरत है जनता में जागृति फैलाने की, उनमें उत्साह और आत्मबल का संचार करने की ।","मनोरमा-अच्छा, तो मैं आपके साथ देहातों में घूमूँगी ।" "ज्यादा तो नही, पॉच हजार रुपए में प्रति मास आपकी मेंठ कर सकती हूँ, आप जैसे चा्दे उसका उपयोग करें |","मनोरमा-अच्छा, तो मैं आपके साथ देहातों में घूमूँगी ।","ज्यादा तो नहीं, पाँच हजार रुपए मैं प्रति मास आपको भेंट कर सकती हूँ, आप जैसे चाहें उसका उपयोग करें ।" मेरे सन्‍्तोप के लिए इतना द्वी काफी है कि वे आपके हाथों खर्च हों |,"ज्यादा तो नहीं, पाँच हजार रुपए मैं प्रति मास आपको भेंट कर सकती हूँ, आप जैसे चाहें उसका उपयोग करें ।",मेरे सन्तोष के लिए इतना ही काफी है कि वे आपके हाथों खर्च हों । "उसने मुंह फेरकर श्रॉसू पोछ डालें और फिर बोली--आप मुझे; दिल में जो चाहें, समझें; में इस समय आपसे सब्र कुछ कह दूँगी ।",मेरे सन्तोष के लिए इतना ही काफी है कि वे आपके हाथों खर्च हों ।,"उसने मुँह फेरकर आँसू पोंछ डाले और फिर बोली-आप मुझे दिल में जो चाहें, समझें मैं इस समय आपसे सब कुछ कह दूँगी ।" लेकिन मेरी सुख लालसा किसी भले घर में शान्त दो सकती थी ।,"उसने मुँह फेरकर आँसू पोंछ डाले और फिर बोली-आप मुझे दिल में जो चाहें, समझें मैं इस समय आपसे सब कुछ कह दूँगी ।",लेकिन मेरी सुख लालसा किसी भी भले घर में शान्त हो सकती थी । चक्रघर ये बाते सुनकर मर्माहत-से दो गये ।,लेकिन मेरी सुख लालसा किसी भी भले घर में शान्त हो सकती थी ।,चक्रधर ये बातें सुनकर मर्माहत-से हो गये । तेरी लोला कितनी विपम है ! वह इसलिए उससे दूर भागे ये कि वह उसे अपने साथ दरिद्रता के काँ्टों मे घसीटना न चाहते ये ।,चक्रधर ये बातें सुनकर मर्माहत-से हो गये ।,हा विधि ! तेरी लीला कितनी विषम है! वह इसलिए उससे दूर भागे थे कि वह उसे अपने साथ दरिद्रता के काँटों में घसीटना न चाहते थे । चक्रघर मन में बहुत ही ज्षुव्ध हुए |,हा विधि ! तेरी लीला कितनी विषम है! वह इसलिए उससे दूर भागे थे कि वह उसे अपने साथ दरिद्रता के काँटों में घसीटना न चाहते थे ।,चक्रधर मन में बहुत ही क्षुब्ध हुए । प्रबल उत्कण्ठा हुई कि इसी क्षण इसके चरणों पर फिर रख दें श्रोर रोयें ।,चक्रधर मन में बहुत ही क्षुब्ध हुए ।,प्रबल उत्कण्ठा हुई कि इसी क्षण इसके चरणों पर सिर रख दें और रोयें । "इक्से तो यह कहीं श्रच्छा था कि मेरा जीवन नश्ट हो जाता, मेरे सारे मंद धूल में मिल जाते ।",प्रबल उत्कण्ठा हुई कि इसी क्षण इसके चरणों पर सिर रख दें और रोयें ।,"इससे तो यह कहीं अच्छा था कि मेरा जीवन नष्ट हो जाता, मेरे सारे मंसूबे धूल में मिल जाते ।" मुझ जैपे छुद्र प्राणी के लिए तुम्हें श्रपने ऊपर यह अत्याचार १ करना चाहिए था ।,"इससे तो यह कहीं अच्छा था कि मेरा जीवन नष्ट हो जाता, मेरे सारे मंसूबे धूल में मिल जाते ।",मुझ जैसे क्षुद्र प्राणी के लिए तुम्हें अपने ऊपर यह अत्याचार न करना चाहिए था । अब तो मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मुझे अपने बत पर हद रहने की शक्ति अदान करें ।,मुझ जैसे क्षुद्र प्राणी के लिए तुम्हें अपने ऊपर यह अत्याचार न करना चाहिए था ।,अब तो मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मुझे अपने व्रत पर दृढ़ रहने की शक्ति प्रदान करें । "चक्रघर ने वित्मित होकर मनोरमा की ओर देखा, मानो इसका श्राशय अी समभ में नआया हो |",अब तो मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मुझे अपने व्रत पर दृढ़ रहने की शक्ति प्रदान करें ।,"चक्रधर ने विस्मित होकर मनोरमा की ओर देखा, मानो इसका आशय उनकी समझ में न आया हो ।" यशोदानन्दन ने काशो के परिडतों की व्यवस्था मंगवायी कि एक मुसलमान का वध एक लाख गौ-दानो से श्रेष्ठ है |,"चक्रधर ने विस्मित होकर मनोरमा की ओर देखा, मानो इसका आशय उनकी समझ में न आया हो ।",यशोदानन्दन ने काशी के पंडितों की व्यवस्था मंगवाई कि एक मुसलमान का वध एक लाख गोदानों से श्रेष्ठ है । इतने जोश से कभी होली न मनायी गयी थी ।,यशोदानन्दन ने काशी के पंडितों की व्यवस्था मंगवाई कि एक मुसलमान का वध एक लाख गोदानों से श्रेष्ठ है ।,इतने जोश से कभी होली न मनाई गयी थी । "वे नयी रोशनी के हिन्दू भक्त, जो रग को भूखा मेड़िया समभते ये या पागल गीदड़, श्रान जीते-जागते इन्द्र-धनुष बने हुए थे |",इतने जोश से कभी होली न मनाई गयी थी ।,"वे नई रोशनी के हिंदू-भक्त, जो रंग को भूखा भेड़िया समझते थे या पागल गीदड़, आज जीते-जागते इन्द्रधनुष बने हुए थे ।" उनके कपड़े पर दो चार छींटे पड़ गये |,"वे नई रोशनी के हिंदू-भक्त, जो रंग को भूखा भेड़िया समझते थे या पागल गीदड़, आज जीते-जागते इन्द्रधनुष बने हुए थे ।",उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गये । "शाम तक मुझे इसका जवाब न पिला, तो ह॒म्हें मेरी लाश मसबिद्‌ के नीचे नजर आयेगी ।",उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गये ।,"शाम तक मुझे इसका जवाब न मिला, तो तुम्हें मेरी लाश मस्जिद के नीचे नजर आयेगी ।" ' मुसलमानों ने जब ललकार सुनी ओर उनकी त्योरियाँ बदल गयीं ।,"शाम तक मुझे इसका जवाब न मिला, तो तुम्हें मेरी लाश मस्जिद के नीचे नजर आयेगी ।",' मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियाँ बदल गयीं । द्दोली का नशा हिरन हो गया ।,' मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियाँ बदल गयीं ।,होली का नशा हिरन हो गया । "पिचकारियाँ छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियोँ सेमालों, लेकिन यहाँ कोई जामे मसनिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश |",होली का नशा हिरन हो गया ।,"पिचकारियाँ छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियाँ सँभाली, लेकिन यहाँ कोई जामे मस्जिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश ।" "वाबू यशोदानन्दन कमी इस अफसर के पास जाते, कमी उस अफसर के |","पिचकारियाँ छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियाँ सँभाली, लेकिन यहाँ कोई जामे मस्जिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश ।","बाबू यशोदानन्दन कभी इस अफसर के पास जाते, कभी उस अफसर के ।" वे अली ! अली ! का शोर मचाते चले जाते ये कि बाबू साइब स/मलने नजर आ गये ।,"बाबू यशोदानन्दन कभी इस अफसर के पास जाते, कभी उस अफसर के ।",वे 'अली! अली' का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब सामने नजर आ गये । "सैकड़ों आदमी, मारो ! कहते हुए लपके ।",वे 'अली! अली' का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब सामने नजर आ गये ।,सैकड़ों आदमी 'मारो!' कहते हुए लपके । "पिस्तोल चलाने की नौबत मी न आयी, यही सोचते खड़े रह गये कि समझाने से ये लोग शान्त हो जायें, तो क्‍यों किसो की जान लू |",सैकड़ों आदमी 'मारो!' कहते हुए लपके ।,"पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आयी, यही सोचते खड़े रह गये कि समझाने से ये लोग शान्त हो जायें तो क्यों किसी की जान लूँ ।" "ज्रियाँ तो पागल हो जाती हैं, यों हीं भूँका करती हैँ ।","पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आयी, यही सोचते खड़े रह गये कि समझाने से ये लोग शान्त हो जायें तो क्यों किसी की जान लूँ ।","स्त्रियाँ तो पागल हो जाती हैं, यों ही भूका करती हैं ।" "जाकर ख्वाजा महमूद से कह्दो, उनका पता लगायें |","स्त्रियाँ तो पागल हो जाती हैं, यों ही भूका करती हैं ।","जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगायें ।" सन्ध्या समय जाकर आग बुमो ।,"जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगायें ।",सन्ध्या समय जाकर आग बुझी । अगर मुझ पर किसी कातिल का हाय उठता तो यशोदा उस बार फो अपनी गर्दन पर रोक लेता |,सन्ध्या समय जाकर आग बुझी ।,"अगर मुझ पर किसी कातिल का हाथ उठता, तो यशोदानन्दन उस वार को अपनी गर्दन पर रोक लेता ।" "यशोदा मी इत्तह्द का उतना ही हामी था, जितना मैं ।","अगर मुझ पर किसी कातिल का हाथ उठता, तो यशोदानन्दन उस वार को अपनी गर्दन पर रोक लेता ।",यशोदानन्दन भी इत्तहाद का उतना ही हामी था जितना मैं । "यह मेरे घर पर आता था, मेरी श्रम्मालान इसको मुझसे ज्यादा चाहती थीं, इसकी श्रम्माँनान सुके इससे ज्यादा |",यशोदानन्दन भी इत्तहाद का उतना ही हामी था जितना मैं ।,"यह मेरे घर पर आता था, मेरी अम्माँजान इसको मुझसे ज्यादा चाहती थीं, इसकी अम्माँजान मुझे इससे ज्यादा ।" "ख्वाजा-कल्लामे मजीद की कठम, जब तक अहल्या का पता न लूंगा, मुझे दाना पानी हराम है |","यह मेरे घर पर आता था, मेरी अम्माँजान इसको मुझसे ज्यादा चाहती थीं, इसकी अम्माँजान मुझे इससे ज्यादा ।","ख्वाजा-कलामे मजीद की कसम, जब तक अहिल्या का पता न लगा लूँगा, मुझे दाना-पानी हराम है ।" "सारे शहर को खाक छान डालू गा, एक एक घर में जाकर देखूंगा; अगर किसी चेदीन चदमाश ने मार नहीं डाल है, तो जरूर खोज निकालू गा ।","ख्वाजा-कलामे मजीद की कसम, जब तक अहिल्या का पता न लगा लूँगा, मुझे दाना-पानी हराम है ।","सारे शहर की खाक छान डालूँगा, एक-एक घर में जाकर देखूगा, अगर किसी बेदीन ने मार नहीं डाला, तो जरूर खोज निकालूँगा ।" "तुम लोग लाश को ले जाश्ो, में शहर का चकर लगाता हुआ्आा जमुना किनारे आऊ गा ।","सारे शहर की खाक छान डालूँगा, एक-एक घर में जाकर देखूगा, अगर किसी बेदीन ने मार नहीं डाला, तो जरूर खोज निकालूँगा ।","तुम लोग लाश को ले जाओ, मैं शहर का चक्कर लगाता हुआ जमुना किनारे आऊँगा ।" रद चक्रधर ने उस दिन लोटते ही पिता से आगरे जाने की अनुमति माँगी |,"तुम लोग लाश को ले जाओ, मैं शहर का चक्कर लगाता हुआ जमुना किनारे आऊँगा ।",छब्बीस चक्रधर ने उस दिन लौटते ही पिता से आगरे जाने की अनुमति माँगी । "मनोरमा ने उनके ममस्थल में जो आग लगा दी थी, वह आागरे ही रमश्चइल्या के सरल, स्निग्ध स्नेह को शीतल छाया में शान्त हो सकती थी ।",छब्बीस चक्रधर ने उस दिन लौटते ही पिता से आगरे जाने की अनुमति माँगी ।,"मनोरमा ने उनके मर्मस्थल में जो आग लगा दी थी, वह आगरे ही में अहिल्या के सरल, स्निग्ध स्नेह की शीतल छाया में शांत हो सकती थी ।" वह श्रहल्या को शरण लेना चाहते थे ।,"मनोरमा ने उनके मर्मस्थल में जो आग लगा दी थी, वह आगरे ही में अहिल्या के सरल, स्निग्ध स्नेह की शीतल छाया में शांत हो सकती थी ।",वह अहिल्या की शरण लेना चाहते थे । "वहाँ इस वक्त अनीति का राज्य है, श्रपराघ कोई न देखेग ।",वह अहिल्या की शरण लेना चाहते थे ।,"वहाँ इस वक्त अनीति का राज्य है, अपराध कोई न देखेगा ।" वज़्घर--यह भी व्यर्थ है ।,"वहाँ इस वक्त अनीति का राज्य है, अपराध कोई न देखेगा ।",वज्रधर-यह भी व्यर्थ है । "जन्र वह वह मुसलमानों के साथ रह चुको, तो कौन हिन्दू उसे पूछेगा ?",वज्रधर-यह भी व्यर्थ है ।,"जब वह मुसलमानों के साथ रह चुकी, तो कौन हिंदू उसे पूछेगा ?" "वज्ज्घर ने मी उतने ही निदंय शब्द में उत्तर दिया--अगर तुम्हारा ख्याल हो कि पुनरस्‍्नेह के वश होकर मै उसे श्रगीकार कर लेगा, तो तुम्हारी भूल है ।","जब वह मुसलमानों के साथ रह चुकी, तो कौन हिंदू उसे पूछेगा ?","वज्रधर ने भी उतने ही निर्दय शब्द में उत्तर दिया-अगर तुम्हारा खयाल हो कि पुत्रस्नेह के वश होकर मैं उसे अंगीकार कर लूँगा, तो तुम्हारी भूल है ।" घक्रघर ने हाथ छुड्धाकर कहा-मैने आपकी आशा कभी भग नहीं की; लेकिन इस विषय म मजदूर हूं ।,"वज्रधर ने भी उतने ही निर्दय शब्द में उत्तर दिया-अगर तुम्हारा खयाल हो कि पुत्रस्नेह के वश होकर मैं उसे अंगीकार कर लूँगा, तो तुम्हारी भूल है ।",चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा-मैंने आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं की; लेकिन इस विषय में मजबूर हूँ । बज़्घर ने श्लेप के भाव से कह्--छाफ-साफ क्‍यों नहीं कह देते कि हम आप लोगों से अलग रदना चाहते हूँ ।,चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा-मैंने आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं की; लेकिन इस विषय में मजबूर हूँ ।,वज्रधर ने श्लेष के भाव से कहा-साफ-साफ क्यों नहीं कह देते कि हम आप लोगों से अलग रहना चाहते हैं । "वह कोई ऐसी वात न करेगा, जिसमें निन्‍्दा हो |",वज्रधर ने श्लेष के भाव से कहा-साफ-साफ क्यों नहीं कह देते कि हम आप लोगों से अलग रहना चाहते हैं ।,"वह कोई ऐसी बात न करेगा, जिसमें निंदा हो ।" "मेरा लड़का मर जाय, तो भी गम न हो ! निर्मेला--अच्छा, बस मुँह बन्द करो, बड़े घर्मात्मा चनकर आये हो ।","वह कोई ऐसी बात न करेगा, जिसमें निंदा हो ।","मेरा लड़का मर जाय, तो भी गम न हो ! निर्मला-अच्छा, बस मुँह बन्द करो, बड़े धर्मात्मा बनकर आये हो ।" "रिश्ते ले लेकर हृड़पते दो, तो धर्म नहीं जाता; शराब उड़ाते हो, वो मुँह में कालिख नही लगतो मूठ के पहाड़ खड़े फरते हो, त्तो पाप नही लगता |","मेरा लड़का मर जाय, तो भी गम न हो ! निर्मला-अच्छा, बस मुँह बन्द करो, बड़े धर्मात्मा बनकर आये हो ।","रिश्वतें ले-लेकर हड़पते हो, तो धर्म नहीं जाता; शराबें उड़ाते हो, तो मुँह में कालिख नहीं लगती; झूठ के पहाड़ खड़े करते हो, तो पाप नहीं लगता ।" "वद्द तो शील, स्नेह्ठ ओर पतिभक्ति की मूर्ति थी, आज कोप श्रौर तिरस्कार का रूर धारण किये हुए थी ।","रिश्वतें ले-लेकर हड़पते हो, तो धर्म नहीं जाता; शराबें उड़ाते हो, तो मुँह में कालिख नहीं लगती; झूठ के पहाड़ खड़े करते हो, तो पाप नहीं लगता ।","वह तो शील, स्नेह और पतिभक्ति की मूर्ति थी, आज कोप और तिरस्कार का रूप धारण किए हुए थी ।" उनकी शासक-इत्तियाँ उत्तेजित हो गयीं ।,"वह तो शील, स्नेह और पतिभक्ति की मूर्ति थी, आज कोप और तिरस्कार का रूप धारण किए हुए थी ।",उनकी शासक वत्तियाँ उत्तेजित हो गयीं । डॉटकर बोले--सुनो जी म ऐशसी बातें सुनने का आदो नहीं हूँ ।,उनकी शासक वत्तियाँ उत्तेजित हो गयीं ।,"डाँटकर बोले-सुनो जी, मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ ।" "बातें तो नहीं छुनी मैने अ्रने अफसरों को, जो मेरे साग्य के विधाता ये ।","डाँटकर बोले-सुनो जी, मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ ।","बातें तो नहीं सनी मैंने अपने अफसरों की, जो मेरे भाग्य के विधाता थे ।" इस घर में ठुम्दारो जरूरत नही ।,"बातें तो नहीं सनी मैंने अपने अफसरों की, जो मेरे भाग्य के विधाता थे ।",इस घर में तुम्हारी जरूरत नहीं । ख्वाजा साइबर पर अ्रव मी उनकी असीम भ्रद्धा थी ।,इस घर में तुम्हारी जरूरत नहीं ।,ख्वाजा साहब पर अब भी उनकी असीम श्रद्धा थी । "तोंगें पर बैठकर चले, तो शहर में सैनिक चक्कर लगाते दिखायी दिये |",ख्वाजा साहब पर अब भी उनकी असीम श्रद्धा थी ।,"ताँगे पर बैठकर चले, तो शहर में सैनिक चक्कर लगाते दिखाई दिए ।" दूकानें सब बन्द थीं ।,"ताँगे पर बैठकर चले, तो शहर में सैनिक चक्कर लगाते दिखाई दिए ।",दुकानें सब बन्द थीं । "वह कसी से पूछने ही जाते थे कि सहसा ख्वाजा साहब ने श्राकर उनका हाथ पकड़ लिया और आँखों में ऑसू भरकर बोले--खूब आये बेटा, ,धग्हें आँखें ढेढे रही थीं ।",दुकानें सब बन्द थीं ।,"वह किसी से पूछने ही जा रहे थे कि सहसा ख्वाजा साहब ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आँखों में आँसू भरकर बोले-खूब आये बेटा, तुम्हें आँखें ढूँढ रही थीं ।" "श्रभमी-अ्रभी तुम्हारा ही जिक्र था, खुदा तुम्हारी उस्र दराज करे ।","वह किसी से पूछने ही जा रहे थे कि सहसा ख्वाजा साहब ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आँखों में आँसू भरकर बोले-खूब आये बेटा, तुम्हें आँखें ढूँढ रही थीं ।","अभी-अभी तुम्हारा ही जिक्र था,खुदा तुम्हारी उम्र दराज करे ।" "तुम्हें हेरत हो रही होगी, मगर मैं विलकुल सच कह्द रहा हूँ ।","अभी-अभी तुम्हारा ही जिक्र था,खुदा तुम्हारी उम्र दराज करे ।",तुम्हें हैरत हो रही होगी; मगर मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ । श्रव॒ उसके नाम से नफरत हो रही है ।,तुम्हें हैरत हो रही होगी; मगर मैं बिल्कुल सच कह रहा हूँ ।,अब उसके नाम से नफरत हो रही है । चक्रधर--मुझे यह सुनकर बहुत्त श्रफसोस हुआ ।,अब उसके नाम से नफरत हो रही है ।,चक्रधर--मुझे यह सुनकर बहुत अफसोस हुआ । "सुबह से कई बार कह चुका हूँ कि चल ते तेरे धर पहुँचा शाऊँ, जाती ही नहीं |",चक्रधर--मुझे यह सुनकर बहुत अफसोस हुआ ।,सुबह से कई बार कह चुका हूँ कि चल तुझे तेरे घर पहुँचा आऊ जाती ही नहीं । "बस, बैठी रो रद्दी है ।",सुबह से कई बार कह चुका हूँ कि चल तुझे तेरे घर पहुँचा आऊ जाती ही नहीं ।,"बस, बैठी रो रही है ।" खुदा की मरजो में इन्तान को क्या दखल ?,"बस, बैठी रो रही है ।",खुदा की मरजी में इन्सान का क्या दखल ? हाथों से मिद्दी दे रहे ये ओर आँखों से आँसू की बेँद मरनेवाले को लाश पर गिर रही थीं ।,खुदा की मरजी में इन्सान का क्या दखल ?,हाथों से मिट्टी दे रहे थे और आँखों से आँसू की बूंदें मरने वाले की लाश पर गिर रही थीं । "उन्हें ऐसा श्रनुमान हो रहा था कि श्रत्र उसके मुख पर माधुय की जगह तेज- सविता का आभास होगा, कोमल नेत्र कठोर हो गये दंगे, मगर जब उस पर निगाह पढ़ी, तो देखा--बही सरल, मधुर छुवि थो, वही कद्ण-कोमल नेत्र, वद्दी शीतल-मथुर वाणी ।",हाथों से मिट्टी दे रहे थे और आँखों से आँसू की बूंदें मरने वाले की लाश पर गिर रही थीं ।,"उन्हें ऐसा अनुमान हो रहा था कि अब उसके मुख पर माधुर्य की जगह तेजस्विता का आभास होगा, कोमल नेत्र कठोर हो गये होंगे, मगर जब उस पर निगाह पड़ी, तो देखा-वही सरल, मधुर छवि थी, वही करुण कोमल नेत्र, वही शीतल मधुर वाणी ।" "चक्रघर ने पूछा--यह छुरी यहाँ कैसे मिल गयी, अहल्या ?","उन्हें ऐसा अनुमान हो रहा था कि अब उसके मुख पर माधुर्य की जगह तेजस्विता का आभास होगा, कोमल नेत्र कठोर हो गये होंगे, मगर जब उस पर निगाह पड़ी, तो देखा-वही सरल, मधुर छवि थी, वही करुण कोमल नेत्र, वही शीतल मधुर वाणी ।","चक्रधर ने पूछा-यह छुरी यहाँ कैसे मिल गयी, अहिल्या ?" क्या साथ लेती आयी यीं ?,"चक्रधर ने पूछा-यह छुरी यहाँ कैसे मिल गयी, अहिल्या ?",क्या साथ लेती आयी थीं ? "अहल्या - नहीं, आप योंही नहीं पूछ रहे हैं, आ्रापका इसमे कोई प्रयोजन अवश्य है ।",क्या साथ लेती आयी थीं ?,"अहिल्या-नहीं, आप यों ही नहीं पूछ रहे हैं, आपका इसमें कोई प्रयोजन अवश्य है ।" "अगर भ्रम है, तो भेरी श्रम्वि-परीक्षा ले लीजिए |","अहिल्या-नहीं, आप यों ही नहीं पूछ रहे हैं, आपका इसमें कोई प्रयोजन अवश्य है ।","अगर भ्रम है, तो मेरी अग्नि-परीक्षा ले लीजिए ।" "चक्रघर ने देखा, बात विगढ़ रही है ।","अगर भ्रम है, तो मेरी अग्नि-परीक्षा ले लीजिए ।","चक्रधर ने देखा, बात बिगड रही है ।" "वहाँ ठम सुरक्षित बैठी हुई हो, सन्देह ओर कल क का घातक हाथ वहाँ उसी वक्त पहुँचेगा, जब (छाती पर हाथ रखकर) यह अ्रस्थि-दुर्ग विध्वंस हो जायगा ।","चक्रधर ने देखा, बात बिगड रही है ।","वहाँ तुम सुरक्षित बैठी हुई हो, संदेह और कलंक का घातक हाथ उसी वक्त पहुंचेगा, जब (छाती पर हाथ रखकर) यह अस्थि दुर्ग विध्वंस हो जायगा ।" "मेरी आत्मा निष्कलक है, लेकिन मैं श्रय वहाँ न जाऊगी, कहीं न नाऊँगी ।","वहाँ तुम सुरक्षित बैठी हुई हो, संदेह और कलंक का घातक हाथ उसी वक्त पहुंचेगा, जब (छाती पर हाथ रखकर) यह अस्थि दुर्ग विध्वंस हो जायगा ।","मेरी आत्मा निष्कलंक है; लेकिन मैं अब वहाँ न जाऊँगी, कहीं न जाऊँगी ।" "आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से श्रमागिनी हूँ, आप जाकर शअ्रम्मा को समझा दीनिये ।","मेरी आत्मा निष्कलंक है; लेकिन मैं अब वहाँ न जाऊँगी, कहीं न जाऊँगी ।","आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से अभागिनी हूँ, आप जाकर अम्मां को समझा दीजिए ।" "उन्होंने फिर अहल्या का हाथ पकड़ लिया और जबरद॒त्ती छाती से लगाकर बोले--अहल्या जिस देह में पवित्र ओर निष्कलक आत्मा रहती हैं, वह देह भी पवित्र ओर निष्कलंक रहती है ।","आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म से अभागिनी हूँ, आप जाकर अम्मां को समझा दीजिए ।","उन्होंने फिर अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और जबरदस्ती छाती से लगाकर बोले-अहिल्या, जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र और निष्कलंक रहती है ।" "फिर बोली-- एक बात पूछता चाहती हूँ, चत्ताओगे ?","उन्होंने फिर अहिल्या का हाथ पकड़ लिया और जबरदस्ती छाती से लगाकर बोले-अहिल्या, जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र और निष्कलंक रहती है ।","फिर बोली-एक बात पूछना चाहती हूँ, बताओगे ?" अहल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गयी |,"फिर बोली-एक बात पूछना चाहती हूँ, बताओगे ?",अहिल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गयी । "अदहल्या--म जानती, तो आपसे क्‍यों पूछती ?",अहिल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गयी ।,"अहिल्या-मैं जानती, तो आपसे क्यों पूछती ?" "चील को चाहे मास की घोटी न दिखायी दे, चिउठंथी को चाहे शकर की छुगन्ध न मिले; लेकिन रमणी का एक-एक रोयॉ पस्चेन्द्रियों को भाँति प्रेम के रूप, रत, शब्द, स्पर्श का अनुभव किये विना नहीं रहता ।","अहिल्या-मैं जानती, तो आपसे क्यों पूछती ?","चील को चाहे माँस की बोटी न दिखाई दे, चिऊंटी को चाहे शक्कर की सुगंध न मिले, लेकिन रमणी का एक-एक रोयाँ पंचेंद्रियों की भाँति प्रेम के रूप, रस, शब्द, स्पर्श का अनुभव किए बिना नहीं रहता ।" अहल्या ने मुसकराकर कहा-तो प्रापके कथन के अनुसार में आपके हृदय का हाल जानती हैं ।,"चील को चाहे माँस की बोटी न दिखाई दे, चिऊंटी को चाहे शक्कर की सुगंध न मिले, लेकिन रमणी का एक-एक रोयाँ पंचेंद्रियों की भाँति प्रेम के रूप, रस, शब्द, स्पर्श का अनुभव किए बिना नहीं रहता ।",अहिल्या ने मुस्कराकर कहा-तो आपके कथन के अनुसार मैं आपके हृदय का हाल जानती हूँ । अहल्या--तो साफ कह दूँ ?,अहिल्या ने मुस्कराकर कहा-तो आपके कथन के अनुसार मैं आपके हृदय का हाल जानती हूँ ।,अहिल्या-तो साफ कह दूँ ? "चक्रपुर--अएल्या, तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो ।",अहिल्या-तो साफ कह दूँ ?,"चक्रधर-अहिल्या, तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो ।" "अहल्या--जिस वस्तु फो लेने की सामर्थ्य ही मुझूम नहीं हैं, उस पर हाथ न चदाऊँगो ।","चक्रधर-अहिल्या, तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो ।","अहिल्या-जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य ही मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बढ़ाऊँगी ।" "मेरे लिए वही चहुत है, जो श्राप दे रहे हैं ।","अहिल्या-जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य ही मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बढ़ाऊँगी ।","मेरे लिए वही बहुत है, जो आप दे रहे हैं ।" "सारा प्रेमोत्ताह, जो उनके दृृदय में लद्दर्र मार रहा था, एकाएक लुप्त हो गया ।","मेरे लिए वही बहुत है, जो आप दे रहे हैं ।","सारा प्रेमोत्साह, जो उनके हृदय में लहरें मार रहा था, एकाएक लुप्त हो गया ।" "सम्भव है, आ्राज के दस वर्ष बाद मैं आपकी प्रेम पात्री बन जाऊ, किन्तु इतनी जल्द सम्भव नहीं |","सारा प्रेमोत्साह, जो उनके हृदय में लहरें मार रहा था, एकाएक लुप्त हो गया ।","सम्भव है, आज के दस वर्ष बाद मैं आपकी प्रेम-पात्री बन जाऊँ, किंतु इतनी जल्दी सम्भव नहीं ।" "आपके द्वदय में अ्रमी केवल दया का भाव अकुरित हुआ है, मेरे द्ृदय में सम्मान ओर मक्ति का |","सम्भव है, आज के दस वर्ष बाद मैं आपकी प्रेम-पात्री बन जाऊँ, किंतु इतनी जल्दी सम्भव नहीं ।","आपके हृदय में अभी केवल दया का भाव अंकुरित हुआ है, मेरे हृदय में सम्मान और भक्ति का ।" श्रहल्या के मुख से प्रेम की यह दाशंनिक व्याख्या सुनकर चक्रधर दंग हो गये |,"आपके हृदय में अभी केवल दया का भाव अंकुरित हुआ है, मेरे हृदय में सम्मान और भक्ति का ।",अहिल्या के मुख से प्रेम की यह दार्शनिक व्याख्या सुनकर चक्रधर दंग हो गये । "उन्हें यह सोचकर आनन्द हुआ कि इसके साथ जीवन कितना सुखमय हो जायगा, किन्ठु श्रइल्या का हाथ उनके हाथ से श्राप ही आप छूट गया, ओर उन्हें उसकी ओर ताकने का साहस न हुआ |",अहिल्या के मुख से प्रेम की यह दार्शनिक व्याख्या सुनकर चक्रधर दंग हो गये ।,"उन्हें यह सोचकर आनन्द हुआ कि इसके साथ जीवन कितना सुखमय हो जायगा, किन्तु अहिल्या का हाथ उनके हाथ से आप ही आप छूट गया और उन्हें उसकी ओर ताकने का साहस न हुआ ।" कदाचित आपके माता-पिता आपका तिरस्कार करें ।,"उन्हें यह सोचकर आनन्द हुआ कि इसके साथ जीवन कितना सुखमय हो जायगा, किन्तु अहिल्या का हाथ उनके हाथ से आप ही आप छूट गया और उन्हें उसकी ओर ताकने का साहस न हुआ ।",कदाचित् आपके माता-पिता तिरस्कार करें । "मेरे लिए इससे बह्टी सोभाग्य की बात नहीं दो सकती कि आपको दासी बने, लेकिन आपके तिरसकार ओर अपमान का ख्याल करके जी में यद्दी आता है कि क्‍यों न इस जीवन का अन्त कर दूँ ।",कदाचित् आपके माता-पिता तिरस्कार करें ।,"मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूँ, लेकिन आपके तिरस्कार और आपमान का खयाल करके जी में यही आता है कि क्यों न इस जीवन का अन्त कर दूँ ।" हम ओर तुम प्रेम का आनन्द समोग करते हुए ससार के सब कर्शो ओर सकटों का सामना कर सकते हैं ।,"मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूँ, लेकिन आपके तिरस्कार और आपमान का खयाल करके जी में यही आता है कि क्यों न इस जीवन का अन्त कर दूँ ।",हम और तुम प्रेम का आनन्द भोग करते हुए संसार के सब कष्टों और संकटों का सामना कर सकते हैं । "शका की ज्वाला शान्त होते ही उसकी दाइ-चश्चल दृष्टि स्थिर हो गयी ओर चक्रघर की सोम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आखों के सामने खड़ी दिखायी दी ।",हम और तुम प्रेम का आनन्द भोग करते हुए संसार के सब कष्टों और संकटों का सामना कर सकते हैं ।,"शंका की ज्वाला शान्त होते ही उसकी यह चंचल दृष्टि स्थिर हो गयी और चक्रधर की सौम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आँखों के सामने खड़ी दिखाई दी ।" "उसने अपना सिर उनके कन्षे पर रख दिया, उस आलिंगन में उसकी सारी दुर्भावनाएँ विलीन हो गयीं, जैसे कोई आत्त-ध्वनि सरिता के शान्त, मन्द प्रवाह में विलोन हो जाती है ।","शंका की ज्वाला शान्त होते ही उसकी यह चंचल दृष्टि स्थिर हो गयी और चक्रधर की सौम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आँखों के सामने खड़ी दिखाई दी ।","उसने अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया, उस आलिंगन में उसकी सारी दुर्भावनाएँ विलीन हो गयीं जैसे कोई आर्त्तध्वनि सरिता के शांत, मंद प्रवाह में विलीन हो जाती है ।" दीपक वही थे; पर उनका प्रकाश मन्‍्द था ।,"उसने अपना सिर उसके कंधे पर रख दिया, उस आलिंगन में उसकी सारी दुर्भावनाएँ विलीन हो गयीं जैसे कोई आर्त्तध्वनि सरिता के शांत, मंद प्रवाह में विलीन हो जाती है ।","दीपक वही थे, पर उनका प्रकाश मंद था ।" कई सस्थाओं ने भी इस पुरुय कार्य में अपनी उदारता का परिविय दिया |,"दीपक वही थे, पर उनका प्रकाश मंद था ।",कई संस्थाओं ने भी इस पुण्य कर्म में अपनी उदारता का परिचय दिया । वैमनस्य का भूत नेताश्रों का बलिदान पाकर शान्त हो गया |,कई संस्थाओं ने भी इस पुण्य कर्म में अपनी उदारता का परिचय दिया ।,वैमनस्य का भूत नेताओं का बलिदान पाकर शान्त हो गया । "जत्र अदल्या आकर पालकी पर बैठी, ते वह दुसिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी |",वैमनस्य का भूत नेताओं का बलिदान पाकर शान्त हो गया ।,"जब अहिल्या आकर पालकी पर बैठी, तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी ।" पति- शोक में भी उसके जीवन का एक आवार रद्द गया था |,"जब अहिल्या आकर पालकी पर बैठी, तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी ।",पति-शोक में भी उसके जीवन का एक आधार रह गया था । अहल्या के जाने से वह सर्वया निराघार हो गयी |,पति-शोक में भी उसके जीवन का एक आधार रह गया था ।,अहिल्या के जाने से वह सर्वथा निराधार हो गयी । उसे मुझपर जरा भी दया नहीं थातो ?,अहिल्या के जाने से वह सर्वथा निराधार हो गयी ।,उसे मुझ पर जरा भी दया नहीं आती ? मानो कीं कुछ रहा ही नदी ।,उसे मुझ पर जरा भी दया नहीं आती ?,"मानो, कहीं कुछ रहा ही नहीं ।" "अदट्ल्या भी रो रद्दी थी; लेकिन शोक से नहीं, वियोग में ।","मानो, कहीं कुछ रहा ही नहीं ।","अहिल्या भी रो रही थी, लेकिन शोक से नहीं, वियोग में ।" "प्राण देद से निकलकर घर से चिमद जाते आर फिर ""इने का नाम न लेते ब |","अहिल्या भी रो रही थी, लेकिन शोक से नहीं, वियोग में ।",प्राण देह से निकलकर घर से चिमट जाते और फिर छोड़ने का नाम न लेते थे । "नव-बधू को लिए हुए बर के दृदय में जो अभिलाषाएँ, णो मदु-कल्पनाएँ प्रदीत्त होती हैं, उनका यहाँ नाप्र भी न था |",प्राण देह से निकलकर घर से चिमट जाते और फिर छोड़ने का नाम न लेते थे ।,"नव-वधू को लिए हुए वर के हृदय में जो अभिलाषाएँ, जो मृदु-कल्पनाएँ प्रदीप्त होती हैं, उनका यहाँ नाम भी न था ।" "मित्रों को कमी न थी, लेकिन स्त्री को लिये हुए किसी मित्र के घर जाने के खयाल द्वी से लला आती थी ।","नव-वधू को लिए हुए वर के हृदय में जो अभिलाषाएँ, जो मृदु-कल्पनाएँ प्रदीप्त होती हैं, उनका यहाँ नाम भी न था ।","मित्रों की कमी न थी, लेकिन स्त्री को लिए हुए किसी मित्र के घर जाने के खयाल से ही लज्जा आती थी ।" "कुछ दिलों के बाद यदि घरवालों का क्रोध शान्त हो गया, तो चला जाऊँगा, नहीं प्रयाग ही सद्दी |","मित्रों की कमी न थी, लेकिन स्त्री को लिए हुए किसी मित्र के घर जाने के खयाल से ही लज्जा आती थी ।","कुछ दिनों के बाद यदि घर वालों का क्रोध शान्त हो गया, तो चला जाऊँगा, नहीं तो प्रयाग ही सही ।" इन चिन्ताओं से उनकी मुख मुद्रा इतनी मलिन हो गयी कि अहल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनको श्रोर देखा तो चौंक पढ़ी |,"कुछ दिनों के बाद यदि घर वालों का क्रोध शान्त हो गया, तो चला जाऊँगा, नहीं तो प्रयाग ही सही ।",इन चिंताओं से उनकी मुखमुद्रा इतनी मलिन हो गयी कि अहिल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा तो चौंक पड़ी । "उत्तकी वियोग-व्यथा अब शान्त हो गयी थी ओर हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था, लेकिन पति को उदास मुद्रा देखकर वह घत्रड़ा गयो--बोली आप इतने उदास क्‍यों हैं ?",इन चिंताओं से उनकी मुखमुद्रा इतनी मलिन हो गयी कि अहिल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा तो चौंक पड़ी ।,"उसकी वियोगव्यथा अब शान्त हो गयी थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था, लेकिन पति की उदास मुद्रा देखकर घबरा गयी, बोली-आप इतने उदास क्यों हैं ?" क्‍या अ्मी से मेरी फिक्र सवार हो गयी ?,"उसकी वियोगव्यथा अब शान्त हो गयी थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था, लेकिन पति की उदास मुद्रा देखकर घबरा गयी, बोली-आप इतने उदास क्यों हैं ?",क्या अभी से मेरी फिक्र सवार हो गयी ? में घर चलूगी ।,क्या अभी से मेरी फिक्र सवार हो गयी ?,मैं घर चलूँगी । मुशीजी ने दौड़कर छाती से लगा लिया ओर उनके अ्रद्धाश्र॒श्नों को रूमाल से पोछिते हुए स्नेह फोमल शब्दों में बोले--कम-से-फम एक तार तो दे देते फ्रि में क्रिस गाड़ी से आ रहा हू ।,मैं घर चलूँगी ।,मुंशीजी ने दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रूमाल से पोंछते हुए स्नेहकोमल शब्दों में बोले-कम-से-कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाडी से आ रहा हूँ । "वहाँ की बात ओर थी, यहाँ की वात ओर है ।",मुंशीजी ने दौड़कर छाती से लगा लिया और उनके श्रद्धाश्रुओं को रूमाल से पोंछते हुए स्नेहकोमल शब्दों में बोले-कम-से-कम एक तार तो दे देते कि मैं किस गाडी से आ रहा हूँ ।,"वहाँ की बात और थी, यहाँ की बात और है ।" भाई-चन्दों के साथ रस्मरिवाज मानना ही पड़ता है ।,"वहाँ की बात और थी, यहाँ की बात और है ।",भाईबंदों के साथ रस्म-रिवाज मानना ही पड़ता है । यह कहकर मुशीनी चक्रधर के साथ श्रहल्या की गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गये ।,भाईबंदों के साथ रस्म-रिवाज मानना ही पड़ता है ।,यह कहकर मुंशीजी चक्रधर के साथ अहिल्या की गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गये । मुशौजी ने उसके सिर पर दह्वाथ रखकर श्ाशीर्वाद दिया ओर दोनों प्राणियों को वेटिंग-रूम में वैठाकर वोले--किठी को अन्दर मत थाने देना ।,यह कहकर मुंशीजी चक्रधर के साथ अहिल्या की गाड़ी के द्वार पर खड़े हो गये ।,मुंशीजी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग रूम में बैठाकर बोले-किसी को अन्दर मत आने देना । मैंने साहब से कद्द दिया है ।,मुंशीजी ने उसके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया और दोनों प्राणियों को वेटिंग रूम में बैठाकर बोले-किसी को अन्दर मत आने देना ।,मैंने साहब से कह दिया है । अब वेचारी यहाँ परदेशिया की तरह घरों बेठी रहेगी ।,मैंने साहब से कह दिया है ।,अब बेचारी यहाँ परदेशियों की तरह घंटों बैठी रहेगी । रानी कई वार आ चुको हैं |,अब बेचारी यहाँ परदेशियों की तरह घंटों बैठी रहेगी ।,रानी कई बार आ चुकी हैं । दुनिया कया जानेगो कि बहू कब आयी ?,रानी कई बार आ चुकी हैं ।,दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आयी ? प्शीजी को गये अभी आधा घण्टा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखायी दी |,दुनिया क्या जानेगी कि बहू कब आयी ?,मुंशीजी को गये अभी आधा घण्टा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखाई दी । यह उन्‍नत भवन इस समय इस शान्ति कुटी के सामने कुक गया ।,मुंशीजी को गये अभी आधा घण्टा भी न हुआ था कि मनोरमा कमरे के द्वार पर आकर खड़ी दिखाई दी ।,यह उन्नत भवन इस समय शान्ति-कुटी के सामने झुक गया । "मेने श्रपने मन में तुम्हारी जो कल्पना की थी, तुम ठीक वैसी द्वी निकलीं |",यह उन्नत भवन इस समय शान्ति-कुटी के सामने झुक गया ।,"मैंने अपने मन में तुम्हारी जो कल्पना की थी, तुम ठीक वैसी ही निकलीं ।" तुम ऐसी न होतीं. तो वाबूनी त॒मपर रीकते ही क्यो ?,"मैंने अपने मन में तुम्हारी जो कल्पना की थी, तुम ठीक वैसी ही निकलीं ।","तुम ऐसी न होतीं, तो बाबूजी तुम पर रीझते ही क्यों ?" ईश्वर से मेरी यद्दी प्रार्थना दे कि हम और तुम चिरकाल तक स्नेह के बन्धन में बेचे रहें ।,"तुम ऐसी न होतीं, तो बाबूजी तुम पर रीझते ही क्यों ?",ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि हम और तुम चिरकाल तक स्नेह के बन्धन में बँधे रहें । अहल्या--बरावर बात बाव पर आपका जिक्र करने लगते हूँ ।,ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि हम और तुम चिरकाल तक स्नेह के बन्धन में बँधे रहें ।,अहिल्या--बराबर बात-बात पर आपका जिक्र करने लगते हैं । इतने में बाजों को घोंधों-पोंपों सुनायी दी ।,अहिल्या--बराबर बात-बात पर आपका जिक्र करने लगते हैं ।,इतने में बाजों की धोंधों-पोंपों सुनाई दी । चक्र- घर एक सुरग घोड़े पर खवार थे ।,इतने में बाजों की धोंधों-पोंपों सुनाई दी ।,चक्रधर एक सुरंग घोड़े पर सवार थे । "एक कण में सन्‍ताय हो गया, लेकिन मनोस्मा अभी तक अपनी मोटर के पास खड़ी थी, मानो यस्‍्ता भूल गयी हो ।",चक्रधर एक सुरंग घोड़े पर सवार थे ।,"एक क्षण में सन्नाटा हो गया, लेकिन मनोरमा अभी तक अपनी मोटर के पास खड़ी थी, मानो रास्ता भूल गयी हो ।" इस इलाके का सार प्रबन्ध उनके ह्वाथ में था ।,"एक क्षण में सन्नाटा हो गया, लेकिन मनोरमा अभी तक अपनी मोटर के पास खड़ी थी, मानो रास्ता भूल गयी हो ।",इस इलाके का सारा प्रबन्ध उनके हाथ में था । "उनकी देख - माल करते रहना, उनके लिए, जरूरी चीजों का प्रवन्ध करना भी नाजिम का फाम था ।",इस इलाके का सारा प्रबन्ध उनके हाथ में था ।,"उनकी देखभाल करते रहना, उनके लिए जरूरी चीजों का प्रबन्ध करना भी नाजिम का काम था ।" पहिले यह पद न था |,"उनकी देखभाल करते रहना, उनके लिए जरूरी चीजों का प्रबन्ध करना भी नाजिम का काम था ।",पहले यह पद न था । "जन्र कोई जरूरत होती, तुरन्त रनिवास में पहुँच जाते |",पहले यह पद न था ।,"जब कोई जरूरत होती, तुरन्त रनिवास में पहुँच जाते ।" उन्हें श्रव ससार से विराग-सा हो गया था |,"जब कोई जरूरत होती, तुरन्त रनिवास में पहुँच जाते ।",उन्हें अब संसार से विराग-सा हो गया था । सारा समय भगवत्‌-पूजन श्रोर भजन में काटती थीं ।,उन्हें अब संसार से विराग-सा हो गया था ।,सारा समय भगवत्-पूजन और भजन में काटती थीं । "रोहिणी को आभूषणों से घूणा हो गयी थी, मॉग-चोटी की भी परवा न करती ! यहाँ तक कि उसने मॉग में सेन्दूर डालना छोड़ दिया था ।",सारा समय भगवत्-पूजन और भजन में काटती थीं ।,"रोहिणी को आभूषणों से घृणा हो गयी थी, माँग-चोटी की भी परवा न करती! यहाँ तक कि उसने माँग में सिंदूर डालना छोड़ दिया था ।" "रही रानी रामप्रिया, उनका विद्या व्यसन श्रत् बहुत कुछ शियिल हो गया था, गाने की घुन सवार थी, भाँवि-भांति के बाजे मँगाती रहती थी ।","रोहिणी को आभूषणों से घृणा हो गयी थी, माँग-चोटी की भी परवा न करती! यहाँ तक कि उसने माँग में सिंदूर डालना छोड़ दिया था ।","रहीं रानी रामप्रिया, उनका विद्या-व्यसन अब बहुत कुछ शिथिल हो गया था, गाने की धुन सवार थी, भाँति-भाँति के बाजे मँगाती रहती थीं ।" रात को अ्रक्सर भोजन भी चह्ठी कर लिया करते ।,"रहीं रानी रामप्रिया, उनका विद्या-व्यसन अब बहुत कुछ शिथिल हो गया था, गाने की धुन सवार थी, भाँति-भाँति के बाजे मँगाती रहती थीं ।",रात को अक्सर भोजन भी वहीं कर लिया करते । "वह केवल शिटाचार कर रही हो, श्लोर में प्रेम के भ्रम में पड़ा रहूँ |",रात को अक्सर भोजन भी वहीं कर लिया करते ।,वह केवल शिष्टाचार कर रही हो और मैं प्रेम के भ्रम में पड़ा रहूँ । दूसरे रिन प्रातःकाल उन्हें ज्वर चढ आया श्र ऐमे जोर से आया कि दोपइर तक बक भऊ करने लगे ।,वह केवल शिष्टाचार कर रही हो और मैं प्रेम के भ्रम में पड़ा रहूँ ।,दूसरे दिन प्रात:काल उन्हें ज्वर चढ़ आया और ऐसे जोर से आया कि दोपहर तक बक-झक करने लगे । तुरन्त डाक्टर को लाने के लिए आदमी को शहर दौड़ाया ओर श्राप ठाकुर साहब के सिरहाने बैठकर पखा भलने लगी ।,दूसरे दिन प्रात:काल उन्हें ज्वर चढ़ आया और ऐसे जोर से आया कि दोपहर तक बक-झक करने लगे ।,तुरन्त डॉक्टर को लाने के लिए आदमी को शहर दौड़ाया और ठाकुर साहब के सिरहाने बैठकर पँखा झलने लगी । दिन-के दिन ओर रात-की-रात* रोगी के पास बैठी रहती |,तुरन्त डॉक्टर को लाने के लिए आदमी को शहर दौड़ाया और ठाकुर साहब के सिरहाने बैठकर पँखा झलने लगी ।,दिन के दिन और रात की रात रोगी के पास बैठी रहती । देह सूखफर काटा हो गयी थी ।,दिन के दिन और रात की रात रोगी के पास बैठी रहती ।,देह सूखकर काँटा हो गयी थी । "राजा साहत्र भी दिन में दो बार मनोरमा के साथ रोगी को देखने श्राते, पर इस तरह भागते, मानो किसी शत्नु के घर आये हों ।",देह सूखकर काँटा हो गयी थी ।,राजा साहब भी दिन में दो बार मनोरमा के साथ रोगी को देखने आते; पर इस तरह भागते मानो किसी शत्रु के घर आये हों । "वह उनपर दिल का गुवार निकालने के लिए, अवसर हूढती रहती थों, पर राजा साहब भूलकर भी अ्रन्दर न आते थे |",राजा साहब भी दिन में दो बार मनोरमा के साथ रोगी को देखने आते; पर इस तरह भागते मानो किसी शत्रु के घर आये हों ।,वह उन पर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूँढती रहती थी; पर राजा साहब भूलकर भी अन्दर न आते थे । श्राल्िर एक दिन वह मनोरमा ही पर पिल पड़ी ।,वह उन पर दिल का गुबार निकालने के लिए अवसर ढूँढती रहती थी; पर राजा साहब भूलकर भी अन्दर न आते थे ।,आखिर एक दिन वह मनोरमा ही पर पिल पड़ी । शहर में तो रोज एक न एक भूभाट सिर पर सवार रहता है ।,आखिर एक दिन वह मनोरमा ही पर पिल पड़ी ।,शहर में तो रोज एक-न-एक झंझट सिर पर सवार रहता है । वह दस-बारह मिनट तक इसी भाँति स्तम्मित खड़ी रही |,शहर में तो रोज एक-न-एक झंझट सिर पर सवार रहता है ।,वह दस-बारह मिनट तक इसी भाँति स्तम्भित खड़ी रही । "तुमने कुछ कद्दा है, रोदिणी ?",वह दस-बारह मिनट तक इसी भाँति स्तम्भित खड़ी रही ।,"तुमने कुछ कहा है, रोहिणी ?" "राजा+-में ठ॒म्हें छोड़कर नहीं जा सकता, श्रकेले में एक दिन भी जिन्दा नहीं रह सकता ।","तुमने कुछ कहा है, रोहिणी ?",राजा-मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकता; अकेले मैं एक दिन भी जिन्दा नहीं रह सकता । राजा साहव समझ गये कि रोहिणी ने अ्रवश्य कोई व्यग्य-शर चलाया है |,राजा-मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकता; अकेले मैं एक दिन भी जिन्दा नहीं रह सकता ।,राजा साहब समझ गये कि रोहिणी ने अवश्य कोई व्यंग्य शर चलाया है । "उसकी ओर लाल आँखें करके वोले--सुम्दारे कारण यहाँ से जान लेकर भागा, फिर भी ठ॒म पीछे पड़ो हुईं हो ।",राजा साहब समझ गये कि रोहिणी ने अवश्य कोई व्यंग्य शर चलाया है ।,"उसकी ओर लाल आँखें करके बोले-तुम्हारे कारण यहाँ से जान लेकर भागा, फिर भी तुम पीछे पड़ी हुई हो ?" वहाँ भी शान्त नहीं रहने देतीं ।,"उसकी ओर लाल आँखें करके बोले-तुम्हारे कारण यहाँ से जान लेकर भागा, फिर भी तुम पीछे पड़ी हुई हो ?",वहाँ भी शान्त नहीं रहने देती । राजा साहब ने दाँत पीसकर कहा--शर्म श्रोर हया छू नहीं गयी ।,वहाँ भी शान्त नहीं रहने देती ।,राजा साहब ने दाँत पीसकर कहा-शर्म और हया छू नहीं गयी । "जो वात देखूगी-सुनू गी, वह कहें गी भी, किसो को श्रच्छा लगे या बुरा ।",राजा साहब ने दाँत पीसकर कहा-शर्म और हया छू नहीं गयी ।,"जो बात देखूँगी-सुनूँगी, वह कहूँगी भी, किसी को अच्छा लगे या बुरा ।" "मनोरमा को कढ् बचन सुनाने के दण्ड- “. रूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी वात क्यों न कही जाय, वह क्षम्प थी ।","जो बात देखूँगी-सुनूँगी, वह कहूँगी भी, किसी को अच्छा लगे या बुरा ।","मनोरमा को कटु वचन सुनाने के दण्डस्वरूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी बात क्यों न कही जाय, वह क्षम्य थी ।" "राजा साहत्र बहुत देर तक समझाया किये, पर मनोरमा ने एक न मानी ।","मनोरमा को कटु वचन सुनाने के दण्डस्वरूप रोहिणी को कितनी ही कड़ी बात क्यों न कही जाय, वह क्षम्य थी ।","राजा साहब ने बहुत देर तक समझाया, पर मनोरमा ने एक न मानी ।" "उसे शका हुई कि ये भाव केवल रोदियो के नहीं हैं, यहाँ उभो लोगों के मन में यद्दो भाव होगे ।","राजा साहब ने बहुत देर तक समझाया, पर मनोरमा ने एक न मानी ।","उसे शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं हैं, यहाँ सभी लोगों के मन में यही भाव होंगे ।" इस सन्देह ओर लाछन का निवारण यहाँ सबके सम्मुख रहने से ही हो सकता था ओर यहो उसके सकत्य का कारण था |,"उसे शंका हुई कि ये भाव केवल रोहिणी के नहीं हैं, यहाँ सभी लोगों के मन में यही भाव होंगे ।",इस संदेह और लांछन का निवारण यहाँ सबके सम्मुख रहने से ही हो सकता था और यही उसके संकल्प का कारण था । श्रन्त में राणा साहब ने हताश होकर कहा--तो फिर मैं मो काशी छाड़ देता हूँ ।,इस संदेह और लांछन का निवारण यहाँ सबके सम्मुख रहने से ही हो सकता था और यही उसके संकल्प का कारण था ।,अन्त में राजा साहब ने हताश होकर कहा-तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूँ । तुम जानती हो कि मुझसे श्रकेले वहाँ एक दिन भो न रहा लायगा |,अन्त में राजा साहब ने हताश होकर कहा-तो फिर मैं भी काशी छोड़ देता हूँ ।,तुम जानती हो कि मुझसे अकेले वहाँ एक दिन भी न रहा जायगा । एकाएक मुशी बज्र्धर लाठी टेकते आते दिखायो दिये ।,तुम जानती हो कि मुझसे अकेले वहाँ एक दिन भी न रहा जायगा ।,एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी टेकते आते दिखाई दिए । "राजा साहब ने कुछ चिदकर कद्य--क्या है, यहीं चले आइए ।",एकाएक मुंशी वज्रधर लाठी टेकते आते दिखाई दिए ।,"राजा साहब ने कुछ चिढ़कर कहा-क्या है, यहीं चले आइए ।" "मुशीजी कमरे में आकर बड़े दीन भाव से बोले--क््या करूँ; हुजुर, घर तवाद् हुआ्रा जा रहा है ।","राजा साहब ने कुछ चिढ़कर कहा-क्या है, यहीं चले आइए ।","मुंशीजी कमरे में आकर बड़े दीन-भाव से बोले-क्या करूँ, हुजूर, घर तबाह हुआ जा रहा है ।" "मनोरमा ने सशक दकर पूछा--क्या बाद है, मुंशीजी ?","मुंशीजी कमरे में आकर बड़े दीन-भाव से बोले-क्या करूँ, हुजूर, घर तबाह हुआ जा रहा है ।","मनोरमा ने सशंक होकर पूछा-क्या बात है, मुंशीजी ?" मुशोी--चह अपनी बात किसी से कइता है कि आपसे कदेगा ।,"मनोरमा ने सशंक होकर पूछा-क्या बात है, मुंशीजी ?",मुंशी-वह अपनी बात किसी से कहता है कि आपसे कहेगा ? "एक महीना से ज्यादा हो गये, पर ऐसा कभी नहीं हुश्रा कि अपनी सास की देह दबाये बगैर सोयी हो |",मुंशी-वह अपनी बात किसी से कहता है कि आपसे कहेगा ?,एक महीना से ज्यादा हो गया; पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि अपनी सास की देह दबाए बगैर सोई हो । बहू घी लिये हुए चौके में चली गयी ।,एक महीना से ज्यादा हो गया; पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि अपनी सास की देह दबाए बगैर सोई हो ।,बहू घी लिए हुए चौके में चली गयी । दिल से यह भाव बिलकुल निकाल डालिए कि वह नीची है श्रोर आप ऊँचे हैँ ।,बहू घी लिए हुए चौके में चली गयी ।,दिल से यह भाव बिल्कुल निकाल डालिए कि वह नीची है और आप ऊँचे हैं । "इस भात्र का लेश भी दिल में न रहने दीजिए, |",दिल से यह भाव बिल्कुल निकाल डालिए कि वह नीची है और आप ऊँचे हैं ।,इस भाव का लेश भी दिल में न रहने दीजिए । अपने भाग्य को सराहिए कि ऐसी वहू पायी |,इस भाव का लेश भी दिल में न रहने दीजिए ।,अपने भाग्य को सराहिए कि ऐसी बहू पाई । अश्र उन्हें अपनी विउत्ति-क्ा कहने का अवसर मिल ।,अपने भाग्य को सराहिए कि ऐसी बहू पाई ।,अब उन्हें अपनी विपत्ति-कथा कहने का अवसर मिला । "में तो गुर्सेवक के पास बैठा हुआ था, यहाँ नोरा ओर रोहियी में किसी बात पर भड़प हो गयो ।",अब उन्हें अपनी विपत्ति-कथा कहने का अवसर मिला ।,"मैं तो गुरुसेवक के पास बैठा हुआ था, यहाँ नोरा और रोहिणी से किसी बात पर झड़प हो गयी ।" न-जाने इन्हें क्या कहा कि अब यह कह रही हैं कि र्भ काँगी जाऊँगी ही नहीं |,"मैं तो गुरुसेवक के पास बैठा हुआ था, यहाँ नोरा और रोहिणी से किसी बात पर झड़प हो गयी ।",न जाने इन्हें क्या कहा कि अब यह कह रही हैं कि मैं काशी जाऊँगी ही नहीं । मनोरमा यद कहती हुई वहाँ से चली गयो ।,न जाने इन्हें क्या कहा कि अब यह कह रही हैं कि मैं काशी जाऊँगी ही नहीं ।,मनोरमा यह कहती हुई वहाँ से चली गयी । "कुछ देर तक तो वइ छिर कुकये बैठे रहे, तब गम्भोर भव से बोले--समुंशी जी, ऋपने नोरा की बातें सुनी ?",मनोरमा यह कहती हुई वहाँ से चली गयी ।,"कुछ देर तक तो वह सिर झुकाए बैठे रहे, तब गम्भीर भाव से बोले-मुंशीजी, आपने नोरा की बातें सुनीं ?" कितनी मीठी चुठकियाँ लेती ६ ।,"कुछ देर तक तो वह सिर झुकाए बैठे रहे, तब गम्भीर भाव से बोले-मुंशीजी, आपने नोरा की बातें सुनीं ?",कितनी मीठी चुटकियाँ लेती है । सचमुच बदुत से विबाइ करना अयनी जान आफत से डालना है ।,कितनी मीठी चुटकियाँ लेती है ।,सचमुच बहुत से विवाह करना अपनी जान आफत में डालना है । "मुन्छी--हुजूर, वह खुद यहाँ बहुत दिनों तक न रहेंगी ।",सचमुच बहुत से विवाह करना अपनी जान आफत में डालना है ।,"मंशी-हुजूर, वह खुद यहाँ बहुत दिनों तक न रहेंगी ।" "आधीरात से ज्यादा बोत चुकी थी, पर मनोरमा की आँखों में नींद न श्रायो थी |","मंशी-हुजूर, वह खुद यहाँ बहुत दिनों तक न रहेंगी ।","आधी रात से ज्यादा बीत चुकी थी, पर मनोरमा की आँखों में नींद न आयी थी ।" उसने सोचा+-कक्‍या अदल्या के साथ विवाह होने से वह उसके हो जायँगे ?,"आधी रात से ज्यादा बीत चुकी थी, पर मनोरमा की आँखों में नींद न आयी थी ।",उसने सोचाक्या अहिल्या के साथ विवाह होने से वह उसके हो जायेंगे ? में उनका हाय पकड़ लू गी ।,उसने सोचाक्या अहिल्या के साथ विवाह होने से वह उसके हो जायेंगे ?,मैं उनका हाथ पकड़ लूँगी । "पत्नी साथ, खाली हाय, नयी जगह, न किसोसे राह, न रस्म; सकोचो प्रकृति, उदास्द्वदय, उन्हें प्रयाग में क्रितना कष्ट होगा ! मैंने बड़ी भूल को ।",मैं उनका हाथ पकड़ लूँगी ।,"पत्नी साथ, खाली हाथ, नई जगह, न किसी से राह, न रस्म; संकोची प्रकृति, उदार हृदय, उन्हें प्रयाग में कितना कष्ट होगा ! मैंने बड़ी भूल की ।" बा वूजी मेरा इन्तजार कर रहे होंगे ।,"पत्नी साथ, खाली हाथ, नई जगह, न किसी से राह, न रस्म; संकोची प्रकृति, उदार हृदय, उन्हें प्रयाग में कितना कष्ट होगा ! मैंने बड़ी भूल की ।",बाबूजी मेरा इन्तजार कर रहे होंगे । चैत को चाँदनो खिली हुई थी |,बाबूजी मेरा इन्तजार कर रहे होंगे ।,चैत की चाँदनी खिली हुई थी । सबेरे तक तो में लोट ही आऊँगी |,चैत की चाँदनी खिली हुई थी ।,सबेरे तक तो मैं लौट ही आऊँगी । वह फिर आकर लेट रदी ओर सो जाने की चेण करने लगी ।,सबेरे तक तो मैं लौट ही आऊँगी ।,वह फिर आकर लेट रही और सो जाने की चेष्टा करने लगी । फिर श्रपने हँडवेग में कुछ चीजें रखकर वह रवाना हो गयी ।,वह फिर आकर लेट रही और सो जाने की चेष्टा करने लगी ।,फिर अपने हैंडबेग में कुछ चीजें रखकर वह रवाना हो गयी । "भीतर अदल्या अपनी सास ओर ननद्‌ के गले मिलकर थे रही थी, कि इतने मे मनोरमा की मोटर आती हुई दिखायी टी ।",फिर अपने हैंडबेग में कुछ चीजें रखकर वह रवाना हो गयी ।,"भीतर अहिल्या अपनी सास और ननद के गले मिलकर रो रही थी, कि इतने में मनोरमा की मोटर आती हुई दिखाई दी ।" "उन्हें मालूम हुआ कि पिताजी ने मनोरमा को मेरे जाने की खबर दे टी ६, और बद जरूर आयेगी; पर वह उसकेआने के पहले ही खाना हो जाना चाएते ये ।","भीतर अहिल्या अपनी सास और ननद के गले मिलकर रो रही थी, कि इतने में मनोरमा की मोटर आती हुई दिखाई दी ।",उन्हें मालूम हुआ था कि पिताजी ने मनोरमा को मेरे जाने की खबर दे दी है; और वह जरूर आयेगी; पर वह उसके आने के पहले ही रवाना हो जाना चाहते थे । "आप तो, ऐसे भागे जा रदे हैं, मानों घर से रुठे जाते हो ।",उन्हें मालूम हुआ था कि पिताजी ने मनोरमा को मेरे जाने की खबर दे दी है; और वह जरूर आयेगी; पर वह उसके आने के पहले ही रवाना हो जाना चाहते थे ।,"आप तो ऐसे भागे जो रहे हैं, मानो घर से रूठे जाते हों ।" वक्रधर ने पुस्तकों का गद्दर सभालते हुए कह्ा--वात कुछ नहीं है ।,"आप तो ऐसे भागे जो रहे हैं, मानो घर से रूठे जाते हों ।",चक्रधर ने पुस्तकों का गट्ठर सँभालते हुए कहा-बात कुछ नहीं है । "चक्रघर--आपको सारी स्थिति मालूम होती, तो आप कभी मुझे रोकने की चेट्टा न करतीं |",चक्रधर ने पुस्तकों का गट्ठर सँभालते हुए कहा-बात कुछ नहीं है ।,"चक्रधर-आपको सारी स्थिति मालूम होती, तो आप मुझे रोकने की चेष्टा न करतीं ।" चक्रधर--केवल सिद्धान्त के विषय में |,"चक्रधर-आपको सारी स्थिति मालूम होती, तो आप मुझे रोकने की चेष्टा न करतीं ।",चक्रधर-केवल सिद्धान्त के विषय में । "सुनिए, मुझे आपके घर की दशा थोड़ी बहुत मालूम है ।",चक्रधर-केवल सिद्धान्त के विषय में ।,"सुनिए, मुझे आपके घर की दशा थोड़ी मालूम है ।" मनोरमा--कुछु भी हो |,"सुनिए, मुझे आपके घर की दशा थोड़ी मालूम है ।",मनोरमा-कुछ भी हो । शायद वहाँ भी मुके कोर कम करने को जरूरत न पड़ेगी |,मनोरमा-कुछ भी हो ।,शायद वहाँ भी मुझे कोई काम करने की जरूरत न पड़ेगी । इस वेग का वजन ही चतला रहा है |,शायद वहाँ भी मुझे कोई काम करने की जरूरत न पड़ेगी ।,इस बैग का वजन ही बतला रहा है । "चक्रवर ओर श्रइल्या उस पर जा बैठे, तो मनोस्मा भी अपनी मोटर पर बैठकर चली गयी ।",इस बैग का वजन ही बतला रहा है ।,"चक्रधर और अहिल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अपनी मोटर पर बैठकर चली गयी ।" चक्रधर प्रदाग में अभी प्रच्छी तरद जमने भी न पाये ये कि चारो ओर से उनके लिए खींच तान होने लगी ।,"चक्रधर और अहिल्या उस पर जा बैठे, तो मनोरमा भी अपनी मोटर पर बैठकर चली गयी ।",चक्रधर प्रयाग में अभी अच्छी तरह जमने भी न पाए थे कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी । थोड़े ही दिन मे वह नेताओं की श्रेणी मे आ गये |,चक्रधर प्रयाग में अभी अच्छी तरह जमने भी न पाए थे कि चारों ओर से उनके लिए खींचतान होने लगी ।,थोड़े ही दिन में वह नेताओं की श्रेणी में आ गये । चक्रघर के लिए इस काम के सिवा ओर कोई फिकर न थी ।,थोड़े ही दिन में वह नेताओं की श्रेणी में आ गये ।,चक्रधर के लिए इस समय काम के सिवा और कोई फिक्र न थी । बर कार न पूलछुता कि आपको कोई तकलीफ तो नहीं है ?,चक्रधर के लिए इस समय काम के सिवा और कोई फिक्र न थी ।,यह कोई न पूछता कि आपको कोई तकलीफ तो नहीं है ? काम लेनेदाले बहतेरे थे |,यह कोई न पूछता कि आपको कोई तकलीफ तो नहीं है ?,काम लेने वाले बहुतेरे थे । "अधिक मिलने पर तगो भी अ्रधिक द्वा जाती थी, क्योंकि जरूरतें वढा ली जाती थीं ।",काम लेने वाले बहुतेरे थे ।,अधिक मिलने पर तंगी भी अधिक हो जाती थी क्योंकि जरूरतें बढ़ा ली जाती थीं । "वह अन्न बहुघा चिन्तित दिखायी देती, यों वह कमी शिकायत न करती थी; पर यह देखना कठिन न था कि वह अपनी दशा में सन्तुट्ट नहीं है ।",अधिक मिलने पर तंगी भी अधिक हो जाती थी क्योंकि जरूरतें बढ़ा ली जाती थीं ।,"वह अब बहुधा चिंतित दिखाई देती; यों वह कभी शिकायत न करती थी, पर यह देखना कठिन न था कि वह अपनी दशा से सन्तुष्ट नहीं है ।" "जब और लोग पहले अपने घर में चियग जलाकर मस- बिद में जलाते हैं, तो पद्दी क्‍यों अपने घर को अन्वेरा छोडकर मसजिद में चिराग जलाने जाये ?","वह अब बहुधा चिंतित दिखाई देती; यों वह कभी शिकायत न करती थी, पर यह देखना कठिन न था कि वह अपनी दशा से सन्तुष्ट नहीं है ।","जब और लोग पहले अपने घर में चिराग जलाकर मस्जिद में जलाते हैं, तो वही क्यों अपने घर को अन्धेरा छोड़कर मस्जिद में चिराग जलाने जायेंगे ?" "श्रगर इस उत्सग के बदले चक्रधर को यश का बड़ा भाग मिलता, तो शायद अहल्या को सन्तोष हो जाता, आँसू पुँछ जाते, लेकिन जब्र वह ओरों को त्रिमा कष्ट उठाये चक्र घर के बराबर या उनसे अ्रघिक यश पाते देखती थी, तो उसे थैय॑ न रहता था ।","जब और लोग पहले अपने घर में चिराग जलाकर मस्जिद में जलाते हैं, तो वही क्यों अपने घर को अन्धेरा छोड़कर मस्जिद में चिराग जलाने जायेंगे ?","अगर इस उत्सर्ग के बदले चक्रधर को यश का बड़ा भाग मिलता, तो शायद अहिल्या को सन्तोष हो जाता, आँसू पुँछ जाते, लेकिन जब वह औरों को बिना कष्ट उठाए चक्रधर के बराबर या उनसे अधिक यश पाते देखती थी, तो उसे धैर्य न रहता था ।" घन से उसे घृणा ही हो गयी यी ।,"अगर इस उत्सर्ग के बदले चक्रधर को यश का बड़ा भाग मिलता, तो शायद अहिल्या को सन्तोष हो जाता, आँसू पुँछ जाते, लेकिन जब वह औरों को बिना कष्ट उठाए चक्रधर के बराबर या उनसे अधिक यश पाते देखती थी, तो उसे धैर्य न रहता था ।",धन से उसे घृणा ही हो गयी थी । "सब कुछ छोड़कर वह अपनो कुटी में जा बैठो थी, मानो कोई सन्‍्यासिनी हो, इसलिए श्रव मुशोजरी को केवल वेतन मिलता था और उसमें उनका ज₹ होता था ।",धन से उसे घृणा ही हो गयी थी ।,"सब कुछ छोड़कर वह अपनी कुटी में जा बैठी थी, मानो कोई संन्यासिनी हो, इसलिए अब मुंशीजी को केवल वेतन मिलता था और उसमें उनका गुजर न होता था ।" चक्रधर को बार-बार तग करते ओर उन्हें विवश होकर पिता की थदा करनी पड़ती |,"सब कुछ छोड़कर वह अपनी कुटी में जा बैठी थी, मानो कोई संन्यासिनी हो, इसलिए अब मुंशीजी को केवल वेतन मिलता था और उसमें उनका गुजर न होता था ।","चक्रधर को बार-बार तंग करते, और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती ।" खासी सरदी पड़ रही थी; मगर अभी तक चक्रघर जाढ़े के कपड़े न घनवा पाये ये |,"चक्रधर को बार-बार तंग करते, और उन्हें विवश होकर पिता की सहायता करनी पड़ती ।","खासी सर्दी पड़ रही थी, मगर अभी तक चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाए थे ।" अहल्या ने कह्दा-समुझे अभी कपड़ों की जरूरत नहीं दे ।,"खासी सर्दी पड़ रही थी, मगर अभी तक चक्रधर जाड़े के कपड़े न बनवा पाए थे ।","अहिल्या ने कहा, मुझे अभी कपड़ों की जरूरत नहीं है ।" जूता बिलकुल फट गया दे ।,"अहिल्या ने कहा, मुझे अभी कपड़ों की जरूरत नहीं है ।",जूता बिल्कुल फट गया है । "सबेरे सवेरे उठकर तुम्हें काम-काज करना पढ़ता है; कहीं सरदी खा जाओ, तो मुश्किल पढ़े |",जूता बिल्कुल फट गया है ।,"सवेरे उठकर तुम्हें कामकाज करना पड़ता है, कहीं सर्दी खा जाओ, तो मुश्किल पड़े ।" "हाँ, तुम एक सलूका वनवा लो |","सवेरे उठकर तुम्हें कामकाज करना पड़ता है, कहीं सर्दी खा जाओ, तो मुश्किल पड़े ।","हाँ, तुम एक सलूका बनवा लो ।" चक्रधर--नसुम्दारी यद्दी लिद तो मुझे अच्छी नहीं लगती ।,"हाँ, तुम एक सलूका बनवा लो ।",चक्रधर-तुम्हारी यही जिद तो मुझे अच्छी नहीं लगती । में दुबला हैं तो क्या; गरमी-सरदी खूब सह सकता हूँ ।,चक्रधर-तुम्हारी यही जिद तो मुझे अच्छी नहीं लगती ।,"मैं दुबला हूँ तो क्या, गर्मी-सर्दी खूब सह सकता हूँ ।" रानी साहब के यहाँ से अब बजीफा नहीं प्रिलता है ।,"मैं दुबला हूँ तो क्या, गर्मी-सर्दी खूब सह सकता हूँ ।",रानी साहब के यहाँ से अब वजीफा नहीं मिलता है । अहल्या--डर क्‍या है ?,रानी साहब के यहाँ से अब वजीफा नहीं मिलता है ।,अहिल्या-डर क्या है ? "अहल्या--त॒म्हीं सोचो, जो वैरागी वनकर बैठे हो ।",अहिल्या-डर क्या है ?,"अहिल्या-तुम्हीं सोचो, जो बैरागी बनकर बैठे हो ।" "तुम्हें वैरागी चनना था, तो नाहक शहस्थी के जणाल में फँसे ।","अहिल्या-तुम्हीं सोचो, जो बैरागी बनकर बैठे हो ।","तुम्हें बैरागी बनना था, तो नाहक गृहस्थी के जंजाल में फँसे ।" "आप वहाँ भी मेरे प्राण खायेंगे और वेचारी अम्माँजी को रलायेंगे ! मैं क्ूठों भो लिख दूँ कि श्रम्माँनो, मैं तकलीफ में हूँ, तो तुरत किसी को भेजकर मुमे बुला लें ।","तुम्हें बैरागी बनना था, तो नाहक गृहस्थी के जंजाल में फँसे ।","आप वहाँ भी मेरे प्राण खायेंगे और बेचारी अम्माँजी को रुलायेंगे ! मैं झूठों भी लिख दूँ कि अम्माँजी, मैं तकलीफ में हूँ, तो तुरंत किसी को भेजकर मुझे बुला लें ।" "अ्रम्माँ फी बीमारी तो बहाना है, सरासर बहाना |","आप वहाँ भी मेरे प्राण खायेंगे और बेचारी अम्माँजी को रुलायेंगे ! मैं झूठों भी लिख दूँ कि अम्माँजी, मैं तकलीफ में हूँ, तो तुरंत किसी को भेजकर मुझे बुला लें ।","अम्माँ की बीमारी तो बहाना है, सरासर बहाना ।" श्रदा करना बिलकुल मेरी इच्छा पर द्ोगा ।,"अम्माँ की बीमारी तो बहाना है, सरासर बहाना ।",अदा करना बिल्कुल मेरी इच्छा पर होगा । सब्र रुपए ज्यों केत्यों रखे हुए हैं ।,अदा करना बिल्कुल मेरी इच्छा पर होगा ।,सब रुपए ज्यों-के-त्यों रखे हुए हैं । अदहल्या--आओर तो कभी नहीं निकाला ?,सब रुपए ज्यों-के-त्यों रखे हुए हैं ।,अहिल्या-और तो कभी नहीं निकाला ? "अ्रमीरों का एहसान कभी न लेना चाहिए, कभी-कभी उसके बदले में भ्रपनी श्रात्मा तक वेचनी पड़ती है ।",अहिल्या-और तो कभी नहीं निकाला ?,"अमीरों का एहसान कभी न लेना चाहिए, कभी-कभी उसके बदले में अपनी आत्मा तक बेचनी पड़ती है ।" चक्रधर--श्रानकल उनको अपने घर के भागड़ों ही से फुरसत न मिलती होगी ।,"अमीरों का एहसान कभी न लेना चाहिए, कभी-कभी उसके बदले में अपनी आत्मा तक बेचनी पड़ती है ।",चक्रधर-आजकल उनको अपने घर के झगड़ों ही से फुरसत न मिलती होगी । अहल्या--हृदय बढ़ा उदार है ।,चक्रधर-आजकल उनको अपने घर के झगड़ों ही से फुरसत न मिलती होगी ।,अहिल्या-हृदय बड़ा उदार है । "चक्रधर--उदार ! यह क्यों नहीं कहती कि अगर उनकी मदद न हो, तो प्रान्त की कितनी ही सेवा सस्याओ्रों का अन्त हो जाय |",अहिल्या-हृदय बड़ा उदार है ।,"चक्रधर-उदार ! यह क्यों नहीं कहतीं कि अगर उनकी मदद न हो, तो प्रान्त की कितनी ही सेवा-संस्थाओं का अन्त हो जाय ।" "प्रान्त मे यदि ऐसे लगभग दस प्राणी हो जाय, तो बढ़ा काम हो जाय ।","चक्रधर-उदार ! यह क्यों नहीं कहतीं कि अगर उनकी मदद न हो, तो प्रान्त की कितनी ही सेवा-संस्थाओं का अन्त हो जाय ।",प्रांत में यदि ऐसे लगभग दस प्राणी हो जायं तो बड़ा काम हो जाय । "यदद लेख पढ़ते ही श्रदल्या की बह्दी दशा हुई, जो किसी अ्रसील घोड़े को चायुक पड़ने पर होती है ।",प्रांत में यदि ऐसे लगभग दस प्राणी हो जायं तो बड़ा काम हो जाय ।,"यह लेख पढ़ते ही अहिल्या की वही दशा हुई, जो किसी असील घोड़े को चाबुक पड़ने पर होती है ।" "वह कलम लेफर बैठ गयी और उसी विपय की श्रालोचना करने लगी, जिस पर उसकी सदेली का लेख था ।","यह लेख पढ़ते ही अहिल्या की वही दशा हुई, जो किसी असील घोड़े को चाबुक पड़ने पर होती है ।","वह कलम लेकर बैठ गयी और उसी विषय की आलोचना करने लगी, जिसपर उसकी सहेली का लेख था ।" उसने दोनों लेखो को दो-तीन बार मिलाया _ और श्रन्त को तीसरे दिन भेज ही दिया |,"वह कलम लेकर बैठ गयी और उसी विषय की आलोचना करने लगी, जिसपर उसकी सहेली का लेख था ।",उसने दोनों लेखों को दो-तीन बार मिलाया और अन्त को तीसरे दिन भेज ही दिया । उसे इस बात का सन्तोध-मय गये हुआ कि शहस्थी में मैं भी मदद कर सकती हूँ ।,उसने दोनों लेखों को दो-तीन बार मिलाया और अन्त को तीसरे दिन भेज ही दिया ।,उसे इस बात का सन्तोषमय गर्व हुआ कि गृहस्थी में मैं भी मदद कर सकती हूँ । एक दिन बादल हो आये ओर ठर्ढी हवा चलने लगी ।,उसे इस बात का सन्तोषमय गर्व हुआ कि गृहस्थी में मैं भी मदद कर सकती हूँ ।,एक दिन बादल हो आये और ठंडी हवा चलने लगी । घर के समीप पहुँचकर थक गये |,एक दिन बादल हो आये और ठंडी हवा चलने लगी ।,घर के समीप पहुँचकर थक गये । "सोचने लगे--अ्रमी से यह हाल है मगवान्‌, तो रात कैसे कटेगी ?",घर के समीप पहुँचकर थक गये ।,"सोचने लगे-अभी से यह हाल है भगवान्, तो रात कैसे कटेगी ?" "यह सोचते हुए वह घर आये, तो देखा कि अहल्या श्रेंगीठी में कोयले मरे ताप रही है ।","सोचने लगे-अभी से यह हाल है भगवान्, तो रात कैसे कटेगी ?","यह सोचते हुए वह घर आये, तो देखा कि अहिल्या अंगीठी में कोयले भरे ताप रही है ।" आज वह बहुत मसन्न दिखायी देती थी ।,"यह सोचते हुए वह घर आये, तो देखा कि अहिल्या अंगीठी में कोयले भरे ताप रही है ।",आज वह बहुत प्रसन्न दिखाई देती थी । "आज अहल्या ने पूरियाँ पकायी थीं, श्रोर सालन भी कई प्रकार का था ।",आज वह बहुत प्रसन्न दिखाई देती थी ।,"आज अहिल्या ने पूरियाँ पकाई थीं, और सालन भी कई प्रकार का था ।" विस्मित होकर पूछा--यह कम्बल कहां था ?,"आज अहिल्या ने पूरियाँ पकाई थीं, और सालन भी कई प्रकार का था ।",विस्मित होकर पूछा-यह कम्बल कहाँ था ? "अ्रच्छा, ठुम्दीं बताओ कहाँ था ?",विस्मित होकर पूछा-यह कम्बल कहाँ था ?,"अच्छा, तुम्हीं बताओ कहाँ था ?" आज कम्बल मँगवा लिया ।,"अच्छा, तुम्हीं बताओ कहाँ था ?",आज कम्बल मँगवा लिया । "श्रहल्या ने समझा था, चक्रघर यह सुनते द्वी खुशी से उछल पड़ेंगे श्रोर प्रेम से मुझे गले लगा लेंगे; लेकिन यह आशा पूरी न हुईं ।",आज कम्बल मँगवा लिया ।,"अहिल्या ने समझा था, चक्रधर यह सुनते ही खुशी से उछल पड़ेंगे और प्रेम से मुझे गले लगा लेंगे, लेकिन यह आशा पूरी न हुई ।" "अदल्या ने दोनों ञ्क' लाकर उनको दे दिये ओर लगाते हुए बोली--कुछ रे नहीं, ऊट-पटोंग जो जी में आया, लिख डाला |","अहिल्या ने समझा था, चक्रधर यह सुनते ही खुशी से उछल पड़ेंगे और प्रेम से मुझे गले लगा लेंगे, लेकिन यह आशा पूरी न हुई ।","अहिल्या ने दोनों अंक लाकर उनको दे दिए और लजाते हुए बोली-कुछ है नहीं, ऊटपटांग जो जी में आया, लिख डाला ।" दपए. कमाना उनका काम था ।,"अहिल्या ने दोनों अंक लाकर उनको दे दिए और लजाते हुए बोली-कुछ है नहीं, ऊटपटांग जो जी में आया, लिख डाला ।",रुपए कमाना उनका काम था । अपनी एक सह्देली का लेख पढ़कर मुझे भी दो-चार बातें दछ गयीं ।,रुपए कमाना उनका काम था ।,अपनी एक सहेली का लेख पढ़कर मुझे भी दो-चार बातें सूझ गयीं । अहल्पा ने कातर भाव से कहा -मने तो तुमसे किसी वात की शिवायत नहीं को ।,अपनी एक सहेली का लेख पढ़कर मुझे भी दो-चार बातें सूझ गयीं ।,अहिल्या ने कातर भाव से कहा-मैंने तो तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की । "तुम-जैसा रक्ष पाकर अगर मे घन के लिए गेऊ , तो मुझसे बदृकर अमभागिनी कोई संसार में न होगी ।",अहिल्या ने कातर भाव से कहा-मैंने तो तुमसे किसी बात की शिकायत नहीं की ।,"तुम जैसा रत्न पाकर अगर मैं धन के लिए रोऊ, तो मुझसे बढ़कर अभागिनी कोई संसार में न होगी ।" सरदी के मारे चक्रघर को नींद न आ्राती थी; पर कम्ब्रल को छुआ तक नहीं ।,"तुम जैसा रत्न पाकर अगर मैं धन के लिए रोऊ, तो मुझसे बढ़कर अभागिनी कोई संसार में न होगी ।","सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी, पर कम्बल को छुआ तक नहीं ।" उनकी अन्‍्तरात्मा सहर्तों जिहाओं से उनका तिरस्फार करने लगी |,"सर्दी के मारे चक्रधर को नींद न आती थी, पर कम्बल को छुआ तक नहीं ।",उनकी अंतरात्मा सहस्रों जिहाओं से उनका तिरस्कार करने लगी । त्याग और भोग में दिशाश्रं का अन्तर है ।,उनकी अंतरात्मा सहस्रों जिहाओं से उनका तिरस्कार करने लगी ।,त्याग और भोग में दिशाओं का अंतर है । "अपना त्रत और सयम, अपना समस्त जीवन शुष्क ओर निरथंक जान पढ़ता था |",त्याग और भोग में दिशाओं का अंतर है ।,"अपना व्रत और संयम, अपना समस्त जीवन शुष्क और निरर्थक जान पड़ता था ।" सहसा अइल्या ने आँखें खोल दीं ओर बोली--तुम खड़े कया कर रहे हो ?,"अपना व्रत और संयम, अपना समस्त जीवन शुष्क और निरर्थक जान पड़ता था ।",सहसा अहिल्या ने आँखें खोल दी और बोली-तुम खड़े क्या कर रहे हो ? "चक्रधर ने ग्लानित होकर कद्दा--वह पिशाच मैं ही हूँ, अ्रहल्या ! मेरे ही हाथों तुम्हें यह कष्ट मिल रहा है |",सहसा अहिल्या ने आँखें खोल दी और बोली-तुम खड़े क्या कर रहे हो ?,"चक्रधर ने ग्लानित होकर कहा-वह पिशाच मैं ही हूँ, अहिल्या ! मेरे हाथों तुम्हें यह कष्ट मिल रहा है ।" "अहल्या ने कियाड़ खोलकर देखा, वो भभात-कुसुम खिल रहा था ।","चक्रधर ने ग्लानित होकर कहा-वह पिशाच मैं ही हूँ, अहिल्या ! मेरे हाथों तुम्हें यह कष्ट मिल रहा है ।","अहिल्या ने किवाड़ खोलकर देखा, तो प्रभात-कुसुम खिल रहा था ।" इस विषय को छोड़कर वह पूरे घण्टे-मर तक ब्रह्मचय की महिमा गाते रहे |,"अहिल्या ने किवाड़ खोलकर देखा, तो प्रभात-कुसुम खिल रहा था ।",इस विषय को छोड़कर वह पूरे घंटे भर तक ब्रह्मचर्य की महिमा गाते रहे । भाव के साथ उनके जीयन-पिद्धान्त भी बदल गये ।,इस विषय को छोड़कर वह पूरे घंटे भर तक ब्रह्मचर्य की महिमा गाते रहे ।,भाव के साथ उनके जीवन-सिद्धान्त भी बदल गये । अब वह खुली हुई छुत पर बिजली के पख्ते के सामने शाम ही से बेंठ- कर काम करने लगते थे |,भाव के साथ उनके जीवन-सिद्धान्त भी बदल गये ।,अब वह खुली हुई छत पर बिजली के पंखे के सामने शाम ही से बैठकर काम करने लगते थे । अच धन भी मिलता था और कीति भी |,अब वह खुली हुई छत पर बिजली के पंखे के सामने शाम ही से बैठकर काम करने लगते थे ।,अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी । पत्रों के सम्पादक उनमे आग्रह करके लेख लिख- बाते थे |,अब धन भी मिलता था और कीर्ति भी ।,पत्रों के सम्पादक उनसे आग्रह करके लेख लिखवाते थे । "भाषा भी अलऊन होती थी, भाव भी सुन्दर, बिपय भी उपयुक्त ) दर्शन से उन्हें विशेष रुचि थी ।",पत्रों के सम्पादक उनसे आग्रह करके लेख लिखवाते थे ।,"भाषा भी अलंकृत होती थी, भाव भी सुन्दर, विषय भी उपयुक्त ! दर्शन से उन्हें विशेष रुचि थी ।" लिखा था-- मनोरमा बहुत बीमार ६ ।,"भाषा भी अलंकृत होती थी, भाव भी सुन्दर, विषय भी उपयुक्त ! दर्शन से उन्हें विशेष रुचि थी ।",लिखा था-'मनोरमा बहुत बीमार है । "श्रदल्या समाल न लेती, तो शायद वह खुद भी गिर पड़ते |",लिखा था-'मनोरमा बहुत बीमार है ।,"अहिल्या सँभाल न लेती, तो शायद वह खुद भी गिर पड़ते ।" अहल्या--कहो तो मैं भी चले ?,"अहिल्या सँभाल न लेती, तो शायद वह खुद भी गिर पड़ते ।",अहिल्या-कहो तो मैं भी चलूँ ? चक्रघधर--थोगेन्द्र बाबू को साथ लेते चलें ।,अहिल्या-कहो तो मैं भी चलूँ ?,चक्रधर-योगेंद्र बाबू को साथ लेते चलें । अन्न दान दिया जा रहा था और केंगले एक-पर एक हूंटे पढ़ते थे |,चक्रधर-योगेंद्र बाबू को साथ लेते चलें ।,अन्न-दान दिया जा रहा था और कंगले एक पर एक टूटे पड़ते थे । "सिपाही घक्क्रे-पर-घक्के देते थे, पर कगलों का रेला कम न होता था ।",अन्न-दान दिया जा रहा था और कंगले एक पर एक टूटे पड़ते थे ।,"सिपाही धक्के पर धक्के देते थे, पर कंगलों का रेला कम न होता था ।" यदह्ट सोचकर उसने भो रोना शुरू किया ।,"सिपाही धक्के पर धक्के देते थे, पर कंगलों का रेला कम न होता था ।",यह सोचकर उसने भी रोना शुरू किया । शमी दोनों आदमियो में कोई बात न होने पायी थी कि राजा साहब दोढ़ते हुए भीतर से आते दिखायी दिये ।,यह सोचकर उसने भी रोना शुरू किया ।,अभी दोनों आदमियों में कोई बात न होने पाई थी कि राजा साहब दौड़ते हुए भीतर से आते दिखाई दिए । सूरत से नैराश्य और चिन्ता कक रहो थी ।,अभी दोनों आदमियों में कोई बात न होने पाई थी कि राजा साहब दौड़ते हुए भीतर से आते दिखाई दिए ।,सूरत से नैराश्य और चिन्ता झलक रही थी । "वह मोटे गद्दी मे ऐसी उमा गयी थी कि मालूम होता था कि परलेंग खाली हद, केवल चादर पड़ी है ।",सूरत से नैराश्य और चिन्ता झलक रही थी ।,"वह मोटे गद्दों में ऐसे समा गयी थी कि मालूम होता था पलंग खाली है, केवल चादर पड़ी है ।" मुझे तो आपके आने की झआाशा दी नयी ।,"वह मोटे गद्दों में ऐसे समा गयी थी कि मालूम होता था पलंग खाली है, केवल चादर पड़ी है ।",मुझे तो आपके आने की आशा ही न थी । "राजा--पर-धार कद्दती थी कि वह न श्रायेंगे, उन्हें इतनी फुरसत कहाँ; पर मेरा मन कहता था, आप यह समाचार पाकर रुक ही नहीं सकते ।",मुझे तो आपके आने की आशा ही न थी ।,"राजा-बार-बार कहती थी कि वह न आयेंगे, उन्हें इतनी फुर्सत कहाँ, पर मेरा मन कहता था, आप यह समाचार पाकर रुक ही नहीं सकते ।" अच तो ईश्वर दो का भरोसा है ।,"राजा-बार-बार कहती थी कि वह न आयेंगे, उन्हें इतनी फुर्सत कहाँ, पर मेरा मन कहता था, आप यह समाचार पाकर रुक ही नहीं सकते ।",अब तो ईश्वर ही का भरोसा है । अहल्या धीरे से बोल्ली--मुके अब याद आरा रहा है कि मेरा भो नाम सुखदा था ।,अब तो ईश्वर ही का भरोसा है ।,अहिल्या धीरे से बोली-मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा भी नाम सुखदा था । "चक्रधर ने वेपरवाद्दी से कह्दा--हाँ, यह कोई नया नाम नहीं |",अहिल्या धीरे से बोली-मुझे अब याद आ रहा है कि मेरा भी नाम सुखदा था ।,"चक्रधर ने बेपरवाही से कहा--हाँ, यह कोई नया नाम नहीं ।" "चक्रधर ने उसी लापरवाही से कह्टा--हाँ, बहुतनसे आदमियों की सूग्त मिलती है |","चक्रधर ने बेपरवाही से कहा--हाँ, यह कोई नया नाम नहीं ।","चक्रधर ने उसी लापरवाही से कहा-हाँ, बहुत से आदमियों की सूरत मिलती है ।" अहल्या--नहीं बिलकुल ऐसे ही थे ।,"चक्रधर ने उसी लापरवाही से कहा-हाँ, बहुत से आदमियों की सूरत मिलती है ।","अहिल्या-नहीं, बिल्कुल ऐसे ही थे ।" २० वर्ष की सूरत शअ्रच्छी तरह ध्यान में भी तो नहीं रहती ।,"अहिल्या-नहीं, बिल्कुल ऐसे ही थे ।",बीस वर्ष की सूरत अच्छी तरह ध्यान में भी तो नहीं रहती । अहल्या-- जरा तुम राज्य साहब से पूछो तो कि आपकी सुखदा कब खोयी थी ?,बीस वर्ष की सूरत अच्छी तरह ध्यान में भी तो नहीं रहती ।,अहिल्या-जरा तुम राजा साहब से पूछो तो कि आपकी सुखदा कब खोई थी ? "चक्रघर ने मुँकलाकर कहय--चुपचाप बैठो, त॒म इतनी भाग्यवान्‌ नहीं हो |",अहिल्या-जरा तुम राजा साहब से पूछो तो कि आपकी सुखदा कब खोई थी ?,"चक्रधर ने झुँझलाकर कहा-चुपचाप बैठो, तुम इतनी भाग्यवान् नहीं हो ।" चक्रघर के अन्तिम शब्द उनके कान में पड़ गये ।,"चक्रधर ने झुँझलाकर कहा-चुपचाप बैठो, तुम इतनी भाग्यवान् नहीं हो ।",चक्रधर के अन्तिम शब्द उनके कान में पड़ गये । "आज बीस साल हुए, जब मे पत्नी के साथ निवेणी स्नान करने प्रयाग गया था, वहीं सुखदा खो गयी थो |",चक्रधर के अन्तिम शब्द उनके कान में पड़ गये ।,"आज बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी-स्नान करने प्रयाग गया था, वहीं सुखदा खो गयी थी ।" "राजा--तुग्हारी क्या उम्र होगी, वेटो ?","आज बीस साल हुए, जब मैं पत्नी के साथ त्रिवेणी-स्नान करने प्रयाग गया था, वहीं सुखदा खो गयी थी ।","राजा-तुम्हारी क्या उम्र होगी, बेटी ?" अहल्या--शायद वरगद का पेड़ था ।,"राजा-तुम्हारी क्या उम्र होगी, बेटी ?",अहिल्या-शायद बरगद का पेड था । दिनभर पान खाती रहतो थी ।,अहिल्या-शायद बरगद का पेड था ।,दिन भर पान खाती रहती थीं । "एक बूढ़ा नोकर या, जिसके कन्वे पर मैं रोज सवार हुआ करती थी ।",दिन भर पान खाती रहती थीं ।,"एक बूढ़ा नौकर था, जिसके कन्धे पर रोज सवार हुआ करती थी ।" मे घालक फो देखते ही ताड़ गया था ।,"एक बूढ़ा नौकर था, जिसके कन्धे पर रोज सवार हुआ करती थी ।",मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था । सम्भव है शआपको भ्रम हो रहा हो ।,मैं बालक को देखते ही ताड़ गया था ।,"सम्भव है, आपको भ्रम हो रहा हो ।" "राजा--जरा भी नहीं, जी-भर भी नहीं; मेरी खुखदा यहो दे ।","सम्भव है, आपको भ्रम हो रहा हो ।","राजा-जरा भी नहीं, जौ भर भी नहीं, मेरी सुखदा यही है ।" "इसने जितनी थातें बतायीं, सभी ठीक हैँ ।","राजा-जरा भी नहीं, जौ भर भी नहीं, मेरी सुखदा यही है ।","इसने जितनी बातें बताईं, सभी ठीक हैं ।" मुझे लेश-मात्र भी सन्देह नहीं |,"इसने जितनी बातें बताईं, सभी ठीक हैं ।",मुझे लेश मात्र भी सन्देह नहीं । "राजा साएत्र उसे देखते ही बाहर निकल आये ओर बोले--कहाँ जाती हो, रोहिणी ?",मुझे लेश मात्र भी सन्देह नहीं ।,"राजा साहब उसे देखते ही बाहर निकल आये और बोले-कहाँ जाती हो, रोहिणी ?" "भड़री भी आपको ऐसी बार्ते बता देता है, जो आपको श्राश्चर्य में डाल देती हैं |","राजा साहब उसे देखते ही बाहर निकल आये और बोले-कहाँ जाती हो, रोहिणी ?","मदारी भी आपको ऐसी बातें बता देता है, जो आपको आश्चर्य में डाल देती हैं ।" "भला, किसी गैर की लड़की को मनोरमा क्यों मेरी ल ढ़की बनायेंगी ?","मदारी भी आपको ऐसी बातें बता देता है, जो आपको आश्चर्य में डाल देती हैं ।",भला किसी गैर लड़की को मनोरमा क्यों मेरी लड़की बनाएगी ? रोहिणी--वह इमारी जड़ खोदना चाहती दे |,भला किसी गैर लड़की को मनोरमा क्यों मेरी लड़की बनाएगी ?,रोहिणी-वह हमारी जड़ खोदना चाहती है । "यही वालक, जो आपकी गोद में हे, एक दिन आपका शन्नु होगा ।",रोहिणी-वह हमारी जड़ खोदना चाहती है ।,"यही बालक, जो आपकी गोद में है; एक दिन आपका शत्र होगा ।" द्वार पर श्रभी तक केंगालों की भीड़ लगी हुईं यी |,"यही बालक, जो आपकी गोद में है; एक दिन आपका शत्र होगा ।",द्वार पर अभी तक कंगालों की भीड़ लगी हुई थी । दो चार श्रमले अभी तक बैठे दफ़र में काम कर रहे थे ।,द्वार पर अभी तक कंगालों की भीड़ लगी हुई थी ।,दो-चार अमले अभी तक बैठे दफ्तर में काम कर रहे थे । सदर राज्ा साहब ने आकर ठाकुरजी के सामने वालक को बैठा दिया ओर खुद साप्टाग दरइचत्‌ करने लगे ।,दो-चार अमले अभी तक बैठे दफ्तर में काम कर रहे थे ।,सहसा राजा साहब ने आकर ठाकुरजी के सामने बालक को बैठा दिया और खुद साष्टांग दण्डवत् करने लगे । उस अनुराण मे उन्हे समस्त ससार आनंद से नाचता हुश्रा मालूम हुआ ।,सहसा राजा साहब ने आकर ठाकुरजी के सामने बालक को बैठा दिया और खुद साष्टांग दण्डवत् करने लगे ।,उस अनुराग में उन्हें समस्त संसार आनंद से नाचता हुआ मालूम हुआ । "श्राज उनकी चिर-सचित कामना पूरी हुई, ओर इस तरह पूरी हुई, जिसकी उन्हें कमी आशा भी न थी ।",उस अनुराग में उन्हें समस्त संसार आनंद से नाचता हुआ मालूम हुआ ।,"आज उनकी चिरसंचित कामना पूरी हुई, और इस तरह पूरी हई, जिसकी उन्हें कभी आशा भी न थी ।" पुत्र-रक्ष के सामने ससार की सम्पदा क्‍या चीज है ?,"आज उनकी चिरसंचित कामना पूरी हुई, और इस तरह पूरी हई, जिसकी उन्हें कभी आशा भी न थी ।",पुत्र-रत्न के सामने संसार की संपदा क्या चीज है ? अपने लिए कोन दुनिया के मनयवे बाँधता हे ?,पुत्र-रत्न के सामने संसार की संपदा क्या चीज है ?,अपने लिए कौन दुनिया के मनसूबे बाँधता है ? इधर अबोध बालक को छाती से लगाकर उन्हें श्रपना चल शतगण होता हुआ शात होता था |,अपने लिए कौन दुनिया के मनसूबे बाँधता है ?,इधर अबोध बालक को छाती से लगाकर उन्हें अपना बल शतगुण होता हुआ ज्ञात होता था । पुजारीने कह्मय--भगवान्‌ राजकुँवर को चिरज़ीच करें ! राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उसे दे दी ।,इधर अबोध बालक को छाती से लगाकर उन्हें अपना बल शतगुण होता हुआ ज्ञात होता था ।,पुजारी ने कहा-भगवान् राजकुँवर को चिरंजीवी करें! राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उसे दे दी । एक बाबाजनी को इसी आशीर्वाद के लिए १०० बीचे जमीन मिल गयो ।,पुजारी ने कहा-भगवान् राजकुँवर को चिरंजीवी करें! राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उसे दे दी ।,एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए सौ बीघे जमीन मिल गयी । "ठाकुरद्वारे से जब वद घर में आ्राये, तो देखा कि चक्र आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं, और मनोरमा सामने खढ़ी खाना परस रद्दी है ।",एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए सौ बीघे जमीन मिल गयी ।,"ठाकुरद्वारे से जब वह घर में आये, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं और मनोरमा सामने खड़ी खाना परस रही है ।" "कोई यह अनुमान दी न कर सकता था कि यह वही मनोस्मा है, जो अ्रभी दस मिनट पहले मृत्यु शब्या पर पढ़ी हुई यी |","ठाकुरद्वारे से जब वह घर में आये, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं और मनोरमा सामने खड़ी खाना परस रही है ।","कोई यह अनुमान ही न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी दस मिनट पहले मृत्यु-शैया पर पड़ी हुई थी ।" "कल्पना अ्रपंगु शेती हे, त्वप्स मिश्या, लीवचन का सार केवल प्रत्यक्ष में है ।","कोई यह अनुमान ही न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी दस मिनट पहले मृत्यु-शैया पर पड़ी हुई थी ।","कल्पना पंगु होती है, स्वप्न मिथ्या, जीवन का सार केवल प्रत्यक्ष में है ।" "जीवन का' कोई चिह्न है, तो उसके नेत्रों में झराशा की भकलक है |","कल्पना पंगु होती है, स्वप्न मिथ्या, जीवन का सार केवल प्रत्यक्ष में है ।","जीवन का कोई चिह्न है, तो उनके नेत्रों में आशा की झलक है ।" "आज उनकी तपस्या का अन्तिम दिन है, आ्राज देवप्रिया का पुनर्जन्म होगा, सूखा हुआ बक्ष नव-पक्षवों से लहरायेगा, झ्ाज फिर उसके योवन-सरोवर में लहर उठोगी! आकाश मे कुसुम खिलेंगे ।","जीवन का कोई चिह्न है, तो उनके नेत्रों में आशा की झलक है ।","आज उनकी तपस्या का अन्तिम दिन है, आज देवप्रिया का पुनर्जन्म होगा, सूखा हुआ वृक्ष नव पल्लवों से लहराएगा, आज फिर उसके यौवन-सरोवर में लहरें उठेगी ! आकाश में कुसुम खिलेंगे ।" "जैप्ते वीणा के: अस्फुट खरों से शने+शनेः गान का स्वरूप प्रस्फुटित होता है, जैसे मेघ-मणडल से शनै-- शनेः इन्दु की उज्ज्वल छवि प्रकट होती हुईं दिखाया देती है, उसी भाँति देवप्रिया के श्री-होत, सश्ा-दीन, प्राण-दीन मुखमएडल पर जीवन का स्वरूप अफित होने लगा ।","आज उनकी तपस्या का अन्तिम दिन है, आज देवप्रिया का पुनर्जन्म होगा, सूखा हुआ वृक्ष नव पल्लवों से लहराएगा, आज फिर उसके यौवन-सरोवर में लहरें उठेगी ! आकाश में कुसुम खिलेंगे ।","जैसे वीणा के अस्फुट स्वरों से शनैः शनैः गान का स्वरूप प्रस्फुटित होता है, जैसे मेघ-मंडल से शनैः-शनैः इन्दु की उज्ज्वल छवि प्रकट होती हुई दिखाई देती है, उसी भांति देवप्रिया के श्रीहीन, संज्ञाहीन, प्राणहीन मुखमंडल पर जीवन का स्वरूप अंकित होने लगा ।" "२४१ महेन्द्र-सच कइना, तुम्हें विश्वास था रि मैं तुम्हारा कायाकला कर सकूँ गा ?","जैसे वीणा के अस्फुट स्वरों से शनैः शनैः गान का स्वरूप प्रस्फुटित होता है, जैसे मेघ-मंडल से शनैः-शनैः इन्दु की उज्ज्वल छवि प्रकट होती हुई दिखाई देती है, उसी भांति देवप्रिया के श्रीहीन, संज्ञाहीन, प्राणहीन मुखमंडल पर जीवन का स्वरूप अंकित होने लगा ।","महेन्द्र-सच कहना, तुम्हें विश्वास था कि मैं तुम्हारा कायाकल्प कर सकूँगा ?" देवप्रिया ने सऊुचाते हुए पूछा--ऐसा तो न होगा फि कुछ दी दिनों मे यह चार दिन की चटक चॉदनी फिर अंधेरा पास! दो जाय ?,"महेन्द्र-सच कहना, तुम्हें विश्वास था कि मैं तुम्हारा कायाकल्प कर सकूँगा ?",देवप्रिया ने सकुचाते हुए पूछा-ऐसा तो न होगा कि कुछ ही दिनों में यह 'चार दिन की चटक चांदनी फिर अंधेरा पाख' हो जाय ? देवप्रिया--ओर हम इस वक्त हूँ कहो ?,देवप्रिया ने सकुचाते हुए पूछा-ऐसा तो न होगा कि कुछ ही दिनों में यह 'चार दिन की चटक चांदनी फिर अंधेरा पाख' हो जाय ?,देवप्रिया--और हम इस वक्त हैं कहाँ ? मैंने अपने राज्याधिकार मन्त्री फो सॉप दिये ओर तुम्हे लेकर यहाँ चला आया ।,देवप्रिया--और हम इस वक्त हैं कहाँ ?,मैंने अपने राज्याधिकार मंत्री को सौंप दिए और तुम्हें लेकर यहाँ चला आया । राज्य की चिन्ताओआ मे पड़कर में यद्द सिद्धि कभी न प्राप्त कर सकता था ।,मैंने अपने राज्याधिकार मंत्री को सौंप दिए और तुम्हें लेकर यहाँ चला आया ।,राज्य की चिंताओं में पड़कर मैं यह सिद्धि कभी न प्राप्त कर सकता था । वन्य जीवन की कल्पना उसे श्रत्यन्त सुखद जान पढ़ी ।,राज्य की चिंताओं में पड़कर मैं यह सिद्धि कभी न प्राप्त कर सकता था ।,वन्य जीवन की कल्पना उसे अत्यन्त सुखद जान पड़ी । प्रसन्न होफर बोली--यह ते मेर मन की बात हुई |,वन्य जीवन की कल्पना उसे अत्यन्त सुखद जान पड़ी ।,प्रसन्न होकर बोली-यह तो मेरे मन की बात हुई । "दाहिने ओर इच्तों के समूह साधुओ्रों की कुटियों के समान दीख पढ़ते थे और वार्यी श्रोर एक रत्तजटित नदी किसी चश्चल पनिहारिन की भाँति मीठे राग गाती, अ्ठलाती चली जाती थी ।",प्रसन्न होकर बोली-यह तो मेरे मन की बात हुई ।,"दाहिनी ओर वृक्षों के समूह साधुओं की कुटियों के समान दीख पड़ते थे और बाईं ओर एक रत्नजटित नदी किसी चंचल पनिहारिन की भाँति मीठे राग गाती, इठलाती चली जाती थी ।" उसी क्षण देवप्रिया के मन में एक विचित्र शका उत्तन्न हुँ--मेरा वह निकट जीवन कहीं फिर तो मेरा स्वनाश न कर देगा ?,"दाहिनी ओर वृक्षों के समूह साधुओं की कुटियों के समान दीख पड़ते थे और बाईं ओर एक रत्नजटित नदी किसी चंचल पनिहारिन की भाँति मीठे राग गाती, इठलाती चली जाती थी ।",उसी क्षण देवप्रिया के मन में एक विचित्र शंका उत्पन्न हुई--मेरा यह निकृष्ट जीवन कहीं फिर तो सर्वनाश न कर देगा ? "प्रजा के सुख- दुख की चिन्ता अगर किसी को थी, तो वह मनोरमा थी |",उसी क्षण देवप्रिया के मन में एक विचित्र शंका उत्पन्न हुई--मेरा यह निकृष्ट जीवन कहीं फिर तो सर्वनाश न कर देगा ?,"प्रजा के सुख-दुःख की चिंता अगर किसी को थी, तो वह मनोरमा को थी ।" "जैसे कोई दरिद्ध प्राणी कह से विपुल घन पा जाय और रात दिन उती की चिन्ता में पड़ा रहे, वही दशा राजा साहब की थी ।","प्रजा के सुख-दुःख की चिंता अगर किसी को थी, तो वह मनोरमा को थी ।",जैसे कोई दरिद्र प्राणी कहीं से विपुल धन पा जाय और रात-दिन उसकी की चिंता में पड़ा रहे; वह दशा राजा साहब की थी । "उनकी दृष्टि मे मनोरमा फूल की पड़ी से मी कोमल थी, उसे कुछ हो न जाय, यही मय उन्हें बना रहता था |",जैसे कोई दरिद्र प्राणी कहीं से विपुल धन पा जाय और रात-दिन उसकी की चिंता में पड़ा रहे; वह दशा राजा साहब की थी ।,"उसी दृष्टि में मनोरमा फूल की पंखुड़ी से भी कोमल थी, उसे कुछ हो न जाय , यही भय उन्हें बना रहता था ।" वैसा हो दूसरा व्यग्य उसके प्राण ले सकता था |,"उसी दृष्टि में मनोरमा फूल की पंखुड़ी से भी कोमल थी, उसे कुछ हो न जाय , यही भय उन्हें बना रहता था ।",वैसा दूसरा व्यंग्य उसके प्राण ले सकता था । "मुशीजी श्रत॒ तक तो दीवान साहब से मिलकर अपना स्वार्थ साथते रहते थे, पर अब वह कब्र किसी को गिनने लगे थे |",वैसा दूसरा व्यंग्य उसके प्राण ले सकता था ।,"मुंशीजी अब तक दीवान साहब से मिलकर अपना स्वार्थ साधते रहते थे, पर अब वह कब किसी को गिनने लगे थे ।" "श्रगर कोई श्रमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, तो जामे से वाहर ह्ो जाते ।","मुंशीजी अब तक दीवान साहब से मिलकर अपना स्वार्थ साधते रहते थे, पर अब वह कब किसी को गिनने लगे थे ।","अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, जामे से बाहर हो जाते ।" "जो ठुम आज कह रहे हो, वह सब्र किये बैठा हूँ ।","अगर कोई अमला उनके हुक्म की तामील करने में देर करता, जामे से बाहर हो जाते ।","जो तुम आज कह रहे हो, वह सब किए बैठा हूँ ।" "श्रत्॒ बद मुशीजी नहीं हैं, जिनकी बात इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा दिया करते थे |","जो तुम आज कह रहे हो, वह सब किए बैठा हूँ ।","अब वह मुंशीजी नहीं हैं, जिनकी बात इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा दिया करते थे ।" अ्त्र मुशीजी रियासत के मालिक हैं ।,"अब वह मुंशीजी नहीं हैं, जिनकी बात इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा दिया करते थे ।",अब मुंशीजी रियासत के मालिक हैं । "की कर्मचारियों ने जूती-मजार टोती थी, कहों गरीब असामियों पर डॉँट-फटकार, कही रनिवास में रगढ़-कगढ़ होती थी, तो कही इलाके में दंगा-फिसाद ।",अब मुंशीजी रियासत के मालिक हैं ।,"कहीं कर्मचारियों में जूती-पैजार होती थी, कहीं गरीब असामियों पर डाँट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाके में दंगा-फिसाद ।" "उन्हें स्वय कभी-कमी कर्मचारियों को तम्बीद करनी पद्रती, कई ब२ उन्हें विवश होकर नोंकरों को मारना भी पढ़ा था ।","कहीं कर्मचारियों में जूती-पैजार होती थी, कहीं गरीब असामियों पर डाँट-फटकार, कहीं रनिवास में रगड़-झगड़ होती थी, तो कहीं इलाके में दंगा-फिसाद ।","उन्हें स्वयं कभी-कभी कर्मचारियों को तम्बीह करनी पड़ती, कई बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था ।" सबसे कठिन समस्या यही थी यहाँ उनके पुराने सिद्धात भंग होते चले छातें थे |,"उन्हें स्वयं कभी-कभी कर्मचारियों को तम्बीह करनी पड़ती, कई बार उन्हें विवश होकर नौकरों को मारना भी पड़ा था ।",सबसे कठिन समस्या यही थी कि यहाँ उनके पुराने सिद्धांत भंग होते चले जाते थे । "वह बहुत चेष्टा करते थे कि गेंद से एक मी अशिप्ट शब्द न निकले; पर प्राव, नित्य ही ऐसे अवसर आ पहण्ते क्रि उन्हे विवश होकर दरड नीति का आश्रय लेना ही पढ़ता था |",सबसे कठिन समस्या यही थी कि यहाँ उनके पुराने सिद्धांत भंग होते चले जाते थे ।,"वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुँह से एक भी अशिष्ट शब्द न निकले, पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर आ पड़ते कि उन्हें विवश होकर दंडनीति का आश्रय लेना ही पड़ता था ।" "उंसके अन्तस्थल में श्रहनिंश एक शूल-सा होता रहता था; द्वदय मर नित्य एक अग्नि-शिखा प्रज्ज्वलित रहती थी और जब किसी कारण से बेदना और जलन बढ़ जाती, तो उसके मुख से एक आह और आँखों से श्रॉस, की चार चुद्दे निकल पढ़ती थीं |","वह बहुत चेष्टा करते थे कि मुँह से एक भी अशिष्ट शब्द न निकले, पर प्रायः नित्य ही ऐसे अवसर आ पड़ते कि उन्हें विवश होकर दंडनीति का आश्रय लेना ही पड़ता था ।","उसके अन्तस्तल में अहर्निश एक शूल-सा होता रहता था, हृदय में नित्य एक अग्निशिखा प्रज्ज्वलित रहती थी और जब किसी कारण से वेदना और जलन बढ़ जाती, तो उसके मुख से एक आह और आँखों से आँसू की चार बूंदें निकल पड़ती थीं ।" उसकी तेजस्विता गहन चिन्ता और गस्भीर विचार में रूपान्तरित हो गयी थी ।,"उसके अन्तस्तल में अहर्निश एक शूल-सा होता रहता था, हृदय में नित्य एक अग्निशिखा प्रज्ज्वलित रहती थी और जब किसी कारण से वेदना और जलन बढ़ जाती, तो उसके मुख से एक आह और आँखों से आँसू की चार बूंदें निकल पड़ती थीं ।",उसकी तेजस्विता गहन चिंता और गम्भीर विचार में रूपान्तरित हो गयी थी । "एक दिन चक्रघर बैठे कुछ पढ रहे थे कि मुन्शीजी ने आकर कहा--वेण, जरा एक वार रियासत का दौरा क्यों नहीं कर आते ?",उसकी तेजस्विता गहन चिंता और गम्भीर विचार में रूपान्तरित हो गयी थी ।,"एक दिन चक्रधर बैठे कुछ पढ़ रहे थे कि मुंशीजी ने आकर कहा-बेटा, जरा एक बार रियासत का दौरा नहीं कर आते ?" "चक्रधर--आप उसे समक--पागलपन-जो चाहें समझे; पर मुझे! तो उसमें लितना आनन्द श्राता है, उतना इस हरबोंग में नहीं आता ।","एक दिन चक्रधर बैठे कुछ पढ़ रहे थे कि मुंशीजी ने आकर कहा-बेटा, जरा एक बार रियासत का दौरा नहीं कर आते ?","चक्रधर-आप उसे सनक, पागलपन-जो चाहें, समझें, पर मुझे तो उसमें जितना आनन्द आता है, उतना इस हरबोंग में नहीं आता ।" "मुझसे जो कुछ वन पड़ेगा, आपकी मदद करता है |","चक्रधर-आप उसे सनक, पागलपन-जो चाहें, समझें, पर मुझे तो उसमें जितना आनन्द आता है, उतना इस हरबोंग में नहीं आता ।","मुझसे जो कुछ बन पड़ेगा, आपकी मदद करता रहूँगा ।" "मुशी-चवेथ, मुझे मालूम दीता है, तुम अपने होश मे नही हो ।","मुझसे जो कुछ बन पड़ेगा, आपकी मदद करता रहूँगा ।","मुंशी--बेटा, मुझे मालूम होता है, तुम अपने होश में नहीं हो ।" उसको धन्यवाद दो ओर राज्य का इन्तजाम अपने द्वाथ में लो ।,"मुंशी--बेटा, मुझे मालूम होता है, तुम अपने होश में नहीं हो ।",उसको धन्यवाद दो और राज्य का इन्तजाम अपने हाथ में लो । "वह भी मुझे उपदेश करे, राजा सारत्र भी कोई काम गले मद दें ।",उसको धन्यवाद दो और राज्य का इन्तजाम अपने हाथ में लो ।,"वह भी मुझे उपदेश करे, राजा साहब भी कोई काम गले मढ़ दें ।" "झहल्या रोयेगी, मनोरमा कुठेगी; पर मुँह से कुछ न करेगी, लालाजी लामे से बाहर हो जायेगे ओर राजा साइच एक ठरदी साँस लेकर सिर झुका लेंगे ।","वह भी मुझे उपदेश करे, राजा साहब भी कोई काम गले मढ़ दें ।","अहिल्या रोएगी, मनोरमा कुढ़ेगी, पर मुँह से कुछ न कहेगी, लालाजी जामे से बाहर हो जायेंगे और राजा साहब एक ठंडी साँस लेकर सिर झुका लेंगे ।" एक दिन चकघर मोटर पर हवा पाने निकले ।,"अहिल्या रोएगी, मनोरमा कुढ़ेगी, पर मुँह से कुछ न कहेगी, लालाजी जामे से बाहर हो जायेंगे और राजा साहब एक ठंडी साँस लेकर सिर झुका लेंगे ।",एक दिन चक्रधर मोटर पर हवा खाने निकले । गरमी के दिन थे |,एक दिन चक्रधर मोटर पर हवा खाने निकले ।,गर्मी के दिन थे । सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा साँढ़ दिसायी दिया |,गर्मी के दिन थे ।,सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा साँड़ दिखाई दिया । कुछ दूर के बाद मोटर सड़क से हृदकर एक इच्ष से टकरा गयी ।,सहसा उन्हें रास्ते में एक बड़ा साँड़ दिखाई दिया ।,कुछ देर के बाद मोटर सड़क से हटकर एक वृक्ष से टकरा गयी । "अ्रव सॉढ़ पूछ उठा-उठाकर कितना ह्वी जोर लगाता हे, पीछे हट हटकर उससमें यक्करं मारता है, पर वह जगह से नहीं हिलती ।",कुछ देर के बाद मोटर सड़क से हटकर एक वृक्ष से टकरा गयी ।,"अब साँड़ पूंछ उठा-उठाकर कितना ही जोर लगाता है, पीछे हट-हटकर उसमें टक्करें मारता है, पर वह जगह से नहीं हिलती ।" तर उसने चगल में जाकर इतनो जोर से व्कर लगायी कि मोटर उलट गयी ।,"अब साँड़ पूंछ उठा-उठाकर कितना ही जोर लगाता है, पीछे हट-हटकर उसमें टक्करें मारता है, पर वह जगह से नहीं हिलती ।",तब उसने बगल में जाकर इतनी जोर से टक्कर लगाई कि मोटर उलट गयी । "अगर मालूम हो जाय कि किसका साँढ़ है, तो सारी जायदांद विक्वा लू ।",तब उसने बगल में जाकर इतनी जोर से टक्कर लगाई कि मोटर उलट गयी ।,"अगर मालूम हो जाय कि किसका साँड़ है, तो सारी जायदाद बिकवा लूँ ।" "तब चक्रघर नीचे उतरे और मोटर के समीप ज्ञांकर देथा, तो वह उल्टी पड़ी हुईं थी ।","अगर मालूम हो जाय कि किसका साँड़ है, तो सारी जायदाद बिकवा लूँ ।","तब चक्रधर नीचे उतरे और मोटर के समीप जाकर देखा, तो वह उल्टी पड़ी थी ।" "जब तक सीधी न दो जाय, यह पता कैसे चले कि क्या-क्या चीजें टूट गयी हैं, श्रोर अब वह चलने योग्य दे या नहीं ।","तब चक्रधर नीचे उतरे और मोटर के समीप जाकर देखा, तो वह उल्टी पड़ी थी ।","जब तक सीधी न हो जाय , यह पता कैसे चले कि क्या-क्या चीजें टूट गयी हैं और अब चलने योग्य है या नहीं ।" वह बहुत छोटा-सा पुरवा' था ।,"जब तक सीधी न हो जाय , यह पता कैसे चले कि क्या-क्या चीजें टूट गयी हैं और अब चलने योग्य है या नहीं ।",बहुत छोटा-सा 'पुरवा' था । किसान लोग श्रमी थोढ़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आये ये ।,बहुत छोटा-सा 'पुरवा' था ।,किसान लोग अभी थोड़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आये थे । सहता चक्रघर ने जाकर पूछा--यह फौन गाँव है ?,किसान लोग अभी थोड़ी ही देर पहले ऊख की सिंचाई करके आये थे ।,सहसा चक्रधर ने जाकर पूछा-यह कौन गाँव है ? "जिस गाँव मे चला जाता ह्‌, दो-एक बैलों को मार टालता हैं |",सहसा चक्रधर ने जाकर पूछा-यह कौन गाँव है ?,"जिस गाँव में चला जाता है, दो-एक बैलों को मार डालता है ।" "चक्रघर ने गुस्से में श्राकर कहय--में कहता हूँ, तुमको चलना पड़ेगा ।","जिस गाँव में चला जाता है, दो-एक बैलों को मार डालता है ।","चक्रधर ने गुस्से में आकर कहा-मैं कहता हूँ, तुमको चलना पड़ेगा ।" आपको जो करना हे कर लीजिय्गा ।,"चक्रधर ने गुस्से में आकर कहा-मैं कहता हूँ, तुमको चलना पड़ेगा ।","आपको जो करना हो, कर लीजिएगा ।" तुम लात के प्रादमी बात से क्यों मानने लगे ! चकथघर कपरती आदमी थे ।,"आपको जो करना हो, कर लीजिएगा ।",तुम लात के आदमी बात से क्यों मानने लगे! चक्रधर कसरती आदमी थे । चक्रधर उसे तुरत पहचान गये ।,तुम लात के आदमी बात से क्यों मानने लगे! चक्रधर कसरती आदमी थे ।,चक्रधर उसे तुरंत पहचान गये । "खाना छोड़कर जब तक उठ्ूँ, तब्र तक तो तुम गरमा ही गये ।",चक्रधर उसे तुरंत पहचान गये ।,"खाना छोड़कर जब तक उठू, तब तक तो तुम गरमा ही गये ।" "निकला तो था कुछ शञ्रोर ही सोचकर, मगर तुम अपने पुराने साथी निकले |","खाना छोड़कर जब तक उठू, तब तक तो तुम गरमा ही गये ।","निकला तो कुछ और ही सोचकर, मगर तुम अपने पुराने साथी निकले ।" "जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोंड़ डाले होगे, अरब वह हूटी हुई पढ़ी हे |","निकला तो कुछ और ही सोचकर, मगर तुम अपने पुराने साथी निकले ।","जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले होंगे, अब वह टूटी हुई पड़ी है ।" मगर उसने तो तुम्दारे साथ भलभनसी की झोर ठुम उसे मारने लगे |,"जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले होंगे, अब वह टूटी हुई पड़ी है ।",मगर उसने तो तुम्हारे साथ भलमनसी की और तुम उसे मारने लगे । "अब वताशो, इसके हाथ की क्‍या दवा की जाय ?",मगर उसने तो तुम्हारे साथ भलमनसी की और तुम उसे मारने लगे ।,"अब बताओ, इसके हाथ की क्या दवा की जाय ?" "चक्रघर ने ग्लानि-वेदना से व्यथित स्वर में कह्य“-घन्नासिद, मे बहुत लज्जित हूँ, मुझे क्षमा करो ।","अब बताओ, इसके हाथ की क्या दवा की जाय ?","चक्रधर ने ग्लानि वेदना से व्यथित स्वर में कहा--धन्नासिंह, मैं बहुत लज्जित हूँ, मुझे क्षमा करो ।" "बोला--+- अरे भगतजी, ऐसी बातें न कहो ।","चक्रधर ने ग्लानि वेदना से व्यथित स्वर में कहा--धन्नासिंह, मैं बहुत लज्जित हूँ, मुझे क्षमा करो ।","बोला-अरे भगतजी, ऐसी बातें न कहो ।" "तुम मेरे गुर हो, तुम्दें मे अपना देवता समभता हैं ।","बोला-अरे भगतजी, ऐसी बातें न कहो ।","तुम मेरे गुरु हो, तुम्हें मैं अपना देवता समझता हूँ ।" "चलो, म॑ उसे उठाये देता हूँ; या हुक्म हो तो गाड़ी जोत लू ?","तुम मेरे गुरु हो, तुम्हें मैं अपना देवता समझता हूँ ।","चलो, मैं उसे उठाए देता हूँ या हुक्म हो तो गाड़ी जोत लूँ ?" हा चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जया भी आनन्द न आता था |,"चलो, मैं उसे उठाए देता हूँ या हुक्म हो तो गाड़ी जोत लूँ ?",चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनन्द न आता था । "वही ग्राणी, जिसे उन्होंने अपने कोप का लक्षंय घनाया था, उनके शोय और शक्ति की प्रशसा कर रद्य था ।",चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनन्द न आता था ।,"वह प्राणी, जिसे उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति को प्रशंसा कर रहा है ।" आ्रज से साल भर पहले भी मुमे कभी किसी पर इतना क्रोध नहीं आया था ?,"वह प्राणी, जिसे उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति को प्रशंसा कर रहा है ।",आज से साल भर पहले भी मुझे कभी किसी पर इतना क्रोध नहीं आया । "कितने गुप्त श्रोंर अलक्षित रूप से उनकी मनु- ष्यता, चरित्र और सिद्धान्त का हास हो रहा है ।",आज से साल भर पहले भी मुझे कभी किसी पर इतना क्रोध नहीं आया ।,"कितने गुप्त और अलक्षित रूप से उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धान्त का ह्रास हो रहा है ।" "जरा देर मे दो मोठरें सड़क पर धीरे-घीरे जाती हुईं दिखायी दी, जैसे किसी को खोज रही द्वों ।","कितने गुप्त और अलक्षित रूप से उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धान्त का ह्रास हो रहा है ।","जरा देर में दो मोटरें सड़क पर धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई दी, जैसे किसी को खोज रही हों ।" चक्रधर समझ गये की मेरो तलाश हो रही है |,"जरा देर में दो मोटरें सड़क पर धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई दी, जैसे किसी को खोज रही हों ।",चक्रधर समझ गये कि मेरी तलाश हो रही है । तुरन्त उठ खड़े हुए. ।,चक्रधर समझ गये कि मेरी तलाश हो रही है ।,तुरंत उठ खड़े हुए । चक्रघर उसे देखते ही लपककर आगे बढ गये ।,तुरंत उठ खड़े हुए ।,चक्रधर उसे देखते ही लपककर आगे बढ़ गये । "रानी उन्हें देखते ही ठिठक गयी और घबरायी हुई आवाज में बोलो--बाबूजी, 'आ्रापफो चोट तो नहीं आयी ?",चक्रधर उसे देखते ही लपककर आगे बढ़ गये ।,"रानी उन्हें देखते ही ठिठक गयीं और घबराई हुई आवाज में बोलीं-बाबूजी, आपको चोट तो नहीं आयी ?" "मोथ्र टूटी देखी, तो जैसे मेरे प्राण ही सन्‍न हो गये |","रानी उन्हें देखते ही ठिठक गयीं और घबराई हुई आवाज में बोलीं-बाबूजी, आपको चोट तो नहीं आयी ?","मोटर टूटी देखी, तो जैसे मेरे प्राण ही सन्न हो गये ।" "प्रातःकाल नीचे जाकर नदी से पानो लाती, पहाड़ी इक्तों से लकड़ियाँ तोड़ती ओर जगली फलों को उवालती |","मोटर टूटी देखी, तो जैसे मेरे प्राण ही सन्न हो गये ।",प्रात:काल नीचे जाकर नदी से पानी लाती; पहाड़ी वृक्षों से लकड़ियाँ तोड़ती और जंगली फलों को उबालती । "देवप्रिया पति को वन के पक्षियों के साथ विद्वार करते, दविरणों के साथ खेलते सपों को नचाते, नदी में जल-कीड़ा करते देखती |",प्रात:काल नीचे जाकर नदी से पानी लाती; पहाड़ी वृक्षों से लकड़ियाँ तोड़ती और जंगली फलों को उबालती ।,"देवप्रिया पति को वन के पक्षियों के साथ विहार करते, हिरणों के साथ खेलते, सो को नचाते, नदी में जलक्रीड़ा करते देखती ।" ऐसी अनिन्य सुर्दरी उसने स्वय ने देखी थी ।,"देवप्रिया पति को वन के पक्षियों के साथ विहार करते, हिरणों के साथ खेलते, सो को नचाते, नदी में जलक्रीड़ा करते देखती ।",ऐसी अनिंद्य सुंदरी उसने स्वयं न देखी थी । "वह जंगली फूलों के गहने बना-बनाकर पदनती, श्राँखों से हँधती, द्वाव भाव, कठाज्ञ सच कुछ करती; पर पति के दृदय में प्रवेश न कर सकती थी ।",ऐसी अनिंद्य सुंदरी उसने स्वयं न देखी थी ।,"वह जंगली फूलों के गहने बना-बनाकर पहनती, आँखों से हँसती, हाव-भाव, कटाक्ष सब कुछ करती, पर पति के हृदय में प्रवेश न कर सकती थी ।" "तब बह मुँकला पढ़ती कि अगर यों जलाना था, तो योवन-दान क्‍यों दिया ?","वह जंगली फूलों के गहने बना-बनाकर पहनती, आँखों से हँसती, हाव-भाव, कटाक्ष सब कुछ करती, पर पति के हृदय में प्रवेश न कर सकती थी ।","तब वह झुँझला पड़ती कि अगर यों जलाना था, तो यौवन दान क्यों किया ?" "वह रूपविद्वीन होकर स्तरामी के चरणों में आश्रय था सकती, तो इस अनुयम सौन्दर्य को वासी हार की भाँति उतारकर फेक देती, पर कीन इसका विश्वास दिलायेगा ?","तब वह झुँझला पड़ती कि अगर यों जलाना था, तो यौवन दान क्यों किया ?","वह रूपविहीन होकर स्वामी के चरणों में आश्रय पा सकती, तो इस अनुपम सौंदर्य को बासी हार की भाँति उतारकर फेंक देती, पर कौन इसका विश्वास दिलाएगा ?" "महेन्द्र ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया--जब्र तक पूर्व-सस्कारों का आयश्चित न हो जाय, मन की भावनाएं नहीं बदल सकंती |","वह रूपविहीन होकर स्वामी के चरणों में आश्रय पा सकती, तो इस अनुपम सौंदर्य को बासी हार की भाँति उतारकर फेंक देती, पर कौन इसका विश्वास दिलाएगा ?","महेन्द्र ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया-जब तक पूर्व संस्कारों का प्रायश्चित न हो जाय, मन की भावनाएँ नहीं बदल सकतीं ।" "आह ! यह इतने कठोर ई ! इनमें क्षमा का नाम तक नही, तो क्‍या उन्‍्दंने मुझे उन संत्कारों का दश्ड देने के लिए मेरो कायाउल्म की ?","महेन्द्र ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया-जब तक पूर्व संस्कारों का प्रायश्चित न हो जाय, मन की भावनाएँ नहीं बदल सकतीं ।","आह ! यह इतने कठोर हैं ! इनमें क्षमा का नाम तक नहीं, तो क्या इन्होंने मुझे उन संस्कारों का दण्ड देने के लिए मेरा कायाकल्प किया ?" उनके हाथो यद दरढ सइना उसे स्वीकार न था ।,"आह ! यह इतने कठोर हैं ! इनमें क्षमा का नाम तक नहीं, तो क्या इन्होंने मुझे उन संस्कारों का दण्ड देने के लिए मेरा कायाकल्प किया ?",उनके हाथों यह दण्ड सहना उसे स्वीकार न था । "बह ससार की सारी विपत्ति रद सकती थी, केबल पति-प्रेम से वचित रहना उसे अमाय था ।",उनके हाथों यह दण्ड सहना उसे स्वीकार न था ।,"वह संसार की सारी विपत्ति सह सकती थी, केवल पतिप्रेम से वंचित रहना उसे असह्य था ।" महेन्द्र गुफा के वाहर एक शिला पर पढ़े हुए. ये |,"वह संसार की सारी विपत्ति सह सकती थी, केवल पतिप्रेम से वंचित रहना उसे असह्य था ।",महेन्द्र गुफा के बाहर एक शिला पर पड़े हुए थे । देवप्रिया आकर बोली--शआराप सो रहे हैं क्‍या ?,महेन्द्र गुफा के बाहर एक शिला पर पड़े हुए थे ।,देवप्रिया आकर बोली-आप सो रहे हैं क्या ? "मैं आपसे यह कहने ग्रायी हूँ कि जब आप मुमे त्याज्य सममते ईँ, तो क्यों इषपुर या कहीं और नहीं भेज देते ?",देवप्रिया आकर बोली-आप सो रहे हैं क्या ?,"मैं आपसे यह कहने आयी हूँ कि जब आप मुझे त्याज्य समझते हैं, तो क्यों हर्षपुर या कहीं और नहीं भेज देते ?" अनन्त में दस-ब्रीस या सो-पचास वर्ष का वियोग नहीं के बराबर है ।,"मैं आपसे यह कहने आयी हूँ कि जब आप मुझे त्याज्य समझते हैं, तो क्यों हर्षपुर या कहीं और नहीं भेज देते ?",अनन्त में दस-बीस या सौ-पचास वर्ष का वियोग 'नहीं' के बराबर है । मुझसे क्‍यों मागे-भागे फिरते हूँ ?,अनन्त में दस-बीस या सौ-पचास वर्ष का वियोग 'नहीं' के बराबर है ।,मुझसे क्यों भागे-भागे फिरते हैं ? "आह ! उस अनन्त प्रेम की स्मृतियाँ अ्रमी हरी हैं, जिनका आनन्द उठाने का सौमाग्य बहुत थोड़े दिनों के लिए प्रात्त हुआ था ।",मुझसे क्यों भागे-भागे फिरते हैं ?,"आह! उस अनन्त प्रेम की स्मृतियाँ अभी हरी हैं, जिसका आनन्द उठाने का सौभाग्य बहुत थोड़े ही दिनों के लिए प्राप्त हुआ था ।" "महेन्द्र की समझ में जो बात न आयी थी, वह देव- प्रिया समझे गथी |","आह! उस अनन्त प्रेम की स्मृतियाँ अभी हरी हैं, जिसका आनन्द उठाने का सौभाग्य बहुत थोड़े ही दिनों के लिए प्राप्त हुआ था ।","महेन्द्र की समझ में जो बात न आयी थी, वह देवप्रिया समझ गयी ।" स्मणी का छूदय सेवा के सूक्म परमाणुओं से बना होता है ।,"महेन्द्र की समझ में जो बात न आयी थी, वह देवप्रिया समझ गयी ।",रमणी का हृदय सेवा के सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है । विडम्बना तो यह थी कि यहाँ सेवा-क्षेत्र मं भी वह स्वाघीन न थी |,रमणी का हृदय सेवा के सूक्ष्म परमाणुओं से बना होता है ।,विडम्बना तो यह थी कि यहाँ सेवा क्षेत्र में भी वह स्वाधीन न थी । "एक दिन मद्देन्द् ने आकर कहा--प्रिये, चलो; आज तुम्हें ग्रकाश को सेर करा लाऊ ।",विडम्बना तो यह थी कि यहाँ सेवा क्षेत्र में भी वह स्वाधीन न थी ।,"एक दिन महेन्द्र ने आकर कहा--प्रिये, चलो, आज तुम्हें आकाश की सैर करा लाऊँ ।" उसभे जरा भी शोर न होता था |,"एक दिन महेन्द्र ने आकर कहा--प्रिये, चलो, आज तुम्हें आकाश की सैर करा लाऊँ ।",उसमें जरा भी शोर न होता था । गति घटे में एक एशर मील की थी ।,उसमें जरा भी शोर न होता था ।,गति घंटे में एक हजार मील की थी । उस पर ब्रेठते हो मानसिक शक्तियाँ दिव्य ओर नेत्रो की ज्योति सहृद्ल गुणी हो जाती थी |,गति घंटे में एक हजार मील की थी ।,उस पर बैठते ही मानसिक शक्तियाँ दिव्य और नेत्रों की ज्योति सहस्र गुणी हो जाती थी । "उनके मुँह से उसके गुण सुनवार उसका जी ते चाहता था कि उसमे एक वार बैठ , इसकी बढ़ी तोत्र उत्कर्ठा होती थी, पर वह संयरण कर जाती थी ।",उस पर बैठते ही मानसिक शक्तियाँ दिव्य और नेत्रों की ज्योति सहस्र गुणी हो जाती थी ।,"उनके मुँह से उसके गुण सुनकर उसका जी तो चाहता था कि उसमें एक बार बैठू, इसकी बड़ी तीव्र उत्कंठा होती थी, पर वह संवरण कर जाती थी ।" "श्राज यह प्रस्ताव करने पर भी उसने श्रपनी उत्सुकता को दचाते हुए बष् आप जाइए, आकाश की सेर कोजिए, में अपनी कुट्या में ही मगन है ।","उनके मुँह से उसके गुण सुनकर उसका जी तो चाहता था कि उसमें एक बार बैठू, इसकी बड़ी तीव्र उत्कंठा होती थी, पर वह संवरण कर जाती थी ।","आज यह प्रस्ताव करने पर भी उसने अपनी उत्सुकता को दबाते हुए कहा-आप जाइए, आकाश की सैर कीजिए, मैं अपनी कुटिया में ही मगन हूँ ।" "आकाश, पर्बत श्रार उनपर विहार फरने वाले पक्षी और पशु सोने में रंगे थे |","आज यह प्रस्ताव करने पर भी उसने अपनी उत्सुकता को दबाते हुए कहा-आप जाइए, आकाश की सैर कीजिए, मैं अपनी कुटिया में ही मगन हूँ ।","आकाश, पर्वत और उन पर विहार करने वाले पक्षी और पशु सोने में रंगे थे ।" विश्व स्वण-मय हो रहा था |,"आकाश, पर्वत और उन पर विहार करने वाले पक्षी और पशु सोने में रंगे थे ।",विश्व स्वर्णमय हो रहा था । एशथ्वी विश्राम वरने जा रही थी |,विश्व स्वर्णमय हो रहा था ।,पृथ्वी विश्राम करने जा रही थी । "याद है, तमने पहले जो गीत गाया था, वही गीत श्राज फिर गाओ |",""" सहसा देवप्रिया को एक जापानी नौका डूबती हुई दिखाई दी ।","याद है, तुमने पहले जो गीत गाया था, वही गीत आज फिर गाओ ।" "देखो, तारागण कान लगाये बैठे है ।","याद है, तुमने पहले जो गीत गाया था, वही गीत आज फिर गाओ ।","देखो, तारागण तान लगाए बैठे हैं ।" "उसे ऐसा भापित हुआ कि वह स्वामी का अन्तिम आदेश है, मैं इन कानों से स्वामी की वाते फिर न सुनें गी ।","देखो, तारागण तान लगाए बैठे हैं ।","उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह स्वामी का अन्तिम आदेश है, मैं इन कानों से स्वामी की बातें फिर न सुनूँगी ।" आह ! वियोग-व्यथा से पीड़ित यह दुदय स्वर उनझे ग्रन्तस्तल पर शर जैसी चोर्दे करने लगा ।,"उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह स्वामी का अन्तिम आदेश है, मैं इन कानों से स्वामी की बातें फिर न सुनूँगी ।",आह ! वियोग-व्यथा से पीड़ित यह हृदय स्वर उनके अन्तस्तल पर शर जैसी चोटें करने लगा । "उसने देखा, महेन्द्र के कामप्रटीतत अधर उसके सुख के पःस आ गये हैं ओर उनके दोनों दाथ उसमे आलिगित दोने फे लिए खुल हुए हूँ ।",आह ! वियोग-व्यथा से पीड़ित यह हृदय स्वर उनके अन्तस्तल पर शर जैसी चोटें करने लगा ।,"उसने देखा, महेन्द्र के कामप्रदीप्त अधर उसके मुख के पास आ गये हैं और उनके दोनों हाथ, उससे आलिंगित होने के लिए खुले हुए हैं ।" बात कुछ न थी; लेकिन अहल्या ने कुछ और है आशय समम्का ।,"उसने देखा, महेन्द्र के कामप्रदीप्त अधर उसके मुख के पास आ गये हैं और उनके दोनों हाथ, उससे आलिंगित होने के लिए खुले हुए हैं ।","बात कुछ न थी, लेकिन अहिल्या ने कुछ और ही आशय समझा ।" तुप्र रात को यहाँ थे ही नहीं ।,"बात कुछ न थी, लेकिन अहिल्या ने कुछ और ही आशय समझा ।",तुम रात को यहाँ थे ही नहीं । "मालूम होता है, त॒म्हें भो पैर सपाठे की सूफने लगी ।",तुम रात को यहाँ थे ही नहीं ।,"मालूम होता है, तुम्हें भी सैर-सपाटे की सूझने लगी ।" तुम पॉच बजे उठकर घर का घन्धा करने लगती थीं |,"मालूम होता है, तुम्हें भी सैर-सपाटे की सूझने लगी ।",तुम पाँच बजे उठकर घर का धन्धा करने लगती थीं । श्रव उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्‍या है ?,तुम पाँच बजे उठकर घर का धन्धा करने लगती थीं ।,अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है ? खत॒राल की रोटियाँ बहुत खा चुका ।,अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है ?,ससुराल की रोटियाँ बहुत खा चुका । उतका कसर केवल यद्द था कि वह मेरे साथ शाने पर राणी न होता था ।,ससुराल की रोटियाँ बहुत खा चुका ।,उसका कसूर केवल यह था कि वह मेरे साथ आने पर राजी न होता था । में ही यहाँ दिव-मर लौडियों पर भज्लाती रहती हूँ; मगर मुझे तो कमी यह खयाल ही नहीं श्राया कि घर छोड़कर भाग जाऊ ।,उसका कसूर केवल यह था कि वह मेरे साथ आने पर राजी न होता था ।,"मैं ही यहाँ दिन भर लौंडियों पर झल्लाती रहती हूँ, मगर मुझे तो कभी यह खयाल ही नहीं आया कि घर छोड़कर भाग जाऊँ ।" इसके सित्रा उन्हें गला छुड़ाने का कोई उपाय ही न सकता था |,"मैं ही यहाँ दिन भर लौंडियों पर झल्लाती रहती हूँ, मगर मुझे तो कभी यह खयाल ही नहीं आया कि घर छोड़कर भाग जाऊँ ।",इसके सिवा उन्हें गला छुड़ाने का कोई उपाय ही न सूझता था । यह भीषण परिणाम था कि आज उनको अपनी स्री और पुत्र दोनों से हाथ घोना पड़ता था ।,इसके सिवा उन्हें गला छुड़ाने का कोई उपाय ही न सूझता था ।,उसी का यह भीषण परिणाम था कि आज उनको अपनी स्त्री और पुत्र दोनों से हाथ धोना पड़ता था । रानी श्रम्माँ को छोड़कर किसी के साथ न जायगा ।,उसी का यह भीषण परिणाम था कि आज उनको अपनी स्त्री और पुत्र दोनों से हाथ धोना पड़ता था ।,रानी अम्माँ को छोड़कर किसी के साथ न जायगा । शंखघर ने अपनी बात का अनुमोदन किया--अ्रम्मोँ लानी ।,रानी अम्माँ को छोड़कर किसी के साथ न जायगा ।,शंखधर ने अपनी बात का अनुमोदन किया-अम्माँ लानी । "चक्रधर ने गम्मीर माव से कद्दा--यह तो होना ही नहीं था, मनोरमा रानी |",शंखधर ने अपनी बात का अनुमोदन किया-अम्माँ लानी ।,"चक्रधर ने गम्भीर भाव से कहा--यह तो होना ही नहीं था, मनोरमा रानी ।" "मनोरमा--वारते न बनाश्रो, बाबूजी; ठुम मुझे हमेशा घोखा देते श्राये हो और अब भी वही नीति निभा रद्दे हो ! सच कहती हूँ, मुझे भी लेते चलिए ।","चक्रधर ने गम्भीर भाव से कहा--यह तो होना ही नहीं था, मनोरमा रानी ।","मनोरमा--बातें न बनाओ, बाबूजी! तुम मुझे हमेशा धोखा देते आये हो और अब भी वही नीति निभा रहे हो! सच कहती हूँ, मुझे भी लेते चलिए ।" मतोरमा--तो आपने मुझे श्रव भी नहीं समझा ।,"मनोरमा--बातें न बनाओ, बाबूजी! तुम मुझे हमेशा धोखा देते आये हो और अब भी वही नीति निभा रहे हो! सच कहती हूँ, मुझे भी लेते चलिए ।","मनोरमा--तो आपने, मुझे अब भी नहीं समझा ।" "ईश्वर को साक्षी देकर कदती हूँ, में कमी भोग-विलास में लिम्त न हुईं यी ।","मनोरमा--तो आपने, मुझे अब भी नहीं समझा ।","ईश्वर को साक्षी देकर कहती हैं, मैं कभी भोग-विलास में लिप्त न हुई थी ।" अदल्वादेवी ने तप किया है ।,"ईश्वर को साक्षी देकर कहती हैं, मैं कभी भोग-विलास में लिप्त न हुई थी ।",अहिल्या देवी ने तप किया है । "इमने उन्हें कामिनी, रमणी, छुन्दरी आदि विल्लाउ चूचक नाम दे-देकर वाल्तव में उन्हें वीरता, त्याग और उत्सर्ग से शत्य कर दिया दे ।",अहिल्या देवी ने तप किया है ।,"हमने उन्हें कामिनी, रमणी, सुन्दरी आदि विलास-सूचक नाम दे-देकर वास्तव में उन्हें वीरता, त्याग और उत्सर्ग से शून्य कर दिया है ।" "मनोर्मा ने मुस्कराते हुए कह्--होँ, उस वक्त अ्रदल्यादेवी सोती भी होगी |","हमने उन्हें कामिनी, रमणी, सुन्दरी आदि विलास-सूचक नाम दे-देकर वास्तव में उन्हें वीरता, त्याग और उत्सर्ग से शून्य कर दिया है ।","मनोरमा ने मुस्कराते हुए कहा--हाँ, उस वक्त अहिल्या देवी सोती भी होंगी ।" "सोचने लगे, जरा शद्दर चलकर अम्मॉजी से मिलता आऊँ, मगर डरे कि कहीं अम्माँ शिकायतों का दफ्तर न खोल दे |","मनोरमा ने मुस्कराते हुए कहा--हाँ, उस वक्त अहिल्या देवी सोती भी होंगी ।","सोचने लगे, जरा शहर चलकर अम्माँजी से मिलता जाऊँ, मगर डरे कि कहीं अम्माँ शिकायतों का दफ्तर न खोल दें ।" "पहले कहीं बाहर जाने में जो उत्साद दोता था, उसका श्रव नाम भी न था |","सोचने लगे, जरा शहर चलकर अम्माँजी से मिलता जाऊँ, मगर डरे कि कहीं अम्माँ शिकायतों का दफ्तर न खोल दें ।","पहले कहीं बाहर जाने में जो उत्साह होता था, उसका अब नाम भी न था ।" "अगर उन्होंने मेरे गले में फन्‍दा न डाला होता, तो आज मुझे क्‍यों यह विपत्ति केलनो पढ़ती ?","पहले कहीं बाहर जाने में जो उत्साह होता था, उसका अब नाम भी न था ।","अगर उन्होंने मेरे गले में फन्दा न डाला होता, तो आज मुझे क्यों हर विपत्ति झेलनी पड़ती ?" विधाता को भेरे ही साथ यह क्रीड़ा करनी थी ! सन्ध्या-समय वह्द राजा साहब से पूछने गये ।,"अगर उन्होंने मेरे गले में फन्दा न डाला होता, तो आज मुझे क्यों हर विपत्ति झेलनी पड़ती ?",विधाता को मेरे ही साथ यह क्रीड़ा करनी थी! संध्या समय वह राजा साहब से पूछने गये । "राजा साइब ने आँखों में आस भर कर फेहा--बावूजी, आप घुन के पक्के आदमी हैँ, मेरी बात आप क्‍यों मानने लगे, ४ मैं इतना कहता हूँ कि अहल्या रो-रोकर प्राण दे देगी और अ्पको बहुत जल्द लाटकर आना पडेगा ।",विधाता को मेरे ही साथ यह क्रीड़ा करनी थी! संध्या समय वह राजा साहब से पूछने गये ।,"राजा साहब ने आँखों में आँसू भरकर कहा-बाबूजी, आप धुन के पक्के आदमी हैं, मेरी बात आप क्यों मानने लगे, मगर मैं इतना कहता हूँ कि अहिल्या रो-रोकर प्राण दे देगी और आपको बहुत जल्द लौटकर आना पड़ेगा ।" आखिर शआरपको यहाँ क्‍या कष्ट है ?,"राजा साहब ने आँखों में आँसू भरकर कहा-बाबूजी, आप धुन के पक्के आदमी हैं, मेरी बात आप क्यों मानने लगे, मगर मैं इतना कहता हूँ कि अहिल्या रो-रोकर प्राण दे देगी और आपको बहुत जल्द लौटकर आना पड़ेगा ।",आखिर आपको यहाँ क्या कष्ट है ? कुछ भुँफला- कर बोले--इसी से तो में जाना चाहता हूँ कि यहों म॒ुके कोई वाष्ट नहीं है ।,आखिर आपको यहाँ क्या कष्ट है ?,कुछ झुँझलाकर बोले-इसी से तो मैं जाना चाहता हूँ कि यहाँ मुझे कोई कष्ट नहीं है । "यह लो, चह तलवार लिये दौड़ा भी था रहा है ?",कुछ झुँझलाकर बोले-इसी से तो मैं जाना चाहता हूँ कि यहाँ मुझे कोई कष्ट नहीं है ।,"यह लो, वह तलवार लिए दौड़ा भी आ रहा है ।" "राजा--क्यों भाई, मेने ठुम्हारा क्या त्रिगाड़ा है ?","यह लो, वह तलवार लिए दौड़ा भी आ रहा है ।","राजा--क्यों भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?" शंसधर--चली देल छे लोती हूं ।,"राजा--क्यों भाई, मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ?",शंखधर--बली देल से लोती हैं । "श्रन्दर जाकर देखा, तो मनोरमा सचमुच रो रही थी ।",शंखधर--बली देल से लोती हैं ।,"अन्दर जाकर देखा, तो मनोरमा सचमुच रो रही थी ।" कमल पुष्प में झोस की बँदें ऋलक रही थी ।,"अन्दर जाकर देखा, तो मनोरमा सचमुच रो रही थी ।",कमल पुष्प में ओस की बूँदें झलक रही थीं । शखधर उन्हें खींच लावेगा ।,कमल पुष्प में ओस की बूँदें झलक रही थीं ।,शंखधर उन्हें खींच लाएगा । "जब अकेले दी जाना है, तो क्यों यह सब कमट करूँ ?",शंखधर उन्हें खींच लाएगा ।,"जब अकेले ही जाना है, तो क्यों यह सब झंझट करूँ ?" "कुल इतना ही सामान या, जिसे एक आदमी श्रासानी से हाय में लटकाये लिये जा सकता था ।","जब अकेले ही जाना है, तो क्यों यह सब झंझट करूँ ?","कुल इतना ही सामान था, जिसे एक आदमी आसानी से हाथ में लटकाए लिए जा सकता था ।" "उसे सम्पत्ति प्यारी है, तो सम्पत्ति लेकर रहे |","कुल इतना ही सामान था, जिसे एक आदमी आसानी से हाथ में लटकाए लिए जा सकता था ।","उसे सम्पत्ति प्यारी है, तो सम्पत्ति लेकर रहे ।" "जी में मनाती होगी, किसी तरह यहाँ से व्ल जायें ।","उसे सम्पत्ति प्यारी है, तो सम्पत्ति लेकर रहे ।","जी में मनाती होगी, किसी तरह यहाँ से टल जायें ।" यात्रा की तैयारी कके ओर अपने मन को श्रच्छी तरह सममकाकर चक्रधर ने सन्देह्द को दूर करने के लिए अपने शयनागार में विभाम किया ।,"जी में मनाती होगी, किसी तरह यहाँ से टल जायें ।",यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर ने सन्देह को दूर करने के लिए अपने शयनागार में विश्राम किया । "वह चाहते थे कि यह सो जाय, तो मैं चुपके से श्रपना वकुचा उठाऊ और लम्बा हो जाऊँ, मयर निद्रा-विलासिनी अहल्या की आँखों से श्राज नींद कोसों दूर थो ।",यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर ने सन्देह को दूर करने के लिए अपने शयनागार में विश्राम किया ।,"वह चाहते थे कि यह सो जाय, तो मैं चुपके से अपना बकुचा उठाऊँ और लम्बा हो जाऊँ, मगर निद्राविलासिनी अहिल्या की आँखों से आज नींद कोसों दूर थी ।" आज वह न-जाने क्‍यों इतनो सावधान हो गयी थी |,"वह चाहते थे कि यह सो जाय, तो मैं चुपके से अपना बकुचा उठाऊँ और लम्बा हो जाऊँ, मगर निद्राविलासिनी अहिल्या की आँखों से आज नींद कोसों दूर थी ।",आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गयी थी । इधर कुछ दिनों से अद्दल्या को विज्ञास-प्रमौद में मन्न देखकर चक्रधर समझने लगे थे कि इसका प्रेम अब शिविल ऐो गया है ।,आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गयी थी ।,इधर कुछ दिनों से अहिल्या को विलास-प्रमोद में मग्न देखकर चक्रधर समझने लगे कि इसका प्रेम अब शिथिल हो गया है । "चक्रधर के मन में एक बार यह शआवेश उठा कि श्रइल्या को जगा दें और उसे गले लगाकर कहें--प्रिये ! मुझे प्सत्त मन से ब्रिदा करो, में चहुत जल्द-जल्द श्राया करूँगा ।",इधर कुछ दिनों से अहिल्या को विलास-प्रमोद में मग्न देखकर चक्रधर समझने लगे कि इसका प्रेम अब शिथिल हो गया है ।,"चक्रधर के मन में एक बार यह आवेश उठा कि अहिल्या को जगा दें और उसे गले लगाकर कहें-प्रिये ! मुझे प्रसन्न मन से विदा करो, मैं बहुत जल्द-जल्द आया करूँगा ।" "इस तरद चोरो की भाँत जाते हुए, उन्हें श्रसीम मर्म-धदना हो रददी थी; कितु जिस भाँति किसी बूढ़े आदमी को फिसलकर गिरते देख इम अपनी हंसी के वेग को रोकते हैं, उसी भाँति उन्होने मन को इस दुर्बलता फो दबा दिया ओर आदिस्ता से कफिवाड़ खोला ।","चक्रधर के मन में एक बार यह आवेश उठा कि अहिल्या को जगा दें और उसे गले लगाकर कहें-प्रिये ! मुझे प्रसन्न मन से विदा करो, मैं बहुत जल्द-जल्द आया करूँगा ।","इस तरह चोरों की भांति जाते हुए उन्हें असीम मर्मवेदना हो रही थी, किंतु जिस भाँति किसी बूढ़े आदमी को फिसलकर गिरते देख, हम अपनी हँसी के वेग को रोकते हैं, उसी भाँति उन्होंने मन की इस दुर्बलता को दबा दिया और आहिस्ता से किवाड़ खोला ।" मगर अक्ृति को गुप्त व्यापार से कुछ बैर है |,"इस तरह चोरों की भांति जाते हुए उन्हें असीम मर्मवेदना हो रही थी, किंतु जिस भाँति किसी बूढ़े आदमी को फिसलकर गिरते देख, हम अपनी हँसी के वेग को रोकते हैं, उसी भाँति उन्होंने मन की इस दुर्बलता को दबा दिया और आहिस्ता से किवाड़ खोला ।",मगर प्रकृति को गुप्त व्यापार से कुछ बैर है । "कियाड़ को उन्होंने ऊच् रिश्वत तो दी नहों थी, जो वह श्पनी जयान बन्द करता, खुला; पर प्रतिरोध की एक दवी हुईं नि के साथ ।",मगर प्रकृति को गुप्त व्यापार से कुछ बैर है ।,"किवाड़ को उन्होंने कुछ रिश्वत तो दी नहीं थी, जो वह अपनी जबान बन्द करता, खुला, पर प्रतिरोध की एक दबी हुई ध्वनि के साथ ।" अहल्या--में सोई कब्र थी ! म॑ जानती थी कि तुम आज जाओगे ।,"किवाड़ को उन्होंने कुछ रिश्वत तो दी नहीं थी, जो वह अपनी जबान बन्द करता, खुला, पर प्रतिरोध की एक दबी हुई ध्वनि के साथ ।",अहिल्या--मैं सोयी कब थी ! मैं जानती थी कि तुम आज जाओगे । ठुम्दारा चेहरा कह्दे देता था कि तुमने आज मुझे छुलने का इरादा कर लिया है; मगर मे कह्दे देती हूँ कि में ठुम्दारा साथ न छोड़ेंगी ।,अहिल्या--मैं सोयी कब थी ! मैं जानती थी कि तुम आज जाओगे ।,"तुम्हारा चेहरा कहे देता था कि तुमने आज मुझे छलने का इरादा कर लिया है, मगर मैं कहे देती हूँ कि मैं तुम्हारा साथ न छोडूँगी ।" ") चक्रधर ने लाज्जत होकर कहा--व॒म्हें मेरे साथ चहुत कए्ट होगा, अद्दल्या ! मुमे प्रसन्नचित्त जाने दो |","तुम्हारा चेहरा कहे देता था कि तुमने आज मुझे छलने का इरादा कर लिया है, मगर मैं कहे देती हूँ कि मैं तुम्हारा साथ न छोडूँगी ।","चक्रधर ने लज्जित होकर कहा--तुम्हें मेरे साथ बहुत कष्ट होगा, अहिल्या ! मुझे प्रसन्नचित्त जाने दो ।" अनाथिनी क्‍या पान-फ़्ल से पृज्ी जाती है ?,"चक्रधर ने लज्जित होकर कहा--तुम्हें मेरे साथ बहुत कष्ट होगा, अहिल्या ! मुझे प्रसन्नचित्त जाने दो ।",अनाथिनी क्या पान-फूल से पूजी जाती है ? में विलास को चेरी नही हूँ ।,अनाथिनी क्या पान-फूल से पूजी जाती है ?,मैं विलास की चेरी नहीं हूँ । "चक्रधर--साराश यह कि तुम मुझे न जाने दोगी ! हे अहल्या--हाँ, तो मुझे छोड़कर तो तुम नहीं जा सकते, ओर न मैं द्दी लल्लू को छोड़ सकती हूँ |",मैं विलास की चेरी नहीं हूँ ।,"चक्रधर--सारांश यह है कि तुम मुझे न जाने दोगी ! अहिल्या--हाँ, मुझे छोड़कर तुम नहीं जा सकते, और न मैं ही लल्लू को छोड़ सकती हूँ ।" वह श्रपने मन की दो-चार बात चक्रघर से कहना चाहती थी ।,"चक्रधर--सारांश यह है कि तुम मुझे न जाने दोगी ! अहिल्या--हाँ, मुझे छोड़कर तुम नहीं जा सकते, और न मैं ही लल्लू को छोड़ सकती हूँ ।",वह अपने मन की दो-चार बातें चक्रधर से कहना चाहती थी । यह बोल- चाल सुनकर नीचे उतर आयी ।,वह अपने मन की दो-चार बातें चक्रधर से कहना चाहती थी ।,यह बोलचाल सुनकर नीचे उतर आयी । अहल्या के अन्तिम शब्द उसके कानो में पड़ गये ।,यह बोलचाल सुनकर नीचे उतर आयी ।,अहिल्या के अन्तिम शब्द उसके कानों में पड़ गये । "वर यह भी जानती थी कि चक्रधर दिसी तरह रक्नेवाले नहीं, अब यह दशा उनके लिए गस्छय दो गयी ८ ।",अहिल्या के अन्तिम शब्द उसके कानों में पड़ गये ।,"वह यह भी जानती थी कि चक्रधर किसी तरह रुकने वाले नहीं, अब यह दशा उनके लिए असह्य हो गयी है ।" यह उनके दोपक से अपना घर न उन्नाला करेगी |,"वह यह भी जानती थी कि चक्रधर किसी तरह रुकने वाले नहीं, अब यह दशा उनके लिए असह्य हो गयी है ।",यह उनके दीपक से अपना घर न उजाला करेगी । चद्रभर ने गदगद कझठ ने कहा - वह भला आपको छोड़कर येरे साथ क्‍यों जाने लगा ?,यह उनके दीपक से अपना घर न उजाला करेगी ।,"चक्रधर ने गद्गद कण्ठ से कहा-वह भला आपको छोड़, मेरे साथ क्यों जाने लगा ?" पति को रोकने का उम्रके पास यही एक बढ़ाना था |,"चक्रधर ने गद्गद कण्ठ से कहा-वह भला आपको छोड़, मेरे साथ क्यों जाने लगा ?",पति को रोकने का उसके पास यही एक बहाना था । क्या हमारी श्ाँखों मे घूल डालने के लिए ही सारा स्पाॉग रचा था ?,पति को रोकने का उसके पास यही एक बहाना था ।,क्या हमारी आँखों में धूल डालने के लिए ही सारा स्वाँग रचा था ? चक्रघर को ऐसी बातें सुनने का वह पहला श्रवसर था |,क्या हमारी आँखों में धूल डालने के लिए ही सारा स्वाँग रचा था ?,चक्रधर को ऐसी बातें सुनने का यह पहला अवसर था । वह मनोरमा की श्रोर ताक भी न सके |,चक्रधर को ऐसी बातें सुनने का यह पहला अवसर था ।,वह मनोरमा की ओर ताक भी न सके । "जिस दिन तुम्हें मालूम हुश्रा कि श्रदल्या राजा को पुत्री है, क्यों न उसी दिन यहाँ से मुँह में कालिख लगाकर चले गये ?",वह मनोरमा की ओर ताक भी न सके ।,"जिस दिन तुम्हें मालूम हुआ कि अहिल्या राजा की पुत्री है, क्यों न उसी दिन यहाँ से मुँह में कालिख लगाकर चले गये ?" "इस विचार से क्यों अपनी आव्मा फो धोखा देते रहते रहे कि जब मैं जाने लगूँगा, श्रदलया अवश्य साथ चलेगी ?","जिस दिन तुम्हें मालूम हुआ कि अहिल्या राजा की पुत्री है, क्यों न उसी दिन यहाँ से मुँह में कालिख लगाकर चले गये ?","इस विचार से क्यों अपनी आत्मा को धोखा देते रहे कि जब मैं जाने लगूँगा, अहिल्या अवश्य साथ चलेगी ?" "मनोरमा अभी सिर क्ुफाये खड़ी ही थी कि चक्रपर चुपके से बाहर के कमरे मे आये, अपना हेंडबेग उठाया और बाहर निकले ।","इस विचार से क्यों अपनी आत्मा को धोखा देते रहे कि जब मैं जाने लगूँगा, अहिल्या अवश्य साथ चलेगी ?","मनोरमा अभी सिर झुकाए खड़ी ही थी कि चक्रधर चुपके से बाहर के कमरे में आये, अपना हैंडबैग उठाया और बाहर निकले ।" ञ्सख्य खिड़कियों ओ्रोर दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखायी दे रहा था ।,"मनोरमा अभी सिर झुकाए खड़ी ही थी कि चक्रधर चुपके से बाहर के कमरे में आये, अपना हैंडबैग उठाया और बाहर निकले ।",असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था । ठुम्हारे लिए कोई दा बूँद आँसू भी न बहायेगा ।,असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था ।,तुम्हारे लिए कोई दो बूँद आँसू भी न बहाएगा । "अ्रमी चक्रघर सोच ही रहे थे कि किधर जाऊ, सहसा उन्हें राजद्वार से दोन्तीन आदमी लालटेन लिये निकलते दिखायी दिये |",तुम्हारे लिए कोई दो बूँद आँसू भी न बहाएगा ।,"अभी चक्रधर सोच ही रहे थे कि किधर जाऊँ,सहसा उन्हें राजद्वार से दो-तीन आदमी लालटेन लिए निकलते दिखाई दिए ।" "उनके दी में एक बार प्रतल इच्छा हुई कि उसके चरणों पर गिरकर कद्दे--देवी, में तुम्दारी कृषओं के योग्य नहीं हूँ |","अभी चक्रधर सोच ही रहे थे कि किधर जाऊँ,सहसा उन्हें राजद्वार से दो-तीन आदमी लालटेन लिए निकलते दिखाई दिए ।","उनके मी में एक बार प्रबल इच्छा हुई कि उसके चरणों पर गिर कर कहे-देवी, मैं तुम्हारी कृपाओं के योग्य नहीं हूँ ।" चक्रधर एक इतक्ष की आड में छिप गये ।,"उनके मी में एक बार प्रबल इच्छा हुई कि उसके चरणों पर गिर कर कहे-देवी, मैं तुम्हारी कृपाओं के योग्य नहीं हूँ ।",चक्रधर एक वृक्ष की आड़ में छिप गये । दोनों तरफ ऊे रास्ते बन्द ये ।,चक्रधर एक वृक्ष की आड़ में छिप गये ।,दोनों तरफ के रास्ते बन्द थे । रेलवे स्टेशन पर जाकर उनको रोकना चाहिए ।,दोनों तरफ के रास्ते बन्द थे ।,रेलवे स्टेशन पर जाकर रोकना चाहिए । वह दिन निकलने के पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर उन्हें कोई पा व सके |,रेलवे स्टेशन पर जाकर रोकना चाहिए ।,वह दिन निकलने से पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर कोई उन्हें पा न सके । "इसने पहचान लिया, तो म्रश्किल पढ़ेगी |",वह दिन निकलने से पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर कोई उन्हें पा न सके ।,इसने पहचान लिया तो मुश्किल पड़ेगी । बाबूजो के हाथ में कोई डएडा भी तो न था ।,इसने पहचान लिया तो मुश्किल पड़ेगी ।,बाबूजी के हाथ कोई डण्डा भी तो न था । दो-चार घूँसे मारे दंगे ओर क्या ?,बाबूजी के हाथ कोई डण्डा भी तो न था ।,दो-चार घूसे मारे होंगे और क्या ? ठाँव-कुठाव को बात है ।,दो-चार घूसे मारे होंगे और क्या ?,ठाँव-कुठांव की बात है । उत्त दिन न-जाने उनके सिर केसे क्रोष का भूत सवार दो गया था |,ठाँव-कुठांव की बात है ।,उस दिन न जाने उनके सिर कैसे क्रोध का भूत सवार हो गया था । "तब राण, ठाऊर तो नहीं थे ।",उस दिन न जाने उनके सिर कैसे क्रोध का भूत सवार हो गया था ।,तब राजा ठाकुर तो नहीं थे । "मैं तो बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन उनपर इत्तना क्रोष श्रा रहा है कि मिल जायें, तो खून चूस लू ।",तब राजा ठाकुर तो नहीं थे ।,"मैं तो बूढा हो गया हूँ, लेकिन उन पर इतना क्रोध आ रहा है कि मिल जायें, तो खून चूस लूँ ।" "वह आगे बढे, लेकिन उनका मार्ग अपर अ्रनिश्चित न था, उनके रास्ते में अरब श्रन्धकार न था, वह किसी लक्ष्यद्ीन पथिक की भाँति इघर- उघर भटकते न थे |","मैं तो बूढा हो गया हूँ, लेकिन उन पर इतना क्रोध आ रहा है कि मिल जायें, तो खून चूस लूँ ।","वह आगे बढ़े, लेकिन उनका मार्ग अब अनिश्चित न था, उनके रास्ते में अब अन्धकार न था, वह किसी लक्ष्यहीन पथिक की भाँति इधर-उधर भटकते न थे ।" सहसा उन्होंने देखा कि पूर्व दिशा पा से आ्आच्छुन्न होती चली जातो है ।,"वह आगे बढ़े, लेकिन उनका मार्ग अब अनिश्चित न था, उनके रास्ते में अब अन्धकार न था, वह किसी लक्ष्यहीन पथिक की भाँति इधर-उधर भटकते न थे ।",सहसा उन्होंने देखा कि पूर्व दिशा प्रकाश से आच्छन्न होती चली जाती है । "तुमने उनको क्यों जाने दिया, श्रम्मॉजी ?",सहसा उन्होंने देखा कि पूर्व दिशा प्रकाश से आच्छन्न होती चली जाती है ।,"तुमने उनको क्यों जाने दिया, अम्माँजी ?" "रानी प्रम्मों कहती हैं, वह आदमी नहीं, देवता हू ।","तुमने उनको क्यों जाने दिया, अम्माँजी ?","रानी अम्माँ कहती हैं, वह आदमी नहीं, देवता हैं ।" झहल्या फ्रे पांस इन प्रश्मों का उत्तर रोने के ठिवा और कुछ नहीं है ।,"रानी अम्माँ कहती हैं, वह आदमी नहीं, देवता हैं ।",अहिल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवा और कुछ नहीं है । वह रोज श्रपनी दादी के पास जाता है शरीर वहाँ उनकी गोद में बैठा हुआ घण्टों उनकी बातें सुना करता हैं ।,अहिल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवा और कुछ नहीं है ।,वह रोज अपनी शादी के पास जाता है और वहाँ उनकी गोद में बैठा हुआ घण्टों उनकी बातें सुना करता है । भोला- भाला गरीब लड़का इस विलापिनी के पजे में फैंचफ़र कही का न रहा |,वह रोज अपनी शादी के पास जाता है और वहाँ उनकी गोद में बैठा हुआ घण्टों उनकी बातें सुना करता है ।,भोला-भाला गरीब लड़का इस विलासिनी के पंजे में फँसकर कहीं का न रहा । मुशीजी को श्रव रियासत से एक हजार रुपए महीना वससीका मिला है ।,भोला-भाला गरीब लड़का इस विलासिनी के पंजे में फँसकर कहीं का न रहा ।,मुंशीजी को अब रियासत से एक हजार रुपए महीना वजीफा मिलता है । "शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बड़ी, बल्कि और घट गयी ६; लेकिन सगीत प्रेम बहुत बंद गया है ।",मुंशीजी को अब रियासत से एक हजार रुपए महीना वजीफा मिलता है ।,"शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी, बल्कि और घट गयी है, लेकिन संगीत-प्रेम बहुत बढ़ गया है ।" मुहल्ले में श्रव कोई गरीब नहीं रहा ।,"शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी, बल्कि और घट गयी है, लेकिन संगीत-प्रेम बहुत बढ़ गया है ।",मुहल्ले में अब कोई गरीब नहीं रहा । मुंशीजी ने सवको कुछ न-ऊछ महीना बाघ दिया हैं ।,मुहल्ले में अब कोई गरीब नहीं रहा ।,मुंशीजी ने सबको कुछ-न-कुछ महीना बाँध दिया है । उनके हाथ में पैसा कभी नहीं टिका ।,मुंशीजी ने सबको कुछ-न-कुछ महीना बाँध दिया है ।,उनके हाथ में पैसा नहीं टिका । वह एसजिए देते हूँ कि उनकी यद आदत है ।,उनके हाथ में पैसा नहीं टिका ।,वह इसलिए देते हैं कि उनकी यह आदत है । गुरुसेवकसिंह उसके साथ ये ।,वह इसलिए देते हैं कि उनकी यह आदत है ।,गुरुसेवक सिंह उनके साथ थे । "शझ्भुघर-- दादीजी, तुम्हारी क्या मनोकामना है ?",गुरुसेवक सिंह उनके साथ थे ।,"शंखधर--दादीजी, तुम्हारी क्या मनोकामना है ?" "अदल्या इधर-उघर देखने लगी, कहों चला गया |","शंखधर--दादीजी, तुम्हारी क्या मनोकामना है ?","अहिल्या इधर-उधर देखने लगी, कहाँ चला गया ।" दोनों रमणियाँ घत्ररायीं कि स्नान करके कहाँ चला गया' ।,"अहिल्या इधर-उधर देखने लगी, कहाँ चला गया ।",दोनों रमणियाँ घबराईं कि स्नान करके कहाँ चला गया । दोनों पहिलाएँ आड़ से मिकल कर उसके सामने खड़ी हो गयीं ।,दोनों रमणियाँ घबराईं कि स्नान करके कहाँ चला गया ।,दोनों महिलाएँ आड़ से निकलकर उसके सामने खड़ी हो गयीं । ऐसे हो घूमता या ।,दोनों महिलाएँ आड़ से निकलकर उसके सामने खड़ी हो गयीं ।,ऐसे ही घूमता था । सरल चालक की यह पितृ-मक्ति श्रौर भद्धा देखकर दोनों मदिलाएं रोने लगीं ।,ऐसे ही घूमता था ।,सरल बालक की यह पितृभक्ति और श्रद्धा देखकर दोनों महिलाएँ रोने लगीं । गुदसेवकर्तिद ही के कारण उसके मन में यह धर्मोत्ताह हुआ था ।,सरल बालक की यह पितृभक्ति और श्रद्धा देखकर दोनों महिलाएँ रोने लगीं ।,गुरुसेवक सिंह ही के कारण उसके मन में यह धर्मोत्साह हुआ था । "पतिसेवा का वह अ्रमर तिद्धान्त, जो चालोस साल की अवस्था ऊे बाद भोजन की योजना ही पर विशेष श्राग्रह करता है, सदैव उसकी श्राँखों के सामने रहता था |",गुरुसेवक सिंह ही के कारण उसके मन में यह धर्मोत्साह हुआ था ।,"पति-सेवा का वह अमर सिद्धान्त, जो चालीस साल की अवस्था के बाद भोजन की योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उसकी आँखों के सामने रहता था ।" "वह कहा करती थी घोड़े और मद कभी बूढे नहीं ्ोते, केवल उन्हें रातित्र मिलना चारिए ।","पति-सेवा का वह अमर सिद्धान्त, जो चालीस साल की अवस्था के बाद भोजन की योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उसकी आँखों के सामने रहता था ।","वह कहा करती थी, घोड़े और मर्द कभी बूढ़े नहीं होते, केवल उन्हें रातिब मिलना चाहिए ।" "लिखते हैं, तुमने मेरी जिन्दगी चायट कर दी |","वह कहा करती थी, घोड़े और मर्द कभी बूढ़े नहीं होते, केवल उन्हें रातिब मिलना चाहिए ।","लिखते हैं, तुमने मेरी जिंदगी चौपट कर दी ।" भरा लोक झोर परलोक दोनो बिगाड़ दिया ।,"लिखते हैं, तुमने मेरी जिंदगी चौपट कर दी ।",मेरा लोक और परलोक दोनों बिगाड़ दिया । दीवान साहब को पाचन शक्ति अच्छी हो गयी हो; पर विचार शक्ति तो जदर त्तीण हो गयी थी ।,मेरा लोक और परलोक दोनों बिगाड़ दिया ।,"दीवान साहब की पाचन-शक्ति अच्छी हो गयी हो, पर विचार-शक्ति तो जरूर क्षीण हो गयी थी ।" निश्चय करने की अत्र उनमे सामर्थ्य हो न थी ।,"दीवान साहब की पाचन-शक्ति अच्छी हो गयी हो, पर विचार-शक्ति तो जरूर क्षीण हो गयी थी ।",निश्चय करने की अब उनमें सामर्थ्य ही न थी । ऐसी ऐसी गलतियों करते थे कि राजा साहत्र को उनका चहुत लिद्दाज करने पर भी बार बार एतराज करना पढ़ता' था |,निश्चय करने की अब उनमें सामर्थ्य ही न थी ।,ऐसी-ऐसी गलतियाँ करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी बार-बार एतराज करना पड़ता था । "मनोरमा ने कह्ा--भैया, क्या तुमने लौंगी श्रम्मोँ को भुला ही दिया ?",ऐसी-ऐसी गलतियाँ करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी बार-बार एतराज करना पड़ता था ।,"मनोरमा ने कहा-भैया, क्या तुमने लौंगी अम्माँ को भुला ही दिया ?" मनोरमा--उन्‍्हें लौंगी श्रम्मों ही कुछ ठीक रख सकती हैं ।,"मनोरमा ने कहा-भैया, क्या तुमने लौंगी अम्माँ को भुला ही दिया ?",मनोरमा--उन्हें लौंगी अम्माँ ही कुछ ठीक रख सकती हैं । "उनकी दशा देखकर भी ऐसा कद्दते हो ! जब से अम्माँजी का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हा था चेच दिया |",मनोरमा--उन्हें लौंगी अम्माँ ही कुछ ठीक रख सकती हैं ।,"उनकी दशा देखकर भी ऐसा कहते हो! जब से अम्माँ जी का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेच दिया ।" उसका मिजाज और भी श्रासमान पर जा पहुँचेगा ।,"उनकी दशा देखकर भी ऐसा कहते हो! जब से अम्माँ जी का स्वर्गवास हुआ, दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेच दिया ।",उसका मिजाज और भी आसमान पर जा पहुँचेगा । "लोगी देवी है, उसने तुम्हारा श्रौर मेरा पालन किया दे ।",उसका मिजाज और भी आसमान पर जा पहुँचेगा ।,"लौंगी देवी है, उसने तुम्हारा और मेरा पालन किया है ।" "गुरुसेवक--मे अ्रव उससे कभी न बोलेगा, उसकी किपी वात में भूलकर मी दखल न दूँगा, लेकिन उसे बुनाने न जाऊँगा ।","लौंगी देवी है, उसने तुम्हारा और मेरा पालन किया है ।","गुरुसेवक--मैं अब उससे कभी न बोलूँगा, उसकी किसी बात में भूलकर भी दखल न दूँगा, लेकिन उसे बुलाने न जाऊँगा ।" "अगर वह इर्स घर मे आकर रहती, तो में अपने हाथो से उसके पैर घोतो ओर चरणामृत श्ाँखों से लगाती ।","गुरुसेवक--मैं अब उससे कभी न बोलूँगा, उसकी किसी बात में भूलकर भी दखल न दूँगा, लेकिन उसे बुलाने न जाऊँगा ।","अगर वह इस घर में आकर रहती, तो मैं अपने हाथों से उसके पैर धोती और चरणामत आँखों से लगाती ।" "जब में बीमार पढ़ी थी, तो बह रात-की- रात गेरे सिरद्वाने बैठी रहती थो ।","अगर वह इस घर में आकर रहती, तो मैं अपने हाथों से उसके पैर धोती और चरणामत आँखों से लगाती ।","जब मैं बीमार पड़ी थी, तो वह रात की रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी ।" गुस्सेवक लज्ञित हुए ।,"जब मैं बीमार पड़ी थी, तो वह रात की रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी ।",गुरुसेवक लज्जित हुए । "घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ झओोडे पढ़े हुए, है ।",गुरुसेवक लज्जित हुए ।,घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढ़े पडे हए हैं । "बोले--कुछ नहीं जी, जग सरदी लग रदी थी |",घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढ़े पडे हए हैं ।,"बोले-कुछ नहीं जी, जरा सर्दी लग रही थी ।" घबराकर डाक्टर को बुज्लाया ।,"बोले-कुछ नहीं जी, जरा सर्दी लग रही थी ।",घबराकर डॉक्टर को बुलाया । ग्रव तक तो आप हरि- द्वार से लौटते होते ।,घबराकर डॉक्टर को बुलाया ।,अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते । "मैं श्रपना सब्र कुछ लॉगो को दे उकता हूँ, लेकिन लौंगी कुछ न लेगी ।",अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते ।,"मैं अपना सब कुछ लौंगी को दे सकता हूँ, लेकिन लौंगी कुछ न लेगी ।" बह दुष्टा मेरी जायदाद का एक पैसा भो न छुण्गी |,"मैं अपना सब कुछ लौंगी को दे सकता हूँ, लेकिन लौंगी कुछ न लेगी ।",वह दुष्टा मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुएगी । सुरुत्ेवक ले आज तक उसका स्वभाव न जाना |,वह दुष्टा मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुएगी ।,गुरुसेवक ने आज तक उसका स्वभाव न जाना । में लोगी के दृदय पर मुग्ध हो गया ।,गुरुसेवक ने आज तक उसका स्वभाव न जाना ।,मैं लौंगी के हृदय पर मुग्ध हो गया । तुम्हारी माता भी तुम लोगो का लालन-पाज्षन इतना तनन्‍्मय होकर न॑ कर सकती थी ।,मैं लौंगी के हृदय पर मुग्ध हो गया ।,तुम्हारी माता भी तुम लोगों का लालन-पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी । छु+ महीने तक उसको दशा यदी रही ।,तुम्हारी माता भी तुम लोगों का लालन-पालन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी ।,छः महीने तक उसकी दशा यही रही । यह लोॉगी हो थो जिसने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया ।,छः महीने तक उसकी दशा यही रही ।,"यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया ।" "श्रोर आज गुरसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लॉगी मेरे घन के लोभ ते मुझे घेरे हुए ६ ।","यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुँह से निकाल लिया ।","और आज गुरुसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए है ।" में उने निष्दुरता दा दरंड देना चाहता था ।,"और आज गुरुसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए है ।",मैं उसे निष्ठुरता का दंड देना चाहता था । "एक बात तुमते पूल, नोरा, चताओगी ?",मैं उसे निष्ठुरता का दंड देना चाहता था ।,"एक बात तुमसे पूछूँ, नोरा, बताओगी ?" "मैंने ठन्हें अपनी तठृष्णा की भेंट चढ़ा दिया, तुम्हारे ीइन का उवनाश ज्र दिया |","एक बात तुमसे पूछूँ, नोरा, बताओगी ?","मैंने तुम्हें अपनी तृष्णा की भेंट चढ़ा दिया, तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया ।" मुझे तृष्णा ने अन्या बना दिला या ।,"मैंने तुम्हें अपनी तृष्णा की भेंट चढ़ा दिया, तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया ।",मुझे तृष्णा ने अंधा बना दिया था । "ऐसा जान पढ़ता था कि सूर्य प्रकार कुछ ज्ञीण हो गया है, मानो सन्ध्या हो गयी है ।",मुझे तृष्णा ने अंधा बना दिया था ।,"ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य-प्रकाश कुछ क्षीण हो गया है, मानो संध्या हो गयी है ।" "दीवान साहब छुत की *श्रोर टकटकी लगाये हुए, ये, मानो उनकी दृष्टि अनन्त के उस पार पहुँच जाना चाहती हो |","ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य-प्रकाश कुछ क्षीण हो गया है, मानो संध्या हो गयी है ।","दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाए हुए थे, मानो उनकी दृष्टि अनन्त के उस पार पहुँच जाना चाहती हो ।" "सहसा उन्होने ज्षीण-स्वर से पुकारा--नोर ! मनोरमा ने उनकी ओर कदुण नेत्रों से देखकर कद्य-खड़ी हूँ, दादाजी ! दीवान--जरा कलम-दावात लेकर मेरे समीप आ जाओ्रों ।","दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाए हुए थे, मानो उनकी दृष्टि अनन्त के उस पार पहुँच जाना चाहती हो ।","सहसा उन्होंने क्षीण स्वर में पुकारा-नोरा! मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा--खड़ी हूँ, दादाजी! दीवान--जरा कलम-दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ ।" मैं श्रपनी सब्र जायदाद लॉंगी को देता हूँ ।,"सहसा उन्होंने क्षीण स्वर में पुकारा-नोरा! मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा--खड़ी हूँ, दादाजी! दीवान--जरा कलम-दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ ।",मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ । यह कहते हुए वह धत्राई हुईं दोवान साहब के सामने आकर खड़ी हो गयी |,मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूँ ।,यह कहते हुए वह घबराई हुई दीवान साहब के सामने आकर खड़ी हो गयी । डाक्टर भी आ पहुँचा |,यह कहते हुए वह घबराई हुई दीवान साहब के सामने आकर खड़ी हो गयी ।,डॉक्टर भी आ पहुँचा । लौंगी श्राज ही हरिद्वार से चली थी |,डॉक्टर भी आ पहुँचा ।,लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी । "केवल मनोस्मा, उसकी भाभी ओर अहल्या रह गयीं ।",लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी ।,"केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहिल्या रह गयीं ।" "उन आँखों में कितनी अपार वेदना थी, किन्तु ना श्रपार प्रेम ! उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कह्ा--लौंगी, ओर पहले क्यों न आयी ?","केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहिल्या रह गयीं ।","उन आँखों में कितनी अपार वेदना थी, किंतु कितना अपार प्रेम! उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा--लौंगी और पहले क्यों न आयीं ?" इस आनन्द में वह शोक भूल गयी ।,"उन आँखों में कितनी अपार वेदना थी, किंतु कितना अपार प्रेम! उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा--लौंगी और पहले क्यों न आयीं ?",इस आनन्द में वह शोक भूल गयी । पचीस वर्ष के दाम्पत्य-जीवन में ने कभी इतना आनन्द न पाया था ।,इस आनन्द में वह शोक भूल गयी ।,पच्चीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन में उसने कभी इतना आनन्द न पाया था । "वायु का इलका-सा वेग, लहरों का इलका-सा आन्दोलन, नौका हलका-सा कम्पन उसे भयभीत कर देता था ।",पच्चीस वर्ष के दाम्पत्य जीवन में उसने कभी इतना आनन्द न पाया था ।,"वायु का हल्का-सा वेग, लहरों का हल्का-सा आन्दोलन, नौका का हल्का-सा कम्पन उसे भयभीत कर देता था ।" "आज उसे मालूम हुआ कि बिसके चरणों पर मैंने अपने समर्पित किया था, वह अश्रन्त तक मेरा रहा |","वायु का हल्का-सा वेग, लहरों का हल्का-सा आन्दोलन, नौका का हल्का-सा कम्पन उसे भयभीत कर देता था ।","आज उसे मालूम हुआ कि जिसके चरणों पर मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अन्त तक मेरा रहा ।" "जिन नोकरों को दीवान साहब के मुख से नित्य घुड़कियाँ लती थीं, वह भी रो रहे थे ।","आज उसे मालूम हुआ कि जिसके चरणों पर मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अन्त तक मेरा रहा ।","जिन नौकरों को दीवान के मुख से नित्य घुड़कियाँ मिलती थीं, वह भी रो रहे थे ।" "ऐसे बिरले ही प्राणी ससार में होंगे, जिनके अन्त-करण मृत्यु के प्रकाश आलोकित न हो जायें |","जिन नौकरों को दीवान के मुख से नित्य घुड़कियाँ मिलती थीं, वह भी रो रहे थे ।","ऐसे विरले ही प्राणी संसार में होंगे, जिनके अन्त:करण मृत्यु के प्रकाश से आलोकित न हो जायें ।" "इर्सिवक कृपणता, फठोरता, सकीणता, धूतंता एव सारे दुर्गुण, जिनके कारण वह अपने बन में बदनाम रहे, इस विशाल प्रेम के प्रवाह में बढ गये ।","ऐसे विरले ही प्राणी संसार में होंगे, जिनके अन्त:करण मृत्यु के प्रकाश से आलोकित न हो जायें ।","हरिसेवक की कृपणता, कठोरता, संकीर्णता, धूर्तता एवं सारे दुर्गुण, जिनके कारण वह अपने जीवन में बदनाम रहे, इस विशाल प्रेम के प्रवाह में बह गये ।" लौंगी शोकग़द से निकलकर छत पर गयी प्रार सड़क की ओर देखने लगी ।,"हरिसेवक की कृपणता, कठोरता, संकीर्णता, धूर्तता एवं सारे दुर्गुण, जिनके कारण वह अपने जीवन में बदनाम रहे, इस विशाल प्रेम के प्रवाह में बह गये ।",लौंगी शोकगृह से निकलकर छत पर गयी और सड़क की ओर देखने लगी । क्या श्रभी दो नहीं बजे ?,लौंगी शोकगृह से निकलकर छत पर गयी और सड़क की ओर देखने लगी ।,क्या अभी दो नहीं बजे ? लोगी बढ़ी देर तक अपनी तीर्थयात्रा की चर्चा करती रद्दी ।,क्या अभी दो नहीं बजे ?,लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थयात्रा की चर्चा करती रही । बदले हुए भेस में ठीक तो न पहचान सकी; लेकिन मुके ऐसा मालूमप्त दोता या कि वही ई |,लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थयात्रा की चर्चा करती रही ।,"बदले हुए भेस में ठीक तो न पहचान सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था कि वही हैं ।" "मालूम हता या, संन्यासीजी अमीर हैँ ।","बदले हुए भेस में ठीक तो न पहचान सकी, लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था कि वही हैं ।","मालूम होता था, संन्यासी जी अमीर हैं ।" "नोस, तुमसे कया कहूँ, सूरत बिलझुल बाबूजी से मिलनी थी ।","मालूम होता था, संन्यासी जी अमीर हैं ।","नोरा, तुमसे क्या कहूँ, सूरत बिल्कुल बाबूजी से मिलती थी ।" "सेवानन्द न पहुँच जाते, ते मर दी पयी थी ।","नोरा, तुमसे क्या कहूँ, सूरत बिल्कुल बाबूजी से मिलती थी ।","सेवानन्द न पहुँच जात, तो मर ही गयी थी ।" "एक जगह जमकर नहीं रहते, इवर-उघर विचरते दी रहते दे |","सेवानन्द न पहुँच जात, तो मर ही गयी थी ।","एक जगह जमकर नहीं रहते, इधर-उधर विचरते ही रहते हैं ।" "मनोरमा ने तो कुछ उत्तर न दिया, नन्‍जाने क्या सोचने लगी थी, पर शद्भुघर चोला--दाई, ठमने यहाँ तार क्यों न दे दिया ?","एक जगह जमकर नहीं रहते, इधर-उधर विचरते ही रहते हैं ।","मनोरमा ने तो कुछ उत्तर न दिया, न जाने क्या सोचने लगी थी, पर शंखधर बोला-दाई, तुमने यहाँ तार क्यों न दे दिया ?" "लौंगी--अरे, तो कोई बात भी तो द्वो बेण, नजाने कौन था, कोन नहीं था ।","मनोरमा ने तो कुछ उत्तर न दिया, न जाने क्या सोचने लगी थी, पर शंखधर बोला-दाई, तुमने यहाँ तार क्यों न दे दिया ?","लौंगी--अरे तो कोई बात भी तो हो बेटा, न जाने कौन था, कौन नहीं था ।" "शझह्ूघर--अच्छा दाई, तुम्हारे ख्याल में सन्‍्यासीजी की उम्र क्या रही होगी ?","लौंगी--अरे तो कोई बात भी तो हो बेटा, न जाने कौन था, कौन नहीं था ।","शंखधर--अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में संन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी ?" मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा--हॉ-होँ वही सस्यासी त॒म्दारे बाबूजी हैं ।,"शंखधर--अच्छा दाई, तुम्हारे खयाल में संन्यासीजी की उम्र क्या रही होगी ?","मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा--हाँ, हाँ, वही संन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं ।" "रानी अम्मों से कह देना, वह चले गये |","मनोरमा ने बनावटी क्रोध से कहा--हाँ, हाँ, वही संन्यासी तुम्हारे बाबूजी हैं ।","रानी अम्माँ से कह देना, वह चले गये ।" "मनोरमा फह् चुकी थी, अइल्या ने भी सिफारिश की; पर राजा साइबर अभी तक ठालते जाते ये ।","रानी अम्माँ से कह देना, वह चले गये ।","मनोरमा कह चुकी थी, अहिल्या ने भी सिफारिश की, पर राजा साहब अभी तक टालते जाते थे ।" शुरुसेवक ने कद्दा--ऐसी तो कोई कितात्र पुस्तकालय में नही है ।,"मनोरमा कह चुकी थी, अहिल्या ने भी सिफारिश की, पर राजा साहब अभी तक टालते जाते थे ।",गुरुसेवक ने कहा--ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है । शहर जाकर उसने श्रेंगरेजी पुस्तको की कई दूकानों से तीर्थ-यात्रा-सम्बन्धी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बए्डल लेकर घर आया ।,गुरुसेवक ने कहा--ऐसी तो कोई किताब पुस्तकालय में नहीं है ।,शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दुकानों से तीर्थयात्रा संबंधी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बंडल लेकर घर आया । "राजा साहब मोजन करने बैठे, तो शद्गघर वहाँ न था |",शहर जाकर उसने अंग्रेजी पुस्तकों की कई दुकानों से तीर्थयात्रा संबंधी पुस्तकें देखीं और किताबों का एक बंडल लेकर घर आया ।,"राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहाँ न था ।" "शंखघर--नहीं श्रम्मॉजी, मुझे भूख नहीं लगी ।","राजा साहब भोजन करने बैठे, तो शंखधर वहाँ न था ।","शंखधर--नहीं अम्माँजी, मुझे भूख नहीं लगी ।" शंखघर--शआज ही तो बाजार से आया हूँ ।,"शंखधर--नहीं अम्माँजी, मुझे भूख नहीं लगी ।",शंखधर--आज ही तो बाजार से लाया हूँ । "प्रहल्या ने शखघर को दया-सजल नेत्रों से देखा, पर उसके मुख से कोई बात न निउली |",शंखधर--आज ही तो बाजार से लाया हूँ ।,"अहिल्या ने शंखधर को दया--सजल नेत्रों से देखा, पर उसके मुख से कोई बात न निकली ।" "वद समसे अप्रसन्न हैं, लेकिन तूने क्या झ्पराव जिया है ?","अहिल्या ने शंखधर को दया--सजल नेत्रों से देखा, पर उसके मुख से कोई बात न निकली ।","वह मुझसे अप्रसन्न हैं, लेकिन तूने क्या अपराध किया है ?" "आज उसे यह मालूप हुआ था फि वह सन्यासी हो गये हैँ, अब वह राजती भोजन कैसे करता ?","वह मुझसे अप्रसन्न हैं, लेकिन तूने क्या अपराध किया है ?","आज उसे यह मालूम हुआ था कि संन्यासी हो गये हैं, अब वह राजसी भोजन कैसे करता ?" "वेचारे किसी पेढ़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने श्राज कुछ खाया भी द्वैे या नहीं ।","आज उसे यह मालूम हुआ था कि संन्यासी हो गये हैं, अब वह राजसी भोजन कैसे करता ?","बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने आज कुछ खाया भी है या नहीं ।" वह याली पर बैठा; लेकिन फीर उठाते ही फूनफूट्कर रोने लगा |,"बेचारे किसी पेड़ के नीचे पड़े होंगे, न जाने आज कुछ खाया भी है या नहीं ।","वह थाली पर बैठा, लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूटकर रोने लगा ।" अइल्या उसके मन का भाव तताड़ गयी और स्वय रोने लगी |,"वह थाली पर बैठा, लेकिन कौर उठाते ही फूट-फूटकर रोने लगा ।",अहिल्या उसके मन का भाव ताड़ गयी और स्वयं रोने लगी । आज से श्रहल्या को हरदम यही सशय रहने लगा कि शह्भुधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाय |,अहिल्या उसके मन का भाव ताड़ गयी और स्वयं रोने लगी ।,आज से अहिल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाय । "वह उसे अकेले कहीं खेलने तक न जाने देती, उसका बाजार भी आना-जाना चन्द हो गया ।",आज से अहिल्या को हरदम यही संशय रहने लगा कि शंखधर पिता की खोज में कहीं भाग न जाय ।,"वह उसे अकेले कहीं खेलने तक न जाने देती, बाजार भी आना-जाना बन्द हो गया ।" "उसने घर बनवाने पर जोर न दिया द्ोता, तो ठाकुर साहब श्रभी तक किसी किराये के घर पड़े होते |","वह उसे अकेले कहीं खेलने तक न जाने देती, बाजार भी आना-जाना बन्द हो गया ।","उसने घर बनवाने पर जोर न दिया होता, तो ठाकुर साहब अभी तक किसी किराए के घर में पड़े होते ।" "हालाँकि गुरुसेवक पहले से भ्रव कहीं ज्यादा उसका लिद्वाज करते थे, श्रोर कोई ऐसी वात न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो ।","उसने घर बनवाने पर जोर न दिया होता, तो ठाकुर साहब अभी तक किसी किराए के घर में पड़े होते ।","हालाँकि गुरुसेवक पहले से अब कहीं ज्यादा उसका लिहाज करते थे और कोई ऐसी बात न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो ।" "पर ये ही वे बातें हैं, निनसे उसके श्राइत हृदय को ठेस लगतो हे, आर उसकी मधुर स्मृतियों म एक क्षण फे लिए ग्लानि की छाया ञ्रा पढ़ती है ।","हालाँकि गुरुसेवक पहले से अब कहीं ज्यादा उसका लिहाज करते थे और कोई ऐसी बात न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो ।","पर ये ही वे बातें हैं, जिनसे उसके आहत हृदय को ठेस लगती है और उसकी मधुर स्मृतियों में एक क्षण के लिए ग्लानि की छाया आ पड़ती है ।" इसे लिए अब वह वहाँ से जाकर किसी देहात मे रहना चाहती ।,"पर ये ही वे बातें हैं, जिनसे उसके आहत हृदय को ठेस लगती है और उसकी मधुर स्मृतियों में एक क्षण के लिए ग्लानि की छाया आ पड़ती है ।",इसलिए अब वह यहाँ से जाकर किसी देहात में रहना चाहती है । "आखिर छत्र ठाकुर साहव ने उसके; नाम कुछ नह्ों लिखा, उसे दूध की मक्खों को भाँति निकालकर फेक दिया, तो वह यहाँ क्यों पड़ी दूधरों का मुँद जादे ?",इसलिए अब वह यहाँ से जाकर किसी देहात में रहना चाहती है ।,"आखिर जब ठाकुर साहब ने उसके नाम कुछ नहीं लिखा, उसे दूध की मक्खी की भांति निकालकर फेंक दिया, तो वह यहाँ क्यों पड़ी दूसरों का मुँह जोहे ?" उसे अब एक टूट फूटे कोपढ़े आर एक टुकड़े रोटी के सिवा और कुछ नहीं चादिए |,"आखिर जब ठाकुर साहब ने उसके नाम कुछ नहीं लिखा, उसे दूध की मक्खी की भांति निकालकर फेंक दिया, तो वह यहाँ क्यों पड़ी दूसरों का मुँह जोहे ?",उसे अब एक टूटे-फूटे झोंपड़े और एक टुकड़े रोटी के सिवा और कुछ नहीं चाहिए । "श्रगर मेरी तरफ से उसमें “रा भो फोर-कसर देखो, तो फिर तुम्हें ग्रख्तियार है, जो चाऐ वरना |",उसे अब एक टूटे-फूटे झोंपड़े और एक टुकड़े रोटी के सिवा और कुछ नहीं चाहिए ।,"अगर मेरी तरफ से उसमें जरा भी कोर-कसर देखो, तो फिर तुम्हें अख्तियार है, जो चाहे करना ।" "अगर उम्र-भर में लौंगी को गुस्सेवक की कोई बात पसन्द श्रायी, तो उनका यही दुराप्रह-पूर्ण वाक्य था ।","अगर मेरी तरफ से उसमें जरा भी कोर-कसर देखो, तो फिर तुम्हें अख्तियार है, जो चाहे करना ।","अगर उम्रभर में लौंगी को गुरुसेवक की कोई बात पसन्द आयी, तो उनका यही दुराग्रहपूर्ण वाक्य था ।" उसने जरा तेज होकर कद्य--ब्राँधकर क्यों रखोगे ?,"अगर उम्रभर में लौंगी को गुरुसेवक की कोई बात पसन्द आयी, तो उनका यही दुराग्रहपूर्ण वाक्य था ।",उसने जरा तेज होकर कहा--बाँधकर क्यों रखोगे ? "दादाजी चाहते, तो एक दजेन व्याद कर सकते ये, कोड़ियों रखेलियों रुख सकते ये |",उसने जरा तेज होकर कहा--बाँधकर क्यों रखोगे ?,"दादाजी चाहते, तो एक दर्जन ब्याह कर सकते थे, कौड़ियों रखेलियाँ रख सकते थे ।" "में सत्य कहता हूँ, श्रगर तुमने घर के बाहर कदम निंकाला, चादे तो दुनिया मुझे बदनाम ही करे, मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूँगा ।","दादाजी चाहते, तो एक दर्जन ब्याह कर सकते थे, कौड़ियों रखेलियाँ रख सकते थे ।","मैं सत्य कहता हूँ, अगर तुमने घर के बाहर कदम निकाला, तो चाहे दुनिया मुझे बदनाम ही करे, मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूँगा ।" इन भशणड़ों की भनक भी नोकरों के कानों में पड़ गयो थी ।,"मैं सत्य कहता हूँ, अगर तुमने घर के बाहर कदम निकाला, तो चाहे दुनिया मुझे बदनाम ही करे, मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूँगा ।",इन झगड़ों की भनक भी नौकरों के कानों में पड़ गयी थी । "ठ॒म यहाँ से चली गयीं मालकिन, तो एक नोकर भी न रहेगा |",इन झगड़ों की भनक भी नौकरों के कानों में पड़ गयी थी ।,"तुम यहाँ से चली गयीं मालकिन, तो एक नौकर भी न रहेगा ।" "मनोरमा ने महरी से कह--ठुम जाओ्रो, में दबाये देती हूँ ।","तुम यहाँ से चली गयीं मालकिन, तो एक नौकर भी न रहेगा ।","मनोरमा ने महरी से कहा--तुम जाओ, मैं दबाए देती हूँ ।" "मनोरमा ने प्िर दबाते हुए कह्--रानी जहों हूँ, वहाँ हूँ; यहाँ तो तुम्द्यारी गोद की खेलायी नोरा हूँ ।","मनोरमा ने महरी से कहा--तुम जाओ, मैं दबाए देती हूँ ।","मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा--रानी जहाँ हूँ, वहाँ हूँ, यहाँ तो तुम्हारी गोद की खिलाई नोरा हूँ ।" कितना पूछा--कुछ बताओ तो बात क्या ६ ?,"मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा--रानी जहाँ हूँ, वहाँ हूँ, यहाँ तो तुम्हारी गोद की खिलाई नोरा हूँ ।","कितना पूछा, कुछ बताओ तो, बात क्या है ?" मगर दादाजी उनको नीयत को पहले ताड़ गये थे ।,"कितना पूछा, कुछ बताओ तो, बात क्या है ?",मगर दादाजी उनकी नीयत को पहले ही ताड़ गये थे । में उनका प्रेम-घन पाकर दी सन्तुष्ट हूँ ।,मगर दादाजी उनकी नीयत को पहले ही ताड़ गये थे ।,मैं उनका प्रेम-धन पाकर ही सन्तुष्ट हूँ । "ठम सिरहाने बेटी मेरा सिर दवा रही हो, क्या घन में इतना सुख कमी मिल सकता है ?",मैं उनका प्रेम-धन पाकर ही सन्तुष्ट हूँ ।,"तुम सिरहाने बैठी मेरा सिर दबा रही हो, क्या धन में इतना सुख कभी मिल सकता है ।" "मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गवे श्लोर आश्चय से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो ।","तुम सिरहाने बैठी मेरा सिर दबा रही हो, क्या धन में इतना सुख कभी मिल सकता है ।","मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो ।" देखने से मालूम द्वोता था कि कोई तपत्विनी हूँ ।,"मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो ।",देखने से मालूम होता था कि कोई तपस्विनी हैं । सबसे अलग अ्रपनी कविता-कुटोर में बैठी सगीत का श्रभ्यास करती रहती थीं ।,देखने से मालूम होता था कि कोई तपस्विनी हैं ।,सबसे अलग अपनी कविता कुटीर में बैठी संगीत का अभ्यास करती रहती थीं । "अइल्या से उसे बहुत प्रेम था, कमी-कभी पश्राकर घरटों बैठी रहती ।",सबसे अलग अपनी कविता कुटीर में बैठी संगीत का अभ्यास करती रहती थीं ।,"अहिल्या से उसे बहुत प्रेम था, कभी-कभी आकर घंटों बैठी रहती ।" राजा साइब पाईवबाग में द्वाज के किनारे बैठे मछ- लियों को आटे की गोलियाँ खिला रहे थे |,"अहिल्या से उसे बहुत प्रेम था, कभी-कभी आकर घंटों बैठी रहती ।",राजा साहब पाईबाग में हौज के किनारे बैठे मछलियों को आटे की गोलियाँ खिला रहे थे । "श्राज रोहिणी को देखकर राज्य साहव को चड़ी करुणा आयी ! वह नेराश्य और वेदना की सजीव मूर्ति-ठी दिखायी देती थी, मानो कह रही थी--सतुमने मुझे क्‍यों यह दण्ड दे रखा है ?",राजा साहब पाईबाग में हौज के किनारे बैठे मछलियों को आटे की गोलियाँ खिला रहे थे ।,"आज रोहिणी को देखकर राजा साहब को बड़ी करुणा आयी ! वह नैराश्य और वेदना की सजीव मूर्ति-सी दिखाई देती थी, मानो कह रही थी-तुमने मुझे क्यों यह दंड दे रखा है ?" "रोहियी-- आपको यहाँ वैठे देखा, चली आयी ।","आज रोहिणी को देखकर राजा साहब को बड़ी करुणा आयी ! वह नैराश्य और वेदना की सजीव मूर्ति-सी दिखाई देती थी, मानो कह रही थी-तुमने मुझे क्यों यह दंड दे रखा है ?","रोहिणी--आपको यहाँ बैठे देखा, चली आयी ।" यह आपका दोप नहीं; हम स्त्रियों फो ईश्वर ने इसी लिए बनाया द्री है ।,"रोहिणी--आपको यहाँ बैठे देखा, चली आयी ।","यह आपका दोष नहीं, हम स्त्रियों को ईश्वर ने इसीलिए बनाया ही है ।" "उनकी दशा उस शराबी की-छी थी, णिसने नशे में तो हत्या कर डाली हो3 किन्तु श्रव होश मे आने पर लाश को देसकर पश्चात्ताप श्रोर वेदना से उसका हृदय फठा जाता हो ।","यह आपका दोष नहीं, हम स्त्रियों को ईश्वर ने इसीलिए बनाया ही है ।","उनकी दशा उसी शराबी की-सी थी, जिसने नशे में तो हत्या कर डाली हो किंतु अब होश में आने पर लाश को देखकर पश्चात्ताप और वेदना से उसका हृदय फटा जाता हो ।" "वद दिन है ओर 'प्रान का दिन है, कभी आपने भूलकर भी पूछा कि तू मरती है या जीती ?","उनकी दशा उसी शराबी की-सी थी, जिसने नशे में तो हत्या कर डाली हो किंतु अब होश में आने पर लाश को देखकर पश्चात्ताप और वेदना से उसका हृदय फटा जाता हो ।","वह दिन है और आज का दिन है, कभी आपने भूलकर भी पूछा कि तू मरती है या जीती ?" इससे तो यह कहीं श्रच्ध्ा दोता कि आपने मुकके चले जाने दिया होता ।,"वह दिन है और आज का दिन है, कभी आपने भूलकर भी पूछा कि तू मरती है या जीती ?",इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि आपने मुझे चले जाने दिया होता । एक सुग तक घोर मानसिक पीढ़ा सहने से तो एक कण का कष्ट कहीं अच्छा होंता; लेकेन प्राशा ! हाय आशा ! इसका घुग हो ।,इससे तो यह कहीं अच्छा होता कि आपने मुझे चले जाने दिया होता ।,"एक युग तक घोर मानसिक पीड़ा सहने से तो एक क्षण का कष्ट कहीं अच्छा होता, लेकिन आशा ! हाय आशा ! इसका बुरा हो ।" "सीता बनाने के लिए राम-नैता पुरुष चाहिए, |","एक युग तक घोर मानसिक पीड़ा सहने से तो एक क्षण का कष्ट कहीं अच्छा होता, लेकिन आशा ! हाय आशा ! इसका बुरा हो ।",सीता बनाने के लिए राम जैसा पुरुष चाहिए । "उन्हें विश्वास था कि श्रगर मैं मर जाऊँ, तो रोहिणी की श्राँखों में आँसू न आयेंगे ।",सीता बनाने के लिए राम जैसा पुरुष चाहिए ।,"उन्हें विश्वास था कि अगर मैं मर जाऊँ, तो रोहिणी की आँखों में आँसू न आयेंगे ।" बह अपने छुदय से उसके हृदय को परखते थे ।,"उन्हें विश्वास था कि अगर मैं मर जाऊँ, तो रोहिणी की आँखों में आँसू न आयेंगे ।",वह अपने हृदय से उसके हृदय को परखते । "वह अगर मर जाती, तो निस्सन्देद उनकी श्राँखों सें आँसू न आते; पर आज रोहिंयी की बातें सुनकर उनका पत्थर-सा छृदय नरम पड़ गया ।",वह अपने हृदय से उसके हृदय को परखते ।,"वह अगर मर जाता, तो निस्संदेह उनकी आँखों से आँसू न आते, पर आज रोहिणी की बातें सुनकर उनका पत्थर-सा हृदय नरम पड़ गया ।" श्राज उन्हें मालूम हुआ कि रोहियी का चरित्र समभने में उनसे केसो भवकर भूल हुई ।,"वह अगर मर जाता, तो निस्संदेह उनकी आँखों से आँसू न आते, पर आज रोहिणी की बातें सुनकर उनका पत्थर-सा हृदय नरम पड़ गया ।",आज उन्हें मालूम हुआ कि रोहिणी का चरित्र समझने में उनसे कैसी भयंकर भूल हुई । "यदी बाते अगर इसने ओर पहले कही द्दोती, तो हम दोनों से क्यो इतना मनो- मालिन्य रहता ?",आज उन्हें मालूम हुआ कि रोहिणी का चरित्र समझने में उनसे कैसी भयंकर भूल हुई ।,"यही बातें अगर इसने और पहले कही होती, तो हम दोनों में क्यों इतना मनोमालिन्य रहता ?" "उसके मन की बात ते नहीं जनता; पर मुझसे तो इसने एक बार भी हँसकर बात की होती, एक बार भी मेरा हाथ पकड़कर कहती कि मे य॒ुम्हें न छोड़ेंगी, तो में कभी उसकी उपेक्षा न कर सकता; लेकिन ली मारनिनी द्ोती है, व मेरी खुशा- मद क्‍यों करती ?","यही बातें अगर इसने और पहले कही होती, तो हम दोनों में क्यों इतना मनोमालिन्य रहता ?","उसके मन की बात तो नहीं जानता, पर मुझसे तो इसने एक बार भी हँसकर बात की होती, एक बार भी मेरा हाथ पकड़कर कहती कि मैं तुम्हें न छोडूँगी, तो मैं कभी उसकी उपेक्षा न कर सकता, लेकिन स्त्री मानिनी होती है, वह मेरी खुशामद क्यों करती ?" सहसा उनके मन भे प्रश्न उठा--आजज रोदिंणी से क्‍यों मुझसे ये बातें कीं ?,"उसके मन की बात तो नहीं जानता, पर मुझसे तो इसने एक बार भी हँसकर बात की होती, एक बार भी मेरा हाथ पकड़कर कहती कि मैं तुम्हें न छोडूँगी, तो मैं कभी उसकी उपेक्षा न कर सकता, लेकिन स्त्री मानिनी होती है, वह मेरी खुशामद क्यों करती ?",सहसा उनके मन में प्रश्न उठा-आज रोहिणी ने क्यों मुझसे ये बातें कीं ? यह शका उन्हें उद्दिन्न कर रही थी ।,सहसा उनके मन में प्रश्न उठा-आज रोहिणी ने क्यों मुझसे ये बातें कीं ?,वह शंका उन्हें उद्विग्न कर रही थी । आखिर राज साहब से लेटे न रद्य गया ।,वह शंका उन्हें उद्विग्न कर रही थी ।,आखिर राजा साहब से लेटे न रहा गया । वह चारपाई से उठे और आदित्ता- श्राहिस्ता रोदिणी के कमरे की ओर चले ।,आखिर राजा साहब से लेटे न रहा गया ।,वह चारपाई से उठे और आहिस्ता-आहिस्ता रोहिणी के कमरे की ओर चले । राजा साहब ने कमरे के द्वार पर खट्टे होकर भीतर की शोर मॉका |,वह चारपाई से उठे और आहिस्ता-आहिस्ता रोहिणी के कमरे की ओर चले ।,राजा साहब ने कमरे के द्वार पर खड़े होकर भीतर की ओर झाँका । यहाँ तक कि उसकी साँस भी न सुनायी दी ।,राजा साहब ने कमरे के द्वार पर खड़े होकर भीतर की ओर झाँका ।,यहाँ तक कि उसकी साँस भी न सुनाई दी । "जरूर वद्दाना किये पढ़ी हुई है, मेरी आहट पाकर चादर ओढ़ ली होगी ।",यहाँ तक कि उसकी साँस भी न सुनाई दी ।,"जरूर बहाना किए पड़ी हुई है, मेरी आहट पाकर चादर ओढ़ ली होगी ।" बह विनोदिनी आज फिर वी श्रभिनय कर रही है ।,"जरूर बहाना किए पड़ी हुई है, मेरी आहट पाकर चादर ओढ़ ली होगी ।",वह विनोदिनी आज फिर वही अभिनय कर रही है । "उनमें तिररकार था, व्यग्य था, गवे था ।",वह विनोदिनी आज फिर वही अभिनय कर रही है ।,"उनमें तिरस्कार था, व्यंग्य था, गर्व था ।" दोनों ज्योति-दीन आँखें परित्यक्ता के जीवन को ज्वलन्त आलोचनाएँ थीं ।,"उनमें तिरस्कार था, व्यंग्य था, गर्व था ।",दोनों ज्योतिहीन आँखें परित्यक्ता के जीवन की ज्वलन्त आलोचनाएँ थीं । "उन्होंने चौकीदारिन को पुकारा ओर बोले--जण जाकर दरबवान से कह दे, डाक्टर साहब झो बुला लाये |",दोनों ज्योतिहीन आँखें परित्यक्ता के जीवन की ज्वलन्त आलोचनाएँ थीं ।,"उन्होंने चौकीदारिन को पुकारा और बोले-जरा जाकर दरबान से कह दे, डॉक्टर साहब को बुला लाए ।" चोकीदारिन रानी देवप्रिया के समय की रो थी ।,"उन्होंने चौकीदारिन को पुकारा और बोले-जरा जाकर दरबान से कह दे, डॉक्टर साहब को बुला लाए ।",चौकीदारिन रानी देवप्रिया के समय की स्त्री थी । तम तो चुद्रापे में विवाह करके बुद्धि ओर लजा दोनों दी खो बैठे ।,चौकीदारिन रानी देवप्रिया के समय की स्त्री थी ।,तुम तो बुढ़ापे में विवाह करके बुद्धि और लज्जा दोनों ही खो बैठे । "इतनी ही दवा श्रगर पहले की होती, तो इसके लिए वह अमृत हो जाती ! दम-केदम में रनिवास मे शोर मच गया आर रानियाँबॉदियों सतत आकर झमा हो गयीं ।",तुम तो बुढ़ापे में विवाह करके बुद्धि और लज्जा दोनों ही खो बैठे ।,"इतनी ही दया अगर पहले की होती, तो इसके लिए वह अमृत हो जाती ! दम-के-दम में रनिवास में शोर मच गया और रानियाँ-बाँदियां सब आकर जमा हो गयीं ।" जब वहीं न रही; वी किस पर रीस करती ?,"इतनी ही दया अगर पहले की होती, तो इसके लिए वह अमृत हो जाती ! दम-के-दम में रनिवास में शोर मच गया और रानियाँ-बाँदियां सब आकर जमा हो गयीं ।","जब वही न रही, तो किस पर रीस करती ?" अ्रत् वसुमती ओर रामप्रिया पर राजा साहब की कुछ विशेष कृपा हो गयी दे ।,"जब वही न रही, तो किस पर रीस करती ?",अब वसुमती और रामप्रिया पर राजा साहब की कुछ विशेष कृपा हो गयी है । मनोरमा की खोली हुई शालाएँ बन्द होती जा रही हूँ ।,अब वसुमती और रामप्रिया पर राजा साहब की कुछ विशेष कृपा हो गयी है ।,मनोरमा की खोली हुई शालाएँ बन्द होती जा रही हैं । नोकरों-चाकरों पर भी अ्रत्र उसका प्रभाव नहीं रहा |,मनोरमा की खोली हुई शालाएँ बन्द होती जा रही हैं ।,नौकरों-चाकरों पर भी अब उसका प्रभाव नहीं रहा । रोहिणी का आत्म-चलिदान निष्फल नहीं हुश्रा ।,नौकरों-चाकरों पर भी अब उसका प्रभाव नहीं रहा ।,रोहिणी का आत्म-बलिदान निष्फल नहीं हुआ । राजा साइच के रूठने से छोटी नानी जी मर गयीं |,रोहिणी का आत्म-बलिदान निष्फल नहीं हुआ ।,राजा साहब के रूठने से छोटी नानीजी मर गयीं । क्‍या पिताजी के रूठने से अ्रम्माजी का भी यही द्वाल होगा ?,राजा साहब के रूठने से छोटी नानीजी मर गयीं ।,क्या पिताजी के रूठने से अम्माँजी का भी यही हाल होगा ? अम्माँजी भी तो दिन दिन घुलती णाती हूँ ।,क्या पिताजी के रूठने से अम्माँजी का भी यही हाल होगा ?,अम्माँजी भी तो दिन-दिन घुलती जाती हैं । स्कूल से छुट्टी पाकर वह सोचे लोगी के पास जाता है ओर उससे तीर्थ- यात्रा की बातें पूछुता हे |,अम्माँजी भी तो दिन-दिन घुलती जाती हैं ।,स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधे लौंगी के पास जाता है और उससे तीर्थयात्रा की बातें पूछता है । शखधघर ने कुछ सोचकर गम्भीर माव से कहा--अम्मॉजी तो आती ही नहीं |,स्कूल से छुट्टी पाकर वह सीधे लौंगी के पास जाता है और उससे तीर्थयात्रा की बातें पूछता है ।,शंखधर ने कुछ सोचकर गम्भीर भाव से कहा--अम्माँजी तो आती ही नहीं । "४ वज़्घर--मैने तो एर्क॑ साधु से यह विद्या सीखी, बेटा ! बरसों उनकी ख़िदमत की, तथ कहीं जाके वह प्रसन्न हुए ।",शंखधर ने कुछ सोचकर गम्भीर भाव से कहा--अम्माँजी तो आती ही नहीं ।,"वज्रधर--मैंने तो एक साधु से यह विद्या सीखी, बेटा! बरसों उनकी खिदमत की, तब कहीं जाकर वह प्रसन्न हुए ।" तुम भी सीख लो वेठा; में बढ़े शोक से सिखाऊ गा ।,"वज्रधर--मैंने तो एक साधु से यह विद्या सीखी, बेटा! बरसों उनकी खिदमत की, तब कहीं जाकर वह प्रसन्न हुए ।","तुम भी सीख लो बेटा, मैं बड़े शौक से सिखाऊँगा ।" "राजाश्रों महाराजाओं के लिए तो यद्द विद्या है ही, वेटा, वही तो गुणियों का गुण परख- कर उनका शआदर कर सकते हैं ।","तुम भी सीख लो बेटा, मैं बड़े शौक से सिखाऊँगा ।","राजाओं-महाराजाओं के लिए तो यह विद्या ही है बेटा, वही तो गुणियों का गुण परखकर उनका आदर कर सकते हैं ।" "वह जहाँ रहेगा, लोग उसे सिर-आँखो पर विठायेंगे ।","राजाओं-महाराजाओं के लिए तो यह विद्या ही है बेटा, वही तो गुणियों का गुण परखकर उनका आदर कर सकते हैं ।","वह जहाँ रहेगा, लोग उसे सिर-आँखों पर बिठायेंगे ।" ताल-स्वर फा शान उसे सुनने पी से हो गया या ।,"वह जहाँ रहेगा, लोग उसे सिर-आँखों पर बिठायेंगे ।",ताल-स्वर का ज्ञान उसे सुनने ही से हो गया था । "खेजरो बजाकर वह यर, कबीर, मीरा आदि सन्तों के पद गाया करता था |",ताल-स्वर का ज्ञान उसे सुनने ही से हो गया था ।,"खंजरी बजाकर वह सूर, कबीर, मीरा आदि सन्तों के पद गाया करता था ।" "इस बक्त जो उसने कत्नीर का एक पद गाया, तो मुशीजी उसके सगीत-शान ओर स्वर लालित्य पर मुग्ध हो गये |","खंजरी बजाकर वह सूर, कबीर, मीरा आदि सन्तों के पद गाया करता था ।","इस वक्त जो उसने कबीर का एक पद गाया, तो मुंशीजी उसके संगीत-ज्ञान और स्वर-लालित्य पर मुग्ध हो गये ।" "इस तरए दोनों प्राणियों का मनोग्जन फरके जब वह चलने लगा. हो निर्मला द्वार पर/उड़ी हो गयी, जहाँ से वह मोटर को दूर तक जाते हुए; देखतो रहे |","इस वक्त जो उसने कबीर का एक पद गाया, तो मुंशीजी उसके संगीत-ज्ञान और स्वर-लालित्य पर मुग्ध हो गये ।","इस तरह दोनों प्राणियों का मनोरंजन करके जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गयी, जहाँ से वह मोटर को दूर तक जाते हुए देखती रहें ।" निर्मला चोखट पर खड़ी मोटरकार को निहारती रही |,"इस तरह दोनों प्राणियों का मनोरंजन करके जब वह चलने लगा, तो निर्मला द्वार पर खड़ी हो गयी, जहाँ से वह मोटर को दूर तक जाते हुए देखती रहें ।","निर्मला चौखट पर खड़ी, मोटर कार को निहारती रहीं ।" "जब यह आधार भी न रह गया, तो निर्मला रोती हुई श्रन्दर चली गयी ।","निर्मला चौखट पर खड़ी, मोटर कार को निहारती रहीं ।","जब यह आधार भी न रह गया, तो निर्मला रोती हुई अन्दर चली गयीं ।" तुम कमी-कमी वहाँ क्‍यों नहीं चली जाती ?,"जब यह आधार भी न रह गया, तो निर्मला रोती हुई अन्दर चली गयीं ।",तुम कभी-कभी वहाँ क्यों नहीं चली जातीं ? "अइल्या रो रही थी, कुछु न बोल सकी |",तुम कभी-कभी वहाँ क्यों नहीं चली जातीं ?,"अहिल्या रो रही थी, कुछ न बोल सकी ।" "शखधर ने फिर कह्-मुझे तो मालूम होता है श्रम्माजी, कि वह बहुत ही निद है, इसो से उन्हें हम लोग का दुःख नहीं जान पढ़ता ।","अहिल्या रो रही थी, कुछ न बोल सकी ।","शंखधर ने फिर कहा--मुझे तो मालूम होता है अम्माँजी, कि वह बहुत ही निर्दयी हैं, इसी से उन्हें हम लोगों का दुःख नहीं जान पड़ा ।" "आप म-बाने कहाँ बैठे हैं, किसी का क्या द्वाल हो रद्दा है, इसकी सुधि ही नही ।","शंखधर ने फिर कहा--मुझे तो मालूम होता है अम्माँजी, कि वह बहुत ही निर्दयी हैं, इसी से उन्हें हम लोगों का दुःख नहीं जान पड़ा ।","आप न जाने कहाँ बैठे हैं, किसी का क्या हाल हो रहा है, इसकी सुधि ही नहीं ।" "शखधर ने कुछ लजित होकर कहा--अच्छा श्रम्मॉजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जायें कि नहीं ?","आप न जाने कहाँ बैठे हैं, किसी का क्या हाल हो रहा है, इसकी सुधि ही नहीं ।","शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा--अच्छा अम्माँजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जायें कि नहीं ?" "बोला-- लेकिन अम्मॉनी, में तो उन्हें देखकर फोरन पहचान जाऊं |","शंखधर ने कुछ लज्जित होकर कहा--अच्छा अम्माँजी, यदि मुझे देखें, तो वह पहचान जायें कि नहीं ?","बोला-लेकिन अम्माँजी, मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊँ ।" शखधघर ने झुछु जवाब न दिया ।,"बोला-लेकिन अम्माँजी, मैं तो उन्हें देखकर फौरन पहचान जाऊँ ।",शंखधर ने कुछ जवाब न दिया । "आप लोग मेरे लिये डरा भी चिन्ता न कीजिएगा, न मुमे खोजने फे लिए ही आइएगा, क्योंकि में किसी भी हालत में भिना पिता जी का पता लगाये न श्राऊंगा ।",शंखधर ने कुछ जवाब न दिया ।,"आप लोग मेरे लिए जरा भी चिंता न कीजिएगा, न मुझे खोजने के लिए ही आइएगा, क्योंकि मैं किसी भी हालत में बिना पिताजी का पता लगाए न आऊंगा ।" "या तो उनके दशनों से कृता थ होकर लौद्े गा, या इसी उद्योग में प्राण दे दूँगा |","आप लोग मेरे लिए जरा भी चिंता न कीजिएगा, न मुझे खोजने के लिए ही आइएगा, क्योंकि मैं किसी भी हालत में बिना पिताजी का पता लगाए न आऊंगा ।",या तो उनके दर्शनों से कृतार्थ होकर लौटंगा या इसी उद्योग में प्राण दे दूँगा । "कोई यह न समझे कि मैं छोटा हैं, भूल-भगठक जाऊँगा ।",या तो उनके दर्शनों से कृतार्थ होकर लौटंगा या इसी उद्योग में प्राण दे दूँगा ।,"कोई यह न समझे कि मैं छोटा हूँ, भूल-भटक जाऊँगा ।" "अम्माजो, मेरी आपसे यही प्रायना है कि आप दादाजी की सेवा कीनिएगा और सममकाइएणगा कि वह मेरे लिए. चिन्ता न करें ।","कोई यह न समझे कि मैं छोटा हूँ, भूल-भटक जाऊँगा ।","अम्माँजी, मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप दादाजी की सेवा कीजिएगा, और समझाइएगा कि वह मेरे लिए चिंता न करें ।" शस्ूघर एक कुर्ता पहने हुए. कमरे से निकला ।,"अम्माँजी, मेरी आपसे यही प्रार्थना है कि आप दादाजी की सेवा कीजिएगा, और समझाइएगा कि वह मेरे लिए चिंता न करें ।",शंखधर एक कुर्ता पहने हुए कमरे से निकला । बगल के कमरे में राजा साइच्र आराम कर रहे थे |,शंखधर एक कुर्ता पहने हुए कमरे से निकला ।,बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे । "अ्रव उसके सिर पर तारिका- मण्डित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती से उल्लास, शका ओर आशा से घडढ़कता हुआ दृदय ।",बगल के कमरे में राजा साहब आराम कर रहे थे ।,"अब उसके सिर पर तारिकामण्डित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास, शंका और आशा से धड़कता हुआ हृदय ।" एक वार तूने अपना प्यारा पति खोया और अभी तक तेरी श्राँसों मे ऑसू नहीं यमे ।,"अब उसके सिर पर तारिकामण्डित नीला आकाश था, सामने विस्तृत मैदान और छाती में उल्लास, शंका और आशा से धड़कता हुआ हृदय ।",एक बार तूने अपना प्यारा पति खोया और अभी तक तेरी आँखों में आँसू नहीं थमे । "श्राज फिर व अपना प्यारा पुत्र, अपना प्राणाधार, अ्रपना डुखिया का घन खोये देती है ।",एक बार तूने अपना प्यारा पति खोया और अभी तक तेरी आँखों में आँसू नहीं थमे ।,"आज फिर तू अपना प्यारा पुत्र, अपना प्राणाधार, अपना दुखिया का धन खोए देती है ।" राजा विशालरिद्द ने दया और धर्म को तिलाज्ञलि दे दी है ओर खूब दिल खोलकर अत्या- चार फर रहे हई ।,"आज फिर तू अपना प्यारा पुत्र, अपना प्राणाधार, अपना दुखिया का धन खोए देती है ।",राजा विशालसिंह ने दया और धर्म को तिलांजलि दे दी है और खूब दिल खोलकर अत्याचार कर रहे हैं । राजा साहब को झिसी पर दया नहीं झाती |,राजा विशालसिंह ने दया और धर्म को तिलांजलि दे दी है और खूब दिल खोलकर अत्याचार कर रहे हैं ।,राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती । "अच क्या रह गया है, जिसके लिये वह घर्म का दामन पढकढ़ें ?",राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती ।,"अब क्या रह गया है, जिसके लिए वह धर्म का दामन पकड़ें ?" राजा साहब श्रव उसको सूरत भी नहीं देखना चाइते |,"अब क्या रह गया है, जिसके लिए वह धर्म का दामन पकड़ें ?",राजा साहब अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहते । "पर उसका प्रजाश फेवल अपने ही तऊ रट जाता है, अ्रन्धकार में प्रसारित नहीं दोता ।",राजा साहब अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहते ।,"पर उसका प्रकाश केवल अपने ही तक रह जाता है, अंधकार में प्रसारित नहीं होता ।" "उसका मास गल गया है, केवल अस्थि-पनर-मात्र रह गया है, मानो किछी भयकर रोग से अस्त रहने के बाद उठा हो |","पर उसका प्रकाश केवल अपने ही तक रह जाता है, अंधकार में प्रसारित नहीं होता ।","उसका माँस गल गया है, केवल अस्थिपंजर मात्र रह गया है, मानो किसी भयंकर रोग से ग्रस्त रहने के बाद उठा हो ।" पारँगी जब्न उन्हें प्रतीक्षा-- के तप में तपने के बाद ।,"उसका माँस गल गया है, केवल अस्थिपंजर मात्र रह गया है, मानो किसी भयंकर रोग से ग्रस्त रहने के बाद उठा हो ।",पाऊँगी जब उन्हें प्रतीक्षा के तप में तपने के बाद । ले लूँगी वरदान भक्ति-वेदी-- पर बल्लि हो जाने पर |,पाऊँगी जब उन्हें प्रतीक्षा के तप में तपने के बाद ।,ले लूँगी वरदान भक्ति-वेदी पर बलि हो जाने पर । "मला, माताजी, यहाँ कोई मद्दात्मा तो नही रहते ?",ले लूँगी वरदान भक्ति-वेदी पर बलि हो जाने पर ।,"भला, माताजी, यहाँ कोई महात्मा तो नहीं रहते ?" "युवती--नहीं, यहाँ तो कोई साधु-सन्त नहीं हे |","भला, माताजी, यहाँ कोई महात्मा तो नहीं रहते ?","युवती--नहीं, यहाँ तो कोई साधु-संत नहीं हैं ।" वृद्धा--त॒म्हारे पिता क्यो चले गये ?,"युवती--नहीं, यहाँ तो कोई साधु-संत नहीं हैं ।",वृद्धा--तुम्हारे पिता क्यों चले गये ? "शखधघर--नही माताजी, भगढ़ा तो नहीं हुआ ।",वृद्धा--तुम्हारे पिता क्यों चले गये ?,"शंखधर--नहीं माताजी, झगड़ा तो नहीं हुआ ।" "शंखधर--पॉच साल हो गये, माता ! पिताजी को खोजने निकल पढ़ा था; पर श्रत्र तक कहीं पता नहीं चला |","शंखधर--नहीं माताजी, झगड़ा तो नहीं हुआ ।","शंखधर--पाँच साल हो गये, माता ! पिताजी को खोजने निकल पड़ा था, पर अब तक कहीं पता नहीं चला ।" "( शंसघर से ) क्‍यों बेटा, उम्दारे पिताजी को क्या अवस्था होगी ?","शंखधर--पाँच साल हो गये, माता ! पिताजी को खोजने निकल पड़ा था, पर अब तक कहीं पता नहीं चला ।","(शंखधर से) क्यों बेटा, तुम्हारे पिताजी की क्या अवस्था होगी ?" "बोला-हों माताजी, उनका रग बहुत गोस है ।","(शंखधर से) क्यों बेटा, तुम्हारे पिताजी की क्या अवस्था होगी ?","बोला--हां माताजी, उनका रंग बहुत गोरा है ।" डुबकियाँ खाते देखा तो चट पानी में तैर गये ओर मुके निकाल लाये ।,"बोला--हां माताजी, उनका रंग बहुत गोरा है ।","डुबकियां खाते देखा, तो चट पानी में तैर गये और मुझे निकाल लाए ।" इस बीच में कई जानें बचायीं |,"डुबकियां खाते देखा, तो चट पानी में तैर गये और मुझे निकाल लाए ।",इस बीच में कई जानें बचाईं । "एक युवती ने कह्ा--यहाँ उनकी एक तसवीर भी तो रखी हुई हे ' इद्धा--होँ वेटा, इसकी तो हमें याद ही नहीं रही थी ।",इस बीच में कई जानें बचाईं ।,"एक युवती ने कहा--यहाँ उनकी तस्वीर भी तो रखी हुई है! वृद्धा--हाँ बेटा, इसकी तो हमें याद ही नहीं रही थी ।" "अगर यह वास्तव में चक्रघर ही का चित्र , तो शद्भघर के सामने एक नयी समस्या खड़ी हो जायगी ।","एक युवती ने कहा--यहाँ उनकी तस्वीर भी तो रखी हुई है! वृद्धा--हाँ बेटा, इसकी तो हमें याद ही नहीं रही थी ।","अगर यह वास्तव में चक्रधर ही का चित्र है, तो शंखधर के सामने एक नई समस्या खड़ी हो जायगी ।" "सहसा बृद्धा ने कहा--देखो, वेणा ! यह तसवीर है |","अगर यह वास्तव में चक्रधर ही का चित्र है, तो शंखधर के सामने एक नई समस्या खड़ी हो जायगी ।",सहसा वृद्धा ने कहा--देखो बेटा ! यह तस्वीर है । "आशा, भय, चिन्ता श्रोर अस्थिरता से व्यम्म होकर वह इतमुद्धि सा खढ़ा रह गया, मानो किसी पुरानी बात को याद कर रहा हो |",सहसा वृद्धा ने कहा--देखो बेटा ! यह तस्वीर है ।,"आशा, भय, चिंता और अस्थिरता से व्यग्र होकर वह हतबुद्धि-सा खडा रह गया, मानो किसी पुरानी बात को याद कर रहा है ।" "जब्र तक वह निगाहों से छिप न गया, सब्र फी-सब उसकी ओर टकटको लगाये ताकती रहीं; लेकिन शखघर ने एक वार भी पीछे फिरकर न देखा ।","आशा, भय, चिंता और अस्थिरता से व्यग्र होकर वह हतबुद्धि-सा खडा रह गया, मानो किसी पुरानी बात को याद कर रहा है ।","जब तक वह निगाहों से छिप न गया, सबकी सब उसकी ओर टकटकी लगाए ताकती रहीं, लेकिन शंखधर ने एक बार भी पीछे फिरकर न देखा ।" शसधर बड़ी तीध्र गति से पतली पगडणडी पर चला जा रह्य था ।,"जब तक वह निगाहों से छिप न गया, सबकी सब उसकी ओर टकटकी लगाए ताकती रहीं, लेकिन शंखधर ने एक बार भी पीछे फिरकर न देखा ।",शंखधर बड़ी तीव्र गति से पतली पगडण्डी पर चला जा रहा था । गगन-मण्डल पर ऊषा का लोहित प्रऊाश छा गया |,शंखधर बड़ी तीव्र गति से पतली पगडण्डी पर चला जा रहा था ।,गगन मण्डल पर ऊषा का लोहित प्रकाश छा गया । "पक्चीगय इच्तों पर चहकने लगे, पर साइंगज का कहीं पता न चला |",गगन मण्डल पर ऊषा का लोहित प्रकाश छा गया ।,"पक्षीगण वृक्षों पर चहकने लगे, पर साईंगंज का कहीं पता न चला ।" ह सहसा एक बहुत दूर की पहाड़ी पर कुछ छोटे छोटे मकान बालिकाओं के घरेदि की तरह दिखायी दिये |,"पक्षीगण वृक्षों पर चहकने लगे, पर साईंगंज का कहीं पता न चला ।",सहसा एक बहुत दूर की पहाड़ी पर कुछ छोटे-छोटे मकान बालिकाओं के घरौंदे की तरह दिखाई दिए । दो चार आदमी भी गुड़ियों के सदश चलते-फिरते नजर झआाये ।,सहसा एक बहुत दूर की पहाड़ी पर कुछ छोटे-छोटे मकान बालिकाओं के घरौंदे की तरह दिखाई दिए ।,दो-चार आदमी भी गुड़ियों के सदृश चलते-फिरते नजर आये । वह कमर बाँधकर चढने लगा |,दो-चार आदमी भी गुड़ियों के सदृश चलते-फिरते नजर आये ।,वह कमर बाँधकर चढ़ने लगा । शह्भुधर---वाबा भगवानदास को नहीं जानते ?,वह कमर बाँधकर चढ़ने लगा ।,शंखधर--बाबा भगवानदास को नहीं जानते ? साईंगन यही है न ?,शंखधर--बाबा भगवानदास को नहीं जानते ?,साईंगंज यही है न ? शह्भूघर ने हवाश होकर कहा--तो साइईंगज यहाँ से कितनी दूर है ?,साईंगंज यही है न ?,शंखधर ने हताश होकर कहा--तो साईंगंज यहाँ से कितनी दूर है ? बैठने का समय फिर आयेगा |,शंखधर ने हताश होकर कहा--तो साईंगंज यहाँ से कितनी दूर है ?,बैठने का समय फिर आयेगा । किसान ने कह्ा--क्या चल दिये माई ?,बैठने का समय फिर आयेगा ।,"किसान ने कहा--क्या चल दिए, भाई ?" "सारी प्रकृति वात्सल्य के रंग में टूब्ी हुई है, थे बल एक ही पाणी अभागा है, जिसपर इस प्रकृति वात्सल्य का जया भी अवसर नहीं ! वह शंखघर हे ।","किसान ने कहा--क्या चल दिए, भाई ?","सारी प्रकृति वात्सल्य के रंग में डूबी हुई है, केवल एक ही प्राणी अभागा है, जिस पर इस प्रकृति-वात्सल्य का जरा भी असर नहीं वह शंखधर है ।" "जिसे दिल से भुला देने के लिए ही उन्होंने यह तपस्या शत लिया है, उसे सामने देखकर क्या बह प्रसन्न टगे ?","सारी प्रकृति वात्सल्य के रंग में डूबी हुई है, केवल एक ही प्राणी अभागा है, जिस पर इस प्रकृति-वात्सल्य का जरा भी असर नहीं वह शंखधर है ।","जिसे दिल से भुला देने के लिए ही उन्होंने यह तपस्या व्रत लिया है, उसे सामने देखकर वह प्रसन्न होंगे ?" श्रवश्य ही उनसे घर चलने का श्नुरोध करेगा |,"जिसे दिल से भुला देने के लिए ही उन्होंने यह तपस्या व्रत लिया है, उसे सामने देखकर वह प्रसन्न होंगे ?",अवश्य ही उनसे घर चलने का अनुरोध करेगा । क्या माता की दारण-टशा पर उन्हें दया न आयेगी ?,अवश्य ही उनसे घर चलने का अनुरोध करेगा ।,क्या माता की दारुण दशा पर उन्हें दया न आयेगी ? "क्‍या जब वह सनेंगे कि रानी अम्मों गलकर कॉठा हो गयी हैँ, नानाजी रो रहे है, दादीजी रात-दिन रोया करती ईं, तो क्‍या उनका हृदय ट्रवित न हो जायगा ?",क्या माता की दारुण दशा पर उन्हें दया न आयेगी ?,"क्या जब वह सुनेंगे कि रानी अम्माँ गलकर काँटा हो गयी हैं, नानाजी रो रहे हैं, दादीजी रात-दिन रोया करती हैं, तो क्या उनका हृदय द्रवित न हो जायगा ?" "वह हृदय, जो पर हुश्स से पोझित होता है, क्‍या अपने घरवालो के दुःख से दुखी न होगा ?","क्या जब वह सुनेंगे कि रानी अम्माँ गलकर काँटा हो गयी हैं, नानाजी रो रहे हैं, दादीजी रात-दिन रोया करती हैं, तो क्या उनका हृदय द्रवित न हो जायगा ?","वह हृदय, जो पर दुःख से पीड़ित होता है, क्या अपने घर वालों के दुःख से दुखी न होगा ?" "लेकिन ज्यो ज्यों गॉव निकट आता था, शखधर के पाँव सुस्त पढ़ते जाते थे |","वह हृदय, जो पर दुःख से पीड़ित होता है, क्या अपने घर वालों के दुःख से दुखी न होगा ?","लेकिन ज्यों-ज्यों गाँव निकट आता था, शंखधर के पाँव सुस्त पड़ते जाते थे ।" उमे यह श॒का होने लगी कि वह यहाँ से चले न गये हं ।,"लेकिन ज्यों-ज्यों गाँव निकट आता था, शंखधर के पाँव सुस्त पड़ते जाते थे ।",उसे यह शंका होने लगी कि वह यहाँ से चले न गये हों । "वह जचरदर्ती उनसे आत्मीयता न जतायेगा, मान-न मान, में तेरा मेहमानों न बनेगा ।",उसे यह शंका होने लगी कि वह यहाँ से चले न गये हों ।,"वह जबर्दस्ती उनसे आत्मीयता न जताएगा, 'मान न मान, मैं तेरा मेहमान' न बनेगा ।" "तो क्‍या वह इतने नि्दंय, इतने निष्ठुर हो जायेंगे ?","वह जबर्दस्ती उनसे आत्मीयता न जताएगा, 'मान न मान, मैं तेरा मेहमान' न बनेगा ।","तो क्या वह इतने निर्दयी, इतने निष्ठुर हो जायेंगे ?" "बह उसी भाँति दूर से उनके दशन करके अपने को इतार्थ सममक्ेया, जैसे उनके और मक्त करते हैं ।","तो क्या वह इतने निर्दयी, इतने निष्ठुर हो जायेंगे ?","वह उसी भाँति दूर से उनके दर्शन करके अपने को कृतार्थ समझेगा, जैसे उनके और भक्त करते हैं ।" वह राज्य उसके लिये किसी ऋषि का श्रमिशाप हो गया |,"वह उसी भाँति दूर से उनके दर्शन करके अपने को कृतार्थ समझेगा, जैसे उनके और भक्त करते हैं ।",वह राज्य उसके लिए किसी ऋषि का अभिशाप हो गया । तृष्णा का उसे बहुत दुएढड मिल चुका |,वह राज्य उसके लिए किसी ऋषि का अभिशाप हो गया ।,तृष्णा का उसे बहुत दण्ड मिल चुका । "कोई सढ़ा-गला भझोपड़ा, किसी दृक्त की छोँद पर्वत की गुफा, किसी नदी का तद उसके लिए इस भव्रन से सदस्यों गुना अच्छा था ।",तृष्णा का उसे बहुत दण्ड मिल चुका ।,"कोई सड़ा-गला झोंपड़ा, किसी वृक्ष की छाँह, पर्वत की गुफा, किसी नदी का तट उसके लिए इस भवन से सहस्रों गुना अच्छा था ।" वें दिन फिर न आयेंगे ।,"कोई सड़ा-गला झोंपड़ा, किसी वृक्ष की छाँह, पर्वत की गुफा, किसी नदी का तट उसके लिए इस भवन से सहस्रों गुना अच्छा था ।",वे दिन फिर न आयेंगे । "जब उसका पति जाने लगा, तो वह भी उसके साथ ही क्यो न चली गयी ?",वे दिन फिर न आयेंगे ।,"आह ! जब उसका पति जाने लगा, तो वह भी उसके साथ ही क्यों न चली गयी ?" "लोगों को ईश्वर की याद आती हे, ते उनकी घम-चुद्धि जाग्रत हो जाती है; लेकिन किन लोगों की ?","आह ! जब उसका पति जाने लगा, तो वह भी उसके साथ ही क्यों न चली गयी ?","लोगों को ईश्वर की याद आती है, तो उनकी धर्मबुद्धि जागृत हो जाती है, लेकिन किन लोगों की ?" "जिनके सर्वनाश से ऊुछ कसर रद गयी हो, जिनके पास रक्षा करने के योग्य कोर बल रह गयी हो, लेकिन जिसका स्वनाश हो चुका है उसे किस बात का डर ?","लोगों को ईश्वर की याद आती है, तो उनकी धर्मबुद्धि जागृत हो जाती है, लेकिन किन लोगों की ?","जिनके सर्वनाश में कुछ कसर रह गयी हो, जिनके पास रक्षा करने के योग्य कोई वस्तु रह गयी हो, लेकिन जिसका सर्वनाश हो चुका है, उसे किस बात का डर ?" शत राज़ा साएब के पास जाने का किसी को साहस नहीं ट्टोता ।,"जिनके सर्वनाश में कुछ कसर रह गयी हो, जिनके पास रक्षा करने के योग्य कोई वस्तु रह गयी हो, लेकिन जिसका सर्वनाश हो चुका है, उसे किस बात का डर ?",अब राजा साहब के पास जाने का किसी को साहस नहीं होता । अहल्पा भी उनसे कुछ कटने हुए थर-थर कॉँउती है ।,अब राजा साहब के पास जाने का किसी को साहस नहीं होता ।,अहिल्या भी उनसे कुछ कहते हुए थर-थर काँपती है । "उसका ड्ूबता हुआ छुृदय इस तिनके के सद्दरे को चोरों से पकढ़े हुए हैं, लेकिन द्वाथ रे मानव छदय ! इस घोर विपत्ति में भी मान का भूत सिर से नहीं उतरता ।",अहिल्या भी उनसे कुछ कहते हुए थर-थर काँपती है ।,"उसका डूबता हुआ हृदय इस तिनके के सहारे को जोरों से पकड़े हुए है, लेकिन हाय रे मानव हृदय ! इस घोर विपत्ति में भी मान का भूत सिर से नहीं उतरता ।" "जो मनोरमा श्रत्न गाने बजाने ओर सेर- सपाटे में मग्न रहती है, उससे वह अपनी व्यथा कैसे कह सकेगो ?","उसका डूबता हुआ हृदय इस तिनके के सहारे को जोरों से पकड़े हुए है, लेकिन हाय रे मानव हृदय ! इस घोर विपत्ति में भी मान का भूत सिर से नहीं उतरता ।","जो मनोरमा अब गाने-बजाने और सैर-सपाटे में मग्न रहती है, उससे वह अपनी व्यथा कैसे कह सकेगी ?" "यह भाग्य-््यग्य रोने कीं बस्तु नहों, हंसने कीं वस्तु है ।","जो मनोरमा अब गाने-बजाने और सैर-सपाटे में मग्न रहती है, उससे वह अपनी व्यथा कैसे कह सकेगी ?","यह भाग्य-व्यंग्य रोने की वस्तु नहीं, हँसने की वस्तु है ।" फितनी ही बार द्वार तक आकर लोट गयी |,"यह भाग्य-व्यंग्य रोने की वस्तु नहीं, हँसने की वस्तु है ।",कितनी ही बार द्वार तक आकर लौट गयी । "जिसकी सदैव शअ्रवहेलना की, उसके सामने अ्रत्र श्रपनी गरन लेकर जाने में उसे लज्ञा आती थी; लेकिन जब भगवान्‌ ने ही उसका गर्व तोड़ दिया था, तो अब भूठी ऐठ से क्या हो सकता था |",कितनी ही बार द्वार तक आकर लौट गयी ।,"जिसकी सदैव अवहेलना की, उसके सामने अब अपनी गरज लेकर जाने में उसे लज्जा आती थी, लेकिन जब भगवान् ने ही गर्व तोड़ दिया था, तो अब झूठी ऐंठ से क्या हो सकता था ?" "जिस पर पठी ही नहीं, वह क्यों रोयेगा ?","जिसकी सदैव अवहेलना की, उसके सामने अब अपनी गरज लेकर जाने में उसे लज्जा आती थी, लेकिन जब भगवान् ने ही गर्व तोड़ दिया था, तो अब झूठी ऐंठ से क्या हो सकता था ?","जिस पर पड़ी ही नहीं, वह क्यों रोएगा ?" "बोली -- अगर भगवान्‌ कसी को रुज्ञाकर ही प्रसन्न होता है, त्थ तो वह विचित्र ही जीव है ।","जिस पर पड़ी ही नहीं, वह क्यों रोएगा ?","बोली-अगर भगवान् किसी को रुलाकर ही प्रसन्न होता है, तब तो वह विचित्र ही जीव है ।" "श्रगर तुम्दारा पृत्र उस बात पर तुमसे रूठ जाय ओर तुम्हें अपना शत्रु समझने लगे, तो तुम्हें किलना हु रत होगा ?","बोली-अगर भगवान् किसी को रुलाकर ही प्रसन्न होता है, तब तो वह विचित्र ही जीव है ।","अगर तुम्हारा पुत्र इस बात पर तुमसे रूठ जाय और तुम्हें अपना शत्रु समझने लगे, तो तुम्हें कितना दु:ख होगा ?" क्‍या वह भी इस घर से निकलकर सच्चे आनन्द का अ्रनुभव करेगी ।,"अगर तुम्हारा पुत्र इस बात पर तुमसे रूठ जाय और तुम्हें अपना शत्रु समझने लगे, तो तुम्हें कितना दु:ख होगा ?",क्या वह भी इस घर से निकलकर सच्चे आनन्द का अनुभव करेगी ? क्‍या वह सारो अन्तर्वेदना इसी विलास-प्रेम के कारण है |,क्या वह भी इस घर से निकलकर सच्चे आनन्द का अनुभव करेगी ?,क्या वह सारी अंतर्वेदना इसी विलास प्रेम के कारण है ? सन्देशा पाते ही जगदीशपुर आये ।,क्या वह सारी अंतर्वेदना इसी विलास प्रेम के कारण है ?,सन्देशा पाते ही जगदीशपुर आये । सारे इलाके के सोनार पकड़ बुलाये गये ओर गहने बनने लगे |,सन्देशा पाते ही जगदीशपुर आये ।,सारे इलाके के सुनार पकड़ बुलाए गये और गहने बनने लगे । इलवाइयों के कड़ाह चढ़ गये ओर पकवान बनने लगे ।,सारे इलाके के सुनार पकड़ बुलाए गये और गहने बनने लगे ।,हलवाइयों के कढ़ाह चढ़ गये और पकवान बनने लगे । अ्रहल्या यह सामान देख-देखकर दिल में क्ँकलाती और शर्माती थी ।,हलवाइयों के कढ़ाह चढ़ गये और पकवान बनने लगे ।,अहिल्या यह सामान देख-देखकर दिल में झुँझलाती और शरमाती थी । सोचती-- कहाँ-से-कह्ाँ मैंने यह विपत्ति मोल ले ली ।,अहिल्या यह सामान देख-देखकर दिल में झुँझलाती और शरमाती थी ।,सोचाती-कहाँ से कहाँ मैंने यह विपत्ति मोल ले ली । चक्रधर चिन्तित नेन्नों से उसके मुंह की श्रोर ताक रहे थे ।,सोचाती-कहाँ से कहाँ मैंने यह विपत्ति मोल ले ली ।,चक्रधर चिंतित नेत्रों से उसके मुँह की ओर ताक रहे थे । गाँव के कई आदमी झास-पास खड़े पखा भाल रहे थे ।,चक्रधर चिंतित नेत्रों से उसके मुँह की ओर ताक रहे थे ।,गाँव के कई आदमी आस-पास खड़े पँखा झल रहे थे । "उसकी चिर-सनन्‍्तप्त आत्मा एक श्रलौकिक शीतलता, एक अपू् तृप्ति, एक स्वर्गीय आनन्द का श्रनुभव कर रही थी ।",गाँव के कई आदमी आस-पास खड़े पँखा झल रहे थे ।,"उसकी चिर सन्तप्त आत्मा एक अलौकिक शीतलता, एक अपूर्व तृप्ति, एक स्वर्गीय आनन्द का अनुभव कर रही थी ।" "चक्रधर ने स्नेह-मघुर स्वर में पूछा--क्यों वेटा, श्रव कैसी तबीभ्रत है ?","उसकी चिर सन्तप्त आत्मा एक अलौकिक शीतलता, एक अपूर्व तृप्ति, एक स्वर्गीय आनन्द का अनुभव कर रही थी ।","चक्रधर ने स्नेह-मधुर स्वर में पूछा--क्यों बेटा, अब कैसी तबीयत है ?" "श्रगर कहता है--श्रव में अच्छा हूँ, तो इस सुख से वचित होना पढ़ेगा ।","चक्रधर ने स्नेह-मधुर स्वर में पूछा--क्यों बेटा, अब कैसी तबीयत है ?","अगर कहता है--अब मैं अच्छा हूँ, तो इस सुख से वंचित होना पड़ेगा ।" "वायु ओर प्रकाश, वृक्ष श्रौर वन पृथ्वी और पव॑त कमी इतने प्यारे न लगते ये ।","अगर कहता है--अब मैं अच्छा हूँ, तो इस सुख से वंचित होना पड़ेगा ।","वायु और प्रकाश, वृक्ष और वन, पृथ्वी और पर्वत कभी इतने प्यारे न लगते थे ।" शखबर--में आप ही ऊे दर्शनों फे लिए आया हूँ ।,"वायु और प्रकाश, वृक्ष और वन, पृथ्वी और पर्वत कभी इतने प्यारे न लगते थे ।",शंखधर--मैं आप ही के दर्शनों के लिए आया हूँ । प्रकट में उसने कहा--मुमे! तो यह स्वग॑-यात्रा-सी मालूम होती थी |,शंखधर--मैं आप ही के दर्शनों के लिए आया हूँ ।,प्रकट में उसने कहा-मुझे तो यह स्वर्ग यात्रा-सी मालूम होती थी । "शखघर ने मुंह-द्दाथ घोया और चाहता था कि खाली पेट पानी पी ले, लेकिन चक्रघर ने मना किया--हाँ-हाँ यह कया ?",प्रकट में उसने कहा-मुझे तो यह स्वर्ग यात्रा-सी मालूम होती थी ।,"शंखधर ने मुँह-हाथ धोया और चाहता था कि खाली पेट पानी पी ले, लेकिन चक्रधर ने मना किया-हाँ-हाँ, यह क्या ?" "लोटा हाथ से न छीना गया द्वोता, तो वह त्रिना दोचचार घुड़कियों खाये न मानता ।","शंखधर ने मुँह-हाथ धोया और चाहता था कि खाली पेट पानी पी ले, लेकिन चक्रधर ने मना किया-हाँ-हाँ, यह क्या ?",लोटा हाथ से न छीना गया होता तो वह बिना दो-चार घुड़कियाँ खाए न मानता । वहीं एक बच के नीचे चक्रधर की रसोई बनी थी ।,लोटा हाथ से न छीना गया होता तो वह बिना दो-चार घुड़कियाँ खाए न मानता ।,वहीं एक वृक्ष के नीचे चक्रधर की रसोई बनी थी । "शझ्धघर उनके साथ मोजन करने गया, तो देखा कि रसोई में पूरो, मिठाई, दूध, दह्दी, सब्र कुछु है ।",वहीं एक वृक्ष के नीचे चक्रधर की रसोई बनी थी ।,"शंखधर उनके साथ भोजन करने गया, तो देखा कि रसोई में पूरी, मिठाई, दूध, दही सब कुछ है ।" "शझ्भधर ने कह्द--आप तो सब्र मुझी को दिये जाते है, अपने लिए कुछ रखा ही नहीं ।","शंखधर उनके साथ भोजन करने गया, तो देखा कि रसोई में पूरी, मिठाई, दूध, दही सब कुछ है ।","शंखधर ने कहा--आप तो सब मुझी को दिए जाते हैं, अपने लिए कुछ रखा ही नहीं ?" "चक्रधर-म तो वेट, रोटियों के सिवा शोर कुछ नहीं खाता |","शंखधर ने कहा--आप तो सब मुझी को दिए जाते हैं, अपने लिए कुछ रखा ही नहीं ?","चक्रधर--मैं तो बेटा, रोटियों के सिवा और कुछ नहीं खाता ।" शझूधर--मेरा भोजन तो थोड़ा-सा सत्त या चवेना हे ।,"चक्रधर--मैं तो बेटा, रोटियों के सिवा और कुछ नहीं खाता ।",शंखधर--मेरा भोजन तो थोड़ा-सा सत्तू या चबेना है । "अब ते खाओगे, या अ्रव भी नहीं ?",शंखधर--मेरा भोजन तो थोड़ा-सा सत्तू या चबेना है ।,"अब तो खाओगे, या अब भी नहीं ?" "चक्रधर ने विकल् ह्वोकर कह्दा-: अच्छा लाओ, त॒म्हीं अपने हाथ से दे दो ।","अब तो खाओगे, या अब भी नहीं ?","चक्रधर ने विकल होकर कहा--अच्छा लाओ, तुम्हीं अपने हाथ से दे दो ।" अन्न से मैं तुम्हें अलग भोजन मेंगवा दिया करूँगा |,"चक्रधर ने विकल होकर कहा--अच्छा लाओ, तुम्हीं अपने हाथ से दे दो ।",अब से मैं तुम्हें अलग भोजन मंगवा दिया करूँगा । शह्भधर--इसीलिए तो मैंने थोद़ी-थोड़ी दी हैं |,अब से मैं तुम्हें अलग भोजन मंगवा दिया करूँगा ।,शंखधर--इसीलिए तो मैंने थोड़ी-थोड़ी दी हैं । तो क्‍या तुम सब की-सब मेरे ही पेट में ढेंत देना चाहते हो ?,शंखधर--इसीलिए तो मैंने थोड़ी-थोड़ी दी हैं ।,तो क्या तुम सबकी सब मेरे ही पेट में लूँस देना चाहते हो ? "वह्द एकान्तवासी, संयमी त्रतघारी योगी आज इस श्रपरिचित दीन बालक के दुराग्रह्ों को किसी भाँति न टाल सकता था |",तो क्या तुम सबकी सब मेरे ही पेट में लूँस देना चाहते हो ?,"वह एकान्तवासी, संयमी, व्रतधारी योगी आज इस अपरिचित दीन बालक के दुराग्रहों को किसी भाँति न टाल सकता था ।" आज उसे यह सोमाग्य प्राप्त हुआ है कि अ्रपने पूज्य पिता की कुछ सेवा कर सके ।,"वह एकान्तवासी, संयमी, व्रतधारी योगी आज इस अपरिचित दीन बालक के दुराग्रहों को किसी भाँति न टाल सकता था ।",आज उसे यह सौभग्य प्राप्त हुआ कि अपने पूज्य पिता की कुछ सेवा कर सके । कठिन तपस्या के बाद आज उसे यह सेवा वरदान मिला हे ।,आज उसे यह सौभग्य प्राप्त हुआ कि अपने पूज्य पिता की कुछ सेवा कर सके ।,कठिन तपस्या के बाद आज उसे यह वरदान मिला है । तुम भोनन कर लो ओर मुझसे जो कुछ कहना हो कद्दो |,कठिन तपस्या के बाद आज उसे यह वरदान मिला है ।,"तुम भोजन कर लो और मुझसे जो कुछ कहना हो, कहो ।" शुंखघर--यहद मुझे कुछ नहीं मालुम ।,"तुम भोजन कर लो और मुझसे जो कुछ कहना हो, कहो ।",शंखधर--यह मुझे कुछ नहीं मालूम । पिताजी तो मेरे बचपन द्वी में घर से चले गये श्रोर माताजी का पॉच साल से मुझे कोई समाचार नहीं मिला ।,शंखधर--यह मुझे कुछ नहीं मालूम ।,पिताजी तो मेरे बचपन ही में घर से चले गये और माताजी का पाँच साल से मुझे कोई समाचार नहीं मिला । "वह सायबान के स्तम्भ के सद्दारे बैठ गये ओर एक ऐसे स्वर में बोले, जो थ्राशा ओर मय के बेगों को दवाने के कारण क्षीण हो गया था |",पिताजी तो मेरे बचपन ही में घर से चले गये और माताजी का पाँच साल से मुझे कोई समाचार नहीं मिला ।,"वह सायबान के स्तम्भ के सहारे बैठ गये और एक ऐसे स्वर में बोले, जो आशा और भय के वेगों को दबाने के कारण क्षीण हो गया था ।" "इस प्रश्न का उत्तर कया वही होगा, जिछको सम्भावना चक्रधर को विकल श्रौर पराभूत कर रही थीं ?","वह सायबान के स्तम्भ के सहारे बैठ गये और एक ऐसे स्वर में बोले, जो आशा और भय के वेगों को दबाने के कारण क्षीण हो गया था ।","इस प्रश्न का उत्तर क्या वही होगा, जिसकी सम्भावना चक्रधर को विकल और पराभूत कर रही थी ?" उनके सामने एक कठिन समस्या उपत्यित हो गयी |,"इस प्रश्न का उत्तर क्या वही होगा, जिसकी सम्भावना चक्रधर को विकल और पराभूत कर रही थी ?",उनके सामने एक कठिन समस्या उपस्थित हो गयी । "बह घड़कते हुए हृदय से उत्तर की ओर कान लगाये थे, जैसे कोई श्ररराघो अयना कर्म- दुर्ड सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर कान लगाये खड़ा दो ।",उनके सामने एक कठिन समस्या उपस्थित हो गयी ।,"वह धड़कते हुए हृदय से उत्तर की ओर कान लगाए थे, जैसे कोई अपराधी अपना कर्मदंड सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर कान लगाए खड़ा हो ।" चक्रधर--पओर नु॒म्दारे पिता का क्या नाम है ?,"वह धड़कते हुए हृदय से उत्तर की ओर कान लगाए थे, जैसे कोई अपराधी अपना कर्मदंड सुनने के लिए न्यायाधीश की ओर कान लगाए खड़ा हो ।",चक्रधर--और तुम्हारे पिता का क्या नाम है ? "'शद्भघर' यही एक स्मृति थी, जो उस प्राण-शत्य दशा में चेतना को सस्कारों में बाँघे हुई थी ।",चक्रधर--और तुम्हारे पिता का क्या नाम है ?,"'शंखधर !' यही एक स्मृति थी, जो उस प्राण-शून्य दशा में चेतना को संस्कारों में बाँधे हुई थी ।" "४५ राजा विशालतिंद ने जिस होतले से अइल्या का गौना किया, वह राजाओं रईसो में भी बहुत कम देखने में आता है ।","'शंखधर !' यही एक स्मृति थी, जो उस प्राण-शून्य दशा में चेतना को संस्कारों में बाँधे हुई थी ।","पैंतालीस राजा विशालसिंह ने जिस हौसले से अहिल्या का गौना किया, वह राजाओं-रईसों में भी बहुत कम देखने में आता है ।" "बतेन, कपड़े, शीशे के सामान, लकड़ी की श्रलभ्य वस्तुएँ मेवे, मिठाश्याँ, गायें, भेसे--इनका हफ्तों तक ताता लगा रहा |","पैंतालीस राजा विशालसिंह ने जिस हौसले से अहिल्या का गौना किया, वह राजाओं-रईसों में भी बहुत कम देखने में आता है ।","बर्तन, कपड़े, शीशे के समान, लकड़ी की अलभ्य वस्तुएँ, मेवे, मिठाइयाँ, गायें, भैसें-इनका हफ्तों तक ताँता लगा रहा ।" "दो द्वाथी श्रीर पाँच घोड़े भी मिले, जिनके बाँधने के लिए घर में जगह न थी ।","बर्तन, कपड़े, शीशे के समान, लकड़ी की अलभ्य वस्तुएँ, मेवे, मिठाइयाँ, गायें, भैसें-इनका हफ्तों तक ताँता लगा रहा ।","दो हाथी और पांच घोड़े भी मिले, जिनके बाँधने के लिए घर में जगह न थी ।" "कोई भोगनेवाला नहीं ! श्रगर यही सम्पत्ति आज के पचीस साल पहले मिलो दोतो, तो उनका जीवन सफल हो जाता, जिन्दगी का कुछ मजा उठा लेते, श्रव बुढापे में इनको लेकर क्या करें ?","दो हाथी और पांच घोड़े भी मिले, जिनके बाँधने के लिए घर में जगह न थी ।","कोई भोगने वाला नहीं! अगर यही सम्पत्ति आज से पचीस साल पहले मिली होती, तो उनका जीवन सफल हो जाता, जिंदगी का कुछ मजा उठा लेते, अब बुढ़ापे में इनको लेकर क्या करें ?" "बहू हे, उसे रोने से फ़ुरखत नही ।","कोई भोगने वाला नहीं! अगर यही सम्पत्ति आज से पचीस साल पहले मिली होती, तो उनका जीवन सफल हो जाता, जिंदगी का कुछ मजा उठा लेते, अब बुढ़ापे में इनको लेकर क्या करें ?","बहू है, उसे रोने से फुर्सत नहीं ।" "वहों उसे घरशहस्थी से कोई मतलब्र न या, यहाँ वह विपत्ति भो सिर पढ़ी ।","बहू है, उसे रोने से फुर्सत नहीं ।","वहाँ उसे घर-गृहस्थी से कोई मतलब न था, यहाँ वह विपत्ति भी सिर पड़ी ।" बहू हो के कारण पोता भी हाथ से गया ।,"वहाँ उसे घर-गृहस्थी से कोई मतलब न था, यहाँ वह विपत्ति भी सिर पड़ी ।",बहू के ही कारण पोता भी हाथ से गया । अ्दल्या मे भी वह छूत मानती थो ।,बहू के ही कारण पोता भी हाथ से गया ।,अहिल्या से भी वह छूत मानती थी । बर्तनों मे कई बड़े बढ़े कए्डाल भी थे ।,अहिल्या से भी वह छूत मानती थी ।,बर्तनों में कई बड़े-बड़े कण्डाल भी थे । "कई दिन वाद अदल्या को यह खबर मिल्ली, तो उसने जाकर सास से पूछा-- अम्मॉजी, वह बढ़ा करहाल कहाँ है, दिखायी नहीं देता ?",बर्तनों में कई बड़े-बड़े कण्डाल भी थे ।,"कई दिन बाद अहिल्या को यह खबर मिली, तो उसने जाकर सास से पूछा-अम्माँजी, वह बड़ा कण्डाल कहाँ है, दिखाई नहीं देता ?" "निर्मला ने कह्द--वावा, में नहीं जानती, कैला कएडाल था ।","कई दिन बाद अहिल्या को यह खबर मिली, तो उसने जाकर सास से पूछा-अम्माँजी, वह बड़ा कण्डाल कहाँ है, दिखाई नहीं देता ?","निर्मला ने कहा--बाबा, मैं नहीं जानती, कैसा कण्डाल था ।" "अदइल्या--यह तो मे नहीं कहती; लेकिन चीज का पता तो लगना दी चादिए, ।","निर्मला ने कहा--बाबा, मैं नहीं जानती, कैसा कण्डाल था ।","अहिल्या--यह तो मैं नहीं कहती, लेकिन चीज का पता तो लगना ही चाहिए ।" "निर्मला -ठुम चीजे लादकर ले जाओगी, तुम्हों पत्ता लगातो फिरो ।","अहिल्या--यह तो मैं नहीं कहती, लेकिन चीज का पता तो लगना ही चाहिए ।","निर्मला--तुम चीजें लादकर ले जाओगी, तुम्हीं पता लगाती फिरो ।" "उसने निश्चय किया, श्रव इन चीजों के लिए कभी न बोलगी ।","निर्मला--तुम चीजें लादकर ले जाओगी, तुम्हीं पता लगाती फिरो ।","उसने निश्चय किया, अब इन चीजों के लिए कभी न बोलूँगी ।" इस तरह कई महीने गुजर गये; अहल्या का आशा दीपक दिन-दिन मन्द होता गया |,"उसने निश्चय किया, अब इन चीजों के लिए कभी न बोलूँगी ।","इस तरह कई महीने गुजर गये, अहिल्या का आशा-दीपक दिन-दिन मन्द होता गया ।" सम्पत्ति के द्वाथ से निकल जाने पर फिर उसके लिए कोन आश्रय रह जायगा ?,"इस तरह कई महीने गुजर गये, अहिल्या का आशा-दीपक दिन-दिन मन्द होता गया ।",सम्पत्ति के हाथ से निकल जाने पर फिर उसके लिए कौन आश्रय रह जायगा ? "पिता ने इतनी धूम-घाम से उसे विदा किया, इसका श्रर्थ द्वी यह या कि अ्रव तुप्त इस घर से सदा के लिए. जा रही हो ।",सम्पत्ति के हाथ से निकल जाने पर फिर उसके लिए कौन आश्रय रह जायगा ?,"पिता ने इतनी धूमधाम से उसे विदा किया, इसका अर्थ ही यह था कि अब तुम इस घर से सदा के लिए जा रही हो ।" "यहाँ रहकर वह अपने उद्धार के लिए. कुछु न कर सकेगी, वह बात शनैःशनेः झनुमव से सिद्ध हो गयी ।","पिता ने इतनी धूमधाम से उसे विदा किया, इसका अर्थ ही यह था कि अब तुम इस घर से सदा के लिए जा रही हो ।","यहाँ रहकर वह अपने उद्धार के लिए कुछ न कर सकेगी, यह बात शनैः-शनैः अनुभव से सिद्ध हो गयी ।" "जब तक मन की जृत्ति न बदल जाय, तीय॑-यात्रा पाखण्ड सा जान पड़ती थी ।","यहाँ रहकर वह अपने उद्धार के लिए कुछ न कर सकेगी, यह बात शनैः-शनैः अनुभव से सिद्ध हो गयी ।","जब तक मन की वृत्ति न बदल जाय, तीर्थयात्रा पाखण्ड-सी जान पड़ती थी ।" "खसली मैका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहाँ मिला, वह फिर न मसोत्र हुआ ।","जब तक मन की वृत्ति न बदल जाय, तीर्थयात्रा पाखण्ड-सी जान पड़ती थी ।","असली मौका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहाँ मिला, वह फिर न नसीब हुआ ।" इधर कई महीनों से वागीश्यरी का पत्र न आया था; पर मालूम हुआ था कि वद् आगरे द्वी में है ।,"असली मौका न होने पर भी जीवन का जो सुख वहाँ मिला, वह फिर न नसीब हुआ ।",इधर कई महीनों से वागीश्वरी का पत्र न आया था; पर मालूम हुआ कि वह आगरे ही में है । "अहल्या ने फई बार बुलाया था; पर वागीश्वरी ने लिखा था--मैं बढ़े आ्रारम से हूँ, मुझे अत्र यही पढ़ी रहने दो ।",इधर कई महीनों से वागीश्वरी का पत्र न आया था; पर मालूम हुआ कि वह आगरे ही में है ।,"अहिल्या ने कई बार बुलाया था; पर वागीश्वरी ने लिखा था-मैं बड़े आराम से हूँ, मुझे अब यहीं पड़ी रहने दो ।" "जो चीज चाहेगी, उठा ले जायगी, कोई दवाथ पकरने- वाला या ठोकनेवाला न रहेगा ।","अहिल्या ने कई बार बुलाया था; पर वागीश्वरी ने लिखा था-मैं बड़े आराम से हूँ, मुझे अब यहीं पड़ी रहने दो ।","जो चीज चाहेगी, उठा ले जायगी, कोई हाथ पकड़ने वाला या टोकने वाला न रहेगा ।" "रानी साहुचा ने तो भुला ही दिया, ठम छोड़े चजी जातो हो ।","जो चीज चाहेगी, उठा ले जायगी, कोई हाथ पकड़ने वाला या टोकने वाला न रहेगा ।","रानी साहिबा ने तो भुला ही दिया, तुम छोड़े चली जाती हो ।" साथ को लौडियाँ चलने को तैयार थीं; पर उसने कसी को ठाथन लिया ।,"रानी साहिबा ने तो भुला ही दिया, तुम छोड़े चली जाती हो ।","साथ की लौंडियाँ चलने को तैयार थीं, पर उसने किसी को साथ न लिया ।" एक छोटी सी कोठरी वच रही थी |,"साथ की लौंडियाँ चलने को तैयार थीं, पर उसने किसी को साथ न लिया ।",एक छोटी-सी कोठरी बच रही थी । "न मुँह में दांत, न श्राँखों मं ज्योति, सिर के चाल सन हो गये थे, कमर कुककर कमान हो गयी थी ।",एक छोटी-सी कोठरी बच रही थी ।,"न मुँह में दाँत, न आँखों में ज्योति, सिर के बाल सन हो गये थे, कमर झुककर कमान हो गयी थी ।" दोनों गले मिलकर खूब रोयीं |,"न मुँह में दाँत, न आँखों में ज्योति, सिर के बाल सन हो गये थे, कमर झुककर कमान हो गयी थी ।",दोनों गले मिलकर खूब रोईं । "जब तक आँखें थीं, सिलाई करती रद्दी |",दोनों गले मिलकर खूब रोईं ।,"जब तक आँखें थीं, सिलाई करती रही ।" कभी-कभी उनपर जी मुँकलाता है ।,"जब तक आँखें थीं, सिलाई करती रही ।",कभी-कभी उन पर जी झुँझलाता है । लेकिन अहल्या दाथ-मुँह घोने न उठी |,कभी-कभी उन पर जी झुँझलाता है ।,लेकिन अहिल्या हाथ-मुँह धोने न उठी । "नेहरवाते घुलाते दूँ ओर नहीं जातो, हालाँकि इस दशा में मेके चली जाती, तो कोई बुरा न कहना |",लेकिन अहिल्या हाथ-मुँह धोने न उठी ।,"नैहर वाले बुलाते हैं और नहीं जाती, हालाँकि इस दशा में मैके चली जाती, तो कोई बुरा न कहता ।" "राजकुमारी ओर पीछे चलकर र/जमाता बनने की धुन में ठुके पति की परव हो न रही, वूने सम्पत्ति के सामने पति को कुछ न समझता, उसको अव- हेलना फी |","नैहर वाले बुलाते हैं और नहीं जाती, हालाँकि इस दशा में मैके चली जाती, तो कोई बुरा न कहता ।","राजकुमारी और पीछे चलकर राजमाता बनने की धुन में तुझे पति की परवाह ही न रही, तूने सम्पत्ति के सामने पति को कुछ न समझा, उसकी अवहेलना की ।" बागीश्वरी ने फिर कह्य--श्रभी तक तू बैठी ही है ।,"राजकुमारी और पीछे चलकर राजमाता बनने की धुन में तुझे पति की परवाह ही न रही, तूने सम्पत्ति के सामने पति को कुछ न समझा, उसकी अवहेलना की ।",वागीश्वरी ने फिर कहा--अभी तक तू बैठी ही है । तब्र तक में तेरे लिए. गरम रोटियों सेकती हूँ ।,वागीश्वरी ने फिर कहा--अभी तक तू बैठी ही है ।,तब तक मैं तेरे लिए गरम रोटियाँ सेकती हूँ । "जिसने अपना चर्चत्य सो दिया, उसे मुख कैसे मिलेगा ?",तब तक मैं तेरे लिए गरम रोटियाँ सेकती हूँ ।,"जिसने अपना सर्वस्व खो दिया, उसे सुख कैसे मिलेगा ?" "मिठसे लेकर तूने पति का त्याग किया, उसको त्वागकर ही पति को पायेगी ।","जिसने अपना सर्वस्व खो दिया, उसे सुख कैसे मिलेगा ?","जिसको लेकर तूने पति का त्याग किया, उसको त्याग कर ही पति को पाएगी ।" ईश्वर ने तेरी परीक्षा ली श्रीर तू उसमें चूक गयी ।,"जिसको लेकर तूने पति का त्याग किया, उसको त्याग कर ही पति को पाएगी ।",ईश्वर ने तेरी परीक्षा ली और तू उसमें चूक गयी । "जब्र तक घन ओर राषज्य का मोट न छोड़ेगी, तुके उस त्यागी पुरुष फे दर्शन न ऐंगे ।",ईश्वर ने तेरी परीक्षा ली और तू उसमें चूक गयी ।,"जब तक धन और राज्य का मोह न छोड़ेगी, तुझे उस त्यागी पुरुष के दर्शन न होंगे ।" मुझे शट्भा होती दे कि कहीं तू फिर लोभ में न पड़ जाय |,"जब तक धन और राज्य का मोह न छोड़ेगी, तुझे उस त्यागी पुरुष के दर्शन न होंगे ।",मुझे शंका होती है कि कहीं तू फिर लोभ में न पड़ जाय । शझ्भघर कभी उन्हें अपनी घोती भी नहीं छाँटने देता ।,मुझे शंका होती है कि कहीं तू फिर लोभ में न पड़ जाय ।,शंखधर कभी उन्हें अपनी धोती भी नहीं छाँटने देता । "वह श्पने जीवन के सारे अनुभव, दशन, विशान, धर्म, इतिहास की सारी बातें घोलकर पिला देना चाहते हैं |",शंखधर कभी उन्हें अपनी धोती भी नहीं छाँटने देता ।,"वह अपने जीवन के सारे अनुभव, दर्शन, विज्ञान, इतिहास की सारी बातें घोलकर पिला देना चाहते हैं ।" "वह उसे कोई नयी बात बताने का अ्रवसर खोजा करते हैँ, उसकी एक-एक बात पर उनकी सूक्म दृष्टि पड़ती रहती है ।","वह अपने जीवन के सारे अनुभव, दर्शन, विज्ञान, इतिहास की सारी बातें घोलकर पिला देना चाहते हैं ।","वह उसे कोई नई बात बताने का अवसर खोजा करते हैं, उसकी एक-एक बात पर उनकी सूक्ष्म-दृष्टि पड़ती है ।" सब्र जगह यह बात खुल गयी दे कि यह युवक उनका पुत्र है ।,"वह उसे कोई नई बात बताने का अवसर खोजा करते हैं, उसकी एक-एक बात पर उनकी सूक्ष्म-दृष्टि पड़ती है ।",सब जगह यह बात खुल गयी कि यह युवक उनका पुत्र है । "एक दिन वह एक गाँव में पहुँचे, तो वहाँ दगज्न हो रहा था |",सब जगह यह बात खुल गयी कि यह युवक उनका पुत्र है ।,"एक दिन वह एक गाँव में पहुँचे, तो वहाँ दंगल हो रहा था ।" "चेहरे पर एक रग जाता था, एक रग श्ाता था |","एक दिन वह एक गाँव में पहुँचे, तो वहाँ दंगल हो रहा था ।","चेहरे पर एक रंग जाता था, एक रंग आता था ।" "अपनी व्यग्रता को छिपाने लिए श्रखाढ़े से दूर जा बैठे ये, मानो वद्द इस बात से बिलकुल उदासीन है ।","चेहरे पर एक रंग जाता था, एक रंग आता था ।","अपनी व्यग्रता को छिपाने के लिए अखाड़े से दूर जा बैठे थे, मानो वह इस बात से बिल्कुल उदासीन हैं ।" "भला, लड़को के खेल से चाबाजी का क्या सम्बन्ध ?","अपनी व्यग्रता को छिपाने के लिए अखाड़े से दूर जा बैठे थे, मानो वह इस बात से बिल्कुल उदासीन हैं ।","भला, लड़कों के खेल से बाबाजी का क्या सम्बन्ध ?" उस दिन श्रपने नियम के विदद्ध' उन्होंने रात को बड़ी देर के गाना सुना ।,"भला, लड़कों के खेल से बाबाजी का क्या सम्बन्ध ?",उस दिन अपने नियम के विरुद्ध उन्होंने रात को बड़ी देर तक गाना सुना । कदाचित्‌ उसी दिन मुझे सोता छोड़कर किसी शोर की राद्द लेंगे |,उस दिन अपने नियम के विरुद्ध उन्होंने रात को बड़ी देर तक गाना सुना ।,कदाचित उसी दिन मुझे सोता छोड़कर किसी ओर की राह लेंगे । "चक्रधर भी कमी कभी पुत्र्रेम से विकल हो जाते ओर चाइते कि उसे गले लगाकर कहूँ--वेणा, तुम मेरी ही श्राँखो के तारे हो; व॒म मेरे ही बिगर के ठुकड़े हो, तुम्दारी याद दिल से कमी न उतरती थी; सत्र कुछ भूल गया, पर तुम न भूले |",कदाचित उसी दिन मुझे सोता छोड़कर किसी ओर की राह लेंगे ।,"चक्रधर भी कभी-कभी पुत्र-प्रेम से विकल हो जाते और चाहते कि उसे गले लगाकर कहूँ-बेटा, तुम मेरी ही आंखों के तारे हो, तुम मेरे ही जिगर के टुकड़े हो, तुम्हारी याद दिल से कभी न उतरती थी, सब कुछ भूल गया, पर तुम न भूले ।" "वह शखघर के मुख से उसकी माता की विरद्द व्यया, दादो के शोक शोर दादा के क्रोध की कथाएँ सुनते कमी न थकते ये ।","चक्रधर भी कभी-कभी पुत्र-प्रेम से विकल हो जाते और चाहते कि उसे गले लगाकर कहूँ-बेटा, तुम मेरी ही आंखों के तारे हो, तुम मेरे ही जिगर के टुकड़े हो, तुम्हारी याद दिल से कभी न उतरती थी, सब कुछ भूल गया, पर तुम न भूले ।","वह शंखधर के मुख से उसकी माता की विरह-व्यथा, दादी के शोक और दादा के क्रोध की कथाएँ सुनते कभी न थकते थे ।" तत्र उसने निमश्रय किया कि माताजी को पत्र लिखकर यही क्यो न बुला ले ?,"वह शंखधर के मुख से उसकी माता की विरह-व्यथा, दादी के शोक और दादा के क्रोध की कथाएँ सुनते कभी न थकते थे ।",तब उसने निश्चय किया कि माताजी को पत्र लिखकर यहीं क्यों न बुला लूँ ? उसी गत की उसने अपनी माता ऊँ नाम पत्र ठाल दिया ।,तब उसने निश्चय किया कि माताजी को पत्र लिखकर यहीं क्यों न बुला लूँ ?,उसी रात को उसने अपनी माता के नाम पत्र डाल दिया । "इन्हें यदि मालूम हो जाय कि में इन्हें पहचानता हूँ, तो आज द्वी अन्तर्दधान हो जायँ ।",उसी रात को उसने अपनी माता के नाम पत्र डाल दिया ।,"इन्हें यदि मालूम हो जाय कि मैं इन्हें पहचानता हूँ, तो आज ही अन्तर्धान हो जायें ।" आप जल्द से-जल्द शआवें |,"इन्हें यदि मालूम हो जाय कि मैं इन्हें पहचानता हूँ, तो आज ही अन्तर्धान हो जायें ।",आप जल्द से जल्द आवें । "फिर हम दोनों इनका गला न छोड़ेंगें, मसर मन की सोची हुईं बात कमी पूरी हुईं है ?",आप जल्द से जल्द आवें ।,"फिर हम दोनों उनका पल्ला न छोड़ेंगे, मगर मन की सोची हुई बात कभी पूरी हुई है ?" रेल्न का स्टेशन वहों से पाँच मील पर या ।,"फिर हम दोनों उनका पल्ला न छोड़ेंगे, मगर मन की सोची हुई बात कभी पूरी हुई है ?",रेल का स्टेशन वहाँ से पाँच मील पर था । "ग्राखिर एक मद्दीने के चाद तीसरे दिन उमे एक पत्र मिला, जिसे पटकर उसके शोक की सीमा न रही ।",रेल का स्टेशन वहाँ से पाँच मील पर था ।,"आखिर एक महीने के बाद तीसरे दिन उसे एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर उसके शोक की सीमा न रही ।" अदल्या ने लिखा था--मैं बड़ी श्रभागिनी हूँ ।,"आखिर एक महीने के बाद तीसरे दिन उसे एक पत्र मिला, जिसे पढ़कर उसके शोक की सीमा न रही ।",अहिल्या ने लिखा था-मैं बड़ी अभागिनी हूँ । पुत्र ओर स्वामी के वियोग से ही उनकी यद्द दशा हुई है ।,अहिल्या ने लिखा था-मैं बड़ी अभागिनी हूँ ।,पुत्र और स्वामी के वियोग से ही उनकी यह दशा हुई । "उसने पाँच साल तक श्रपना कोई सप्राचार न लिखकर माता के साथ जो अन्याय किया था, उठो व्यथा से वह अधोर हो उठा |",पुत्र और स्वामी के वियोग से ही उनकी यह दशा हुई ।,"उसने पाँच साल तक अपना कोई समाचार न लिखकर माता के साथ जो अन्याय किया था, उसकी व्यथा से वह अधीर हो उठा ।" तुम्दारी माताजी अ्रपनी ही इच्छा से वहाँ रह गयी थीं ।,"उसने पाँच साल तक अपना कोई समाचार न लिखकर माता के साथ जो अन्याय किया था, उसकी व्यथा से वह अधीर हो उठा ।",तुम्हारी माताजी अपनी ही इच्छा से वहाँ रह गयी थीं । "वे सारी भावनाएँ, सारी अ्मिलाषाएँ, जिन्हें वह दिल्ल से निकाल चुके थे, जग उठी थीं श्र इस समय वियोग के भय से आर्त्तनाद कर रहो थीं ।",तुम्हारी माताजी अपनी ही इच्छा से वहाँ रह गयी थीं ।,"वे सारी भावनाएँ, सारी अभिलाषाएँ, जिन्हें वह दिल से निकाल चुके थे, जाग उठी थी और इस समय वियोग के भय से आर्तनाद कर रही थीं ।" "चक्रघर ने हृदय से निकलते उच्छ वास को दबाते हुए कहा--नहीं बेटा, सम्भव है, फभी वह खय पुत्र प्रेत से विकल होकर तुम्हारे पास दौड़े जायें ।","वे सारी भावनाएँ, सारी अभिलाषाएँ, जिन्हें वह दिल से निकाल चुके थे, जाग उठी थी और इस समय वियोग के भय से आर्तनाद कर रही थीं ।","चक्रधर ने हृदय से निकलते उच्छ्वास को दबाते हुए कहा--नहीं बेटा, सम्भव है, कभी वह स्वयं पत्र-प्रेम से विकल होकर तुम्हारे पास दौड़े जायें ।" "यदि तुम्हारे आचरण अश्रष्ट हो गये, वो फदाचित्‌ इस शोक में वह अपने प्राण दें ।","चक्रधर ने हृदय से निकलते उच्छ्वास को दबाते हुए कहा--नहीं बेटा, सम्भव है, कभी वह स्वयं पत्र-प्रेम से विकल होकर तुम्हारे पास दौड़े जायें ।","यदि तुम्हारे आचरण भ्रष्ट हो गये, तो कदाचित् इस शोक में वह अपने प्राण दे दें ।" "चक्रधर ने आद्र कठ से कह्- नहीं वेटा, ठम यह कष्ट न करना |","यदि तुम्हारे आचरण भ्रष्ट हो गये, तो कदाचित् इस शोक में वह अपने प्राण दे दें ।","चक्रधर ने आर्द्र कंठ से कहा--नहीं बेटा, तुम यह कष्ट न करना ।" "वह जानती कि यहाँ यह हरबोंग मच जायगा, तो साय दस-बीस हजार के नोट लेती श्राती |","चक्रधर ने आर्द्र कंठ से कहा--नहीं बेटा, तुम यह कष्ट न करना ।","वह जानती कि यहाँ यह हरबोंग मच जायगा, तो साथ दस-बीस हजार के नोट लेती आती ।" "कमी काशी रहना छुआ, कसी जगदीशपुर |","वह जानती कि यहाँ यह हरबोंग मच जायगा, तो साथ दस-बीस हजार के नोट लेती आती ।","कभी काशी रहना हुआ, कभी जगदीशपुर ।" "कहीं से किसी अनाथालय के निरीक्षण करने का निमन्त्रण आता, कहीं से टदी-पार्ट मे है कप होने का |","कभी काशी रहना हुआ, कभी जगदीशपुर ।","कहीं से किसी अनाथालय के निरीक्षण करने का निमन्त्रण आता, कहीं से टी-पार्टी में सम्मिलित होने का ।" "तपस्या करने आयी थी, यहाँ सम्य समाज की क्रीढ़ाओं में मग्न हो गयी |","कहीं से किसी अनाथालय के निरीक्षण करने का निमन्त्रण आता, कहीं से टी-पार्टी में सम्मिलित होने का ।","तपस्या करने आयी थी, यहाँ सभ्य समाज की क्रीडाओं में मग्न हो गयी ।" "उन्हें आशा थी कि रानी जी मुझे जरूर सरफराज फरमायेंगी; लेकिन जन एक हृफ्ता गुजर गया श्रोर अहल्या ने उन्हें सरफराज न किया, तो एक दिन तामजान पर बैठकर स्वयं आये श्रोर लाठी टेकते हुए. द्वार पर खड़े हो गये |","तपस्या करने आयी थी, यहाँ सभ्य समाज की क्रीडाओं में मग्न हो गयी ।","उन्हें आशा थी कि रानीजी मुझे जरूर सरफराज फरमायेंगी, लेकिन जब एक हफ्ता गुजर गया और अहिल्या ने उन्हें सरफराज न किया, तो एक दिन तामजान पर बैठकर स्वयं आये और लाठी टेकते हुए द्वार पर खड़े हो गये ।" "अहल्या--अआआपकी दुआ है; मगर आप मुझसे यों बातें कर रहे है, गोया में कुछ शोर हो गयी हूँ ।","उन्हें आशा थी कि रानीजी मुझे जरूर सरफराज फरमायेंगी, लेकिन जब एक हफ्ता गुजर गया और अहिल्या ने उन्हें सरफराज न किया, तो एक दिन तामजान पर बैठकर स्वयं आये और लाठी टेकते हुए द्वार पर खड़े हो गये ।","अहिल्या--आपकी दुआ है, मगर आप मुझसे यों बातें कर रहे हैं, गोया मैं कुछ और हो गयी हूँ ।" "में आपकी पाली हुई वही लड़की हूँ, जो आज से १५ साल पहले थी, और श्रापको उसी निगाइ से देखती हूँ ।","अहिल्या--आपकी दुआ है, मगर आप मुझसे यों बातें कर रहे हैं, गोया मैं कुछ और हो गयी हूँ ।","मैं आपकी पाली हुई वही लड़की हूँ, जो आज से १५ साल पहले थी, और आपको उसी निगाह से देखती हूँ ।" "इतनी हिम्मत, इतनी दिलिरीं, श्रपनी श्रसमत के लिए. जान पर खेल छाने का यह जोश, रानकुमारियों द्वी में हो सकता है ।","मैं आपकी पाली हुई वही लड़की हूँ, जो आज से १५ साल पहले थी, और आपको उसी निगाह से देखती हूँ ।","इतनी हिम्मत, इतनी दिलेरी, अपनी असमत के लिए जान पर खेल जाने का यह जोश, राजकुमारियों ही में हो सकता है ।" खुदा आ्रापको हमेशा खुश रखे ।,"इतनी हिम्मत, इतनी दिलेरी, अपनी असमत के लिए जान पर खेल जाने का यह जोश, राजकुमारियों ही में हो सकता है ।",खुदा आपको हमेशा खुश रखे । "सच पूछी, तो में उन्हीं फा बनाया हुआ हूं ।",खुदा आपको हमेशा खुश रखे ।,सच पूछो तो मैं उन्हीं का बनाया हुआ हूँ । उसे चारों तरफ से बदवू आती हुई मालूम ऐती थो |,सच पूछो तो मैं उन्हीं का बनाया हुआ हूँ ।,उसे चारों तरफ से बदबू आती हुई मालूम होती थी । "बिन्‍्दगी में जो कुछ सुख देखा, वह इसी घर में देखा |",उसे चारों तरफ से बदबू आती हुई मालूम होती थी ।,"जिंदगी में जो कुछ सुख देखा, वह इसी घर में देखा ।" "जो आ्रादमी दूसरी कोम से जितनी नफरत करता है, समझ लीजिये कि वह खुदा से उतनी दी दूर है ।","जिंदगी में जो कुछ सुख देखा, वह इसी घर में देखा ।","जो आदमी दूसरी कौम से जितनी नफरत करता है, समझ लीजिए कि वह खुदा से उतनी दूर है ।" "बागीश्वरी-- श्रगर नू धन के पीछे अन्धी न हो जाती, तो तुझे यह दरुड न भोगना पढ़ता ।","जो आदमी दूसरी कौम से जितनी नफरत करता है, समझ लीजिए कि वह खुदा से उतनी दूर है ।","वागीश्वरी--अगर तू धन के पीछे अन्धी न हो जाती, तो तुझे यह दंड न भोगना पड़ता ।" "तेरा चित्त कुछ कुछ ठिकाने पर श्रा रहा था, तब तक तुमे यह नयी सनक सवार हो गयी ।","वागीश्वरी--अगर तू धन के पीछे अन्धी न हो जाती, तो तुझे यह दंड न भोगना पड़ता ।","तेरा चित्त कुछ-कुछ ठिकाने पर आ रहा था, तब तक तुझे यह नई सनक सवार हो गयी ।" "परोपकार तो तब समझती, जब तू वहीं वैठे-वैठे गुप्त-रूप से चन्दे भेजया देती |","तेरा चित्त कुछ-कुछ ठिकाने पर आ रहा था, तब तक तुझे यह नई सनक सवार हो गयी ।","परोपकार तो तब समझती, जब तू वहीं बैठे-बैठे गुप्त रूप से चन्दे भिजवा देती ।" दोनों णने एक दही जगह हैँ ।,"परोपकार तो तब समझती, जब तू वहीं बैठे-बैठे गुप्त रूप से चन्दे भिजवा देती ।",दोनों जने एक ही जगह हैं । "अहल्या--श्राज पूरे पॉच साल के बाद खबर मिली है, श्रम्माँजी ! मुझे आगरे आना फल गया |",दोनों जने एक ही जगह हैं ।,"अहिल्या--आज पूरे पाँच साल के बाद खबर मिली है, अम्माँजी ! मुझे आगरे आना फल गया ।" उसने यद्टी निश्चय किया कि शखधर को फिसी हीले से बुला लेना चादिए. ।,"अहिल्या--आज पूरे पाँच साल के बाद खबर मिली है, अम्माँजी ! मुझे आगरे आना फल गया ।",उसने यही निश्चय किया कि शंखधर को किसी हीले से बुला लेना चाहिए । "लिखा-मैं बहुत ब्रीमार हूँ, बचने की कोई आशा नहीं, बस, एक बार व॒म्हें देखने की अमिलापा है ।",उसने यही निश्चय किया कि शंखधर को किसी हीले से बुला लेना चाहिए ।,"लिखा--'मैं बहुत बीमार हूँ, बचने की कोई आशा नहीं, बस, एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है ।" अहल्या ने शर्माते हुए कहा--अभी तो अ्रम्माँजी मैंने लल्लु को चुलाया है |,"लिखा--'मैं बहुत बीमार हूँ, बचने की कोई आशा नहीं, बस, एक बार तुम्हें देखने की अभिलाषा है ।",अहिल्या ने शरमाते हुए कहा--अभी तो अम्माँजी मैंने लल्लू को बुलाया है । सहसा शह्लुघर 'हर्षपुर' का नाम सुनकर चौंक पड़ा |,अहिल्या ने शरमाते हुए कहा--अभी तो अम्माँजी मैंने लल्लू को बुलाया है ।,सहसा शंखधर हर्षपुर' का नाम सुनकर चौंक पड़ा । किसी श्रज्ञात शक्ति ने उसे गाडी खोलकर उतर आने पर मजबूर कर दिया |,सहसा शंखधर हर्षपुर' का नाम सुनकर चौंक पड़ा ।,किसी अज्ञात शक्ति ने उसे गाड़ी छोड़कर उतर आने पर मजबूर कर दिया । बाग के हार पर एक चौकीदार सगीन चढाये खड़ा था ।,किसी अज्ञात शक्ति ने उसे गाड़ी छोड़कर उतर आने पर मजबूर कर दिया ।,बाग के द्वार पर एक चौकीदार संगीन चढ़ाए खड़ा था । "यद रानी कोन थी, यह क्यों उसके पास जा रहा था, और उसका रानी से कब्र परिचय हुआ था, यद्द सब शद्भधर को कुछ याद न श्रात्ता था ।",बाग के द्वार पर एक चौकीदार संगीन चढ़ाए खड़ा था ।,"वह रानी कौन थी, वह क्यों उसके पास जा रहा था, और उसका रानी से कब परिचय हुआ था, यह सब शंखधर को कुछ याद न आता था ।" "बाग का एक एक पोदा, एक-एक क्‍्यारी, एक-एक कुछ, एक ए.क मूर्ति, होल, संगमरमर का चबूतरा उसे जाना-पहचाना सा मालूम हो रशा था |","वह रानी कौन थी, वह क्यों उसके पास जा रहा था, और उसका रानी से कब परिचय हुआ था, यह सब शंखधर को कुछ याद न आता था ।","बाग का एक-एक पौधा, एक-एक क्यारी, एक-एक कुंज, एक-एक मूर्ति, हौज, संगमरमर का चबूतरा उसे जाना-पहचाना-सा मालूम हो रहा था ।" उसी वक्त नाममात्र फो पारण करेंगो और घण्टेगमर आराम करके स्नान करने चली जायेगी ।,"बाग का एक-एक पौधा, एक-एक क्यारी, एक-एक कुंज, एक-एक मूर्ति, हौज, संगमरमर का चबूतरा उसे जाना-पहचाना-सा मालूम हो रहा था ।",उसी वक्त नाम मात्र को पारण करेंगी और घंटे भर आराम करके स्नान करने चली जायेंगी । "न कोई शौक है, न ४ गार है, न किसो से हंसना, न बोलना ।",उसी वक्त नाम मात्र को पारण करेंगी और घंटे भर आराम करके स्नान करने चली जायेंगी ।,"न कोई शौक है, न श्रृंगार है, न किसी से हँसना, न बोलना ।" "जब्च ने मद्दाराज का स्वर्गवास हुआ है, तभी से तपत्विनी बन गयी हैं ।","न कोई शौक है, न श्रृंगार है, न किसी से हँसना, न बोलना ।","जब से महाराज का स्वर्गवास हुआ है, तभी से तपस्विनी बन गयी हैं ।" रानी कमलावती ने शआ्ग्नेय नेन्रों से देखकर पूछा--त्‌ यहाँ कया करने आयी ?,"जब से महाराज का स्वर्गवास हुआ है, तभी से तपस्विनी बन गयी हैं ।",रानी कमलावती ने आग्नेय नेत्रों से देखकर पूछा--तू यहाँ क्या करने आयी ? न जाने कैठी देवी लीला है ! अगर मैंने कभी किसी का अ्रद्दित चेता हो तो मैं सौ जन्म नरक भोंगू |,रानी कमलावती ने आग्नेय नेत्रों से देखकर पूछा--तू यहाँ क्या करने आयी ?,"न जाने, कैसी दैवी लीला है ! अगर मैंने कभी किसी का अहित चेता हो, तो मैं सौ जन्म नरक भोगू ।" उसकी पूर्व स्मृतियाँ जाग्रत हो गयीं ।,"न जाने, कैसी दैवी लीला है ! अगर मैंने कभी किसी का अहित चेता हो, तो मैं सौ जन्म नरक भोगू ।",उसकी पूर्व स्मृतियाँ जागृत हो गयीं । "में वही हूँ, जिसने न-जाने कितने दिन हुए, त॒म्हारे हृदय में प्रेम के रूप में बन्‍्म लिया या, ओर तम्हारे प्रियतम के रूप में तुम्हारे सत्‌, ब्त ओर सेवा से अमर दोकर आ्राव तक उसी आयार श्रानन्द की खोज में मटकता फिरता हूँ ।",उसकी पूर्व स्मृतियाँ जागृत हो गयीं ।,"मैं वही हूँ, जिसने न जाने कितने दिन हुए, तुम्हारे हृदय में प्रेम के रूप में जन्म लिया था, और तुम्हारे प्रियतम के रूप में तुम्हारे सत्, व्रत और सेवा में अमर होकर आज तक उसी अपार आनन्द की खोज में भटकता फिरता हूँ ।" मैंने उसे खोलकर श्रन्द्र जाना चाहा; पर दोनों ही वार अठफल रहा ।,"मैं वही हूँ, जिसने न जाने कितने दिन हुए, तुम्हारे हृदय में प्रेम के रूप में जन्म लिया था, और तुम्हारे प्रियतम के रूप में तुम्हारे सत्, व्रत और सेवा में अमर होकर आज तक उसी अपार आनन्द की खोज में भटकता फिरता हूँ ।","मैंने उसे खोलकर अन्दर जाना चाहा, पर दोनों ही बार असफल रहा ।" "इसके सिवा अब उसे कोई श्राकाक्षा, कोई इच्छा नहीं है |","मैंने उसे खोलकर अन्दर जाना चाहा, पर दोनों ही बार असफल रहा ।","इसके सिवा अब उसे कोई आकांक्षा, कोई इच्छा नहीं है ।" लेकिन एक ही क्षण में उसे अपनो शारीरिक श्रवत्था की याद आ गयी ।,"इसके सिवा अब उसे कोई आकांक्षा, कोई इच्छा नहीं है ।",लेकिन एक ही क्षण में उसे अपनी शारीरिक अवस्था की याद आ गयी । "सहसा शंखबर बोले --कमला, कभी तुम्हें मेरो याद अआातो थी ?",लेकिन एक ही क्षण में उसे अपनी शारीरिक अवस्था की याद आ गयी ।,"सहसा शंखधर बोले--कमला, कभी तुम्हें मेरी याद आती थी ?" "कमला ने तजलननेत्रों से शक्नूघर की ओर देखा, पर मुँद से कुछ न चोली ।","सहसा शंखधर बोले--कमला, कभी तुम्हें मेरी याद आती थी ?","कमला ने सजल नेत्रों से शंखधर की ओर देखा, पर मुँह से कुछ न बोली ।" आज बीस चर्ष के बाद उसके ओठों पर मधुर हास्य क्रौड़ा करता हुआ दिखायी दिया |,"कमला ने सजल नेत्रों से शंखधर की ओर देखा, पर मुँह से कुछ न बोली ।",आज बीस वर्ष के बाद उसके होठों पर मधुर हास्य क्रीडा करता हुआ दिखाई दिया । इसके साथ ही उसे श्रपने सौभाग्य पर भी गवें हो उठा |,आज बीस वर्ष के बाद उसके होठों पर मधुर हास्य क्रीडा करता हुआ दिखाई दिया ।,इसके साथ ही उसे अपने सौभाग्य पर भी गर्व हो उठा । "इतने में शखघर ने कह्ा--प्रिये, ठुम इस शिला पर लेट जाओ और आँखें बन्द कर लो |",इसके साथ ही उसे अपने सौभाग्य पर भी गर्व हो उठा ।,"इतने में शंखधर ने कहा--प्रिये, तुम इस शिला पर लेट जाओ और आँखें बन्द कर लो ।" "शंखधर ने मुस्कयकर कह्या--सब याद रहेंगी प्रिये, इससे निश्चिन्त रहो |","इतने में शंखधर ने कहा--प्रिये, तुम इस शिला पर लेट जाओ और आँखें बन्द कर लो ।","शंखधर ने मुस्कराकर कहा--सब याद रहेंगी प्रिये, इससे निश्चित रहो ।" उसमें अब भी तृष्णा चमक रुदी थी |,"शंखधर ने मुस्कराकर कहा--सब याद रहेंगी प्रिये, इससे निश्चित रहो ।",उनमें अब भी तृष्णा चमक रही थी । श्० राजा विशालसिह की हिंसा-इत्ति किसी प्रकार शान्त न होती थी ।,उनमें अब भी तृष्णा चमक रही थी ।,पचास राजा विशालसिंह की हिंसा-वृत्ति किसी प्रकार शान्त न होती थी । "उनके द्ृृदय में अब सहानुभूति, प्रेम श्रोर घेय के लिए जरा भी स्थान न था ।",पचास राजा विशालसिंह की हिंसा-वृत्ति किसी प्रकार शान्त न होती थी ।,"उनके हृदय में अब सहानुभूति, प्रेम और धैर्य के लिए जरा भी स्थान न था ।" उनऊी सम्पूर्ण वृत्तियों “(हिसा-हिंसा !! पुकार रही थीं ।,"उनके हृदय में अब सहानुभूति, प्रेम और धैर्य के लिए जरा भी स्थान न था ।",उनकी सम्पूर्ण वृत्तियाँ 'हिंसा-हिंसा !' पुकार रही थीं । "जब उनपर चारों ओर से देवी आ्राधात दो रहे थे, उनकी दशा पर देव को लेशमात्र भी दया न श्राती थी, ते वह क्यो किसो पर दया करें ?",उनकी सम्पूर्ण वृत्तियाँ 'हिंसा-हिंसा !' पुकार रही थीं ।,"जब उन पर चारों ओर से दैवी आघात हो रहे थे, उनकी दशा पर दैव को लेशमात्र भी दया न आती थी, तो वह क्यों किसी पर दया करें ?" देवताञ्रों पर ऐसा आक्रमण करते कि इन्नासुर की याद भूल जाती |,"जब उन पर चारों ओर से दैवी आघात हो रहे थे, उनकी दशा पर दैव को लेशमात्र भी दया न आती थी, तो वह क्यों किसी पर दया करें ?",देवताओं पर ऐसा आक्रमण करते कि वृत्रासुर की याद भूल जाती । "उन्हें निस्तस्तान रखकर मिली हुई सन्‍्तान उनकी गोद से छीनकर, देव ने उनके साथ सबसे त्रढ़ा श्रन्याय किया था ।",देवताओं पर ऐसा आक्रमण करते कि वृत्रासुर की याद भूल जाती ।,"उन्हें नि:संतान रखकर मिली हुई संतान उनकी गोद से छीनकर, दैव ने उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय किया था ।" "ब्राह्मणों ने राशि, वर्ग श्रोर विधि मिला दी थी ।","उन्हें नि:संतान रखकर मिली हुई संतान उनकी गोद से छीनकर, दैव ने उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय किया था ।","ब्राह्मणों ने राशि, वर्ण और विधि मिला दी थी ।" वद्दी मनोरमा अब दूध की मवखी बनी हुई थी ।,"ब्राह्मणों ने राशि, वर्ण और विधि मिला दी थी ।",वही मनोरमा अब दूध की मक्खी बनी हुई थी । "इस मुस्कान भें कितनी चेदना, विडम्प- नाओऔरों की कितनी अवहेलना छिपी हुई है, इसे कौन जानता है ?",वही मनोरमा अब दूध की मक्खी बनी हुई थी ।,"इस मुस्कान में कितनी वेदना, विडम्बनाओं की कितनी अवहेलना छिपी हुई है, इसे कौन जानता है ?" इसके कुछ दिनों वाद हुक्म हुआ--छोटी रानी की मोटर नये भवन में लायी जाय |,"इस मुस्कान में कितनी वेदना, विडम्बनाओं की कितनी अवहेलना छिपी हुई है, इसे कौन जानता है ?",इसके कुछ दिनों बाद हुक्म हुआ-छोटी रानी की मोटर नए भवन में लाई जाय । इघर घटते घटते उनकी सख्या तीन तक पहुँच गयीं थी ।,इसके कुछ दिनों बाद हुक्म हुआ-छोटी रानी की मोटर नए भवन में लाई जाय ।,इधर घटते-घटते उनकी सँख्या तीन तक पहुँच गयी थी । एक दिन हुव्म हुआ कि तीन सेविकाश्रों में से दो नये महल में नियुक्त की जाये ।,इधर घटते-घटते उनकी सँख्या तीन तक पहुँच गयी थी ।,एक दिन हुक्म हुआ कि तीन सेविकाओं में से दो नए महल में नियुक्त की जायें । मगर अ्रमी सबसे कठोर आघात बाकी था |,एक दिन हुक्म हुआ कि तीन सेविकाओं में से दो नए महल में नियुक्त की जायें ।,मगर अभी सबसे कठोर आघात बाकी था । एक दिन गुसतेवक मनोरमा से मिलने आये |,मगर अभी सबसे कठोर आघात बाकी था ।,एक दिन गरुसेवक मनोरमा से मिलने आये । श्रधिकार छीने जाने पर वह अधिकार के शत्रु दो गये थे ।,एक दिन गरुसेवक मनोरमा से मिलने आये ।,अधिकार छीने जाने पर वह अधिकार के शत्रु हो गये थे । "श्र फिर वह किसानों का संगठन करने लगे थे, वेगार के विधद्ध श्रय फिर उनको आवान उठने लगी थी |",अधिकार छीने जाने पर वह अधिकार के शत्रु हो गये थे ।,"अब फिर वह किसानों का संगठन करने लगे थे, बेगार के विरुद्ध अब फिर उनकी आवाज उठने लगी थी ।" "उनकी सारी द्वत्तियाँ इस श्रपमान का बदला लेने के लिए, तिलमिला उठों ।","अब फिर वह किसानों का संगठन करने लगे थे, बेगार के विरुद्ध अब फिर उनकी आवाज उठने लगी थी ।",उनकी सारी वृत्तियाङ इस अपमान का बदला लेने के लिए तिलमिला उठीं । "मनोरमा ने उनका तमतमाया हुआ चेद्टरा देखा, तो काँप उठो |",उनकी सारी वृत्तियाङ इस अपमान का बदला लेने के लिए तिलमिला उठीं ।,"मनोरमा ने उनका तमतमाया हुआ चेहरा देखा, तो काँप उठी ।" गुरुसेवक ने आते-हो-आते पूछा--तुमने महल क्यो छोड़ दिया ?,"मनोरमा ने उनका तमतमाया हुआ चेहरा देखा, तो काँप उठी ।",गुरुसेवक ने आते ही पूछा--तुमने महल क्यों छोड़ दिया ? "मुझे वहीं कौन सा ऐसा बड़ा सुख या, जो महल को छोड़ने का दुःख द्वोता ?",गुरुसेवक ने आते ही पूछा--तुमने महल क्यों छोड़ दिया ?,"मुझे वहीं कौन-सा ऐसा बड़ा सुख था, जो महल छोड़ने का दुःख होता ?" "गुदसेवक--तुप्त शब्दों को कहती हो, में इनकी मरम्मत करने की किक मे हूँ ।","मुझे वहीं कौन-सा ऐसा बड़ा सुख था, जो महल छोड़ने का दुःख होता ?","गुरुसेवक--तुम शब्दों को कहती हो, मैं इनकी मरम्मत करने की फिक्र में हूँ ।" "यही क्या, फोई आदमी शोक के ऐसे निरदंय आ्राघात सहकर अपने द्वोश से नहीं रह सकता ।","गुरुसेवक--तुम शब्दों को कहती हो, मैं इनकी मरम्मत करने की फिक्र में हूँ ।","यही क्या, कोई आदमी शोक के ऐसे निर्दय आघात सहकर अपने होश में नहीं रह सकता ।" "जिस प्राणी ने चालीस वर्ष तक एक अमिलापा को द्दय में पाला हो, उसी एक अमिलापा के लिए. उचित अनुचित, सत्र कुछ किया हो श्रोर चालीस वर्ष के बाद जब उस श्रमिलापा के पूरे होने फे सच सामान हो गये हों, एकाएक उसके गले पर छुरी चल जाय, तो सोद्चिए कि उस प्राणी फी क्या दशा होगी ?","यही क्या, कोई आदमी शोक के ऐसे निर्दय आघात सहकर अपने होश में नहीं रह सकता ।","जिस प्राणी ने चालीस वर्ष तक एक अभिलाषा को हृदय में पाला हो, उसी एक अभिलाषा के लिए उचित-अनुचित, सब कुछ किया हो और चालीस वर्ष के बाद जब उस अभिलाषा के पूरे होने के सब सामान हो गये हों, एकाएक उसके गले पर छुरी चल जाय , तो सोचिए कि उस प्राणी की क्या दशा होगी ?" गुस्सेवक--सुझसे राजा साहव से मतलब ही क्या दे ?,"जिस प्राणी ने चालीस वर्ष तक एक अभिलाषा को हृदय में पाला हो, उसी एक अभिलाषा के लिए उचित-अनुचित, सब कुछ किया हो और चालीस वर्ष के बाद जब उस अभिलाषा के पूरे होने के सब सामान हो गये हों, एकाएक उसके गले पर छुरी चल जाय , तो सोचिए कि उस प्राणी की क्या दशा होगी ?",गुरुसेवक--मुझसे राजा साहब से मतलब ही क्या ? "अ्रगर तुम खुश दो, तो मुझे उनसे कौन-सी दुश्मनी दे ?",गुरुसेवक--मुझसे राजा साहब से मतलब ही क्या ?,"अगर तुम खुश हो, तो मुझे उनसे कौनसी दुश्मनी है ?" बह तो तुम्हें ठोऊरे मारते हूँ और तुम उनके पाँव सहलातो हो ।,"अगर तुम खुश हो, तो मुझे उनसे कौनसी दुश्मनी है ?",वह तो तुम्हें ठोकरें मारते हैं और तुम उनके पाँव सहलाती हो । "मनोरमा ने भाई को तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कह् “अगर ऐसा सममभती हूँ, तो क्या कोई चुराई करती हूँ ।",वह तो तुम्हें ठोकरें मारते हैं और तुम उनके पाँव सहलाती हो ।,मनोरमा ने भाई को तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा--अगर ऐसा समझती हूँ तो क्या बुराई करती हूँ । "मैं व॒म्द्वारे पैरों पढ़ती हूँ, अगर कोई श्भा की चात हो, तो मुझे बतला दो |",मनोरमा ने भाई को तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा--अगर ऐसा समझती हूँ तो क्या बुराई करती हूँ ।,"मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अगर कोई शंका की बात हो तो मुझे बतला दो ।" "जब तक मुझे न बताश्रोगे, में तुम्हें जाने न दूँगी ।","मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अगर कोई शंका की बात हो तो मुझे बतला दो ।","जब तक मुझे न बताओगे, मैं तुम्हें जाने न दूँगी ।" "मनारमा--भेया, बता दीजिए, नदी तो पछुताइएयगा ।","जब तक मुझे न बताओगे, मैं तुम्हें जाने न दूँगी ।","मनोरमा--भैया, बता दीजिए, नहीं तो पछताइएगा ।" गुदसेवक--में इतना नीच नहीं हूँ |,"मनोरमा--भैया, बता दीजिए, नहीं तो पछताइएगा ।",गुरुसेवक--मैं इतना नीच नहीं हूँ । "व, इतना ही बता देता हूँ कि राजा साइव से कद्द देना, विवाह के दिन सावधान रहें |",गुरुसेवक--मैं इतना नीच नहीं हूँ ।,"बस, बस, इतना ही बता देता हूँ कि राजा साहब से कह देना, विवाह के दिन सावधान रहें ।" हाँ उतना समझ गयी कि बरात के दिन कुछ-न कुछ उपद्रव अवश्य दोनेवाला है ! कल ही विवाद का दिन था |,"बस, बस, इतना ही बता देता हूँ कि राजा साहब से कह देना, विवाह के दिन सावधान रहें ।","हाँ, इतना समझ गयी कि बारात के दिन कुछ न कुछ उपद्रव अवश्य होने वाला है ! कल ही विवाह का दिन था ।" प्रातःफाल बरात यहाँ से चलेगी ।,"हाँ, इतना समझ गयी कि बारात के दिन कुछ न कुछ उपद्रव अवश्य होने वाला है ! कल ही विवाह का दिन था ।",प्रात:काल बारात यहाँ से चलेगी । उसने राजा साहब के पास जाने का निश्चय किया; मगर पुछुवाये किसने कि राजा साध्व हूँ या नहीं ?,प्रात:काल बारात यहाँ से चलेगी ।,"उसने राजा साहब के पास जाने का निश्चय किया, मगर पुछवाए किससे कि राजा साहब हैं या नहीं ?" "इतने में पंडित देवदत्त नगे गिर, नये बदन, छाछ आँखें, दरावनो मूरत, कागज बा एक पुछिदा लिये दोडते हुए आये और ओपधालय के द्वार पर इतने जोर से हाँक गाने छंगे कि वैद्य जो चॉक पड़े ओर कद्ार को पुकार कर बोले कि दरवाजा खोल दे + कहार महात्मा बड़ो रात मये किसो जिरादरा को पवायत्र से लोटे थे ।",इस भीड़-भभ्भड़ से कुछ दूर पर दो-तीन सुंदर किंतु मुरझाये हुए नवयुवक टहल रहे थे और वैद्य जी से एकांत में कुछ बातें किया चाहते थे ।,इतने में पंडित देवदत्त नंगे सिर नंगे बदन लाल आँखें डरावनी सूरत कागज का एक पुलिंदा लिये दौड़ते हुए आये और औषधालय के द्वार पर इतने जोर से हाँक लगाने लगे कि वैद्य जी चौंक पड़े और कहार को पुकार कर बोले कि दरवाजा खोल दे । अतिरुद्धसिह धीर रागपूत था ।,यह उसका सौभाग्य था ।,अनिरुद्धसिंह वीर राजपूत था । उसे कभी चंत से बंठना यशीय से द्ोतां था ।,इससे वह अपने कुल और मर्यादा की रक्षा किया करता था ।,उसे कभी चैन से बैठना नसीब न होता था । झाहजाद मुहीउद्दीन चम्बद्ध के कितारे से आगरे की जोर चछा तो सौआस्य उतके गिर पर मोछंड़ हिलाता घा ।,सारन्धा आन पर जान देनेवालों में थी ।,शाहजादा मुहीउद्दीन चम्बल के किनारे से आगरे की ओर चला तो सौभाग्य उसके सिर पर मोर्छल हिलाता था । इन दोनो के धीच कोई परदा न था; परंतु इस नेद को प्रमा से उसस्ते भो गुप्ठ रखा ।,उमा उसकी सहेली थी ।,इन दोनों के बीच कोई परदा न था परंतु इस भेद को प्रभा ने उससे भी गुप्त रखा । कल्वना में बदी मधुर हृदयगग्राद्दी - राग मुनती और वही _. योगी की मनोद्धार्णों मूछि देखतो ।,उसी कुण्ड के किनारे वह सिर झुकाये सारे दिन बैठी रहती ।,कल्पना में वही मधुर हृदयग्राही राग सुनती और वही योगी की मनोहारिणी मूर्ति देखती । "एक दिन अफोम न खां तो यांठो, में दर्द होने लगे, दम उत्तड़ जाब कौर सरदो, वकड़ ले ।",और फिर किसी-किसी को नशा खाने से फायदा होता है ।,मैं ही एक दिन अफीम न खाऊँ तो गाँठों में दर्द होने लगे दम उखड़ जाय और सरदी पकड़ ले । औषधिप्रों सभी पृष्टिकर जौद़ व्वर्द्धक थीं ।,नुसखे से ज्ञात हुआ-हृदयरोग है ।,औषधियाँ सभी पुष्टिकर और बलवर्द्धक थीं । उसको माँवों से अयुघारा बढ़ रही थी ।,आनंदी की ओर फिर देखा ।,उसकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी । "- “आनंदी--कुछ भी हो, मैं सव $ुछ सह सकती हूँ, झौर आंपको भी मेरे हैनु सहना पड़ेगा |",आनंदी ने गोपीनाथ का हाथ धीरे से अपने हाथ में लेकर कहा-अब तो कभी इतनी कठोरता न कीजियेगा गोपीनाथ-(सचिंत होकर) अंत क्या है आनंदी-कुछ भी हो ! गोपी.-कुछ भी हो ! अपमान निंदा उपहास आत्मवेदना ।,आनंदी-कुछ भी हो मैं सब कुछ सह सकती हूँ और आपको भी मेरे हेतु सहना पड़ेगा । पोडो-्सो झूठ ने सादा स्पष्न ही तप्द कर दिया ।,आ.-(अट्टहास कर) वाह ! यह अच्छा प्रहसन हुआ ।,थोड़ी-सी भूल ने सारा स्वप्न ही नष्ट कर दिया । इसका द्शह कुबेर पर्मगिह में हुआ था ।,यहाँ तक कि कई बार महाराज यशवंत से भी वाद-विवाद कर चुकी थी और जब कभी उन्हें किसी बहाने कोई अनुचित काम करते देखती तो उसे यथाशक्ति रोकने की चेष्टा करती ।,इसका ब्याह कुँवर धर्मसिंह से हुआ था । पृथ्थीक्िह उसके गाहे परिन्न थे ।,धर्मसिंह अधिकतर जोधपुर में ही रहता था ।,पृथ्वीसिंह उसके गाढ़े मित्र थे । "इनसे पसी मित्रता थी, जैसों भादयों में मी जड्ठीं होती ।",पृथ्वीसिंह उसके गाढ़े मित्र थे ।,इनमें जैसी मित्रता थी वैसी भाइयों में भी नहीं होती । उसे पढ़ कर उसतें दागी अर न्हें पेज दे ।,राजनंदिनी ने उसे खोला तो वह संस्कृत का एक पत्र था ।,उसे पढ़ कर उसने दासी से कहा कि उन्हें भेज दे । "सत्यप्रक्राश पहिछे सोता, तो एक ही बरदद सर्वे हो जाता ।",वयोवृद्धि दूसरों का मुँह ताकती है आश्रय ढूँढ़ती है ।,सत्यप्रकाश पहिले सोता तो एक ही करवट में सबेरा हो जाता । कहो दम-पौँव को मोकरी कर छूया ओर पढ़ पालता रहूंगा ।,ज्ञानू.-क्यों चले जाओगे तुम्हें मेरी जरा भी मुहब्बत नहीं सत्यप्रकाश ने भाई को गले लगा कर कहा-तुम्हें छोड़ कर जाने को जी तो नहीं चाहता लेकिन जहाँ कोई पूछने वाला नहीं है वहाँ पड़े रहना बेहयाई है ।,कहीं दस-पाँच की नौकरी कर लूँगा और पेट पालता रहूँगा । "दुर्गानाध वे कहा--मेरे लिए किस्ो विशेष स्वाद को- आवश्यकता लहों, दे ।",कुँवर साहब ने इन्हें सिर से पैर तक देखा और कहा-पंडित जी आपको अपने यहाँ रखने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होती किंतु आपके योग्य मेरे यहाँ कोई स्थान नहीं देख पड़ता ।,दुर्गानाथ ने कहा-मेरे लिए किसी विशेष स्थान की आवश्यकता नहीं है । "कै जनता--आद् कही मिलता हो नही ६ चौघरो--अपने घर का वना हुआ गाद्य पहनो, अदालतों को त्यागो, नर्ेबाजी छोड़ो, अपने उड़को को धर्म-कर्म मिखाओ, मेऊ से रहो--वम, यही स्वराम्य है ।",क्या हमारा यही धर्म है कि अपने भाइयों की थाली छीन कर दूसरों के सामने रख दें जनता-गाढ़ा कहीं मिलता ही नहीं ।,चौधरी-अपने घर का बना हुआ गाढ़ा पहनो अदालतों को त्यागो नशेबाजी छोड़ो अपने लड़कों को धर्म-कर्म सिखाओ मेल से रहो-बस यही स्वराज्य है । जनता यह्‌ बातें बड़े चाव से सुनतो भो ।,जो लोग कहते हैं कि स्वराज्य के लिए खून की नदी बहेगी वे पागल हैं-उनकी बातों पर ध्यान मत दो ।,जनता यह बातें चाव से सुनती थी । वह बोछो--नि सदह ऐसा दाग मेंने जाज तक नहीं सुना लिडकों खाल ऋर दुछातो हूँ ।,उस पर भी गीत का जादू असर कर रहा था ।,वह बोली-निःसंदेह ऐसा राग मैंने आज तक नहीं सुना खिड़की खोल कर बुलाती हूँ । लाडी दर में रामिया नीतर आप्रा--पुदर सजोछ ददव का नौजवान था ।,वह बोली-निःसंदेह ऐसा राग मैंने आज तक नहीं सुना खिड़की खोल कर बुलाती हूँ ।,थोड़ी देर में रागिया भीतर आया-सुन्दर सजीले बदन का नौजवान था । उपने ददो हुई दृष्टि से दाना वामटागो रमधिवां का दवा और भिर झुका कर बैंठ गया |,मुखारविंद से तेज छिटक रहा था ।,उसने दबी हुई दृष्टि से दोनों कोमलांगी रमणियों को देखा और सिर झुका कर बैठ गया । "द्ाइशाह--अपना राज्य मी 2. /पशानी-हाँ, राग्य भमो ।",बादशाह-जागीर और मनसब भी ! रानी-जागीर और मनसब कोई चीज नहीं ।,बादशाह-अपना राज्य भी रानी-हाँ राज्य भी । उनसे झेंद से था घिकशार सुन कर अतिरद्ध छम्या और जेर से विकद हो गया ।,सारन्धा भाई पर जान देती थी ।,उसके मुँह से यह धिक्कार सुनकर अनिरुद्ध लज्जा और खेद से विकल हो गया । "आपने सद बुछ रण कर यह कीति छाम क्री है, में ऋपरे यथ भो ली झियाना चाहतों ( गोपनाय का हाथ हुदयस्वल पर रख बर ), इसको चाहती हूं ।",आनंदी-न कीजिए ।,आपने सब कुछ त्याग कर यह कीर्ति लाभ की है मैं आपके यश को नहीं मिटाना चाहती (गोपीनाथ का हाथ हृदयस्थल पर रख कर) इसको चाहती हूँ । ्वजाबारियों की कमी न थी पर सच्चे हृदय वहीं नजर न आते थे ।,जिधर आँख उठाते सन्नाटा दिखाई देता ।,ध्वजाधारियों की कमी न थी पर सच्चे हृदय कहीं नजर न आते थे । "जलूपरारा तड के दृष्यों और वायु के प्रतिरूद्त झ्लोकों गी परवा न करने हुए बड़े बेब वे भाव आपने छदय को ओर बदी चनों जातो थी, पर व्यछा ग्रोरोताव का घ्यान इस तरफ न था ।",एक दिन वह इसी उलझन में नदी के तट पर बैठे हुए थे ।,जलधारा तट के दृश्यों और वायु के प्रतिकूल झोंकों की परवा न करते हुए बड़े वेग के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ी चली जाती थी पर लाला गोपीनाथ का ध्यान इस तरफ न था । जैने उसकी ओर कभी ग्राँख-उठा कर भो ने देखा ।,भवन सूने पड़े हैं और वाटिकाओं में खोजने से भी हरियाली न मिलेगी ।,मैंने उनकी ओर कभी आँख उठा कर भी नहीं देखा । "तुम्हारा क्रोध यदि मनुष्य से पशु बना सकता है, तो क्या सुम्हारी दमा पशु सै मनुष्य ने बना सकेगी ?",मैं-देवि तुम पातिव्रतधारिणी हो तुम्हारे वाक्य की महिमा अपार है ।,तुम्हारा क्रोध यदि मनुष्य से पशु बना सकता है तो क्या तुम्हारी दया पशु से मनुष्य न बना सकेगी विद्याधरी-प्रायश्चित्त करो । वस्त्र भो जेंगेजी हो थे ।,उनके सिर पर रत्नजटित मुकुट की जगह अँग्रेजी टोपी थी ।,वस्त्र भी अँग्रेजी ही थे । « पिपाही--यहाँ उस मिझ्या असम्भद था ।,उनका हार्दिक भाव प्रकट हो जाता ।,सिपाही-यहाँ उनसे मिलना असम्भव था । वर्षी कतु बावी ।,जेठ का महीना मार्ग में ही समाप्त हो गया ।,वर्षा ऋतु आयी । आओ में मेषमाएा छाते छगी ।,वर्षा ऋतु आयी ।,आकाश में मेघ-माला छाने लगी । "कहो उन मनोद्वारी ध्वनिया के बीच से, खेत को मडी पुर छते की छात्रा मे बैठ हुए जमोदारा के कठोर झब्द सुनाया दव थे ।",किसानों की स्त्रियाँ धान रोपती थीं और सुहावने गीत गाती थीं ।,कहीं उन मनोहारी ध्वनियों के बीच में खेत की मेड़ों पर छाते की छाया में बैठे हुए जमींदारों के कठोर शब्द सुनायी देते थे । अपने झयडे आर मित्र कर विपण छो ।,चौधरी-तो यह स्वराज्य कैसे मिलेगा आत्मबल से पुरुषार्थ से मेल से एक-दूसरे से द्वेष करना छोड़ दो ।,अपने झगड़े आप मिल कर निपटा लो । "जब मैं और पिताजी अक्रेद्धे रह गये, तो दे बोले--बेटी, तुम राजपुताती हो ?",मुझे देखते ही उन्होंने सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का संकेत किया ।,जब मैं और पिता जी अकेले रह गये तो वे बोले-बेटी तुम राजपूतानी हो मैं-जी हाँ । "जब तक तुम यह तलवार उस राजपूत के ककेजे में न भोक दो, तब तक भोग-विछास ने करवा ।",पिता जी-यह मेरी तलवार लो ।,जब तक तुम यह तलवार उस राजपूत के कलेजे में न भोंक दो तब तक भोग-विलास न करना । "दो-चार दफे जब बाजार के छेडियो ने उसे चुनौती दी, तो वह उनका गर्ब-मर्दत करने के लिए मैदान में जाया, और देसनेवालों का कहना है कि जब तक छड्ा, जीवट से छड़ा, नखो और दांतों ने ज्यादा चोर्दे उसकी दुम ने की ।",लेकिन उसकी श्वानोचित वीरता किसी संग्रामक्षेत्र में प्रमाणित न होती थी ।,दो-चार दफे जब बाजार के लेडियों ने उसे चुनौती दी तो वह उनका गर्व-मर्दन करने के लिए मैदान में आया और देखनेवालों का कहना है कि जब तक लड़ा जीवट से लड़ा नखों और दाँतों से ज्यादा चोटें उसकी दुम ने की । आमिर म्रवो ने_रोथपुद्ौठा को मिला कर वस्तावर/मह का बेकमुर कैइ करा दिया ।,इसी वजह से फिरंगी उनसे जला करते थे ।,आखिर सबों ने रोशनुद्दौला को मिला कर बख्तावरसिंह को बेकसूर कैद करा दिया । मप्र अभो तक तो वहों हछूट-पसोइ जासे है ।,हमारी सब शिकायतें सुनीं और तसकीन दी कि हम तहकीकात करेंगे ।,मगर अभी तक वही लूट-खसोट जारी है । पज्चीस के कब प्रयहरतर' हजार हो चुके थे ।,ठाकुर को पुराने बहीखाते में यह ऋण दिखायी दिया ।,पच्चीस के अब पचहत्तर हजार हो चुके । "के पट कट व झाऊुर ने लापरवाही से ऋद्धा--दूँडिए, यदि मिल जायें तो हम लेते जायेंगे ।",कुछ कह नहीं सकते ।,ठाकुर ने लापरवाही से कहा-ढूँढ़िए यदि मिल जायँ तो हम लेते जायँगे । "चंदु०--( सोच कर ) जो नही, गयाही न॑ दे मकूँगा ।",इन्स.-सरकार की निगाह में इज्जत चौगुनी हो जायगी ।,चंदू-(सोच कर) जी नहीं गवाही न दे सकूँगा । भोजब भी रूखा-सूत्रा कले छग्ा |,सिनेमा का चसका छूटा मित्रों को हीले-हवाले करके टालने लगा ।,भोजन भी रूखा-सूखा करने लगा । उत्तके ग्राहको की छस्या झिदूनों होतो जातों थी ।,बड़े सबेरे काम करने चला जाता और सारे दिन दो-चार पैसे की मिठाई खा कर काम करता रहता ।,उसके ग्राहकों की संख्या दिन-दूनी होती जाती थी । यह दूखय पत्र वंश * किसी जविष्ठ कौ आश्का हुई ।,आज ही उसका पत्र आ चुका था ।,यह दूसरा पत्र क्यों किसी अनिष्ट की आशंका हुई । "उसकी सारो म्नातेक ब्यधा--क्रष, नैराश्य, शृवघ्तता, स्लानि-न्‍्केवह एक ठड्टी मास मे समाप्त हो गयी ।",यह देवप्रिया की विषयुक्त लेखनी से निकला हुआ जहर का प्याला था जिसने एक पल में संज्ञाहीन कर दिया ।,उसकी सारी मर्मांतक व्यथा-क्रोध नैराश्य कृतघ्नता ग्लानि-केवल एक ठंडी साँस में समाप्त हो गयी । सादथिक ग्यथा जाय से पातो दो गयी ।,वह जा कर चारपाई पर लेटा रहा ।,मानसिक व्यथा आग से पानी हो गयी । कृश्णचंद्र उत्त येशे कै लिए सईया अग्नोस्प हैं ।,ईश्वर.-वकालत में भेजोगी पर देख लेना पछताना पड़ेगा ।,कृष्णचंद्र उस पेशे के लिए सर्वथा अयोग्य है । यहू धप्रकों काम कर गयी ।,सबेरा होने से पहले मुझे बनारस पहुँचना चाहिए ।,यह धमकी काम कर गयी । अवेएण द्वो रहा था; परंतु कुछ पता त चछता भा ।,संतरी चौकीदार और लौंडियाँ सब सिर नीचे किये दुर्ग के स्वामी के सामने उपस्थित थे ।,अन्वेषण हो रहा था परन्तु कुछ पता न चलता था । उथर सैनी बनारस पहुँची ।,अन्वेषण हो रहा था परन्तु कुछ पता न चलता था ।,उधर रानी बनारस पहुँची । बंदीयृह थ्रे निकल कर रानी को ज्ञात हो यदा कि वह भौर दृद झ़रशार में है ।,रानी का पता लगानेवाले के लिए एक बहुमूल्य पारितोषिक की सूचना दी गयी थी ।,बन्दीगृह से निकल कर रानी को ज्ञात हो गया कि वह और दृढ़ कारागार में है । "कितु भाज स्वतंत्र हो .ऋुए भी उसके ओोठ बंदू,चे ।",दुर्ग का स्वामी भी उसे सम्मान की दृष्टि से देखता था ।,किंतु आज स्वतंत्र हो कर भी उसके ओंठ बन्द थे । आती को इसका कारण मालूम हुआ तो उसने उनके सिर में घोरे-बीरे तेल मलना शुरू किया ।,कुछ लिखने की इच्छा न हुई ।,आनंदी को इसका कारण मालूम हुआ तो उसने उनके सिर में धीरे-धीरे तेल मलना शुरू किया । अत में दो महीने तक सिचे रहने वे बाद उन्हें ह्ात हुआ कि आनंदी वोमार हैं जौर दी दिन से पत्थशाला नट्टी आ सकी ।,अब भी न गये ।,अंत में दो महीने तक खिंचे रहने के बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि आनंदी बीमार है और दो दिन से पाठशाला नहीं आ सकी । उद्नां चाहा पर अद्वित मे उडसे न दिया ।,उसने उनकी ओर दयाप्रार्थी नेत्रों से देखा ।,उठना चाहा पर अशक्ति ने उठने न दिया । "एक वर्ष बोत गया, हिमालय दर हरियाली छायौ, फूलों ने पर्वत की गोद में क्रोडा करनी शुरू की ।",काल से न डरनेवाला राजपूत एक स्त्री की आग्नेय दृष्टि से काँप उठा ।,एक वर्ष बीत गया हिमालय पर मनोहर हरियाली छायी फूलों ने पर्वत की गोद में क्रीड़ा करनी शुरू की । "किसी रत्री के द्वदय पर इससे अधिक लणज्जाजनक, ' इसमें अप्रिकः प्रॉषधातक ब्राधात नहीं छूग सकता |",एक दिन वह था कि उसने अपने पातिव्रत के बल पर मनुष्य को पशु के रूप में परिणत कर दिया था और आज यह दिन है कि उसका पति भी उसे त्याग रहा है ।,किसी स्त्री के हृदय पर इससे अधिक लज्जाजनक इससे अधिक प्राणघातक आघात नहीं लग सकता । एक शक्ा--सस्कार अयर्म से झयवा कमाठो है ।,एक आवाज-शराब पीने से बदन में फुर्ती आ जाती है ।,एक शंका-सरकार अधर्म से रुपया कमाती है । "धर को 5६, धर का सृत, घर का कपड़ा, घर का भोजन, घर को अद्मटत, न पुलिम का भय, मे अमछा की चुशामर, यु और ज्ञाति से जेबन अतोत हरे छो ।",उन्हें स्वतंत्रता का स्वाद मिला ।,घर की रुई घर का सूत घर का कपड़ा घर का भोजन घर की अदालत न पुलिस का भय न अमला की खुशामद सुख और शांति से जीवन व्यतीत करने लगे । कितना हो ने नशेवाजों छोड दो और मदुनावों को एक छहर-सो दोडने छग़ो ।,घर की रुई घर का सूत घर का कपड़ा घर का भोजन घर की अदालत न पुलिस का भय न अमला की खुशामद सुख और शांति से जीवन व्यतीत करने लगे ।,कितनों ही ने नशेबाजी छोड़ दी और सद्भावों की एक लहर-सी दौड़ने लगी । ययार्ँं में इस दिनों सेरा चित कुछ च्ह्ता है ।,कहीं प्रेम-लता मुरझाने तो नहीं लगी सारन्धा-प्राणनाथ आप मुझसे ऐसी बात पूछते हैं जिसका उत्तर मेरे पास नहीं है ।,यथार्थ में इन दिनों मेरा चित्त उदास रहता है । "यह वह समय हैं जब रमणियों को विदेशगामी प्रिउतम को याद स्खाते शत है, जद हृदय किसो से आलिगन करने के लिए व्यग्र हो जाता है ।",चित्त को अभिलाषाओं से उभारनेवाला शमा छाया हुआ था ।,यह वह समय है जब रमणियों को विदेशगामी प्रियतम की याद रुलाने लगती है जब हृदय किसी से आलिंगन करने के लिए व्यग्र हो जाता है जब सूनी सेज देख कर कलेजे में हूक-सी उठती है । आप प्रिथ्षित और हीनहार पुए्प है ।,इस सेवक-धर्म पर विचार कीजिए ।,आप शिक्षित और होनहार पुरुष हैं । "समत बया थे, यम के दृढ़ थे ।",घर-घर उदासी छा गयी ।,सम्मन क्या थे यम के दूत थे । वडित डुर्गोताथ के छिए तीन दिन कठिन पर्मोश्ा के थे ।,मानो अब वे फिर उनसे न मिलेंगे ।,पंडित दुर्गानाथ के तीन दिन कठिन परीक्षा के थे । "च॑ंदूमऊ--एक नही, सो दवाव पढ़े, मैं झू७ कभो न बोूंगा |",मंत्री-पुलिसवाले आपको दबायेंगे बहुत ।,चंदूमल-एक नहीं सौ दबाव पड़ें मैं झूठ कभी न बोलूँगा । "नहीं, मु्ते जमी प्रुल्क को मुहब्बत बारे है ।",गैरों के बेरहम पैरों के नीचे पड़ कर तुम हाथ भी न हिला सकोगे और यह उम्मीद कि कभी हमारे मुल्क में आयीनी सल्तनत (वैध शासन) कायम होगी हसरत का दाग बन कर रह जायगी ।,नहीं मुझमें अभी मुल्क की मुहब्बत बाकी है । "मैं अ्ी इतना वेजान नहीं हुआ हू / में इतती आाडादो से सा्वढ को हाब से ने जाने दूँगा, अपने को इतने नस्‍्ते दाप्तो गैरों के हाथों न देचूँगा, मुल्क की इन्जत को न मिटने दूँगा, चाहे इस कोमिश में मेरो जान ही क्यों भ जाय |",मैं अभी इतना बेजान नहीं हुआ हूँ ।,मैं इतनी आसानी से सल्तनत को हाथ से न जाने दूँगा अपने को इतने सस्ते दामों गैर के हाथों न बेचूँगा मुल्क की इज्जत को न मिटने दूँगा चाहे इस कोशिश में मेरी जान ही क्यों न जाय । "राजा साहब जय तडवार हाथ में छे कर उेछ से निकुछे, तो उतरा दाम्य-्मकित की , तरसों से आइोछिक को खा घा ।",उसने राजा साहब की बेड़ियाँ खोल दीं ।,राजा साहब जब तलवार हाथ में ले कर जेल से निकले तो उनका हृदय राज्य-भक्ति की तरंगों से आंदोलित हो रहा था । रोझ्नुद्दोछ्ता की.जात बच गयी |,दी हुई चीज को आप वापस कैसे लेंगे बादशाह ने कहा-तुमने मेरे निकलने का कहीं रास्ता ही नहीं रखा ।,रोशनुद्दौला की जान बच गयी । "अगहन का महौना था, यरगद की डालियों में मूँगे छे - दाने छगे हुए थे ।",एक-दूसरे को छेड़ती हैं और खुश हो कर गले मिलती हैं ।,अगहन का महीना था बरगद की डालियों में मूँगे के दाने लगे हुए थे । में अपनी भीझ्ता ओर चैतिक दुर्बलता पर छाज्जित हैं ।,गोपीनाथ आकर खड़े हो गये और सोते हुए बालक को प्यार से देखकर बोले-आनंदी मैं तुम्हें मुँह दिखाने लायक नहीं हूँ ।,मैं अपनी भीरुता और नैतिक दुर्बलता पर अत्यंत लज्जित हूँ । मुझमें क्रिया-शक्ति नहीं है; लेकिन इसके साथ ही तुमसे अछग रहना मेरे लिए बसह्म है ! तुमे दुर रह कर में जिश नहीं रह सकता ।,अब मुझे विदित हो गया कि मेरी सारी दार्शनिकता केवल हाथी के दाँत थी ।,मुझमें क्रिया-शक्ति नहीं है लेकिन इसके साथ ही तुमसे अलग रहना मेरे लिए असह्य है । बह प्राय गाँव में शहर यो रादी थे चरचे मुत्तों ।,फूल-सा बदन कुम्हला गया था ।,वह प्रायः गाँवों में लाहौर की रानी के चरचे सुनती । पभौलभी पुलिस के आदमी भी उसे दादी हो टाद मं द्घित्त देख पढे ।,वह प्रायः गाँवों में लाहौर की रानी के चरचे सुनती ।,कभी-कभी पुलिस के आदमी भी उसे रानी की टोह में दत्तचित्त देख पड़ते । लोग कीति पर जान देते हैं ।,कृष्ण-हाँ यश होता है ।,लोग आशीर्वाद देते हैं । "गोपीमाथ सामप्रियाँ एकत्र कर रहे, ये, उन्हे झष्छे ढंग से सजाने का भार आनतदो ने लिया यथा ।",यह कहना कठिन है कि किसका उत्साह बढ़ा हुआ था बाई जी का या लाला गोपीनाथ का ।,गोपीनाथ सामग्रियाँ एकत्र कर रहे थे उन्हें अच्छे ढंग से सजाने का भार आनंदी ने लिया था नाटक भी इन्हीं ने रचा था । "यह पहला ही अवसर था कि मुझे किसी महिला के मुख से, चाहे वहें प्रति- निधि द्वारा हो क्‍यों न हो, अपनी प्रश्सा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।",इस पत्र विशेषतः उसके अंतिम समाचार ने मुझे पुलकित कर दिया ।,यह पहला ही अवसर था कि मुझे किसी महिला के मुख से चाहे वह प्रतिनिधि द्वारा ही क्यों न हो अपनी प्रशंसा सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । "आये्ित का महोना था, और तीसरा पहए ।",कहीं कविता में मेरी प्रशंसा हो जाय तो क्या पूछना ! फिर तो साहित्य-संसार में मैं ही नजर आऊँ ! इस चुप्पी से कुछ निराशा होने लगी लेकिन इस डर से कि कहीं कवि जी मुझे मतलबी अथवा सेंटिमैंटल न समझ लें कोई पत्र न लिख सका ।,आश्विन का महीना था और तीसरा पहर । "उक्त कथन में कितनी खुशा- मद, कितनी नीचता और अवध की प्रजा तथा राजो का कितना अपमान था ! और लोग तो दोपो का छिद्र देख कर हंसने लगे, पर राजा वस्तावर्रासिह के मुँह में अनायाम निकछ गया--हुजूर, ताज में सुराख हो गया ।",बख्तावरसिंह बादशाह के मुँह से ऐसी बात सुन कर कबाब हुए जाते थे ।,उक्त कथन में कितनी खुशामद कितनी नीचता और अवध की प्रजा तथा राजों का कितना अपमान था ! और लोग तो टोपी का छिद्र देख कर हँसने लगे पर राजा बख्तावरसिंह के मुँह से अनायास निकल गया-हुजूर ताज में सुराख हो गया । - उनका नाम नसूर्सिह-देव था ।,मेरा विवाह एक राजपूत योद्धा से हुआ था ।,उनका नाम नृसिंहदेव था । कई वर्षों तक हमारा जीवन एक जलखोत की भाँति वृक्ष-युंजों और हरे-हुये मेदातों मे प्रवाहित होता रहा ।,उनका मेरे ऊपर अपार स्नेह था ।,कई वर्षों तक हमारा जीवन एक जलश्रोत की भाँति वृक्ष-पुंजों और हरे-भरे मैदानों में प्रवाहित होता रहा । अपार थो दो वालटियरों का फ्ैसना व्यथ नद्दीं हुआ. ।,पुलिस अधिकारियों के जाने के बाद सेठ जी ने काँग्रेस के प्रधान से कहा-आज मुझे मालूम हुआ कि ये लोग वालंटियरों पर इतना घोर अत्याचार करते हैं ।,प्रधान-तब तो दो वालंटियरों का फँसना व्यर्थ नहीं हुआ । : आय” आपने' छगायी है ।,कुँवर साहब (शासन के ढंग से)-यह काम आपको करना पड़ेगा इसमें हाँ-नहीं की कोई आवश्यकता नहीं ।,आग आपने लगायी है । "शायद वे सब के ,सब राठ्रोप्राठ कछकतते भाग गये ये ।",मैं उन्हें पाता तो स्वयं बादशाह की खिदमत में भेज देता लेकिन पाँचों महानुभावों में से एक का भी पता न चला ।,शायद वे सबके सब रातों-रात कलकत्ते भाग गये । "अगर आपको ज्यादा माल दरकार हो, तो मेरे साथ गरौवखाने तक तकलीफ कोणिए » जेता माछ चाहिए, छोजिए ।",बाजार में खौफ के मारे नहीं लाते ।,अगर आपको ज्यादा माल की दरकार हो तो मेरे साथ गरीबखाने तक तकलीफ कीजिए । "सबेरे जब कुंवर पृथ्वीसिह संष्या भादि निश्य-द्रिया से तिपद कर बैठे, तो वह उनके सामने आपी और उसेने शक सुंदर कुश को चेंग्ेलीमें अभिनदन-पत्र रस दिया ।",यह असगुन क्यों ब्रजविलासिनी ने दोनों राजकुमारों के आने का समाचार सुन कर उन दोनों को देने के लिए दो अभिनन्दन-पत्र बनवा रखे थे ।,सबेरे जब कुँवर पृथ्वीसिंह संध्या आदि नित्य-क्रिया से निपट कर बैठे तो वह उनके सामने आयी और उसने एक सुन्दर कुश की चँगेली में अभिनन्दन-पत्र रख दिया । "दंजबिल्यसिनों तो उलदे पाँव छोटो, पर धर्मसिह में चारपाई पर ठैट कर हीं हाथों से मुंह ढेत छिया ।",उसको देख कर धर्मसिंह के चेहरे का भी रंग उड़ गया होंठ सूख गये और हाथ-पैर सनसनाने लगे ।,ब्रजविलासिनी तो उलटे पाँव लौटी पर धर्मसिंह ने चारपाई पर लेट कर दोनों हाथों से मुँह ढँक लिया । अंत को नोंद ने उसको अपनी गोद ग्रेंकेछधा ।,वह यद्यपि चाहती है कि अपने भावों से उनके मन का बोझ हलका करे पर नहीं कर सकती ।,अन्त को नींद ने उसको अपनी गोद में ले लिया । "यह मुसाफिर, मेने दो दार पंडित श्रीयर को मौत के सुँह से बचाया था, कितु आज का-सा आनंद कभी न्‌ प्राप्त हुआ था ।",दोनों आँखें आकाश की ओर उठा कर बोली-ईश्वर तुम्हें इस यश का फल दें ।,ऐ मुसाफिर मैंने दो बार पंडित श्रीधर को मौत के मुँह से बचाया था किन्तु आज का-सा आनंद कभी न प्राप्त हुआ था । जब मै ज्ञानसरोबर पर पहुँचो तो दोपहर हो आया था ।,ऐ मुसाफिर मैंने दो बार पंडित श्रीधर को मौत के मुँह से बचाया था किन्तु आज का-सा आनंद कभी न प्राप्त हुआ था ।,जब मैं ज्ञानसरोवर पर पहुँची तो दोपहर हो आयी थी । "फंभी कल्पना में मुझे पह देवों आकाश से उतरती हुई माडूम होती, तब चित्त चंचल हो जांतां और विंकेल उत्केठा होती कि किसी तरह पर छगा कर ज्ञान- सरोबर के तद पहुँच जाओ ।",मैं थियेटरों में जाता और स्पेन और जार्जिया की सुन्दरियों को देखता किंतु हिमालय की अप्सरा मेरे ध्यान से न उतरती ।,कभी-कभी कल्पना में मुझे वह देवी आकाश से उतरती हुई मालूम होती तब चित्त चंचल हो जाता और विकल उत्कंठा होती कि किसी तरह पर लगा कर ज्ञानसरोवर के तट पहुँच जाऊँ । *+ डर (उन बह वोली--विश्वासघात न करना ।,सिपाही के बातचीत करने के ढंग में और चेहरे में कुछ ऐसी विलक्षणता थी जिससे रानी को विवश हो कर विश्वास करना पड़ा ।,वह बोली-विश्वासघात न करना । "बश्नाम दोनो है, खेछिग माउदी के साथ लोगों को सहानुभुज़ि हैं, ओपीलाय झवकी निगाह से विर गरग्े है ।",वह नाम पर मरते हैं आनंदी प्रेम पर ।,बदनाम दोनों हैं लेकिन आनंदी के साथ लोगों की सहानुभूति है गोपीनाथ सबकी निगाह से गिर गये हैं । "वोे--कसम हैं हजर्त इमामहुसैन को, अब इसको ज़ांवर्यों नही कछूँगा ।",पिस्तौल देखते ही बादशाह की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं ।,बोले-कसम है हजरत इमामहुसैन की अब इसकी जाँबख्शी नहीं करूँगा । "झ्यामदर्ण नाटा डील, मुख पर चेचक के दाग, नंगा सिर, बाल संबारें हुए, रिर्फ सादी कमोज, गछे में फूछो को एव माला, पैर में! फूलनबूड घौर हाथ में एक मोटो-सी पुस्तक ! पि मेंदे विस्मित हो-कद नाम पूछा",उनके आकार-प्रकार में कुछ नवीनता अवश्य थी ।,श्यामवर्ण नाटा डील मुख पर चेचक के दाग नंगा सिर बाल सँवारे हुए सिर्फ सादी कमीज गले में फूलों की एक माला पैर में फुल-बूट और हाथ में एक मोटी-सी पुस्तक ! मैंने विस्मित हो कर नाम पूछा । "मैं उमापति जी के साथ घर चछने को उठ खड़ा हुआ ! जब, वह कमरे के बाहूर तिकछ गये, तो मेरे मित्र ने पूछा--यह कौन साहब है ?",पूछता हुआ चला आया ।,मैं उमापति जी के साथ घर चलने को उठ खड़ा हुआ ! जब वह कमरे के बाहर निकल गये तो मेरे मित्र ने पूछा-यह कौन साहब हैं मैं-मेरे एक नये दोस्त हैं । मित्र--जरा इनये होशियार रहिएगा ।,मैं उमापति जी के साथ घर चलने को उठ खड़ा हुआ ! जब वह कमरे के बाहर निकल गये तो मेरे मित्र ने पूछा-यह कौन साहब हैं मैं-मेरे एक नये दोस्त हैं ।,मित्र-जरा इनसे होशियार रहिएगा । फ़िर आते होने छगी ।,बाजार से भोजन मँगवाया ।,फिर बातें होने लगीं । मुनोस से बोके--डोड़ो दित पड़ी ।,मुख पर मुस्कराहट की झलक आयी ।,मुनीम से बोले-कौड़ी चित्त पड़ी । बसा दति छेझा--बारों खाने चित्र ।,बाजी अपने हाथ रही ।,कैसा दाँव खेला-चारों खाने चित । "बहिएं, बनी बुढा कर जूठिँ सीधी करवाऊ ।",चंदू.-आप भी बातें करते हैं इन्हें दोस्त बनाते कितनी देर लगती है ।,कहिए अभी बुला कर जूतियाँ सीधी करवाऊँ । "मानप्री--अगर ऐला है, तो तुम भी वढ़ो ववगदत करों सहों करने है क्रणा--बहुत कट़ित है ।",उनकी वकालत उच्चकोटि की थी ।,मानकी-अगर ऐसा है तो तुम भी वही वकालत क्यों नहीं करते कृष्ण-बहुत कठिन है । "जहा -_ अब जड़ा चित्त सावधान हुआ तो उसने कद्दा--न्‍्हें बृल्य छो, उनका. दर्शक मुझ रामबाण ही जायगा ।",उसका हृदय बड़े वेग से धड़क रहा था और पतिदर्शन का आनन्द आँखों से आँसू बन कर निकलता था ।,जब जरा चित सावधान हुआ तो उसने कहा-उन्हें बुला लो उनका दर्शन मुझे रामबाण हो जायगा । "ज्यो हो ,पढित जो अदर भाये, विधावरों 'उठ कर उतके पैते से लिपट गयो ।",ऐसा ही हुआ ।,ज्यों ही पंडित जी अंदर आये विद्याधरी उठ कर उनके पैरों से लिपट गयी । बानंदी बाई भी बही रहती थी |,इसलिए जब उनकी कुछ लिखने की इच्छा होती तो बेखटके पाठशाला में चले जाते ।,आनंदी बाई वहीं रहती थीं । गया जो में सतोपदायिती घाति बिद्यज रही थी ।,रात आधी से अधिक जा चुकी थी ।,गंगा जी में संतोषदायिनी शांति विराज रही थी । चारों ओर दमन्नादा था शनो नदी के क्तारे-कितारे चुली जाती थी औौर मुष-मुड कर पीछे देखती थो ।,चारों ओर सन्नाटा था ।,रानी नदी के किनारे-किनारे चली जाती थी और मुड़-मुड़ कर पीछे देखती थी । "--हेँष, मेरे घाव ""पर मप्रक छ्िडकने आया है ! मेरे मान और विश्वास कये मिट्टी मे मिलाने पर नमी तेरा जी न भरा ! मुझसे विजय का वीड़ा मांगता हैं ! हा, यह विजय का वीडा है; पर तेती विजय का नही, मेरी विजय का ।",हरदौल का खिला हुआ मुखड़ा देख कर राजा की ईर्ष्या की आग और भी भड़क उठी ।,"दुष्ट, मेरे घाव पर नमक छिड़कने आया है! मेरे मान और विश्वास को मिट्टी में मिलाने पर भी तेरा जी न भरा! मुझसे विजय का बीड़ा माँगता है! हाँ, यह विजय का बीड़ा है; पर तेरी विजय का नहीं, मेरी विजय का ।" "विय हलाहछ था, कठ के नीचे उतरते ही हरदौस के मुप्तडें पर सुईनी छा गयो यओर बाँखें दुप्च गयी ।",एक सच्चे राजपूत ने अपना पुरुषत्व दिखा दिया ।,"विष हलाहल था, कंठ के नीचे उतरते ही हरदौल के मुखड़े पर मुरदनी छा गयी और आँखें बुझ गयीं ।" मत्यप्रकाज के उसके मुख को जोर जित्ायामार से देवा आर आदर समय गया ।,सत्यप्रकाश ने पूछा-अम्माँ कहाँ है देव.-बेटा गंगा ने उन्हें नेवता खाने के लिए रोक लिया ।,सत्यप्रकाश ने उनके मुख की ओर जिज्ञासाभाव से देखा और आशय समझ गया । "दौत से दोन आपिया की नी ईश्वर का लापाद होता है, जो उनके हृदय को राम्हाललता रहता है ।",2 मातृहीन बालक संसार का सबसे करुणाजनक प्राणी है ।,दीन से दीन प्राणियों को भी ईश्वर का आधार होता है जो उनके हृदय को सहलाता रहता है । "वृक्षा में उसे जुरुलुछ गहादुभूद्ि का बज्ात अनुभव होता था, जो पर के प्रायिया में उ्ि च मिद्धती थी ।",अकेला बैठा रहता ।,वृक्षों में उसे कुछ-कुछ सहानुभूति का अज्ञात अनुभव होता था जो घर के प्राणियों से उसे न मिलती थी । ". इस भाँति रातों ने धोड़े के लिए अपनी विस्तृत जागीर, उच्च राज और राज-साम्रान संव हाथ से खोमा और केवल इतना हो नही, मविष्य के लिए काँदे बोये; इस घडी से अंत दशा तक चम्पतराय को दाति न मिली ।",बादशाह-वह क्या है रानी-अपनी आन ।,इस भाँति रानी ने अपने घोड़े के लिए अपनी विस्तृत जागीर उच्च राज और राज-सम्मान सब हाथ से खोया और केवल इतना ही नहीं भविष्य के लिए काँटे बोये इस घड़ी से अन्त दशा तक चम्पतराय को शान्ति न मिली । शोतछा उसके:पीछेनयीछे किले वी दौवारों तक आयी; भगर ज्व अनिरुद्ध छठाँग मार कर बाहर कूंद पडा तो वह विरहिणो एक चट्टात पर बैठ कर रोने छमी १,पल भर में नदी के उस पार जा पहुँचा और फिर अन्धकार में लुप्त हो गया ।,शीतला उसके पीछे-पीछे किले की दीवारों तक आयी मगर जब अनिरुद्ध छलाँग मार कर बाहर कूद पड़ा तो वह विरहिणी चट्टान पर बैठ कर रोने लगी । परंतु कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं कि चम्ततयथ को मुगठ बादघाह् का आधित होना पढद्ठा ।,यद्यपि राजा के रनिवास में पाँच रनियाँ थीं मगर उन्हें शीघ्र ही मालूम हो गया कि वह देवी जो हृदय में मेरी पूजा करती है सारन्धा है ।,परन्तु कुछ ऐसी घटनाएँ हुईं कि चम्पतराय को मुगल बादशाह का आश्रित होना पड़ा । "प्रभा रूम सें बहुत रूज्जित्,होठी- ।",प्रेम का प्रकाश अँधेरे हृदय को भी चमका देता है ।,प्रभा मन में बहुत लज्जित होती । "आनंदी--[ चिठ कर ) खूछ जायगी, खुल जाप ।",महीने-दो महीने यहाँ और रहने पड़ गये तो बात खुल जायगी ।,आनंदी-(चिढ़ कर) खुल जायगी खुल जाय । "राजा की अवस्था बहुत शोचनीय थो; कितु जैसे दवी हुईं आग हवा लगते हीं प्रदोप्त हो जातो है, उसी प्रकार इस संकट वा ज्ञान होते हैं उसने जर्जर शरोर में दीरात्मा लमकर उठी ।",बुन्देला सिपाहियों ने भी तलवारें खींच लीं ।,राजा की अवस्था बहुत शोचनीय थी किन्तु जैसे दबी हुई आग हवा लगते ही प्रदीप्त हो जाती है उसी प्रकार इस संकट का ज्ञान होते ही उनके जर्जर शरीर में वीरात्मा चमक उठी । "उमर पंखरहित पक्षी के सदृश, जो साँप को बयती तरझ आते देख कर ऊपर को उचकता और फ़िर गिर पड़ता है, राजा चम्पप्राय फ़िर सैँभल कर उठे और फ़िर गिर पड़े ।",भावी अमंगल की सूचना मिल गयी ।,उस पंखरहित पक्षी के सदृश जो साँप को अपनी तरफ आते देख कर ऊपर को उचकता और फिर गिर पड़ता है राजा चम्पतराय फिर सँभल उठे और फिर गिर पड़े । "अम्पतरोय बोले--“सारन, देखो, हमारा एक और बोर जमीन पर गिरा ।",आन पर मरने वाली सारन्धा इस समय साधारण स्त्रियों की भाँति शक्तिहीन हो गयी लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्रीजाति की शोभा है ।,चम्पतराय बोले-सारन देखो हमारा एक वीर जमीन पर गिरा । यह शका पहुले भो कमन थो; अब बोर भो बह गयो ।,हर घड़ी यह भय लगा रहता कि आक्रमणकारियों का दल मेरे सुख और शांति में बाधा डालने के लिए मेरे स्वर्ग को विध्वंस करने के लिए आ रहा है ।,यह शंका पहले भी कम न थी अब और भी बढ़ गयी । "इादेशाह--हजर्त इमाम की कसम, में यह जिल्लत न यर्दाश्त करूंगा ।",बादशाह-तो क्या आप लोग मुझे तख्त से उतारना चाहते हैं रोशन-नहीं आपको बादशाही की जिम्मेदारियों से आजाद कर देना चाहते हैं ।,बादशाह-हजरत इमाम की कसम मैं यह जिल्लत न बर्दाश्त करूँगा । आदशाह ( दोसता से )-+में वाश करदढ़ा हूँ कि आइदा से भाप छोगौ को पघिकायत का कोई मोका न दूँगा ।,आपकी ऐश परस्ती बुजुर्गों का नाम रोशन नहीं कर रही है ।,बादशाह (दीनता से)-वादा करता हूँ कि आइंदा से आप लोगों को शिकायत का कोई मौका न दूँगा । ह ह ». हरिस्चद ने पूछा--केसा याना था २ प्रभा के होश उड्दे हुए थे ।,उमा ने बुला कर इसका गाना सुना था ।,हरिश्चंद्र ने पूछा-कैसा गाना था प्रभा के होश उड़े हुए थे । उसे विश्गस हो गया कि आज ठुल्यछ वद्दों है ।,हरिश्चंद्र ने मुस्करा कर कहा-क्या गाता था प्रभा ने सोचा इस प्रश्न का उत्तर दे दूँ तो बाकी क्या रहता है ।,उसे विश्वास हो गया कि आज कुशल नहीं है । "लह्मो न सहो, रुद्मो का स्मारक-जिछ्ध ही सहो ।",द्वितीया के दिन जब घर-घर लक्ष्मी की पूजा होती है पंडित जी ठाट-बाट से इन पुलिंदों की पूजा करते ।,लक्ष्मी न सही लक्ष्मी का स्मारक-चिह्न ही सही । अमावस्या को रात्रि ३ ।,समय की निंदा व्यर्थ और भूल है यह मूर्खता और अदूरदर्शिता का फल था ।,अमावस्या की रात्रि थी । "दैद्य जी ने लज्जामय सहानुभूति से देवदत्त की ओर देखा और केवल इतना कहा--मुझे अत्यत थोक है, सर्देव के छिए तुम्हारा अपराधी हूँ |",मुझे गिरिजा की एक चितवन इन रुपयों से कई गुनी प्यारी है ।,वैद्य जी ने लज्जामय सहानुभूति से देवदत्त की ओर देखा और केवल इतना कहा-मुझे अत्यंत शोक है सदैव के लिए तुम्हारा अपराधी हूँ । सो भी अधिक तनस्याह्‌ रहीं देतो पठेंगो |,एक अँग्रेजी का पूर्ण पंडित सहज ही में मिल रहा है ।,सो भी अधिक तनख्वाह नहीं देनी पड़ेगी । सैने ईमालदार कुल्मे देखे है ओर बेइसाग बडेन्वेड़े परनांदप पुरुष ।,सच्चाई का रुपये से कुछ सम्बन्ध नहीं ।,मैंने ईमानदार कुली देखे हैं और बेईमान बड़े-बड़े धनाढ्य पुरुष । और अंतिव जो घझब्दे मरे मुँह से निकले वह यही कि *] में भी इनकी चेरी बतेतता ।,अब मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि अपने स्वामी के चरणों में पड़ी रहूँ और जब इस संसार से प्रस्थान करने का समय आये तो मेरा मस्तक उनके चरणों पर हो ।,और अन्तिम जो शब्द मेरे मुँह से निकलें वह यही कि ईश्वर दूसरे जन्म में भी इनकी चेरी बनाना । इस “नं ने मार्तमिक द्र्क्तियों को शिविलल कर दिया ।,जब तक अपने इच्छानुकूल काम करते थे चौबीस घंटों में घंटे-दो घंटे कानून भी देख लिया करते थे ।,इस नशे ने मानसिक शक्तियों को शिथिल कर दिया । "पृथ्वीसिह--( घबरा कर ) ऐं ठुप (--मै-- 2.6 % 'राजपृत, अपनी ,प्रतिज्ञा पूरी करो ।",वह दुष्ट कुकर्मी धर्मसिंह ही है ।,पृथ्वीसिंह-(घबरा कर) ऐं तुम ! -मैं- धर्मसिंह-राजपूत अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो । पप्वीशिह यह सुन कर जमीन पर बैठ गये और रोने छो |,तुमने पुरुष का कर्त्तव्य पुरुष की भाँति पालन किया ।,पृथ्वीसिंह यह सुन कर जमीन पर बैठ गये और रोने लगे । "बह ओला-- प्रकार, उतको कुछ न फहे ।",यह सुन कर मलूका की आँखों में आँसू भर आये ।,वह बोला-सरकार उनको कुछ न कहें । "कि मालिक का जो कुछ तुम्हारे जिम्मे निकछे, चुका देना ।",हमसे कभी एक लोटा पानी के रवादार नहीं हुए ।,चलते-चलते हमसे कह गये कि मालिक का जो कुछ तुम्हारे जिम्मे निकले चुका देना । अनेक बार मासन्योट को ।,कितनी बार घरों में आग लगवायी ।,अनेक बार मार-पीट की । "इतने मे एह जदात बाकी पगदी थाँये, दृपषियार गजायें, सूठता आठा दिखायो दिया ।",एक दिन गोधूलि-बेला में जब गायें जंगल से लौट रही थीं मैं अपने द्वार पर खड़ी थी ।,इतने में एक जवान बाँकी पगड़ी बाँधे हथियार सजाये झूमता आता दिखायी दिया । "ऐ मुसाफिर, यह दृश्य देख कर मुझे किसी भीषण घटना का सदेह हुआ ।",एक क्षण के बाद मुझे उस ओर किसी मनुष्य का चीत्कार सुनायी दिया फिर बंदूकों के शब्द सुनायी दिये और उनकी ध्वनि से पहाड़ गूँज उठा ।,ऐ मुसाफिर यह दृश्य देख कर मुझे किसी भीषण घटना का संदेह हुआ । "अपने सती होने के सदर कारण राजबंदिनी ने जान-यूक्ष कर पैदा किये थे, क्योकि उसके मन में संत था",और ऐसा ही हुआ ।,अपने सती होने के सब कारण राजनंदिनी ने जान-बूझ कर पैदा किये थे क्योंकि उसके मन में सत था । एक पछ का बिलव भो बदयत्रकारियों के धावक विरोध को मठ फर गंदा या ।,राजा बख्तावरसिंह बंदी-गृह से निकल कर नगर-निवासियों को उत्तेजित करते और प्रतिक्षण रक्षाकारियों के दल को बढ़ाते बड़े वेग से दौड़े चले आ रहे थे ।,एक पल का विलम्ब भी षड्यंत्रकारियों के घातक विरोध को सफल कर सकता था । एक भी ऐसा पुरुष नही जिस पर मेरा विश्वास जमे ! कोर्ट मॉफ वार्ड स के सुपुरई करें तो पहाँ भी से ही सब आपत्तियाँ ।,मुख्तारआम गुमाश्ते कारिंदे कितने हैं परन्तु सब के सब स्वार्थी-विश्वासघाती ।,एक भी ऐसा पुरुष नहीं जिस पर मेरा विश्वास जमे ! कोर्ट आफ वार्ड्स के सुपुर्द करूँ तो वहाँ भी वे ही सब आपत्तियाँ । दूसरे हौ दिन आठ काछ चछे यये ।,पंडित जी के मन की बात नहीं जानती पर प्रत्यक्ष में उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की ।,दूसरे ही दिन प्रातःकाल चले गये । _** ४ राज०--अगर बुरा न मात्रों तो एक दात पूछूँ ।,मेरा हाल मत सुनो ।,राज.-अगर बुरा न मानो तो एक बात पूछूँ । "-- कि ब्रजविदासिनी आँखों में आँसू भर कर वोछी--राजडुमारो, में प्रतधारिणों हूँ छौर अपने ब्रत को धूरा करवा ही मेरे जीवन का उद्देश्य हैं ।",राज.-मैं अब तुम्हारा ब्याह रचाऊँगी ।,दीवान जयचंद को तुमने देखा है ब्रजविलासिनी आँखों में आँसू भर कर बोली-राजकुमारी मैं व्रतधारिणी हूँ और अपने व्रत को पूरा करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है । ";. ४ जैये इस यात्रा मे बड़े-बड़े कदुमुत्त दृश्य द्ेले और कितने ही जातियों के आहाउ-ब्यवद्वार, : रहव-सहत का ,अवछोकन क्िया ।",पक्षियों के घोंसलों में रातें काटी हैं किंतु ये सारी बलाएँ कट गयीं और वह समय अब दूर नहीं है कि साहित्य और विज्ञान-संसार मेरे चरणों पर शीश नवायें ।,मैंने इस यात्र में बड़े-बड़े अद्भुत दृश्य देखे और कितनी ही जातियों के आहार-व्यवहार रहन-सहन का अवलोकन किया । "” कुछीना सोचते रूपी, तलछवाए इनको दूँ यान ्रेँ ।",यदि इस बार भी हार हुई तो ओरछे का नाम सदैव के लिए डूब जायगा ।,"कुलीना सोचने लगी, तलवार इनको दूँ या न दूँ ।" "जो अवालत-कघहरी और थावा-एुलिस की बातें कर रहे थे, उसके मुखों से चिता, निर्नीवता भौर उदासी प्रदर्शित होती थी और वे सब साशारिक्र चिताओं से व्यवित मालूम होते थे ।",यह स्थान गैर-आबाद न था ।,सैकड़ों आदमी चलते-चलते दृष्टि आते थे जो अदालत-कचहरी और थाना-पुलिस की बातें कर रहे थे उनके मुखों से चिंता निर्जीवता और उदासी प्रदर्शित होती थी और वे अब सांसारिक चिंताओं से व्यथित मालूम होते थे । उसे देख कर ऐमी- ऐसी' दु खदायंक तवा हृदय-विदारक ग्र्क स्मृतियाँ ताजी हो गयी: कि घंटो पृथ्दी पर बैठे-बैंठे |,आह ! इस प्यारे बरगद को देखते ही हृदय पर एक बड़ा आघात पहुँचा और दिल में महान् शोक उत्पन्न हुआ ।,उसे देख कर ऐसी-ऐसी दुःखदायक तथा हृदय-विदारक स्मृतियाँ ताजी हो गयीं कि घंटों पृथ्वी पर बैठे-बैठे मैं आँसू बहाता रहा । मर मोपीनाय ने निश्चय वर छिपा थिः सै जाति-मेवा में जीवस-क्षेप्र करेगा ।,राष्ट्रीय सेवा बड़े उत्तरदायित्व का काम है ।,गोपीनाथ ने निश्चय कर लिया कि मैं जाति-सेवा में जीवनक्षेप करूँगा । "गररपर मेल था, घत था, सताने ची ।",वह भी दलाली करते थे ।,परस्पर मेल था धन था संतानें थीं । एकाएंक उसका हृंदब उछछ परश्य ।,प्रभा ने उसकी तरफ सहमी हुई आँखों से देखा ।,एकाएक उसका हृदय उछल पड़ा । "प्रेम-विद्धक हो, आंखों में नाँयू भरे वह अप्रने प्रठि के चरणा- रादिदों पर घिर पढ़ी ओर भदुयद कंठ से ब्रोठो--म्यरे ! प्रियवम ! र ... राजा हरिस्वेंद्र को आज सदी विजय प्राप्त हुई ।",उसकी आँखों के आगे से एक पर्दा हट गया ।,प्रेम-विह्वल हो आँखों में आँसू-भरे वह अपने पति के चरणारविंदों पर गिर पड़ी और गद्गद कंठ से बोली-प्यारे ! प्रियतम ! राजा हरिश्चंद्र को आज सच्ची विजय प्राप्त हुई । "क्या सारंपा ने उसका जो ,उतड़ दिया था, वह भी पूरा हो कर रहेगा ?",शीतलादेवी ने उस समय जो भविष्यवाणी की थी वह आज पूरी हुई ।,क्या सारन्धा ने उसका जो उत्तर दिया था वह भी पूरा होकर रहेगा मध्याह्न था । अवसर “अंधा कूकुर वढासे मूँके”” बाछो लोकोतित को चरिताय करता ।,बस अब बहुधा रात को चौंक पड़ता और किसी अज्ञात शत्रु के पीछे दौड़ता ।,अक्सर अंधा कूकुर बात से भूँके वाली लोकोक्ति को चरितार्थ करता । देवपरिया अब संसार मे अक़ैलो थी देवग्रिया अपने पुत्र को गृहस्थी को ओर खोचते के लिए नित्य टोने-टोटके किया करती ।,देवप्रिया अब संसार में अकेली थी ।,देवप्रिया अपने पुत्र को गृहस्थी की ओर खींचने के लिए नित्य टोने-टोटके किया करती । "पहले हो दिन कई सो किसानों ने पंडित जो को अनेक प्रकार के पदार्थ भेंट के रूप में उपस्थित किये, किनु जब दें सब छोटा दिये गये तो उन्हें बहुत आरचर्य हुआ ।",चपरासी लोग उनसे ऐसा बरताव करते थे कि पशुओं के साथ भी वैसा नहीं होता ।,पहले ही दिन कई सौ किसानों ने पंडित जी को अनेक प्रकार के पदार्थ भेंट के रूप में उपस्थित किये किंतु जब वे सब लौटा दिये गये तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ । "इसके बिना किसी तरह निर्वाह नही ॥ अगर कोई महाशय झातीय आदोलन में झटीक भी होते हैं, स्वार्थ-स्िद्धि बरने बे लिए, अपना ढोल परोटने के लिए ।",इसके बिना किसी तरह निर्वाह नहीं ।,अगर कोई महाशय जातीय आंदोलन में शरीक भी होते हैं तो स्वार्थसिद्धि करने के लिए अपना ढोल पीटने के लिए । न »« सानकी जिड़ कर बोलो-पहले तो तुम वत्रीलो को इतनी विश व करते थे! »« इैवसचद्र ने उत्तर रिधा--ठद अनुभव न था ।,यह विदेशी सभ्यता का निकृष्टतम स्वरूप है कि देश का बुद्धिबल स्वयं धनोपार्जन न करके दूसरों की पैदा की हुई दौलत पर चैन करता शहद की मक्खी न बन कर चींटी बनना अपने जीवन का लक्ष्य समझता है ।,मानकी चिढ़ कर बोली-पहले तुम वकीलों की इतनी निंदा न करते थे ! ईश्वरचंद्र ने उत्तर दिया-तब अनुभव न था । "जार ने अपना आदोग्राक भेज कर सम्मानित किया, किनु इन आदर-सम्भाव को आ्ँघियों से मेरे, चित्त को जाति न मिलती थी और शञानमरोवर का सुरम्य तट और बह गहरी. गुफा और बह मृदुमापिणों रमणो सदेव आँखों के सामने फ़िरती रहतो. ।",कई विद्यालयों ने मुझे उपाधियाँ दीं ।,जार ने अपना आटोग्राफ भेज कर सम्मानित किया किन्तु इन आदर-सम्मान की आँधियों से मेरे चित्त को शांति न मिलती थी और ज्ञानसरोवर का सुरम्य तट और वह गहरी गुफा और वह मृदुभाषिणी रमणी सदैव आँखों के सामने फिरती रहती । विद्योधरी में गाल सव साऊ करादा और रूदये झयता इनाव-शृंगार दिया ।,पत्र लिखा कि मैं आ रहा हूँ ।,विद्याधरी ने मकान खूब साफ कराया और स्वयं अपना बनाव-शृंगार किया । सहष लौंदी ने दा दर पूचना दी ड्वि पढ़ित थो छा गये ।,संदूक बंद करके रख दिया ।,सहसा लौंडी ने आ कर सूचना दी कि पंडित जी आ गये । "गैदे के बेरहम पैरो के भीचे पड़ कर तुम भी हाथ ने हिछा सकोगे और यह उामीद कि कभी हमारे मुल्क में जाईनो सल्तनत [ बैघ शागन ) कोयम होगो,' राज्य-मक्त, ६७ का ऋक््य वुना हुआ था ।",किसी गैर कौम के चाकर बन कर अगर तुम्हें आफियत (शांति) भी मिली तो वह आफियत न होगी मौत होगी ।,गैरों के बेरहम पैरों के नीचे पड़ कर तुम हाथ भी न हिला सकोगे और यह उम्मीद कि कभी हमारे मुल्क में आयीनी सल्तनत (वैध शासन) कायम होगी हसरत का दाग बन कर रह जायगी । नमकह॒राम को नो मे भागे पूपुर दिये देता हूँ ।,मुझे एक गोशे में पड़ा रहने दीजिए ।,नमकहराम रोशन को भी मैं आपके सुपुर्द किये देता हूँ । "न, मे असो दख कद बह मक्खों ने निगलूगा ।",इसी माया में फँस कर मनुष्य अपनी संतान का शत्रु हो जाता है ।,न मैं आँखों देख कर यह मक्खी न निगलूँगा । में गाने को प्रमझाऊंगा अवश्य ।,न मैं आँखों देख कर यह मक्खी न निगलूँगा ।,मैं ज्ञानू को समझाऊँगा अवश्य । क्रोघोन्मत होकर कोमछायी सुंदरी ज्वालाशिवर वत जाती ।,मेरे विचार में स्त्री का क्रोध इससे कहीं घातक कहीं विध्वंसकारी होता है ।,क्रोधोन्मत्त हो कर वह कोमलांगी सुन्दरी ज्वालाशिखर बन जाती है । उसमे अनुभव होता था कि उनकी दिव्य आँखे उपके वृूषित हृदय में चुभो जातो है ?,वह उनके सामने सिर न उठा सकी ।,उसे अनुभव होता था कि उनकी दिव्य आँखें उसके दूषित हृदय में चुभी जाती हैं इसके बाद तीसरा भाग आया । अप कुदलब्यगांचार पूछने के बढाने से छोग उनके घर जाते' ओर दो-चार किर्ां सुना फर चछे आते थे ।,यह काम गोपीनाथ का है इसमें किसी को भ्रम न था ।,केवल कुशल-समाचार पूछने के बहाने से लोग उनके घर जाते और दो-चार अन्योक्तियाँ सुना कर चले आते थे । "बोडे--क्सम हजरत दमाम वी, नुम सब के खबर शेर के मुंह वे उसका प्िकार छीनना चाहते हो ! पर में एक न मातुंगा, बुलाओं कप्तान साहब की ।",कदाचित् अँग्रेजों को अपनी न्यायपरकता का नमूना दिखाने ही के लिए उन्होंने यह प्रश्न किया था ।,बोले-कसम हजरत इमाम की तुम सबके सब शेर के मुँह से उसका शिकार छीनना चाहते हो ! पर मैं एक न मानूँगा बुलाओ कप्तान साहब को । "घयवादियों का खंडन और प्तिताद करते हुए उनके छूत में गरमो आ जाती थी, दान्‍्दों से चिलगारियाँ निर्केशती छाती थी; यद्यपि यह चिनगारियाँ केंद्रस्थ गरमो को छिक्न किये देती थीं ।",ईश्वरचंद्र की सदय प्रकृति ने उन्हें श्रम का सपक्षी बना दिया था ।,धनवादियों का खंडन और प्रतिवाद करते हुए उनके खून में गरमी आ जाती थी शब्दों से चिनगारियाँ निकलने लगती थीं यद्यपि यह चिनगारियाँ केंद्रस्थ गरमी को छिन्न किये देती थीं । "मानको--मेँ देखती हैं, तुम्हारी दशा दिन-दिन बिगडती जातौ है ।",मुझे इसी समय अपना लेख समाप्त करना है ।,मानकी-मैं देखती हूँ तुम्हारी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती है । यईि आपका बर्ताव अमामियों के साथ ऐसा हो रहा तो फिर जमोंदारी कर चुका ।,आप क्या जानें कि संसार में कैसे रहना होता है ।,यदि आपका बरताव असामियों के साथ ऐसा ही रहा तो फिर मैं जमींदारी कर चुका । "पदि जुश्ञाएमिह शुछे पंदान उसत्रा शाणना बरलेंसो अवश्य मुँह की खाते, बयोकि हरदौल भी बुरा था और बुदेछे अपने शा के साथ र्िसी प्रकार को मुंहदेखों नहों बरते, मरतान्मारता उसके जीयन कथ एक अच्छा दिलिदछाव है ।","उसकी भौंहों के तनिक इशारे से तीन लाख बुंदेले मरने और मारने के लिए इकट्ठे हो सकते थे, ओरछा उस पर न्योछावर था ।","यदि जुझार सिंह खुले मैदान उसका सामना करते तो अवश्य मुँह की खाते, क्योंकि हरदौल भी बुंदेला था और बुंदेला अपने शत्रु के साथ किसी प्रकार की मुँह देखी नहीं करते, मारना-मरना उनके जीवन का एक अच्छा दिलबहलाव है ।" वहेंबवढे पहलवान उमा छोहा मान गये थे ।,इन्हीं दिनों दिल्ली का नामवर फेकैती कादिर खाँ ओरछे आया ।,बड़े-बड़े पहलवान उसका लोहा मान गये थे । "केमे-कैसे सजोठे, जकय्रेडे जवान थे,--मिर पर खुशरग नवॉको पगड़ी, माये पर चंदन बा दिलड़, औणों में मर्शतगे का सूट, कमरों “में तदबाद ।",दूसरे दिन क़िले के सामने तालाब के किनारे बड़े मैदान में ओरछे के छोटे-बड़े सभी जमा हुए ।,"कैसे-कैसे सजीले, अलबेले जवान थे, सिर पर खुशरंग बांकी पगड़ी, माथे पर चंदन का तिलक, आँखों में मर्दानगी का सरूर, कमर में तलवार ।" "आर कंसेकसे बूई थे,--तनो हुई मूंछें, सादे पर तिरछों पगड़ो, झचाज॥ पे डँची हुई दाडिफ, दजने में लो डूडे, पर काम में जवान, किसी को कुछ ते समझतेवाडे ।","कैसे-कैसे सजीले, अलबेले जवान थे, सिर पर खुशरंग बांकी पगड़ी, माथे पर चंदन का तिलक, आँखों में मर्दानगी का सरूर, कमर में तलवार ।","और कैसे-कैसे बूढ़े थे, तनी हुईं मूँछें, सादी पर तिरछी पगड़ी, कानों में बँधी हुई दाढ़ियाँ, देखने में तो बूढ़े, पर काम में जवान, किसी को कुछ न समझने वाले ।" वे देयते थे कि जिन छोगो ने प्रत्रिज्ञायत्र पर हृस्‍्ताक्षर कर दिये है वे चोरी-छिपे छुछ न-कृछ विदेशी मार वेच हुंते है + उनकी दुकानों पर पहरा नही बैठता ।,इस संकट से निकलने का कोई उपाय न था ।,वे देखते थे कि जिन लोगों ने प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिये हैं वे चोरी-छिपे कुछ-न-कुछ विदेशी माल लेते हैं । मेरा कोई देश नहीं हैं ।,अब तक मेरी मातृभूमि थी मैं विदेश में जरूर था किंतु मुझे अपने प्यारे देश की याद बनी थी पर अब मैं देश-विहीन हूँ ।,मेरा कोई देश नहीं है । सैंकड़ों बुददेला सरदार उनके साथ थे ।,भाग्यवश आज हरदौल भी जीत की खुशी में शिकार खेलने निकले थे ।,सैंकड़ों बुंदेला सरदार उनके साथ थे । समझा कोई यात्री होगा |,"उन्होंने राजा जुझारसिंह को अकेले बैठे थे देखा, पर वे अपने घमंड में इतने डूबे हुए थे कि इनके पास तक न आये ।",समझा कोई यात्री होगा । संध्या होते-होते दोनों भाई ओरछे पहुंचे |,"मुहब्बत की जगह ईर्ष्या ने घेर ली थी और वह केवल इसीलिए कि हरदौल दूर से नंगे पैर उनकी तरफ़ न दौड़ा, उसके सवारों ने दूर ही से उनकी अभ्यर्थना न की ।",संध्या होते-होते दोनों भाई ओरछे पहुँचे । वाड़ गयी कि तुम ले गये ।,ज्यों ही तुम सीढ़ी से उतरे मेरी दृष्टि डिबिया की तरफ गयी किंतु वह लापता थी ।,ताड़ गयी कि तुम ले गये । मगर कोई वश न चछता था ।,उसी समय से बहुत व्याकुल हो रही हूँ कि किसी प्रकार भी दियासलाई मिल जाती तो अच्छा होता ।,मगर कोई वश न चलता था । घर के एक ओर पंडित जी रहते है ।,और तुम्हारी जान-पहचान के हैं ।,घर के एक ओर पंडित जी रहते हैं । सारे दिन फाग हुईं है ।,उनके घर में कोई स्त्री नहीं ।,सारे दिन फाग हुई है । वह दो सप्ताहों से मेरे यहाँ मेहमान है ।,रानी उत्सुक हो कर खड़ी हो गयी और बड़े दीन भाव से बोली-तू उनकी लाश का पता लगा सकती है मैं-ऐसा न कहिए वह अमर हों ।,वह दो सप्ताहों से मेरे यहाँ मेहमान हैं । पिछले साल सावत के महीने में मुझे एक ऐसा ही पत्र मिला ।,मैं भी कुछ हूँ यह अहंकार उसे एक क्षण के लिए उन्मत्त बना देता है ।,पिछले साल सावन के महीने में मुझे एक ऐसा ही पत्र मिला । उस तरंग में जो कुछ लिख गया; इस समय याद नहीं ।,उसी वक्त जवाब लिखने बैठा ।,उस तरंग में जो कुछ लिख गया इस समय याद नहीं । इतना जरूर याद है कि पत्र आदि से अंत तक प्रेम के उदमारों से भरा हुआ था ।,उस तरंग में जो कुछ लिख गया इस समय याद नहीं ।,इतना जरूर याद है कि पत्र आदि से अंत तक प्रेम के उद्गारों से भरा हुआ था । इसलिए बह राजा साहब के प्रत्येक कार्य में बाचा डालता रहता था ।,उसे सदैव शंका रहती कि यह मराठों से मैत्री करके अवध-राज्य को मिटाना चाहते हैं ।,इसलिए वह राजा साहब के प्रत्येक कार्य में बाधा डालता रहता था । "यह कह कर सौदागर उसी तरफ चछा गया, जिधर वे तीनो राजपूत गये थे ।",देर हो गयी है और मुझे भी यहाँ की हालत देख कर खौफ मालूम होने लगा है ।,यह कह कर सौदागर उसी तरफ चला गया जिधर वे तीनों राजपूत गये थे । ईरानी सौदागर तीव्र नेत्रों से इधर-उधर देखता हुआ एक मोल चला गया ।,यों ताकते हुए तीनों आगे चले गये ।,ईरानी सौदागर तीव्र नेत्रों से इधर-उधर देखता हुआ एक मील चला गया । वहाँ एक छोटा-सा वाग था ।,ईरानी सौदागर तीव्र नेत्रों से इधर-उधर देखता हुआ एक मील चला गया ।,वहाँ एक छोटा-सा बाग था । अंत में हार कर टामी ने गर्दभ स्वर में 'फरियाद करनी शुरू की |,पर उस मदांध और निर्दयी प्राणी ने जरा भी रिआयत न की ।,अंत में हार कर टामी ने गर्दभ स्वर में फरियाद करनी शुरू की । टामी के दिन भो नदी में कूदते डी फिर गये ।,कहते हैं एक दिन सबके दिन फिरते हैं ।,टामी के दिन भी नदी में कूदते ही फिर गये । भगत बिना कपड़े उतारे पानो भी न पीते और चौधरी को भ्रष्ट बतछाते ।,चौधरी कपड़े पहने सत्तू खा लेते और भगत को ढोंगी कहते ।,भगत बिना कपड़े उतारे पानी भी न पीते और चौधरी को भ्रष्ट बतलाते । वह मजदूरों से इतने विनय के साथ बाते करता और उनके समा- चार इतने विस्तार से छिखता कि वस वे पत्र को सुन कर बहुत प्रमन्न होते ।,पहले कई दिन तो उसको इतने पैसे भी न मिले कि भर-पेट भोजन करता लेकिन धीरे-धीरे आमदनी बढ़ने लगी ।,वह मजदूरों से इतने विनय के साथ बातें करता और उनके समाचार इतने विस्तार से लिखता कि बस वे पत्र को सुन कर बहुत प्रसन्न होते । बह अपनी दशा पर संतुष्ट था ।,घर के लोगों की कभी याद न आती ।,वह अपनी दशा पर संतुष्ट था । सत्यप्रकाथ को भो कई युवकों से मित्रता हो गयी थी ।,युवकों को मित्र बहुत जल्द मिल जाते हैं ।,सत्यप्रकाश को भी कई युवकों से मित्रता हो गयी थी । "न जाने उनकी कमाई में क्या बरकत ,होवी है ।",मेरे कारिंदे पाँच रुपये से अधिक नहीं पाते किंतु शादी-विवाह वकीलों के यहाँ करते हैं ।,न जाने उनकी कमाई में क्या बरकत होती है । कुछ तो पूर्व-जन्म का संस्कार और कुछ रात-दिन गाने को ही चर्चाओो ने उसे भी इस फ़त में अनुरक्त कर दिया था ।,प्रभा बाल्यकाल से ही इनकी सोहबतों में बैठने लगी ।,कुछ तो पूर्व-जन्म का संस्कार और कुछ रात-दिन गाने की ही चर्चाओं ने उसे भी इस फन में अनुरक्त कर दिया था । इस समय उसके सौंदर्य को खूब चर्चा थी ।,कुछ तो पूर्व-जन्म का संस्कार और कुछ रात-दिन गाने की ही चर्चाओं ने उसे भी इस फन में अनुरक्त कर दिया था ।,इस समय उसके सौंदर्य की खूब चर्चा थी । उन्हें किसी प्रकार के बिनोद-प्रमोद ये रुचि न थी ।,अभी वह इंटरमीडियट क्लास में थे कि मिल और बर्कले के वैज्ञानिक विचार उनको कंठस्थ हो गये थे ।,उन्हें किसी प्रकार के विनोद-प्रमोद से रुचि न थी । इसे साथ ही वह उत्साहहीन न थे ।,इसे केवल समय का दुरुपयोग ही नहीं वरन् मन और बुद्धि-विकास के लिए घातक ख्याल करते थे ।,इसके साथ ही वह उत्साहहीन न थे । तुमसे सत्य कदता हूँ ।,द.-क्या कहूँ मित्र लज्जित हूँ ।,तुमसे सत्य कहता हूँ । अब यह अवरम्ब भी जाता रहा ।,परदेश में उसे यही संतोष था कि मैं संसार में निराधार नहीं हूँ ।,अब यह अवलम्ब भी जाता रहा । इच्छा थी कि ऐसा काम करना चाहिए जिससे झपता जीवन भी साधारणतः सुखपूर्वक व्यतीत हो और दूसरों के साथ भलाई और सदाचार का भी अवसर मिछे ।,वे दयालु और धार्मिक थे ।,इच्छा थी कि ऐसा काम करना चाहिए जिससे अपना जीवन भी साधारणतः सुखपूर्वक व्यतीत हो और दूसरों के साथ भलाई और सदाचरण का भी अवसर मिले । शासन-विभाग में नियम और नौतियों को भरमार रहती है ।,पुलिस-विभाग में दीन-पालन और परोपकार के लिए बहुत-से अवसर मिलते रहते हैं किंतु एक स्वतंत्र और सद्विचार-प्रिय मनुष्य के लिए वहाँ की हवा हानिप्रद है ।,शासन-विभाग में नियम और नीतियों की भरमार रहती है । पंडित देवदत्त ठाकुर को “विदा करके घर चले ।,अस्ताचल में भी हलके श्वेत रंग की आभा दिखायी दे रही थी ।,पंडित देवदत्त ठाकुर को विदा करके घर चले । कोई प्रार्थी उस समय उनके धर से निराश नहीं जा सकता था ।,उस समय उनका हृदय उदारता के निर्मल प्रकाश से प्रकाशित हो रहा था ।,कोई प्रार्थी उस समय उनके घर से निराश नहीं जा सकता था । "वस, अब मुझे जिंदगी में अधिक सम्पदा की जरूरत नहीं ।",उस समय वे धैर्य और उत्साह के नशे में मस्त थे ।,बस अब मुझे जिंदगी में अधिक सम्पदा की जरूरत नहीं । राजविमुख प्राणो नरक का भागी होता है ।,राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है उसकी आज्ञा के विरुद्ध चलना महान पातक है ।,राजविमुख प्राणी नरक का भागी होता है । अधिकारी वर्ग इधर उघर से आ कर जमा हो गये ।,खाँ साहब उसी घोड़े पर सवार हो कर दरबार चले गये थे सारन्धा दरबार की तरफ चली और एक क्षण में किसी वेगवती नदी के सदृश बादशाही दरबार के सामने जा पहुँची यह कैफियत देखते ही दरबार में हलचल मच गयी ।,अधिकारी वर्ग इधर-उधर से आ कर जमा हो गये । से०--मैं तो इसे आकस्मिक समय नहीं कहती ।,सदैव के लिए उपदेश मिल गया कि ऐसे अत्यावश्यक समय पर तुम्हें घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता है ।,से.-मैं तो इसे आकस्मिक समय नहीं कहती । मगर निकले भी तो चटनियाँ छे कर ।,आ.-धन्य है ईश्वर ! भला तुम बाहर तो निकले ! मैंने तो समझा था कि एकांतवास करने लगे ।,मगर निकले भी तो चटनियाँ ले कर । "अगर रणधोर मेरा पुत्र है, तो तू मेरी पुत्री है ।",मैं तुझे कुछ बिदाई देना चाहती हूँ वह तुझे स्वीकार करनी पड़ेगी ।,अगर रणधीर मेरा पुत्र है तो तू मेरी पुत्री है । इसलिए इस माया- बंधन से तेरा गला नही छूटेगा ।,तूने ही रणधीर को प्राणदान दिया है तूने ही इस राज्य का पुनरुद्धार किया है ।,इसलिए इस माया-बंधन से तेरा गला नहीं छूटेगा । कवायद का ताम नहीं ।,वर्दी फटी हुई ।,कवायद का नाम नहीं । कोई उनका पूछनेवाला ने था ।,कवायद का नाम नहीं ।,कोई उनका पूछनेवाला न था । उनका हार्दिक भाव प्रवट हो जाता ।,रानी-तुमने उनसे मुझे यहीं क्यों न मिला दिया ।,उनका हार्दिक भाव प्रकट हो जाता । यह सौंदर्य कर आकर्षण था ।,राजा साहब पंडित जी से संस्कृत भी पढ़ते थे और उनके समय का अधिकांश भाग पंडित जी के मकान पर ही कटता था किन्तु शोक ! यह विद्याप्रेम या शुद्ध मित्रभाव का आकर्षण न था ।,यह सौंदर्य का आकर्षण था । चौधरी--हम पहले मंदिरा का छूना पाप समझते थे ।,क्या यह हमारा कर्त्तव्य नहीं है कि हम अपने बालकों को धर्मानुसार शिक्षा दें जनता-चंदा करके पाठशाला खोलनी चाहिए ।,चौधरी-हम पहले मदिरा का छूना पाप समझते थे । तेरे इश्तहार छापता ।,क्या करें इस निष्ठुर वैद्य को यहाँ कैसे लायें जालिम मैं सारी उमर तेरी गुलामी करता ।,तेरे इश्तिहार छापता । तेरी दवाइयाँ कूंटता ।,तेरे इश्तिहार छापता ।,तेरी दवाइयाँ कूटता । उन्होने चौंक कर सिर उठाया ।,इतने में किसी ने बाहर से पंडित जी को पुकारा ।,उन्होंने चौंक कर सिर उठाया । मै रोती हुई उनके सामने आयी ।,उनका चेहरा पीला था पर उनकी आँखों से चिनगारियाँ निकल रही थीं ।,मैं रोती हुई उनके सामने आयी । महीनों बीत जाते और पेट भर मोजन न मिलता ।,अतएव इतने शत्रुओं के बीच में रह कर टामी का जीवन संकटमय होता जाता था ।,महीनों बीत जाते और पेट भर भोजन न मिलता । मैं वहाँ का जाधीरदार हूँ ।,दास का घर राजनगर है ।,मैं वहाँ का जागीरदार हूँ । मेरे पूर्वजों पर आपके पूर्वजों से बड़े अनुग्रह किये है ।,मैं वहाँ का जागीरदार हूँ ।,मेरे पूर्वजों पर आपके पूर्वजों ने बड़े अनुग्रह किये हैं । नहीं तो मुझ जैसे कपूद में तो इतनी भी योग्यता नहीं हैं जो अपने को उन छोगों की संतति कह सकूँ ।,वे गम्भीर भाव धारण करके बोले-यह आपका अनुग्रह है जो ऐसा कहते हैं ।,नहीं तो मुझ जैसे कपूत में तो इतनी भी योग्यता नहीं है जो अपने को उन लोगों की संतति कह सकूँ । बही ऋण चुका देने के लिए ठाकुर आया था ।,पच्चीस के अब पचहत्तर हजार हो चुके ।,वही ऋण चुका देने के लिए ठाकुर आया था । पुलिस को तरफ से गवाही न देदा यही सिद्ध करता है ।,प्रधान-क्यों उन्होंने अभी प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर तो नहीं किये मंत्री-हस्ताक्षर नहीं किये पर हमारे मित्र अवश्य हो गये ।,पुलिस की तरफ से गवाही न देना यही सिद्ध करता है । मेरी नयी अम्मा आयेंगी ।,सत्यप्रकाश खुशी से फूला न समाता ।,मेरी नयी अम्माँ आयेंगी । नये-ये कपड़े मिले ।,बारात में वह भी गया ।,नये-नये कपड़े मिले । वही उसे नयी माता के दर्शन हुए ।,नानी ने अंदर बुलाया और उसे गोद में ले कर एक अशरफी दी ।,वहीं उसे नयी माता के दर्शन हुए । उसका यह अपार दुःख देख कर में अपना दु ख भूल गयी ।,उसकी संगत में मेरे जीवन के कई वर्ष आनन्द से व्यतीत हुए थे ।,उसका यह अपार दुःख देख कर मैं अपना दुःख भूल गयी । कभो मेरे शरीर पर शस्त्र न सजाये ।,कभी मेरी पाग नहीं सँवारी ।,कभी मेरे शरीर पर शस्त्र न सजाये । तब मेरे पर्तिदेव ने सहारा देने के लिए उसको बाँह पकड़ी लो! उस समय उनके नेत्रों में एक विचित्र तृष्णा की झलक् थी और मुख पर एक विचित्र आतुरता ।,वह कई बार उचकी परंतु पटरे तक न आ सकी ।,तब मेरे पतिदेव ने सहारा देने के लिए उसकी बाँह पकड़ ली ! उस समय उनके नेत्रों में एक विचित्र तृष्णा की झलक थी और मुख पर एक विचित्र आतुरता । यदि इतनी-सी वात को आप छूठ समझते हैं तो आपकी जबरदस्ती है ।,जब असामी मेरे ऋणी हैं तो मुझे अधिकार है कि चाहे रुपया ऋण की मद में वसूल करूँ या मालगुजारी की मद में ।,यदि इतनी-सी बात को आप झूठ समझते हैं तो आपकी जबरदस्ती है । अपने हजारों जाननेवाले अदालत में होगे |,चंदूमल-मुझसे भरी अदालत में झूठ न बोला जायगा ।,अपने हजारों जाननेवाले अदालत में होंगे । "यदि राजा मुझे कुलटा समझते है, तो समझें, उन्हें मुझ पर रुंदेह है, तो हो ।",नहीं यह पाप मुझसे नहीं होगा ।,"यदि राजा मुझे कुलटा समझते हैं, तो समझें, उन्हें मुझ पर संदेह है, तो हो ।" आखिर मजबूर होकर बादशाह ने उन्हें ज्यादा न इबाया ।,मगर राजा साहब उनकी बातों में न आये ।,आखिर मजबूर होकर बादशाह ने उन्हें ज्यादा न दबाया । वजारठ का पद कप्तान साहब को मिला ।,रोशनुद्दौला की जान बच गयी ।,वजारत का पद कप्तान साहब को मिला । मैं भी अब आपके वियोग-दु ख को नहीं सह सकतो ।,मैं आपको अपना इष्टदेव समझती हूँ और सदैव समझूँगी ।,मैं भी अब आपके वियोग-दुःख को नहीं सह सकती । एक नाटक खेलने का निश्चय किया गया या ।,कन्या-पाठशाला में उत्सव मनाने की तैयारियाँ हो रही थीं ।,एक नाटक खेलने का निश्चय किया गया था । भव खूब सजाया गया था ।,एक नाटक खेलने का निश्चय किया गया था ।,भवन खूब सजाया गया था । इस समय जो उन्होंने टोपी उठा कर उंगली पर रखी तो टोपी मे छेद हो गया |,रोज-रोज नचाते-नचाते टोपी में उँगली का घर हो गया था ।,इस समय जो उन्होंने टोपी उठा कर उँगली पर रखी तो टोपी में छेद हो गया । उनके तेवर बदेल गये ।,बादशाह को भी ऐसा मालूम हुआ कि राजा ने मुझ पर व्यंग्य किया ।,उनके तेवर बदल गये । शेरमिह को देख कर. वह ठिठका और भाला सम्हाल कर उन पर वार कर बैठा ।,मैं ज्ञानसरोवर में पानी भरने गयी हुई थी सहसा क्या देखती हूँ कि एक युवक मुश्की घोड़े पर सवार रत्नजटित आभूषण पहने हाथ में चमकता हुआ भाला लिये चला आता है ।,शेरसिंह को देख कर वह ठिठका और भाला सम्हाल कर उन पर वार कर बैठा । मेरा विवाह एक राजपूत भोद्धा से हुआ था |,किंतु मैंने जब बहुत आग्रह किया तो उसने मुझे फर्श पर बैठने का संकेत किया और अपना वृत्तांत सुनाने लगीः मैं काश्मीर देश की रहनेवाली राजकन्या हूँ ।,मेरा विवाह एक राजपूत योद्धा से हुआ था । पुजारी एक पंडित श्रीघर थे ।,मेरे पड़ोस में एक मंदिर था ।,पुजारी एक पंडित श्रीधर थे । मेरे स्वामी” कृष्ण के भक्त थे ।,हम दोनों प्रातःकाल तथा संध्या समय उस मन्दिर में उपासना के लिए जाते ।,मेरे स्वामी कृष्ण के भक्त थे । मंदिर एक सुएम्प सागर के तट पर बना हुआ था ।,मेरे स्वामी कृष्ण के भक्त थे ।,मंदिर एक सुरम्य सागर के तट पर बना हुआ था । "श्रीधर बड़े विद्वान, वेदों के ज्ञाता, शास्त्रों को जाननेवाले थे ।",इसलिए हम उपासना के पश्चात् भी वहाँ घंटों वायु-सेवन करते रहते थे ।,श्रीधर बड़े विद्वान वेदों के ज्ञाता शास्त्रों के जाननेवाले थे । कृष्ण पर उनकी भी अविचल .भक्ति थी ।,श्रीधर बड़े विद्वान वेदों के ज्ञाता शास्त्रों के जाननेवाले थे ।,कृष्ण पर उनकी भी अविचल भक्ति थी । उनके नेत्रो से शाति की ज्योतिरेखाएँ निकलती हुई मालूम होती थी ।,वह बड़े संयमी संतोषी आत्मज्ञानी पुरुष थे ।,उनके नेत्रों से शांति की ज्योतिरेखाएँ निकलती हुई मालूम होती थीं । हम दोनों सहेलियाँ थी ।,पंडित श्रीधर मेरे पतिदेव से लगभग दस वर्ष बड़े थे पर उनकी धर्मपत्नी विद्याधरी मेरी समवयस्का थीं ।,हम दोनों सहेलियाँ थीं । बस ! दुर्गानाथ चितित हो गये ।,आपको केवल यह गवाही देनी होगी कि यह रुपया मालगुजारी के मद में नहीं कर्ज में वसूल हुआ है ।,बस ! दुर्गानाथ चिंतित हो गये । "पैर आगे बढते थे, पर मन पीछे हटा जाता था ।",भिखारिनी का भेष बना कर रानी शीशमहल की ओर चली ।,"पैर आगे बढ़ते थे, पर मन पीछे हटा जाता था ।" "कुलोना, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी ।",""" राजा उठ बैठे और कुछ नर्म स्वर में बोले - ""नहीं, हरदौल लड़का नहीं है, लड़का मैं हूँ, जिसने तुम्हारे ऊपर विश्वास किया ।","कुलीना, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी ।" जरा देखूँगा कि नमकहरामों की छाश क्योकर तड़पती है ।,बादशाह ने मुसाहबों से कहा-मैं भी वहीं चलता हूँ ।,जरा देखूँगा कि नमकहरामों की लाश क्योंकर तड़पती है । सिपाहियों ने राजा साहब के वस्त्र उतारने घुरू किये ।,किसकी मजाल थी जो जरा भी जबान हिला सके ।,सिपाहियों ने राजा साहब के वस्त्र उतारने शुरू किये । पूछता हुआ चछा आया ।,वहाँ मालूम हुआ आप यहाँ हैं ।,पूछता हुआ चला आया । उन्होंने मुझे अपनी कई कविताएँ सुनायी ।,फिर बातें होने लगीं ।,उन्होंने मुझे अपनी कई कविताएँ सुनायीं । स्वर बहुत सरस ओर मधुर था ।,उन्होंने मुझे अपनी कई कविताएँ सुनायीं ।,स्वर बहुत सरस और मधुर था । अब उन्होने अपना वृत्तांत मुनाना शुरू किया ।,लौटकर उन्हें फिर भोजन कराया ।,अब उन्होंने अपना वृत्तांत सुनाना शुरू किया । तब से सत्यप्रकाश प्रतिमास ज्ञानू के पास कुछ न कुछ अवश्य भेज देता था ।,वे एक घर बनवा रहे हैं जिसमें व्यय अनुमान से अधिक हो जाने के कारण ऋण लेना पड़ा है इसलिए अब ज्ञानप्रकाश को पढ़ाने के लिए घर पर मास्टर नहीं आता ।,तब से सत्यप्रकाश प्रतिमाह ज्ञानू के पास कुछ न कुछ अवश्य भेज देता था । इस तरह पाँच वर्ष बीत गये |,इससे अच्छी आमदनी हो जाती थी ।,इस तरह पाँच वर्ष बीत गये । र संध्या का समय था ।,और इस परिस्थिति में कर ही क्या सकता है; लेकिन ज्ञानचंद्र का सिर नीचा करने के लिए अवसर खोजता रहता है ।,संध्या का समय था । बालविवाह के विरोधी होने पर भी देवप्रकाश अब इस शुभमुहूर्त को म टाल सकते भे ।,ज्ञानू अब 17 वर्ष का सुंदर युवक था ।,बालविवाह के विरोधी होने पर भी देवप्रकाश अब इस शुभमुहूर्त को न टाल सकते थे । उसे बह बात याद आ गयी ।,जब हम दोनों अपने देश में थीं तो तब मैं कहीं जाती तो विद्याधरी के लिए कोई न कोई उपहार अवश्य लाती ।,उसे वह बात याद आ गयी । आनंदी मेज के सामगे कलन हाथ में लिये उनकी ओर देखा करतीं ।,आराम-कुरसी पर लेट जाते ।,आनंदी मेज के सामने कलम हाथ में लिये उनकी ओर देखा करतीं । इसके बाद रानी तुरत छत से उतरी ।,रानी ने गंगा की ओर देखा और कहा-मुझे भी अपने साथ लेती चलो ।,इसके बाद रानी तुरंत छत से उतरी । एक सच्चे राजपूत ने अपना पुरपत्व दिखा दिया ।,"हरदौल ने सिर झुका कर बीड़ा लिया, उसे माथे पर चढ़ाया, एक बार बड़ी ही करुणा के साथ चारों ओर देखा और फिर बीड़े को मुँह में रख लिया ।",एक सच्चे राजपूत ने अपना पुरुषत्व दिखा दिया । उसने चम्पतराय को पयस्त करने का बीड़ा उठाया ।,वह चम्पतराय का बचपन का मित्र और सहपाठी था ।,उसने चम्पतराय को परास्त करने का बीड़ा उठाया । यह दाहमय चिता उन्हें एक क्षण के छिए चैन न लेने देती ।,चिरकाल से जिस कुल-मर्यादा की रक्षा करते आये थे और जिस पर अपना सर्वस्व अर्पण कर चुके थे वह धूल में मिल गयी ।,यह दाहमय चिंता उन्हें एक क्षण के लिए चैन न लेने देती । चौबरो के द्वार पर एक बड़ी सभा हो रही थी ।,4 संध्या का समय था ।,चौधरी के द्वार पर एक बड़ी सभा हो रही थी । भागते ही न बन पड़ा ।,अभी निश्चय न कर सका था कि क्या करूँ कि चारों ओर से उस पर दाँतों और नखों की वर्षा होने लगी ।,भागते भी न बन पड़ा । प्रभा को अब सच्चा क्रोध दिखाने का अजमर मिल गया ।,उसी ने मुझे यह हाल बताया था किंतु वह तो कहता था कि राजकुमारी ने मेरे गानों को बहुत पसंद किया और पुनः आने के लिए आदेश किया ।,प्रभा को अब सच्चा क्रोध दिखाने का अवसर मिल गया । अधिकतर उतके व्यवहार बड़े-बड़े चकलेदारों और रजवाड़ो के साथ थे ।,वे लेन-देन किया करते थे ।,अधिकतर उनके व्यवहार बड़े-बड़े चकलेदारों और रजवाड़ों के साथ थे । अब निर्वाह के लिए कोई उपाय न भा ।,जब देवदत्त ने होश सँभाला तब उनके पास इस खँडहर के अतिरिक्त और कोई सम्पत्ति न थी ।,अब निर्वाह के लिए कोई उपाय न था । सच्चाई का रुपये से कुछ सम्बन्ध नही ।,लेकिन पंडित जी की बात का उत्तर देना आवश्यक था अतः कहा-महाशय सत्यवादी मनुष्य को कितना ही कम वेतन दिया जाये वह सत्य को न छोड़ेगा और न अधिक वेतन पाने से बेईमान सच्चा बन सकता है ।,सच्चाई का रुपये से कुछ सम्बन्ध नहीं । इस समय तो सादी पूरियाँ भो खस्ते से अधिक स्वादिष्ट जान पड़ेगी |,सचमुच बताओ खाना क्यों नहीं पकाया क्या तबीयत खराब हो गयी थी अथवा किसी कुत्ते ने आ कर रसोई अपवित्र कर दी थी आ.-बाहर क्यों नहीं आते हो भाई भीतर ही भीतर क्या मिसकौट कर रहे हो अब सब चीजें नहीं तैयार हैं नहीं सही जो कुछ तैयार हो वही लाओ ।,इस समय तो सादी पूरियाँ भी खस्ते से अधिक स्वादिष्ट जान पड़ेंगी । विद्याघरी भी उनके साथ है ।,मुझे पूर्ण विश्वास है कि वह यावज्जीवन रियासत की बागडोर अपने हाथ में रखेंगे ।,विद्याधरी भी उनके साथ है । उसका पतिव्रत अब भी ज्ञानसरोवर को भाँति अपार और अथाह है ।,वही शांति और संतोष की मूर्ति वही धर्म और व्रत की देवी ।,उसका पातिव्रत अब भी ज्ञानसरोवर की भाँति अपार और अथाह है । संन्यासियों ओर तपस्वियों की संख्या गृंहस्थों से कुछ ही कम होगी ।,यहाँ भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत से असंख्य यात्री आये हुए थे ।,सन्यासियों और तपस्वियों की संख्या गृहस्थों से कुछ ही कम होगी । मुझे हरिद्वार आये तीन दिन व्यतीत हुए ये ।,वहाँ का जल वायु आकाश सब शुद्ध थे ।,मुझे हरिद्वार आये तीन दिन व्यतीत हुए थे । मन में सतोपवृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ ।,उन्हें ज्ञात होने लगा कि अब तैं कानून के लायक नहीं रहा और इस ज्ञान ने कानून के प्रति उदासीनता का रूप धारण किया ।,मन में संतोषवृत्ति का प्रादुर्भाव हुआ । "इधर-उधर देखा, कोई आदमी नहीं ।",समझ गये कि पहले ही से यह षड्यंत्र रचा गया था ।,इधर-उधर देखा कोई आदमी नहीं । कुंवर साहब का उत्साह बढ़ा ।,अब भी हमारे ऊपर यही निगाह रहे ।,कुँवर साहब का उत्साह बढ़ा । देखते-देखते सामने रुपयो का ढेर छग गया ।,जिसके जिम्मे जितना निकला बे-कान-पूँछ हिलाये उतना द्रव्य सामने रख दिया ।,देखते-देखते सामने रुपयों का ढेर लग गया । ये रुपये उन्हें कार्यालय के मुतीम से उधार लेने पड़े ।,पूरा वृत्तांत सुन लेने पर बिना किसी आगा-पीछा के उन्होंने 15 रु. निकाल कर उसे दे दिये ।,ये रुपये उन्हें कार्यालय के मुनीम से उधार लेने पड़े । यह संतोष मुफ्त हो में प्राप्त हो गया ।,अब वह बेचारा मजे से अपने घर पहुँच जायगा ।,यह संतोष मुफ्त ही में प्राप्त हो गया । मैं यह बता देवा आवश्यक समझता हूँ कि मैं मिव्यावादी नहीं और न सिद्धियों तथा विभूतियों पर मेरा विश्वास हैं ।,यदि मेरे इस तमाम परिश्रम का उपहार यही एक रहस्य होता तो भी मैं उसे पर्याप्त समझता ।,मैं यह बता देना आवश्यक समझता हूँ कि मैं मिथ्यावादी नहीं और न सिद्धियों तथा विभूतियों पर मेरा विश्वास है । वह सवार उस शुरमुट मे जा कर अदृश्य हो गया ।,मंदिर से प्रायः दो सौ गज की दूरी पर एक रमणीक सागर था उसके किनारे कचनार वृक्षों के झुरमुट थे ।,वह सवार उस झुरमुट में जा कर अदृश्य हो गया । "हरदौल की इस वीरता ने उसे हर एक बुदेले के दिल में मान प्रतिष्ठा की ऊँची जगह पर ब्रिठाया, जहाँ म्थाय और उदारता भी उसे न पहुँचा सबती थी ।",इस विचार ने लोगों का दिल ठंडा कर दिया ।,"हरदौल की इस वीरता ने उसे हर एक बुंदेले के दिल में मान प्रतिष्ठा की ऊँची जगह पर बिठाया, जहाँ न्याय और उदारता भी उसे न पहुँचा सकती थी ।" वह पहले हो से सर्वप्रिय था और अब वहू अपनी जाति का घीरवर और बुंदेला दिलावरो का सिरमौर बन गया ।,"हरदौल की इस वीरता ने उसे हर एक बुंदेले के दिल में मान प्रतिष्ठा की ऊँची जगह पर बिठाया, जहाँ न्याय और उदारता भी उसे न पहुँचा सकती थी ।",वह पहले ही से सर्वप्रिय था और अब वह अपनी जाति का वीरवर और बुंदेला दिलावरी का सिरमौर बन गया । ओोरछे की याद उम्हें सदैव बेचैन करती रही ।,उन्होंने अपने सुप्रबंध से दक्षिण प्रांतों का बलवान राज्य बना दिया और वर्ष भर के बाद बादशाह से आज्ञा लेकर वे ओरछे की तरफ़ चले ।,ओरछे की याद उन्हें सदैव बेचैन करती रही । जयजयकार के धब्द गूँजने लगे ।,सती के वचन कभी झूठे हुए हैं एकाएक चिता में आग लग गयी ।,जयजयकार के शब्द गूँजने लगे । कोई बहुत पाँव ददा-दवा कर चला आ रहा था ।,चारों ओर सन्नाटा छाया था और उस अंधकारमय सन्नाटे में किसी के पैरों की चाप स्पष्ट सुनायी देती थी ।,कोई बहुत पाँव दबा-दबा कर चला आ रहा था । ज्यो-त्यों करके उन्होने ढाई वर्ष बिताये ।,सदा वैद्यों और डाक्टरों का ताँता लगा रहता था लेकिन दवाओं का उल्टा प्रभाव पड़ता ।,ज्यों-त्यों करके उन्होंने ढाई वर्ष बिताये । उसकी तोतडी डातें सुनने का भी सौभाग्य न हुआ ।,लड़के का विवाह भी न देख सका ।,उसकी तोतली बातें सुनने का भी सौभाग्य न हुआ । "लड़के की माँ स्त्री-जाति, न कुछ जाने, न समझे ।",हाय अब इस कलेजे के टुकड़े को किसे सौंपूँ जो इसे अपना पुत्र समझे ।,लड़के की माँ स्त्री-जाति न कुछ जाने न समझे । हमारे पूर्व-पुरप सदा इस नियम पर--धर्म पर प्राण देने को उद्यत रहते थे ।,अपनी शरण में आये हुओं का हाथ पकड़ना-उनकी रक्षा करना राजपूतों का धर्म है ।,हमारे पूर्व-पुरुष सदा इस नियम पर-धर्म पर प्राण देने को उद्यत रहते थे । समावारपत्रो में परीक्षापत्रों को जदिलता या अध्यापकों के अनुचित व्यवहार की शिकायत का भार उन्हीं के सिर था ।,वह अपने कालेज के गरम-दल के नेता थे ।,समाचारपत्रों में परीक्षापत्रों की जटिलता या अध्यापकों के अनुचित व्यवहार की शिकायत का भार उन्हीं के सिर था । भारतीय पत्रों को पश्चिम_के आदर्श पर चलाने के इच्छुक ये ।,वह इस व्यवसाय में स्वातंत्रय आत्मगौरव अनुशीलन और दायित्व की मात्र को बढ़ाना चाहते थे ।,भारतीय पत्रों को पश्चिम के आदर्श पर चलाने के इच्छुक थे । प्रत्येक वस्तु से कोई ने कोई स्मृति सम्बन्धित थी ।,इन्हीं क्यारियों में हमने मृगों की भाँति किलोल किये थे ।,प्रत्येक वस्तु से कोई न कोई स्मृति सम्बन्धित थी । मेरे पूज्य पिता भौतिक विज्ञान के सुविस्यात ज्ञाता थे ।,">>पीछे>> >>आगे>> शीर्ष पर जायँ शीर्ष पर जायँ The strange spacing herein prevents an IE6 whitespace bug. मुखपृष्ठ उपन्यास कहानी कविता व्यंग्य नाटक निबंध आलोचना विमर्श बाल साहित्य विविध समग्र-संचयन अनुवाद हमारे रचनाकार हिंदी लेखक अभिलेखागार हमारे प्रकाशन खोज संपर्क विश्वविद्यालय संग्रहालय style=""vertical-align:bottom;background-image:url('http://www.hindisamay.com/images/low-banner.jpg')"" The strange spacing herein prevents an IE6 whitespace bug. मुखपृष्ठ उपन्यास कहानी कविता व्यंग्य नाटक निबंध आलोचना विमर्श बाल साहित्य संस्मरण यात्रा वृत्तांत सिनेमा विविध विविध लघुकथाएँ लोककथा बात-चीत वैचारिकी शोध डायरी आत्मकथा पत्र डायरी सूक्तियाँ आत्मकथ्य रचना प्रक्रिया व्याख्यान लेख बात शब्द चर्चा अन्यत्र जिज्ञासा जीवनी अन्य कोश समग्र-संचयन समग्र-संचयन अज्ञेय रचना संचयन कबीर ग्रंथावली मोहन राकेश संचयन 'हरिऔध' समग्र प्रेमचंद समग्र भारतेंदु हरिश्चंद्र रामचंद्र शुक्‍ल समग्र सहजानंद सरस्वती समग्र रहीम ग्रंथावली आडियो/वीडियो अनुवाद हमारे रचनाकार हिंदी लेखक अभिलेखागार हमारे प्रकाशन खोज संपर्क विश्वविद्यालय संग्रहालय 4D8F55 5FB73A #749080 अ+ अ- Change Script to Urdu Roman Devnagari कहानी संग्रह मानसरोवर भाग-6 प्रेमचंद अनुक्रम शाप पीछे आगे मैं बर्लिन नगर का निवासी हूँ ।",मेरे पूज्य पिता भौतिक विज्ञान के सुविख्यात ज्ञाता थे । भालदेढ हमारा उस्ताद था ।,"हमारे देश और जाति की वह चीज़ जिससे हमारा मान था, अब अंतिम सांस ले रही है ।",भालदेव हमारा उस्ताद था । "कुछ कहता हूँ तो कहती है, मैं अब इससे और अधिक कुछ वही कर सकती ।",बैठी हुई योग और ज्ञान के ग्रन्थ पढ़ा करती हैं ।,कुछ कहता हूँ तो कहती हैं मैं अब इससे और अधिक कुछ नहीं कर सकती । अगर न थी तो शिक्षा और शिक्षित समुदाप में गणता ।,परस्पर मेल था धन था संतानें थीं ।,अगर न थी तो शिक्षा और शिक्षित समुदाय में गणना । आज भोर से ही गिरिजा को अवस्था शोपनीय थी ।,पंडित देवदत्त के अतिरिक्त कस्बे में कोई ऐसा मनुष्य नहीं था जो कि दूसरों की कमाई समेटने की धुन में न हो ।,आज भोर से ही गिरिजा की अवस्था शोचनीय थी । देवदत्त ऐसा निशश हो रहा था कि गिरिजा को चैतन्य देख कर भी उसे आनंद नहीं हुआ ।,एकाएक उसने चौंक कर आँखें खोलीं और अत्यंत क्षीण स्वर में कहा-आज तो दीवाली है ।,देवदत्त ऐसा निराश हो रहा था कि गिरिजा को चैतन्य देख कर भी उसे आनंद नहीं हुआ । कछ से इसका नाम कटवा दूँगा ।,देवप्रकाश-बेहया है ।,कल से इसका नाम कटवा दूँगा । "खूब चकमा दिये मित्र, फिर समझेंगे ।",नहीं बाजार की दुकानं भी बंद हो जायँगी ।,खूब चकमा दिये मित्र फिर समझेंगे । मेरे लोटने का समाचार.पूर्व ही प्रकाशित हो चुका था ।,वास्तव में यूरोपीय समाज ऐसे आदर्शों से वंचित है ! मैंने दूसरे दिन ज्ञानसरोवर से बड़ी अनिच्छा के साथ विदा माँगी और यूरोप को चला ।,मेरे लौटने का समाचार पूर्व ही प्रकाशित हो चुका था । यह सोचदे-विचारते रानी गादी पर लेट गयी ।,इसीलिए न कि वे बंद नहीं रह सकतीं वे गरजेंगी बल खायेंगी-और बाँध के ऊपर चढ़कर उसे नष्ट कर देंगी अपने जोर से उसे बहा ले जायेंगी ।,यह सोचते-विचारते रानी गादी पर लेट गयी । खासकर जब आपकी सखिदमत में हो ।,उसे हमेशा हथियारबन्द रहना चाहिए ।,खासकर जब आपकी खिदमत में हो । दूसरे भाग में कर्मयोगी कृष्ण और मर्याश पुरुषोत्तम राम विराजते थें ।,राणाप्रताप के सम्मुख महाराष्ट्र केसरी वीर शिवाजी का चित्र था ।,दूसरे भाग में कर्मयोगी कृष्ण और मर्यादा पुरुषोत्तम राम विराजते थे । "मुख से सहमा निकल पड़ा कि “हाय! यह मेरा देश नहीं है, पह कोई और देश है ।",चने मेरे हाथ से छूट पड़े और नेत्रों से अविरल अश्रु-धारा बहने लगी ।,मुख से सहसा निकल पड़ा कि हाय ! यह मेरा देश नहीं है यह कोई और देश है । इसो सोच-विचार में में बहुत देर तक घुटनों पर सिर रसे मोन रहा ।,मेरा कोई देश नहीं है ।,इसी सोच-विचार में मैं बहुत देर तक घुटनों पर सिर रखे मौन रहा । "हृदय गद्‌गद हो गया कि यह तो देश का ही राग है,. यह तो भाठृभूमि का हो स्वर है- ।",घंटेवाले ने तीन बजाये और किसी के गाने का शब्द कानों में आया ।,हृदय गद्गद हो गया कि यह तो देश का ही राग है यह तो मातृभूमि का ही स्वर है । साथ के आदमी पीछे छूट गये ।,यहाँ तक कि ओरछे के जंगलों में आ पहुँचे ।,साथ के आदमी पीछे छूट गये । हरदोल की आँखों मे भी धोखा पाया ।,समझा कोई यात्री होगा ।,हरदौल की आँखों ने भी धोखा खाया । प्रहचानते ही घोडे से कूद पढ़े और उनको प्रणाम किया ।,वे घोड़े पर सवार अकड़ते हुए जुझारसिंह के सामने आये और पूछना चाहते थे कि तुम कौन हो कि भाई से आँख मिल गयी ।,पहचानते ही घोड़े से कूद पड़े और उनको प्रणाम किया । "राजा ने भी उठ कर हरदौछ को छाती से छगा छिया, पर उस छातों में भाई की मुहब्बत न थी ।",पहचानते ही घोड़े से कूद पड़े और उनको प्रणाम किया ।,"राजा ने भी उठ कर हरदौल को छाती से लगा लिया, पर उस छाती में अब भाई की मुहब्बत न थी ।" हर जगह आनदोत्सव होने छगा और तुरता-फुरतो शहर जगमगा उठा ।,राजा के लौटने का समाचार पाते ही नगर में प्रसन्नता की दुंदुभी बजने लगी ।,हर जगह आनंदोत्सव होने लगा और तुरता-फुरती शहर जगमगा उठा । नौ बजे होगे ।,आज रानी कुलीना ने अपने हाथों भोजन बनाया ।,नौ बजे होंगे । "हरदौल ने कुछ ध्यान न दिया, वह वर्ष भर से सोने के थाल में खातेनवाते उसका आदी हो गया था, पर जुझारसिंह तलमला बये ।","कुलीना ने स्वयं भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे थे और स्वयं ही सामने लाई थी, पर दिनों का चक्र कहो, या भाग्य के दुर्दिन, उसने भूल से सोने का थाल हरदौल के आगे रख दिया और चांदी का राजा के सामने ।","हरदौल ने कुछ ध्यान न दिया, वह वर्ष भर से सोने के थाल में खाते-खाते उसका आदी हो गया था, पर जुझार सिंह तिलमिला गये ।" "ज्यों हो तुम सौढ़ी से उतरे, मेरी दृष्टि डिविया कौ तरफ गयी, किंतु वह छापता थी ।",से.-यह तुम्हारी ज्यादती है ।,ज्यों ही तुम सीढ़ी से उतरे मेरी दृष्टि डिबिया की तरफ गयी किंतु वह लापता थी । तुम मुझ्किल रे दरवाजे तक पहुँचे होगे ।,ताड़ गयी कि तुम ले गये ।,तुम मुश्किल से दरवाजे तक पहुँचे होगे । ह्वाथ मल कर रह गयी ।,लेकिन नीचे दूकानदारों के कान में भी आवाज जाती तो सुन कर तुम न जाने मेरी कौन-कौन दुर्दशा करते ।,हाथ मल कर रह गयी । अँत में लाचार हो कर बेठ रही ।,मगर कोई वश न चलता था ।,अंत में लाचार हो कर बैठ रही । और तुम्हारी जात-सहचान के है ।,नहीं तो क्या आग या दियासलाई न मिल जाती से.-अच्छा तुम मेरी जगह होते तो क्या करते नीचे सबके सब दूकानदार हैं ।,और तुम्हारी जान-पहचान के हैं । इतके घर में कोई स्त्री नही ।,घर के एक ओर पंडित जी रहते हैं ।,उनके घर में कोई स्त्री नहीं । बाहर के सेकड़ों आइमी जमा थे ।,सारे दिन फाग हुई है ।,बाहर के सैकड़ों आदमी जमा थे । इन दोनो से भी बिना छज्मे पर आये चीज न मिल सकती थी ।,उनके घर की स्त्रियाँ किसी सम्बन्धी से मिलने गयी हैं और अब तक नहीं आयीं ।,इन दोनों से भी बिना दज्जे पर आये चीज न मिल सकती थी । और कौन ऐसा था जिसले कहती कि कहीं से आग जो दो ।,लेकिन शायद तुम इतनी बेपर्दगी को क्षमा न करते ।,और कौन ऐसा था जिससे कहती कि कहीं से आग ला दो । महरी तुम्हारे सामने ही चौका-अर्तन्‌ करके चछी गयी थी ।,और कौन ऐसा था जिससे कहती कि कहीं से आग ला दो ।,महरी तुम्हारे सामने ही चौका-बर्तन करके चली गयी थी । बह स्त्रीध्रत धर्म का वैसा ही पालन करते ये जैसे सती अपने धर्म को ।,वह अत्यंत स्वरूपवान् थे और रूपवान् पुरुष की स्त्री का जीवन बहुत सुखमय नहीं होता पर मुझे उन पर संशय करने का अवसर कभी नहीं मिला ।,वह स्त्रीव्रत धर्म का वैसे ही पालन करते थे जैसे सती अपने धर्म का । इन तीनो दिलों में खूद मालूम हो गया कि पूर्व को आतिष्यसेवी क्यो कहते है ।,तीन दिन बीत गये ।,इन तीन दिनों में खूब मालूम हो गया कि पूर्व को आतिथ्यसेवी क्यों कहते हैं । "कोई उनकी रचना-पेली की प्रशसा करता हैं, कोई उनके सदुविचारों पर मुग्ध हो जाता है ।",">>पीछे>> >>आगे>> शीर्ष पर जायँ शीर्ष पर जायँ The strange spacing herein prevents an IE6 whitespace bug. मुखपृष्ठ उपन्यास कहानी कविता व्यंग्य नाटक निबंध आलोचना विमर्श बाल साहित्य विविध समग्र-संचयन अनुवाद हमारे रचनाकार हिंदी लेखक अभिलेखागार हमारे प्रकाशन खोज संपर्क विश्वविद्यालय संग्रहालय style=""vertical-align:bottom;background-image:url('http://www.hindisamay.com/images/low-banner.jpg')"" The strange spacing herein prevents an IE6 whitespace bug. मुखपृष्ठ उपन्यास कहानी कविता व्यंग्य नाटक निबंध आलोचना विमर्श बाल साहित्य संस्मरण यात्रा वृत्तांत सिनेमा विविध विविध लघुकथाएँ लोककथा बात-चीत वैचारिकी शोध डायरी आत्मकथा पत्र डायरी सूक्तियाँ आत्मकथ्य रचना प्रक्रिया व्याख्यान लेख बात शब्द चर्चा अन्यत्र जिज्ञासा जीवनी अन्य कोश समग्र-संचयन समग्र-संचयन अज्ञेय रचना संचयन कबीर ग्रंथावली मोहन राकेश संचयन 'हरिऔध' समग्र प्रेमचंद समग्र भारतेंदु हरिश्चंद्र रामचंद्र शुक्‍ल समग्र सहजानंद सरस्वती समग्र रहीम ग्रंथावली आडियो/वीडियो अनुवाद हमारे रचनाकार हिंदी लेखक अभिलेखागार हमारे प्रकाशन खोज संपर्क विश्वविद्यालय संग्रहालय 4D8F55 5FB73A #749080 अ+ अ- Change Script to Urdu Roman Devnagari कहानी संग्रह मानसरोवर भाग-6 प्रेमचंद अनुक्रम आप-बीती पीछे आगे प्रायः अधिकांश साहित्य-सेवियों के जीवन में एक ऐसा समय आता है जब पाठकगण उनके पास श्रद्धा-पूर्ण पत्र भेजने लगते हैं ।",कोई उनकी रचना-शैली की प्रशंसा करता है कोई उनके सद्विचारों पर मुग्ध हो जाता है । अपने फटे कंबल पर बैठा हुआ वह गर्व और बात्मगौरव की लहसें में डूब जाता है ।,ऐसे पत्रों को पढ़ कर उसका हृदय कितना गद्गद हो जाता है इसे किसी साहित्य-सेवी ही से पूछना चाहिए ।,अपने फटे कंबल पर बैठा हुआ वह गर्व और आत्मगौरव की लहरों में डूब जाता है । में उनको कविताएँ पत्रिकयओों में अक्मर देखा करता था ।,पत्र-प्रेषक महोदय स्वयं एक अच्छे कवि थे ।,मैं उनकी कविताएँ पत्रिकाओं में अक्सर देखा करता था । यह पत्र पढ़ कर फूछा ने समाया |,मैं उनकी कविताएँ पत्रिकाओं में अक्सर देखा करता था ।,यह पत्र पढ़ कर फूला न समाया । उसी वक्त जवाब छिसने बैठा ।,यह पत्र पढ़ कर फूला न समाया ।,उसी वक्त जवाब लिखने बैठा । पर वह राज्य का सेवक एक ओर अवहेछना और दूसरी ओर से घोर विरोध महते हुए भी क्षपने कर्तव्य का पाछन करता जाता था ।,बादशाह के सभी अँग्रेज मुसाहब राजासाहब से शंकित रहते और उनकी जड़ खोदने का प्रयास किया करते थे ।,पर वह राज्य का सेवक एक ओर अवहेलना और दूसरी ओर से घोर विरोध सहते हुए भी अपने कर्त्तव्य का पालन करता जाता था । राज्य के प्रतिप्ठित मंत्री मपने-अपने स्थान पर बडे हुए थे ।,नेपाल के महाराज सुरेंद्रविक्रमसिंह का दरबार सजा हुआ ।,राज्य के प्रतिष्ठित मंत्री अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए थे । नैपाल से एक बड़ी लड़ाई के पश्चात्‌ तिब्वत पर विजय पायी थी ।,राज्य के प्रतिष्ठित मंत्री अपने-अपने स्थान पर बैठे हुए थे ।,नेपाल ने एक बड़ी लड़ाई के पश्चात् तिब्बत पर विजय पायी थी । "कोई टुद्धबन्यय का इच्छुक था, कोई राज्य-विस्तार का ।",इस समय संधि की शर्तों पर विवाद छिड़ा था ।,कोई युद्ध-व्यय का इच्छुक था कोई राज्य-विस्तार का । केवल राणा जंगवहादुर के जाने फी देर थी ।,कोई-कोई महाशय वार्षिक कर पर जोर दे रहे थे ।,केवल राणा जंगबहादुर के आने की देर थी । "सबको सम्पति इस दमालुता के अनुसार न थी, किंतु मद्गाराज ने” राणा का समर्थन किया ।",मंत्रिमंडल में विवाद आरम्भ हुआ ।,सबकी सम्मति इस दयालुता के अनुसार न थी किंतु महाराज ने राणा का समर्थन किया । तीन “वर्ष तक पहाड़ों और जंगली में छिपी रही ।,मैं तलवार छोड़कर भागी ।,तीन वर्ष तक पहाड़ों और जंगलों में छिपी रही । यहाँ आवकी दयाझुता की चर्चा सुनी ।,अंत में जब जंगल में रहते-रहते जी उकता गया तो जोधपुर चली आयी ।,यहाँ आपकी दयालुता की चर्चा सुनी । "उसकी आँखों में प्रेम वा प्रकाश था, छठ का नहीं ।",तब सारन्धा अपने खेमे से निकली और निर्भय होकर घोड़े के पास चली गयी ।,उसकी आँखों में प्रेम का प्रकाश था छल का नहीं । सुबह आऊंगा ।,सौदागर-नहीं भाई इस वक्त नहीं ।,सुबह आऊँगा । "देर हो गयी है, भौर मुझे भी यहां को हालत देख कर खौफ मादूम होने ढगा है ।",सुबह आऊँगा ।,देर हो गयी है और मुझे भी यहाँ की हालत देख कर खौफ मालूम होने लगा है । उसके दोनों साथी खिद्गतगारों क्रे-्से कपड़े पहने हुए थे ।,एक तो पंडितों की तरह नीची चपकन पहने हुए था सिर पर गोल पगिया थी और कंधे पर जरी के काम का शाल ।,उसके दोनों साथी खिदमतगारों के-से कपड़े पहने हुए थे । "तोनो इस तरह इधर>उधर ताक रहे थे, मानो किसी को खोज रहे हों ।",उसके दोनों साथी खिदमतगारों के-से कपड़े पहने हुए थे ।,तीनों इस तरह इधर-उधर ताक रहे थे मानो किसी को खोज रहे हों । सौदागर ने अभो कुछ जवाब न दिया था कि पीछे से पडित और उनके दोनो लिफ्मतगार भी आ पहुँचे ।,क्या बातें हुईं ।,सौदागर ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि पीछे से पंडित और उनके दोनों खिदमतगार भी आ पहुँचे । संयोगवश एक दिन बह इन्ही कल्पताजों के घुस स्वप्त देखता हुआ सिर झुकायरे सड़क छोड़ कर गलियों से चछा जा रहा था कि सहसा एक सज्जन से उनकी मुठभेड हो गयी |,वहाँ चारों ओर मेरी धाक बैठ जाय सब पर ऐसा रोब छा जाय कि मुझी को अपना राजा समझने लगें और धीरे-धीरे मेरा ऐसा सिक्का बैठ जाय कि किसी द्वेषी को वहाँ पैर रखने का साहस ही न हो ।,संयोगवश एक दिन वह इन्हीं कल्पनाओं के सुख स्वप्न देखता हुआ सिर झुकाये सड़क छोड़ कर गलियों से चला जा रहा था कि सहसा एक सज्जन से उसकी मुठभेड़ हो गयी । "कहते है, एक दिने सबके दिन फ़िरते हैं ।",उन अत्याचारी पशुओं ने बहुत दूर तक उसका पीछा किया यहाँ तक कि मार्ग में एक नदी पड़ गयी और टामी ने उसमें कूद कर अपनी जान बचायी ।,कहते हैं एक दिन सबके दिन फिरते हैं । "कूदा था जान बचाने के लिए, हाथ छग यये मोती ।",टामी के दिन भी नदी में कूदते ही फिर गये ।,कूदा था जान बचाने के लिए हाथ लग गये मोती । "इसका सबसे बड़ा फायदा जो पहले ही दिन मादूप हो जायगा, यह है कि आपकी आँखें खुझ जायेगी और आप फिर कभी इप्तिहारबाज हकोमो के दास फरेब मे न फेंसेंगे ।",अगर वर्षों की मुशायराबाजी ने भी आपको शायर नहीं बनाया अगर शबे रोज के रटंत पर भी आप इम्तहान में कामयाब नहीं हो सके अगर दल्लालों की खुशामद और मुवक्किलों की नाजबर्दारी के बावजूद भी आप अहाते-अदालत में भूखे कुत्ते की तरह चक्कर लगाते फिरते हैं अगर आप गला फाड़-फाड़ चीखने मेज पर हाथ-पैर पटकने पर भी अपनी तकरीर से कोई असर पैदा नहीं कर सकते तो आप अमृतबिंदु का इस्तेमाल कीजिए ।,इसका सबसे बड़ा फायदा जो पहले ही दिन मालूम हो जायगा यह है कि आपकी आँखें खुल जायँगी और आप फिर कभी इश्तहारबाज हकीमों के दाम फरेब में न फँसेंगे । "मुझे धैर्य हो जाथगा कि उसके छिए मुझसे जो कुछ हों सकता था, मैने किया ।",यों तो मेरे भाग्य में जो लिखा है वही होगा किंतु इस समय तनिक चल कर आप देख लें तो मेरे दिल का दाह मिट जायगा ।,मुझे धैर्य हो जायगा कि उसके लिए मुझसे जो कुछ हो सकता था मैंने किया । उनके परदादों में कई वार खूत-वच्चर हुआ ।,कुछ डाँड़-मेंड़ का झगड़ा था ।,उनके परदादों में कई बार खून-खच्चर हुआ । दोनों कई बार हवाकोर्ट तक गये ।,बापों के समय से मुकदमेबाजी शुरू हुई ।,दोनों कई बार हाईकोर्ट तक गये । "लड़को के समय में सग्राम की भीषणता और भी बढी, यहाँ तक कि दोनों ही अशवत हो गये ।",दोनों कई बार हाईकोर्ट तक गये ।,लड़कों के समय में संग्राम की भीषणता और भी बढ़ी यहाँ तक कि दोनों ही अशक्त हो गये । पहले दोनो इसी गाँव मे आधे-आधे के हिस्मेदार थे ।,लड़कों के समय में संग्राम की भीषणता और भी बढ़ी यहाँ तक कि दोनों ही अशक्त हो गये ।,पहले दोनों इसी गाँव में आधे-आधे के हिस्सेदार थे । स्त्रियों और बालकों के भी दल हो गये थे ।,एक दल की भंग-बूटी चौधरी के द्वार पर छनती तो दूसरे दल के चरस-गाँजे के दम भगत के द्वार पर लगते थे ।,स्त्रियों और बालकों के भी दो दल हो गये थे । यहाँ तक कि उतके आरोग्यता के सिद्धातो में भी भिन्नता थी ।,और भगत जी की हलवाई की मिठाइयाँ उनके ग्वाले का दूध और तेली का तेल चौधरी के लिए त्याज्य थे ।,यहाँ तक कि उनके आरोग्यता के सिद्धांतों में भी भिन्नता थी । "भगत जी वैद्यक के कायल थे, चौधरो यूताती प्रगा के माननेवाले ।",यहाँ तक कि उनके आरोग्यता के सिद्धांतों में भी भिन्नता थी ।,भगत जी वैद्यक के कायल थे चौधरी यूनानी प्रथा के माननेवाले । "दोनो चाहे रोग से मर जाते, पर अपने सिद्धातों को ""न तोडते ।",भगत जी वैद्यक के कायल थे चौधरी यूनानी प्रथा के माननेवाले ।,दोनों चाहे रोग से मर जाते पर अपने सिद्धांतों को न तोड़ते । वह राजुमारियों को प्रतिद्वित रोचक कविता पढ़ कर सुताती थी ।,संस्कृत-साहित्य में उसका बहुत प्रवेश था ।,वह राजकुमारियों को प्रतिदिन रोचक कविता पढ़ कर सुनाती थी । पहले कई दिनु तो' उसको इतमे पैसे भी न मिले कि भर-पेट भोजन करता; छेकिन घोरे-घीरे आमदनी बढ़ने लगी ।,बाद में शहर के मुख्य स्थानों का निरीक्षण करके एक डाकघर के सामने लिखने का सामान लेकर बैठ गया और अपढ़ मजदूरों की चिट्ठियाँ मनीआर्डर आदि लिखने का व्यवसाय करने लगा ।,पहले कई दिन तो उसको इतने पैसे भी न मिले कि भर-पेट भोजन करता लेकिन धीरे-धीरे आमदनी बढ़ने लगी । सत्यपकराश सूत्र को व्याख्या का रूप दे कर मजदूरों को सुग्प कर देता था ।,उनकी दशा ठीक रोगियों की-सी होती है जो वैद्य से अपनी व्यथा और वेदना का वृत्तांत कहते नहीं थकते ।,सत्यप्रकाश सूत्र को व्याख्या का रूप दे कर मजदूरों को मुग्ध कर देता था । बर्तन अपने हाथो से घोता ।,एक जून खाता ।,बर्तन अपने हाथों से धोता । "जीविका से निश्चित हो कर उसने श्ानप्रकाश को एक, पत्र लिखा ।",बिदाई का अंतिम दृश्य आँखों के सामने फिरा करता ।,जीविका से निश्चिंत हो कर उसने ज्ञानप्रकाश को एक पत्र लिखा । उत्तर आया तौ उसके आनंद कौ सीमा न रही ।,जीविका से निश्चिंत हो कर उसने ज्ञानप्रकाश को एक पत्र लिखा ।,उत्तर आया तो उसके आनंद की सीमा न रही । डनके साथ कई बार सितेमा देखने गया ।,सत्यप्रकाश को भी कई युवकों से मित्रता हो गयी थी ।,उनके साथ कई बार सिनेमा देखने गया । "रात को जब किसी तरह नींद न आती, तो उसका मन किसी से ढातें करने' को छालययित होने छगता ।",कभी-कभी वह अपने अकेलेपन पर रोता ।,रात को जब किसी तरह नींद न आती तो उसका मन किसी से बातें करने को लालायित होने लगता । सांसवे हुए बच्चे और कराहते हुए बूढ़े उनके ओपधालय के द्वार पर जमा हो चले मे ।,किंतु राजवैद्य लाला शंकरदास अभी तक मीठी नींद ले रहे थे ।,खाँसते हुए बच्चे और कराहते हुए बूढ़े उनके औषधालय के द्वार पर जमा हो चले थे । कितने ऐसे हैं जो बिता तनस्वाहु के कारिदगी या चपरासग्रिरी को तैयार बेठे हैं ।,बरसों तनख्वाह का हिसाब नहीं करते ।,कितने ऐसे हैं जो बिना तनख्वाह के कारिंदगी या चपरासगिरी को तैयार बैठे हैं । "कुंवर साहब ने वड्ी दृढ़ता से कहा--हाँ, यह तो निश्चय है कि सत्मवादी मनुष्य का आदर सव कही होता है, कितु मेरे यहाँ तनख्वाह अधिक नहीं दी जातो ।",यदि सच्चे नौकर का सम्मान होना निश्चय है तो मुझे विश्वास है कि बहुत शीघ्र आप मुझसे प्रसन्न हो जायँगे ।,कुँवर साहब ने बड़ी दृढ़ता से कहा-हाँ यह तो निश्चय है कि सत्यवादी मनुष्य का आदर सब कहीं होता है किंतु मेरे यहाँ तनख्वाह अधिक नहीं दी जाती । "कृष्ण की उपासना में लबछोत रहते थे, इसलिए इनके दरवार में दूर-ूूर के ककावत और गवैये आया करते और इनाम-एकराम पाते थे ।",राव पुराने विचारों के रईस थे ।,कृष्ण की उपासना में लवलीन रहते थे इसलिए इनके दरबार में दूर-दूर के कलावंत और गवैये आया करते और इनाम-एकराम पाते थे । उभय पक्ष में तैयारियाँ हो रहो थी |,रावसाहब ने नौगढ़ के नवयुवक और सुशील राजा हरिश्चंद्र से उसकी शादी तजवीज की थी ।,उभय पक्ष में तैयारियाँ हो रही थीं । राजा हरिश्चद्र मेयो कालिज अजमेर के विद्यार्थी ओर नयी रोझानी के भक्त थे ।,उभय पक्ष में तैयारियाँ हो रही थीं ।,राजा हरिश्चंद्र मेयो कालिज अजमेर के विद्यार्थी और नयी रोशनी के भक्त थे । उनको आकाक्षा थी कि उन्हें एक वार राजकुमारी प्रभा से साक्षास्कार होने और अमालाप करने का अवसर शिया जाये; कितु रावसाहब इस प्रथा को दूषित समझते थे ।,राजा हरिश्चंद्र मेयो कालिज अजमेर के विद्यार्थी और नयी रोशनी के भक्त थे ।,उनकी आकांक्षा थी कि उन्हें एक बार राजकुमारी प्रभा से साक्षात्कार होने और प्रेमालाप करने का अवसर दिया जाये किंतु रावसाहब इस प्रथा को दूषित समझते थे । ल्‍ प्रभा राजा हरिदनंद्र के नवीन विचारों की चर्चा सुन कर इस संबंध से बहुत संतुष्ट न थी ।,उनकी आकांक्षा थी कि उन्हें एक बार राजकुमारी प्रभा से साक्षात्कार होने और प्रेमालाप करने का अवसर दिया जाये किंतु रावसाहब इस प्रथा को दूषित समझते थे ।,प्रभा राजा हरिश्चंद्र के नवीन विचारों की चर्चा सुन कर इस संबंध से बहुत संतुष्ट न थी । भयत--तहा जाता है. कि विदेशी चीजों का व्यवहार मत करो ।,दूसरी शंका-अदालतों का न्याय कहने ही को है जिसके पास बने हुए गवाह और दाँव-पेंच खेले हुए वकील होते हैं उसी की जीत होती है झूठे-सच्चे की परख कौन करता है हाँ हैरानी अलबत्ता होती है ।,भगत-कहा जाता है कि विदेशी चीजों का व्यवहार मत करो । चाहे स्वदेशी हो या विदेशी ।,हमको बाजार में जो चीज सस्ती और अच्छी मिले वह लेनी चाहिए ।,चाहे स्वेदशी हो या विदेशी । "एक शका---अपने देश में तो रहता हे, दूसरों के हाथ में वो नहीं जाता ।",हमारा पैसा सेंत में नहीं आता है कि उसे रद्दी-भद्दी स्वदेशी चीजों पर फेंकें ।,एक शंका-अपने देश में तो रहता है दूसरों के हाथ में तो नहीं जाता । ये देश के द्ोहो हैं ।,दूसरी शंका-जो विद्या घमंडी बना दे उससे मूरख ही अच्छा यही नयी विद्या पढ़कर तो लोग सूट-बूट घड़ी-छड़ी हैट-कैट लगाने लगते हैं और अपने शौक के पीछे देश का धन विदेशियों के जेब में भरते हैं ।,ये देश के द्रोही हैं । सरकार को नमे को दूकानों से करोड़ों रुपये साल की आमदतो होतो हैं ।,नशा बुरी लत है इसे सब जानते हैं ।,सरकार को नशे की दूकानों से करोड़ों रुपये साल की आमदनी होती है । और फ़िर किसी-किसो को नशा खाने से झायदा होता है ।,तो ऐसा काम क्यों करो कि सरकार का नुकसान अलग हो और गरीब रैयत का नुकसान अलग हो ।,और फिर किसी-किसी को नशा खाने से फायदा होता है । यहाँ तक कि कॉलछेज के क्रिकेट-सैचों मे भी उनको उत्साह न होता था ।,उन्हें किसी प्रकार के विनोद-प्रमोद से रुचि न थी ।,यहाँ तक कि कालेज के क्रिकेट-मैचों में भी उनको उत्साह न होता था । रोवासमितियों में बड़े उत्साह से भाग सेते ।,इसके साथ ही वह उत्साहहीन न थे ।,सेवा-समितियों में बड़े उत्साह से भाग लेते । स्वद्ेशवासियों की सेवा के किसी अवसर को हाथ से भा लाने देते ।,सेवा-समितियों में बड़े उत्साह से भाग लेते ।,स्वदेशवासियों की सेवा के किसी अवसर को हाथ से न जाने देते । "उन्हें अब अगर किसी विषय मे प्रेस था, तो बह दर्शन था ।",शनैः-शनैः कालेज से उन्हें घृणा हो गयी ।,उन्हें अब अगर किसी विषय से प्रेम था तो वह दर्शन था । तगर के साबंजनिक क्षेत्र में कूद पड़े ।,उनका वह सदनुराग जो बरसों से वैज्ञानिक वादों के नीचे दबा हुआ था वायु के प्रचंड वेग के साथ निकल पड़ा ।,नगर के सार्वजनिक क्षेत्र में कूद पड़े । देखा तो मेदान साली था ।,नगर के सार्वजनिक क्षेत्र में कूद पड़े ।,देखा तो मैदान खाली था । डायटरी का साधारण ज्ञान था ।,गोपीनाथ ने नुसखा देखा ।,डाक्टरी का साधारण ज्ञान था । हृदय मसोसने छगा ।,उनका गला भी भर आया ।,हृदय मसोसने लगा । यह कहते-बहते बह रुक गये ।,कम्पित स्वर से बोले-आनंदी संसार में कम-से-कम एक ऐसा आदमी है जो तुम्हारे लिए अपने प्राण तक दे देगा ।,यह कहते-कहते वह रुक गये । कम से कम मेरी तो वर्धिया बैठ गयी ।,थोड़ी-सी भूल ने सारा स्वप्न ही नष्ट कर दिया ।,कम से कम मेरी तो बधिया बैठ गयी । प्रात काछ चोकेंगे तो घर का मार्ग पकड़ेंगे ।,पड़े-पड़े खर्राटे लेने दो ।,प्रातःकाल चौंकेंगे तो घर का मार्ग पकड़ेंगे । द०--हुम्हारा यो वापस जाना मुझे खल रहा है ।,प्रातःकाल चौंकेंगे तो घर का मार्ग पकड़ेंगे ।,द.-तुम्हारा यों वापस जाना मुझे खल रहा है । पाप को तो बह अपने पराम भी नहीं फट्कने देती थी ।,कड़वी बात कह कर किसी का जी दुखाना उसे पसंद नहीं था ।,पाप को तो वह अपने पास भी नहीं फटकने देती थी । "जिस प्रकार इन दोनों राजफुमारों में मित्रता थी, उसी प्रकाए दोनों हाजेकुमारियाँ सी एक दूसरे पर जात देती भीं ।",इनमें जैसी मित्रता थी वैसी भाइयों में भी नहीं होती ।,जिस प्रकार इन दोनों राजकुमारों में मित्रता थी उसी प्रकार दोनों राजकुमारियाँ भी एक दूसरी पर जान देती थीं । मुझ्ते अपनी गुजर करने के लिए कापी स॒ ज्यादा मिलने छगा है ।,ज्ञानप्रकाश ने जोर दे कर लिखा अब आप मेरे हेतु कोई कष्ट न उठायें ।,मुझे अपनी गुजर करने के लिए काफी से ज्यादा मिलने लगा है । "पहिले ही उसने निश्चय कर लिया था कि कलकते में क्या करूँगा, कहाँ रहुंगा ।",सत्यप्रकाश चतुर युवक था ।,पहिले ही उसने निश्चय कर लिया था कि कलकत्ते में क्या करूँगा कहाँ रहूँगा । इसी प्रकार बहुत सोच-विचार के पदचात्‌ उन्होंने निश्चय किया क्र किसी “जमींदार के यहाँ “मुख्तारआर्म' बन जाता चाहिए ।,कितना ही चाहो पर वहाँ कड़ाई और डाँट-डपट से बचे रहना असम्भव है ।,इसी प्रकार बहुत सोच-विचार के पश्चात् उन्होंने निश्चय किया कि किसी जमींदार के यहाँ मुख्तारआम बन जाना चाहिए । केवल उडती हुई दृष्टि से देख कर उन्हें समेठा भौर जेव में डाल छिया ।,अपनी उच्चता प्रकट करने की व्यर्थ चेष्टा में उन्होंने नोटों की गणना भी नहीं की ।,केवल उड़ती हुई दृष्टि से देख कर उन्हें समेटा और जेब में डाल लिया । उदग्राचल फ़िरोजी बाना पहन चुका था ।,उनकी यात्र सूर्यनारायण के आने की सूचना दे रही थी ।,उदयाचल फ़िरोजी बाना पहन चुका था । अस्ताचछ में भी हलके इवेत रंग की आंभा दिखायी दे रही थी ।,उदयाचल फ़िरोजी बाना पहन चुका था ।,अस्ताचल में भी हलके श्वेत रंग की आभा दिखायी दे रही थी । उन्हे क्या खबर थी कि गिरिजा कौ जिंदगी पहुले कट चुकी है ।,इसमें मेरी और गिरिजा की जिंदगी आनंद से कट जायगी ।,उन्हें क्या खबर थी कि गिरिजा की जिंदगी पहले कट चुकी है । "उतके दिल मे, यह विचार गुदगुदा रहा था कि जिस समय गिरिजा इस आनद- समाचार को *सुनेगी उस समय अवश्य उठ बैटेगी ।",उन्हें क्या खबर थी कि गिरिजा की जिंदगी पहले कट चुकी है ।,उनके दिल में यह विचार गुदगुदा रहा था कि जिस समय गिरिजा इस आनंद-समाचार को सुनेगी उस समय अवश्य उठ बैठेगी । दिवो-दिन श्रोताओं की संझ्या बढ़ती जाती थी ।,जनता यह बातें चाव से सुनती थी ।,दिनोंदिन श्रोताओं की संख्या बढ़ती जाती थी । चौधरों के सब श्रद्धाभाजन वन गये ।,दिनोंदिन श्रोताओं की संख्या बढ़ती जाती थी ।,चौधरी के सब श्रद्धाभाजन बन गये । "राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है, उसकी आजा के विरुद्ध चलना महान पातक हैँ ।",और हमारे धार्मिक ग्रंथों में हमें इसी राजभक्ति की शिक्षा दी गयी है ।,राजा ईश्वर का प्रतिनिधि है उसकी आज्ञा के विरुद्ध चलना महान पातक है । मुखारविद से तेज ठिउक रहा था ।,नंगे पैर नंगे सिर कंधे पर एक मृगचर्म शरीर पर एक गेरुआ वस्त्र हाथों में एक सितार ।,मुखारविंद से तेज छिटक रहा था । "वह अपने स्मृति्धडार से किसी ऐसे तत्वज्ञानी पुर्ष को शोज निषालना चाहते थे, जिसने जाति-सेवा के साथ विज्ञानसागर में गोते रूपाये हों ।",जलधारा तट के दृश्यों और वायु के प्रतिकूल झोंकों की परवा न करते हुए बड़े वेग के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ी चली जाती थी पर लाला गोपीनाथ का ध्यान इस तरफ न था ।,वह अपने स्मृतिभंडार से किसी ऐसे तत्त्वज्ञानी पुरुष को खोज निकालना चाहते थे जिसने जाति-सेवा के साथ विज्ञान-सागर में गोते लगाये हों । पृष्वी अपनी गति से चलो जा रही है ।,सहसा उनके कालेज के एक अध्यापक पंडित अमरनाथ अग्निहोत्री आ कर समीप बैठ गये और बोले-कहिए लाला गोपीनाथ क्या खबरें हैं गोपीनाथ ने अन्यमनस्क हो कर उत्तर दिया-कोई नयी बात तो नहीं हुई ।,पृथ्वी अपनी गति से चली जा रही है । अध्यापकों वा क्रियात्मक राजनीति में फेसता बहुत अच्छी बात नहीं |,गोपी-मेरा भी यही विचार है ।,अध्यापकों का क्रियात्मक राजनीति में फँसना बहुत अच्छी बात नहीं । मेरा श्टगार देख कर वे खुश भी होगे ?,नाइन ने नाहक मेरा शृंगार कर दिया ।,मेरा शृंगार देख कर वे खुश भी होंगे ? हल्दी दिना रग के नहीं रह सकतो ।,सुंदरता और आत्मरुचि का साथ है ।,हल्दी बिना रंग के नहीं रह सकती । यहाँ मेने हजारों मनुष्यों को इस ठडे पाती में डुबकी लूमाते हुए देखा ।,किसी समय में घोड़े पर चढ़ कर गंगा माता के दर्शनों की लालसा मेरे हृदय में सदा रहती थी ।,यहाँ मैंने हजारों मनुष्यों को इस ठंडे पानी में डुबकी लगाते हुए देखा । छुछ माथे पर तिलक लगा रहे थे और कुछ ल्मेग मस्वर वेदमंत्र बढ़ रहे थे ।,कुछ लोग हवन करने में संलग्न थे ।,कुछ माथे पर तिलक लगा रहे थे और कुछ लोग सस्वर वेदमंत्र पढ़ रहे थे । तुमने मुझे कभी इतनी स्वतश्रता नही दी ।,से.-बाजार जाने से मुझे तुम गली-गली घूमनेवाली कहते और गला काटने पर उतारू हो जाते ।,तुमने मुझे कभी इतनी स्वतंत्रता नहीं दी । इस दछ्या में तुम्हारे जानें में कोई हस्तक्षेप नहीं ।,द.-निस्संदेह वह समय आकस्मिक है ।,इस दशा में तुम्हारे जाने में कोई हस्तक्षेप नहीं । "तूने हो रणबीर को प्राणदान दिया है, हूले ही इस राज्य का पुनस्द्धार किया है ।",अगर रणधीर मेरा पुत्र है तो तू मेरी पुत्री है ।,तूने ही रणधीर को प्राणदान दिया है तूने ही इस राज्य का पुनरुद्धार किया है । ” रानी की यह अ्रीम उदारता देख कर मैं दंग रह गयी ।,मैं अर्जुन नगर का प्रांत उपहारस्वरूप तेरी भेंट करती हूँ ।,रानी की यह असीम उदारता देख कर मैं दंग रह गयी । "कलियुग में भो कोई ऐसा दानी हो सकता है, इसकी मुझे आज्ञा न थी ।",रानी की यह असीम उदारता देख कर मैं दंग रह गयी ।,कलियुग में भी कोई ऐसा दानी हो सकता है इसकी मुझे आशा न थी । "तब स्ते दो वर्ष ध्यतीत हो चुके हैं, पर भोग-बिलास से मेरे मत को एक क्षण के लिए भी चंचल नहीं किया ।",यद्यपि मुझे धन-भोग की लालसा न थी पर केवल इस विचार से कि कदाचित् यह सम्पत्ति मुझे अपने भाइयों की सेवा करने की सामर्थ्य दे मैंने एक जागीरदार की जिम्मेदारियाँ अपने सिर लीं ।,तब से दो वर्ष व्यतीत हो चुके हैं पर भोग-विलास ने मेरे मन को एक क्षण के लिए भी चंचल नहीं किया । "भवन भूसे पड़े है और वािकाओं में, खोजये से भी हरियाली न मिलेगी ।",पति-वियोग की दशा में स्त्री तपस्विनी हो जाती है उसकी वासनाओं का अंत हो जाता है मेरे पास कई विशाल भवन हैं कई रमणीक वाटिकाएँ हैं विषय-वासना की ऐसी कोई सामग्री नहीं है जो प्रचुर मात्र में उपस्थित न हो पर मेरे लिए वह सब त्याज्य हैं ।,भवन सूने पड़े हैं और वाटिकाओं में खोजने से भी हरियाली न मिलेगी । इगके अतिरिक्त उठार का और कोई उपाय नहीं ।,तुम्हारा क्रोध यदि मनुष्य से पशु बना सकता है तो क्या तुम्हारी दया पशु से मनुष्य न बना सकेगी विद्याधरी-प्रायश्चित्त करो ।,इसके अतिरिक्त उद्धार का और कोई उपाय नहीं । "वह घृणा के धाव सह सकती है, क्रोध _की अग्नि राह सकती हैं, पर दया का बोझ उससे सही उठाया जाता ।",यदि मैं उसके चरणों पर शीश रख देती तो कदाचित् उसे मुझ पर दया आ जाती किंतु राजपूत की कन्या इतना अपमान नहीं सह सकती ।,वह घृणा के घाव सह सकती है क्रोध की अग्नि सह सकती है पर दया का बोझ उससे नहीं उठाया जाता । "मैने ,पठरे से उतर कर पतिदेव के चरणों पर सिर छुकाया और उत्हें साथ लिगे हुए भपने मकान चली आयी ।",वह घृणा के घाव सह सकती है क्रोध की अग्नि सह सकती है पर दया का बोझ उससे नहीं उठाया जाता ।,मैंने पटरे से उतर कर पतिदेव के चरणों पर सिर झुकाया और उन्हें साथ लिये हुए अपने मकान चली आयी । तीन- चार हिंदुस्तानो भी थे ।,उनमें से एक के कन्धे पर सिर रख कर बादशाह चल रहे थे ।,तीन-चार हिंदुस्तानी भी थे । यह राज्य के प्रघान मत्री थे ।,दूसरे महाशय का नाम रोशनुद्दौला था ।,यह राज्य के प्रधानमंत्री थे । "अगर किसी में यह हिम्मत थी, ठो वह राजा वल्तावरसिह थे ।",मजाल न थी कि कोई बड़े-से-बड़ा राजा या राजकर्मचारी किसी अँग्रेज से बराबरी करने का साहस कर सके ।,अगर किसी में यह हिम्मत थी तो वह राजा बख्तावरसिंह थे । हिंठार्यी और मम्बन्धियों का समूह सामने खड़ा था ।,इस अनाथ बालक पर तरस खाओ ।,हितार्थी और सम्बन्धियों का समूह सामने खड़ा था । निदान उसे लज्जा त्यागनों पड़ी ।,उनकी स्त्री फूट-फूटकर रो रही थी ।,निदान उसे लज्जा त्यागनी पड़ी । "चौधरी उसमे शरीक हुए, भगत अलग रहे ।",एक सज्जन ने आ कर गाँव में किसान-सभा खोली ।,चौधरी उसमें शरीक हुए भगत अलग रहे । "चोधरी स्व- राज्यवादी हो गये, भगत ने राजभक्ति का पक्ष लिया |",जागृति और बढ़ी स्वराज्य की चर्चा होने लगी ।,चौधरी स्वराज्यवादी हो गये भगत ने राजभक्ति का पक्ष लिया । इतने में घंटो के लगातार शब्द वायु और अधकार को चीरते हुए कान मे आने छगे ।,हारनेवाले अपनी रुष्ट और क्रोधित स्त्रियों से क्षमा के लिए प्रार्थना कर रहे थे ।,इतने में घंटी के लगातार शब्द वायु और अंधकार को चीरते हुए कान में आने लगे । उनको सुहावनो घ्वनि इस निस्तब्ध अवस्था में अत्यत भलो प्रतीत होती थो ।,इतने में घंटी के लगातार शब्द वायु और अंधकार को चीरते हुए कान में आने लगे ।,उनकी सुहावनी ध्वनि इस निस्तब्ध अवस्था में अत्यंत भली प्रतीत होती थी । पेत॒क प्रतिष्ठा का अहकार अब आंखों से दुर हो गया ।,आज पंडित जी को यह ज्ञात हुआ है कि सत्तर लाख की चिट्ठी-पत्रियाँ इतनी कौड़ियों के मोल भी नहीं ।,पैतृक प्रतिष्ठा का अहंकार अब आँखों से दूर हो गया । "जिस तरह मुख और आनंद से पराड़ित शरोर चिता को भेंट हो जाठा है, उसी प्रकार वह कागजी पुतलियाँ भी उस प्रज्वलित दीया के घधकते हुए मुँह का प्रास बनतो थी |",उन्होंने उस मखमली थैले को संदूक से बाहर निकाला और उन चिट्ठी-पत्रियों को जो बाप-दादों की कमाई का शेषांश थीं और प्रतिष्ठा की भाँति जिनकी रक्षा की जाती थी एक-एक करके दीया को अर्पण करने लगे ।,जिस तरह सुख और आनंद से पालित शरीर चिता की भेंट हो जाती है उसी प्रकार वह कागजी पुतलियाँ भी उस प्रज्वलित दीया के धधकते हुए मुँह का ग्रास बनती थीं । "देखा कि कई आइमी हाथ में मशालह्ू लिये हुए खड़े है और एक हाथी अपने सूंड स उन एरड के वृक्षों को उखाड़ रहा है, जो द्वार पर द्वारपालो को भांति खड़े थे |",वे नींद से अँधेरे में टटोलते हुए दरवाजे तक आये ।,देखा कि कई आदमी हाथ में मशाल लिये हुए खड़े हैं और एक हाथी अपने सूँड से उन एरंड के वृक्षों को उखाड़ रहा है जो द्वार पर द्वारपालों की भाँति खड़े थे । पिता जी बूढ़े थे; सीने पर जलम् गहरा छगा ।,उसने भी तलवार निकाल ली और दोनों आदमियों में तलवारें चलने लगीं ।,पिता जी बूढ़े थे सीने पर जखम गहरा लगा । उठा कर लोग भर पर छाये ।,गिर पड़े ।,उठा कर लोग घर पर लाये । मुझे देखते ही उन्होने सब मादसियों को वहाँ से हट जाने का सकेत किया ।,मैं रोती हुई उनके सामने आयी ।,मुझे देखते ही उन्होंने सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का संकेत किया । "पिता जी--इस राजपूत ने मेरो गाय की जान छो है, इसका बदला तुम्हें सेना होगा ।",पिता जी-राजपूत बात के धनी होते हैं मैं-जी हाँ ।,पिता जी-इस राजपूत ने मेरी गाय की जान ली है इसका बदला तुम्हें लेना होगा । मैं उसी दिन से तलवार को कपड़ों में छिपाये उत्त नौजवान राजपूत की तछाश से घूमने छगी. ।,यह कहते-कहते पिता जी के प्राण निकल गये ।,मैं उसी दिन से तलवार को कपड़ों में छिपाये उस नौजवान राजपूत की तलाश में घूमने लगी । वह आदमी बेसुघ था ।,राजपूत ने कहा अच्छा मेरे साथ आ ! मैं उठ खड़ी हुई ।,वह आदमी बेसुध था । "इस आज्ञा में कि मै पति के कुछ काम आ सकती हूँ, उसके हृदय में बल का संचार कर दिया ।",आँसू सूख गये ।,इस आशा में कि मैं पति के कुछ काम आ सकती हूँ उसके हृदय में बल का संचार कर दिया । "रानी से समझा, राजा मुझे प्राण देने का संक्त कर रहे है ।",वह राजा की ओर विश्वासोत्पादक भाव से देख कर बोली-ईश्वर ने चाहा तो मरते दम तक निभाऊँगी ।,रानी ने समझा राजा मुझे प्राण देने का संकेत कर रहे हैं । आम्पतराम--उमने मेरी बात कभी नहीं टाली ।,रानी ने समझा राजा मुझे प्राण देने का संकेत कर रहे हैं ।,चम्पतराय-तुमने मेरी बात कभी नहीं टाली । वह उनका मतलब ने ममझी ।,क्या तुम मुझे इसलिए शत्रुओं के हाथ में छोड़ जाओगी कि मैं बेड़ियाँ पहने हुए दिल्ली की गलियों में निन्दा का पात्र बनूँ रानी ने जिज्ञासा की दृष्टि से राजा को देखा ।,वह उनका मतलब न समझी । बोली--जीवननाथ ! इसके आगे; और कुछ न बोल सकी ।,रानी के हृदय पर वज्रपात-सा हो गया ।,बोली-जीवननाथ ! इसके आगे वह और कुछ न बोल सकी । दामी ने उस अवसर पर कौपल मे काम लिया और दाँत निकाल दिये; जो सभधि को याचना थो ।,निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि मैदान किसके हाथ रहा किंतु जब उस दल को कुमक मँगानी पड़ी तो रण-शास्त्रा के नियमों के अनुसार विजय का श्रेय टामी ही को देना उचित न्यायानुकूल जान पड़ता है ।,टामी ने उस अवसर पर कौशल से काम लिया और दाँत निकाल दिये जो संधि की याचना थी । कितु तबसे उसने ऐसे सन्नीति-विहीन प्रतिद्द्वियों के मुँहू लगना उचित न समझा ।,टामी ने उस अवसर पर कौशल से काम लिया और दाँत निकाल दिये जो संधि की याचना थी ।,किंतु तब से उसने ऐसे सन्नीति-विहीन प्रतिद्वंद्वियों के मुँह लगना उचित न समझा । वाजारी दख इसलिए जलता कि टामी के मारे घूरों पर की हट्टियाँ भी न बचने पाती थी ।,उसके बराबरवाले उससे इसलिए जलते कि वह इतना मोटा-ताजा हो कर इतना भीरु क्यों है ।,बाजारी दल इसलिए जलता कि टामी के मारे घूरों पर की हड्डियाँ भी न बचने पाती थीं । "वह घडीन्रात रहे उठता और हलवाइयों की द्रकानों के सामने के दोने और पत्तद, कसाईखाने के सामने की हष्डियाँ लोर छीछड़े चववा डालता ।",बाजारी दल इसलिए जलता कि टामी के मारे घूरों पर की हड्डियाँ भी न बचने पाती थीं ।,वह घड़ी-रात रहे उठता और हलवाइयों की दूकानों के सामने के दोने और पत्तल कसाईखाने के सामने की हड्डियाँ और छीछड़े चबा डालता । दास का घर राजनमर हैं ।,उसके चेहरे से भलमनसाहत बरसती थी-मैं आपका पुराना सेवक हूँ ।,दास का घर राजनगर है । "समेटे इस समय जो कुछ प्रतिष्ठा तथा सम्पदा है, सद आपके पूर्वजों की कृपा और दया का परिणाम हैं ।",मेरे पूर्वजों पर आपके पूर्वजों ने बड़े अनुग्रह किये हैं ।,मेरी इस समय जो कुछ प्रतिष्ठा तथा सम्पदा है सब आपके पूर्वजों की कृपा और दया का परिणाम है । पैतृक प्रतिष्ठा क्रा भभिमान' उनके हृदय का कोमल भाव था ।,पंडित देवदत्त की आँखों में आँसू भर आये ।,पैतृक प्रतिष्ठा का अभिमान उनके हृदय का कोमल भाग था । थे गम्भीर भाव थारण करके बोे--यह आपका अनुग्रह हैँ जो ऐसा कहते है ।,वह दीनता जो उनके मुख पर छायी हुई थी थोड़ी देर के लिए विदा हो गयी ।,वे गम्भीर भाव धारण करके बोले-यह आपका अनुग्रह है जो ऐसा कहते हैं । "ठाकुर अब गया में जा कर अपने पूर्वजों का थाद्ध करना चाहता थां, इसलिए जरूरो था कि उसके जिम्मे जो कुछ ऋण हो, उप्तकी एक-एक कौड़ो चुका दी जाय |",पंडित जी के पितामह ने नवयुवक ठाकुर के पितामह को पच्चीस सहò रुपये कर्ज दिये थे ।,ठाकुर अब गया में जा कर अपने पूर्वजों का श्राद्ध करना चाहता था इसलिए जरूरी था कि उसके जिम्मे जो कुछ ऋण हो उसकी एक-एक कौड़ी चुका दी जाय । कोई और गवाह अना छीजिए ।,चंदू-(सोच कर) जी नहीं गवाही न दे सकूँगा ।,कोई और गवाह बना लीजिए । प्रेम ते बहुत तपस्या करके यह वरदान पावा हैं ।,6 घर कितनी कोमल पवित्र मनोहर स्मृतियों को जागृत कर देता है ! यह प्रेम का निवास-स्थान है ।,प्रेम ने बहुत तपस्या करके यह वरदान पाया है । इस वार्तालाप के वाद मुश्कि से मो महीने गुजरे थे कि ईश्वरचए ने संगार से प्रस्थान किया ।,यह जाति का सच्चा सेवक अंत को जातीय कष्टों के साथ रोग के कष्टों को न सह सका ।,इस वार्तालाप के बाद मुश्किल से नौ महीने गुजरे थे कि ईश्वरचंद्र ने संसार से प्रस्थान किया । "अपने सिद्धांतों के पालत में उत्हे कितनी हो बार अधिकारियों की तीद्र दृष्टि का भाजन बनता पड़ा था, कितती ही बार जनता का अविश्वास, यहाँ तक कि मित्रो को अवहेलना भो महनों पड़ी थी, पर उन्होने अपनी आत्मा का कभी हनन नही किया ।",उनका सारा जीवन सत्य के पोषण न्याय की रक्षा और प्रजा-कष्टों के विरोध में कटा था ।,अपने सिद्धांतों के पालन में उन्हें कितनी ही बार अधिकारियों की तीव्र दृष्टि का भाजन बनना पड़ा था कितनी ही बार जनता का अविश्वास यहाँ तक कि मित्रों की अवहेलना भी सहनी पड़ी थी पर उन्होंने अपनी आत्मा का कभी हनन नहीं किया । कही ऐसा न हो कि अधिक खाले के छिए मुझे भाभो जो के सामने लण्जित होना पड़े ।,आ.-मेरे साथ बैठ कर एक ही थाली में खाना ।,कहीं ऐसा न हो कि अधिक खाने के लिए मुझे भाभी जी के सामने लज्जित होना पड़े । द्ायद तुम्हें ही प्रधानपद मिल जाने ।,आ.-भई यथाशक्ति चेष्टा करूँगा ।,शायद तुम्हें ही प्रधानपद मिल जाये । बच्चे भी रूप के उपाप्तक होते हैं ।,सत्यप्रकाश ने नयी माता को देखा और मुग्ध हो गया ।,बच्चे भी रूप के उपासक होते हैं । एक लावण्पमयी मू्ति आभूषण से लंदी सामने खड़ो थी ।,बच्चे भी रूप के उपासक होते हैं ।,एक लावण्यमयी मूर्ति आभूषण से लदी सामने खड़ी थी । उसका बारस्वप्न भी भग हो गया ।,सत्यप्रकाश ने विस्मित नेत्रों से देखा ।,उसका बालस्वप्न भी भंग हो गया । जुझारसिह अपनी जगह से जरा भी न हिले ।,उसके ललाट पर पसीने की ठंडी-ठंडी बूँदें दिखाई दे रही थीं और साँस तेजी से चलने लगी थी; पर चेहरे पर प्रसन्नता और संतोष की झलक दिखाई देती थी ।,जुझार सिंह अपनी जगह से ज़रा भी न हिले । नाव के दिलते से मटलाह चौंक कर उठ बैठा ।,नाव धीरे-धीरे धार के सहारे चलने लगी शोक और अंधकारमय स्वप्न की भाँति जो ध्यान की तरंगों के साथ बहा चला जाता हो ।,नाव के हिलने से मल्लाह चौंक कर उठ बैठा । भय के अंत को साहस कहते हैं ।,घबरा कर पूछा-तैं कौन है रे नाव कहाँ लिये जाती है रानी हँस पड़ी ।,भय के अन्त को साहस कहते हैं । दानी का पता छपानेवाले के लिए 'एक बहुमूल्य पारितोषिक को सूचना दी गयो थी ।,नगर के नाके बन्द थे ।,रानी का पता लगानेवाले के लिए एक बहुमूल्य पारितोषिक की सूचना दी गयी थी । दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य उसका थआश्ाकारी था ।,बन्दीगृह से निकल कर रानी को ज्ञात हो गया कि वह और दृढ़ कारागार में है ।,दुर्ग में प्रत्येक मनुष्य उसका आज्ञाकारी था । वह कत्तेव्य और सेवा के भावों को जागृत भी कर सबती हैं ।,इन्हीं कारणों से उन्होंने इस मायावी जाति से अलग रहना ही श्रेयस्कर समझा था किंतु अब अनुभव बतला रहा था कि स्त्रियाँ सन्मार्ग की ओर भी ले जा सकती हैं उनमें सद्गुण भी हो सकते हैं ।,वे कर्त्तव्य और सेवा के भावों को जागृत भी कर सकती हैं । शुँह से एक शब्द भी न निकछा ।,मारे भय के थर-थर काँपने लगी ।,मुँह से एक शब्द भी न निकला । पह मौसम भी गुजरा ।,यह ऋतु बीती जल-थल ने बर्फ की सुफेद चादर ओढ़ी जलपक्षियों की मालाएँ मैदानों की ओर उड़ती हुई दिखाई देने लगीं ।,यह मौसम भी गुजरा । विद्याघरी ने राजभवन त्याग दिया और एक पुराने विर्गन मंदिर में सपस्विनियों को भांति कालक्षेप करने लगे ।,नदी-नालों में दूध की धारें बहने लगीं चंद्रमा की स्वच्छ निर्मल ज्योति ज्ञानसरोवर में थिरकने लगी परंतु पंडित श्रीधर की कुछ टोह न लगी ।,विद्याधरी ने राजभवन त्याग दिया और एक पुराने निर्जन मंदिर में तपस्विनियों की भाँति कालक्षेप करने लगी । उस दुसिया की दशा कितनी कछंणाजनक थी ।,विद्याधरी ने राजभवन त्याग दिया और एक पुराने निर्जन मंदिर में तपस्विनियों की भाँति कालक्षेप करने लगी ।,उस दुखिया की दशा कितनी करुणाजनक थी । "एक दिन धहू था कि उसने अपने पातिव्रत के बल पर भनुष्य को पशु के रुप में परिणत' कर दिया था, और आज यह दिन है कि उसको पंति भी उसे त्याग रहा है ।",उसका यह अपार दुःख देख कर मैं अपना दुःख भूल गयी ।,एक दिन वह था कि उसने अपने पातिव्रत के बल पर मनुष्य को पशु के रूप में परिणत कर दिया था और आज यह दिन है कि उसका पति भी उसे त्याग रहा है । जतता को दिनो-दिन उनके ऊपदेधों मे अरुचि होती जाती थी ।,लेकिन भगत जी इतने भाग्यशाली न थे ।,जनता को दिनोंदिन उनके उपदेशों से अरुचि होती जाती थी । रात-दिव आमोद-प्रमोद की चर्चा रहने छगो ।,यह पहला अवसर था कि चम्पतराय को आये-दिन के लड़ाई-झगड़े से निवृत्ति मिली और उसके साथ ही भोग-विलास का प्राबल्य हुआ ।,रात-दिन आमोद-प्रमोद की चर्चा रहने लगी । इन दिनो प्रत्येक रमणी का चित्त आप हो आप झुछा झूलते के लिए विकल हो जाता हैं ।,सावन में झूला झूलने का प्रस्ताव क्योंकर रद्द किया जा सकता था ।,इन दिनों प्रत्येक रमणी का चित्त आप ही आप झूला झूलने के लिए विकल हो जाता है । कितु शोक ! वह क्दाचित्‌ मेरे सौभाग्यचंद्र की अंतिम झलक थी ।,जिस प्रकार ज्ञानसरोवर पवित्र जल से परिपूर्ण हो रहा है उसी भाँति हमारे हृदय पवित्र आनंद से परिपूर्ण थे ।,किन्तु शोक ! वह कदाचित् मेरे सौभाग्यचंद्र की अंतिम झलक थी । ऐस्रो सच्चाई के लिए संसार में स्थान नहीं ।,अभी आपने संसार देखा नहीं ।,ऐसी सच्चाई के लिए संसार में स्थान नहीं । (तुम्हारे चचाजी ने ही तो इन्कार कर दिया ।,"खैर , जो हुआ , अच्छा ही हुआ ।",तुम्हारे चचाजी ने ही तो इन्कार कर दिया ? यह तुम्हारी भूल थी ।,शायद वह बरामदे ही में खड़े खिड़की से उसे देखना चाहते हों ।,यह तुम्हारी भूल थी । जमादारों को हम मना लेंगे ।,"काम तो बुरा किया, पर अब जाने दो, जो हुआ सो हुआ ।",जमादारों को हम मना लेंगे । जिसकी क़लम में जादू है जिसकी ज़बान में जादू है जिसके व्यक्तित्व में जादू हे वह कैसे कह सकता है कि वह “प्रभावशाली नहीं है,नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति दूसरा नहीं दिखाई देता,जिसकी कलम में जादू है जिसकी जबान में जादू है जिसके व्यक्तित्व में जादू है वह कैसे कहता है कि वह प्रभावशाली नहीं है मिरिच के देश जा रहो हूँ कि वहाँ मेहनत मजूरी करके जीवन के दिन कार्ट ।,"अब उसे एक खपरैल का कॉटेज मिलेगा , जिसकी फर्श पर कालीन की जगह टाट भी नहीं ; कहाँ वरदीपोश नौकरों की पलटन , कहाँ एक बुढ़िया मामा की संदिग्ध सेवाएँ जो बात-बात पर भुनभुनाती है , धमकाती है , कोसती है ।",मिरिच के देश जा रही हूँ कि वहीं मेहनत-मजदूरी करके जीवन के दिन काटूं । "जब वह ऊपर पहुँची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था ।",रमा ने कपड़े बदले और मन में झुंझलाता हुआ नीचे चला आया ।,"जब वह ऊपर पहुँची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था ।" इसी वक़्त जालपा आ पड़ी ।,"जिधर जाओ, उधर लोग नोचने दौड़ते हैं, न जाने कितना कर्ज़ ले रक्खा है ।",इसी वक्त ज़ालपा आ पड़ी । "अगर तुम्हें मालूम होता कि पुलिस ने मेरे साथ कैसी-कैसी सख्तियाँ कीं, मझे कैसी-कैसी धमकियां दीं, तो तुम मुझे राक्षस न कहतीं ।",इतने दिन उसके साथ रहकर भी तुम्हारी लोभी आँखें उसे न पहचान सकीं ।,"अगर तुम्हें मालूम होता कि पुलिस ने मेरे साथ कैसी-कैसी सख्तियां कीं, मुझे कैसी-कैसी धमकियां दीं, तो तुम मुझे राक्षस न कहतीं ।" गले में इतने हार पड़ेंगे कि तुम सीधा न कर सकोगे ।,"तुम्हारा नाम अमर हो जायगा और घर-घर तुम्हारी पूजा होगी ! ’ कानूनी –‘ अगर तुम्हारा खयाल है कि मैं नाम और यश के लिए देश की सेवा कर रहा हूँ , तो मुझे यही कहना पड़ेगा कि तुमने मुझे रत्ती-भर भी नहीं समझा ।",गले में इतने हार पड़ेंगे कि तुम गरदन सीधी न कर सकोगे । हमसे बोलते नहीं,लल्लू खड़ा है,हमसे बोलते नहीं "ऐसे मनुष्य की योग्यता की चाहे जितनी प्रशंसा की जाए, पर उसका सम्मान नहीं किया जा सकता ।","चला गया हो, तो किसी को साइकिल पर दौड़ा देना ।","ऐसे मनुष्य की योग्यता की चाहे जितनी प्रशंसा की जाए, पर उसका सम्मान नहीं किया जा सकता ।" मालती और उसकी दोनों बहनें बँगले के सामने * घास पर वेठी हुई थीं,आत्मसेवियों में जो निर्लज्जता आ जाती है वह कौल में भी थी,मालती और उसकी दोनों बहनें बँगले के सामने घास पर बैठी हुई थीं नहीं उसकी सराहना होत्ती है,यह कहते हुए उसने कुछ समझकर दोनों साड़ियाँ सकीना के हाथ में रख दीं और बाहर चला गया,नहीं उसकी सराहना होती है सुमनबांई की सेवा में गया था ।,"आप कुछ समझते हैं, कहाँ से आ रहा हूँ ?",सुमनबाई की सेवा में गया था । आकाश में उद्दनेवाले पक्षी को पिंजरे में बन्द करना चाहते थे,हमने उनकी विशाल तपस्वी आत्मा को भोग के बंधनो से बंधकर रखना चाहा था,आकाश में उड़ने वाले पक्षी को पिजड़े में बंद करना चाहते थे दाल में नमक का ज़रा तेज़ दो जाना उन्हें दिव-भर बकने के लिए काफ़ी बहाना था |,"बचपन से सिखाया गया था रोशनी ही जीवन है, यहाँ रोशनी के दर्शन भी दुर्लभ थे ।",दाल में नमक का जरा तेज हो जाना उन्हें दिन-भर बकने के लिए काफी बहाना था । देख तो श्राज मद्दाराज तेरी क्या गति करते हैं ।,देखते नहीं हो ।,देख तो आज महाराज तेरी क्या गति करते हैं । भाज उसे जो विभूति मिली थी उप्रके सामने संसार की संपदा तुच्छ थी नगण्य थी,तुम मुझे ऐसे घर में डालने जा रही हो जहां मेरी जिंदगी तल्ख हो जाएगी,आज उसे जो विभूति मिली थी उसके सामने संसार की संपदा तुच्छ थी नगण्य थी उसी मुहल्ले में एक लाला बावूलाल रहते थे ।,यहाँ तक कि कभी प्रयाग के सरकारी कृषि-क्षेत्र की सैर करने न गये थे ।,उसी मुहल्ले में एक लाला बाबूलाल रहते थे । "जितनी देर उसके साथ हँसी थी, उससे कहों ज़्यादा रोई ।","कितना मना करती रही, न मानी ।","जितनी देर उसके साथ हँसी थी, उससे कहीं ज्यादा रोयी ।" "मैचे अनुमात किया कि यह - वही अस्वारोदी पथिके हैं, जिस पर इन झॉकुओं नें ४ आचान किया चा ।",सागर के किनारे एक बड़ी-सी गुफा थी ।,मैंने अनुमान किया कि यह वही अश्वारोही पथिक है जिस पर इन डाकुओं ने आघात किया था । "जो पति अपनी स्त्री को विन्दा छुन्ता रहे, वह पति बनने के योग्य, नहीं ।",कपोल तमतमाये हुए हैं ; पर अधरों पर विष भरी मुस्कान है और आँखों में व्यंग्य-मिला परिहास ।,"जो पति अपनी स्त्री की निन्दा सुनता रहे , वह पति बनने के योग्य नहीं ।" बेचारा रेलवे के दफ़्तर में नौकर था ।,होटलवाले दूसरा महीना शुरू होते ही रुपये पेशगी माँगेंगे ।,बेचारा रेलवे के दफ्तर में नौकर था । "आज से मैं भी वही करू गा, जो सब लोग करते हैं।",यही सही ।,"आज से मैं भी वहीं करूँगा, जो सब करते हैं ।" में वह ऐश्वर्य चाइती हूँ जो यूर्य फो भी मात कर दे ।,"उसे मालूम हो रहा था, मानो वह वायु में उड़ी जा रही है ।","मैं वह ऐश्वर्य चाहती हूँ, जो सूर्य को भी मात कर दे ।" "नहीं, इससे कम न लूँगा ।","अच्छा मान लो, जो महंत तीन हजार पर भी राजी न हुआ तो ?","नहीं, इससे कम न लूंगा ।" मैंने भी यही सोचकर मन को समझाया है,और नाव एक खेवे में पचास गाड़ियों का बोझ लाद लेती थी,मैंने भी यही सोच कर मन को समझाया है हड्डी टूट जाना कोई मामूली बात नहीं है ।,मुझे इसका बड़ा दु:ख है ।,हड्डी टूट जाना कोई मामूली बात नहीं है । देवीदीन ने उसे एक पुरानी दरी बिछाने को दे दी थी |,बेचारा रात-भर गठरी बना पडा रहता ।,देवीदीन ने उसे एक पुरानी दरी बिछाने को दे दी थी । अपनी वश्चाबल्ली का वर्णन किया |,भोजन के उपरान्त आराम करने का जी चाहेगा ।,अपनी वंशावली का वर्णन किया । इन्हीं घृणित चर्चाओं से उकताकः दो ही वजे लौट आए।,आज भी वह कचरहरी में ज्यादा न ठहर सके ।,इन्हीं घृणित चर्चाओं से उकताकर दो ही बजे लोट आए । सलीम ने सन्दिग्य भाव से कहा--मेंने अपने दिल में जिस औरत का नक्शा खींच रखा है वह कुछ और ही है,शायद उसका भोलापन हो,सलीम ने संदिग्धा भाव से कहा-मैंने अपने दिल में जिस औरत का नक्शा खींच रखा है वह कुछ और ही है वही है ।,"शर्मा -- जी हाँ, हुलिया तो आप ठीक बताते हैं ।",वही है । उसने खड़े होकर अथीर नेत्रों से सड़क की ओर देखा,उसने मन में निश्चय किया आज पिता से इस विषय में खूब अच्छी तरह शास्त्रार्थ करेगा,उसने खड़े होकर अधीर नेत्रों से सड़क की ओर देखा "सॉँढ़ उसको तरफ मुढ़ा, तो द्वीरा ने रगेदा ।",सांड़ को भी संगठित शत्रुओं से लड़ने का तजुरबा न था ।,साँड़ उसकी तरफ मुड़ा तो हीरा ने रगेदा । मनुष्य परिध्थितियो का दास होता है |,माता से इतनी श्रृद्धा कभी उसके दिल में पैदा नहीं हुई थी ।,मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है । बावू भारतदाप ने छोला के लिए सुयोग्य वर खोजने में कोईं बात उठा नहों रखी ।,आश्चर्य की बात तो यह थी कि अबकी उसकी छाती में दूध ही नहीं उतरा ।,बाबू भारतदास ने लीला के लिए सुयोग्य वर खोजने में कोई बात उठा नहीं रखी । "में सास्टर था, झिसो बुकसेलर की दुकान पर किताब बेचते हुए मेपता था ।","हम दोनों साथ ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्होंने डिग्रियाँ लीं , अपनी आँखें फोड़ीं और घर के रुपये बरबाद किये , वह भी जूतियाँ चटका रहे थे , हमने वहीं हाल्ट कर दिया ।","मैं मास्टर था , किसी बुकसेलर की दूकान पर किताब बेचते हुए झेंपता था ।" फेकूराम सबसे छोद्य या ।,लड़कों की परीक्षा ले रहा हूँ ।,फेकूराम सबसे छोटा था । अब मुझी को इंसाफ करना पड़ेगा ।,लेकिन उसने इंसाफ करना छोड़ दिया ।,अब मुझी को इंसाफ करना पड़ेगा । उसे यह न मालूम था कि सुमन मेरी प्रेम-रसपूर्णा बातों से मिठाई के दोनों को अधिक आानन्दप्रद समभती है।,उसे स्पष्ट दिखाई देता था कि सुमन का हृदय मेरी ओर से शिथिल होता जाता है ।,उसे यह न मालूम था कि सुमन मेरी प्रेम-रसपूर्ण बातों से मिठाई के दोनों को अधिक आनन्दप्रद समझती है । फिर एकाएक पिर पर मेंडरानेवाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गई,तुम आगे-आगे जा कर जो कुछ कहना-सुनना हो कह-सुन लेना,फिर एकाएक सिर पर मँडराने वाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गई तारा दुर्गा के-पैरों पर माथा नवाये सच्ची भक्ति का परिचय दे रही थी ।,चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था ।,तारा दुर्गा के पैरों पर माथा नवाए सच्ची भक्ति का परिचय दे रही थी । उस सरल शीतल रनेह के सामने ये सारी विभूतियाँ तुच्छ-सी जैँचने ल्‍गीं ।,"अपनी टूटी झोपड़ी को छोड़कर वह जिस जिस सुनहले कलश वाले भवन की ओर लपका था, वह मरीचिका मात्र थी और उसे अब फ़िर अपनी टूटी झोपड़ी याद आई, जहां उसने शान्तिम प्रेम और आशीर्वाद की सुधा पी थी ।","उस सरल, शीतल स्नेह केसामने ये सारी विभूतियां उसे तुच्छ सी जंचने लगीं ।" यहाँ माता की सेवा ओर छोटे भाइयों की देख-भाल में' उसका समय बड़े आनन्द से कट जाता था।,"वकील साहब बार-बार लिखते थे, पर वह न जाती थी।",यहाँ माता की सेवा और छोटे भाइयों की देखभाल में उसका समय बड़े आनन्द के कट जाता था। "जब बे शुरेंगे कि गेने किस कडिन रामग्र गें तलवार तिकाणो है, तो उरें सच्ची प्रसन्नता होगी ।",क्या ऐसी दशा में मैं उनकी आज्ञा का उल्लंघन करूँ तो वे नाराज़ होंगे ?,"जब वे सुनेंगे कि मैंने कैसे कठिन समय में तलवार निकाली है, तो उन्हें सच्ची प्रसन्नता होगी ।" माह्टर भ्राते हर पढ़ाकर चले जाते ।,धीरे-धीरे सदन के चित्त की चंचलता यहाँ तक बढ़ी कि पढ़ना- लिखना सब छूट गया ।,मास्टर आते ओर पढ़ा कर चले जाते । दो साल उसके साथ इतने लुत्फ गुजरे कि श्राज भी उसकी याद करके रोता हूँ |,"अब भी जब उस हसीना की याद आती है, तो आँखों से आँसू निकल आते हैं ।",दो साल उसके साथ इतने लुत्फ से गुजरे कि आज भी उसकी याद करके रोता हूँ । स्वास्थ्य भी अच्छा न था; इसलिए बार-बार यद्द चिन्ता सवार रहती थी दि छुछ सचय कर ले ।,उच्छृंखलता तो उसे छू भी नहीं गयी थी ।,"स्वास्थ्य भी अच्छा न था, इसलिए बार- बार यह चिन्ता सवार रहती थी कि संचय कर लूँ ।" लेन-देन में सूद भी अच्छा मिलेगा और अपना रोब दाब भो रहेगा ।,यही तो वह हैं जो यात्रियों के नाम लिख रहे हैं ।,लेन-देन में सूद भी अच्छा मिलेगा और अपना रोब-दाब भी रहेगा । मानो को याचना को अस्वीकार न कर सके ।,चैनसिंह मारे शर्म के जमीन में गड़ा जाता था ।,मानी की याचना को अस्वीकार न कर सके । दुखी ने फिर कुल्दाड़ी उठाई ।,उठा ले कुल्हाड़ी और लकड़ी फाड़ डाल ।,' दुखी ने फिर कुल्हाड़ी उठाई । "अवुलवफा--भजी, आपसे एक खास वात कहनी है।","शर्माजी ने उत्तर दिया -- में इस समय घूमा करता हूँ, क्षमा कीजिए ।",अबुलवफा -- अजी आप से एक खास बात कहनी है। यह कहकर उन्होंने एक रुपया सूरदास के हाथ में रखा और चल दिए ।,यही रौनक शहरों में है ।,यह कहकर उन्होंने एक रुपया सूरदास के हाथ में रखा और चल दिए । विट्ठलदास मन में तिलमिलाकर रह गए ।,उसमे से कौन लोग उतरे! अबुलवफा और अब्दुललतीफ ।,विट्ठलदास मन में तिलमिला कर रह गए । "मशीजी लेटे, पर चित्त अशात था ।",तुम न-जाने क्या करने पर तुली हुई हो ।,मुंशी जी लेटे; पर चित्त अशांत था । आज साँस को देने कहा था ।,लोभ तो छू नहीं गया था ।,आज साँझ को देने को कहा था । "(५) फूलप्रती अपने कमरे में जाकर लेटो, तो उसे माद्प्त हुआ, उसकी कमर हट 'उई है ।","द्वार पर नीम का वृक्ष सिर झुकाए, निस्तब्ध खड़ा था, मानो संसार की गति पर क्षुब्ध हो रहा हो ।","फूलमती अपने कमरे में जाकर लेटी, तो उसे मालूम हुआ, उसकी कमर टूट गयी है ।" बेचारी स्त्रियाँ प्रपने भाग्य को कोसती हुई अ्पनो-अयनी अटास्यों पर चढकर विवशताप्रण उत्सुक इष्टि से उस तरफ ताऊ रही थी जिघर उनके विचार में कचहरी थी ।,केवल वकीलों की कानाफूसी और सैन कभी-कभी इस निस्तब्धता को भंग कर देती थी ।,"बेचारी स्त्रियाँ अपने भाग्य को कोसती हुई अपनी-अपनी अटारियों पर चढ़कर विवशतापूर्ण उत्सुक दृष्टि से उस तरफ ताक रही थीं, जिधर उनके विचार से कचहरी थी ।" "सुभद्रा जब गंगा नहाने जाती, तो सुमन को साथ ले लेती ।",दोनों स्त्रियों में मेल-मिलाव बढ़ने लगा ।,"सुभद्रा जब गंगा नहाने जाती, तो सुमन को साथ ले लेती ।" यह तो झूठी शहादत हुई ।,बस समझ लो कि आदमी बन जाओगे ।,यह तो झूठी शहादत हुई । इंटें जितनी ही ज्यादा होतीं उतनी ही ज्यादा कौड़ियाँ मिलती ।,यहाँ वस्तुतः उनकी स्वाधीनता नष्ट हो जाती है ।,ईंटें जितनी ही ज्यादा होतीं उतनी ही ज्यादा कौड़ियाँ मिलतीं । कोई योगो भो सम्राधि में इतना एडाम्र न होता होगा ।,अब भूल कर भी घर पर न रहेंगे ।,कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता होगा । "पत्म--जी नहीं, वीमार तो नहीं हूँ; हाँ, परेशान वहुत रहा ।",बिलकुल पहचाने नहीं जाते ।,"पह्म -- जी नहीं, बीमार तो नहीं हूँ, हाँ परेशान बहुत रहा ।" मेरा काम ज्ली को शिक्षा देना तो नहीं है ।,"बुढ़ियों का तो दिन-भर ताँता लगा रहता है , कोई कहाँ तक उनके चरण छुए और क्यों छुए ?",मेरा काम स्त्री को शिक्षा देना तो नहीं है । "न कुली की जरूरत, न मजूर की ।","उसका सारा ज्ञान, सारी चेष्टा, सारा विवेक इस आघात का विरोध करने लगा ।","न कुली की जरूरत, न मजूर की ।" "में घूम-धामकर कभी नौ बजे आया, कभी दस बजे ।","जब मेरा ब्याह हुआ था, तब उनकी यही उम्र थी, और सूरत भी बिलकुल यही ।","मैं घूम-घामकर कभी नौ बजे आया, कभी दस बजे ।" "मैं स्वयं नहीं कह सकता कि वह कौन-सी बात थी, जिसने मुझे सरकार की ओर खींचा ।","वह न सुनें, तो जो उनसे बड़ा हाकिम हो, उससे कहें-सुनें, और जब तक सरकार परजा के साथ न्याय न करे, दम न लें ।","मैं स्वयं नहीं कह सकता कि वह कौन-सी बात थी, जिसने मुझे सरकार की ओर खींचा ।" "शुप्त सभाएं बनने रूपों, शस्त्र जमा दिये जामे लगे, और थोड़े ही दिलों में डढाफो' का बाफार गरस हो गया ।","माधवी को ऐसा मालूम हो रहा था कि स्वर्ग के द्वार सामने खुले हैं और स्वर्ग की देवियाँ अंचल फैला-फैलाकर आशीर्वाद दे रही हैं, मानो उसके अंतस्तल में प्रकाश की लहरें-सी उठ रही हैं ।","गुप्त सभाएँ बनने लगीं, शस्त्रस जमा किये जाने लगे और थोड़े ही दिनों में डाकों का बाजार गरम हो गया ।" तुमने कहाँ पाये ये बीस रुपये १,नाम कट गया,तुमने कहाँ पाए ये बीस रुपये डाक्टर श्यामाचरण झौर कुंवर साहब द न्‍ ४ . के विषय में ग्रभी तक कुछ निदचय नहीं हो सका था।,"प्रभाकरराव ओर रमेशदत्त, रुस्तम भाई ओर पद्मसिंह इस प्रस्ताव के पक्ष में थे ।",डाक्टर श्यामाचरण और कुँवर साहब के विषय में अभी तक कुछ निश्चय नहीं हो सका था । उसे केबल यही लौ लगी थी कि दुर्गा के दरशन पारऊँ ।,"न पलंग पर सोयी, न केशो को सँवारा और न नेत्रों में सुर्मा लगाया ।",उसे केवल यही लौ लगी थी कि दुर्गा के दर्शन पाऊँ । "खुदा के लिए मुभाफ़ करो, वरना दम तोनों का खूब तुम्हारो गरदन पर होगा ।",इसकी हमें जरा भी खबर न थी कि वह तुम्हें छेड़ने लगेगा ।,"खुदा के लिए मुआफ़ करो, वरना हम तीनों का खून तुम्हारी गरदन पर होगा ।" "पति ब्रह्मसमाज में है, तो स्त्री पाषाण-पूजकों में ।",शायद मेरे मरने से लोगों को खुशी होगी ।,"पति ब्रह्मसमाज में है, तो स्त्री पाषाण-पूजकों में ।" "हमें भी बताओ सूरे, कौन-सा मंत्र जगाया था ?",ठाकुरदीन यंत्र-मंत्र का कायल था ।,"हमें भी बताओ सूरे, कौन-सा मंत्र जगाया था ?" उधर रमा ने आगे बढ़कर एक ताँगा किया और देवीदीन के घर जा पहुँचा ।,"एक मिनट तक खड़े सोचते रहे, फिर लौट पड़े और ज़ोहरा से बातें करते हुए पुलिस स्टेशन की तरफ चले गए ।",उधर रमा ने आगे बढ़कर एक तांगा किया और देवीदीन के घर जा पहुँचा । जैसे माता खेलन्दे बच्चे के पीछे दौड़-दौड़कर उसे खिलातो है 5पी तरह नेना भाभी को खिलाने लगी,देखती नहीं हो द्वार पर डोली खड़ी है,जैसे माता खेलते बच्चे के पीछे दौड़-दौड़कर उसे खिलाती है उसी तरह नैना भाभी को खिलाने लगी अप्णा--इसमें से एक कौड़ी भी न मिलेगी ।,मुख्तार– पांच रुपया सैकड़े तो हमारा बंधा हुआ है ।,कृष्णचन्द्र– इसमें से एक कौड़ी भी न मिलेगी । "कल ठाकुस्जी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे ।",पर नाम कोई नहीं बताता ।,"कल ठाकुर जी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे ।" श्रद्धामय सद्दानुभूति का आनन्द तो उन्हेंनि त्नियों दो में पाया ।,स्त्रियों के अधिकारों का उनसे बड़ा रक्षक शायद ही कोई मिले ।,श्रद्धामय सहानुभूति का आनन्द तो उन्होंने स्त्रियों ही में पाया । "जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते ।",वह लौट पड़ा ।,"जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते ।" बोले--पुलिस में रिपोर्ट करता और तहकीकात कराना व्यथ है |,"वह देखो , तुम्हारी बैठक है , तुम यहीं बैठकर पढ़ोगे ।",बोले - पुलिस में रिपोर्ट करना और तहकीकात कराना व्यर्थ है । दु्छवता ने जल्द दो खाट पर ढाल दिया ।,"उसने कितनी बार ईश्वर से विनती की थी, मुझे स्वामी के सामने उठा लेना; मगर उसने यह विनती स्वीकार न की ।",दुर्बलता ने जल्द ही खाट पर डाल दिया । म्युनिसिपल आफिस में मेरी हाज़िरी मौजूद है ।,' 'इससे आपको कोई बहस नहीं ।,म्युनिसिपल आफिस में मेरी हाजिरी मौजूद है । "रमा की इच्छा हुई, कि झले के पास जाकर रतन से बातें करे ; पर वकील साहब को खड़े देखकर वह संकोच के मारे उधर न जा सका |","एक आम के वृक्ष में झूला पडा था, बिजली की बत्तियां जल रही थीं, बच्चे झूला झूल रहे थे और रतन खड़ी झुला रही थी ।","रमा की इच्छा हुई, कि झूले के पास जाकर रतन से बातें करे, पर वकील साहब को खड़े देखकर वह संकोच के मारे उधर न जा सका ।" उसके पास अपनी सफ़ाई देने के लिए एक भो तर्क एक भी शब्दन था,ऐसी लताड़ उसने उम्र में कभी न पाई थी,उसके पास अपनी सफाई देने के लिए एक भी तर्क एक भी शब्द न था कांग्रेस-क्मेटी के प्रधान ने परिचय के बाद पूछा- तुम्दारे हौ ऊपर तो बाय»- काठ-कमेटो ने १०१) का तावान लगाया है १ जी हाँ ।,"' 'हाँ, मेरे कहने से जाओ ।",काँग्रेस-कमेटी के प्रधान ने परिचय के बाद पूछा- तुम्हारे ही ऊपर तो बायकाट-कमेटी ने १०१) का तावान लगाया है ? "मेरे लिए तुम समेस्व हो, जब तक में समझता हूँ झि तुप मेरी हो ।",महफिल सजी हुई थी ।,"मेरे लिए तुम सर्वस्व हो, जब तक मैं समझता हूँ कि तुम मेरी हो ।" "कोई मुमूसे सहायता साँगता है, कोई मेरी निन्‍दा करता है, कोई सराहता है, कोई गालियाँ देता है |",मुस्कराने की चेष्टा करके बोले भूलना बड़े आदमियों का काम है ।,"कोई मुझसे सहायता माँगता है, कोई मेरी निन्दा करता है, कोई सराहता है, कोई गालियाँ देता है ।" "वह यह नहीं देखते कि हमारे पास जो विद्या, ज्ञान, विचार . _झौर आचररा है, वह सव उन्हीं पूर्वजों की कमाई है ।",अपने सामने उन्हें कुछ समझते ही नहीं ।,"वह देखते कि हमारे पास जो विद्या, ज्ञान, विचार और आचरण है, वह सब उन्हीं पूर्वजों की कमाई है ।" "मुझे तुम्दारे पिताजी की सम्पत्ति का मोह नहीं है, में तो केबल तुम्दारा प्रेम चाहती हूँ और उध्ी में प्रसन्न हूँ ।","शायद उन्होंने तुम्हें भी डाँट-फटकार बतायी होगी , ऐसी दशा में मैं तुम्हारा निश्चय सुनने के लिए विकल हो रही हूँ ।","मुझे तुम्हारे पिताजी की सम्पत्ति का मोह नहीं है , मैं तो केवल तुम्हारा प्रेम चाहती हूँ और उसी में प्रसन्न हूँ ।" वह अब उद्ी को नोंद सोतो और उठी की नौद सावती थी ।,यहाँ तो जब ऐसे रुपये आते हैं तो कोई-न-कोई नुकसान भी अवश्य हो जाता है ।,वह अब उसी की नींद सोती और उसी की नींद जागती थी । वह विना कुछ कहे चली गयी ।,"अच्छा, आज तू देख ले कि में कौन हूँ ?",वह बिना कुछ कहे चली गई । छुछ माथे पर तिलक लगा रहे थे और कुछ ल्मेग मस्वर वेदमंत्र बढ़ रहे थे ।,यहाँ मैंने हजारों मनुष्यों को इस ठंडे पानी में डुबकी लगाते हुए देखा ।,कुछ माथे पर तिलक लगा रहे थे और कुछ लोग सस्वर वेदमंत्र पढ़ रहे थे । रात भी तो कुछ नहीं खाया था ।,निर्मला कुछ न बोली।,रात भी तो कुछ नहीं खाया था। .. इसी उधेड़-बुन में वह आज रतन से न मिल सकी ।,दस रूपये का पुरस्कार रख दूं ।,इसी उधेड़-बुन में वह आज रतन से न मिल सकी । "दाऊद खेत्यित से घर पहुँच गया ; डिन्तु अब बढ दाऊद न था, णो इसलाम फो जड़ से खोदकर फेंक देना चाहता था ।","जाओ, तुम्हें खुदा-ए-पाक घर पहुँचावे ।","दाऊद खैरियत से घर पहुँच गया; किंतु अब वह दाऊद न था, जो इस्लाम को जड़ से खोदकर फेंक देना चाहता था ।" "जालपा ने ज़ब्त तो किया था, पर इस उत्कंठा की दशा में आज उससे कुछ खाया न गया ।",वह उस कमरे में न गया ।,"जालपा ने ज़ब्त तो किया था, पर इस उत्कंठा की दशा में आज उससे कुछ खाया न गया ।" "मैंने कहा, मुझे कोई उल्लू समभा है क्या ?",मुझसे सबने व्याख्यान देने को कहा ।,मैंने कहा -- मुझे कोई उल्लू समझा है क्या ? "नाटे कद का आदमी है, काले तवे का सा रग, देह गठी हुई है ।","वह रूप , यौवन और विकास की देवी इस तरह मुरझा गयी थी , जैसे किसी ने उसके प्राणों को चूसकर निकाल लिया हो ।","नाटे कद का आदमी है , काले तवे का-सा रंग देह गठी हुई ।" "तुम्हारे पिता से मिलेगा, तुम्हारी माता को समझाऊँगा, तुम्हारी घरवाली से बातचीत करूँगा ।","हाँ, कहीं बुढिया से न कह देना,नहीं तो उसके पेट में पानी न पचेगा ।","तुम्हारे पिता से मिलूँगा, तुम्हारी माता को समझाऊँगा,तुम्हारी घरवाली से बातचीत करूँगा ।" "दिनों का फेर है भाई, सब दिन बराबर नहीं जाते ।",यह जवानी बहुत दिन न रहेगी ।,"दिनों का फेर है भाई, सब दिन बराबर नहीं जाते ।" ताजिरात हिन्द मे उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता था ।,"न नाई उसकी हजामत बनावे, न कहार उसका पानी भरे, न कोई उसे छुए ।",ताजीरात हिन्द में उसका कोई उदाहरण नहीं मिलता था । दानो अ्रव बहुत कम साथ बेठतीं |,गोविंदी और कालिन्दी में बहनों का-सा प्रेम है ।,दोनों अब बहुत कम साथ बैठतीं । "प्रेमिझा भी विचित्र थो, जो पत्रो' में मिपरी क ढली घेल देती, मार प्रययक्ष में इृष्टिपात भी त करती थी ।",एक रुपये के बदले पाँच-पाँच रुपये हाथ लगे ।,"प्रेमिका भी विचित्र थी, जो पत्रों में मिसरी की डली घोल देती, मगर प्रत्यक्ष दृष्टिपात भी न करती थी ।" सारा घर सुन्नो का शत्रु हो रद्दा है; लेकिन चह वहाँ से टलने दा नाम नहीं लेती |,केशों पर सफेदी दौड़ चली थी और एक एक अंग बूढ़ा हो रहा था ।,"सारा घर सुन्नी का शत्रु हो रहा है, लेकिन वह वहाँ से टलने का नाम नहीं लेता ।" यह शब्द उसके कलेजे में चुभ गए थे।,"उसने चलते-चलते कहा था, जाओ अब मुँह मत दिखाना ।",यह शब्द उसके कलेजे में चुभ गए थे । "कहीं विदाई होती यो, कही बधाइयाँ आती वीं, कही ग्राला-वेजाना होता था, कही बादे बजे थे ।",तीन साल तक प्रतिवर्ष विवाह के दिनों में यह प्रश्न उठता रहा पर ज्ञानप्रकाश अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहा ।,कहीं बिदाई होती थी कहीं बधाइयाँ आती थीं कहीं गाना-बजाना होता था कहीं बाजे बजते थे । "ऊपर के बर्थ पर नक्षर डाछो, पेक्षाबखाने में देखा, देचों के नोचे देखा, बहू कहं न थी ।",गाड़ी तेजी से चलती जा रही थी; मगर बहू का पता न था ।,"ऊपर के बर्थ पर नजर डाली, पेशाबखाने में देखा, बेंचों के नीचे देखा, बहू कहीं न थी ।" "देहातियों को जो लोग सरल कहते हैं, बड़ी भूल करते हैं ।","जब कहीं शरण न मिली, तो यह पत्र लिखवा दिया ।","देहातियों को जो लोग सरल कहते हैं, बड़ी भूल करते हैं ।" सारी कॉसिल पजे भाड़कर मेरे पीछे पड गई ।,व्यक्तगित आक्षेप किए जाने लगे ।,सारी कौंसिल पंजे झाड़कर मेरे पीछे पड़ गई । "पत्रों मे प्रंस के चुने हुए शब्द, चुने हुए वाक्य, चुने हुए सबोधन भरे दोते हैं ।",फिर न-जाने क्या जी में आया कि एक पत्थर पर अपना सिर पटक दिया ।,"पत्रों में प्रेम के चुने हुए शब्द, चुने हुए वाक्य, चुने हुए संबोधन भरे होते हैं ।" "ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल, भपनी विपन्तता से बेखबर, सन्तोष और थेये में मगन चला जा रह्दा था ।",पचास एक थैली-भर होता है ।,"ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था ।" लेकिन अधिकार पाते ही छाडे बारबर में एक विचित्र परिवर्तन हो गया ।,"और जिस दिन तुम्हारे दर्शन हुये, वह तो मेरी जिन्दगी का सबसे मुबारक दिन था ।",लेकिन अधिकार पाते ही लार्ड बारबर में एक विचित्र परिवर्तन हो गया । "जब होश आया, तो वहाँ सन्‍्नाठा था ।",अकेला मैं घंटेघर की तरह वहीं डटा रहा ।,"जब होश आया , तो वहाँ सन्नाटा था ।" ( ६ ) दूसरे दिन प्रातःकाल मिस जोशी ने मेहमानों के नास्त दावतो काडे भेजे और उत्सव मनाने की तैयारियाँ करने ऊूगी |,यह कहकर उसने बालक को गोद में उठाया और उसे गले से लगा कर बाहर निकल आयी ।,( ६ ) दूसरे दिन प्रात:काल मिस जोशी ने मेहमानों के नाम दावती कार्ड भेजे और उत्सव मनाने की तैयारियाँ करने लगी । देवीजी उनको हाथों पर लिये रहती |,दोनों में दोस्ती हो गई ।,देवीजी उनको हाथों पर लिए रहतीं । श्र सुमेर ने मतई को मिह्क् दिया-- तुम जमादार बात सममते नहीं बोज में कूद पढ़ते द्वो,हमको यहाँ कौल-कसम भी कर लेनी होगी कि जब तक हड़ताल रहे कोई किसी की जगह पर न जाय चाहे भूखों मर भले ही जायें,सुमेर ने मतई को झिड़क दिया-तुम जमादार बात समझते नहीं बीच में कूद पड़ते हो वह महरी के साथ सुभद्रा के घर गयी झौर दो-तीन घण्टे तक बैठी रही।,"वही हुआ, जिसका उसे भय था ।",वह महरी के साथ सुभद्रा के घर गई ओर दो-तीन घण्टे तक बेठी रही । इसके बाद फुस-फुछ करके बातें होने लगीं ।,जामे से बाहर हो गये ।,इसके बाद फुस-फुस करके बातें होने लगीं । "रामठ्हल ने यह शोक-समाचार सुना, तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ |",बीमार पड़ गये ।,"रामटहल ने यह शोक-समाचार सुना, तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ ।" अमरकान्त का कल्पता-चित्र उसको अआँखो के सामने भा खढ़ा हुआ--क्रेदियो का जाँघिया और कन्टोप पहने बढ़ें-बढ़े बल बढ़ाये मुख मलिन क्रेदियों के बीच में चक्को पीचता हुआ,अमर के त्याग और सेवा की उसने जिन शब्दों में सराहना की उसने जैसे सुखदा के अंत:करण की सारी मलिनताओं को धोकर निर्मल कर दिया जैसे उसके मन में प्रकाश आ गया हो और उसकी सारी शंकाएँ और चिंताएँ अंधकार की भांति मिट गई हों,अमरकान्त का कल्पना-चित्र उसकी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ-कैदियों का जाँघिया-कंटोप पहने बड़े-बड़े बाल बढ़ाए मुख मलिन कैदियों के बीच में चक्की पीसता हुआ बीमार के पास बेठने से आदमो सचमुच बोमार दो जाता है ।,वसुधा की एक हथेली पर अँगुलियों से रेखा खींचने में मग्न थे ।,बीमार के पास बैठने से आदमी सचमुच बीमार हो जाता है । "इस अवस्था में कोई दूसरी स्त्री ईर्ष्या से बावली हो जाती, मुझसे नदी तो सुशीला से तो भ्रवश्य ही जलने लगढी, आप कुढती, उसे ब्यंगों से छेदती श्र मुझे धर, कपटी, पापाण, न जाने क्या-क्या कद्दती ।",कौन ऐसा हृदयशून्य प्राणी है जो निष्काम सेवा के वशीभूत न हो जाय ।,"इस अवस्था में कोई दूसरी स्त्री ईर्ष्या से बावली हो जाती, मुझसे नहीं तो सुशीला से तो अवश्य ही जलने लगती, आप कुढ़ती, उसे व्यंग्यों से छेदती और मुझे धूर्त, कपटी, पाषाण, न जाने क्या-क्या कहती ।" अ्रव॑ यह धुल भी नहीं सकते ।,"दीनानाथ -- अजी, रहने भी दो, सारे कपड़े सत्यानाश कर दिए, अब उपाय बता रही हो ।",अब यह धुल भी नहीं सकते । "साउ-ससुर की अप्रतन्नता की तो उप्ते विशेष चिन्ता ने थी, वे पुराने ज़प्राने के कोम थे, जप लड़कियाँ गरदव छा घोम्क और पूव॑जन्धों का पाप समझो जातो था ।",तब एक आदमी ने कहा- अबे हम ३६) देते हैं ।,"सास-ससुर की अप्रसन्नता की तो उसे विशेष चिंता न थी, वे पुराने जमाने के लोग थे, जब लड़कियाँ गरदन का बोझ और पूर्वजन्मों का पाप समझी जाती थीं ।" आंप मुझे शौक़ से हिरासत में लेलें ।,तुमने इसे कौनसी बूटी सुंघा दी ?,आप मुझे शौक से हिरासत में ले लें । ईसू तुझे अपने दामन में ले ।,दो में से एक को दबना पड़ेगा ।,ईसू तुझे अपने दामन में ले । सत्य विश्वासोत्पादक होता है ।,मुझे तो यही बड़ा अचरज है ।,सत्य विश्वासोत्पादक होता है । "पण्ठित--लछालटेन लाओ, ज़रा मेरी लकड़ी उठा लेना ।",माया- मेरी कोठरी में गया है ।,"पण्डित- लालटेन लाओ, जरा मेरी लकड़ी उठा लेना ।" भूले-भटके को प्रेम ही सन्मार्ग पर लाता है ।,खुदा उसे सच्चा रास्ता दिखाए ।,भूले-भटके को प्रेम ही सन्मार्ग पर लाता है । "दो-तीन हजार का श्रनाज भर लिया जाय, तो अगहन -पूस तक सवाय हो जायगा ।","रुपये उसने दे ही दिये हैं, हमें तो सेंत में यश मिलेगा ।","दो-तीन हजार का अनाज भर लिया जाए, तो अगहन-पूस तक सवाया हो जायगा ।" यात्रा की तैयारियाँ करने लगा प्रस्यान का दिन निश्चित हो गया,घर वही हे पर चारों ओर उदासी छायी हुई है,यात्रा की तेयारियाँ करने लगा प्रस्थान का दिन निश्चित हो गया रही पहली बात ।,न मानेंगे तो मैं उसके गुजारे का और कोई प्रबन्ध करूंगा ।,रही पहली बात । "तुम्हारा चाम अमर हो जायगा और घर-घर तुम्द्ारी पूजा होगी ! कानूनी -- अगर तुम्दारा ज़्याल है. कि में नाम और यज्ञ के लिए देश की सेवा कर रहा हूँ, तो मुझे यही कहवा पढ़ेगा कि तुमने सुझे रत्ती-भर भी नहीं समस्का ।","पाँच लाख क्या , पाँच करोड़ भी हों , तब भी ईश्वर चाहेगा , तो नीयत में खलल न आने दूंगा ।","तुम्हारा नाम अमर हो जायगा और घर-घर तुम्हारी पूजा होगी ! ’ कानूनी –‘ अगर तुम्हारा खयाल है कि मैं नाम और यश के लिए देश की सेवा कर रहा हूँ , तो मुझे यही कहना पड़ेगा कि तुमने मुझे रत्ती-भर भी नहीं समझा ।" झुम्ते विद्धास है कि जीवन का यद ऊँ चा और पवित्र आदश सदेव तुम्दारे सामने रहेगा ।,"यह कहते-कहते करूणा का आभाहीन मुखमण्डल जयोतिर्मय हो गया, मानो उसकी आत्मा दिव्य हो गयी हो ।",मुझे विश्वास है कि जीवन-भर यह ऊँचा और पवित्र आदर्श सदैव तुम्हारे सामने रहेगा । "अगर उनको कुशल से घर छे जाना चाहती हो, तो बेठके गिन दो ।",एक दिन एक बिसाती कुंजियों का गुच्छा बेचने आ निकला ।,"अगर उनको कुशल से घर ले जाना चाहती हो , तो बैठकें गिन दो ।" सक्ोना का द्वाल-चाल जानने के लिए हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता था श,कहीं बैठने की मुहलत ही न मिली,सकीना का हाल जानने के लिए हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता था ः नहीं भाई साहब मेरे पास इस वक्त बिलकुल रुपये नहीं हैं,आप ज्यादा नहीं एक हजार हिस्से खरीद लें,नहीं भाई साहब मेरे पास इस वक्त बिलकुल रुपए नहीं हैं "सुनता हूँ, घर-वार छोड़कर किसी तरफ निकल गया है ।","शर्माजी -- कुछ भी नहीं, न जाने कहाँ गायब हो गई, गजाधर भी नहीं दिखाई दिया ।","सुनता हूँ,घर-बार छोड़कर किसी तरफ निकल गया है ।" "एक से कढ में बारा न्यारा होंता था, नाब छूबती थो या पार जाती थो |","बँगले के द्वार पर भी मिल गई, तो जान बच जायगी ।","एक सेकेंड में वारा-न्यारा होता था, नाव डूबती थी या पार जाती थी ।" वह बरामदे में बैठी थी ।,ज़रा देर में जार्जटाउन आ गया ।,वह बरामदे में बैठी थी । "उकोड़ी घर पहुँचा, तो अंधेरा हो गया था |","ईश्वर चाहेगा, तो वह दिन भी आयेगा जब आपका नुकसान पूरा होगा ।",छकौड़ी घर पहुँचा तो अंधेरा हो गया था । कितना अच्छा घर-बर था,लड़की है झुनिया वह भी नसीब की खोटी,कितना अच्छा घर-बार था "सारी बिरादरों जमा हो जाती, घेर केतो, घर को सफ़ाई बन्द हो जातो, कोई द्वार पर छाड़ तक ने ऊपाता ।","कौन बैठ कर खाऊँगा, काम तो करूँगा ।","सारी बिरादरी जमा हो जाती, घेर लेती, घर की सफाई बन्द हो जाती, कोई द्वार पर झाड़ू तक न लगाता ।" सारा कस्बा आपके लिए जान देने को तेयार है ।,"मैं आगे से रगेदता हूँ , तुम पीछे से रगेदो , दोहरी मार पड़ेगी तो भाग खड़ा होगा ।",सारा कस्बा आपके लिए जान देने को तैयार है । "कजाकी ने रश्नोसे होकर क्हा--सरकार, अ्रव कमी देर न होगी ।","बोले - अच्छा, थैला रख दे और अपने घर की राह ले ।","कजाकी ने रुआँसे हो कर कहा -सरकार, अब कभी देर न होगी ।" उसने अपना हाथ छुडा लिया और फिर बिछावन लपेटने लगी ।,जालपा अपने कमरे में जाकर बिस्तर लपेटने लगी कि रमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला--तुम्हें मेरी कसम जो इस वक्त जाने का नाम लो! जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा--तुम्हारी कसम की हमें कुछ परवा नहीं है ।,उसने अपना हाथ छुडालिया और फिर बिछावन लपेटने लगी । पिता जी बूढ़े थे; सीने पर जलम् गहरा छगा ।,देखा कि कई आदमी हाथ में मशाल लिये हुए खड़े हैं और एक हाथी अपने सूँड से उन एरंड के वृक्षों को उखाड़ रहा है जो द्वार पर द्वारपालों की भाँति खड़े थे ।,पिता जी बूढ़े थे सीने पर जखम गहरा लगा । "सभी खिलाड़ी मन लगाकर खेलते हैं, सभी चाहते हैं कि हमारी जीत हो; लेकिन जीत एक ही की होती है, तो क्या इससे हारनेवाले हिम्मत हार जाते हैं ?","राजा-सूरदास, नीयत को कौन देखता है ।","सभी खिलाड़ी मन लगाकर खेलते हैं, सभी चाहते हैं कि हमारी जीत हो; लेकिन जीत एक ही की होती है, तो क्या इससे हारनेवाले हिम्मत हार जाते हैं ?" निर्मेला उनकी दोधारी तलवार से काँपती रहती थी ।,अब सीधे निर्मला के पास भेज देतीं।,निर्मला उनकी दोधारी तलवार से काँपती रहती थी। मित्रगणु आकर बर्गीचे में हौज के किनारे कुरसियों पर बैठे थे ।,इतने बड़े सुन्दर और सुकोमल सुफेदे स्वयं उनकी निगाह से न गुजरे थे ।,मित्रगण आ कर बगीचे के हौज के किनारे कुरसियों पर बैठे थे । चोधराइन--छुझे तो उसके घर जाते शरम लगती है ।,"पहले हमें शंका होती थी कि पतुरिया की लड़की न जाने कैसी हो, कैसी न हो, पर अब सारी शंका मिट गई ।",' चौधराइन -'मुझे तो उसके घर जाते सरम लगती है । यो आकर ताँगे के पास खड़ी हो गई यो छुरो निकाली यो ऋषटी ये दोनों दूकान पर चढ़े थों दूसरे गोरे पर टूटी,कोई कुछ पूछता तो भाग जाती थी,यों आकर ताँगे के पास खड़ी हो गई यों छुरी निकाली यों झपटी यों दोनों दूकान पर चढ़े यों दूसरे गोरे पर टूटी ईसाई बैरिस्टर ने क्लार्क से कहा-मेरे विचार में व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी की जमीन पर कब्जा करना मुनासिब नहीं है ।,उनके कहने से राजा साहब ने वह जमीन मुझसे छीन ली है ।,ईसाई बैरिस्टर ने क्लार्क से कहा-मेरे विचार में व्यक्तिगत लाभ के लिए किसी की जमीन पर कब्जा करना मुनासिब नहीं है । "बड़ी चिंता हुईं, मद्यात्माजी को क्या खिलाऊँ ।","सीधा-सादा गरीब आदमी था, अपने काम-से-काम, न किसी के लेने में, न किसी के देने में ।","बड़ी चिन्ता हुई, महात्माजी को क्या खिलाऊँ ।" दुकानदार ने कष्टा--यद्द क्या करते हो बावूजो एक मजूर छे छो,उसने एक खद़दर की दूकान से कमीशन पर बेचने के लिए कई थान खद़दर की साड़ियाँ जंफर कुर्ते चादरें आदि ले लीं और उन्हें खुद अपनी पीठ पर लादकर बेचने चला,दूकानदार ने कहा-यह क्या करते हो बाबू एक मजूर ले लो यह निर्वासन उसे घोर अनन्‍्याग्र प्रतीत होता था ।,"उसे घर आने में देर हो गई थी, इसके लिए दो-चार घुड़कियाँ बहुत थी ।",यह निर्वासन उसे घोर अन्याय प्रतीत होता था । अब वह अपने को घोखा न दे सका ।,एक तपस्या-सी कर रहे थे ।,अब वह अपने को धोखा न दे सका । बहुत कहने-सुनने पर वाबू साहब राजी हुए ।,इतने में बड़े बाबू भी दफ्तर में आ पहुँचे ।,बहुत कहने-सुनने पर बाबू साहब राजी हुए । ( मुसाहबो' भी तरफ देख कर ) देखी तुम छोगो ने इसको नीयत ! में अपनी आस्तीन मेः साँप पाले हुए था ।,अब मैं इसे कुत्तों से नुचवाऊँगा ।,(मुसाहबों की तरफ देख कर) देखा तुम लोगों ने इसकी नीयत ! मैं अपनी आस्तीन में साँप पाले हुए था । "उसने कई वार डॉक्टर महोदय से वेतन वढाने के लिए प्रार्थना की, परन्तु डॉक्टर साहब नौकरों की वेतन-बूद्धि को छूत की बीमारी समझते थे, जो एक से अनेकों को ग्रस लेती है ।",कभी-कभी फलों पर भी हाथ साफ किया करता ।,"उसने कई बार डॉक्टर महोदय से वेतन बढ़ाने के लिए प्रार्थना की, परंतु डॉक्टर साहब नौकर की वेतन-वृद्धि को छूत की बीमारी समझते थे, जो एक से अनेक को ग्रस लेती है ।" जालपा ने कंगन निकालकर रतन के हाथों में पहना दिये |,तुम्हारे ख़ातिर दे दूंगी ।,जालपा ने कंगन निकालकर रतन के हाथों में पहना दिए । राम-राम ! मुन्शी वेजनाथ गाँव के भ्राठ झ्ाने के हिस्सेदार थे ।,"दूर-दूर से उसके संबंधी आए होंगे, दूर-दूर के गाँवों के लोग बारात में आएँगे, वह अपने मन में क्या कहेंगे ।",राम राम! मुंशी बेजनाथ गाँव के आठ आने के हिस्सेदार थे । "नहीं, वह उप्रके चरित्र की बढ़ी कठोरता से देख-भाल करतो है ।",करूणा का संतृप्त हृदय उसे देखकर शीतल हो जाता ।,"नहीं, वह उसके चरित्र की बड़ी कठोरता से देख-भाल करती है ।" अब इस घर में मैं क्षण-भर न रुकूगी ।,"मेरा जिस वक्त जी चाहेगा, जाऊँगी, जिस वक्त जी चाहेगा, आऊँगी ।",अब इस घर में मैं क्षण-भर न रूकूंगी । लेकिन यह नहीं हो सकता कि में खुद लूट मचाऊँ ओर उन्हें लूटने दूँ |,यही कारण था कि वह अपने मातहतों के साथ बड़ी नरमी का व्यवहार करते थे ।,लेकिन यह नहीं हो सकता कि मैं खुद लूट मचाऊँ और उन्हें लूटने दूँ । अब में बिलकुल अच्छो हूँ ।,घर के डाक्टर आये ।,अब मैं बिलकुल अच्छी हूँ । अमर बाहर निकलकर बोला--हाँ अभी नींद नहीं आई,उसी वक्त चौधरी के घर का द्वार खुला और मुन्नी कलसा लिए पानी भरने निकली,अमर बाहर निकलकर बोला-हां अभी नींद नहीं आई "औरों की वह प्रेमिका है, लेकिन दयक्षिप्णेन्कों- आशिक, जिसके कदमों की आहट पाकर उसके अन्दर एक तूफान उठने लगता है ।",मैंने अब जरा व्यंग्य-भाव से कहा -- लेकिन छः महीने में लड़का होते आज ही सुना ।,"औरों की वह प्रेमिका है ; लेकिन दयाकृष्ण की आशिक , जिसके कदमों की आहट पाकर उसके अन्दर एक तूफान उठने लगता है ।" "दा, भाष इतना को जिए हि आज से ज़रा तन जाइए ।",बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं ।,"हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से जरा तन जाइए ।" कड़ककर बोले--हस उन नसकद्रामों में नहीं हैं जो कोडियों पर अ्रपना ईमान बेचते फिरते हैं ।,"किसान ने उनकी तरफ सहमी हुई आँखों से देखा, परंतु किसी से मदद माँगने का साहस न हुआ ।","कडककर बोले, 'हम उन नमकहरामों में नहीं है जो कौडियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं ।" "इनमें कितनी दया, कितना विवेक, कितनी सहानुभूति होगी, तभी तो खुदा ने इन्हें इतना माना है ।",नगर में धर्म का यह माहात्म्य देखकर देखकर जामिद को बड़ा कुतुहल और आनन्द हुआ ।,"इनमें कितनी दया, कितना विवेक , कितनी सहानुभूति होगी, तभी तो ख़ुदा ने इतना इन्हें माना है ।" "भरे धर्मात्माजी, एक बार पीके देखिए ।","मैं- भाई, मुझे सूट नहीं करती ?","अरे धर्मात्माजी, एक बार पी के देखिए ।" "डाक्टर कद्दते हैं, बचने को कोई आशा वहाँ, निमों- निया दो गया है ।",मैं यह सबकुछ न करके उलटे और मुँह लटकाये रहती हूँ ।,"डाक्टर कहते हैं, बचने की कोई आशा नहीं, निमोनिया हो गया है ।" हमने कुछ नहीं संचा तो भोगें क्‍या,भगवान ने तो सबको बराबर ही बनाया है,हमने कुछ नहीं संचा तो भोगें क्या यही प्रश्न एक सर्वव्यापी पिशाच की भाँति उसे घूरता दिखायी देता था ।,कैसे क्या होगा! इससे अधिक वह इस समस्या की और व्याख्या न कर सकता था ।,यही प्रश्न एक सर्वव्यापी पिशाच की भांति उसे घूरता दिखाई देता था । "अगर तोन महीने तक एक कौडी का भो अपव्यय न करें, तो घड़ी मिछ सकती हैं ।",मंत्री-मेरे विचार में वहाँ अब धरना देने की कोई जरूरत नहीं ।,अगर तीन महीने तक एक कौड़ी का भी अपव्यय न करूँ तो घड़ी मिल सकती है । लेकिन चचा के सामने वह शराफत का पुतला तन जाता था।,"माँ-बाप की बातों पर कान न धरता, प्रायः सम्मुख विवाद करता ।",लेकिन चचा के सामने वह शराफत का पुतला बन जाता था । वे लोग इन अभार्गों को देख-देख हँसते और तालियाँ बजाते थे ।,सबसे पहले शिखा पर छुरा फिरा ।,वे लोग इन अभागों को देख-देख हँसते और तालियाँ बजाते थे । उन्होंने देखा भमर भकेला हो सारा यश लिये जाता है और मेरे पल्‍ले अपयश के सिवा और कुछ नहीं पडता तो उन्हेंने पहलू बदला,तब तक तुम लोग खरीफ का काम शुरू कर दो,उन्होंने देखा अकेला ही सारा यश लिए जाता है और मेरे पल्ले अपयश के सिवा और कुछ नहीं पड़ता तो उन्होंने पहलू बदला उसका मुँट लाल हो रहा था और घोडा पसीने से लव-पथ ।,"सूर्य की आँखें सामने से हटकर सिर पर जा पहुँची थीं, इसलिए उनमें शील न था ।",उसका मुँह लाल हो रहा था और घोड़ा पसीने से लथपथ । इसलिए वह अब बिना किसी विशेष कार्य के कहीं जाते ही न ये |,यहाँ तक कि वह उसे अपनी बहली में भी न जोतना चाहते ।,इसलिए वह अब बिना किसी विशेष कार्य के कहीं जाते ही न थे । ", प्लेटफार्म पर सेकड़ों आदम्ियों को भोड़ लग गई थी, और बशौोघर निज भाव छे गालियों की बौछार कर रहे ये ।",अब उससे न रहा गया ।,प्लेट फार्म पर सैकड़ों आदमियों की भीड़ लग गयी थी और वंशीधर निर्लज्ज भाव से गालियों की बौछार कर रहे थे । "उसे भय हुआ कि वह शराब की घूट चाहे मुंह में ले छे, उसे कण्ठ के नीचे नहीं उत्तर सकता ।","अब तो आये दिन जलसे होते हैं , कभी दोस्तों की दावत है , कभी दरिया की सैर , कभी गाना-बजाना , कभी शराब के दौर ।","उसे भय हुआ कि वह शराब का ट चाहे मुँह में ले ले , उसे कण्ठ के नीचे नहीं उतार सकता ।" अब सीधे निर्मला के पास भेज देती।,कचहरी से आकर दिन-भर की कमाई उसे दे देते।,अब सीधे निर्मला के पास भेज देतीं। समय के साथ अगर नहीं चल सकते तो वह तुम्हें पीछे छोड़कर चला जायगा,शराब लाते कहाँ से और पीते भी तो जाते कहाँ,समय के साथ अगर नहीं चल सकते तो वह तुम्हें पीछे छोड़ कर चला जायगा फूलमतो बेझहे काम करतो थी ; पर खाती थो विष के कौर की तरह ।,"उसके जीवन में अब कोई आशा, कोई दिलचस्पी, कोई चिन्ता न थी ।",फूलमती बेकहे काम करती थी; पर खाती थी विष के कौर की तरह । "वह झोपड़ा, जिसमें कभी प्रेम का प्रकाश था, ईडिसके नीचे उन्होंने जीवन के खुखमय दिन काटे थे, जो उनकी कामनाओं का आगार और उपासना का मन्दिर था, अब उनकी अमिलाषाओं की माँति भम्न हो गया था ।","दिन भर की कठिन यात्रा के बाद जब वह उस स्थान पर पहुँचे, तो संध्या हो गयी थी ।","वह झोपड़ा, जिसमें कभी प्रेम का प्रकाश था, जिसके नीचे उन्होंने जीवन के सुखमय दिन काटे थे, जो उनकी कामनाओं का आगार और उपासना का मंदिर था, अब उनकी अभिलाषाओं की भाँति भग्न हो गया था ।" तुम्हारी सजनता तो में जब जानती कि तुम कमीशन के रुपये ले जाकर उनके हवाले कर देते ।,प्रकाश के दिल से बोझ उतर गया ।,तुम्हारी सज्जनता तो मैं जब जानती कि तुम कमीशन के रुपये ले जाकर उनके हवाले कर देते । कोई फरियाद नहीं सुनता ।,"जिसे घूस न दीजिए, वही आपका दुश्मन है ।",कोई फरियाद नहीं सुनता । अपने हेडभास्‍्टर साहब दी को देखो ।,"नाश्ता बन्द हो जाता है, धोबी और नाई से मुँह चुराने लगते हैं; लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर रहे हैं, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बड़ा भाग इज्जत और नेकनामी के साथ निभाया है और एक कुटुंब का पालन किया है, जिसमें सब मिलाकर नौ आदमी थे ।",अपने हेडमास्टर साहब ही को देखो । में एक बार रोज आकर आपका भोजन बना जाया कहाँगो,जब तक आदमी कुछ दिन ठोकरें नहीं खा लेता उसकी आँखें नहीं खुलतीं,मैं एक बार रोज आकर आपका भोजन बना जाएा करूँगी धर्म का फल इस जीवन में नहीं मिलता ।,तुम्हारी जगह तो पीछे छूट गई ।,धर्म का फल इस जीवन में नहीं मिलता । सूरदास-गाने को थोड़े ही कोई मने करता है ।,"दिन भर चुपचाप चरखियों के सामने खड़े-खड़े उकता गए थे, विनोद के लिए उत्सुक हो रहे थे ।",सूरदास-गाने को थोड़े ही कोई मने करता है । हैजे झौर प्लेग के दिन में उनका आत्मसमपंण और विलक्षण त्याग देखकर झ्ाश्चर्य होता था।,अकाल के समय सिर पर आटे का गट्ठर लादे गाँव-गाँव घूमते थे ।,हेजे और प्लेग के दिन में उन का आत्मसमर्पण और विलक्षण त्याग देख कर आश्चर्य होता था । "और [इस महत्त्व-पूर्ण काये के सम्पादन का भार प्ि० मेहता पर रखा गया, जिनसे ज़्यादा स्वामि-भक्त सेवक रियासत में दूसरा न था ।","एजेंट खुश है , तो फिर किसका भय ! कामुकता , लम्पटता और भाँति-भाँति के दुर्व्यसनों की लहर प्रचण्ड हो उठी ।","और इस महत्त्वपूर्ण कार्य के सम्पादन का भार मि. मेहता पर रखा गया , जिनसे ज्यादा स्वामिभक्त सेवक रियासत में दूसरा न था ।" मुन्ती ने कलसा उत्तारकर हाथ में छे लिया और बोली--और ठुम चेठे देख रहे हो फिर एक क्षण के बाद उसने कहया--तुम तो जेसे आजकल गाँव में रहते द्वी नहीं दो,न किसी से कहना पड़ा न सुनना,मुन्नी ने कलसा उतारकर हाथ में ले लिया और बोली-और तुम बैठे देख रहे हो- फिर एक क्षण के बाद उसने कहा-तुम तो जैसे आजकल गांव में रहते ही नहीं हो "कई बार कलम-दावात लेकर रुकका लिखने बैठे, किन्तु लिखें क्या, यह न सूझा ।",वह यह बिलकुल न जानते थे कि लोग केसे महाजनों पर अपना विश्वास जमा लेते हैं ।,"कई बार कलमदावात ले कर रुक्का लिखने बेठे, किंतु लिखें क्या यह न सूझा |" कई दिन के सोच-विचार के बाद आज उसने कह डालने ही का निश्चय किया था ।,सैर करना मुल्तवी हो गया ।,कई दिन के सोच-विचार के बाद उसने कह डालने ही का निश्चय किया था । बह घर की मालकिव थी,उसके मरते ही मुन्नी जी उठी और तब से यहीं है,वह घर की मालकिन थी पुथ-वर्षा के पश्चात्‌ मुन्ती के गले में जयमार डालना था,कोई पंद्रह मिनट तक जज साहब फैसला पढ़ते रहे और जनता चिंतामय प्रतीक्षा से तन्मय होकर सुनती रही,पुष्प-वर्षा के पश्चात् मुन्नी के गले में जयमाल डालना था बात बढ़ जाने का भय था ।,"आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी, मगर देखा तो यहाँ चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे ।",बात बढ़ जाने का भय था । उससे पूछो कि हम लोगों में कौन-सी बातें हो रही थीं ।,"नायकराम ने कहा-सूरदास, आज राजा साहब भी तुम्हारी खोपड़ी को मान गए ।",उससे पूछो कि हम लोगों में कौन-सी बातें हो रही थीं । यह कहकर जाह्नवी चली गई ।,अपनी इच्छा के अनुसार भोजन बनवा लो ।,यह कहकर जाह्नवी चली गई । जाते वक़्त तुमसे कुछ कहा भी नहीं ?,"अब उसे ऐसी कितनी ही बातें याद आ रही थीं, जिनसे उसे रमा के मन की विकलता का परिचय पा जाना चाहिए था, पर उसने कभी उन बातों की ओर ध्यान न दिया ।",जाते वक्त तुमसे कुछ कहा भी नहीं ? जरूर खेलिए |,इसे अंगरेज बहुत पसंद करते है ।,जरूर खेलिए । "फूलमतो अपने नियम ओविरुद: आज सढ़के दी उठी, रात-भर में उसका मानसिक परिवतंन दो चुछा था ।","अन्य सम्पादक उसे अश्लील कहते, लेकिन चोखेलाल इधर बहुत उदार हो गये थे ।","फूलमती अपने नियम के विरूद्ध आज तड़के ही उठी, रात-भर मे उसका मानसिक परिवर्तन हो चुका था ।" कठिनाइयों पर विजय पावा पुरुषाथी मनुष्यों का काम है अवश्य सगर कठिनाइयों की सश्टि करना भवायासू पाँव मेंकाँटे-चुभाना कोई बुद्धिमानी नहीं है,उन्हें इसका अरमान ही रह गया कि तुम उनसे कुछ माँगते,कठिनाइयों पर विजय पाना पुरुषार्थी मनुष्यों का काम है अवश्य मगर कठिनाइयों की सृष्टि करना अनायास पाँव में कांटे चुभाना कोई बुध्दिमानी नहीं है तुम अकेले अपनी रक्षा नहीं कर सकते ।,अब मुझी को इंसाफ करना पड़ेगा ।,तुम अकेले अपनी रक्षा नहीं कर सकते । भ्रम दूर हो गया |,तहखाना न मिले तो मालूम हो जायगा कि सब धोखा ही धोखा है ।,भ्रम दूर हो गया । अधिकतर उतके व्यवहार बड़े-बड़े चकलेदारों और रजवाड़ो के साथ थे ।,प्रभा को अब सच्चा क्रोध दिखाने का अवसर मिल गया ।,अधिकतर उनके व्यवहार बड़े-बड़े चकलेदारों और रजवाड़ों के साथ थे । में तो आपके सामने किसी रानी> महारानी की हकीकत नहीं समझता,मेरी रानी-महारानी आप हैं,मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हकीकत नहीं समझता डॉक्टर साहब्र को निगाह उस पर पड़ गयी थी ।,"कह दूँगा, सरकार, मेरे झोपड़े की तलाशी ले लें, इस प्रकार मामला दब जायगा ।",डॉक्टर साहब की निगाह उस पर पड़ गयी थी । बाबूजी को कल की याद दिलाने आयी हूँ ।,"अगर किफायत से चलता, तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रूपये जरूर अदा हो जाते, मगर यहाँ तो सिर पर शामत सवार थी ।",बाबूजी को कल की याद दिलाने आई हूँ । वाथूराम ने वहाँ लूब दाम कप्ताया ।,देश- देशांतरों से संगीत के आचार्य निमंत्रित हुए ।,नाथूराम ने वहाँ खूब नाम कमाया । "अगर तारा दुखो होतो, कष्ट में होती, फटे-हालो होती, तो में उस पर बलि हो जाता , पर सम्पन्न, सरस, विकसित तारा मेरी समवेदना के योग्य न थी ।",मैं उसकी तरफ ताक न सका ।,"अगर तारा दुखी होती , कष्ट में होती , फटेहालों में होती , तो मैं उस पर बलि हो जाता ; पर सम्पन्न , सरस , विकसित तारा मेरी संवेदना के योग्य न थी ।" ठुम चलो मेरे घर में रहो ।,मेरे घर में रहो बहू ।,तुम चलो मेरे घर में रहो । क्‍या यह मुमकिन ने या कि तुसमें से कोई खुदा को बन्दी इस कण)्टार को उठाकर मेरे जिणर में चुभा देतों ।,ऐसी गुलाब के फूलों की-सी लड़कियाँ पाकर भी तकदीर को रोते हैं ।,क्या यह मुमकिन न था कि तुममें से कोई खुदा की बन्दी इस कटार को उठाकर मेरे जिगर में चुभा देती । "उसको लौ ऊपरबाले वृक्ष को, पत्तियोँ को छू- छूकर भागने लगी, ।",जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया ।,उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी । भिखारिन भी सिर झुकाये जड़वत्‌ खड़ी थी--ऐसी भोली-भाली जैसे कुछ किया हो नहीं है,दोनों गोरे जमीन पर पड़े तड़प रहे थे ऊपर मेम सहमी हुई खड़ी थी और लाला समरकान्त अमरकान्त का हाथ पकड़कर अंदर घसीट ले जाने की चेष्टा कर रहे थे,भिखारिन भी सिर झुकाए जड़वत् खड़ी थी-ऐसी भोली-भाली जैसे कुछ किया नहीं है अब उसे लेन-देन से उतनी घृणा न थी,आप मुझे जल्दी से ले चलिए,अब उसे लेन-देन से उतनी घृणा न थी "मेंने रह जमाया--देवीजी, आप अन्याय कर रही हैं ।",मैं भरी सभा में रगेदूँगी ।,"मैने रद्दा जमाया -- देवीजी, आप अन्याय कर रही हैं ।" अंत को स्रीलोन ने उड़ीसा पर विजय पाई ।,प्रजा मक्खियों की तरह मरने लगी ।,अंत को सीलोन ने उड़ीसा पर विजय पायी । "उसने चम्पा को चुभतो हुई आंसो से ठेरा, पर चम्पा ने झुंद्द फेर लिया था ।",रुपये-पैसे की बात है ।,उसने चम्पा को चुभती हुई आँखों से देखा; पर चम्पा ने मुँह फेर लिया था । "रुपये आपने बहुत खर्च किये हैं, पर कहाँ जवाहिर और कहाँ यह ! कहाँ लैंप और कहाँ दीपक ! पर कौतृहल की बात यह थी कि जवाहिर को कोई गाड़ीवान हाँकता तो वह आग पेर न उठाता |",यह दुरवस्था नहीं सही जाती ।,"रुपये आपने बहुत खर्च किये हैं, पर कहाँ जवाहिर और कहाँ यह ! कहाँ लैंप और कहाँ दीपक ! पर कौतूहल की बात यह थी कि जवाहिर को कोई गाड़ीवान हाँकता तो वह आगे पैर न उठाता ।" अभिमान जिम्त प्रकार नीचता से दर भागता उती प्रकार उसका हृदय उस घर से दूर भागता था ।,"वह घर जाती तो थी, पर बहुत धीरे-धीरे, जैसे घोड़ा दम की तरफ जाता है ।","अभिमान जिस प्रकार नीचता से दूर भागता है, उसी प्रकार उसका हृदय उस घर से दूर भागता था ।" बाहरी कोई न था,उसने कान लगाकर सुना,बाहरी कोई न था "अगर हमे सभ्य बनना है, तो सस्य देशों के पद-चिन्हों पर चलता , पड़ेगा ।","मुझे याद आया , एक बार मैं अपने ननिहाल देहात में गया था , तो सूखा पड़ा हुआ था ।","अगर हमें सभ्य बनना है , तो सभ्य देशों के पदचिह्नों पर चलना पड़ेगा ।" जान-जोखिम भी है ।,उठकर अपने कमरे में चली गई ।,जान-जोखिम भी है । "मैने सिर कुकाकर उत्तर दिया, आप जैमे महात्माओं का दशन मेरे सौमास्य की वात है ।",बैजनाथ- पहचानकर भी इतनी निठुरता ।,मैंने सिर झुकाकर उत्तर दिया-आप-जैसे महात्माओं का दर्शन मेरे सौभाग्य की बात है । दयाकृष्ण अपने को उसको हृपादृष्टि के योग्य ही नहीं समझता ।,"सिंगार की दृष्टि से माधुरी केवल विलास की एक वस्तु है, केवल विनोद का एक यन्त्र ।",दयाकृष्ण अपने को उसकी कृपादृष्टि के योग्य ही नहीं समझता । "जनवासा क्या है, अभागे का भाग्य है, जिस पर चारों तरफ़ से ऊरोंके आते रहते हैं।","चोथा कहता है, तुम्हारी नाक ही सड़ गई है, तुम क्या जानो घी किसे कहते हैं।","जनवासा क्या है, अभागे का भाग्य है, जिस पर चारों तरफ से झोंके आते रहते हैं।" परन्तु जिस प्रफार अग्नि से पारा दूर भागता है उसी प्रकार मै भी उसके सामने से एक कदम पीछे हट गया |,वह दोनों हाथ फैलाए कामोन्मत्त होकर मेरी ओर बढ़ी ।,परंतु जिस प्रकार अग्नि से पारा दूर भागता है उसी प्रकार मैं भी उसके सामने से एक कदम पीछे हट गया । खत जो लिखा वह इतना लम्बा-चौढ़ा कि एक ही पत्र में साल भर को कप्तर निकल - गई,शान्तिकुमार को अमर के विषय में सलीम से सारी बातें मालूम होती रहती थीं,खत जो लिखा वह इतना लंबा-चौड़ा कि एक ही पत्र में साल भर की कसर निकल गई वह भोली पर अपनी धामिकता का सिक्का जमाने के लिए नित्य गंगासर्नान करने लगी।,सुमन की धर्मनिष्ठा जागृत हो गई ।,वह भोली पर अपनी धार्मिकता का सिक्ता जमाने के लिए नित्य गंगास्नान करने लगी । किसानी में मरजाद है,घास सबसे अच्छी,किसानी में मरजाद है हम विवाह नहीं करेंगे ।,मदन -- आप को जो करना हो कीजिए ।,हम विवाह नहीं करेंगे । ( सहसा ईदगाह नज़र आया ।,मैं दूर से ही पहचान गया ।,सहसा ईदगाह नजर आयी । जुगनू का मुंह उस लालिप्रा में बिलकुल ज़रा-सा निकल आया ।,"कोई तालियाँ बजाती थीं, कोई डाक्टर लीलावती की गरदन से लिपट जाती थीं; कोई मिस खुरशेद की पीठ पर थपकियाँ देती थीं ।",जुगनू का मुँह उस लालिमा में बिलकुल जरा-सा निकल आया । "माँ-- अच्छा, अब चुप रहो ।",बेटा – ज़ब तुम समझने भी दो ।,"‘ माँ –‘ अच्छा , अब चुप रहो ।" "हथोब सी उठने दी को था कि चोबदार ने खबर दौ-हुजूर, जहापनाइ तशरीफ़ छा रहे हैं ।","वह कहता- बहन, मुझे कहीं नौकर हो जाने दो, फिर तुम्हारे कष्टों का अन्त हो जायगा ।",हबीब उठने ही को था कि चोबदार ने खबर दी- हुजूर जहाँपनाह तशरीफ ला रहे हैं । रेलों के मालिक क्या जमीन अपने साथ लाए थे ?,उनकी बात को कौन टाल सकता है ?,रेलों के मालिक क्या जमीन अपने साथ लाए थे ? "अच्छा; क्षमा कीजिएगा, मुझी से ' भूल हुई कि आपको सचेत न कर दिया ।","आपने भी तो कुर्सी खींच ली, दीवार से टिक कर बेठते तो कभी न गिरते ।","अच्छा, क्षमा कीजिए, मुझी से भूल हुई कि आपको सचेत न कर दिया ।" आप दो-चार साल में प्रस्थान कर जायेंगी ; पर इमारा और उसका बहुत दिन तक सम्बन्ध रहेगा ।,"देखो, कटोरे में भूसा भरकर मेरी झोली में डाल गया है ।",आप दो-चार साल में प्रस्थान कर जायेंगी; पर हमारा और उसका बहुत दिनों तक संबंध रहेगा । लोग अपने-अपले घर गये ।,सभा विसर्जित हुई ।,लोग अपने-अपने घर गये । भोली ने मुस्कराकर कहा--सब इल्तजाम हो जाएगा ।,सुमन -- यहाँ पानी मिल जाएगा ?,भोली ने मुस्कराकर कहा -- सब इन्तजाम हो जाएगा । स्कूल एक सील से कुछ ज्यादा ही था।,उसके बाहर से आने पर हाथ-मुँह धोने के लिए पानी तो रख देती थीं।,स्कूल एक मील से कुछ ज्यादा ही था। तुलवी चिलम के भक्त थे ।,इस परेशानी में कोई काम नहीं हो रहा है ।,तुलसी चिलम के भक्त थे । खुशो के यही अवसर हैं चार भाई-बन्द यार-दोस्त आते हैं गाना-बजाना सुनते हैं प्रोति-मोज में शरीक दोते हैं,मुझे तो इसमें कोई हानि नहीं दीखती,खुशी के यही अवसर हैं चार भाई-बंद यार-दोस्त आते हैं गाना-बजाना सुनते हैं प्रीति-भोज में शरीक होते हैं कौन जाने उनसे भी घोरतर दुष्टाचारियों के हाथ में न पड़ जाए ।,यह दुष्ट ऐसे ही अवसर पर अपना बाण चलाते है ।,कौन जाने कहीं उसने भी घोरतर दुष्टाचारियों के हाथ में न पड़ जाए । "यदि रुपए देने के पहले सुभद्रा ने यह प्रस्ताव किया होता, तो श्ञर्माजी विगड़ जाते ।","सदन को बुरा लगेगा, इसके लिए क्या करूँ ।",यदि रुपए देने के पहले सुभद्रा ने यह प्रस्ताव किया होता तो शर्माजी बिगड़ जाते । किसी को अपना मुह नहीं दिखाया,मैं फिर घर नहीं गई,किसी को अपना मुंह नहीं दिखाया अमर के अन्तःकरण में ऋन्ति का तूफान उठ रद्दा था,दूकानदार ने कहा-यह क्या करते हो बाबू एक मजूर ले लो,अमर के अंत:करण में क्रांति का तूफान उठ रहा था "आपको इतवा तो सोचना चाहिए था कि वह वहाँ गई दे, तो भाती दोगी ?",मथुरा- अब बहुत सबेरे न उठा करना और छाती फाड़कर काम भी न करना ।,"आपको इतना तो सोचना चाहिए था, कि वह वहाँ गयी है, तो आती होगी ?" (क्यों न इसी वक्त हम और तुम कहीं चले जाये,मेरी जान रहते कोई तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता,क्यों न इसी वक्त हम और तुम कहीं चले जाये जीने की आशा न रही ।,यहाँ तक कि उसे ज्वरातिसार हो गया ।,जीने की आशा न रही । "४५ की उम्र में जो आदमी ३४ का लगता था, वह श्रत्र “४० की उम्र में ७० का लगता है, कमर भी कुक गई है, बाल भी सुफेद हो गये हैं, दाँत भी शायत्र ही गये ।",सिर्फ कंटोप की कसर थी ।,"४५ की उम्र में जो आदमी ३५ का लगता था, वह अब ५० की उम्र में ६० का लगता है, कमर भी झुक गई है, बाल भी सफेद हो गये हैं, दाँत भी गायब हो गये ।" शाहजद्वॉपुर के मद्ाशय स्वाधभोदयाल तिलक लेकर आनेवाले थे ।,महाशय यशोदानन्द के दो पुत्र थे ।,शाहजहाँपुर के महाशय स्वामीदयाल तिलक लेकर आने वाले थे । सत्य०---तो फिर मैं तुमसे छिपाकर चला जाऊंगा ।,सत्यप्रकाश ने अपनी धोती बगल में दबायी छोटा-सा बेग हाथ में लिया और चाहता था कि चुपके से बैठक से निकल जाय कि ज्ञानू आ गया और उसे कहीं जाने को तैयार देख कर बोला-कहाँ जाते हो भैया सत्य.-जाता हूँ कहीं नौकरी करूँगा ।,सत्य.-तो फिर मैं तुमसे छिपकर चला जाऊँगा । रमा ने सिर हिलाया ।,तुम्हारे सिवा वहाँ कोई पंडित था ?,'रमा ने सिर हिलाया । यद्द कहता हुआ वह गेंडासा लिये घर चला गया,पयाग ने देखा अब दाल न गलेगी तो सबको धिक्कारकर बोला-अब मेहरियों का राज है मेहरियां जो कुछ न करें वह थोड़ा,यह कहता हुआ वह गंडासा लिए घर चला गया में केवल इतना धन चाहता हूँ कि ज़रूरत की मामूली चीज़ों के लिए तरसना न पड़े ।,निर्धान रहकर जीना मरने से भी बदतर है ।,मैं केवल इतना धन चाहता हूँ कि जरूरत की मामूली चीज़ों के लिए तरसना न पड़े । "अबझो में न मानें गो, कहे देती हूँ ।","नादिर- (अर्दब देकर) अच्छा अब सँभलकर जाना, तुमने मेरे बादशाह की तौहीन की है ।","अबकी मैं न मानूँगी, कहे देती हूँ ।" पे० मधुसूदनजी इस्त कला में प्रवीण हैं,मेरे हृदय में कभी इतनी श्रध्दा न हुई,पं० मधुसुदनजी इस कला में प्रवीण हैं न-जाने तू क्यों उससे तनी रहतो हे + मुझे तो बह बड़ा गरीब और बहुत ही विचारशील मादूम होता है,ऐसे मर्द होते हैं यह मैं जानती हूँ पर वह प्रेम टिकाऊ नहीं होता,न जाने तू क्यों उससे तनी रहती है- मुझे तो वह बड़ा गरीब और बहुत ही विचारशील मालूम होता है में तो चला ।,बलवान मनुष्य प्राय: दयालु होता है ।,मैं तो चला । फदावित्‌ यह सकसे उत्तम वस्तु थी जो राजा साहब को भेंट कर सकती थी |,विद्याधरी ने अपना सारा चातुर्य उसके बनाने में खर्च किया था ।,कदाचित् यह सबसे उत्तम वस्तु थी जो राजा साहब को भेंट कर सकती थी । स्त्री--तुम्हारे मुह में घी-शकर ।,वागेश्वरी ने उपहास भाव से कहा-यह आपकी बहू है ।,स्त्री – तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर । मेरे कई सित्रों ने सदहमोज का प्रस्ताव किया था |,यदि ऐसा ज्ञात होता तो मैं वृन्दा का पति न होता और न वृन्दा मेरी पत्नी ।,मेरे कई मित्रों ने सहभोज का प्रस्ताव किया था । मन मारे हुए अपने कमरे में बैठे रहते ।,"जिस दिन से बारात लोट गई, उसी दिन से कृष्णचन्द्र फिर घर से बाहर नहीं निकले ।",मन मारे हुए अपने कमरे में बेठे रहते । "वह परदे के वाहर है, मैं परदे के ग्रन्दर है ।","वह कुत्तों के भूकने की परवाह नहीं करती, मैं लोक-निन्दा से डरती हूँ ।","वह परदे के बाहर है, मैं परदे के अन्दर हूँ ।" वह लौट पड़ा ।,शायद तुम मेरी लाश देखने आओ ।,वह लौट पड़ा । दोनों स्त्रियों ने उनकी ओर देखा ।,वह दस-पाँच रुपये से मदद कर दिया करता था ।,दोनों स्त्रियों ने उनकी ओर देखा । आप गवारों को सनीश्राडर के रुपये देते हैँ तो दस रुपये पर दो आने अपनी दस्तूरी काट लेते हैं ।,उनकी पत्नी मुझसे कितने प्रेम से गले मिलीं ।,आप गँवारों को मनीआर्डर के रुपये देते हैं तो उस रुपये पर दो आने अपनी दस्तूरी काट लेते हैं । ज़रा मुझे नोट करा दीजिएगा ।,"खाने में देर हुई , तो मैंने सोचा अब कौन घर जाय ।",जरा मुझे नोट करा दीजिए । दोन और विद ईसाई विद्रोही देश के अन्य प्रार्तों से आदर उप्के शरणामत द्ोते थे और वह बढ उदारता से उचका पाछनच-पीषण करता था ।,"ग़रनाता और अलहमरा में वे समय की नश्वर गति पर हँसनेवाले प्रासाद बन चुके थे, जिनके खंडहर अब तक देखनेवालों को अपने पूर्व ऐश्वर्य की झलक दिखाते हैं ।",दीन और निर्धन ईसाई विद्रोही देश के अन्य प्रांतों से आकर उसके शरणागत होते थे और वह बड़ी उदारता से उनका पालन-पोषण करता था । "वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब मैं दे लंगा , मगर आदमी से डरता हूँ ।",रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और कुर्सी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बांधकर देखने लगा ।,"वह जो कुछ पूछेगा, उसका जवाब मैं दे लूँगा, मगर आदमी से डरता हूँ ।" सारे कपड़े लह- लुद्दान हा रहे थे |,"शत्रुओं ने समीप आ कर देखा, जीवन का कोई लक्षण न था ।",सारे कपड़े लहूलुहान हो रहे थे । "लज्जित होकर बोले-प्रिये, क्षमा करो, मुझे याद ही न रही, बातों में देर हो गई ।",मोटरकार भी खड़ी थी ।,"लज्जित होकर बोले-प्रिये, क्षमा करो, मुझे याद ही न रही, बातों में देर हो गई ।" अम्तरकान्त उसको रक्षा करने के लिए चला था कि एक वार्टर ने उसे प्रज्दूद पकड़ लिया,काले खाँ पर एक तरफ से ठोकरें पड़ रही थीं दूसरी तरफ से लकड़ियाँ पर वह सिजदे से सिर न उठाता था,अमरकान्त उसकी रक्षा करने के लिए चला था कि एक वार्डन ने उसे मजबूती से पकड़ लिया अभी कुछ-कुछ घु घला था ।,चमारिनें भी रो-पीटकर चली गईं ।,अभी कुछ-कुछ धुँधलका था । "तो अपने मन को देखो, कपट भौर छल कसा नाच रहा है !",क्या यह नाच देखना पसन्द नहीं ?,"तो अपने मन को देखो, कपट ओर छल केसा नाच रहा है ?" "यह गैर होकर इतनी चिन्तित है, और यहाँ अपने ही सास और ससुर हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं ।","पुलिस मेरी दुश्मन हो जाय, मुझे जेल में सडा डाले, कोई परवा नहीं ।","यह गैर होकर इतनी चिंतित है, और यहाँ अपने ही सास और ससुर हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं ।" "रमेश --- देखो भाई, बेईमानी मत करो ।","रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा--आप मुझे बातों में लगाकर मेरे मुहरे उडाते जाते हैं, इसकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला ।","रमेश--देखो भाई, बेईमानी मत करो ।" क्‍या इतनी सी बात के लिए वह उसका जान ले लेगा ।,"कुछ कहेगा, कुछ पूछेगा, कुछ सवाल-जवाब करेगा कि योंही गँड़ासा चला देगा ।",क्या इतनी-सी बात के लिए वह उसकी जान ले लेगा । "सब छुछ था, दिन्तु प्रजा सन्दुष्ट व थी ।","जहाँ महलसरों का वार्षिक व्यय करोड़ों तक पहुँचता था, वहाँ अब हजारों से आगे न बढ़ता था ।","सबकुछ था, किंतु प्रजा सन्तुष्ट न थी ।" वह वहुत अच्छा करते हैं कि मेरे पाय- चिटठी-पत्नी नहीं भेजते ।,सभी अपने-अपने पति की चर्चा करतीं ।,वह बहुत अच्छा करते हैं कि मेरे पास चिट्ठी-पत्री नहीं भेजते । चक्रपर ने कृतज्ञता-पूर्ण ृष्टि से देखा और वहाँ जाकर बेठ गये ।,"कोई दूसरा लाख रुपये भी देता, तो जगह न छोड़ता ।",चक्रधर ने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से देखा और वहाँ जाकर बैठ गये । "चौथे दी दिन लज्जा का पत्र आया, जिसमे उसने अपना हुदय खोलकर रख दिया था ।",केवल उसके रूप-लावण्य पर अपनी लज्जा की चिरसंचित अभिलाषाओं का बलिदान कर रहा था ।,"चौथे ही दिन लज्जा का पत्र आया, जिसमें उसने अपना हृदय खोल कर रख दिया था ।" "जब तक कुश्ती होती रही, लोग कुश्ती का आनंद उठाते रहे ; लेकिन जब देखा मुश्रामला सगीन हुश्रा चाहता है, तो तुरंत बीच-बचाव कर दिया ।",मैंने लपककर उन्हें उठाया और युवक को डाँटा ।,"जब तक कुश्ती होती रही, लोग कुश्ती का आनंद उठाते रहे; लेकिन जब देखा मुआमला संगीन हुआ जाता है, तो तुरन्त बीच-बचाव कर दिया ।" दोनों स्त्रियों में परिचय हुआ ।,इनके मुँह लगना अच्छा नहीं ।,दोनों स्त्रियों में परिचय हुआ । सलीम दुःखी था जैसे मरी सभा में अपनी जगह से उठा दिया गया हो,सोने की हंसिया न उगलते बनती थी न निगलते,सलीम दु:खी था जैसे भरी सभा में अपनी जगह से उठा दिया गया हो उसके पीछे मुरकाये हुए मुख पर भात्मगौरव की ऐसी कान्ति थी जो कुत्सित दृष्टि को उठने के पहले ही निराश और पराभूत करके चसुमें भ्रद्धा को आरोपित बर देती थी,भिखारिन लारी से उतरी और कटघरे के सामने आकर खड़ी हो गई,उसके पीले मुरझाए हुए मुख पर आत्मगौरव की ऐसी कांति थी जो कुत्सित दृष्टि के उठने के पहले ही निराश और पराभूत करके उसमें श्रध्दा को आरोपित कर देती थी "वे अपने भाग्य को रोती, सुमन अपने भाग्य को सराहती ।",वह उन स्त्रियों के सामने अपने गुणों को बढ़ाकर दिखाती ।,"वे अपने भाग्य को रोती, सुमन अपने भाग्य को सराहती ।" "कोई उनकी रचना-पेली की प्रशसा करता हैं, कोई उनके सदुविचारों पर मुग्ध हो जाता है ।",इन तीन दिनों में खूब मालूम हो गया कि पूर्व को आतिथ्यसेवी क्यों कहते हैं ।,कोई उनकी रचना-शैली की प्रशंसा करता है कोई उनके सद्विचारों पर मुग्ध हो जाता है । "ऋण चुकाने के दिन ज्यों-ब्यों पास आते जाते हैं, त्यॉ-त्यों उसका ब्याज बढ़ता जाता है ।",अपने शरीर की मिट्टी तक उसको भेंट कर दी ।,"ऋण चुकाने के दिन ज्यों-ज्यों पास आते जाते हैं, त्यों-त्यों उसका ब्याज बढ़ता जाता है ।" "जैसे आप कोौड़ी-कोड़ी को मुहताज रहे, वैसे मुझे भी बनाना चाहते हैं ।",इन चार महीनों की तपस्या ने रमा की भोग-लालसा को और भी प्रचंड कर दिया था ।,"जैसे आप कौड़ी-कौड़ी को मुहताज रहे, वैसे मुझे भी बनाना चाहते हैं ।" "हाँ, इतना स्मरण रखिएगा कि हिम्मत नहीं हारनी चाहिए ।",आपकी वक्तताओं में तो वह प्रभाव होगा कि लोग सुनकर दंग हो जाएँगे ।,"हाँ,इतना स्मरण रखिएगा कि हिम्मत नहीं हारनी चाहिए ।" "अपने घर हो आदमो इप्रीडिए तो छाता-छोपता दे, कि उससे वर्खा-वूं दी में बचाव हो ।",अपनी सारी सम्पत्ति धर्मार्थ अर्पण कर दी ।,"अपने घर को आदमी इसलिए तो छाता-छोपता है , कि उससे बर्खा-बूँदी में बचाव हो ।" इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी में नौकर था ।,खूब मिले भाई ।,इलाहाबाद की म्युनिसिपैलिटी में नौकर था । बालक मा को गोद से उतरकर धीरे-धीरे रेंगता हुआ मेरी भोर भाया,अगर कोई कामना थी तो यह कि मेरे लाल को कुछ न होने पाए,बालक माँ की गोद से उतरकर धीरे-धीरे रेंगता हुआ मेरी ओर आया तू तो कहती थी कोई गाय भागी आ रही है,सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी,तू तो कहती थी कोई गाय भागी आ रही है आँखों के सामने वाजिद- अली शाह के दर्वार की तसवीर खिंच गई ।,' रसिकलाल -'दस साल तक तो आपने केवल संगीत-कला का अभ्यास किया है ।,आँखों के सामने वाजिदअली शाह के दरबार की तसवीर खिंच गई । उनके ठाठ-बाट ने उसे वशीभूत कर लिया था।,लेकिन चचा के सामने वह शराफत का पुतला बन जाता था ।,उनके ठाठ-बाट ने उसे वशीभूत कर लिया था । किसी बड़े कॉलेज के प्रोफेसर को इतनी ख्याति उम्र भर में न मिलतो ।,यह नहीं कि सबसे पीछे वाले शोर मचाकर पहले आ जाएं और पहले वाले खड़े मुँह ताकते रहें ।,किसी बड़े कॉलेज के प्रोफसर को इतनी ख्याति उम्रभर में न मिलती । अब सदन का चित्त भी यहाँ से उचाट हो रहा था ।,शर्माजी भी इस फिक्र में थे कि सदन को किसी तरह यहाँ से घर भेज दूँ ।,अब सदन का चित्त भी यहाँ से उचाट हो रहा था । शास्त्र में क्या लिखा है क्‍या नहीं लिखा दे यह तो पंडित ही जानते हैं,नौजवान-सभा और सेवा-पाठशाला के विद्यार्थी और अध्यापक भी आए हुए थे,शास्त्र में क्या लिखा है क्या नहीं लिखा है यह तो पंडित ही जानते हैं "सम्पादकजों के जीवन में जो कप्ती आ गई थी, उप्दो कुछ पूर्ति करता मद्विलाओं ने अपना धर्म-सा मान लिया ।",और महीने में दस-पाँच महिलाएँ उन्हें दर्शन भी दे जातीं ।,"सम्पादकजी के जीवन में जो कमी आ गयी थी, उसकी कुछ पूर्ति करना महिलाओं ने अपना धर्म-सा मान लिया ।" तब से इसे सींचती हूँ |,"मैंने आ कर देखा, तो वह सूख गया था ।",तब से इसे सींचती हूँ । "इसलिए, मैंने यह नियम बना लिया है कि जब उनके पास जाता हूँ, तो एक दो दिन में जितनी बड़ी से बड़ी चपत दे सकता हैँ, देता हूँ ।","न मुँह से बोले, न किसी को बैठने का इशारा किया, न वहाँ से हिले ।","इसलिए मैंने यह नियम बना लिया है कि जब उनके पास जाता हूँ, तो एक-दो दिन में जितनी बड़ी-से-बड़ी चपत दे सकता हूँ, देता हूँ ।" नींद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते ।,सीधा भरपूर हो ।,नींद खुलते ही ईशोपासन में लग जाते । मेरे ही कारण तो इसे यह भीषण यातना सहनी पड़ रही है ।,इस अपार वेदना का कारण कौन था ?,मेरे ही कारण तो इसे यह भीषण यातना सहनी पड़ रही है । सारा देश तो पड़ा हुआ है ।,तुमसे मतलब ?,सारा देश तो पड़ा हुआ है । कोई बहुत बड़ा घर भी तो नहीं है ।,समझे देवीदीन ने धोखा दिया ।,कोई बहुत बडा घर भी तो नहीं है । "कप्तात ( आश्चर्य से )--आपके साथ तो वारशाह ने कोई अच्छा सझूक नहीं क्या ! * ,राजा-ेरे साथ कितता हो थुरा सलूक किया हो, लेकित एक राज्य की कीमत एक आदमी या खानदान को जात से कही ज्यादा होती हैं ।",सहसा लौंडी ने आ कर सूचना दी कि पंडित जी आ गये ।,कप्तान (आश्चर्य से)-आपके साथ तो बादशाह ने कोई अच्छा सलूक नहीं किया ! राजा-मेरे साथ कितना ही बुरा सलूक किया हो लेकिन एक राज्य की कीमत एक आदमी या एक खानदान की जान से कहीं ज्यादा होती है । उसने कुछ इप्त भाव से जवाब दिया कि उसके मनोभाव प्रकट न दो पर स्वामी पर बार चल जाय--मुझ्े तो उनसे कोई शिह्वयत नहीं है उन्हें भज्तियार है मुझे जितना चाहें बदनाम करें,एक काले युवक ने जो स्वामीजी के उग्र भक्तों में था लज्जित होकर कहा-भैया जिस लगन से तुम काम करते हो कोई क्या करेगा,उसने कुछ इस भाव से जवाब दिया कि उसके मनोभाव प्रकट न हों पर स्वामी पर वार चल जाय-मुझे तो उनसे कोई शिकायत नहीं है उन्हें अख्तियार है मुझे जितना चाहें बदनाम करें रह-रहऋर बंगले के फाटक को तरफ़ ऋाँद्ध लेते थे हि साहब भा तो नहीं रहे हैं ।,"सबों ने साहब के जाते ही खूब गहरी भंग चढ़ायी थी और इस समय बगीचे में बैठे हुए होली, फाग गा रहे थे ।",रह-रहकर बँगले के फाटक की तरफ झाँक लेते थे कि साहब आ तो नहीं रहे हैं । छमेरी आँखें लाल थीं,सोचता था मैं ऐसा गया-बीता हूँ कि मेरे पास चालीस रुपये नहीं,मेरी आँखें लाल थीं "फिन्तु, जब यह आधार भी न रह गया, तो हालत झोर भी खराव हो गयी ।",उनके अभाव में ये बाधाएँ प्राणांतक हो जाती हैं ।,"किन्तु जब यह आधार भी न रह गया, तो हालत और भी खराब हो गयी ।" "डाक्टर--अब उसकी जान तुम्हारे ही बचाये बचेगी, इतना धर्म करो |",मुझे आवश्यक कार्य से रेलगाड़ी पर सवार होना है ।,"डॉक्टर अब उसकी जान तुम्हारे ही बचाये बचेगी, इतना धर्म करो ।" हम तुम्हारी चालों को खूब समझता है ।,हम किसी पर भरोसा नहीं करता ।,हम तुम्हारी चालों को खूब समझता है । "उसमें योद्धाओं की अविलम्धब निश्चय कर लेने की शक्ति थी , तुरत तलवार खीच ली, ओर उन तीनों पर टूट पड़ा ।",पड़ावों में उसकी रातें इसी भाँति चिंता के खेमे के पीछे बैठे-बैठे कटती थीं ।,"उसमें योद्धाओं की अविलम्ब निश्चय कर लेने की शक्ति थी; तुरन्त तलवार खींच ली, और उन तीनों पर टूट पड़ा ।" मेंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा की अपना कतंव्य समझकर की,मालती ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया,मैंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा की अपना कर्तव्य समझ कर की यद दिल अब तुम्दारे सिवा और किसी के काम झा नहीं रद्दा ।,"जिलाधीश से, चाहे वह कोई हो, सदैव उनकी घनिष्ठता रहती थी ।",यह दिल अब तुम्हारे सिवा और किसी के काम का नहीं रहा । में न जाऊँगी,गाड़ी तैयार करवा लो मेरी ओर से सुवामा को पालागन कह देना,में न जाऊँगी "उस बेचारी की जान बच जाये, में तौन दिन नहीं, तोन मद्दोने उध्कों सेवा करने को तेयार हूँ ।","मगर अभी स्नान भी न करने पायी थी कि आदमी पहुँचा- जल्द चलिए, लड़की रो-रोकर जान दे रही है ।","उस बेचारी की जान बच जाय, मैं तीन दिन नहीं, तीन महीने उसकी सेवा करने को तैयार हूँ ।" "महमूद ने एक ज़ोर लगाया--वक्कील साइव कुरसी-मेज पर बठेंगे, तुम्दारा' चिप्रटा तो बावरचीखाने में ज़प्तीच पर पढ़ा रहेगा ।",पकड़ेंगे क्या बेचारे! मोहसिन को एक नयी चोट सूझ गयी— तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा ।,"महमूद ने एक जोर लगाया— वकील साहब कुरसी-मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहेगा ।" इससे तो कहीं उत्तम यही है कि डूब मरू ।,"पुलिस पकड़ेगी, महीनों इधर-उधर मारा-मारा फिरूँगा और इतनी दुर्गते के बाद फाँसी पर चढ़ा दिया जाऊँगा ।",इससे तो कहीं उत्तम यही है कि डूब मरूँ । चचा और चचो दोनों मुझे अपना पुत्र समझते थे ।,"मैंने पहली बार तारा को उस वक्त देखा , जब मेरी उम्र दस साल की थी ।",चचा और चची दोनों मुझे अपना पुत्र समझते थे । "भोतर-बाहर जहा देखिए, कियो निपुण प्रबन्धक के हस्त-कौशल, सुविचार ओर सुरुचि के चिह दींखते थे ।",घड़ा उठाकर पानी लाने चली ।,"भीतर-बाहर जहाँ देखिए, किसी निपुण प्रबन्धक के हस्तकौशल, सुविचार और सुरूचि के चिह्न दिखते थे ।" शर्माजी ने नाक पर रूसाल लगा ली |,मोरियों से गंदे पानी के निकास का कोई प्रबंध न होने की वजह से दुर्गंध से दम घुटता था ।,शर्मा जी ने नाक पर रूमाल लगा ली । यह कहकर उप्तने बालक को गोद में उठाया और उप्ते गे से लगाकर बाहर निकल आईं ।,आपटे ने चुभती हुई निगाहों से देखकर कहा- वैद्य रोगी को जबरदस्ती दवा पिलाता है ।,यह कहकर उसने बालक को गोद में उठाया और उसे गले से लगा कर बाहर निकल आयी । "कृष्णचन्द्र ने कहा--उपद्रव हो गया, तो गोलियाँ चलेगी ।","बिन्नी ने फिर उद्दण्ड-भाव से कहा, ‘यह कड़ाई इसीलिए तो है कि मनीजर जानता है, हम बेबस हैं और हमारे लिए और कहीं ठिकाना नहीं है ।","कृष्णचन्द्र ने कहा -- उपद्रव हो गया, तो गोलियाँ चलेंगी ।" "झ्यामदर्ण नाटा डील, मुख पर चेचक के दाग, नंगा सिर, बाल संबारें हुए, रिर्फ सादी कमोज, गछे में फूछो को एव माला, पैर में! फूलनबूड घौर हाथ में एक मोटो-सी पुस्तक ! पि मेंदे विस्मित हो-कद नाम पूछा",बोले-कसम है हजरत इमामहुसैन की अब इसकी जाँबख्शी नहीं करूँगा ।,श्यामवर्ण नाटा डील मुख पर चेचक के दाग नंगा सिर बाल सँवारे हुए सिर्फ सादी कमीज गले में फूलों की एक माला पैर में फुल-बूट और हाथ में एक मोटी-सी पुस्तक ! मैंने विस्मित हो कर नाम पूछा । उसको सुख-कल्पनाओं में अभो तक पति का अवेश न हुआ था ।,"वधू के माता-पिता भी इतने अंधे हो रहे हैं कि देखकर भी नहीं देखते, जानकर नहीं जानते ।",उसकी सुख-कल्पनाओं में अभी तक पति का प्रवेश न हुआ था । "जो महिला आतौ, वद जुगनू के मुँह से यह कथा सुनतो ।","बस, तुम छैला बनी हुई पहुँच जाना ।","जो महिला आती, वह जुगनू के मुँह से यह कथा सुनती ।" सन्ध्या समय गाड़ी ठिकाने पर पहुँची ।,वह खिड़की पर खड़ी शर्माजी को ताकती रही और जब तक वह आँखों से ओझल न हुए खिड़की पर से न हटी ।,संध्या समय गाडी ठिकाने पर पहुँची । छुरी लेकर पिल पड़ना |,"अगर वह सचमुच डकैतियों में शरीक होते, तब भी मैं यही चाहती कि वह अंत तक अपने साथियों के साथ रहें और जो सिर पर पड़े उसे ख़ुशी से झेलें ।",छुरी लेकर पिल पड़ना । में अपने पातिवत के बल मे छुझे शाप देती हैं कि लू इसी क्षय पु हो जा ।,उसने पतिदेव की ओर क्रोधोन्मत्त हो कर कहा: तूने काम के वश हो कर मेरे शरीर में हाथ लगाया है ।,मैं अपने पातिव्रत के बल से तुझे शाप देती हूँ कि तू इसी क्षण पशु हो जा । थाली सामने छोड़कर बाहर निकल आया और बोलां--क्या असगुन मुँह से निकालते हो,मुँह में आग लगा दूँगी रांड़ के,थाली सामने छोड़ कर बाहर निकल आया और बोला - क्या असगुन मुँह से निकालते हो दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी।,इधर महीनों से बाबू उदयभानुलाल निर्मला के विवाह की बातचीत कर रहे थे।,दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी। "वहुत कहती रही, वाहर मत जाओ, हवा लग जायगी |","बस, भैया-भैया किया करते हैं ।","बहुत कहती रही, बाहर मत जाओ, हवा लग जायगी ।" बस मुझे तस्कीन हो गई अम्मा,यह कहते हुए उसने जेब से छुरी निकाल ली,बस मुझे तस्कीन हो गई अम्मां लेकिन इतना भारी बोभ कैसे सँभालोगे ?,तुमने हिंदू जाति की लाज रख ली और सारे लखपतियों के मुँह में कालिख लगा दी ।,लेकिन इतना भारी बोझ कैसे संभालेगे ? दोनों पल्‍ले बराबर न थे |,"कुँजड़िन पालक टके सेर कहती है, वह डेढ़ पैसे दे रही हैं ।",दोनों पल्ले बराबर न थे । "मेरे सेठजी लाख धनी हों, पर उन्हें मैं मपनी चौखट न लाँधने दूँगा।","तुम उस मोलूद के दिन बनाव को देखकर धोखे में आ गई होंगी, पर यह समझ लो कि उनमें से एक भी सज्जन पुरुष नहीं था ।","मेरे सेठजी लाख धनी हो, पर उन्हें में अपनी चोखड़ न लाँघने दूँगा ।" "गाँघीजी ने श्राश्ञा दी है कि हिन्दुओं में छूत-छात का मेद न रहे, नहीं तो देश को और भी अदिन देखने पड़ेंगे |",पूरे ५० हजार जवान जेल जाने को तैयार बैठे हुए हैं ।,"गाँधी जी ने आज्ञा दी है कि हिन्दुओं में छूत-छात का भेद न रहे, नहीं तो देश को और भी अदिन देखने पड़ेंगे ।" "आज आगे ही से उनका स्वागत किया, फिटन देखते ही दौड़ा ।","चैन से जिंदगी बसर होती है, जभी ये बातें सूझ रही हैं ।","आज आगे ही से उनका स्वागत किया, फिटन देखते ही दौड़ा ।" खूब प्रेप्त ते उसक-उम्रककर पानी में लोटने ऊुगा ।,कहीं-कहीं पानी भी जमा हो गया था ।,खूब प्रेम से उमग-उमगकर पानी में लोटने लगा । "पर जय घर के आदमी, जिनके लिए में रात-दिन चक्वी पीठता हूं, मेरे साथ ऐसा छल करे तो वे इसी योग्य हैं कि उनके साथ जरा भी रिश्रायत न की जाय |",मैं भी बता दूँगा कि मैं अपने बैरियों का शुभचिंतक नहीं हूँ ।,"पर जब घर के आदमी जिनके लिए रात-दिन चक्की पीसता हूँ, मेरे साथ ऐसा छल करें तो वे इसी योग्य हैं कि उनके साथ जरा भी रिआयत न की जाय ।" जागरण और निद्रा का अन्तर उससे छिपा न रहा ।,"ईश्वर कहीं से कोई तार ही भिजवा दे, कोई ऐसा मित्र भी नज़र नहीं आता था, जो उसके नाम फर्जी तार भेज देता ।",जागरण और निद्रा का अंतर उससे छिपा न रहा । सध्या हो गई थी ।,"चाहती थी उसे बाँधकर रखे , सम्पूर्णत: अपना बना ले ; लेकिन प्रसाद चंगुल में न आता था ।",सन्ध्या हो गयी थी । "इस अँधेरे, निर्जन, काँटों से भरे हुए जीवन-मार्ग में मुझे केवल एक टिमटिमाता हुआ दीपक मिला था ।","तुमसे क्या कहूँ, आज वह वसीयत लिखने की चर्चा कर रहे थे ।","इस अंधेरे, निर्जन, कांटों से भरे हुए जीवन-मार्ग में मुझे केवल एक टिमटिमाता हुआ दीपक मिला था ।" कछ डाक्टर सादर से फट गा मुझे बहुत फ़ायदा है भाप तशरीफ़ ले जाये,थोड़े से रुपये ऐसे तमाशों में खर्च कर देने का मैं विरोध नहीं करता लेकिन इस वक्त के लिए इतना बहुत है,कल डॉक्टर साहब से कह दूँगा मुझे बहुत फायदा है आप तशरीफ ले जायें वह्दी बातें कुछ उखड़ी-सी उसे याद थीं,कल व्यासजी ने पश्चिमी विवाह-प्रथा की तुलना भारतीय पति से की,वही बातें कुछ उखड़ी-सी उसे याद थीं "ऐसी अवस्था में कोई एक घण्ठा चलने के बाद वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ एक ऊँचे टीले पर घने वृत्चों के नीचे आग जलती दिखायी पडी ।","दूसरी ओर घनघोर अंधकार, जिसमें कभी-कभी केवल खद्योतों के चमकने से एक क्षणस्थायी प्रकाश फैल जाता था ।","ऐसी अवस्था में कोई एक घंटा चलने के बाद वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ एक ऊँचे टीले पर घने वृक्षों के नीचे आग जलती दिखाई पड़ी ।" मुझसे यह न होगा चाहे सदेव के लिए उनसे नाता ही द्ृट जाय,रूखा-सूखा खाऊं मोटा-झोटा पहनूं और वह घर से अलग होकर मेहनत और मजूरी करें,मुझसे यह न होगा चाहे सदैव के लिए उनसे नाता ही टूट जाए इसका उत्तरदायित्व किस के सिर था १--मेरे सिर |,गरीब ने अठन्नी उसके हवाले की और बारह आने की रसीद लिखवा कर उसके अँगूठे का निशान लगवाये और रसीद दफ्तर में दाखिल हो गयी ।,इसका उत्तरदायित्व किसके सिर था मेरे सिर । प्रकाश ने हलके मत से कद्दा--मार-पोट किसीसे नहीं हुईं साहब ।,"बड़े ठाकुर ने और व्यग्र होकर पूछा , लेकिन हुआ क्या , यह क्यों नहीं बतलाते ?","प्रकाश ने हलके मन से कहा , मार-पीट किसी से नहीं हुई साहब ।" चह कभी इतनी दुवल न थी ।,रत्नसिंह उसकी आँखों में खटकता था ।,वह कभी इतनी दुर्बल न थी । संसार को मालूम हो जाएगा कि कुल पर मरने वाले पापाचरण का क्या दंड देते हैं ।,मिटी हुई मर्यादा के पुनरुद्धार का इसके सिवा कोई उपाय नहीं ।,संसार को मालूम हो जाएगा कि कुल पर मरने वाले पापाचरण का क्या दंड देते है ? "पुरानी जितनी बरतें हैं सब अच्छी, नहें जितनी बाते हैं सब खधब |","बिरादरी भी मिली, तो ज़ायजा न मिला; जायजा भी मिला तो शर्तें तय न हो सकीं ।","पुरानी जितनी बातें हैं, सब अच्छी; नयी जितनी बातें हैं, सब खराब ।" "में जावती, ऐसे निर्मेह्टिये से पाला पढ़ेगा, तो इस घर में भूल से न जाती ।","जरा अपना मुँह तो देखो, कैसी सूरत निकल आयी है ।","मैं जानती, ऐसे निर्मोहिए से पाला पड़ेगा, तो इस घर में भूल से न आती ।" औरों की तरह पाप करके उसे छिपाता नहीं ।,"वह उन दोनों थानेदारों को दिखाना चाहते थे कि यदि मेंने पाप किया है, तो मर्दों की भाँति उसका फल भोगने को तेयार हूँ।",ओरों की तरह पाप करके उसे छिपाता नहीं । "श्रव उस सगीत में करुणा न थी, विलाप न था , उसमें कामना-तरद ६४.. आनन्द था; चापल्य था, सारल्य था ; वह वियोग का करुण-ऋन्‍दन नहीं, मिलन का मधुर संगीत था ।","उसी स्निग्ध, अमल चाँदनी में सहसा एक पक्षी आ कर उस वृक्ष पर बैठा और दर्द में डूबे हुए स्वरों में गाने लगा ।","अब उस संगीत में करुणा न थी, विलाप न था; उसमें आनंद था, चापल्य था, सारल्य था; वह वियोग का करुण-क्रन्दन नहीं, मिलन का मधुर संगीत था ।" बह घर के पीछे लाठी लेकर दौड़ने लगा,कभी माँ डाँटती कभी बाप बिगड़ता केवल नैना की कोमलता उसके भग्न हृदय पर गाहा रखती रहती थी,वह धर्म के पीछे लाठी लेकर दौड़ने लगा क्रापिद इत-बुद्धि सा खड़ा हो था कि पाहर खतरे छा बिगुद बड़ ठठा और फ्रोर्जे किसो समर-यात्रा को तेयारी करने लगों ।,"वह हमसे और तुमसे ज्याकदा खुदापरस्त है, जो मस्जिद में खुदा को बन्द समझते हैं ।",कासिद हतबुद्धि–सा खड़ा ही था कि बाहर खतरे का बिगुल बज उठा और फौजें किसी समर-यात्रा की तैयारी करने लगीं । दुसरे दिन केंठास ने इस घटना को मीमांसा शुरू को ।,"मीर- जनाब, इस भरोसे न रहिएगा ।",दूसरे दिन कैलास ने इस घटना की मीमांसा शुरू की । "घर लोटना कठिन दी नहीं, असर भव ।","कभी अपने प्रतिपक्षी वकील की दाढ़ी नोचने को जी चाहता था, जिसने बरबस बहस को इतना बढ़ाया ।","घर लौटना कठिन ही नहीं, असम्भव ।" सरदार बोला--हम आपका पड़ ले जाने का हुक्म है |,"इधर तो हितचिंतकों के आग्रह से विवश हो कर बूढ़ा कुबेरसिंह चंदा और कुँवर के विवाह की तैयारियाँ कर रहा था, उधर शत्रुओं का एक दल सिर पर आ पहुँचा ।",सरदार बोला - हमें आपको पकड़ ले जाने का हुक्म है । "सत्य०--अरें ! क्या बहुत बीमार है २ ज्ञान०--माता ने दिए खा लिया, ठो दे उनषा मुंडे साझ बर दवा पिला: रहे पे ।",पृथ्वीसिंह-(जोश में) कोई हो यदि मेरा भाई भी हो तो भी जीता चुनवा दूँ ।,सत्य.-अरे ! क्या बहुत बीमार हैं ज्ञान.-माता ने विष खा लिया तो वे उनका मुँह खोल कर दवा पिला रहे थे । आाज और दिलों से छ्यादा दृज्म था,आज नैना बहस कर बैठी-तुम कहती हो पुरुष के आचार-विचार की परीक्षा कर लेनी चाहिए,आज और दिनों से ज्यादा हुजूम था सुखदा ने बच्चे को रेणुका को गोद में देकर कद्दा--आज तो क्षमा करो अम्मा फिर आगे देखा जायगा,सिल्लो ने कड़वे तेल का चिराग जला दिया था,सुखदा ने बच्चे को रेणुका की गोद में देकर कहा-आज तो क्षमा करो अम्माँ फिर आगे देखा जाएगा कल तक यही प्रतिमा उन्हें चल और उत्साह प्रदान करतो थो,सुखी पर दु:ख पड़ता है तो वह विद्रोह करने लगता है,कल तक यही प्रतिमा उन्हें बल और उत्साह प्रदान करती थी वह दण्ड से उतना नहीं डरता जितना अपमान से |,इशारे से निकट बुलाया और पूछा सुफेदे के पेड़ में कई आम लगे हुए थे ।,वह दण्ड से उतना नहीं डरता जितना अपमान से । "शहर भर में उसकी बदनामी हो ही गयी होगी, पुलिस में इत्तला की ही जा चुकी होगी ।","अगर यह भी मान लिया जाय कि रूपये घरवालों ने अदा कर दिए होंगे, तो क्या इस दशा में भी वह घर जा सकता है ।","शहर भर में उसकी बदनामी हो ही गई होगी, पुलिस में इत्तला की ही जा चुकी होगी ।" प्रेम-मिलाप की आननन्‍्दपूर्ण कल्पना के सामने वे शंकाएँ निर्मल हो गई ।,"लेकिन संध्या होते ही उसने कपड़े बदले,घोड़ा कसवाया ओर दालमंडी की ओर चला ।",प्रेम मिलाप की आनन्दपूर्ण कल्पना के सामने वे शंकाएँ निर्मल हो गई । ", उसका कोमल हृदय तंमूर की इस करुण - आत्मग्लानि पर द्रवित हो गया ।",इन्द्रनाथ गोकुल का सहपाठी और परम मित्र था ।,उसका कोमल हृदय तैमूर की इस करूण आत्मग्लानि पर द्रवित हो गया । और आज मुमसे रुपये लेकर अपने लिए कपड़े बतवा लो ।,' मीना सिर पर हाथ रखकर चिन्ता में डूब जाती है ।,और आज मुझसे रुपये लेकर अपने लिए कपड़े बनवा लो । पहले स्री से झगड़ा हो जाने का कुछ डर था |,और भी छूटा साँड़ हो गया ।,पहले स्त्री से झगड़ा हो जाने का कुछ डर था । "सज़ा तो जो होगी वह होगी ही, इज्ज़त भी खाक में मिल जायगी ।","मर्यादा और परिपाटी के बन्धनों से मेरा जी घबराता है , ऐसी दशा में भी यदि आप मुझे अपनी सेवा से वंचित रखते हैं , तो आप मुझसे मेरा वह अधिकार छीन रहे हैं, जो मेरे जीवन की सबसे मूल्यवान् वस्तु है ।",सजा तो जो होगी वह होगी ही; इज्जत भी खाक में मिल जायगी । "दिल में खुश थी कि अब बासू को देखू गो, तुम्दारे दर्शत कह गो ।",स्वयंसेवक ने उससे दो-चार बातें पूछकर मुझे उसके साथ कर दिया ।,"दिल में खुशी थी कि अब बासू को देखूँगी, तुम्हारे दर्शन करूँगी ।" इससे कहाँ भच्छा है कि भर जाऊँ ।,अपना घर-द्वार लो ।,इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ । मदन--तो यहाँ से क्या-क्या ले चलने की झ्रावश्यकता होगी ?,अमोला विंध्याचल के निकट है आज मैंने दोपहर से पहले ही उन्हें रवाना कर दिया ।,मदनसिंह -- तो यहाँ से क्या-क्या ले चलने की आवश्यकता होगी ? मेहता शायद आप से बाज़ी मार ले जाये,जिस दिन यह कुंजी मिल गई बस फतह है,मेहता शायद आपसे बाजी मार ले जायें "अबुलवफा वोले--आइए जनाव ! आप ही का जिक्र हो रहा था, आइए, कुछ दूर साथ ही चलिए !",शर्माजी को देखते ही रूक गए ।,"अबुलवफा बोले -- आइए जनाब! आप ही का जिक्र हो रहा था, आइए कुछ साथ ही चलिए ।" "दर्मा--जी नहीं, किराये की गाड़ी की जरूरत न पड़ेगी ।",रोज किराए की गाड़ी करनी पड़ेगी ?,"शर्मा - जी नहीं, किराए की गाड़ी की जरूरत नहीं पड़ेगी ।" प्राणों के भय से 'शहादत देने पर तैयार नहीं होती ।,"पुलिस ने एकबारगी सबों को पकड़ लिया, लेकिन आप जानते हैं, ऐसे मामलों में अदालतों के लिए सबूत पहुँचाना कितना मुश्किल होता है ।",प्राणों के भय से शहादत देने पर तैयार नहीं होती । "बद्ध दिल में समझता था, सासजौ मुझे अपने बेटों से भी ज़्यादा चाहती हैं ।","सालियों की चुहल में, सास के स्नेह में, सालों के वाक्-विलास में और स्त्री के प्रेम में उसके जीवन की सारी आकांक्षाएँ पूरी हो गयीं ।","वह दिल में समझता था, सासजी मुझे अपने बेटों से भी ज्यादा चाहती हैं ।" तेल न हो में ला दूँ दियासलाई न हो में ला दूँ कछ एक लेम्प लेता भाऊँगा,उसकी सिसकियों की आवाज सुनाई दी,तेल न हो तो मैं ला दूं दियासलाई न हो तो मैं ला दूँ कल एक लैंप लेता आऊँगा एक ही सप्ताह में उसका मुखड़ा स्वर्ण हो गया मानो कमी बीमार ही न थी,प्रताप ने उसके मन से वह काँटा निकाल दिया जो कई मास से खटक रहा था ओर जिसने उसकी यह गति कर रखी थी,एक ही सप्ताह में उसका मुखड़ा स्वर्ण हो गया मानो कभी बीमार ही न थी वीर-पूजा जनता का स्वाभाविक गुण है ।,"सैकड़ों बार कह चुका, कोई सुनता ही नहीं ।",वीर-पूजा जनता का स्वाभाविक गुण है । अपने साथ मुझे भी चार बातें सुनवा दीं ।,वह इस पर विचार न कर सकता था ।,अपने साथ मुझे भी चार बातें सुनवा दीं । इसके सिवा कोई रिआयत न दो सद्यो ।,"तीन मास का भिक्षा दण्ड दिया, फिर सात तीर्थस्थानों की यात्रा; उस पर ५०० विप्रों का भोजन और ५ गउओं का दान ।",इसके सिवा कोई रिआयत नहीं हो सकी । "जाकर वह चीज़ें उठवा लाये ; लेकिन आदमियों को परदे की भाड़ में खड़ा करके पहले अकेले द्वी उसके पास गये ! डरते थे, कहीं मेरी उत्सुछ्ता वसुधा को बुरी तन लगे ।",उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी ।,जाकर वह चीजें उठवा लाये ; लेकिन आदमियों को परदे की आड़ में खड़ा करके पहले अकेले ही उसके पास गये ! डरते थे ; कहीं मेरी उत्सकुता वसुधा को बुरी न लगे । "फिर भी भाप भाई-मततीजा की तारीफ के घुल बाँचते हैं, तो मेरे शरीर में आग लग जाती दै ।",आपको सूझी भी तो लचर-सी बात ।,"फिर भी आप भाई-भतीजों की तारीफ के पुल बाँधते हैं, तो मेरे शरीर में आग लग जाती है ।" "इसके लिए मैंने क्या-क्या तकलीफें उठाईं, यह मेरा खुदा जानता है ।",बदहाली सूरत को नहीं बदल सकती ।,"इसके लिए मैंने क्या-क्या तकलीफें उठाईं, यह मेरा खुदा जानता है ।" बाजार अनेक भांति की उत्तम साथ- प्रियो से सज गये- ।,उसकी आँखों के सामने पूर्वावस्था की स्मृतियाँ मनोहर स्वप्न की भाँति आने लगीं ।,बाजार अनेक भाँति की उत्तम सामग्रियों से सज गये । "जब तक समाण की यह व्यवस्था छायम है, और युवतो कन्या का अविवाहित रहना निन्दास्पद है, तब तर यह प्रधा मिटने की नहीं ।","एक मेरे बेतकल्लुफ दोस्त हैं, स्नेहवश मेरे पास बहुत देर तक बैठे रहते हैं ।","जब तक समाज की यह व्यवस्था कायम है और युवती कन्या का अविवाहित रहना निंदास्पद है, तब तक यह प्रथा मिटने की नहीं ।" स्टेशन- मास्टर ने यह दाल देखा तो समझे हैजा हो गया है ।,देखा तो मुंशी जी की दशा बिगड़ गई थी ।,"स्टेशन मास्टर ने यह दशा देखी तो समझा, हैजा हो गया है ।" "क्या मैं अपनी ही लड़की पर, जिसे मैं आँखों को पुतली समभता था, जिसे सुख से रहने के लिए मैंने फोई वात उठा नहीं रखो, इतना निर्दय हो जाऊँ कि उस पर पत्थर फेक ?",उनकी आँखों से आँसू की बँद टपक पड़ी ।,"में अपनी ही लड़की पर, जिसे में आँखों की पुतली समझता था, जिसे सुख से रहने के लिए मैंने कोई बात उठा नहीं रखी, इतनी निर्दयी हो जाऊँ कि उस पर पत्थर फेंकूँ ?" "सुना है, यहाँ मुरदे की खोपढ़ियाँ दौड़ती हैं ।",इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे ?,"सुना है, यहाँ मुर्दो की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं ।" "श्राप ही एक ऐसे पुरुष हैं, जिस पर मैंने अपना प्रेम, अ्पना- सर्वस्व अर्पण कर दिया है, लेकिन आपने अभी तक उसका कुछ मूल्य न समभा !",आप के व्यवहार से ऐसा मालूम होता है कि अभी आप मुझे बाजारू ओरत ही समझे हुए हैं ।,"आप ही एक ऐसे पुरुष हैं, जिस पर मैंने अपना प्रेम, अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है, लेकिन आप ने अभी तक उस का कुछ मूल्य न समझा ।" इससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता ।,"बहू उनके पाँव नहीं दबाती, उनके सिर में तेल नहीं डालती, तो इसमें मेरा क्या दोष ?",उससे कोई सफल खिलाड़ी नहीं हो जाता । जिसकी जितनी भूख हो उठवा खाब लेकिन छुछ पेदा भी तो दरता चाहिए ।,सुलगते हुए हृदय से बोली- निकम्मे आदमी को खाने के सिवा और काम ही क्या रहता है ?,"जिसकी जितनी भूख हो उतना खाय, लेकिन कुछ पैदा भी तो करना चाहिए ।" वह कैसे शब्र की दाहक्रिया करेगी ?,"चीख मार कर बेतहाशा नीचे दौड़ी, और सड़क पर आ कर बालिका को गोद में उठा लिया ।",वह कैसे शव की दाहक्रिया करेगी ? ज्ञानू०---( सोते रोते ) मुझ्त न जाने क्या तुम्हारों बड़ी मुहब्बत लगतो हैं १ उत्य०-- तुम्हें सदेव याद रखूंगा ।,कभी बाजार से पूरियाँ ले कर खा लेता कभी मिठाइयों पर टाल देता ।,ज्ञानू.-(रोते-रोते) मुझे न जाने क्यों तुम्हारी बड़ी मुहब्बत लगती है ! सत्य.-मैं तुम्हें सदैव याद रखूँगा । पदले भोऊा चौधरी खढ़े हुए,स्वामी आत्मानन्द सभापति चुन गए,पहले भोला चौधरी खड़े हुए मुझे गगू की सरलता पर क्रोध भी आया और दया भी ।,आपको मालूम होना चाहिए ; आज का समय ऐसा कोई बन्धन स्वीकार नहीं करता ।,मुझे गंगू की सरलता पर क्रोध भी आया और दया भी । "आज वा दिन दीता,. रात जायी, पर दुंदेखों को आँपों में नोद जहाँ ।",जख्मी शेर ज़मीन पर पड़ा तड़प रहा था ।,"आज का दिन बीता, रात आई; पर बुंदेलों की आँखों में नींद कहाँ ।" सिफ़ कटोप की कसर थी ।,"होरीलाल ने अपनी कथा समाप्त करके मेरी ओर ऐसी आँखों से देखा जो चाहती थीं कि मैं उनके व्रत और संतोष की प्रशंसा करूँ; मगर मैंने उनकी भर्त्सना की 'क़ितने बदनसीब हो तुम होरीलाल, मुझे तुम्हारे ऊपर दया भी आती है और क्रोध भी ! अभागे, तेरी जिन्दगी सँवर जाती ।",सिर्फ कंटोप की कसर थी । सारंधा--मरते दम तक न टाछूँगो ।,उसके इस विनीत भाव से कुछ लज्जित हो कर पंडित जी बोले-आपका आगमन कहाँ से हुआ नवयुवक ने बड़े नम्र शब्दों में जवाब दिया ।,सारंधा-मरते दम तक न टालूँगी । पीठ डुखने लगी तो भाकर पढ़ रही,सलोनी भीतर पड़ी नींद को बुलाने के लिए गा रही थी,पीठ दुखने लगी तो आकर पड़ रही "घर कौ महरो ने महल्के-भर में यह ख़बर फेला दो, पढ़ोसिने देखने भाई' और सारा इलफ़ाम उसी बालिका के सिर गया ।","एक सप्ताह तक उनकी यही दशा रही, दिन-भर पड़ी कराहा करतीं, बस भोजन के समय जरा वेदना कम हो जाती ।","घर की महरी ने महल्ले-भर में यह खबर फैला दी, पड़ोसिनें देखने आयीं तो सारा इलजाम बालिका के सिर गया ।" "इतनी उम्र, गँवाने के वाद जब पढ़ाने का विचार किया है, तो उसका एक दिन भी व्यर्थ न जाना चाहिए ।",अब तक तो यह थोड़ा-बहुत पढ़ भी चुका होता ।,"इतनी उम्र, गँवाने के बाद जब पढ़ाने का विचार किया है, तो उसका एक दिन भी व्यर्थ न जाना चाहिए ।" यहू कोई ओर देश हैं ।,पाँचवीं बार एक सज्जन से स्थान माँगने पर उन्होंने एक मुट्ठी चने मेरे हाथ पर रख दिये ।,यह कोई और देश है । मेरो लड़की ऐथी दीदा-दिछेर होती तो गला घोंठ देतो ।,दाल में नमक का जरा तेज हो जाना उन्हें दिन-भर बकने के लिए काफी बहाना था ।,मेरी लड़की ऐसी दीदा-दिलेर होती तो गला घोंट देती । "गवर्नर के पास स्वयं गए, रईसों को भड़काया ।","किसी पर किसी तरह का दबाव न था, किसी से कोई सिफारिश न करता था ।","गवर्नर के पास स्वयं गए, रईसों को भड़काया ।" "सुमन जब अपने द्वार पर पहुँची, तो उसके कान में एक बंजने की आवाज आई ।",ग्यारह बजने के बाद निद्रा का देव उसे दबा बेठा ।,"सुमन जब अपने द्वार पर पहुँची, तो उसके कान में एक बजने की आवाज आई ।" माहिर-खानदान में दाग लगा दिया ।,"माहिर-जुर्म तो बड़ा था, लेकिन शायद हाकिम ने रहम किया ।",माहिर-खानदान में दाग लगा दिया । सब्र तरह क्रिफायत करके देख लिया मैया कुछ नहीं होता,यह भूसा तो मैंने रातों-रात ढो कर छिपा दिया था नहीं तिनका भी न बचता,सब तरह किफायत करके देख लिया भैया कुछ नहीं होता "पचहत्तर रुपये की साड़ी, दस के जूते और पचास की घड़ी ।",दूसरे दिन दोनों चीजें लाकर ही दम लिया ।,"पचहत्तर रूपये की साड़ी, दस के जूते और पचास की घड़ी ।" "आप भी अपमान करते हैं, वह भो अपमान करते -हैं ।",रामप्यारी और रामदुलारी दो सगी बहनें थीं ।,"आप भी अपमान करते हैं, वह भी अपमान करते हैं ।" में दोनो वक्त ठाकुरजी से अम्मा के लिए प्रार्थना करती हूँ ।,मैं मिठाई के दोने फेंक दूंगी और वह चाटेगा ।,मैं दोनों वक्त ठाकुरजी से अम्माँ के लिए प्रार्थना करती हूँ । "वह सोच रही थी, आदमी में स्वार्थ की मात्रा कितनी अधिक होती है ।",एक बात कहकर मुकर जाने का साहस मुझमें नहीं है ।,"वह सोच रही थी, आदमी में स्वार्थ की मात्रा कितनी अधिक होती है ।" "फिर हम तो वे आवरू-नहीं करते, सिर्फ अपने मजहब भे शामिल करते हैं ।","अगर ख़ुशी से न आएँ, तो जब्र से ।","फिर हम तो बे-आबरू नहीं करते, सिर्फ अपने मजहब में शामिल करते है ।" "सोना ने मन-ही-मन आनेवाले पदार्था, का आनन्द लेकर कृहा--घड़ा मजा होगा ! फे मोटे ० -- बस, श्रव विलम्ब न करो ।",' मोटे.- 'तुम्हें करना ही क्या है ?,"' सोना ने मन ही मन आनेवाले पदार्थों का आनंद ले कर कहा, 'बड़ा मजा होगा ! ' मोटे.- 'बस, अब विलम्ब न करो ।" यहाँ तक कि आज गंगा-स्नान करने भी न गये,समरकान्त का व्यावहारिक जीवन उनके धार्मिक जीवन से बिलकुल अलग था,यहां तक कि आज गंगा-स्नान करने भी न गए त॒म्हारी घरवाली होगी,उसे सींगों से भगा कर भाग आई तब से तेंदुआ उससे डरता है,तुम्हारी घरवाली होगी अगर ६ दिन के उपवास करने से पाँच दफ़ार मिलें तो में प्रहोने में कम-से-कम पाँच मरतवा यह अनुष्ठान कछ ।,"नईम मेरा मित्र है, किन्तु राष्ट्र मेरा इष्ट है ।",अगर ६ दिन के उपवास करने से पाँच हजार मिलें तो मैं महीने में कम-से-कम पाँच मरतबा यह अनुष्ठान करूँ । मारपत्र्य आज हरदौछ भी जीत को खुशी में शिकार खेजने निकले ये ।,घंटेवाले ने तीन बजाये और किसी के गाने का शब्द कानों में आया ।,भाग्यवश आज हरदौल भी जीत की खुशी में शिकार खेलने निकले थे । "नये सूड बने, सूउक्रेख लिये गये ।",प्रकाश उसी दिन से यात्रा की तैयारियाँ करने लगा ।,"नये सूट बने, सूटकेस लिए गये ।" तुम्हें मोटर छेशर इसो वक्त लौटना पढ़ेगा ।,"हाथ में छड़ी है ही, मैं भी वह क्रोधोन्मत्त आकृति देखकर पछताने लगती हूँ, कि कहाँ से इनसे शिकायत की ?",तुम्हें मोटर लेकर इसी वक्त लौटना पड़ेगा । उसको नवीनता- प्रिय प्रकृति के लिए आनन्द का इससे अच्छा और क्या सामान हो सकता था ।,जेनी इन यात्राओं में बराबर उसके साथ रहती ।,उसकी नवीनता प्रिय प्रकृति के लिये आनन्द का इससे अच्छा और क्या सामान हो सकता था ? "लेकिन रोग का निवारण मौत से नहीं, दवा से होता है ।",कोई समझदार आदमी ऐसा करने का साहस नहीं कर सकता ।,"लेकिन रोग का निवारण मौन से नहीं, दवा से होता है ।" "जिन बच्चों पर वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरत से चिढ़ती ।","वे वाक्य जो क्रोध के आवेश में उसके असंयत मुख से निकले थे, अब उसके हृदय को बाणों की भाँति छेद रहे थे।","जिन बच्चों पर वह प्राण देती थी, अब उनकी सूरत से चिढ़ती।" जीवन भे यह घटना भी स्मरणीय रहेगी |,"मगर कोई मुजायका नहीं, मुझे भी इसका मुँहतोड़ जवाब देना चाहिए ।",जीवन में यह घटना भी स्मरणीय रहेगी । मामी जीने न देंगी ।,"उसी का निर्वाह होगा कठिन है, मुझे कौन पूछनेवाला है ?",मामी जीने न देंगी । "' यह कहकर बह घर आणे और रातो-रात बोरिया बकचा समेटकर रियासत से निकल गये , मगर इसके पहले सारा दत्तान्त लिखकर एजेण्ट के पास भेज दिया ।",यह बलात्कार है ! ' ' आप अपने होश में हैं ?,' यह कहकर वह घर आये और रातों-रात बोरिया-बकचा समेटकर रियासत से निकल गये ; मगर इसके पहले सारा वृत्तान्त लिखकर उन्होंने एजेंट के पास भेज दिया । यह एक चीज़ है ।,और कोई अल्टरनेटिव नहीं है ।,यह एक चीज़ है । "यही पशु हैँ, जिन पर आपको शख्ओों का प्रहार करना उचित है ।",यदि आपकों शिकार करना हो तो इनका शिकार कीजिए ।,"यही पशु हैं, जिन पर आपको शस्त्रों का प्रहार करना उचित है ।" यद्द क्या कि कटे हुए पतंग की तरह जिधर इवा उड़ा छे जाय उधर रलछा जाय,कभीर् कर्तव्य से मुँह न मोड़े,यह क्या कि कटे हुए पतंग की तरह जिधर हवा उड़ा ले जाए उधर चला जाए "अब आप कापो सामने खोछे, कर्म द्वाय में हिये, उसके नाम को रोइए ।","दुगुना नहीं, चौगुना हो जाय, या आधा ही रहे, मेरी बला से, लेकिन परीक्षा में पास होना है, तो यह सब खुराफात याद करनी पड़ेगी ।","अब आप कापी सामने खोले, कलम हाथ में लिये, उसके नाम को रोइए ।" किसी को खबर भी न होगी कि कब अपना मेक-अप करतो हूँ ।,बारे किसी तरह जान लेकर भागा ।,किसी को खबर भी न होगी कि कब अपना मेक-अप करती हूँ । न-जाने कितनी रात बाकी थी |,सुजान के सामने अब एक नयी समस्या खड़ी हो गयी थी ।,न-जाने कितनी रात बाकी थी । ऊपर चाने के लिए एत्यर काट कर चौडे जीने दनाय्े गये थे ।,हाँ अनुमान से यह प्रकट हुआ कि यह स्त्री यहाँ की रानी है ।,ऊपर चढ़ने के लिए पत्थर काट कर चौड़े जीने बनाये गये थे । थोड़े रुपये के लिए घम छोड़ देते हो |,मगर सेठजी को धर्म रुपये से कहीं प्यारा था ।,थोड़े रुपये के लिए धर्म छोड़े देते हो । वही दो आने पैसे लेकर तीनां मूर्तियों बिदा हुई ! ऊेबल में ही उनके साथ करवे के बाहर तक पहुँचाने आया |,मैंने पैसे उठा लिये और जा कर शरमाते-शरमाते रामचन्द्र को दे दिये ।,यही दो आने पैसे ले कर तीनों मूर्तियाँ बिदा हुईं ! केवल मैं ही उनके साथ कस्बे के बाहर तक पहुँचाने आया । मूंह से कुछ न कह सकता ।,"दरवाजे पर दाल-चावल फेंका देखकर शरीर में ज्वाला-सी लग जाती थी, पर सुमन की मोहिनी सूरत ने उसे वशीभूत कर लिया था ।",मुँह से कुछ न कह सकता । "तुम्दारे खिलौने कितना हो जोर छगायें, मेरे चिम्रेटे का बाल भो बाँका नहों कर सकते ।","दस वर्षो में जो कुछ खोया था, वह इसी एक क्षण में मानों ब्याज के साथ मिल गया ।","तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगायें, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नही कर सकते ।" उनमें से एक नियम यह भी है कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूँगा ।,इतने में गोपी भी लौटा ।,उनमें से एक नियम यह भी है कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूँगा । "हवाइयाँ जब सन्न से ऊपर जातीं और आकाश में लाल, हरे, नीले, पीले कुमकुमे-से बिखर जाते ; जब चख्खियाँ छूटतों और उनमें नाचते हुए मोर निकल आते, तो लोग मंत्रमुग्ध-से हो जाते थे ।",आतिशबाजी ही मनोरंजन का केंद्र थी ।,"हवाइयां जब सकै से ऊपर जातीं और आकाश में लाल, हरे, नीले, पीले, कुमकुमे-से बिखर जाते, जब चर्खियां छूटतीं और उनमें नाचते हुए मोर निकल आते, तो लोग मंत्रमुग्ध-से हो जाते थे ।" "अगर यह॒विचार बना रहे, तो समझ लो मंत्री नहीं है ।","मैं तो जानती हूँ, अगर मुझे भूख लगी हो, तो मैं निस्संकोच होकर तुमसे कह दूंगी, बहन, मुझे कुछ खाने को दो, भूखी हूँ ।","अगर यह विचार बना रहे,तो समझ लो मैत्री नहीं है ।" लोग वृत्षों की छात्ें छील-छीलकर खाते थे ।,मुझे अनिष्ट का भय सदैव सताया करता है ।,लोग वृक्षों की छालें छील-छील कर खाते थे । रमा की ओर अविश्वास की आँखों से देखकर बोली -- मैं तो गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूँ ।,उसके बार-बार पूछने पर भी यही कहना चाहिए था कि दाम देकर लाया हूँ ।,रमा की ओर अविश्वास की आंखों से देखकर बोली--'मैं तो गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूँ । "यों तो जरूरत से मजबूर होकर इन्सान क्या नहीं कर सकता, पर हक्ल यह है कि इन बेचारों की हालत वाकई रहम के क्ाबिल है और जो शख्स उनके लिए सीना-सपर दो सके उसके कदम चूसने चाहिए ।",उसके यहाँ मेरी या और किसी की दाल नहीं गलती और लुत्फ यह कि कोई उससे नाखुश नहीं ! बस मीठी-मीठी बातों से मन भर देता है ।,"यों तो जरूरत से मजबूर हो कर इनसान क्या नहीं कर सकता, पर हक यह है कि इन बेचारों की हालत वाकई रहम के काबिल है और जो शख्स उनके लिए सीनासिपर हो सके उसके कदम चूमने चाहिए ।" "अब तो तुम डंडे लेकर भगाश्रो, मिस तुस्दारा दामन न छोड़े, |",तुम अपना रुपया रख लो ।,"अब तो तुम डण्डे लेकर भगाओ, तो भी तुम्हारा दामन न छोडूँ ।" "अबुलवफा---अजी, जहाँ जाता हूँ, उसी की चर्चा सुनता हूँ ।",किसी के गले में वह लोच और नजाकत नहीं है ।,"अबुलवफा -- अजी, जहां जाता हूँ, उसी की चर्चा सुनता हूँ ।" "शादी हो जाने देते, तब मजा श्राता |",तुमने अकेले इतने काफ़िरों के दाँत खट्टे कर दिए ।,"शादी हो जाने देते, तब मज़ा आता ।" सानी शर्म के मारे बहाँ पे भाग गईं ।,"शर्माजी को ऐसा मालूम होने लगा, जैसे कोई भिगो-भिगोकर जूते मार रहा है ।",मानी शर्म के मारे वहाँ से भाग गयी । "उसे निश्चय हो गया कि सेठ वलभद्रदास जो झव तक मुभसे कन्नी काठते फिरते थे, इस लावश्यमयी सुन्दरी पर भ्रमर की भाँति मेंडराएँगे ।",भोली का मनोरथ पूरा हो गया ।,"उसे निश्चय हो गया कि सेठ बलभद्रदास जो अब तक मुझसे कन्नी काटते फिरते थे, इस लावण्यमयी सुन्दरी पर भ्रमर की भाँति मँडराएँगे ।" "चाय के सेट, शीशे के रंगीन गुलदान और फानूस में ला दूँगा ।",और तुरंत नीचे चला गया ।,"चाय के सेट, शीशे के रंगीन गुलदानऔर फानूस मैं ला दूँगा ।" दूसरे द्वी दिन दोनों बादशाहों में सुलह हो गई ।,"उसका हाथ पकड़ने की चेष्टाकरके बोले- प्रिये, बहुत दिनों के बाद यह सुअवसर मिला है ।",दूसरे ही दिन दोनों बादशाहों में सुलह हो गई । भावी जीवन को यद्दी उसी तैयारी है यहो तपस्या है,लगभग पचास छोटे-बड़े गाँवों को वह देख चुका है कितने ही आदमियों से उसकी जान-पहचान हो गई है कितने ही उसके सहायक हो गए हैं कितने ही भक्त बन गए हैं,भावी जीवन की यही उसकी तैयारी है यही तपस्या है न-जानी अ्रस कौन मन्तर मार देत है ।,"दारोगा जी ऐसे ही शिकार ढूँढ़ा करते हैं, लेकिन देख लेना शर्मा जी अबकी मुख्तार साहब की जरूर खबर लेंगे ।",न जानी अस कौन मन्तर मार देत हैं । एक-से-एक बाबू महाजन ठाकुर वकील अमले अफसर अपना रसियापन दिखाकर मुझे फेँसा लेना चाहते हैं,उनसे तो खाली हँस-बोल लेने का नाता रखती हूँ,एक-से-एक बाबू महाजन ठाकुर वकील अमले अफसर अपना रसियापन दिखा कर मुझे फँसा लेना चाहते हैं "जिन विद्रोहियों ने विवाह के समय तरह-तरद की शकाएँ को थीं, वे आँखें खोलकर देखें कि डगामल कितना सुखी है ।","चलो, मैं उनके दर्शन करने चलता हूँ ।","जिन विद्रोहियों ने विवाह के समय तरह-तरह की शंकाएँ की थीं , वे आँखें खोलकर देखें कि डंगामल कितना सुखी है ।" "भ्रव शान्‍्ता वह गाय है, जो हत्या-भमय के वल पर दूसरे का खेत चरती है ।","मामा से वह दबती है, लेकिन मामी से नहीं दबती ओर ममेरी बहिनों को तो वह तुरकी बतुरकी जवाब देती है ।",अब शांता वह गाय है जो हत्या भय के बल पर दूसरे का खेत चरती है । मुन्नी ने अपनी विजय का अनुभव करके कहा-मेरे साथ नाचना चाहोगे तो आप सीौखोगे,इसका नाच देखने के बाद अब दूसरों का रंग नहीं जम रहा है,मुन्नी ने अपनी विजय का अनुभव करके कहा-मेरे साथ नाचना चाहोगे तो आप सीखोगे सहसा एक मोटर आई और शोफर ने उतरकर पुलिस अफसर को एक पत्र दिया ।,कितने ही लोग रो रहे थे ।,सहसा एक मोटर आई और शोफर ने उतरकर पुलिस अफसर को एक पत्र दिया । "इतने में कुप्पो उनके हाथ से छुटकर गिर पढ़ी, और बुक गई ।",खोंचेवाले ने कुप्पी उतार कर दे दी ।,"इतने में कुप्पी उनके हाथ से छूटकर गिर पड़ी, और बुझ गयी ।" दारोश ने यह नादिरशाददी हुव॒म्न सुना तो दोश उड़ गये ।,अब भूलकर भी यह शब्द मुँह से न निकालना ।,दारोगा ने यह नादिरशाही हुक्म सुना तो होश उड़ गये । बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं हे,मैं पहुँचा दूँगी,बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं है चिल्लाकर बोली - हा भगवान्‌ ! मेरे बच्चे को क्या हां गया ?,उसने घबराकर बालक को गोद में उठाया ।,चिल्ला कर बोली - हा भगवान् ! मेरे बच्चे को क्या हो गया ? में भी बता दूगा कि में अपने वैरियों का शुभविन्तक नहीं हूँ ।,"जो लोग इस तरह मेरा गला काटने पर उतारू हों, उन्हें क्योंकर अपना समझूँ ।",मैं भी बता दूँगा कि मैं अपने बैरियों का शुभचिंतक नहीं हूँ । जैसे-जैसे रात बीतती थी; मय भी बढता जाता था ।,नहीं तो दादा हर पाँचवें बरस दो-तीन अचकन और दो कुरते बनवाया करते थे ।,"जैसे-तैसे रात बीतती थी, भय भी बढ़ता जाता था ।" "शाद्वादर्ते मिल गई, महोने-सर तह मुकदमा चला, मुकदमा क्या चला, एक स्वाग चलता रद्दा, और बारे अभियुक्तों को सज़ाएं दे दी गई |","सारा पुलिस-विभाग नीचे से ऊपर तक उससे सतर्क रहता था, सबकी निगाहें उस पर लगी रहती थीं ।","शहादतें मिल गई, महीने-भर तक मुकदमा चला, मुकदमा क्या चला एक स्वाँग चलता रहा और सारे अभियुक्तों को सजाएँ दे दी गई ।" इसका द्शह कुबेर पर्मगिह में हुआ था ।,द०-अजी चलते-चलते थाली सामने आवेगी ।,इसका ब्याह कुँवर धर्मसिंह से हुआ था । जब तक हर्मे जायदाद पेंदा करने की धुन रहेगी दम धर्म से छोरसों दूर रहेंगे,मैं धर्म की असलियत को न समझकर धर्म के स्वांग को धर्म समझे हुए था,जब तक हमें जायदाद पैदा करने की धुन रहेगी हम धर्म से कोसों दूर रहेंगे वह इस पर विचार न कर सकता था ।,रमा अभी इस कला में दक्ष नहीं हुआ था ।,वह इस पर विचार न कर सकता था । "पर जब से उसने इस प्रेममय युवा, योगी का गाता सुना भा, तब से तो वह उस्ती के ध्यान में डूदो रहतो, ।",रावसाहब ने नौगढ़ के नवयुवक और सुशील राजा हरिश्चंद्र से उसकी शादी तजवीज की थी ।,पर जब से उसने इस प्रेममय युवा योगी का गाना सुना था तब से तो वह उसी के ध्यान में डूबी रहती । "जब अपना ही पेट नहीं चलूत;, तो जानवर को फोन पूछे ।",कौन-सी ऐसी बचत हो जाती होगी ।,"जब अपना ही पेट नहीं चलता, तो जानवर को कौन पूछे ।" जालपा ने कहा --- घर चलकर रतन से थोड़ी-सी ज़मीन ले लें और आनन्द से खेती-बारी करें ।,फिर जीवन के मनसूबे बांधो जाने लगे ।,"जालपा ने कहा, 'घर चलकर रतन से थोड़ी-सी ज़मीन ले लें और आनंद से खेती-बारी करें ।" "यहाँ लोग रात ही से ठुमसे मिलने के लिए, वेकरार हो रहे हैं ।",मैं तो मौक़ा पाते ही निकल भागा ।,यहाँ लोग रात ही से तुमसे मिलने के लिए बेक़रार हो रहे हैं । "दरिहर ने सुभागो को समम्धाकर कहा--बेटी, हम तेरे दी भछे को कहते हैं ।",हमारे ही लड़के न जायेंगे ?,"हरिहर ने सुभागी को समझाकर कहा- बेटी, हम तेरे ही भले को कहते हैं ।" आतिशबाज़ी ही मनोरंजन का केन्द्र थी ।,"कोई बाजों की धोंधों-पों-पों सुनकर मस्त हो रहा था, कोई मोटर को आँखें गाड़-गाड़कर देख रहा था ।",आतिशबाजी ही मनोरंजन का केंद्र थी । "वागीश्वरी अब उसे एक व्यर्थ-सी वस्तु मालूम होतो थी , क्योंकि उसको भौतिक ्ष्टि में दरएक वस्तु का मूल्य उससे होनेवाले लाभ पर ही अवलबित था ।",साल ही भर के अंग्रेजी समाज के संसर्ग ने मनहर की मनोवृत्तियों में क्रान्ति पैदा कर दी ।,"वागेश्वरी अब उसे एक व्यर्थ सी वस्तु मालूम होती थी, क्योंकि भौतिक दृष्टि से हर एक वस्तु का मूल्य उससे होने वाले साथ पर ही अवलम्बित था ।" मंयोगव बक्चा उस नौजवान से टशरा गया ।,समझ गया कि मेरी जिंदगी यहीं तक थी ।,संयोगवश बच्चा उस नौजवान से टकरा गया । ... 3त-सारें दिन अकेले इस कृष्पी में बैठे भी तो नहीं रहा जाता ।,पहले यह बताओं कि तुम वहाँ मुझसे पूछे बिना गई क्यों ?,सुमन -- सारे दिन अकेले इस कुप्पी में बेठे भी तो नहीं रहा जाता । "ज्यॉ-ज्यों लाटरी का दिन समीप आता जाता था, हमारे चित्त को शान्ति उढ़ती जातो थी ।","मैं तो समझता हूँ , हममें जो यह भक्ति-निष्ठा और धर्म-प्रेम है , वह केवल हमारी लालसा , हमारी हवस के कारण ।","ज्यों-ज्यों लाटरी का दिवस समीप आता जाता था , हमारे चित्त की शान्ति उड़ती जाती थी ।" आज दो दिन से उसने दाने की सूरत नहीं देखी |,"जिस पुरूष की उसने सूरत भी नहीं देखी, उससे उसे प्रेम नहीं हो सकता ।",आज दो दिन से उसने दाने की सूरत नहीं देखी । दूसरे सज्जन घोले--यहाँ भी वही हाल है ।,"एक सज्जन ने कहा साहब, मुझे तो सब आम एक ही से मालूम होते हैं ।",दूसरे सज्जन ने बोले यहाँ भी वही हाल है । फूले न समाते थे ।,हुक्म को वापस न ले सकते थे ।,फूले न समाते थे । "चीज़ तो यह गुलूबंद है, कितने खूबसूरत फूल हैं! और उनके बीच के हीरे कैसे चमक रहे हैं ! किसी बंगाली सुनार ने बनाया होगा ।",झूठे नगीनों में यह आब कहाँ ।,"चीज तो यह गुलूबंद है, कितने खूबसूरत फूल हैं! और उनके बीच के हीरे कैसे चमक रहे हैं! किसी बंगाली सुनार ने बनाया होगा ।" दोपहर को घर आए ।,"कमिश्नर-नहीं-नहीं, कभी नहीं ।",दोपहर को घर आए । धोला--तो तुम्हारी सलाह है कि सन्‍्यासी हो जाऊँ सुखदा चिढ़ गई,तुम्हें धान काटता हो लेकिन मनस्वी वीर पुरुषों ने सदैव लक्ष्मी की उपासना की है,बोला-तो तुम्हारी सलाह है कि संन्यासी हो जाऊँ- सुखदा चिढ़ गई यह भी जानतो हूँ तुम्हें पा नहीं सकती,मुन्नी ने कलसा जमीन पर रख दिया और बोली-मैं तुमसे बातों में न जीतूँगी लाला लेकिन तुम न थे तब मैं बड़े आनंद से थी,यह भी जानती हूँ तुम्हें पा नहीं सकती सेवा-समिति के डाक्टर भी द्रो दिन बड़ी मिन्नतों से आये ।,"बहाना कर दिया, बड़े पंचजी कहीं गये हैं ।",सेवा-समिति के डाक्टर भी दो दिन बड़ी मिन्नतों से आये । बठ चुपके से ।,क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे ?,बैठ चुपके से । इस संसार का विध्व॑स् क्यों नहीं हो जाता,और हमारा उन्नत समाज विलास में मग्न है,इस संसार का विधवंस क्यों नहीं हो जाता "वह जानते थे, उन्हें डामुल की सजा होगी, यह सारा कारोबार चौपट हो जायगा, यद्द सम्पत्ति धूल में मिल जायगी, कौन जाने अम्नीला से फिर भेंट होगी या नहीं, कौन मरेगा, कोन जियेगा, कोन जानता है, मानो वह स्वेच्छा से यमदूतों का आवाहन कर रहे हों ।",पुजारीजी अपना-सा मुँह लेकर चले गये और सेठजी फिर डालियाँ सजाने में मसरूफ हो गये ।,"वह जानते थे, उन्हें डामुल की सजा होगी; यह सारा कारोबार चौपट हो जायगा, यह सम्पत्ति धूल में मिल जायगी, कौन जाने प्रमीला से फिर भेंट होगी या नहीं, कौन मरेगा, कौन जियेगा, कौन जानता है, मानो वह स्वेच्छा से यमदूतों का आह्वान कर रहे हों ।" कई दिन हुए मुन्ती नाम छी कोई छी भी कई आदमियों के साथ गिरफ़्तार हुई है,जो कुछ इधर-उधर लगा-चिपटा रह गया हो शायद उसे भी खुरचकर निकाल देने का प्रयत्न कर रहे थे,कई दिन हुए मुन्नी नाम की कोई स्त्री भी कई आदमियों के साथ गिरफ्तार हुई है बासन्ती ने शहज़ादी का हाथ पकड़कर कहा --- अब उठेगी भी कि यहाँ सारी रात उपदेश ही देती रहेगी ।,"जालपा--नहीं-नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ ।",बासन्ती ने शहजादी का हाथ पकड़कर कहा--अब उठेगी भी कि यहाँ सारी रात उपदेश ही देती रहेगी । इस विपत्ति में उसे अपने चाचा पशोधर के सिवा और कोई ऐदपता नज़र न आया जो उसे आश्रय देता ।,सोलह वर्ष की अवस्था में मुहल्ले वालों की मदद से उसका विवाह भी हो गया पर साल के अन्दर ही माता और पति दोनों विदा हो गये ।,"इस विपत्ति में उसे उपने चचा वंशीधर के सिवा और कोई नजर न आया, जो उसे आश्रय देता ।" मेरी ओर श्रॉख उठाकर देखा तक नहीं ।,गोविंदी ने सहमते हुए कहा -तुम भी तो अभी नहीं सोये ।,मेरी ओर आँख उठा कर देखा तक नहीं । उसने पर्मशालासे निकल कर द्ाहर से वाहर ५ ९० महोने पर एक छोटी-सी कोठरों ले छो ।,एक ही महीने में उसे १ रु० रोज मिलने लगा ।,उसने धर्मशाला से निकल कर शहर से बाहर ५ रु० महीने पर एक छोटी-सी कोठरी ले ली । मुझे इस सप्ताह में तनिक भी अ्रवकाश न मिला,तुम्हारा परिवार इस प्रकार बढ़े जेसे गंगा जी का जल,मुझे इस सप्ताह में तनिक भी अवकाश न मिला तुम हमें मन में राच्छस सममत रहे होगे 2,लेकिन हमारे यहाँ तो आए दिन यही धंधा लगा रहता है,तुम हमें मन में राक्षस समझ रहे होगे विश्वास हो गया कि हम न जीत सकेंगे,में न जाऊँगी,विश्वास हो गया कि हम न जीत सकेंगे "यही बालक मेरे जीवन का अलम ह, मुझपर दवा करा |",दस बजे रात तक कथा वार्ता होती रही और सुखिया वृक्ष के नीचे धयानावस्था में खड़ी रही ।,"यही बालक मेरे जीवन का अलम है, मुझ पर दया करो ।" "मे भी बे शौक से गया, पर मुझे; तो वहों की लीला और किसी वज्र देहात की लीला में कोई अन्तर न दिखायी दिया ।",काशी की लीला जगद्विख्यात है ।,मैं भी बड़े शौक से गया; पर मुझे तो वहाँ की लीला और किसी बज्र देहात की लीला में कोई अन्तर न दिखायी दिया । लेकिन कमेटी ने यह फैसला कर दिया है कि यहाँ इस किस्म का कोई क्राम न कराया जाए ।,विट्ठल -- मैं इस मेहरबानी के लिए आप का मशकूर हूँ ।,लेकिन कमेटी ने यह फेसला कर दिया है कि यहाँ इस किस्म का काम न कराया जाए । "तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया हूँ; लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूँ, इस विधुर-जीवन में मैंने किसी स्त्रो की ओर आँख तक नहीं उठायी ।",महल का सुख भोगने के बाद झोंपडा किसे अच्छा लगता है ?,"तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया हूँ, लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूँ, इस विधुर-जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर आंख तक नहीं उठाई ।" "चपरासी कोई ऋषि है, मुनि है ?",मनुष्य की यही प्रकृति है ।,"चपरासी कोई ऋषि है, मुनि है ?" किन्ठ यहाँ आकर मैं मानों भ्रष्टलोक में पहुँच गयी हूँ ।,हमारे घर में धोबी कदम नहीं रखने पाता ! चमारिन दालान में भी नहीं बैठ सकती थी ।,किन्तु यहाँ आ कर मैं मानो भ्रष्टलोक में पहुँच गयी हूँ । "( एक क्षण के बाद फिर पार्क की ओर ताकता है, और परदेदार महिलाओं को घास पर बेठे देखकर लम्बो साँस लेता है ।",बस दावतें खाना और मौज उड़ाना उसका काम है ।,"एक क्षण के बाद फिर पार्क की ओर ताकता है , और पहरेदार महिलाओं को घास पर बैठे देखकर लम्बी साँस लेता है ।" बहुत होगा दस-पाँच हजार उसे दे देंगे ।,इतने रुपये दे देना तुम्हारे लिए कुछ भी मुश्किल नहीं ।,"बहुत होगा , दस-पाँच हजार उसे दे देंगे ।" बालविवाह के विरोधी होने पर भी देवप्रकाश अब इस शुभमुहूर्त को म टाल सकते भे ।,संध्या का समय था ।,बालविवाह के विरोधी होने पर भी देवप्रकाश अब इस शुभमुहूर्त को न टाल सकते थे । छुगनू के दिल में दज़ारों मुर्द गढ़े पढ़े थे और वह ज़रूरत पढ़ने पर उन्हें उखाड़ दिया करती थी ।,जोखू-जरा बैलों को सानी-पानी देता जाऊँ तो बैठूँ ।,जुगनू के दिल में हजारों मुरदे गड़े पड़े थे और वह जरूरत पड़ने पर उन्हें उखाड़ दिया करती थी । "उसे उनका प्रतिबाद करने की बड़ी प्रवल इच्छा हो रही थी; उसकी ताकिक दाक्ति कभी इतनी सतेज न हुई थी, और यदि विवाद तक ही तक रहता, तो वह जरूर उनसे उलभ पड़ता ।",लेकिन अपने चाचा से वह बहुत दबता था ।,उसे उनका प्रतिवाद करने की बड़ी प्रबल इच्छा हो रही थी; उसकी तार्किक शक्ति कभी इतनी सतेज न हुई थी और वाद-विवाद तर्क तक ही रहता तो वह जरूर उनसे उलझ पड़ता । कम से कप्र मुझे तो ऐसा हो जान पडता है ।,रानी की तरफ़ घूर कर देखा और भोजन करने लगे ।,कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही जान पड़ता है । पहर रात से ज्यादा जा चुकी थी,रूपा भी लड़कों में जा मिली,पहर रात से ज्यादा जा चुकी थी "स्वयर देवप्रकाश वो यह हार्दिक इच्छा थी कि पहिसे बड़े छड़के का विवाह करें, पर उन्हाने भो आज तक सत्पप्रकाश को कोई एव न रिख्ा था ।",मैंने अनंत धन प्रियतमा पत्नी सपूत बेटे और प्यारे-प्यारे जिगर के टुकड़े नन्हे-नन्हे बच्चे आदि अमूल्य पदार्थ केवल इसीलिए परित्याग कर दिया कि मैं प्यारी भारत-जननी का अंतिम दर्शन कर लूँ ।,स्वयं देवप्रकाश की यह हार्दिक इच्छा थी कि पहिले बड़े लड़के का विवाह करें पर उन्होंने भी आज तक सत्यप्रकाश को कोई पत्र न लिखा था । "बोले - भाई जात, एक जजाल से फेंस गया हूँ ।",आज उन्हें अनायास लखनऊ में देखकर मुझे आश्चर्य हुआ आप यहाँ कैसे ?,"बोले भाईजान, एक जंजाल में फँस गया हूँ ।" में आप सब साहवों का दास हूँ ।,अदालत में उसका कुछ जोर न था ।,मैं आप सब साहबों का दास हूँ । "पच्चे पेदा तो दृर-पुष्ठ होते, दिन्‍्तु जन्म लेते द्वी उन्हें एक-त-एड रोग छा जाता था, थोर कोई दो-बार मदोने, कोई खाल-भर भोकर चल देते थे ।",वह दिन-भर खाट पर पड़ी रहती हैं और बात-बात पर नौकरों पर झल्लाया करती हैं ।,"बच्चे पैदा तो हृष्ट-पुष्ट होते, किन्तु जन्म लेते ही उन्हें एक-न-एक रोग लग जाता था और कोई दो-चार महीने, कोई साल-भर जीकर चल देते थे ।" "बच्ची के लिए भी मिठाइयाँ, खिलोने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये होँ ।",यह मैं मानती हूँ कि बेचारे अपने लिए भी कुछ नहीं लाते ।,"बच्चों के लिए भी मिठाइयाँ, खिलौने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये हों ।" "हामिद--एक सौ तो प्चास से ,ज्यादा होते हैं ?",एक बरतन तक न बचा ।,हामिद—एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं ? राम का नाम लेकर ब्याह करो ।,इन बातों में क्या रखा है ?,राम का नाम लेकर ब्याह करो । हृदय के सारे तार कंपित हो गये ।,अपनी हमजोलियों को दिखाकर अपना गौरव और उनकी ईर्ष्या बढ़ाती हूँ ।,ह्रदय के सारे तार कंपित हो गये । बहली के आगे-“पीछे चौकीदारों का दल था ।,तुरंत बहली तैयार हुई और दोनों आदमी उस पर बैठकर चले ।,बहली के आगे-पीछे चौकीदारों का दल था । वह डरने से कितना ही इनकार करे ; पर उसकी हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी |,कोई तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं ।,"वह डरने से कितना ही इंकार करे, पर उसकी हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी ।" हरनाथ इन दिनों चीघरी से इतना जलता था कि अपनी दूकान के विधय की कोई वात उनसे न कहता था |,लेकिन दूकान में सदैव रुपयों का तोड़ा रहा ।,हरनाथ इन दिनों चौधरी से इतना जलता था कि अपनी दूकान के विषय की कोई बात उनसे न कहता था । उसे विश्गस हो गया कि आज ठुल्यछ वद्दों है ।,हरिश्चंद्र ने पूछा-कैसा गाना था प्रभा के होश उड़े हुए थे ।,उसे विश्वास हो गया कि आज कुशल नहीं है । भब इसी बात पर में देखती हूँ कि केसे घर में सिकार जाता है,जिसमें लाज है जो किसी के सामने सिर नहीं नीचा करना चाहता वह ऐसी बात पर जान भी दे सकता है,अब इसी बात पर मैं देखती हूँ कि कैसे घर में सिकार जाता है क्या तुम समझते हो कि में गहने और साड़ियों पर मरती हुँ ?,"वह तो कहो बाबूजी घर का ख़र्च संभाले हुए हैं, नहीं तो मालूम होता ।",क्या तुम समझते हो कि मैं गहने और साडियों पर मरती हूँ ? "कोई झात्चर्य करता था, कोई घुणा करता, कोई हेसी उटाता था ।",यह महाशय अब म्युनिसिपल बोर्ड के मंत्री हो गये थे और आजकल इस दुविधा में पड़े हुए थे कि शहर में मादक वस्तुओं के बेचने का ठीका लूँ या न लूँ ।,कोई आश्चर्य करता था कोई घृणा करता कोई हँसी उड़ाता था । मुमे! आवश्यक कार्य से रेलगाड़ी पर सवार होना है |,मैंने ऐसा सुन्दर बैल नहीं देखा ।,मुझे आवश्यक कार्य से रेलगाड़ी पर सवार होना है । खुखदा ने जेसे आइत द्ोऋर कद्दा- नहीं हमें रिशवत देना मजूर नहीं,डरता हूँ कहीं घुड़क न बैठे,सुखदा ने जैसे आहत होकर कहा-नहीं हमें रिश्वत देना मंजूर नहीं "दोनों सज्जन फिर जो खेलने बेठे, तो तोन बज गये ।",ये चकमे किसी और को दीजिएगा ।,"दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे, तो तीन बज गये ।" हृदय के सकुचित पात्र में इतना एड्सान न समा सका |,देने भर के रुपये हो जायँगे ।,हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका । "दयानाथ ने इस तरह गर्दन उठायी, मानों सिर पर सैकड़ों मन का बोझ लदा हुआ है ।","कोई चलता हुआ आदमी शायद इतना व्यग्र न होता, हीले-हवाले करके महाजन को महीनों टालता रहता; लेकिन दयानाथ इस मामले में अनाड़ी थे ।","दयानाथ ने इस तरह गर्दन उठाई, मानो सिर पर सैकड़ों मन का बोझ लदा हुआ है ।" उसने गाँव और नाम और ज्ञात पूछी,अपने गाँव में कुत्ता भी शेर हो जाता है लेकिन आने दो,उसने गाँव और नाम और जात पूछी त्योद्ारों के दिन उसे रोते ही कटते थे ।,"अब घर का मालिक था, जो चाहे कर सकता था ।",त्योहारों के दिन उसे रोते ही कटते थे । ऐसा जान पढ़ता था कि मेरा बालक मेरी गोद आने के लिए हुमक रहां ऐ,अब मालूम हुआ क्या कुछ खोकर चली जा रही हूँ,ऐसा जान पड़ता था कि मेरा बालक मेरी गोद में आने के लिए हुमक रहा है में अपनी भीझ्ता ओर चैतिक दुर्बलता पर छाज्जित हैं ।,अगहन का महीना था बरगद की डालियों में मूँगे के दाने लगे हुए थे ।,मैं अपनी भीरुता और नैतिक दुर्बलता पर अत्यंत लज्जित हूँ । "वह वही करना चाहता था, जो सुमन को पसन्द ही ।",उसका अक्खड़पन लुप्त हो गया था ।,"वह वही करना चाहता था, जो सुमन को पसंद हो ।" शोंगुर ने उसे रब्त-फ़ज्त बढ़ाता शुरू दिया |,गाँव-भर की स्त्रियाँ उसे देखने आयीं ।,झींगुर ने उससे रब्त-जब्त बढ़ाना शुरू किया । "दो-चार साँडे मिल जाते, तो मेहनत सुफल हो जाती |",दोपहरी उसने एक पेड़ की छाँह में काटी थी ।,"दो-चार सैंकडे मिल जाते, तो मेहनत सुफल हो जाती ।" "ह हम सदर दरवाजे पर पहुँचे, कई आादमियों ने दोड़कर मेरा स्वागव फ़िया ।","भवन अभिमान से सिर उठाए हुए था, सागर संतोष से नीचे लेटा हुआ, सारा दृश्य काव्य, श्रृंगार और अमोद से भरा हुआ था ।","हम सदर दरवाजे पर पहुँचे, कई आदमियों ने दौड़कर मेरा स्वागत किया ।" "जब ऐक्टर हीं अच्छे नदीं, तो उनसे अपना ड्रामा खेलवाना उसकी मिद्दी ख़राब करना था ।",अमरनाथ -'पुस्तक नहीं रत्न है ।,"जब ऐक्टर ही अच्छे नहीं, तो उनसे अपना ड्रामा खेलवाना उसकी मिट्टी खराब कराना था ।" इलको-सो छालिमा चेहरे पर दौढ़ गई ।,प्रकाश ने अधीर होकर पूछा— अम्माँ कहाँ चली गयी थीं ?,हलकी-सी लालिमा चेहरे पर दौड़ गयी । मेने द्वार खोला और छज्जे पर खढ़ो होकर ज़ोर से बोलो -कौन कुण्ही खड़खढ़ा रद्दा है ।,"दुनिया में बस एक ही जगह है, जहाँ मुझे आफियत मिलती है ।","मैंने द्वार खोला और छज्जे पर खड़ी होकर जोर से बोली, कौन कुंडी खड़खड़ा रहा है ?" बुढ़िया छबड़ियों में चीज़ें लगा-लगाकर रखती जाती थी और हिसाब भी लिखाती जाती थी ।,"आपसे यदि सर्राफ से दोस्ती है, आप मुलाहिजे और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए ।",'बुढिया छबडियों में चीज़ें लगा-लगाकर रखती जाती थी और हिसाब भी लिखाती जाती थी । इन इरादों के पूरा करने का मुअवसर हाथ जाया ।,इससे उन्हें कालेज में प्रतिनिधित्व का काम मिल गया ।,इन इरादों के पूरा करने का सुअवसर हाथ आया । "हो देवियाँ-:-एक इंद्धा, दूसरी नवयोवना पार्क के फाटक पर मोटर से उतरी और पार्क में हवा खाने आई' ।",' 'आपकी बातों से दिल में गुदगुदी हो गयी ।,"दो देवियाँ एक वृद्धा, दूसरी नवयौवना पार्क के फाटक पर मोटर से उतरीं और पार्क में हवा खाने आयीं ।" "आशा है, तुम सकुशल होगे ।",चौधरी पर इस सहानुभूति का गहरा असर पड़ा ।,"आशा है, तुम सकुशल होगे ।" "पेठ पाज्ञना है, ता हुकुम मानना ही पड़ेगा |","गोविंदी को देख कर तुरन्त निकल आयी और विस्मय से बोली - क्या है बहन, पानी-बूँदी में कैसे चली आयी ?","पेट पालना है, तो हुकुम मानना ही पड़ेगा ।" "तब दोनो ने दीवार की नसकौन मिट्टी चाटनो शुरू की , पर इससे क्‍या तृप्ति होती ।",कई बार कह चुके हैं कि मुझे सबसे ज्यादा फिकर सेठजी की है ।,"तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की , पर इससे क्या तृप्ति होती ।" महाराज को प्रधाम करे के पदबात्‌ ये अपने सुसज्जित जासत पर बैठ गये ।,तिब्बत के यात्री आशा और भय की दशा में प्रधानमंत्री के मुख से अंतिम निर्णय सुनने को उत्सुक हो रहे थे ।,महाराज को प्रणाम करने के पश्चात् वे अपने सुसज्जित आसन पर बैठ गये । जो कुछ कहना हो आकर कहें,चौधरी औरत जात से इस विषय में बातचीत करना नीति-विरुद्ध समझते थे,जो कुछ कहना हो आ कर कहें "कावसजी के जीवन में अशात्ति थी, कटुता थी, निराशा थी, उदासीनता थी ।","कमाई दोनों ही कर रहे थे , पर शापूरजी प्रसन्न थे ; कावसजी विरक्त ।","कावसजी के जीवन में अशांति थी , कटुता थी , निराशा थी , उदासीनता थी ।" काले खॉ ने ऐसा मुँह बनाया मानो ऐसी बकवास बहुत सुन चुका है और बोला-- तो तुम्हें नहों लेता है १ “नहीं वास देते हो,मैं चोरी का माल नहीं लूँगा चाहे लाख की चीज धोले में मिले,काले खाँ ने ऐसा मुँह बनाया मानो ऐसी बकवास बहुत सुन चुका है और बोला-तो तुम्हें नहीं लेना है- नहीं "बार-बार चाहता था कि' दौवार से सिर टकराकर प्राण दे दे, लेकिन यह आशा रोक देतो थी कि शायद लोगों फो मुक्त पर दया आ जाय ।","भूख लगी, पर खाना कहाँ ?",बार-बार चाहता था कि दीवार से टकराकर प्राण दे दे; लेकिन यह आशा रोक देती थी कि शायद लोगों को मुझ पर दया आ जाय । गोपी और विश्वम्भर से भी अब उसे स्नेह हो गया ।,"अब तक वह जागेश्वरी से बहुत कम मिलती थी, पर अब बहुधा उसके पास आ बैठती और इधर-उधर की बातें करती ।",गोपी और विश्वम्भर से भी अब स्नेह हो गया । बुरे कामों में ही सहयोग की जरूरत नहीं होती,नाटक कोई अच्छा न मिला,बुरे कामों में ही सहयोग की जरूरत नहीं होती में तो समझता हूँ कि यह लोग आंपको छोड़कर कभो न जायेगे,आप जुलूस में न जायेगी तो इन्हें कितनी निराशा होगी,मैं तो समझता हूँ कि यह लोग आपको छोड़कर कभी न जायेगेँ "तारा की माँ ने कई बार पुकारा , पर मेंने पीछे फिरकर भी न देखा ।","जब तुम्हारा कोई खत नहीं आया , तब वह निराश हो गयी ।",तारा की माँ ने कई बार पुकारा पर मैंने पीछे फिर कर भी न देखा । तो ज़रा झहरो में अपनी कुछ ज़ररो चीज़ें तो ले छ,मोटर चली तो सलीम की आँखों में आँसू डबडबाए हुए थे,तो जरा ठहरो मैं अपनी कुछ जरूरी चीजें तो ले लूं बस इस वक़्त वहाँ जाना चाहिए ।,"संभव है, वह खुद ही लज्जित होकर क्षमा मांगे और रूपये दे दे ।",बस इस वक्त वहाँ जाना चाहिए । हु जज साह॒व साँवले रंग के नाठे चकले बृहृदाकार मनुष्य थे,जरा आजकल इसी झंझट में पड़ा रहा,जज साहब साँवले रंग के नाटे चकले वृहदाकार मनुष्य थे इनके अनुष्ठानों ने उस ग्रह को शान्त कर दिया ।,मैंने जज साहब से सारा कच्चा चिटठा कह सुनाने का निश्चय कर लिया है ।,इनके अनुष्ठानों ने उस ग्रह को शांत कर दिया । "पुराने जसाने का पक्का ससाला था, कुल्हाड़ी उचट-उचट कर लौट आती थी ।",कोई आँखें न मिला सके ।,पुराने जमाने का पक्का मसाला था; कुल्हाड़ी उचट-उचट कर लौट आती थी । चौधरी --भ्रव हम तुम्हें कमी न जाने देंगे ।,संकोच ने फिर उनकी जबान बंद कर दी ।,चौधरी - अब हम तुम्हें कभी न जाने देंगे । ". सानकी--वह चाहे मजूरो करे, पर इस काम मे न डाूंगों ।",ईश्वर.-वकालत में भेजोगी पर देख लेना पछताना पड़ेगा ।,मानकी-वह चाहे मजूरी करे पर इस काम में न डालूँगी । "और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे सज्जन, उदार, नीतिश्न शुभचिन्तकों के विरद्ध कुछ कद्दना या करना सनुष्यत्व ओर सदू- व्यवहार का गला घोगना है ।",लिखने-पढ़ने में भी कुशल हो गया ।,"और सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसे सज्जन, उदार, नीतिज्ञ शुभचिंतकों के विरुद्ध कुछ कहना या करना मनुष्यत्व और सद्व्यवहार का गला घोटना है ।" "म्युनिसिपैलिटी के प्रधान क्या हो गए, राज्य मिल गया ।","यों तो मुझे देखते ही खिल उठते थे, दौड़कर छाती से लगा लेते थे, आज मुखातिब ही नहीं होते ।","म्युनिसिपैलिटी के प्रधान क्या हो गए, राज्य मिल गया ।" वहाँ उसका काम चुंगी के रुपये वसूल करना है ।,वह इलाहाबाद के म्युनिसिपल आफिस में नौकर है ।,वहाँ उसका काम चुंगी के रूपये वसूल करना है । "इसलिए श्रव वह निरपेक्ष रह सकते थे, जो सभापति का धर्म है।",डाक्टर साहब को छोड़ कर १७ सम्मतियों में ९ उनके पक्ष में थीं ।,"इसलिए अब वे निरपेक्ष रह सकते थे, जो सभापति का धर्म है ।" "उछ्ते भ्रम होने लगा दि वह बच्चों को खूब दूध पिला रही है, साँप को पाझ रही ऐप ।",बकरी को भूसी-चोकर खिलाकर ऐसा परचा लिया कि वह स्वयं चोकर के लोभ से चली आती और दूध देकर चली जाती ।,"उसे भ्रम होने लगा कि वह बच्ची को खूब दूध पिला रही है, साँप को पाल रही है ।" उन्हें दोघ॑-तिद्रा का रोग था जो वैद्य जो के लगातार भाषण और फटकार को ओऔपधियों से कम न होता था ।,किंतु राजवैद्य लाला शंकरदास अभी तक मीठी नींद ले रहे थे ।,उन्हें दीर्घ-निद्रा का रोग था जो वैद्य जी के लगातार भाषण और फटकार की औषधियों से भी कम न होता था । "अगर तुम समझते दो, यह ताज और तख्त मेरे रास्ते के रोड़े हैं तो खुदा को क्रम में आज इन पर छात मार दूं ।","जिसको तुम्हारा दुश्मन होना चाहिए , वह तुम्हारा दोस्त है ।","अगर तुम मुझे समझते हो, यह ताज और तख्त मेरे रास्ते के रोड़े है, तो खुदा की कसम, मैं आज इन पर लात मार दूँ ।" दोनों के हृदय प्रेम के सूत्र में बंध गये ।,"बुढिया ने उसके मुँह की ओर देखा, तो न जाने क्यों उसका मात!-ह्रदय उसे गले लगाने के लिए अधीर हो उठा ।",दोनों के ह्रदय प्रेम के सूत्र में बंध गए । "वह नस शानेवाले सम्रय का सन्देदा सुनाती थी, जब देश में सन्‍्तोष और प्रेम का साम्राज्य होगा, जम इन्द्र और सप्राम का अन्त हो जायगा |","जिस वक्त लैला मस्त होकर गाती थी, उसके मुख पर एक स्वर्गीय आभा झलकने लगती थी ।","वह उस आनेवाले समय का संदेश सुनाती थी; जब देश में संतोष और प्रेम का साम्राज्य होगा, जब द्वंद्व और संग्राम का अंत हो जायगा ।" "कहाँ तो श्रच्छे-अ्रच्छे सूटो का ख़ब्त-था, कोई खुशनुमा डिज़ाइन का कपड़ा श्रा जाय, आप एक ""सूट ज़रूर बनवायेगे ।","खिदमतगार ने हुक्का लाकर रख दिया, दो-चार कश लगा लिये ।","कहाँ तो अच्छे-अच्छे सूटों का खब्त था, कोई खुशनुमा डिजाइन का कपड़ा आ जाय, आप एक सूट जरूर बनवायेंगे ।" "नादिर - झूठ मत बोलो--द्दीरा बादशाह के लिए है, वादशाद्दो हीरा के छिए नहीं ।",आह ! उसकी कल्पना ही से रोमांच हो जाता है ।,"नादिर- झूठ मत बोलो, हीरा बादशाह के लिए है, बादशाह हीरे के लिए नहीं ।" "वट्ठलदास को बुरा मालूम हुआ, पर पघैय॑ से अर नल लूम हुआ काम लिया ।",मुझे तैयार ही समझिए ।,बिट्ठलदास को बुरा मालूम हुआ पर धैर्य से काम लिया । "मुनीमजी, जरा वह शीशफूल दिखाना तो ।",कहिए दस हज़ार का माल साथ भेज दूँ ।,"मुनीमजी, ज़रा वह शीशफूल दिखाना तो ।" "इसी भाँति एक दिन रामेश्वरी ने एक भिन्लुक को दुत्कार दिया, तो बाबू साहब-ने फिर उपदेश देना शुरू किया |",रूल लेकर बिल्ली को इतने जोर से मारा कि वह दो-तीन लुढ़कियाँ खा गई ।,"इसी भाँति एक दिन रामेश्वरी ने एक भिक्षुक को दुत्कार दिया, तो बाबू साहब ने फिर उपदेश देना शुरू किया ।" "जब में नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी, और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे ।",तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी ।,"जब मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी, और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे ।" बोली--तो इतनी रात गये चूल्द्दा जलाओगे ।,"जोखू झेंपता हुआ बोला- वह बातें जब थीं, जब मालिक लोग चाहते थे कि इसे पीस डालें ।",बोली- तो इतनी रात गये चूल्हा जलाओगे । कपोल तमतमाये हुए हैं; पर अधथरों पर विष-भरी मुस्कान है और आँखो में व्यग्य-मिला परिद्दास ।,"माँ और बेटा दोनों स्तम्भित हो जाते हैं , मानो कोई बम गोला आ गिरा हो ।",कपोल तमतमाये हुए हैं ; पर अधरों पर विष भरी मुस्कान है और आँखों में व्यंग्य-मिला परिहास । "आजनंदी--स्थामी, आपके मन में ऐसो दातों का आता मुझ पर धोर अन्याय है ।",इतना जानते हुए भी मुझमें इतना साहस नहीं है कि अपने कुकृत्य का भार सिर ले लूँ ।,आनंदी-स्वामी आपके मन में ऐसी बातों का आना मुझ पर घोर अन्याय है । नहीं जानता था कि उसका यह परिणाम होगा |,"गंगाजली के सिरहाने बैठ कर रोते हुए बोले -- बहन, यहाँ लाकर मैंने तुम्हें बड़ा कष्ट दिया है ।",नहीं जानता था कि उसका यह परिणाम होगा । "संपतार सबके लिए है, ओर उपर्तें सबको सुद् भोगने का सम्तान जधिद्गर है ।","ऐसे न्याय-विहीन संसार में यदि चोरी, हत्या और अधर्म है तो यह किसका दोष है ?",संसार सबके लिए है और उसमें सबको सुख भोगने का समान अधिकार है । दस बजे सुखदा ने आकर पूछा--भआप क्या भोजन कीजिएगा १ लाजाजी ने उसे कठोर भाँखों से देखकर कहा--मुझे भूख नहीं है,खिदमतगार ने चाँदी का गड़गड़ा लाकर सामने रख दिया,दस बजे सुखदा ने आकर कहा-आप क्या भोजन कीजिएगा- लालाजी ने उसे कठोर आँखों से देखकर कहा-मुझे भूख नहीं है तुम्दें यह भेस छोड़ना पछ्ेंगा,अहाते में छोटा-सा बाग था,तुम्हें यह भेष छोड़ना पड़ेगा ",,- भगड़े को जढ़ कुछ न थी ।","भाई-बहिन दिन में कितनी बार लड़ते हैं, रोना-पीटना भी कई बार हो जाता है; पर ऐसा कभी नहीं होता कि घर में खाना न पके या कोई किसी से बोले नहीं ।",झगड़े की जड़ कुछ न थी । अभी इसी ठाकुर ने तो उत्त दिव वेचारे गढ़रिये को एक भेर चुरा लो थी और बाद को मारकर खा गया ।,"यहाँ तो जितने है, एक- से-एक छँटे हैं ।",अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद मे मारकर खा गया । एक दिन गाँव में गया के यात्री आकर ठहरे |,"जिस दिन पहली बार पुर चला, सुजान को मानो चारों पदार्थ मिल गये ।",एक दिन गाँव में गया के यात्री आ कर ठहरे । "सात बज गए, लेकिन सदन न आया |",बिट्ठलदास को बुरा मालूम हुआ पर धैर्य से काम लिया ।,"सात बज गए, लेकिन सदन न आया ।" जुआ पड़ा और सारा नशा हिरन हुआ ।,"जब तक गले में जुआ नहीं पडा है, तभी तक यह कुलेलें हैं ।",जुआ पडा और सारा नशा हिरन हुआ । "मिन्नो' की ते दिल्लगी थीं, और उस बेचारे की जात पर बन रही थी ।",कविजनों के नाम बुलावे भेजे गये ।,मित्रों की तो दिल्लगी थी और उस बेचारे की जान पर बन रही थी । लीग! के प्रायः सभी लोग कॉलेज में पढ़ते थे ।,ऐसे अवसर पर निकल भागने में बदनामी का भय था ।,लीग के प्रायः सभी लोग कॉलेज में पढ़ते थे । "बाजवहादुर--रास्ते से हट जाओ, मुझे जाने दो |",बेचारे बाजबहादुर को इस गुप्त लीला की जरा भी खबर न थी ।,"बाजबहादुर-रास्ते से हट जाओ, मुझे जाने दो ।" दुज वेग दिन पड़ित जो के प्रतिष्ठा के श्राद्ध का दिन था |,पैतृक प्रतिष्ठा का चिह्न यदि कुछ शेष था तो वह पुरानी चिट्ठी-पत्रियों का ढेर तथा हुंडियों का पुलिंदा जिनकी स्याही भी उनके मंद भाग्य की भाँति फीकी पड़ गयी थी ।,दूज का दिन पंडित जी के प्रतिष्ठा के श्रद्धा का दिन था । "उसका हृदय बाँसों उछुल रहा था, भस्तिप्क चक्कर खाता था |","अकस्मात् एक बार बिजली का भयंकर नाद सुनायी दिया, एक ज्वाला-सी दिखायी दी और अमरनाथ अदृश्य हो गये ।","उसका हृदय बाँसों उछल रहा था, मस्तिष्क चक्कर खाता था ।" लोग मेज पर बैठे ।,भोजन का समय आ गया ।,लोग मेज पर बैठे । "तैरता हुआा जस पार पहुँचा, तो वहाँ उसक्गी चिर-संचित अभिलापाएँ भूतिमती हो रही थीं ।",उन अत्याचारी पशुओं ने बहुत दूर तक उसका पीछा किया यहाँ तक कि मार्ग में एक नदी पड़ गयी और टामी ने उसमें कूद कर अपनी जान बचायी ।,तैरता हुआ उस पार पहुँचा तो वहाँ उसकी चिर-संचित अभिलाषाएँ मूर्तिमती हो रही थीं । बाप की दशा और भो वरुणाजनक थी |,"कई हफ्तों के बाद, छावनी रेलवे स्टेशन से एक मील पश्चिम की ओर सड़क पर कुछ हड्डियाँ मिलीं ।",बाप की दशा और भी करुणाजनक थी । पर्तु उस वेचारी को ऐसे कठिन परिश्रम का अभ्यास तो कभी था नहीं थोड़े ही दिनो में उसे थकान के फारण रात को कुछ ज्वर रहने लया,वहाँ एक साधु बाबा है,परन्तु उस बेचारी को ऐसे कठिन परिश्रम का अभ्यास तो कभी था नहीं थोड़े ही दिनों में उसे थकान के कारण रात को कुछ ज्वर रहने लगा "जब से दूसरे मकान में उठ आए हैं, बहुत छुखी रहते हैं ।",उनकी दशा देखकर तरस आता है।,"जब से दूसरे मकान में उठ आए हैं, बहुत दुखी रहते हैं।" "ह मजूर-स््रियाँ गा रही हैं, बालक दौढ़-दौड़कर छोटे-मोटे काम्र कर रहे हैं ।",उस वक्त छोटी-सी लड़की दो रोटियां लिए निकली और दोनों के मुंह में देकर चली गई ।,"मजबूर स्त्रियाँ गा रही हैं, बालक दौड़-दौड़कर छोटे-मोटे काम कर रहे हैं ।" "एड ने राज्याधिकार छा रास्ता लिया, लिसका लप्ष्य धत था, और दूसरे ने सेवा-मा्ग का सद्दारा लिया, जिसका परिणाम खुयाति, कष्ट और कमी-फर्भी फारागार द्ोता है ।","कोई समय था, जब बाजी तुम्हारे हाथ रहती थी ।","एक ने राज्याधिकार का रास्ता लिया, जिसका लक्ष्य धन था और दूसरे ने सेवा-मार्ग का सहारा लिया जिसका परिणाम ख्याति और कष्ट और कभी-कभी कारागार होता है ।" उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली थी ।,लेकिन परिणाम का भय किसी तरह पीछा न छोड़ता था ।,उन्होंने कभी रिश्वत नहीं ली थी । "अब वह पहले की-सो दशा नहीं दै 'के कोई चोगड़े लपेटे घूम रद्द दे, करियों को पहने की धुन सवार है ।",प्यारी के अधिकार मे आते ही उस घर मे जैसे वसन्त आ गया ।,"अब वह पहले की-सी दशा नहीं है कि कोई चिथड़े लपेटे घूम रहा है, किसी को गहने की धुन सवार है ।" "जब देखा कि यहाँ दाल नहीं गलती, तो भगत बन गये ।",उन्हीं तीन-चार घंटों में छः-सात रूपये आ जाते थे और सब ख़र्च निकालकर तीनचार रूपये बच रहते थे ।,"जब देखा कि यहाँ दाल नहीं गलती , तो भगत बन गए ।" मा के इस निर्देय प्रइ्न पर झेमलाकर बोली--जब सौत आती है तो आदमी मर जाता है,बाप हो गया शत्रु,माँ के इस निर्दय प्रश्न पर झुंझलाकर बोली-जब मौत आती है तो आदमी मर जाता है सलीम और डाक्टर साहब तो ज़रा देर में हँसने-चोलने लगे,तीनों गोरे भी गाड़ी पर लादे गए और गाड़ी चली,सलीम और अमर तो जरा देर में हँसने-बोलने लगे "वह आदमी नहीं देवता थे, जिन्हँनि मेरे कल्याण के निमित्त अपने प्राण तक सम्रपण कर दिये ।",पण्डित हृदयनाथ ने भी विनोद की सामग्रियाँ जुटायीं ।,"वह आदमी नहीं, देवता थे, जिसने मेरे कल्याण के निमित्त अपने प्राण तक समर्पण कर दिये ।" "हरिदास घन को भोगना चाहते थे, पर इस तरह कि किसी को कार्नोकान खबर न हो |",अवसर मिले तो उसे खुदवा डालिएगा ।,"हरिदास धन को भोगना चाहते थे, पर इस तरह कि किसी को कानों-कान खबर न हो ।" उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि गिरने का भय हुआ ।,रानीजी का पत्र था ।,उनके सिर में ऐसा चक्कर आया कि गिरने का भय हुआ । सभी के चेहरों पर हवाइ्या उड़ने लगीं ।,चारों ओर से आवाजें आई-- तो हम भी उनकी खुशामद नहीं करते ।,सभी के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं । "दो-चार सखी-सहेलियाँ हैं, खेत- खलिहान हैँ, बाग़-बगीचे हैं, जी बहलता रहेगा ।","आखिर दो लङके और भी तो हैं, उनके लिए भी कुछ जोड़ेंगे कि तुम्हीं को दे दें! रमा को बडी-बडी बातें करने का फिर अवसर मिला ।","दो-चार सखी-सहेलियां हैं, खेत- खलिहान हैं, बाग-बगीचे हैं, जी बहलता रहेगा ।" किन्तु उनकी चर्चा करने से सुभद्रा को अप्रसन्नता का भय था ।,और भी कई छोटी-छोटी म॒दों में कुछ-न-कुछ बचत हो सकती थी ।,किन्तु उनकी चर्चा करने से सुभद्रा की अप्रसन्नता का भय था । शान के साथ जा बैठा |,"मैंने उतरकर इधर-उधर देखा, कुलियों को पुकारने लगा कि इतने में दो वरदी पहने हुए आदमियों ने आकर मुझे सादर सलाम किया और पूछा-'आप....से आ रहे हैं न, चलिये मोटर तैयार है ।",शान के सात जा बैठा । आपका अनुग्रह होगा ।,मदन -- उधर से ही अमोला चले जाइएगा ।,आपका अनुग्रह होगा । "पति मिला छेला, जो भाधो-आधो रात तक मारा-मारा फिरता है ।",बाप भी उस पर जान देता था ।,"पति मिला छैला, जो आधी आधी रात तक मारा मारा फिरता है ।" आज वायु की शीतलता में आनंद न था ।,"नायकराम चले गए, तो मुनीम ने मन में कहा-ले जाओ, समझ लेंगे, खैरात किया ।",आज वायु की शीतलता में आनंद न था । इन विषयों पर सोफी से घंटों बातें किया करतीं ।,उन्हें भारत की देवियों को ईंट और पत्थर के सामने सिर झुकाते देखकर हार्दिक वेदना होती थी ।,इन विषयों पर सोफी से घंटों बातें किया करतीं । बही ऋण चुका देने के लिए ठाकुर आया था ।,नहीं तो मुझ जैसे कपूत में तो इतनी भी योग्यता नहीं है जो अपने को उन लोगों की संतति कह सकूँ ।,वही ऋण चुका देने के लिए ठाकुर आया था । "उन्होंने इस विषय में जो कुछ निश्चय किया है, वह सार्वज वक उपकार के विचार से किथा है |",हमको प्रतिवाद या विरोध की धुन में अपने मुसलमान भाइयों की नीयत की सच्चाई पर संदेह न करना चाहिए ।,उन्होंने इस विषय में जो कुछ निश्चय किया वह सार्वजनिक उपकार के विचार से किया है; "इसकी बिलकुल फ़िक्र मत करना कि क्‍या होगा, क्‍या न होगा ।","देवीदीन ने उसे आदर की दृष्टि से देखकर कहा, 'तुम सब कर लोगी बहू, अब मुझे विश्वास हो गया ।","इसकी बिलकुल फिक्र मत करना कि क्या होगा, क्या न होगा ।" "अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सून्नपात हुश्रा, कोई घस से काम निकालता था, कोई चालाकी से ।","मैं चलने को तो चला, पर संसार-सुख-भोग का ऐसा सुअवसर छोड़ते हुए दुःख होता था ।","अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से ।" रानी-आप मुझसे मिलने आईं ही कब ?,रानी ने उनका विशेष आदर न किया ।,रानी-आप मुझसे मिलने आईं ही कब ? रेणुका उतनी अ्रसन्न न थी,उसके आदर्शवाद को वह उतना बुरा नहीं समझते,रेणुका उतनी प्रसन्न न थीं उसझी लज्ञा न जाने कर्श ग्रायब हो गई ।,"घर के सारे काम पूर्ववत् चल रहे थे, पर आपको मालूम हो रहा था कि गाड़ी रुकी हुई है ।",उसकी लज्जा न जाने कहाँ गायब हो गयी । "इतना ही नहीं, दूसरे लड़कों को भी वहकाते, श्रौर कहते--वाह ! पढें फारसी, वेचे तेल ! यदि खुरपी-कुदाल ही करना है तो मदरसे में किताबों से सिर मारने की क्या जरूरत ?",अमीरी का झूठा अभिमान दिल में भरा हुआ था ।,"इतना ही नहीं, दूसरे लड़कों को बहकाते और कहते, वाह ! पढ़ें फारसी, बेचें तेल ! यदि खुरपी-कुदाल ही करना है, तो मदरसे में किताबों से सिर मारने की क्या जरूरत ?" "' नादिर ने दोबारा घण्टा बजाया, आाद्याश-शण्डछ उसको पएंद्भार से कम्पित हो गया, तारागण रूप उ5ठे, पर एक भी सनिक न निद्धला ।","नादिर ने उत्तेजित होकर कहा- लैला, मैं रिआया की तुनुकमिजाजियों का गुलाम नहीं ।","नादिर ने दोबारा घंटा बजाया, आकाश मंडल उसकी झंकार से कम्पित हो गया, तारागण काँप उठे; पर एक भी सैनिक न निकला ।" "दोनों साथ-साथ दाने-चारे की खोज म जाते हैं, साप-साय आते है, रात को दोनों उसी इक्षु की डाल पर बैठे दिसाई देते हैं ।",दूसरे दिन किसान सो कर उठा तो कुँवर की लाश पड़ी हुई थी ।,"दोनों साथ-साथ दाने-चारे की खोज में जाते हैं, साथ-साथ आते हैं, रात को दोनों उसी वृक्ष की डाल पर बैठे दिखाई देते हैं ।" "जाने हुए रास्ते से हस्त नि शऊ आंखें बन्द दिये चले बाते हैं, उपके ऊँच-नीच, मोढ़ भोर घुमान सब हमारी भाँखों में समाये हुए हैँ ।","प्रथागत पतिव्रत भी नहीं; बल्कि हम दोनों की प्रकृति में कुछ ऐसी क्षमताएँ, कुछ व्यवस्थाएँ उत्पन्न हो गयी हैं, मानो किसी मशीन के कल-पुरजे घिस-घिसाकर फिट हो गये हों, और एक पुरजे की जगह दूसरा पुरजा काम न दे सके, चाहे वह पहले से कितना ही सुडौल, नया और सुदृढ़ क्यों न हो ।","जाने हुए रास्ते से हम नि:शंक आँखें बन्द किये जाते हैं, उसके ऊँच-नीच, मोड़ और घुमाव सब हमारी आँखो में समाये हुए हैं ।" किन्तु विधाता को कुछ और द्वी मजूर था ।,इसका कदाचित् यह कारण था कि एक कन्या के सिवा उनके और कोई संतान न थी ।,किंतु विधाता को कुछ और ही मंजूर था । मुझे तैयार ही समभिए ।,"कुछ उनकी सुननी है, कुछ अपनी कहनी है ।",मुझे तैयार ही समझिए । पचास रुपये कर दो ।,"' सहसा फर्श पर शतरंज के मुहरे और नक्शे देखकर उसने पूछा,यह शतरंज किसके साथ खेल रही थीं ?",पचास रूपये कर दो । नगर के सभी माननीय पुरुष उपस्थित थे ।,वह मेरा अपमान कर गया ।,नगर के सभी माननीय पुरुष उपस्थित थे । बेग में ताला न लगा था ।,"' रमेश--'सेठजी ने तो वचन दिया था कि वेश्याएँ न आने पावेंगी, फिर यह क्या किया ।",' बेग में ताला न लगा था । मेरे पति विद्यावरी को सदँद बड़िन कह कर संवोधित केरते ये ।,ऐसी घटनाएँ मैंने पुराणों में पढ़ी थीं परंतु मुझे विश्वास न था कि वर्तमान काल में जबकि स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध में स्वार्थ की मात्र दिनोंदिन अधिक होती जाती है पातिव्रत धर्म में यह प्रभाव होगा परंतु यह नहीं कह सकती कि विद्याधरी के विचार कहाँ तक ठीक थे ।,मेरे पति विद्याधरी को सदैव बहिन कह कर संबोधित करते थे । त्लो-पुरुष जीवन-प्यन्त एक दिन के लिए भो अलग न हुए थे ।,लोग दाह-क्रिया करके आधी रात को लौटे तो मालकिन को भी कै और दस्त हो रहे थे ।,स्त्री-पुरुष जीवनपर्यंत एक दिन के लिए भी अलग न हुए थे । मेरी पुरानी जान-पहचान है ।,अंत को यही निश्चय हुआ कि इसे थाने जाकर रपट कर आने दो ।,मेरी पुरानी जान-पहचान है । समाज में एक भादमी कोई बुराई करता है तो सारा समाज बदनाम हो जाता है और उसका दण्ड सारे समाज को मिलना चाहिए,उसने अपनी सारी बहनों का मुख उज्ज्वल कर दिया,समाज में एक आदमी कोई बुराई करता है तो सारा समाज बदनाम हो जाता है और उसका दंड सारे समाज को मिलना चाहिए चौड़ा मुँह छोटी-छोटो भर्िं तराशे हुए बाल घुटनियों के ऊपर तक का रऋटे पहने हुए,अमरकान्त का कल्पना-चित्र उसकी आँखों के सामने आ खड़ा हुआ-कैदियों का जाँघिया-कंटोप पहने बड़े-बड़े बाल बढ़ाए मुख मलिन कैदियों के बीच में चक्की पीसता हुआ,चौड़ा मुँह छोटी-छोटी आँखें तराशे हुए बाल घुटनों के ऊपर तक का स्कर्ट पहने हुए "देखो, तालाव में कमल के फूल पर पानी की वंदें केसी चाच रही हैं !","देखो, सामने वृक्ष की पत्तियों पर निर्मल चंद्र की किरणें केसी नाच रही है ।","देखो, तालाब में कलम के फूल पर पानी की बूँदें केसी नाच रही है ।" "ग्रजी, ऐसा तानऊर घूसा मास कि मिर्रों हलघर मुँह के वल गिर पड़े |",शायद हलधर अभी वहीं हो; मगर वहाँ सन्नाटा था ।,"अजी, ऐसा तान कर घूँसा मारा कि मियाँ हलधर मुँह के बल गिर पड़े ।" अतएवं थव राष्ट्रीय भान्दोलब से एथक्‌ रहते थे पर जाननेवाले जानते थे कि वह अब भी पत्रों में नाम बदलकर अपने राष्ट्रीय विचारों का प्रतिपादन करते रहते थे,उसके पीले मुरझाए हुए मुख पर आत्मगौरव की ऐसी कांति थी जो कुत्सित दृष्टि के उठने के पहले ही निराश और पराभूत करके उसमें श्रध्दा को आरोपित कर देती थी,अतएव अब राष्ट्रीय आंदोलन से पृथक् रहते थे पर जानने वाले जानते थे कि वह अब भी पत्रों में नाम बदलकर अपने राष्ट्रीय विचारों का प्रतिपादन करते रहते हैं विट्रल---भ्राजकल आमदनी भअ्रच्छी हो रही है क्‍या ?,"शर्मा -- सब हो जाएगा, ईश्वर कोई न कोई राह अवश्य निकालेंगे ही ।",विट्ठलदास -- आजकल आमदनी अच्छी हो रही है क्या ? नदी की पतली घार उमड़ पड़ी ।,पद्मसिंह के सम्मिलित होते ही इस संस्था में जान पड़ गई ।,नदी की पतली धार उमड़ पड़ी । * एक ओर तो दूसरा बंगला है ।,' 'उस बंगले के आसपास क्या है ?,' 'एक ओर तो दूसरा बंगला है । रुपया इन्हीं दिनों के लिए जमा किया जाता है।,"उन्हें यह बात कितनी अखरेगी नही, यह छोटी सी बात है, रूपए ले जाइए, दे दीजिए ।",रुपया इन्हीं दिनों के लिए जमा किया जाता है । घाधवी से यह शालक इतना हिल घया कि एड क्षण के लिए भी उप्की गोद ऐे न उतरता ।,"यद्यपि यशवंत न्याय के पद पर था, और रमेश मुलजिम, लेकिन यथार्थ में दशा इसके प्रतिकूल थी ।",माधवी से यह बालक इतना हिल गया कि एक क्षण के लिए भी उसकी गोद से न उतरता । वह भी एक रमणी की रूपनोका द्वारा ही अपने लक्ष्य पर पहुँचेगा ।,"हनुमान संजीवनी बूटीवाला धवलागिर उठाये जिस गर्वीले आनन्द का अनुभव कर रहे थे, कुछ वैसा ही आनन्द प्रकाश को भी हो रहा था ।",वह भी एक रमणी की रूप नौका द्वारा ही अपने लक्ष्य तक पहुंचेगा । बाटिका के सध्य में एक बिल्लौर जटित हौज था ।,"डॉक्टर तो माता जी, मैं तुमसे बाहर तो नहीं होता हूँ ।",वाटिका के मध्य में एक बिल्लौर जड़ित हौज था । "जिसके ऊपर पड़ती है, वह रोता है, विलाप करता है, पछाड़ें खाता है ।","हाँ, इतनी दया की कि लाश रास्ते से घसीटकर किनारे डाल दी।","जिसके ऊपर पड़ती है, वह रोता है, विलाप करता है, पछाड़ें खाता है।" "यदि डिगवी साहव फेर भी लें, तो यह उनके साथ कितना अन्याय है ?",इतनी जल्दी कायापलट हो गई जानवर ले कर उसे लोटा दोगे तो क्या बात रह जाएगी ?,यदि डिगवी साहब फेर भी लें तो यह उन के साथ कितना अन्याय है ? "वया जानता था कि यद्द विपत्ति झेलनी पढ़ेगी, नहीं विवाद का नाम दी न लेता ।",कभी-कभी ऐसी सनक सवार हो जाती थी कि सबको छोड़-छाड़कर कहीं भाग जाऊँ ।,क्या जानता था कि यह विपत्ति झेलनी पड़ेगी नहीं विवाह का नाम ही न लेता । उसका चित्त खिन्न था |,"चोर, दगाबाज बनकर उसके पास केसे जाए ?",उसका चित्त खिन्न था । अमरकान्त को यह व्यापार इतना जघन्य जान पढ़ा कि जी में आया काले खाँ को दुत्कार दे,कोई नौकरी करके लाता है कोई मजूरी करता है कोई रोजगार करता है देता सबको वही खुदा है,अमरकान्त को यह व्यापार इतना जघन्य जान पड़ा कि जी में आया काले खां को दुत्कार दे "मुदम्भदशाइ--मुझे तो उसके सामने बेठते हुए ऐसा ,खौफ मालम दीता है, गोया किसी शेर का सामता हो |",पर तुरन्त ही शंका हुई कि ऐसे बहुमूल्य रत्न को इस जगह रखना उचित नहीं ।,"मुहम्मदशाह- मुझे तो उसके सामने बैठते हुए ऐसा खौफ मालूम होता है, गोया किसी शेर का सामना हो ।" "आलसिन, लोभिन, स्वार्यिव बुधिया अपनी जीभ पर केवल मिठास रखकर नेउर को नचाती रहती थी, जेसे कोई शिकारी कँटिये में चारा लगाकर मछली को खेलाता है ।",’ ऐसे मीठे संन्तोष के लिए नेउर क्या नहीं कर डालना चाहता था ।,"आलसिन लोभिन , स्वार्थिन बुढिया अपनी जीभ पर केवल मिठास रखकर नेउर को नचाती थी जैसे कोई शिकारी कँटिये में चारा लगाकर मछली को खिलाता है ।" "खेर, जो हुआ, अच्छा हो हुआ ।",मनहर को गुप्त अभियोग की खोज के लिये अक्सर दौरे करने पड़ते थे ।,"खैर , जो हुआ , अच्छा ही हुआ ।" हाथ तंग है भूसा-चारा नहीं रख सके,बेचता नहीं हूँ भाई यों ही दे रहा हूँ,हाथ तंग है भूसा-चारा नहीं रख सके "इतने नौकर हैं, इतना सुरम्य स्थान दे ! विनोद के सभी सामान मौजूद ई लेकिन इन्हें अपना जीवन अब अन्यकारमय जान पडता है ।","कितना सुर्ख चेहरा था, कितना भरा हुआ शरीर ।","इतने नौकर हैं, इतना सुरम्य स्थान है ! विनोद के सभी सामान मौजूद हैं; लेकिन इन्हें अपना जीवन अब अंधकारमय जान पड़ता है ।" "मालूम होता है, सब लोग भोजन कर चुके हैं ।",बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भाँति बैठी हुई थीं ।,मालूम होता है सब लोग भोजन कर चुके हैं । मेरी एक सहेली है शन्तो ।,उस धागे के बगैर हार के फूल बिखर जायें गे और धूल में मिल जायें गे ।,"मेरी एक सहेली है , शन्नो ।" ' इसमे बचपन की क्या बात है ?,आये दिन स्त्री-पुरुष मॆं जूते चलते हैं ।,इसमें हँसी की क्या बात है ? अब तो कट गई तुम्हारी बात ?,"यह व्यंग नायकराम पर था, जिसका अभी तक विवाह नहीं हुआ था ।",अब तो कट गई तुम्हारी बात ? मुझे गुद्द हो सब खेलों से अच्छो लगती है और बचपत्त की मीठी स्मृतियों-में गुछो द्वी सबहे मीठी है ।,य हाँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरूचि हो गई ।,मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है । "सुभद्रा--मैं तो कई साल से देख रही हूं, ईश्वर ने कभी विशेष कृपा नहीं की ।",शर्मा -- रुपए भी ईश्वर कही से देंगे ही ।,"सुभद्रा -- मैं तो कई साल से देख रही हूँ, ईश्वर ने कभी विशेष कृपा नहीं की ।" "आज जो कुछ होना होगा, यहीं हो जाएगा ।",केले के लिए ठीकरा भी तेज होता है ।,"आज जो कुछ होना होगा, यहीं हो जाएगा ।" आजष्ल सास-पतोद्ू दोनों घाख छोलती हैं ।,"सोचता हूँ एक्का-घोड़ा बेच-बाचकर आप लोगों की मजूरी कर लूँ, पर कोई गाहक नहीं लगता ।",आजकल सास-पतोहू दोनों छीलती हैं । यद्द निशाना बैठ जाय तो मेरी हार्दिक इच्छा पूरी हो जाय ! मेंदर्मांगा फल पारऊँगा ।,"मैंने कभी उन कहानियों पर विश्वास नहीं किया, परन्तु कुछ न कुछ इसमें तत्त्व है अवश्य, नहीं तो इस प्रकृति-उपासना के युग में इनका अस्तित्व ही न रहता ।",यह निशाना बैठ जाय तो मेरी हार्दिक इच्छा पूरी हो जाय ! मुँहमाँगा फल पाऊँगा । दुबलदास ने तीन हजार लगाये थे ।,सेठ रामनाथ के मित्रों का उनके घर पर पूरा अधिकार था ।,दुर्बलदास ने तीन हजार लगाये थे । "बोला--भाई, लडके किसा काम के होते तो यह दिन क्यों देखना पडता |",खर्च-बर्च मिला कर दो सौ के लगभग समझो ।,"बोले- भाई, लड़के किसी काम के होते तो यह दिन क्यों देखना पड़ता ।" « होरी आँखों से अंगारे बरसाता घनिया की ओर लपका पर गोबर सामने आकर खड़ा हो गया और उम्र भाव से बोला--अ्रच्छा दादा अब बहुत हुआ,गरीबों का गला काटना दूसरी बात है,होरी आँखों से अंगारे बरसाता धनिया की ओर लपका पर गोबर सामने आ कर खड़ा हो गया और उग्र भाव से बोला - अच्छा दादा अब बहुत हुआ आज मुझे मालुम हुआ कि मेरे द्वा्ों इम्लाम को कितना लुक्कप्तान पहुँचा |,वह गद् गद् कण्ठ से बोला- उसे हबीब कहते हैं ।,आज मूझे यह मालूम हुआ कि मेरे हाथों इस्लाम को कितना नुकसान पहुँचा । "में वादा करती हूँ, सिगारसिंह से में कोई सम्बन्ध न रखें गो ।",अन्य मूल्यवान् पदार्थों की तरह रूप और यौवन की रक्षा भी बलवान् हाथों से हो सकती है ।,"मैं वादा करती हूँ , सिंगारसिंह से मैं कोई सम्बन्ध न रखूँगी ।" यहाँ मैं अपने चारों ओर सतोष और सरलता देखता हूँ ।,इतिहास और भूगोल के पोथे चाटकर और यूरप के विद्यालयों की शरण जाकर भी मैं अपनी ममता को न मिटा सका; बल्कि यह रोग दिन-दिन और भी असाधय होता जाता था ।,यहाँ मैं अपने चारों ओर संतोष और सरलता देखता हूँ । उनकी नियाद भो उस नींद की माती युवती पर पढ़ी ।,वे प्रेम के बदले में कुछ चाहते हैं ।,उनकी निगाह भी उस नींद की माती युवती पर पड़ी । "यदि मेरे इस आस्वासत पर भी कोई उस पर अविस्वीस करे, उसकी भानभिक दुर्घछता और विचारों की सकीर्णता हैं ।",मैंने ऐसी-ऐसी आश्चर्यजनक घटनाएँ आँखों से देखी हैं जो अलिफ-लैला की कथाओं से कम मनोरंजक न होंगी ।,यदि मेरे इस आश्वासन पर भी कोई उस पर अविश्वास करे तो उसकी मानसिक दुर्बलता और विचारों की संकीर्णता है । छल्द को देखते हो गद्गद हो गये और गोद में उठारर बार-वार उसझा मुंह चूमने लगे,एक महीने के बाद जेल से बाहर निकलकर सुखदा को ऐसा उल्लास हो रहा था मानो कोई रोगी शय्या से उठा हो,मुन्ने को देखते ही गद्गद हो गए और गोद में उठाकर बार-बार उसका मुँह चूमने लगे इस मुद्बत को गरजु से पाक रखना चाहती हूं,मैं तो सिर्फ तुम्हारी पूजा करना चाहती हूँ,इस मुहब्बत की गरज से पाक रखना चाहती हूँ "यह सब व्यवहार देख-ठेख कर उर््हें अनुभव छोता जाता था क्रि देद्ाती बढ़े मुझमरद्‌, बदमाश है ।",रोज संध्या समय डाँट-डपट और रोने-चिल्लाने की आवाज उन्हें सुनायी देती थी ।,"यह सब व्यवहार देख-देख कर उन्हें अनुभव होता जाता था कि देहाती बड़े मुटमरद, बदमाश हैं ।" "महारानी मसनद टेककर उठ बठी, और तिरस्कार के स्वर में बोली -- अगर तुमने सोचा था क्रि में तुम्दारे आँसू पोछे गी, तो तुमने भूल की ।","आँचल फैलाकर आपसे भीख माँगती हूँ , उसको क्षमा-दान दीजिए ।","‘ महारानी मसनद टेककर उठ बैठीं और तिरस्कार-भरे स्वर में बोलीं , ‘ अगर तुमने सोचा था कि मैं तुम्हारे आँसू पोंछूँगी , तो तुमने भूल की ।" एक फोने में मेज़ पर रमोनियम रखा हुआ था,क्यों नहीं मुझे घर भेज देते- जब मेरी जरूरत समझना बुला भेजना,एक कोने में मेज पर हारमोनियम रखा हुआ था सस्या हो गईं |,"एक प्रकार का स्नेह-बन्धन होता है, जो सब प्राणियों को, चाहे छोटे हों, या बड़े, बाँधे रहता है ।",सन्ध्या हो गई । दौद़ते-ऐड़ते उसका दक्ष फूल पया ; पर मत सन-सर के हो गये ।,जमाल के गिरते ही चारों तरफ से लोग दौड़ पड़े ।,दौड़ते-दौड़ते उसका दम फूल गया; पैर मन-मन भर के हो गये । युवती को मठके ले जाते देखा तो उसके हाथ से मटके छीन लिये और कुएँ पर पानी भरने चले,हाँ गेहूँ का आटा मेरे घर में नहीं है और यहाँ कहीं कोई दुकान भी नहीं है कि ला दूँ,युवती को मटके ले जाते देखा तो उसके हाथ से मटके छीन लिए और कुएँ पर पानी भरने चले "किंतु वे सामथ्यंवान्‌ होकर हमें न पूछे, दमारे यहाँ तीज श्र चौथ न भेजें तो हमारे कल्लेजे पर सॉगप लोठने लगता है |","आप बहुत ही सहृदय, बहुत ही उदार, बहुत शिक्षित और एक बड़े ओहदेदार हैं ।","किन्तु वे सामर्थ्यवान् होकर हमें न पूछें, हमारे यहाँ तीज और चौथ न भेजें, तो हमारे कलेजे पर साँप लोटने लगता है ।" उसके मा-बाप निर्धन थे |,"स्त्री और पुरुष, दोनों उस कन्या को याद करके रोया करते थे ।",उसके माँ-बाप निर्धन थे । वे उमानाथ से कितनी ही बातें ठकुरसुहाती के लिए करते ।,"भोजन करते समय जितना आ जाता खा लेते, इच्छा रहने पर भी कभी कुछ न माँगते ।",वह उमानाथ से कितनी बातें ठकुरसुहाती के लिए करते । उद्धंगामी लपटे पूर्व दिशा की ओर दौड़ने लगीं ।,भुनगी अपने भाड़ के पास उदासीन भाव में खड़ी यह लंकादहन देखती रही ।,ऊर्ध्वगामी लपटें पूर्व दिशा की ओर दौड़ने लगीं । भोला--दिन-भर एक-न-ण्क खुचड निकालते रहते हैं ।,एक दिन बुलाकी ओखली में दाल छाँट रही थी ।,"भोला , दिन भर एक न एक खुचड़ निकालते रहते हैं ।" उनके आने का समय भी निकट था ।,आनेवालों की कमी न थी ।,उनके आने का समय भी निकट था । खालो कर दो मेरा घर आज ही खाली कर दो,उसे पिता भाई भावज सभी पर क्रोध आ रहा था,खाली कर दो मेरा घर आज ही खाली कर दो "भोंदू ने एक क्षण विचार-प््॒न रहकर कदा--जानती है, पकड़ जाऊँगा, तो तीन साल से कम की सजा न हं.गी ।","सैंकडे मिल जाते, तो आँसू पुंछते, पर आज सैंकडे भी न मिले ।","' भोंदू ने एक क्षण विचार-मग्न रहकर कहा, 'ज़ानती है, पकड़ जाऊँगा,तो तीन साल से कम की सजा न होगी ।" आपको इसको ज़रा भो बिन्ता न हुईं कि पहनेंगे क्या ?,"जब एक-एक अमीर और रईस के पास एक-एक मालगाड़ी कपड़ों से भरी हुई है, तब फिर निर्धनों को क्यों न नग्नता का कष्ट उठाना पड़े ?",आपको इसकी जरा भी चिन्ता न हुई कि पहनेंगे क्या ? "खुशी से आये खुशी से, बल से आये बल से, इसकी चिन्ता नहीं ।",प्रेम और समर में सबकुछ क्षम्य है ।,"खुशी से आये खुशी से , बल से आये बल से , इसकी चिन्ता नहीं ।" उसने कुटी के चारों ओर पुष्प लगाये |,साधु नींद में होते तो वह उन्हें पंखा झलती ।,उसने कुटी के चारों ओर पुष्प लगाए । खत तक न लिखा ।,मुझे भय है कि वह मुझे घर में जाने ही न देंगे ।,खत तक न लिखा । "लाइए, वास्तव में हम लोग बहुत चिंतित हो रहे थे ।",आप ही का इंतजार था ।,"लाइए, वास्तव में हम लोग बहुत चिंतित हो रहे थे ।" ऐसा जान पडा भातों उमके पैर धर्रा रहे है ।,"दरवाज़े तक आई, पर भीतर पैर न रख सकी ।",ऐसा जान पड़ा मानो उसके पैर थर्रा रहे हैं । बह्यवर्य के सिद्धान्ती' के अनुसार घिर घुठाते थे ; कितु लंगी चटो रख छोड़ी थी ।,"उन्हें नेकटाई, कालर, वास्कट आदि वस्त्रों से घृणा थी ।",ब्रह्मचर्य के सिद्धांतों के अनुसार सिर घुटाते थे; किंतु लम्बी चोटी रख छोड़ी थी । कभी कतव्य से मुँह न मोड़े,एक क्षण के बाद डॉक्टर साहब घड़ी देखते हुए बोले-आज इस लौंडे पर ऐसी गुस्सा आ रही है कि गिनकर पचास हंटर जमाऊं,कभीर् कर्तव्य से मुँह न मोड़े "अगर प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करूँ, तो शायद्‌ कर्मचारो लोग मद्दाराज से मेरी शिका- यत कर दें ।","मैंने कर्मचारियों से बार-बार संकेत किया कि यथासाध ्य किसी पर सख्ती न की जाय, लेकिन हरेक स्थान पर मैं मौजूद तो नहीं रह सकता ।","अगर प्रत्यक्ष रूप से हस्तक्षेप करूँ , तो शायद कर्मचारी लोग महाराज से मेरी शिकायत कर दें ।" शाम तक बन पढ़ा तो आऊ गा नहीं फिर किप्ती दिव आ जाऊँगा,भला इसमें क्या तकलीफ,शाम तक बन पड़ा तो आऊँगा नहीं फिर किसी दिन आ जाऊँगा "पुरुष स्री का मुहृरताज नहीं है, ञ्री पुरुष की सुहृताज है ।",मैं गंगू को सदैव प्रसन्न-मुख देखता ।,"पुरुष स्त्री का मुहताज नहीं है , स्त्री पुरुष की मुहताज है ।" मरदाने कमरे में एक दीवारगीर जल रही थी ।,मेरे पिताजी कुछ दिनों आपकी मातहती में काम कर चुके हैं ।,मरदाने कमरे में एक दीवारगीर जल रही थी । यह गरीबों के साथ घोर अन्याय है ।,यह उसका सौभाग्य था ।,यह गरीबों के साथ घोर अन्याय है । इस सप्रय संधि डी छर्तों पर विवाद छिझ था ।,उसे सदैव शंका रहती कि यह मराठों से मैत्री करके अवध-राज्य को मिटाना चाहते हैं ।,इस समय संधि की शर्तों पर विवाद छिड़ा था । सुमन ने विस्मित होकर कहा--अच्छा ! वह तो बड़े उदार निकले ।,इस ३० रु० में २० रु० मासिक का वचन उन्होंने दिया है ।,सुमन ने विस्मित हो कर कहा -- अच्छा! वह तो बड़े उदार निकले । मित्रवन्द ताइते रहते हैं कि कौन-सी नई वस्तु लाया |,"अचकन है, वह एक साहब के पास है, कोट और दूसरे साहब ले गये ।",मित्रवृन्द ताड़ते रहते हैं कि कौन-सी नयी वस्तु लाया । कभी-कभी बिएढ़ते थे तो क्या उत्तके सछे हो के लिए तो डाटते थे |,मानी आज बुरे दिनों को स्मरण करके दु:खी हो रही थी ।,"कभी-कभी बिगड़ते थे तो क्या, उसके भले ही के लिये तो डाँटते थे ।" आख़िर उनके भी तो बाल-बच्चे होंगे “क्या भगवान को ज़रा भी नहीं डरते ! तुमने बाबूजी को जाती बार देखा था ?,यह कहता हुआ देवीदीन वहीं ज़मीन पर बैठ गया ।,आख़िर उनके भी तो बाल-बच्चे होंगे! क्या भगवान से ज़रा भी नहीं डरते! तुमने बाबूजी को जाती बार देखा था ? मय मुझे उनसे अलग नहीं कर सकता |,पर उसकी कसर पूरी करने के लिए अति तीक्ष्ण वाकेन्द्रिय प्रदान की थी ।,भय मुझे उनसे अलग नहीं कर सकता । "वह इस सामाजिक दण्ड को शायद कुछ परवा न करते, यदि दुर्भागयवश इसने उनकी जीविका के द्वार"" न बन्द कर दिये होते |",जीविका का दूसरा साधन यजमानी है ।,"वह इस सामाजिक दंड की शायद कुछ परवा न करते, यदि दुर्भाग्यवश इसने उनकी जीविका के द्वार न बंद कर दिये होते ।" उनका जवाब उन्हें मालूम था ।,"जॉन सेवक-आप चाहें, तो बुला लें ।",उनका जवाब उन्हें मालूम था । "और, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि विवाह का निश्चय होते ही विनय का सदुत्साह भी क्षीण होने लगा था ।",रुग्णावस्था में हमारा मन स्नेहापेक्षी हो जाता है ।,"और, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि विवाह का निश्चय होते ही विनय का सदुत्साह भी क्षीण होने लगा था ।" "दूजाना वा माल विका, किन्तु रुपया बकाया में पढ़ा हुआ था ।",अन्त में निराश होकर वे आराम-कुर्सी पर पड़ गए और उन्होंने एक ठण्डी सॉँस ले ली ।,दुकानों का माल बिका; किन्तु रुपया बकाया में पड़ा हुआ था । "यह गरुलामों का देश है, यहाँ हरएक बात में उसी गुलामी की छाप है ।","मेरे लिए डाक्टर बोस की आज्ञा नहीं कि किसी से मिलने जाओ , या कहीं सैर करने जाओ ।","यह गुलामों का देश है , यहाँ हर एक बात में उसी गुलामी की छाप है ।" रमा को आज इसी उधेड़बुन में बड़ी रात तक नींद न आयी ।,जालपा ने पुस्तक बंद करते हुए करूण स्वर में कहा--'इतने रूपये न जाने तुम्हारे पास कब तक होंगे ?,' रमा को आज इसी उधेड़बुन में बडी रात तक नींद न आई । इस वक्त का काम चला |,आप लोग मुझे जबरदस्ती कवि बनाये देते हैं ।,इस वक्त का काम चला । "दोनो जैसे के तेसे हैं, जँसे उदय वैसे भान, न उनके के चोटी मे उसके कात ।",लाला गोपीनाथ के छिद्रान्वेषियों की संख्या कम न थी ।,दोनों जैसे के तैसे हैं जैसे उदई वैसे भान न उनके चोटी न उनके कान । यह क्रम बन्द न होता था ।,कई दिन के बाद यह विचार फिर पलटा खा गया ।,यह क्रम बन्द न होता था । शुबहे की बात तो है ।,"इनकी दावत होगी, बंगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे, मोटर मिलेगी ।",शुबहे की बात तो है । दादा क्या बोले १ नेना समजल-नेन्न होकर घोली--बोले तो नहीं,मैंने तो समझा था तुम्हारे पास कहीं पड़े होंगे अगर मैं जानता कि तुम भी दादा से ही मांगोगी तो साफ कह देता मुझे रुपये की जरूरत नहीं,दादा क्या बोले- नैना सजल नेत्र होकर बोली-बोले तो नहीं मैं अब घर जाने योग्य नहीं रहा ।,मुझसे तो इस दशा में एक दिन भी न रहा जाता ।,मैं अब घर जाने योग्य नहीं रहा । "सुमत---तो फिर मैं और क्या कर सकती हूँ, शाप ही बताइए ?",विट्ठलदास -- तुम्हारा यहाँ बेठना ही तुम्हें भ्रष्ट करने के लिए काफी है ।,"सुमन -- तो फिर मैं ओर क्या कर सकती हूँ, आप ही बताइए ।" अब यही उसके ' जीवन वा नियामत कर्म था ।,संध्या होते ही वह उठा और स्त्री की कब्र पर जा कर बैठ गया ।,अब यही उसके जीवन का नियमित कर्म था । "जिन दिनों यहाँ डाके पड़े, उन तारीखों में मेरे स्वामी प्रयाग में थे ।","अगर मुझे विश्वास होता कि वह डाकों में शरीक हुए, तो सबसे पहले मैं उनका तिरस्कार करती ।","जिन दिनों यहाँ डाके पड़े, उन तारीख़ों में मेरे स्वामी प्रयाग में थे ।" अगर कभी क्विप्ती चीज की जरूरत हो तो मुझे लिखने में संकोच न करना,आपके घर में मुझे नित्य बाधाओंका सामना करना पड़ेगा और उसी संघर्ष में मेरा जीवन समाप्त हो जाएगा,अगर कभी किसी चीज की जरूरत हो तो मुझे लिखने में संकोच न करना "भेरे साथ चलो, कुछ जिंदगी की बहार उड़ाये |",शराब की बोतल अब भी भरी धारी थी ।,"मेरे साथ चलो, कुछ जिन्दगी की बहार उड़ायें ।" "पूछना, ऐसा दूसरा कंगन बनवा देंगे ।",तुम्हें पाकर रमानाथजी अपना भाग्य सराहते होंगे ।,"पूछना,ऐसा दूसरा कंगन बनवा देंगे ।" "वह साधारण युवकों की तरद सिद्धान्तों के लिए बढ़े-बढ़े तकं कर सकता था, ज़बान से उनमें अपनो भक्ति कौ दोद्वाई दे सकता था; छेकिव इसके लिए यातनाएं मेलने का सामथ्ये उसमें न था ।",केशव पिता के स्वभाव से परिचित था ।,"वह साधारण युवकों की तरह सिद्धान्तों के लिए बड़े-बड़े तर्क कर सकता था , जबान से उनमें अपनी भक्ति की दोहाई दे सकता था ; लेकिन इसके लिए यातनाएँ झेलने की सामथ्र्य उसमें न थीं ।" सारे शहर के लोग उसका तमाशा देखने जायेंगे ।,"गली में घुसा ही था, कि पानी की बूंद सिर पर छर्रे की तरह पड़ी ।",सारे शहर के लोग उसका तमाशा देखने जाएंगे । "उस झूठो गवाही का परिणाम अगर यह होता, कि किसी निर- पराध को सज़ा मिल जाती तो दूसरी बात थी ।","मैं यह नहीं कहता कि उसने झूठी गवाही नहीं दी, लेकिन उस परिस्थिति और उन प्रलोभनों पर ध्यान दीजिए, तो इस अपराध की गहनता बहुत कुछ घट जाती है ।","उस झूठी गवाही का परिणाम अगर यह होता, कि किसी निरपराध को सज़ा मिल जाती तो दूसरी बात थी ।" फिर आधे से ज़्यादा तो तुम अपने साथ लाई थीं,कोई दूसरा आदमी पुत्र के इस अनुराग पर अपने को धन्य मानता अपने भाग्य को सराहता,फिर आधो से ज्यादा तो तुम अपने साथ लाई थीं ग्रद रोज़-रोज़् को फटकार नहीं सही जातो,अमर अपनी मनोव्यथा मंद मुस्कान की आड़ में छिपाता हुआ बोला-कोई नई बात नहीं थी नैना,यह रोज-रोज की फटकार नहीं सही जाती जालपा आँखों में आँसू भरकर बोली -- तो मैं तुमसे गहनों के लिए रोती तो नहीं हूँ ।,उसका चुप हो जाना ही गजब था ।,' जालपा आंखों में आंसू भरकर बोली--'तो मैं तुमसे गहनों के लिए रोती तो नहीं हूँ । इन दोनों आदमियों से बैर मोल लेने की किसी में हिम्मत न थी ।,दारोगाजी कोई बिराने आदमी नहीं हैं ।,इन दोनों आदमियों से बैर मोल लेने की किसी में हिम्मत न थी । मुक्त मर जाने दो फिर जो कुछ जो में जाये करना,डरते-डरते बोले-एक बात कहूँ बुरा न मानो,मुझे मर जाने दो फिर जो कुछ जी में आए करना न जाने किन शुभ-कर्मो के फल से वह मुझे मिली थी |,"भूख में अगर शुद्ध भोजन न मिले, तो आदमी जूठा खाने से भी परहेज नहीं करता ।",न-जाने किन शुभ-कर्मों के फल से वह मुझे मिली थी । "सदन ने आँसू पीकर कहा--हाँ, नाराज तो हूँ ।",करुण स्वर में बोली - आप मुझ से नाराज हो गए क्या ?,"सदन ने आँसू पी कर कहा - हाँ, नाराज तो हूँ ।" : छघर रास्ते में मित्रवर्ग थो टिप्पणियाँ करते जा रहे पे-- . एक-ईशवर ने सुंद्द में केसो कालिपा छगाई छवि हयादार द्ोगा तो अब सूरत न दिश्वायेगा ।,"इस शैतान ने आज जीती-जितायी बाजी खो दी, मुँह में कालिख लग गई, सिर नीचा हो गया ।",उधर रास्ते में मित्र-वर्ग यों टिप्पणियाँ करते जा रहे थे- एक- ईश्वर ने मुँह में कैसी कालिमा लगायी कि हयादार होगा तो अब सूरत न दिखाएगा । समझे! थकन है ।,आज वे लौटे तो सिर में दर्द था ।,समझे थकान है । एक दिन पहले तक गोबर कुमार था,होरी का खून खौल उठा,एक दिन पहले तक गोबर कुमार था "राजा-पह क्यो नहीं कहती कि मन दोपी है, द्रसलिए आँखे नहीं मिलने देता ?","राजा जुझारसिंह बोले, ""कौन है ?",""" राजा -""यह क्यों नहीं कहती कि मन दोषी है, इसलिए आँखें नहीं मिलने देता ।" उन दिनों वहाँ हिन्दू-मुसल- ) भानों में दंगा हुआ तो किसी ने उसके पेट में छुरा भोंक दिया,उसका आदमी बंबई में दूध की दुकान करता था,उन दिनों वहाँ हिंदू-मुसलमानों में दंगा हुआ तो किसी ने उसके पेट में छुरा भोंक दिया "भ्रकस्मात्‌ एक दीर्घकाग्र पुरुष, सिर मुडझ्ाए, भस्म रमाए, द्वाय भें एक त्रिशूल लिये आकर महफिल में खड़ा हो गया ।","कोई इधर भागता, कोई उधर गाली बकता था, कोई मारपीट करने पर उतारु था ।","अकस्मात एक दीर्घकाय पुरुष सिर मुड़ाए, भस्म रमाए, हाथ में एक त्रिशूल लिए आकर महफिल में खड़ा हो गया ।" इसी को राजभवित कहने है ।,कैसी तबीयत है किंतु जब गिरिजा तनिक भी न मिनकी तब उन्होंने चादर उठा दी और उसके मुँह की ओर देखा ।,इसी को राजभक्ति कहते हैं । कदाचित्‌ में जीवन-पर्यन्त अपने 'घर आनन्द से रह सकती थो ।,विवाह करने का तो यह मतलब नहीं हुआ करता! मैं अपने घर इससे कहीं सुखी थी ।,कदाचित् मैं जीवन-पर्यंत अपने घर आनन्द से रह सकती थी । "उनमे मेरा मन कोई वस्तु खोजता हे--कोई अज्ञात, श्रव्यक्त, अलक्षित वस्तु--पर वह नहीं मिलती ।",मैं उन्हें पढ़ती हूँ और एक ठंडी साँस लेकर रख देती हूँ ।,"उनमें मेरा मन कोई वस्तु खोजता है क़ोई अज्ञात, अव्यक्त, अलक्षित वस्तु पर वह नहीं मिलती ।" आज जिछे के मारे हाकिम उतके खून के थ्यामे हो रहे हे ।,संध्या को हम रामलीला देखने गये ।,आज जिले के सारे हाकिम उनके खून के प्यासे हो रहे हैं । "सम्भव है, तुम मेरा जो रूप ठेख रद्दी हो, ब६ मेरा असलो रूप न हो ।","मैंने अधीर होकर कहा, ‘हाँ, निकाल दी गयी है, तो फिर ?","सम्भव है , तुम मेरा जो रूप देख रही हो , वह मेरा असली रूप न हो ?" "यह विवाह नहों है, स्त्रो का बलिदान है ।",अनाज सड़नेवाली चीज़ नहीं ।,"यह विवाह नहीं है, स्त्री का बलिदान है ।" अब्दुल्लतीफ ने घोड़े को एक चाबुक लगाया ।,आप को हमारी खातिर से इतनी तकलीफ करनी होगी ।,अब्दुल्लतीफ ने घोड़े को एक चाबुक और लगाया । "मुहल्ले में रोज ही एक-न-एक उत्सव होता रहता है, रोज़ ही पास-पड़ोस की औरतें मिलने आती हैँ, बुलावे भी रोज़ आते ही रहते हैँ, बेचारी जालपा कब तक इस प्रकार आत्मा का दमन करती रहेगी, अंदर-ही-अंदर कुढ़ती रहेगी ।","जालपा यदि संकोच के कारण इसकी चर्चा न करती थी, तो रमा को उसके आँसू पोंछने के लिए, उसका मन रखने के लिए, क्या मौन के सिवा दूसरा उपाय न था ?","मुहल्ले में रोज़ ही एक-न-एक उत्सव होता रहता है, रोज़ ही पासपड़ोस की औरतें मिलने आती हैं, बुलावे भी रोज आते ही रहते हैं, बेचारी जालपा कब तक इस प्रकार आत्मा का दमन करती रहेगी, अंदर-ही-अंदर कुढती रहेगी ।" तुम्र लोगों में यह कया अनबत हे ?,शायद मुझे सुन्नी से बात करने का अवसर देना चाहते थे ।,तुम लोगों में यह क्या अनबन है । युवती आप- की पत्रिका बराबर पढ़ती है और आपसे उसे बड़ी श्रद्धा है ।,"मैंने कहा, महाशय, आप मेरे पिता के तुल्य हैं और मुझे जानते हैं ।",युवती आपकी पत्रिका बराबर पढ़ती है और आपसे उसे बड़ी श्रृद्धा है । देवा-उस घर मे श्रभी कोई आया कि नहीं ?,"दरवाजे पर जो हलवाई रहता था, कहने लगा , मेरे कुछ पैसे बाबू जी पर आते हैं ।",देवी- उस घर में अभी कोई आया कि नहीं ? इन चालीस बर्षों में एसा शायद ही कोई दिन हुआ हो कि उन्होंने सन्ध्या-समय की भारतो न ली हो और-तुलप्री:-दल-माथे पर न चढ़ाया हो,बस यही मेरी राम-कहानी है,चालीस वर्षों में ऐसा शायद ही कोई दिन हुआ हो कि उन्होंने संध्या समय की आरती न ली हो और तुलसी-दल माथे पर न चढ़ाया हो तुम इस शिश्षु को पाछो-पोसो ।,मुझे स्वयं मेरी माताजी ने एक धोबिन के हाथ बेच दिया था ।,तुम इस शिशु को पालो-पोसो । दरवाज़े ही पर तो है।,माँ भी सताया करती है।,दरवाजे ही पर तो है। इससे यही सिंद्ध होता है कि इस विषय में मनुष्य का स्वभात्र ही प्रधान है |,"नाच भी शहर में आए दिन हुआ ही करते है, लेकिन उनका ऐसा भीषण परिणाम होते बहुत कम देखा गया है ।",इससे यही सिद्ध होता है कि इस विषय में मनुष्य का स्वभाव ही प्रधान है । "मज़ा यह है कि तब बह जिन विषयों पर देवीजी से लड़ा करते थे, वही अब उनकी उपासना के अग बन गये हैं ।","देवीजी होतीं, तो यह लबादा छीनकर किसी फकीर को दे देतीं; मगर अब कौन देखनेवाला है ।","मजा यह है कि तब जिन विषयों पर देवीजी से लड़ा करते थे, वही अब उनकी उपासना के अंग बन गये हैं ।" "हरनाथ ने ताथ दिखाकर कहा--श्राप चाहे खच कीजिए, चाहे जमा कीजिए, मुझे रुपयो का काम नहीं |","वह साल में थोड़ा-सा ब्याज दे देता, पर मूल के लिए हजार बातें बनाता था ।","' हरनाथ ने ताव दिखा कर कहा -आप चाहे खर्च कीजिए, चाहे जमा कीजिए, मुझे रुपयों का काम नहीं ।" विधवा माता बार-बार बुलाती थी छाला समरकान्त भौ चाहते थे कि दो-एक महीने के छिए हो आये पर सुखदा जाने छा नाम न लेती थी,सुखदा इधर साल भर से मैके न गई थी,विधावा माता बार-बार बुलाती थीं लाला समरकान्त भी चाहते थे कि दो-एक महीने के लिए हो आए पर सुखदा जाने का नाम न लेती थी यह कहकर वह तोंद सेभालते हुए मोटर की ओर लपके ।,अब मुझे आज्ञा दीजिए ।,यह कह कर वह तोंद संभालते हुए मोटर की ओर लपके । अमर ने जंसे आकाश में उड़ते हुए कहा-भेदान में मर जाना मंदान छोड़ देने से कहीं अच्छा है,डॉक्टर साहब में उसे जो श्रध्दा थी उसे जोर का धाक्का लगा,अमर ने जैसे आकाश में उड़ते हुए कहा-मैदान में मर जाना मैदान छोड़ देने से कहीं अच्छा है डॉक्टर महोदय को बागवानी से विशेष प्रेम था ।,"दुर्गा, डॉक्टर साहब की नजर बचा कर बगीचे से फूल चुन लेता और बाजार में पुजारियों के हाथ बेच दिया करता था ।",डॉक्टर महोदय को बागबानी से विशेष प्रेम था । में तो ऐसे आदमी को देश-द्रोही कहती हूँ ।,महाशय 'ग' हजारों हड़प कर भी उसी पद पर जमे हुए हैं ।,मैं ऐसे आदमी को देशद्रोही कहती हूँ । में घरामदे में चालक को लिये खटी थी,इस बात पर तकरार हो गई,मैं बरामदे में बालक को लिए खड़ी थी "एक नहीं, हजार मुकदमे चलाये, डिगरी मेरी होगी ।","कंजूसी के मारे दालमोट, समोसे कभी बाजार से न मँगातीं ।","एक नहीं, हजार मुकदमें चलाएं, डिगरी मेरी होगी ?" छेद्ििन उनको कायापवट की अपैक्षा नगर की कायापलट और भरौ विस्मयकारी थी ।,"जिसे एक चाल चलने में पाँच मिनट से ज्यादा लगे, उसकी मात समझी जाय ।",लेकिन उनकी कायापलट की अपेक्षा नगर की कायापलट और भी विस्मयकारी थी । जरा भी नाक-भों सिकोढ़ी तो कुलच्छवी कहलाभोंगे,पहले खसम खा लेगा तो उसका जूठन मिलेगा समझ गए और उसे देवता का प्रसाद समझ कर खाना पड़ेगा,जरा भी नाक-भौं सिकोड़ी तो कुलच्छनी कहलाओगे केवल ज़रा सबेरे आने को कहती हूँ ।,जरा सबेरे आ जाना ।,केवल जरा सबेरे आने को कहती हूँ । यहाँ दिन भर यह आशा लगी रहती है कि कोई खबर मिलेगी |,वह ऊपर जाकर लेट गई और अपने भाग्य पर रोने लगी ।,यहाँ दिन-भर यह आशा लगी रहती है कि कोई ख़बर मिलेगी । एक महाजन के यहाँ से तीस हजार रुपये मैंगवाये गये और ठाकुर साहब को नजर किये गये |,"सौदा पटने में देर न लगी, बैनामा लिखा गया ।",एक महाजन के यहाँ से तीस हजार रुपये मँगवाये गये और ठाकुर साहब को नजर किये गये । मेरी भतिम् याचना है कि मेरे लिए आप शोक न कौजिएया ।,मैने सोचकर देखा और यही निश्चय किया कि मेरे लिये मरना ही अच्छा है ।,मेरी अंतिम याचना है कि मेरे लिये आप शोक न कीजिएगा । "कितनी शूरता से प्राण त्याग दिए, जैसे कोई एक पैसा निकालकर किसी भिक्षुक के सामने फेंक दे ।",खेल में रोते तो लड़कों को भी लाज आती है ।,"कितनी शूरता से प्राण त्याग दिए, जैसे कोई एक पैसा निकालकर किसी भिक्षुक के सामने फेंक दे ।" उनका अधिकांश समय धर्म-ग्रंथों के पढ़ने में लगता था ।,ऐसे कितने आदमी हैं जिन्हें इस जमाने में ये चीजें मयस्सर हैं ?,उनका अधिकांश समय धर्म-ग्रंथों के पढ़ने में लगता था । यह कहकर वह भी सलाम करके चलता हुआ |,"उसका ऊँचा डील, गठे हुए अंग, सुदृढ़ मांसपेशियाँ, गर्दन के ऊपर ऊँचा डील, चौड़ी छाती और मस्तानी चाल थी ।",यह कह कर वह भी सलाम करके चलता हुआ । पोडो-्सो झूठ ने सादा स्पष्न ही तप्द कर दिया ।,आनंदी-कुछ भी हो मैं सब कुछ सह सकती हूँ और आपको भी मेरे हेतु सहना पड़ेगा ।,थोड़ी-सी भूल ने सारा स्वप्न ही नष्ट कर दिया । छुम उन्हें कैसे जानती हो वही तो हमारे अगुआा हैं,एक चौकीदारिन बीच-बीच में उसे डाँटती जाती है,तुम उन्हें कैसे जानती हो- वही तो हमारे अगुआ हैं मुफ्त का माल उड़ाता हे कि नहीं,ऐसे पाखंडियों पर दया न करनी चाहिए,मुफ्त का माल उड़ाता है कि नहीं फिर वह रेखाएं आकाश में विलीन हो गईं : मगर एक अल्पकाय मूर्ति अब भी प्लेटफास पर खड़ी थी ।,"मुलिया पूजा का सामान कर रही थी; पर इस तरह जैसे मन में जरा भी उत्साह, जरा भी श्रृद्धा नहीं है ।",फिर वे रेखाएं आकाश में विलीन हो गईं : मगर एक अल्पकाय मूर्ति अब भी प्लेटफार्म पर खड़ी थी । "वकोल साहब ने उसे देखते ही हाथ बढ़ा दिया और बोले -- आओ रमा बाबू, कहो, तुम्हारे म्युनिसिपल बोर्ड की क्‍या खबरें हैं ?",वकील साहब इस मौसम में भी ऊनी ओवरकोट पहने बरामदे में बैठे सिगार पी रहे थे ।,"वकील साहब ने उसे देखते ही हाथ बढ़ा दिया और बोले, 'आओ रमा बाबू, कहो, तुम्हारे म्युनिसिपल बोर्ड की क्या खबरें हैं ?" एक ज्षुण तक मममाहत-सी बैठी रही |,वह कभी इतनी दुर्बल न थी ।,एक क्षण तक मर्माहत सी बैठी रही । लेडी ऐयर--उन्की सूरत उन्हें मुबारक रहे ।,मिसेज़ ऐयर का प्रवेश ।,‘ लेडी ऐयर –‘ उनकी सूरत उन्हें मुबारक रहे । दरबारोजाक का नाम सुनते दी अम्बा की आँखें सजल द्वो गई ।,"सहसा उसके पति ने अन्दर आकर उसे सहास नेत्रों से देखा और बोला- मुंशी दरबारीलाल तुम्हारे कौन होते हैं, यह उनके यहाँ से तुम्हारे लिए तीज पठौनी आयी है ।",दरबारीलाल का नाम सुनते ही अम्बा की आँखें सजल हो गई । "इनकी दावत होगी, बंगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे, मोटर मिलेगी ।",अपने मनोभावों को इससे स्पष्ट रूप से वह प्रकट न कर सकता था ।,"इनकी दावत होगी, बंगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे, मोटर मिलेगी ।" बुद्धि तब भी राज करती भें अब भी करती है और हमेशा करेगी,वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राजकर्मचारी का रूप ले लिया है,बुद्धि तब भी राज करती थी अब भी करती है और हमेशा करेगी रमा ने कोट की जेब से हार निकालकर मेज़ पर रख दिया और बोला --- वह हार यह रक्‍खा हुआ है ।,"' इंस्पेक्टर, 'क्या हुआ, कल तो वह हार दिया था न ?","' रमा ने कोट की जेब से हार निकालकर मेज़ पर रख दिया और बोला,वह हार यह रक्खा हुआ है ।" "एक दिन दामोद्रदत्त स्कूल पे थाये तो देखा कि भम्माजी खाट पर अचेत पड़ी हुईं हैं, त्रो अँगेठों में आग रखे उनकी छातो सेंछ रददो है, और कोठरो के द्वार और खिएकियाँ बन्द हैं. ।",समस्त प्रान्तों से धन खिंच-खिंचकर दिल्ली आता था और पानी की भाँति बहाया जाता था ।,"एक दिन दामोदरदत्त स्कूल से आये तो देखा कि अम्माँजी खाट पर अचेत पड़ी हुई हैं, स्त्री अँगीठी में आग रखे उनकी छाती सेंक रही है और कोठरी के द्वार और खिड़कियाँ बन्द हैं ।" "उसकी आत्मा अब उस निश्चय का घोर प्रतिवाद कर रही थी, उसे जघन्य समझ रही थी ।",अपमान और लोक-निंदा का भय उसके दिल से मिटने लगा था ।,"उसकी आत्मा अब उस निश्चय का घोर प्रतिवाद कर रही थी, उसे जघन्य समझ रही थी ।" तब हमें मदम दोता है कि जिसे दमने अन्यक्ार में काछा ठेव सम्रका था वह केबल तृण का देर था,कुछ देर के बाद सड़क पर सन्नाटा था सावन की निद्रा-सी काली रात संसार को अपने अंचल में सुला रही थी और मोटर अनंत में स्वप्न की भाँति उड़ी चली जाती थी,तब हमें मालूम होता है कि जिसे हमने अंधकार में काला देव समझा था वह केवल तृण का ढेर था "आदर में वह सनन्‍्तोष है, जो धन और भोग-विलास में भी नहीं है ।","वे इस के लिए चोरी, छलकपट सब कुछ कर बैठते हैं ।",आदर में वह संतोष है जो धन और भोग-विलास में भी नहीं है । यह पाप मैंने वोया है ।,मैं ही विष की गाँठ हूँ ।,यह पाप मेंने बोया है । "एक और कुंवर साहब को प्रभावश्ाहिती बातें, - दूसरी बोर किसानों की हाब-हाय, परतु विचार-सागर में तौन दित निमस्न रहने के पश्चात्‌ उन्हें घरतों का रहारा लिख गया ।",मानो अब वे फिर उनसे न मिलेंगे ।,एक ओर कुँवर साहब की प्रभावशालिनी बातें दूसरी ओर किसानों की हाय-हाय परन्तु विचार-सागर में तीन दिन निमग्न रहने के पश्चात् उन्हें धरती का सहारा मिल गया । भोजन भी रूखा-वूखा मिलता था ।,"धूप-ठंड, पानी-बूँदी की बिलकुल परवाह न करते थे ।",भोजन भी रूखा-सूखा मिलता था । "ऊख केवल घनदाता दी नहीं, द्िसानों का जोवनदाता भी दे ।",दिन-भर घर में बैठा रहता ।,"ऊख केवल धनदाता ही नहीं, किसानों का जीवनदाता भी है ।" महाशय “ख” तो बिलकुल निहग हैं ।,चारों कानिस्टिबिल आगे की सीट पर सिमटकर बैठे ।,महाशय 'ख' तो बहुत निहंग हैं । "जालपा ने मुस्कराकर कहा -- भाग्य-वाग्य तो कहीं नहीं सराहते, घुड़कियाँ जमाया करते हैं ।",किसके पास जाऊँ ?,"' जालपा ने मुस्कराकर कहा, 'भाग्य-वाग्य तो कहीं नहीं सराहते, घुड़कियां जमाया करते हैं ।" उसके साथ ही जालपा भी बाहर आ गयी ।,' रतन को ऐसी हंसी छूटी कि वहाँ खड़ी न रह सकी ।,उसके साथ ही जालपा भी बाहर आ गई । "जिसे देखिए बही चडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पयी कर रद्द था, निनन्‍्दा की बौछार हो रही थी, मानों संसार से अब पापी का पाप कट गया ।",अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकडियाँ लिए हुए अपनी तरफ आते देखा ।,"जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया ।" "वेचारे अपने हाथों पानी भरते, ग्राप ही वरतन घोते ।","यह विचार मन में आते ही झगडू साहु गद्दी से मसनद के सहारे उठ बैठे और दृढ़ स्वर से कहा वही परमात्मा जिसने अब तक तुम्हारी टेक निबाही है, अब भी निबाहेंगे ।","बेचारे अपने हाथों पानी भरते, आप ही बरतन धोते ।" "कोई समय था, जब पाणों तुम्दारे हाथ रहती थो ।","कैलास- और, अभी जब अदालत का कुर्क-अमीन मेरा घर-बार नीलाम करने आयेगा, तो क्या होगा ?","कोई समय था, जब बाजी तुम्हारे हाथ रहती थी ।" "गाड़ी पर बेठे और फ़रा सास फूलता बन्द हुआ, तो इस घटना की विवेचना करने लगे ।","सहयोग ने उनके मान और धन को खूब बढ़ाया था, अतएव मुँह से चाहे वह असहयोग की कितनी ही निन्दा करें, पर मन में उसकी उन्नति चाहते थे ।","गाड़ी पर बैठे और जरा साँस फूलना बन्द हुआ, तो इस घटना की विवेचना करने लगे ।" धोबी ने छपड़े धोना बन्द कर दिया ।,किसी ने जरा भी टिर-पिर की और मैंने अदालत में दावा दायर किया ।,धोबी ने कपड़े धोना बन्द कर दिया । "पांडे ने आँखें निकालकर कहा -- जान परत है तुमह मिले हौ, नाँव काहे नहीं बतावत हो इनका ?",मेरे साथ ही तो आए थे ।,"पांडे ने आँखें निकालकर कहा, 'जान परत है तुमहू मिले हौ, नांव काहे नाहीं बतावत हो इनका ?" कार्यपरायणुता का दड मिला ।,"यह सब व्यवहार देख-देख कर उन्हें अनुभव होता जाता था कि देहाती बड़े मुटमरद, बदमाश हैं ।",कार्य-परायणता का दंड मिला । में लज्जावती से इस भाँति पराड मुख होना चाहता था कि उसकी निगाहों में मेरी इज्जत कम ने हो |,"जब वह फिटन पर बैठने लगे तो मैंने सुशीला को निःशंक हो आँख भर कर देखा, जैसे कोई प्यासा पथिक गर्मी के दिन में अफर कर पानी पिये कि न जाने कब उसे जल मिलेगा ।",मैं लज्जावती से इस भाँति पराङ्मुख होना चाहता था कि उनकी निगाहों में मेरी इज्जत कम न हो । "जड़ भरत की तरह बैठे हुए थे, न मुसकिराइट थी,न कुतूइल, न इर्ष,न कुछ ।","हँसते-हँसते लोगों की पसलियाँ दुखने लगीं, स्थूलकाय स्वामी की संयत अविचलता भी आसन से डिग गई ।","जड़ भरत की तरह बैठे हुए थे, न मुस्कराहट थी, न कुतूहल, न हर्ष; न कुछ ।" आज उसे अपने विता से जितवी अभक्ति हुईं उतनी कभी न हुईं थी,अच्छा लाओ सौ ही रुपये दे दो,आज उसे अपने पिता से जितनी अभक्ति हुई उतनी कभी न हुई थी बच्चे ने किवाढ़ को अपनी नन्हीं-नन्‍्दीं हयेलियों से पीछे ढक्ेलने के लिए जौर लगाकर कद्दा--तेवाल थोले,क्षणिक मोह के आवेश में पड़कर तू क्या उन दोनों को कलंकित कर देगी,बच्चे ने किवाड़ को अपनी नन्हीं-नन्हीं हथेलियों से पीछे ढकेलने के लिए जोर लगाकर कहा-तेयाल थोलो में आज तुमसे शपथ खाकर ऋदता हूँ कि मेने कभी उसे इस निगाह से नहीं देखा ।,इस विषय पर उसने बहुत सा साहित्य जमा किया और बड़े मनोयोग से उसका अध्ययन किया ।,मैं आज तुमसे शपथ खाकर कहता हूँ कि मैंने कभी उसे इस निगाह से नहीं देखा । उन्हें रोते देखकर सुभागी भी रोती थो ।,अच्छे बालकों से भगवान को भी तो प्रेम है ।,उन्हें रोते देखकर सुभागी भी रोती थी । अमर पूछता हुआ कारकुन के दफ़्तर में पहुंचा तो बौर्धों मुतीम लंडी- लंबी बद्दी खोले लिख रहे थे,एक घंटा बाद फिर गए तो सूचना मिली महन्तजी कलेऊ पर हैं,अमर पूछता हुआ कारकुन के दफ्तर में पहुंचा तो बीसों मुनीम लंबी-लंबी बही खोले लिख रहे थे जब विरजन ससुराल चली आयी तो भ्रवश्य कुछ दिलों प्रताप ने उसे श्पने ध्यान में न झ्नाने दिया परन्तु जब से वह उसकी बीमारी का समाचार पाकर वनारस गया था ओर उसकी गेंट ने विरजन पर संजीवनो बूटी का काम किया था उसी दिन से प्रताप को विश्वास हो गया था कि विरजन के हृदय में कमला ने वह स्थान नहीं पाया जो मेरे लिए नियत था,निस्संदेह वह विवाह के पूर्व ही से विरजन को अपनी समझता था तथापि इस विचार में उसे पूर्ण सफलता कभी प्राप्त न हुई,जब विरजन ससुराल चली आयी तो अवश्य कुछ दिनों प्रताप ने उसे अपने ध्यान में न आने दिया परन्तु जब से वह उसकी बीमारी का समाचार पाकर बनारस गया था और उसकी भेंट ने विरजन पर संजीवनी बूटी का काम किया था उसी दिन से प्रताप को विश्वास हो गया था कि विरजन के हृदय में कमला ने वह स्थान नहीं पाया जो मेरे लिए नियत था "इस भाँति दिन काटने के बाद ज्यों ही शाम होती, वह बन-ठनकर दालमरडी भी निकल जाता ।","वही दृश्य आँखों में फिरा करते, रमणियों के हावभाव और मूदु मुसकान के स्मरण में मगन रहता ।",इस भांति दिन काटने के बाद ज्योंही शाम होती वह बनठन कर दालमंडी की ओर निकल जाता । रमा को काग़्ज़-पेंसिल मिल गया ।,ज़रा काग़ज़-पेंसिल दीजिए तो नकल कर लूँ ।,रमा को काग़ज़-पेंसिल मिल गया । "विनती की, खुशामद की, रोई; किन्तु उसने सुमन का अपमान ही नहीं किया, उस पर भिथ्या दोथारोपण भी किया ।",उसने गजाधर को मनाने के लिए क्या नहीं किया ?,"विनती की, खुशामद की, रोई; किन्तु उसने सुमन का अपमान ही नहीं किया, उस पर मिथ्या दोषारोपण भी किया ।" उनका मन कह रहा था कि सुमन का सवंनाश मेरे ही कारण हुआ ।,"गजानन्द तो मल्लाहों से बातें करने लगे, लेकिन उमानाथ चितासागर में डूबे हुए थे ।",उनका मन कह रहा था कि सुमन का सर्वनाश मेरे ही कारण हुआ । "वह हिरय को तरह उस तरफ़ दोढ़ा, और एक छछाँग में बाग के उमप्त पार पहुँच गया ।","किसी वार से बचकर उसे अब इसकी खुशी न होती थी कि उसके प्राण बच गये, बल्कि इसका आनंद होता था कि उसने कातिल को कैसा ज़िच किया ।",वह हिरन की तरह उस तरफ दौड़ा और एक छलाँग में बाग के उस पार पहुँच गया । जिस शषि- कार से ये सर्देव वंचित रहे उसके लिए उनके मन में कोई तोम्र इच्छा न थी,ज्यों-ज्यों जत्था आगे बढ़ता था और लोग आ-आकर मिलते जाते थे पर ज्यों-ज्यों मंदिर समीप आता था लोगों की हिम्मत कम होती जाती थी,जिस अधिकार से ये सदैव वंचित रहे उसके लिए उनके मन में कोई तीव्र इच्छा न थी मुझे जितनी मुहब्बत रिआाया से हो सकती है उत्तदी उत लोगो को नहीं हो सकती जो जानदानी रईस हैं,अब्बाजान ने अपने ही बूते से यह दौलत पैदा की,मुझे जितनी मुहब्बत रिआया से हो सकती है उतनी उन लोगों को नहीं हो सकती जो खानदानी रईस हैं में बरामदे में थो ।,ऐसी दशा में यहाँ रहना मुझे अनुचित मालूम होता था; पर देवीजी से कुछ कह न सकती थी ।,मैं बरामदे में थी । दो बजे दिन से पात्रो की सजावट होने लगती थी ।,"लेकिन एक जमाना वह था, जब मुझे भी रामलीला में आनंद आता था ।",दो बजे दिन से पात्रों की सजावट होने लगती थी । "कुछ बेसी दाम लग जाता है, पर रुपया तो देस ही में रह जाता है ।","' 'सस्ते थे, मुदा विलायती थे ।","कुछ बेसी दाम लग जाता है, पर रूपया तो देस ही में रह जाता है ।" जीवन को सारी अभिलाषाएँ इसी में जलकर राख हो गई ।,नगर के नेता जमा थे और रोमनाफ अपने शोक-कंपित हाथों से अर्थी को पुष्पहारों से सजा रहा था एवं उन्हें अपने आत्म-जल से शीतल कर रहा था ।,जीवन की सारी अभिलाषाएँ इसी में जलकर राख हो गयीं । यह कहकर वह टाइपराइटर पर बैठ गई ।,क्लार्क-क्या करती हो सोफी ?,यह कहकर वह टाइपराइटर पर बैठ गई । सुझे भी अपने ऊपर विस्लास नहीं है ।,"कितनी ही दयालु , सहनशील सतोगुणी स्त्री हो , सास बनते ही मानो ब्यायी हुई गाय हो जाती है ।",मुझे भी अपने ऊपर विश्वास नहीं है । "ईखर की दया से अब उन्हे असीम विश्वास है, नहीं उन-जेसा अवम व्यक्ति क्या इस योग्य था कि इस कृपा का पात्न बनता ?",आठ पहर में एक दो बाटियाँ खा ली ; लेकिन मुख दीपक की तरह दमक रहा है ।,"ईश्वर की दया में अब उन्हें असीम विश्वास है, नहीं तो उन-जैसा अधम व्यक्ति क्या इस योग्य था कि इस कृपा का पात्र बनता ?" सद्दीना ने निशशेक भाव से ऋद्वा--अगर उनकी फ़िन्दगी गरारत ह६ तो भेरी भी गारत होगी,मैं उसकी जिंदगी गारत कर दूँगी,सकीना ने निशंक भाव से कहा-अगर उनकी जिंदगी गारत हुई तो मेरी भी गारत होगी १७ चन्त्या का समय है।,"मैं जाता हूँ; यथाशक्ति उद्योग करूंगा, लेकिन यदि कार्य न हुआ तो उस का दोष आप के सिर पड़ेगा ।",१७ संध्या का समय है । उनके साथ एक फैशनेबुल नवयुवक अंग्रेजी सूट पहने मुसकिराता हुआ उतरा ।,इस घटना के दो वर्ष उपरांत टाउनहाल में फिर एक बड़ा जलसा हुआ ।,उनके साथ एक फैशनेबुल नवयुवक अंग्रेजी सूट पहने मुस्कराता हुआ उतरा । "हम ढोना प्रातःकाल वासी रोटियों खा, दोपहर के लिए मवर ओर जा का चब्रेना लेकर चल देते थे |",हाय ! सोम. -अभी थाने से आ रहा हूँ ।,"हम दोनों प्रात:काल बासी रोटियाँ खा, दोपहर के लिए मटर और जौ का चबेना ले कर चल देते थे ।" "बोली --- बहन, आशीर्वाद दो कि उन्हें लेकर कुशल से लौट आऊँ ।",जालपा की आंखों में आंसू भरे हुए थे ।,"बोली, बहन, 'आशीर्वाद दो कि उन्हें लेकर कुशल से लौट आऊँ ।" "हों, इतने महत्व का काम मुझे स्वथ करना चाहिए |","सोचो, कितने कलंक और लज्जा की बात होगी कि मुझ-जैसा विद्वान् केवल भोजन के लिए इतना बड़ा कुचक्र रचे ।","हाँ, इतने महत्त्व का काम मुझे स्वयं करना चाहिए ।" किसी को कानोंकान ख़बर न हुई ।,रमा निरूत्तर हो गया ।,किसी को कानों-कान ख़बर न हुई । कोई सन्देह वहीं ऊि यह सब दर्मे मिलाकर असहयोगियों छो दबाना चाहते है ।,भला ऐसे अवसर पर कब चूकने वाले थे ।,कोई संदेह नहीं कि यह सब हमें मिलाकर असहयोगियों को दबाना चाहते हैं । "में वह स्वप्न देखने में मरन हूँ, जब हम दोनों उच्र सूत्र में बंध जायेंगे, जो द्गना नहों जानता |",तुम्हारे साथ हर तरह का कष्ट झेलने को तैयार हूँ ।,"मैं वह स्वप्न देखने में मग्न हूँ जब हम दोनों उस सूत्र में बँध जायँगे , जो टूटना नहीं जानता ।" सारे अग ढीले पढ़ गये थे ।,जेल की अँधेरी कोठरी में दिन-भर के कठिन परिश्रम के बाद वह दोनों के उपकार और सुधार के मनसूबे बाँधा करता था ।,सारे अंग ढीले पड़ गये थे । ऐसे जीवन को घिक्कार है |,एक क्षण विलम्ब होने से छबड़ी के हाथ से छूट कर गिर पड़ने की सम्भावना थी ।,ऐसे जीवन को धिक्कार है । "पत्रावज, सितार, स्रोद, वौण! और जाने कौन-कौन से बाजे, जिनके नाम भो में नहों जानता, उनके शिष्यों के पास थे ।",रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया ।,"पखावज, सितार, सरोद, वीणा और जाने कौन-कौन बाजे, जिनके नाम भी मैं नहीं जानता, उनके शिष्यों के पास थे ।" "इस पतन्द्रह वर्ष के कठित प्रायश्वित्त मे उनकी सम्तप्त आत्मा को अगर कहाँ आश्रय मिला था, तो वह अशरण-शरण भगवान्‌ के चरण थे ।",वह थोड़ी दूर गये थे कि ठाकुरजी का एक मन्दिर दिखायी दिया ।,"इस पन्द्रह वर्ष के कठिन प्रायश्चित्त में उनकी सन्तप्त आत्मा को अगर कहीं आश्रय मिला था, तो वह अशरण-शरण भगवान् के चरण थे ।" चौधरी पर इस सहानुभूति का गहरा असर पड़ा ।,यह लो रुपये ।,चौधरी पर इस सहानुभूति का गहरा असर पड़ा । "मैं यह नहीं सुन सकता कि राय साहब"" ने अपने नोकर के साथ रियायत की ।",बोले-यह मेरी बदनामी की बात है ।,मैं यह नहीं सुन सकता कि राय साहब ने अपने नौकर के साथ रिआयत की । पडिताइन--इन सब्चो को घिन भी नहीं लगती ।,' पंडित -'चमार था ससुरा कि नहीं ।,' पंडिताइन -'इन सबों को घिन भी नहीं लगती । "मोटर जितने वेग से आगे ना रहो थी, उतने दी वेग से उसका सन सामने के चृक्ष-समहों के साथ पीछे को ओर उड़ा जा रद्दा था ।",फिर न जाने क्या हो! इस खयाल से उसके रोएँ खड़े हो गये ।,"मोटर जितने वेग से आगे जा रही थी, उतने ही वेग से उसका मन सामने के वृक्ष-समूहों के पीछे की ओर उड़ा जा रहा था ।" उसकी मरम्मत करने को वह तीन मजबूत लडके काफी थे |,"बाजबहादुर चौंका, समझ गया कि यह लोग मुझे छेड़ने पर उतारू हैं ।",उसकी मरम्मत करने को वह तीन मजबूत लड़के काफी थे । "रखियों मन मे लाग, सिपाही बाकी तेरी पाग ।","एक महीना पहले जिस जीर्ण शरीर के सिरहाने बैठी हुई वह नैराश्य से रोया करती थी, उसे आज बोलते देख कर आह्लाद का पारावार न था ।","रखियो मन में लाग, सिपाही बाँकी तेरी पाग ।" सुमन का चूल्हे के सामने जाने को जी न चाहता था ।,रात हो रही थी ।,सुमन का चूल्हे के सामने जाने को जी न चाहता था । इसका कारण थहो है कि एक का रूप प्रयक्ष है और दूधरे का गुप्त |,अबकी बेड़ा पार है ।,इसका कारण यही है कि एक का रूप प्रत्यक्ष है और दूसरे का गुप्त । अमीना का दिल कचोट रहा है ।,तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो ।,अमीना का दिल कचोट रहा है । "देवप्रिया जब तरू गधिणी न हुई, वह सत्पप्रकाश से कभी-कभी बातें करी, कहानियाँ सुताती; कितु बर्िणी होते ही उसका व्यवहार कओोर हो गया, मौर 'प्रववकाल ज्यों-ज्यों निकट आता था, उसकी कदोखता बढती ही जातो भी ।",शायद चिराग जलाना भूल गयी ।,देवप्रिया जब तक गर्भिणी न हुई वह सत्यप्रकाश से कभी-कभी बातें करती कहानियाँ सुनातीं किंतु गर्भिणी होते ही उसका व्यवहार कठोर हो गया और प्रसवकाल ज्यों-ज्यों निकट आता था उसकी कठोरता बढ़ती ही जाती थी । "यद्यपि सदन ने सुमनवाई को भ्रपना परिचय ठीक नहीं दिया, उसने अपना नाम ऋुँवर सदनसिह वताया, पर उसका भेद बहुत दिनों तक न छिप सका ।","जिसने कभी मदिरा का सेवन न किया हो, मद लालसा होने पर भी उसे मुँह से लगाते हुए झिझकता है ।","यद्यपि सदन ने सुमन बाई को अपना परिचय ठीक नहीं दिया, उसने अपना नाम कुँवर सदन सिंह बताया, पर उस का भेद बहुत दिनों तक न छिप सका ।" श्रोर किते में चिता वन रदी थी |,' 'किला बन्द करके हम महीनों लड़ सकते हैं ।,और किले में चिता बन रही थी । नादिर अब बादशाह था और लेला ठप्तको मलका ।,एक महिला ने कहा- आपका सोहाग सदा सलामत रहे ।,नादिर अब बादशाह था और लैला उसकी मलका । कोई कुलोन ब्राह्मण भो इतना आचार-विचार न करता होगा ।,दूसरा साल बीत रहा है ।,कोई कुलीन ब्राह्मण भी इतना आचार-विचार न करता होगा । "अगर किफ़ायत से चलता, तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रुपये ज़रूर अदा हो जाते ; मगर यहाँ तो सिर पर शामत सवार थी ।","इस समय रमा की आंखों से आंसू तो न निकलते थे, पर उसका एक- एक रोआं रो रहा था ।","अगर किफायत से चलता, तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रूपये जरूर अदा हो जाते, मगर यहाँ तो सिर पर शामत सवार थी ।" "अ्रभी श्राप लोग कया देखते हैं, आगे देखियेगा क्या-क्या गुल खिलते हैं ।",मैं बैठा-बैठा इधर-उधर की गप्पें उड़ाया करता ।,"अभी आप लोग क्या देखते हैं, आगे देखिएगा क्या-क्या गुल खिलते हैं ।" "मील-भर दौड़ाकर कह दिया, चल हट ।",गाड़ी तेज हो गई ।,"मील-भर दौड़ाकर कह दिया, चल हट ।" पोढ़ा भी टिठक गया ।,"जब कमरा नौकरों से खाली हो गया, तो साहब उनकी ओर बढ़े ।",घोड़ा भी ठिठक गया । "हो सफता दे कि कोई दरवाजा खुला रद गया हो, फोई दवा लेने आया ऐे, कुंजी मेज पर पडी देखी हो और बकक्‍स खोलकर रपये निकाल लिये हों ।","बक्स का ताला भी बन्द कर दिया था, किन्तु ओह, अब समझ में आ गया, कुंजी मेज पर ही छोड़ दी, जल्दी के मारे उसे जेब में रखना भूल गया, वह अभी तक मेज पर पड़ी है ।","हो सकता है कि कोई दरवाजा खुला रह गया हो, कोई दवा लेने आया हो, कुंजी मेज पर पड़ी देखी हो और बक्स खोल कर रुपये निकाल लिये हों ।" "मेंने मान लिया, वह सती हैं, साध्वी हैं और केवल उनकी आज्ञा से - ---! दयाक्ृप्ण ने बात काटी--उतकी कोई आजशज्ञा नहीं थी ।","मन में जो एक दाह उठ रही थी , उसे कैसे शान्त करे ?","मैंने मान लिया , वह सती है , साधवी है और केवल उसकी आज्ञा से... ' दयाकृष्ण ने बात काटी, उनकी कोई आज्ञा नहीं थी ।" बोले--यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है,दूसरी टोली रायसाहब और खन्ना की थी,बोले - यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है “बिकाऊ क्यों नहीं है ।,"लिखा था, तुम्हारे पत्र ने एक और चिन्ता बढ़ा दी अब ।",’ ‘बिकाऊ क्यों नहीं है ? "फिर सींग मिलाये, और एक दूसरे को ठेलने लगे ।",तारा का विवाह तो कहीं-न-कहीं हो ही जायगा और ईश्वर ने चाहा तो किसी अच्छे ही घर में होगा ।,फिर सींग मिलाए और एक-दूसरे को ठेकने लगे । ", रोशनुद्दौत्य ने तिर्मीकता ले उत्तर दिया---आप मेरे बादशाह है, इपलिए आपका अदब करठा हूँ, चर्ना इसो वक्‍त इस वदन्‍जदातों का मजा चला देता ।",एक पुरानी मसजिद भी थी ।,रोशनुद्दौला ने निर्भीकता से उत्तर दिया-आप मेरे बादशाह हैं इसलिए आपका अदब करता हूँ वरना इसी वक्त बदजबानी का मजा चखा देता । "प्रकाश को इन वातो पर केसे विद्वास आये, जब तक वह अपनी आँखों से सन्दूक ठेख न ले ।",आज वह अधीर होकर तीसरे ही पहर जा पहुँचा ।,"‘ प्रकाश को इन बातों पर कैसे विश्वास आये, जब तक वह अपनी आँखों से सन्दूक न देख ले ।" "नेकनामी तो शायद ही मिले, हाँ, बदनामी तैयार खड़ी है ।","तुम चाहे दो-चार रूपये अपने पास ही से खर्च कर दो, पर वह यही समझेंगी कि मुझे लूट लिया ।","नेकनामी तो शायद ही मिले, हाँ, बदनामी तैयार खड़ी है ।" जूते पहनने लगा ।,आभूषण का एक तार भी उसकी देह पर न था ।,जूते पहनने लगा । श्रद्धा तो ज्ञानियों ओर साधुओं ही के अधिकार की वस्तु है ।,मैं कुछ ऐसा सिटपिटा गया कि मेरे मुँह से एक शब्द भी न निकला ।,श्रृद्धा तो ज्ञानियों और साधुओं ही के अधिकार की वस्तु है । जाहिम की आँखें किततो कुन्द और यज़बताक हैँ ।,"वह कुछ साफ-साफ तो कहता न था, बस कनायों में बातें कर रहा था और भूले गीदड़ की तरह इधर-उधर बौखलाया फिरता था कि किसे पाये, और नोच खाये ।",जालिम की आँखें कितनी तुंद्र और गजबनाक है । कुंभर साहब तोसरा फेर करने जा रहे थे कि चौते ने मचा पर जस्त मारी ।,चीता जख्मी तो हुआ ; पर गिरा नहीं ।,कुँवर साहब तीसरा फैर करने जा रहे थे कि चीते ने मचान पर जस्त मारी । गूदढ़ बोले--नहीं भेया कसी बातें करते हो तुम,सलोनी समझ रही थी यह सब-के-सब मिलकर मुझे लुटवाना चाहते हैं,गूदड़ बोले-नहीं भैया कैसी बातें करते हो तुम उन्हें मेरी सूरत से घुणा होने लगी।,पहले तो पिताजी विवाह न करते थे।,उन्हें मेरी सूरत से घृणा होने लगी। "छड़ी सेंगाकर पॉर्चा श्रपराधियों को दुस-दुस छुडियाँ लगायी, सारे दिन बेंच पर खड़ा रखा और चाल-चलन के रतिस्टर में उनके नाम के सामने काले चिद्द बना दिये ।","' बाजबहादुर खड़ा हो गया, उसके मुख-मंडल पर वीरत्व का प्रकाश था ।","छड़ी मँगाकर पाँचों अपराधियों को दस-दस छड़ियाँ लगायीं, सारे दिन बेंच पर खड़ा रखा और चाल-चलन के रजिस्टर में उनके नाम के सामने काले चिह्न बना दिए ।" ढपोर- सख ने पन्नो का पुलिंदा समेटा और छत्तात छुनाने लगे |,न्याय दुर्बल के पक्ष में था ।,ढपोरसंख ने पत्रों का पुलिंदा समेटा और वृत्तान्त सुनाने लगे । यह प्रस्ताव दाकी के मेले हुए खिलाड़ियों ने पेश किया ।,"लोग समझते थे कि एक महीने का झंझट है, किसी तरह काट लें, कहीं कार्य सिद्ध हो गया तो कौन पूछता है ।",यह प्रस्ताव हाकी के मँजे हुए खिलाड़ियों ने पेश किया । मैं जानती हूँ कि इस समय ठ॒म्हें कुल-प्रतिष्ठा और रियासत का लेशमात्र भी श्रभिसान नहीं है |,तुम मुझे कटु वचन सुना कर अपने चित्त को शांत कर लेते हो ।,मैं जानती हूँ कि इस समय तुम्हें कुल-प्रतिष्ठा और रियासत का लेशमात्र भी अभिमान नहीं है । उनमे अब हृदय के सरल उद्गारों का लेश मो न होता था ।,उसी दिन से सत्यप्रकाश को यह चिंता हुई कि ज्ञान के लिए कोई उपहार भेजूँ ।,उनमें अब हृदय के सरल उद्गारों का लेश भी न होता । "हाँ, उस समय उनके माथे पर कुछ ऐसा बल पड़ जाता, श्राँखे कुछ ऐसी प्रचंड हो जातीं, नाक कुछ ऐसी सिकुड़ जाती कि मिखारी फिर उनकी दूकान पर न आता |",किसी बाकीदार असामी के सामने इस पीपे का उछलना-कूदना और पैंतरे बदलना देखकर किसी नट का चिगिया भी लज्जित हो जाता ।,"हाँ, उस समय उनके माथे पर कुछ ऐसा बल पड़ जाता, आँखें कुछ ऐसी प्रचंड हो जातीं, नाक कुछ ऐसी सिकुड़ जाती कि भिखारी फिर उनकी दूकान पर न आता ।" "जब आग ही बुम्त गई, तो धुआँ कहाँ से आता ।","वह बे-सरो-सामान घर , वह फटा फर्श , वे टूटी-फूटी चीज़ें देखकर उसे दयाकृष्ण पर दया आ गयी ।",जब आग ही ठंडी हो गयी तो धुआँ कहाँ से आता ? "चोर के भी"" मित्र हैं ओर साह के भी",और सभा-चतुर इतने हैं कि जवानों में जवान बन जाते हैं बालकों में बालक और बूढ़ों में बूढ़े,चोर के भी मित्र हैं और साह के भी "यहद्द देखो, तुम्दहरे लिए एक करनफूल लाया हूँ, जरा पहनकर मुझे दिखा दो ।","कल्लू उसे देखकर मुँह फेर लेता, लेकिन वह दिन में दो-चार बार पहुँच ही जाता ।","यह देखो, तुम्हारे लिए एक करनफूल लाया हूँ, जरा पहनकर मुझे दिखा दो ।" उनका भुरता बनाया ; फिर बुधिया और वह दोनों साथ खाने बेठे ।,‘‘ अच्छा रहने दो यह चापलूसी ।,"उनका भुरता बनाया , फिर बुढिया और वह दोनो साथ खाने बैठे ।" भेरे माँ-बाप ने भी मुझे एक बूढ़े मियाँ के गले बाँध दिया था |,भोली -- यह सब उसी जिहालत का नतीजा है ।,मेरे माँ-बाप ने भी मुझे एक बूढ़े मियाँ के गले बाँध दिया था । "निर्दयी ने इस तरह घर से निकाला, जैसे कोई कुते को निकाले ।",उसके लिए पिंजरे को खाली करना आवश्यक था ।,"निर्दयी ने इस तरह घर से निकाला, जैसे कोई कुत्ते को निकाले ।" सारी रात जागती रही ।,"आखिर तुम भी तो उन्हीं की कमाई खाती हो, और मुझसे अधिक ।",सारी रात जागती रही । "यही न होगा, लोग हँसेंगे; मगर मुझे उस हँसी की क्या परवा ! वह मेरी हँसी नहीं है, अपने समाज की हँसी हे ।",अब उस भ्रम का सहारा भी नहीं रहा! सहसा विचारों ने पलटा खाया ।,"यही न होगा, लोग हंसेंगे, मगर मुझे उस हंसी की क्या परवा! वह मेरी हंसी नहीं है, अपने समाज की हंसी है ।" वद शतान मोटरकार को तरद्द कुप्पी चम्रह्नाता हुआ चला ही आता था ।,एक साथ चार चीजें मुँह में डालीं और अधकुचली ही निगल गये ।,वह शैतान मोटरकार की तरह कुप्पी चमकाता हुआ चला ही आता था । "निरुषमा फिर बाँदी से रानी हुई, सास फिर उसे पान की तरद् फेरने लगी, लोग उसका मुँह जोहने लगे ।","देखें, कैसे महात्माजी की बात नहीं पूरी होती ।","निरुपमा फिर बाँदी से रानी हुई, सास फिर उसे पान की भाँति फेरने लगी, लोग उसका मुँह जोहने लगे ।" "जहाँ जिसको सुभीता हुआ, वह्द उधर ही जा निकला ।",बड़ी मुसीबत का सामना था ।,"जहाँ जिसको सुभीता हुआ, वह उधर ही जा निकला ।" त्तोनों छात्र डाक्टर साहब को सेंसालमे लगे,डॉक्टर साहब जमीन पर गिर पड़े,तीनों छात्र डॉक्टर साहब को संभालने लगे यह निश्चय करके क्ृष्णचन्द्र अपने उद्देश्य को पूरा करने के साधनों पर विचार करने लगे ।,संसार को मालूम हो जाएगा कि कुल पर मरने वाले पापाचरण का क्या दंड देते है ?,यह निश्चय करके कृष्णचन्द्र अपने उद्देश्य को पूरा करने के साधनों पर विचार करने लगे । हृढ़ताल दस-पाँच दिन चली तो हमारा रोज़गार मिट्टों में मिल जायगा,मैं जानती हूं ऐसी हड़ताल करना आसान नहीं है,हड़ताल दस-पाँच दिन चली तो हमारा रोजगार मिट्टी में मिल जाएगा इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया ।,सारा दिन गुजर गया मगर कोई जवाब नहीं ।,इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया । "अब इन्हीं को देखो, सारे दिन मझे जलाया करते हैं ।",गाँव में कितनी हलचल है ।,"अब इन्हीं को देखो, सारे दिन मुझे जलाया करते हैं ।" यहाँ जाँच-तहकियात करने आये हैं,सारे गाँव में सनसनी फैली हुई थी,यहाँ जाँच-तहकियात करने आये हैं अभ्रमोला बड़ा गाँव था लेकिन समस्त गाँव में उनकी सम्मति के बिना कोई काम न होता था ।,"गाँव में कहीं मछली मरे, कहीं बकरा कटे, कहीं आम टूटे, कही भोज हो उमानाथ का हिस्सा बिना माँगे आप ही आप पहुँच जाता ।",ढ़ाई-तीन हजार जनसंख्या थी लेकिन समस्त गाँव में उनकी सम्मति के बिना कोई काम न होता था । "इसके बिना किसी तरह निर्वाह नही ॥ अगर कोई महाशय झातीय आदोलन में झटीक भी होते हैं, स्वार्थ-स्िद्धि बरने बे लिए, अपना ढोल परोटने के लिए ।",द०-बंधुवर दो मिनट और संतोष करो ।,अगर कोई महाशय जातीय आंदोलन में शरीक भी होते हैं तो स्वार्थसिद्धि करने के लिए अपना ढोल पीटने के लिए । "दुनिया समझती है, वह मेरी विवाहिता थी, कदापि नहीं ।","मैंने तो समझा था, शायद आपके आने से इस विषय पर कुछ प्रकाश पड़ेगा ।","दुनिया समझती है, वह मेरी विवाहिता थी, कदापि नहीं ।" "शारदा--हों, अम्मों, रम दा ।","शारदा- मैं सब लूँगी, मेरी अम्माँ, न, सब ले लीजिए ।","शारदा- हाँ, अम्माँ, रख दो ।" "सुन्दरी के मुंह का भाव तो देखना चाहते थे , पर डरते थे कि कही वह यह न सममे, लाला चवन्नी क्या दे रहें हैं, मानो किसी को मोल ले रहे हैं ।",माता जानती थी कि प्रलोभन का जादू इस पर न चलेगा ।,"सुन्दरी के मुँह का भाव तो देखना चाहते थे; पर डरते थे कि कहीं वह यह न समझे, लाला चवन्नी क्या दे रहे हैं, मानो किसी को मोल ले रहे हैं ।" "ब्ालख़च्चों के भाग में लिखा होगा, तो भगवान और किसी हीले से देगा ।","मालूम नहीं, देवता बैठे सुन रहे थे या क्या, उसकी याचना अक्षरश: पूरी हुई ।","बाल-बच्चों के भाग में लिखा होगा, तो भगवान् और किसी हीले से देगा ।" "परन्ठु उनकी इस कृपा और उस दया में लेशमात्र भी भेद न था, जो अपने कुर्ता और घोड़ों से थी ।",वे सम्भवतः उसे कुछ इनाम देते और प्रेमशंकर से उसकी प्रशंसा भी कर देते ।,"परंतु उनकी इस कृपा और दया में लेशमात्र भी भेद न था, जो अपने कुत्तों और घोड़ों से थी ।" "वही बच्चे जो थोड़े दिन पहले मेवे-मिठाई की ओर ताकते न ये, अ्रव एक-एक पैसे की चीज को तरसते थे |","श्रृद्धा की पूर्ण प्रकृति का परिचय महाकवि रहीम के एक दोहे के पद से मिल जाता है प्रेम सहित मरिबो भलो, जो विष देय बुलाय ।","वही बच्चे, जो थोड़े दिन पहले मेवे-मिठाई की ओर ताकते न थे अब एक-एक पैसे की चीज को तरसते थे ।" सब-के-सव ऊपर बैठे खा रहे हैं ।,"इसलिए चतुर लोग विलम्ब किया करते हैं, जिसमें यजमान समझे कि पंडित जी को इसकी सुधि ही नहीं है, भूल गये होंगे ।",सब के सब ऊपर बैठे खा रहे हैं । "वह खुद उसे अच्छे-अच्छे सूट पहनाकर, अच्छे-से-अच्छे ठाट में रखकर, प्रसन्न होतो है ।","अब उसके लिए अलग अपनी कार है , अलग अपने नौकर हैं , तरह-तरह की बहुमूल्य चीजें मँगवाता रहता है और पद्मा बड़े हर्ष से उसकी सारी फिजूलखर्चियाँ बर्दाश्त करती है ।","वह खुद उसे अच्छे-से-अच्छे सूट पहनाकर अच्छे-से-अच्छे ठाठ में रखकर , प्रसन्न होती है ।" तुम्हारे जीवन-निर्वाह का केवल यही एक उपाय नहीं है ।,विट्ठलदास -- अगर ईश्वर तुम्हें सुबुद्धि दें तो सामान्य रीति से जीवननिर्वाह करने के लिए तुम्हें दालमंडी में बेठने की जरूरत नहीं है ।,तुम्हारे जीवननिर्वाह का केवल यही एक उपाय नहीं है । बहुत समव था कि एक प्रतिष्चित आदमी से नाता रखने का अभिमान उसके जीवन में एक नये युग का आरभ करता ; मगर तुमने हन बातों पर ज़रा भी ध्यान न दिया ।,दो-एक बार पड़कर कई मित्रों को जानी दुश्मन बना चुका हूँ ।,"बहुत संभव था कि एक प्रतिष्ठित आदमी से नाता रखने का अभिमान उसके जीवन में एक नये युग का आरम्भ करता, मगर तुमने इन बातों पर जरा भी ध्यान न दिया ।" "राजकुमार को तुरन्त ही मालूम हो गया कि जो बातें उन्होंने अभी-श्रभी संन्‍्यासी से कही थी, वे बिलकुल ऊपरी और दिखावे की थी और हार्दिक भाव उनसे प्रकद नहीं हुए थे ।","इसी अनुरागावस्था में राजकुमार कितनी ही बातें कह गया, जो कि स्पष्ट रूप से उसके आन्तरिक भावों का विरोध करती थीं ।","राजकुमार को तुरन्त ही मालूम हो गया कि जो बातें उन्होंने अभी-अभी संन्यासी से कहीं थीं, वे बिलकुल ही ऊपरी और दिखावे की थीं और हार्दिक भाव उनसे प्रकट नहीं हुए थे ।" "उसने देखा, सच्ची सजनता भी दरिद्रों और नीचों ही के पास रहती है |",पंच लोग तो खुद चाहते थे कि मकान न बेचना पड़े ।,"उसने देखा, सच्ची सज्जनता भी दरिद्रों और नीचों ही के पास रहती है ।" फिर लालाजी स्नेह से भरे स्वर में घोके--- नौकर हो जाने पर आदमी को सालिक का हुवम मानना ही पढ़ता है,जब तक हमें जायदाद पैदा करने की धुन रहेगी हम धर्म से कोसों दूर रहेंगे,फिर लालाजी स्नेह से भरे स्वर में बोले-नौकर हो जाने पर आदमी को मालिक का हुक्म मानना ही पड़ता है "वस, तब से बाजार में लूट मचो हुई हैं ।",उनका रोब सभी पर छाया हुआ था ।,बस तब से बाजार में लूट मची हुई है । मिनिस्टर-साइब की और पेरी वह ले दे शुरू हुई कि कुछ नपूछिणए ।,नतीजा यह हुआ कि प्रस्ताव अस्वीकृत हो गया ।,मिनिस्टर साहब की और मेरी वह ले-दे शुरू हुई कि कुछ न पूछिए । आज अम्माजञान विरादरों में जानेचालो थीं,मैंने अंतिम बार कह दिया कि तुम्हारा बकचा ढोना मुझे असह्य है और अगर तुमने न माना तो मैं अपने हाथों वह बकचा जमीन पर गिरा दूँगी,आज अम्मीजान बिरादरी में जाने वाली थीं वर्षी कतु बावी ।,सिपाही-यहाँ उनसे मिलना असम्भव था ।,वर्षा ऋतु आयी । पर अफसोस ! वे दो-तीन दिन कभी न आये |,लेकिन वह यही जवाब देती कि अभी वहाँ जाकर अपना काम करो ।,पर अफसोस ! वे दो-तीन दिन कभी न आये । कुछ दूर के बाद सदुक पर सम्तादा था सावन दो रिद्वा-सो काठी रात संसार ही अपने अंचल में सुला रही थी भौर मोटर अनन्त में स्प्त को भाँति उड़ी चली,हजारों आदमी मोटर के पीछे दौड़ रहे थे और सुखदा हाथ उठाकर उन्हें प्रणाम करती जाती थी,कुछ देर के बाद सड़क पर सन्नाटा था सावन की निद्रा-सी काली रात संसार को अपने अंचल में सुला रही थी और मोटर अनंत में स्वप्न की भाँति उड़ी चली जाती थी "मेरी ईख़र से यही विवती हैं कि आप जहाँ रहे, कुशल से रहे ।","मैं जिस जलवायु में पली हूँ , उसका मूल तत्त्व है पति में श्रद्धा ।","मेरी ईश्वर से यही विनती है कि आप जहाँ रहें , कुशल से रहें ।" बस कमारी दशा उन बच्चों की-सी है जिन्हें चम्मच से दूध पिलाकर पाला जाता है बाहर से मोटे अन्दर से दु्बंल सत्वहीन ओर मुहताज,इस शान को निभाने के लिए हमें अपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है कि हममें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा,बस हमारी दशा उन बच्चों की-सी है जिन्हें चम्मच से दूध पिला कर पाला जाता है बाहर से मोटे अंदर से दुर्बल सत्वहीन और मोहताज "हाँ, जब एक महिला के पेट में दर्द होने लगा था तो दो-तीन बार दवाएं पिलाने जाये थे ।",समिति के युवक आकाश के देवता नहीं होते ।,"हाँ, जब एक महिला के पेट में दर्द होने लगा था तो दो-तीन बार दवाएँ पिलाने आये थे ।" यहाँ इसी प्रकार का शिष्टाचार किया जाता है |,इस दरवाजे पर कभी-कभी भीड़ लगी रहती थी ।,यहाँ इसी प्रकार का शिष्टाचार किया जाता है । उसे जालपा सेकोई शंका न थी ।,"इस जीवन में ज़ोहरा को यह पहला आदमी ऐसा मिला था जिसने उसके सामने अपना ह्रदय खोलकर रख दिया, जिसने उससे कोई परदा न रक्खा ।",उसे जालपा से कोई शंका न थी । "यह कहना कि पुलिस ने मुझसे जबरदस्ती गवाही दिलवायी, प्रलोभन दिया, मारते का धमको दी, लज्जास्पद बात है ।","ख़याल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झूठी गवाही दी, तो क्या जवाब दूँगा ।","यह कहना कि पुलिस ने मुझसे जबरदस्ती गवाही दिलवाई, प्रलोभन दिया, मारने की धमकी दी, लज्जास्पद बात है ।" आज वे भी गालियाँ सुनना पसन्द करती हैं,पर यह न समझना यहाँ देवीजी की प्रतिष्ठा की गई होगी,आज वे भी गालियाँ सुनना पसन्द करती है "बहुत दिन हुए, इस पर से एक कुर्मी का लड़का गिरकर मर गया था ।",जरा ओर आगे एक आम का पेड़ था ।,"बहुत दिन हुए, इस पर से एक कुर्मी का लड़का गिरकर मर गया था ।" तुम्हें स्वौदार है ?,"गोकुल- खैर, यह वह जाने और तुम जानो ।",तुम्हें स्वीकार है ? "“ क्‍या काम था, जरा मैं भी तो सुन, या मेरे सुनने लायक नहीं है ?","' देवी ने सरलता से मुस्कराकर कहा, 'कहीं नहीं, ज़रा एक काम से चला गया था ।","' 'क्या काम था, ज़रा मैं भी तो सुनूं, या मेरे सुनने लायक नहीं है ?" हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदमकद आईने खजखे जाते हैं ।,"' रात को जालपा ने एक भयंकर स्वप्न देखा, वह चिल्ला पड़ी ।",हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदमकद आईने रक्खे जाते हैं । नहीं तो ढाई- तीन हज़ार उनके लिए क्‍या बड़ी बात थी ?,"न कहीं आना न जाना, न किसी से बात न चीत, ऐसे कोई कितने दिन रह सकता है ?",नहीं तो ढाई-तीन हज़ार उनके लिए क्या बडी बात थी ? "आदमी पागलपन करे, तो उसे पागलखाने भेजते हैं , मगर तुम जो पागछपन करते दो, उसका कोई दण्ड नहीं ।",उसकी भोली बातें सुनकर माता का दिल और भी फटा जाता था ।,"आदमी पागलपन करे तो उसे पागलखाने भेजते हैं; मगर तुम जो पागलपन करते हो, उसका कोई दंड नहीं ।" "बिरादरो जो दण्ड दे, उसे स्वोकार करने को तेयार हूँ ।","ब्राह्मण नहीं खुद ईश्वर ही क्यों न हों, रिश्वत खानेवाले उन्हें भी चूस लेंगे ।","बिरादरी जो दण्ड दे, उसे स्वीकार करने को तैयार हूँ ।" फिर अब पौरुख भी तो थक रहा है ।,आठ आने पैसे मिले थे ।,फिर अब पौरूख भी तो थक रहा है । "यद्ट देखो, तुम्हारा एक्न प्यादा पिठ गया ।",बार-बार चाहता था कि दीवार से टकराकर प्राण दे दे; लेकिन यह आशा रोक देती थी कि शायद लोगों को मुझ पर दया आ जाय ।,"यह देखो, तुम्हारा एक प्यादा पिट गया ।" फिर बोले--आप बढ़े हँसोड़ हो खाँ साहब |,"डाक्टर बोस को आप जानते हैं , धर्म में उनकी कितनी श्रद्धा है ! खब्त कहिए ।","फिर बोले, आप बड़े हँसोड़ हो , खाँ साहब ?" ( बस जाओ में दस-पाँच दिन में फिर आऊँगा और देखूगा सद्लि किन छड़कों मे झूठा वादा किया था किसने सच्चा,रोज मुँह-हाथ धोना अच्छी बात है या नहीं- सभी ने कहा-अच्छी बात है,मैं दस-पाँच दिन में फिर आऊँगा और देखूँगा कि किन लड़कों ने झूठा वादा किया था किसने सच्चा "उन्होंने कहा--हजूर, अगर आपको ये चोजें पद नहीं तो ने छे, मगर रस्म को तो न मिठायें ।",सत्य.-तो फिर मैं तुमसे छिपकर चला जाऊँगा ।,उन्होंने कहा-हुजूर अगर आपको ये चीजें पसंद न हों तो न लें मगर रस्म को तो न मिटायें । "भरपाई लिख दो, नहीं तो उसका रोयों दुग्बो होगा ।","भोला , चौपट करने पर लगे हुए हैं, और क्या ?","भरपाई लिख दो, नहीं तो उसका रोआँ दुखी होगा ।" दीवारों में चारों शोर लोनी लगी थी ।,मकान में केवल दो कोठरियाँ थी ओर एक सायबान ।,दीवारों में चारों ओर लोनी लगी थी । "अगर ये मसूब परे हो जाते, तो इसमें सन्देद्द नहीं कि में वेदाग बच जाता ।",अम्माँ कभी नहीं मारतीं ।,"अगर ये मंसूबे पूरे हो जाते, तो इसमें संदेह नहीं कि मैं बेदाग बच जाता ।" व्यापारियों छा एझ डेपुटेशन ९ बजे रात छो पण्डितजो द्ो सेवा में उपस्पित हुआ ।,"जब एक विद्वान्, कुलीन, धर्मनिष्ठ ब्राह्मण हमारे ऊपर अन्न-जल त्याग कर रहा है, तब हम क्योंकर भोजन करके टाँगें फैलाकर सोयें ?",व्यापारियों का एक डेपुटेशन ९ बजे रात पण्डितजी की सेवा में उपस्थित हुआ । गौरा के पति कहाँ था ?,उसे कभी-कभी पढ़ती और गाती ।,गौरा के पति कहां था ? नवागन्तक एक बहुत ही सुन्दर और हृष्ट-पु्ठ मनुष्य था |,"जब तक वह इस ध्यान में मग्न था, उसको सूर्य की प्रचंड किरणों का लेश मात्र भी ध्यान न था, किन्तु ज्योंही उसका ध्यान उधर फिरा, वह उष्णता से विह्वल हो उठा और करुणापूर्ण आँखें नदीं की ओर डालीं, लेकिन वहाँ तक पहुँचने का कोई मार्ग न दीख पड़ा और न कोई वृक्ष ही दीख पड़ा, जिसकी छाँह में वह जरा विश्राम करता ।",नवागंतुक एक बहुत ही सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट मनुष्य था । सो भी अधिक तनस्याह्‌ रहीं देतो पठेंगो |,ये बातें वैद्य जी के अंतःकरण से निकली थीं ।,सो भी अधिक तनख्वाह नहीं देनी पड़ेगी । मैंने साफ़ लिख दिया कि मेरे पास देने-लेने को कुछ नहीं है; कुश-कन्या ही से आपकी सेवा कर सकती हूँ ।,"हमारे यहाँ तो जब से जवान बेटा मरा है, कचहरी ही नहीं जाते।","मैंने साफ लिख दिया कि मेरे पास देने-लेने को कुछ नहीं है, कुश-कन्या ही से आपकी सेवा कर सकती हूँ।" क्या तू मुझे इतना नीच समझती है ?,अब तो तुझे भी मुझसे बैर हो गया है ।,क्या तू मुझे इतना नीच समझती है ? "वह समभते, यह कोई जिगड़ा हुआ रईसजादा है।",अब वह इतना निःशंक हो गया था कि दालमंडी में घोड़े से उतर कर तंबोलियों की दुकानों पर पान खाने बैठ जाता ।,"वह समझते, यह कोई बिगड़ा हुआ रईसजादा है ।" उसे मूह दिखाने का साहस नहीं होता था।,"जब से सुमन का विवाह हुआ था, उमानाथ कभी उसके पास नहीं गए थे ।",उसे मुँह दिखाने का साहस नहीं होता था । एक मिनट के बाद शांतिकुमार ने नना से पूछा--कहाँ चली गई बहत जत्द गम हो जाती हैं,अब तक यह लोग उनसे रिआयत चाहते थे अब अपना हक माँगेंगे,एक मिनट के बाद शान्तिकुमार ने नैना से पूछा-कहां चली गईं- बहुत जल्द गरम हो जाती हैं "कहते हैं, मुख हृदय का दरपंण है ।",इतना ऊँचा आदर्श सामने रख कर में उसका पालन नहीं कर सकता ।,कहते है मुख हृदय का दर्पण है । छाती से लगायी,गृहस्थी का कुल भार उसी के सिर पर है,छाती से लगायी शायद उससे सिनेमा-ससार के ताजे समाचार पूछना चाहते थे ।,"हाँ , यह भय अवश्य था कि कहीं जयकृष्ण की सत्प्रेरणा उनके लिए हानिकर न हो और कहीं उन्हें इस सम्मान और अधिकार से हाथ न धोना पड़े ।",शायद उससे सिनेमा-संसार के ताजे समाचार पूछना चाहते थे । "रतन का पवित्र, निष्काम जींवन उसे प्रोत्साहित किया करता था ।",जालपा की विश्वासमय उदारता ने उसे आत्मशुद्धि के पथ पर डाल दिया ।,"रतन का पवित्र,निष्काम जीवन उसे प्रोत्साहित किया करता था ।" "उसने किवाड़ की दरारों से राँका, ढिवरी जल रही थी, उसके घुएँ से कोठरी भरी हुई थी और गजाबर हाथ में डणएडा लिये चित्त पड़ा, जोर से खर्रादे. ले रहा था ।",प्राण सूख गए ।,"उसने किवाड़ की दरारों से झाँका, ढिबरी जल रही थी, उसके धुएँ से कोठरी भरी हुई थी ओर गजाधर हाथ में झंझा लिये चित्त पड़ा, जोर से खर्राटे ले रहा था ।" छटना-मरना उनके लिए कोई अप्ताधारण बात न थी ।,"यह कहकर अरब ने दाऊद का हाथ पकड़ लिया, और उसे घर में ले जाकर एक कोठरी में छिपा दिया ।",कटना-मरना उनके लिए कोई असाधारण बात न थी । ” मान्वाप भगत रहे होंगे,भगतई के लिए तो बुढ़ापा है ही,माँ-बाप भगत रहे होंगे "होली के एक दिन पहले वह हमारी दूकान पर आये थे, छुछ कपड़ा लिया, और मुझे अलग ले जाकर आपके बारे में- अव क्या कहूँ।","वह जो बेंकघर के बाबू है, भला-सा नाम है -- विट्ठलदास है, मैं उन्हीं के चकमे में आ गया ।","होली के एक दिन पहल वह हमारी दूकान पर आये थे, कुछ कपड़ा लिया, ओर मुझे अलग ले जाकर आपके बारे में... अब क्या कहूँ ।" कुँअर सादब ने उसकी गदन में हाथ डालकर कट्दा- दिल मज़बूत करो प्रिये ।,उस समय सम्पत्ति ही उसकी आँखो में सब कुछ थी ।,"कुँवर साहब ने उसकी गर्दन में हाथ डालकर कहा , दिल मजबूत करो प्रिये ।" पाँच-छः दिन में ही वह इतना ढुबला हो गया था कि उसे पहचानना कठिन था ।,शायद इसीलिए वह देखने आये हैं कि मेरे मरने में कितनी देर है।,पाँच-छ: दिन में ही वह इतना दुबला हो गया था कि उसे पहचानना कठिन था। "सारा अनन्त भविष्य, सारी अनन्त चिन्ताएँ, इसी एक स्वप्न में लीन हो जाती थीं ।",एक बार फिर वही स्वप्न देखना चाहता था ।,"सारा अनंत भविष्य, सारी अनंत चिंताएँ इसी एक स्वप्न में लीन हो जाती थीं ।" भगवती देवी का मकान आ गया ।,"जो यह कहता है, वह झूठ बोलता है ।",भगवती देवी का मकान आ गया । उसने झाकर बाहर देखा ॥,"उस समय सुभद्रा को शर्माजी की याद आई, महरी से बोली -- जरा देख तो कहाँ है ?",उसने आकर बाहर देखा । घड़ा कुएँ के मुंद्ठ त्त भा पहुँचा ।,दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख कर रहा हो ।,घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा । "वहाँ कई मैंसें थीं, कई वकरियाँ, कई घोड़े, कई गधे ; पर क्रिसीके सामने चारा त था ; सब जूमीन पर मुदौ की तरह पढ़े थे ।",थानेदार क्यों नहीं आया ?,"यहाँ कई भैंसे थीं , कई बकरियां , कई घोड़े , कई गधे , पर किसी के सामने चारा न था , सब जमीन पर मुर्दों की तरह पड़े थे ।" (जमुनी की ओर देखकर) यह सब तेरे कारण हुआ ।,"वह भी तो लड़का ही है, गरीब का है, तो क्या ?",(जमुनी की ओर देखकर) यह सब तेरे कारण हुआ । पटरी पर कासज़ का क्वालीन बिछाया गया ।,उनकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाये ।,पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया । होरी ने उसे चिलम पिलाई जल-पान कराया और तब रहस्य मय भाव से बोला--मेरे बाँस कभी तौस रुपये से कम में नहीं जाते लिकिन तुम घर के आदमी हो तुमसे क्‍या मोल-भाव करता,पहले तो उसी की सगाई करनी है पीछे देखी जायगी,होरी ने उसे चिलम पिलाई जलपान कराया और तब रहस्यमय भाव से बोला - मेरे बाँस कभी तीस रुपए से कम में नहीं जाते लेकिन तुम घर के आदमी हो तुमसे क्या मोल-भाव करता "घन की शोभा धम ही से है, नहीं घन से कोई फायदा नहीं ।","मैंने उसी विरक्ति के साथ फिर कहा , ज़ब आप लोगों ने मुझे मार डालने ही का निश्चय कर लिया , तो अब देर क्यों कीजिए ?","धन की शोभा धर्म ही से है , नहीं तो धन से कोई फायदा नहीं ।" उसमें से कौन लोग उतरे ? अबुलवफा और अब्दुल्लतीफ ।,एक दिन प्रातःकाल विट्ठलदास इन्हीं चिंताओं में बेठे हुए थे एक फिटन आश्रम के द्वार पर आकर रुकी ।,उसमे से कौन लोग उतरे! अबुलवफा और अब्दुललतीफ । ऊषा की लालिमा आकाश पर छायी हुई थी और वह चिड़िया कुँबर की शब्या के समीप एक डाल पर बैठी चहक रही थी ।,उसी खाट के बान से मैंने अपना घोंसला बनाया है ।,उषा की लालिमा आकाश पर छायी हुई थी और वह चिड़िया कुँवर की शय्या के समीप एक डाल पर बैठी चहक रही थी । "पद्मसह ने इन वातों को वड़ी घीरता के साथ सुना, पर उनका कुछ उत्तर न दिया ।","मदनसिंह ने ये बातें कुछ गर्व से कहीं, मानो कोई विद्वान पुरुष अपने निज के अनुभव प्रकट कर रहा है, पर यथार्थ में ये सुनी- सुनाई बातें थी, जिनका मर्म वह खुद भी न समझते थे ।","पद्मसिंह ने इस बातों को धीरता से सुना, पर उनका कुछ उत्तर न दिया ।" भनावश्यक्न भशिष्टता से उसे घृणा थी भौर ययाठाध्य रिख्गत न लेता था,डिप्टी दुहरे बदन का रोबदार पर हंसमुख आदमी था जो और किसी विभाग में अच्छी जगह न पाने के कारण पुलिस में चला आया था,अनावश्यक अशिष्टता से उसे घृणा थी और यथासाध्य रिश्वत न लेता था “दिल से बढ़कर भी कोई नज़र हो सकती है,कोई चीज तुम्हारी नजर करूँ तो नाराज तो न होगी,दिल से बढ़कर भी कोई नजर हो सकती है क्ृष्णचन्द्र भी कातर हो गए ।,गंगाजली ने दोनों हाथों से उनकी कमर पकड़ ली ओर तीनों चिल्लाकर रोने लगी ।,कृष्णचन्द्र भी कातर हो गए । चिम्मनलाल रामलीला के लिए हजार दो हजार रुपए खुशी से दे देंगे ।,विट्ठलदास -- सेठों की बात न पूछो ।,चिम्मनलाल रामलीला के लिए हजार दो हजार रुपए खुशी से देंगे । "द्वाकिम् दो या दुसरे पक्ष का वकौल, जो उसके मुँद्द लगता, उप्र को खबर लेता था ।","हाकिम को नियत समय पर आने में देर हो जाती, तो खुद भी चल देता, और फिर बुलाने से भी न आता ।","हाकिम हो या दूसरे पक्ष का वकील, जो उसके मुँह लगता, उसकी खबर लेता था ।" मुन्‍्नी घर में चली गईं,लोग बैठे मेरी राह देख रहे होंगे,मुन्नी घर में चली गई सेवती ने बहुत रोका पर न रुक सकी,फिर बातें बनाने लगोगी,सेवती ने बहुत रोका पर न रुक सकी "अगहन का महौना था, यरगद की डालियों में मूँगे छे - दाने छगे हुए थे ।",रोशनुद्दौला की जान बच गयी ।,अगहन का महीना था बरगद की डालियों में मूँगे के दाने लगे हुए थे । "ज्ञानी के लिए क्षमा नहीं है, प्रायश्चित नहीं है, यदि है तो वहुत ही कठिन |",भजन-भाव उसके घर अवश्य होना चाहिए ।,"ज्ञानी के लिए क्षमा नहीं है, प्रायश्चित्ता नहीं है, यदि है तो बहुत ही कठिन ।" "लेकिन जब शान्त चित्त होकर देखटे, तो उन्हें सत्र से काम लेने के सिवा और कोई उपाय न सूभता ।",फिर जो कुछ होगा देखा जाएगा ।,लेकिन जब शांत चित्त होकर देखते तो सब से काम लेने के सिवा और कोई उपाय न सूझता । जनता का क्रोध उसी पर केन्द्रित दो गया था ।,सारी दुनिया जानती है कि तुमने रुपये लिये ।,जनता का क्रोध उसी पर केन्द्रित हो गया था । ह अमरकान्त ने बाजरे की रोटियों के लिए ज्यादा क्षाग्नह न किया,मैं तो दारू-शिकार छूता भी नहीं काकी,अमरकान्त ने बाजरे की रोटियों के लिए ज्यादा आग्रह न किया वह किसी विषय के दोष और गुणा तोलने और परखने की सामर्थ्य न रखता था ।,सदन में स्वच्छंद विचार की योग्यता न थी ।,वह किसी विषय के दोष और गुण तोलने और परखने की सामर्थ्य न रखता था । "वद्द अपनी दीनता से भाइत न था, जिसने आज उसे इसःदशा को पहुंचा दिया ।","कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद मे चिपटाये हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था ।","वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुँचा दिया ।" इतना जानते हुए भी मुझमें इतवा साहप्त नही है. कि अपने कुछृत्यदग भार सिर ले लूँ ।,अब असम्भव है कि मैं जनता को अपना मुँह फिर दिखाऊँ और न वह मुझ पर विश्वास ही कर सकती है ।,इतना जानते हुए भी मुझमें इतना साहस नहीं है कि अपने कुकृत्य का भार सिर ले लूँ । वे ग्रेग्न के बदले में कुछ चाहते हैं ।,"वह बुला रही है, और आप भागे जा रहे हैं ।",वे प्रेम के बदले में कुछ चाहते हैं । "तुम पहले लोटे में पानी लाओ, उसमें ठलसी को पत्तियाँ डालो, तव कसम खाकर कहो कि अगर मैंने तोड़े हो तो मेरा लड़का मेरे काम न आये |",अपने लहलहाते हुए खेत को देखकर फूला न समाता था ।,"तुम पहले लोटे में पानी लाओ, उसमें तुलसी की पत्तियाँ डालो, तब कसम खा कर कहो कि अगर मैंने तोड़े हों तो मेरा लड़का मेरे काम न आये ।" गाँव के गाँव बहते चले जाते थे ।,गंगा गांवों और कस्बों को निफल रही थी ।,गांव के गांव बहते चले जाते थे । सुशीला तटध्य खड़ी अपने अदिन की यह क्रूर क्रौड़ा देखती रही |,मुझे अपने कालेज के आन्तरिक संगठन का भी अधिकार नहीं ।,सुशीला तटस्थ खड़ी अपने अदिन की यह क्रूर क्रीड़ा देखती रही । "नित्य अवहेलना, तिरस्कार, उपेक्षा, अपमान, सइते-सहते उसका चित्त संसार से विर्क्त होता जाला था ।",घर के दरवाजे बंद कर लिये ।,"नित्य अवहेलना, तिरस्कार, उपेक्षा, अपमान सहते-सहते उसका चित्त संसार से विरक्त हो जाता था ।" "पण्डित ने खूब ठच स्वर से गित- गिनकर बोस की संख्यां पूरी को, और गये से घिर उठाये अपने झमरै में चले गये ।",यहाँ तक कि लूसी को भी सिर उठाने का साहस न होता था ।,पण्डित ने खूब उच्च स्वर से गिन-गिनकर बीस की संख्या पूरी की और गर्व से सिर उठाये अपने कमरे में चले गये । तुम्हारी दाज़िरी के लिए अब नये नियम बनाये जायेंगे और जुरमाने की वर्तमान श्रधा उठा दी जायगी ।,"दस बजे सेठजी ने बाहर निकलकर मजदूरों को सूचना दी मित्रो, ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने तुम्हारी विनय स्वीकार कर ली ।",तुम्हारी हाजिरी के लिए अब नये नियम बनाये जायेंगे और जुरमाने की वर्तमान प्रथा उठा दी जायगी । "आप तो जायगा ही, मु्के भी अपने साथ ले डूबेगा ।","जब किसी बात का उपाय मेरे पास नहीं , तो इस मुआमले के पीछे क्यों अपनी जिन्दगी खराब करूँ ?",आप तो जायगा ही मुझे भी अपने साथ ले डूबेगा । "इतना बड़ा शहर है, पर ३० रु० मासिक का प्रवन्ध नहीं हो सकता ।",विट्ठलदास -- उसी चिता में तो दिनरात पड़ा रहता हूँ ।,इतना बड़ा शहर है पर ३० रु० मासिक का प्रबन्ध नहीं हो सकता । जिसके पास जो कुछ हो सच्चे सूरमा को तरह निकाल- / कर रख दे,आज आप सभी साहबों की जवाँमरदी और हुस्नपरस्ती का इम्तहान है,जिसके पास जो कुछ हो सच्चे सूरमा की तरह निकाल कर रख दे मुशक्रिल से दस रुपये निकले मेहता की जेब से केवल अठन्नी निकली,खुदा झूठ न बुलवाए तो यह आपकी एक दिन की आमदनी है,मुश्किल से दस रुपए निकले मेहता की जेब से केवल अठन्नी निकली "दारोगा कोई दूसरा चकमा सोच रहे थे, इंस्पेक्टर कोई दूसरा प्रलोभन ।","इतने दिनों तक आप लोगों के इशारे पर चला, अब अपनी आंखों से देखकर चलूँगा ।","दारोग़ा कोई दूसरा चकमा सोच रहे थे, इंस्पेक्टर कोई दूसरा प्रलोभन ।" तब उसने आगरा-काछेज में शिक्षक शा पद प्राप्त कर लिया ।,पाँच वर्षों में ही वह जिले का जज बना दिया गया ।,तब उसने आगरा-कालेज में शिक्षक का पद प्राप्त कर लिया । नक्कू बन जाऊँ ।,"यह देखो, तीन करोड़ रुपये उच्च कर्मचारियों की वेतनवृद्धि के लिए रखे गये हैं ।",नक्कू बन जाऊँ । सुमन वास्तव में अपने ही घर में चोर बनी हुई थी ।,"समझेगा कि चोर है, घात में बेठा है ।",सुमन वास्तव में अपने ही घर में चोर बनी हुई थी । मुझे पेसे जमा करके रखने में बडा आनन्द शआता था |,आटा ले कर तो किसी तरह भाग आया था (अभी तक मुझे न मालूम था कि मेरी चोरी पकड़ ली गयी; आटे की लकीर ने सुराग दे दिया है) ।,मुझे पैसे जमा करके रखने में बड़ा आनन्द आता था । "चलो हैं कविता करने, और कविता भो केसी ?",दुलारी सौर-गृह से निकल चुकी थी ।,"चली हैं कविता करने, और कविता भी कैसी ?" "हाँ, ्रपने बाबू साहब के सर्बंध में तरह तरह की बाते कीं, जिनसे मुझे दो-चार गर्प लिखने की सामग्री मिल गईं ।",' देवीजी ने विरोध किया -'मैंने उसे पुतला-पुतली कभी नहीं समझा ।,"हाँ, अपने बाबू साहब के संबंध में तरह-तरह की बातें कीं, जिनसे मुझे दो-चार गल्प लिखने की सामग्री मिल गई ।" सूरदास-तुमने मेरे साथ कौन-सी दुसमनी की ?,तुम्हारे मन का भेद ही नहीं खुलता ।,सूरदास-तुमने मेरे साथ कौन-सी दुसमनी की ? एक उदासी- सी छाई हुईं थी ।,"सदन के नेराश्य की तो कोई सीमा ही न थी,न कपड़े, न लत्ते, होली कैसे खेले! मदनसिंह भी मन मारे बेठे थे ।",एक उदासी- सी छाई हुई थी । सकीना कहीं बुरा न मान जाय,सकीना पर क्रोध आने लगा,सकीना कहीं बुरा न मान जाय चौंचेजी इस प्राथेना को अस्वीकार न कर सके |,हिन्दुओं के गाँव के गाँव मुसलमान होते जाते हैं ।,चौबे जी इस प्रार्थना को अस्वीकार न कर सके । किसी और के साथ मेरा भला क्या निवाह होता ! ?,बुढिया – मेरी जात से तुम्हे कोई सुख न मिला ।,किसी और के साथ मेरा भला क्या निबाह होता ? "अपने प्रहभोजियों को देखा-देश्लो, लाग-ढाट को धुन में, या ग्रह-स्वामी के सवितय भाग्रहद से, और सभ्प्ते बढ़कर पदार्थों को उत्कृष्टता के धारण, भोजन मात्रा से अधिक हो हो जाता है ।","पहले जाते थे, अधिकारी लोग 'आइए, आइए सेठजी' कहकर सम्मान करते थे; अब रेलगाड़ियों में धक्के खाते हैं, पर कोई नहीं सुनता; आमदनी चाहे कुछ हो न हो, बहियों की तौल देखकर कर (टैक्स) बढ़ा दिया जाता है ।","अपने सहभोजियों की देखा-देखी, लाग-डाँट की धुन में, या गृह-स्वामी के सविनय आग्रह से और सबसे बढ़कर पदार्थों की उत्कृष्टता के कारण, भोजन मात्रा से अधिक हो ही जाता है ।" उसका संचयशील हृदय इस 'खा-पी वरावर” दशा से वहुत दुःखी रहता था।,उसकी सारी कमाई खाने-पीने में उड़ जाती थी ।,उसका संचयशील हृदय इस 'खा-पी बराबर' दशा से बहुत दुःखी रहता था । बोस हज़ार नक्कद में क्‍्य पाँच इज़ार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है ?,"बुढ़िया को तो उसने आटा-दाल देकर विदा किया, किन्तु प्रकाश का कुतर्क उसके हृदय में फोड़े के समान टीसता रहा ।",बीस हजार नकद में क्या पाँच हजार भी कुमुद का हिस्सा नहीं है ? "दारोगा कृष्णचंद्र रसिक, उदार और बड़े सज्जन मनुष्य थे ।",उसे स्वयं संदेह हो रहा था कि जीवन-भर की सच्चरित्रता बिल्कुल व्यर्थ तो नहीं हो गई ।,"दारोगा कृष्णचन्द्र रसिक, उदार और बड़े सज्जन पुरुष थे ।" "सार पुछोस-विभांग नीचे से ऊपर तक, उससे सतक रहता था, प्रबद्धो निधाहँ ठछ पर लगी रहती थी ।",थोड़े ही दिनों में वह उससे इतना हिल-मिल गया कि एक क्षण के लिए भी उसे न छोड़ता ।,"सारा पुलिस-विभाग नीचे से ऊपर तक उससे सतर्क रहता था, सबकी निगाहें उस पर लगी रहती थीं ।" "में देवी--जी हाँ, तुम |",बातचीत बड़े ढंग से करता है ।,"देवी- जी हाँ, तुम ।" "यह छत है, दया है, घ्तंता है जो, प्रेमावरण सें सवेथा निषिद्ध है ।","आह ! यदि घृणा ही तक होती तो कोई बात न थी, मगर उसे दुःख होगा, पीड़ा होगी, उसका हृदय विदीर्ण हो जायगा, उस दशा में न जाने क्या कर बैठे ।","यह कपट है, दगा है, धूर्तता है जो प्रेमाचरण में सर्वथा निषिद्ध है ।" "उदासीनता वैराग्य का एक सूक्ष्म स्वरूप है, जो थोड़ी देर के लिए मनुष्य को अपने जीवन पर विचार करने की क्षमता प्रदान कर देती है, उस समय पव॑स्मृतियाँ हृदय में क्रीड़ा करने लगती हैं ।",चित्त की ऐसी अवस्था में यह उदासीनता बहुत ही उपयुक्त होती है ।,"उदासीनता वेराग्य का एक सूक्ष्म स्वरूप है जो थोड़ी देर के लिए मनुष्य को अपने जीवन पर विचार करने की क्षमता प्रदान देती है, उस समय पूर्वस्मृतियाँ हृदय में क्रीड़ा करने लगती हैं ।" शिक्षित समाज में इस प्रथा का विरोध किया जा रहा है और मैं भी उसी में सम्मिलित हो गया हैँ ।,यह अपराध मुझ से केवल इस कारण हुआ कि आजकल शहर में लोग नाच की प्रथा बुरी समझने लगे है ।,शिक्षित समाज में इस प्रथा का विरोध किया जा रहा है और में भी उसी में सम्मिलित हो गया हूँ । बेचारे दिन भर घास करते हैं साफ को बेवकर आटा-दाल जुराते हैं तब कहीं चूल्दा जलता है,मजूर से पूँजीपति बन गया था,बेचारे दिन-भर घास काटते हैं सांझ को बेचकर आटा-दाल जुटाते हैं तब कहीं चूल्हा जलता है और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया कि वह इेखबरोय आदेश का पालने कर रहा है ।,"और तो और, कभी किसी अफसर के घर नहीं जाते ।",और उसने यह सब कुछ इस भ्रम में किया कि वह ईश्वरीय आदेश का पालन कर रहा है । "उसदे कहा--मैं श्ुख्ध और झादर दोनों ही को छोड़ती हूँ, पर जीवन-निर्वाह का तो कुछ उपाय करना पड़ेगा ?",उसे आज मालूम हुआ कि सुख संतोष से प्राप्त होता है और आदर सेवा से ।,"उसने कहा -- मैं सुख ओर आदर दोनों ही को छोड़ती हूँ,पर जीवननिर्वाह का तो कुछ उपाय करना पड़ेगा ?" "हाथ जोड़कर, घिघियाकर, धमकाकर, लजवाकर सबको फेर लेते थे ।",दोनों बिदेसी कपड़ों की दुकान पर तैनात थे ।,"हाथ जोड़कर, घिघियाकर, धमकाकर,लजवाकर सबको उधर लेते थे ।" "जख्मी सिपाही अपनी जीत का समाचार पाकर अपना दद, अपनी पीड़ा मृत जाता है ।",एक महीना भी न गुजरने पाया था कि वह फिर ससुराल गये और बिन्नी को लिवा लाये ।,"जख्मी सिपाही अपनी जीत का समाचार पाकर अपना दर्द, अपनी पीड़ा भूल जाता है ।" किसी को भेज दो लेडी डावटर को बुला छाये,अमरकान्त ने डरते-डरते पूछा-क्या किसी की तबीयत... समरकान्त ने बात काटकर कड़े स्वर में कहा-क्या बक-बक करते हो मैं जो कहता हूँ वह करो,किसी को भेज दो लेडी डॉक्टर को बुला लाए दादा मुझे मसूरो ले जाने का विचार कर रहे हैं ।,प्रकाश को संतोष न हुआ ।,दादा मुझे मसूरी ले जाने का विचार कर रहे हैं । इस निश्चय पर राजनीतिक ससार में फिर छुद्दराम मचा |,यह मानवी दुर्बलता की पराकाष्ठा है ।,इस निश्चय पर राजनीतिक संसार में फिर कुहराम मचा । "इतना हों नहीं, उसने वह चा्तलाप भी अक्षरशः प्रकाशित कर दिया, जो उसके और नईम के बोच हुआ था ।","अन्त में गवर्नमेंट को भी चैलेंज दिया कि जो उसमें साहस हो, तो मेरे प्रमाणों को झूठा साबित कर दे ।","इतना ही नहीं, उसने वह वार्तालाप भी अक्षरशः प्रकाशित कर दिया जो उसके और नईम के बीच हुआ था ।" बोले-- बोहनी तो अच्छी हुई ! तुम्हारे लिए में एक जगह सोच रहा हूँ ।,"रमा०--ज़रा भी जी नहीं चाहता, मैं जानता कि सिर मुडाते ही ओले पड़ेंगे, तो मैं विवाह के नज़दीक ही न जाता! रमेश--अजी, दो-चार चालें चलो तो आप-ही-आप जी लग जायगा ।",बोले--बोहनी तो अच्छी हुई! तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूँ । क्रोव के मारे हि के भ्रोंठ फड़कने लगे।,"एक दिन वह सेठजी के यहाँ से ८ बजे लोटा, तो कया देखता है कि भोली बाई उसकी चारपाई पर बेठी सुमन से हँस-हँसकर बात कर रही है ।",क्रोध के मारे गजाधर के ओंठ फड़कने लगे । "पड़े-पड़े देह की खाल फठ गई, सिर के बाल गिर गये ।",फिर उन्हें भी अवकाश न रहा और मोहन की दशा दिनोंदिन बिगड़ती जाती थी ।,"पड़े-पड़े देह की खाल फट गयी, सिर के बाल गिर गये ।" लेकिन सूरदास को सब कुछ माफ है ।,उसकी तो जिंदगानी खराब हो गई ।,लेकिन सूरदास को सब कुछ माफ है । "पद्म--कहिए, यहाँ की दया खबरे हैं ?",सुमन सुनेगी तो रोएगी ।,"पद्मसिंह -- कहिए, यहाँ की क्या खबरें है ?" पदले उन्तकी एक छोटी-सी इल्दी को आढ़्त थी,; दो अमरकान्त के पिता लाला समरकान्त बड़े उद्योगी पुरुष थे,पहले उनकी एक छोटी-सी हल्दी की आढ़त थी जोहरा को पुलिस-कर्मचारियों ने रमानाथ के मनोरंजन के लिए नियुक्त कर दिया हैँ ।,उसकी आत्म-मर्यादा जाग उठती है ।,ज़ोहरा को पुलिस-कर्मचारियों ने रमानाथ के मनोरंजन के लिए नियुक्त कर दिया है । टुम समय तो उघर जाने में जोसिस हैँ,बस कप्तान ने व्र कराने का हुक्म दे दिया,इस समय तो उधर जाने में जोखिम है जो कुछ कहना हो मुकसे कहो न,इस अभाव और विवशता ने उसकी प्रकृति का जल सुखा कर कठोर और शुष्क बना दिया था जिस पर एक बार गावड़ा भी उचट जाता था,जो कुछ कहना हो मुझसे कहो न पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते ये,कहते थे जब हम खुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं मानते तो दीन के लिए क्यों जान दें,पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे समाज का चक्र साम्य से आरम्म होकर फिर साम्य पर ही समास होता है |,और चिह्नों से ज्ञात होता है कि निकट भविष्य में फिर इसकी पराजय होने वाली है ।,समाज का चक्र साम्य से आरम्भ होकर फिर साम्य पर ही समाप्त होता है । "बहुत सोचने के बाद यह निश्चय किया कि वारह आने तो मौलवी साहब को दे दिये जायें, शेष साढ़े तीन आने की मिठाई जड़े ।","घर में पैसे न थे, तो चचा जी ने रुपया दे दिया ।","बहुत सोचने के बाद यह निश्चय किया कि बारह आने तो मौलवी साहब को दे दिये जाएँ, शेष साढ़े तीन आने की मिठाई उड़े ।" वो अपने पिताजी से बिलकुल अलग हो गये ९,छोटे-बड़े तो भाई साहब हमेशा रहे हैं और हमेशा रहेंगे,तो अपने पिताजी से बिलकुल अलग हो गए उसी ब्रत के छारण इतने दिनों तपस्या करनी पड़ी ।,"कहाँ की प्रतिज्ञा, कहाँ का व्रत, वे बचपन की बातें थीं ।",उसी व्रत के कारण इतने दिनों की तपस्या करनी पड़ी । "सोचा--अगर लड़के को हवालात हो गयी, या दुकान पर कुर्की आ गयी, तो कुल-मर्यादा धूल में मिल जायगी ।",खड़ी तो है वह डायन ! इतने में हरनाथ भी वहाँ आ गया ।,"सोचा , अगर लड़के को हवालात हो गयी, या दूकान पर कुर्की आ गयी; तो कुल-मर्यादा धूल में मिल जायगी ।" "वह विशेष नीतिकुशल, चतुर या बुद्धिमान न थे।",उनके विचार में बहुधा प्रोढ़ता तथा दूरदर्शिता का अभाव होता था ।,"वह विशेष नीतिकुशल, चतुर या बुद्धिमान न थे ।" अबकी सबों ने दो रुपये के खरबूजे उधार खा डाले,उस दिन भगवान कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते हैं,अबकी सबों ने दो रुपए के खरबूजे उधार खा डाले विंध्येश्वरी को श्रभी तक कुछु खबर न थी कि मेरे लिए क्‍या क्‍या षड़य॒द रे जा रहे हैं ।,"' ढपोरसंख ने गर्म होकर कहा, 'मैं यह नहीं मान सकता ।",विन्धयेश्वरी को अभी तक कुछ खबर न थी कि मेरे लिए क्या-क्या षडयंत्र रचे जा रहे हैं । अमरकान्त उसके प्रसव-भार पर चिन्ता-भार न लादना चाहता था पर प्रसंग ऐसा था पढ़ा था कि वह अपने को विर्दोप सिद्ध करना आवध्यक समझता था,सुखदा ने दार्शनिक निरपेक्षता के स्वर में कहा-तो उन्हें डांटने का अवसर ही क्यों देते हो- मैं मानती हूं कि उनकी नीति तुम्हें अच्छी नहीं लगती,अमरकान्त उसके प्रसव-भार पर चिंता-भार न लादना चाहता था पर प्रसंग ऐसा आ पड़ा था कि वह अपने को निर्दोष ही करना आवश्यक समझता था "गौर रास्ते की थकी थी, पर ग्रेमोल्लास में थकव कहाँ ?",घड़े से पानी उड़ेल कर पिया ।,"गौरा रास्ते की थकी थी , पर प्रेम्मोल्लास में थकन कहाँ ?" उसे रुपयों का जरा भी लोभ न था |,"लेकिन सुभद्रा बड़े धनी घर की बेटी थी, गहनों से मन भरा हुआ था ।",उसे रुपयों का जरा भी लोभ न था । "वही मेरे ऊपर बनी रहे, इस कंगन को आप मेरी तरफ से अपनी नई रानी साहिबा को दे दीजिएगा।",सुमन -- मेरे लिए सब से अमूल्य वस्तु आप की कृपा है ।,"वही मेरे ऊपर बनी रहे, इस कंगन को आप मेरी तरफ से अपनी नई रानी साहिबा को दे दीजिएगा ।" उनमें लज्जा का अंश भी न रहा था ।,"उनमें कोई चतुर गिरहकट था, कोई धूर्त ताश खेलने वाला, कोई टपके की विद्या में निपुण, कोई दीवार फाँदने के फन का उस्ताद ओर सब के सब अपने दुस्साहस और दुर्बलता पर फूले हुए ।",उनमें लज्जा का अंश भी न रहा था । "उसका ऊँचा डील, गठे हुए अक्भ, हृढ मांस-पेशियाँ, गर्दन के ऊपर ऊँचा डील, चौड़ी छाती और मस्तानी चाल थी |",वह अब बछड़े से बैल हो गया था ।,"उसका ऊँचा डील, गठे हुए अंग, सुदृढ़ मांसपेशियाँ, गर्दन के ऊपर ऊँचा डील, चौड़ी छाती और मस्तानी चाल थी ।" यह मानों प्रकृति का अठल नियम था ।,व्याख्यान भी खूब देती थीं और अभिनय-कला में तो उन्होंने लंदन में नाम कमा लिया था ।,यह मानो प्रकृति का अटल नियम था । सामने के दूकानदारों ने समझा कहीं नेवते जाती हैं - पर क्या बात है किसी के देह पर छठला भी नहीं न चाद्र न घराऊ कपड़े,शाम को तीनों आदमी घर से निकले,सामने के दूकानदार ने समझा कहीं नेवते जाती हैं पर क्या बात है किसी के देह पर छल्ला भी नहीं न चादर न धाराऊ कपड़े मदनभिह ने कुछ उत्तर नहीं दिया ।,इनके धन से थोड़े ही धनी हो जाओगे ?,मदनसिंह ने कुछ उत्तर नहीं दिया । इसके संचालत का दायित्व मुमपर है,हम किसी वृक्ष के नीचे तो लड़कों को पढ़ा सकते हैं,इसके संचालन का दायित्व मुझ पर है उनके किसी इलाके में पहुँचते ही वहाँ की पुलिस तरत आकर उन्हें अपनी निगरानी में ले लेती थी ।,यही इन कंजड़ों का जीवन था ।,उनके किसी इलाके में पहुँचते ही वहाँ की पुलिस तुरंत आकर अपनी निगरानी में ले लेती थी । फिर भी मनुष्यों को संख्या बढ़ती जाती थी,वह विश्वास जो न्याय-ज्ञान से पैदा होता है वहाँ न था,फिर भी मनुष्यों की संख्या बढ़ती जाती थी उसका चेहरा देखकर अन्‍्तर्ज्ञान से दोनों मित्रों के दिल छाँप उठे ।,एक सप्ताह तक दोनों मित्र वहाँ बंधे पड़े रहे ।,चेहरा देखकर अंतर्ज्ञान से दोनों मित्रों का दिल काँप उठे । गज़ानन्द---सुयोग्य के लिए आपको कितने रुपयों की भ्रावश्यकता है ?,सुमन के लिए क्या मैंने कम दौड़-धूप की थी ?,गज़ानन्द -- सुयोग्य वर मिलने के लिए आपको कितने रुपयों की आवश्यकता है ? “और में नहीं रहती तब ?,"' आप एक महीना सिखा दें बहूजी , फिर देखिए , मैं आपको कैसे फुलके खिलाता हूँ कि जी खुश हो जाय ।",और मैं नहीं रहती तब ? क्या इसीलिए तुमने मुझे ज्वालाओं के मुख से निकाला था ?,"मैंने तुम्हें एक स्वर्गीय आलोक, दिव्य ज्योति समझ रखा था ।",क्या इसीलिए तुमने मुझे ज्वालाओं के मुख से निकाला था ? मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हुँ कि उसने श्राप लोगों को मेरो रक्षा के लिए भेज दिया ।,"और कष्टों से शरीर को दुःख होता है, इस कष्ट से आत्मा का संहार हो जाता है ।",मैं ईश्वर को धन्यवाद देती हूँ कि उसने आप लोगों को मेरी रक्षा के लिए भेज दिया । आपने गली-कूचों को जो बात कही इसका अगर बहो अर्थ है जो में सममतो हूँ तो यह मिथ्या कलंक दे,उन्होंने दोनों ही को लात मार दी,आपने गली-कूचों की जो बात कही इसका अगर वही अर्थ है जो मैं समझती हूँ तो वह मिथ्या कलंक है "मुन्शी--यार, ऐसी बातें करके दिल न छोटा करो |",ऐसा दर्शनीय बैल सारे इलाके में न था ।,मुंशी- यार ऐसी बातें करके दिल न छोटा करो । इसी में सबों के शादी-व्याद हुए और इसी में सव मर भी गये,सायबान में एक किनारे चूल्हा बना हुआ था और टीन और मिट्टी के दो-चार बर्तन एक घड़ा और एक मटका रखे हुए थे,इसी में सबों के शादी-ब्याह हुए और इसी में सब मर भी गए यह घर भव इनके लिए सराय-मात्र था,जहां अपने विचारों का राज हो वही अपना घर है,यह घर अब उनके लिए सराय-मात्र था साथ-साथ कुछ खाने को तो छे जाना हो पढ़ेगा,यह ससुरा न जाने कहाँ मर रहा- समय पर एक भी आदमी नजर नहीं आता,साथ-साथ कुछ खाने को तो ले जाना ही पड़ेगा "अब वह पहले से कहीं ज्यादा शोर करता, नित्य तेल लगाता, बार बन- वाता, कपड़े बदलता, किन्तु मुख पर कांति न थो, रह्न-रोगन से क्‍या दो सकता था ।","पहले आशा से कुछ दबता था, कम-से-कम उसे यह धड़का लगा रहता था कि कोई मेरी चाल-ढाल पर निगाह रखनेवाला भी है ।","अब वह पहले से कहीं ज्यादा शौक करता, नित्य तेल लगाता, बाल बनवाता, कपड़े बदलता, किन्तु मुख पर कांति न थी, रंग-रोगन से क्या हो सकता ?" यह सचमुच अभागिनी है और मुझसे बढ़कर ।,रतन से उसे इतना प्रेम कभी न हुआ था ।,यह सचमुच अभागिनी है और मुझसे बढ़कर । "जघसे तुम्दारे दादा मरे, सारी गिरस्ती चौपट हो गईं |","वह डालियों में छिप गया, कई आम काट-काटकर नीचे गिराये, और जोर से ठट्ठा मारकर हँसा ।",जब से तुम्हारे दादा मरे सारी गिरस्ती चौपट हो गयी । "वह मुझसे कहता है -- बेटी, मैं तुझे वर देने आया हूँ ।","आह जिस समय इसे ज्ञात होगा इसके गहने फिर चोरी हो गए,इसकी क्या दशा होगी ?","वह मुझसे कहता है, 'बेटी, मैं तुझे वर देने आया हूँ ।" विसर्जन के घर जाने की तो उसने शपथ-सी कर ली थी,यहाँ तक कि प्रताप भी अब उसे निठुर जान पड़ता था,विरजन के घर जाने की तो उसने शपथ-सी कर ली थी "हाँ, हाँ, वह रूपवती है, इसमें सन्देह नहीं ।","सुमन सोचने लगी, इस स्त्री में कौन-सा जादू है! सोन्दर्य ?","हाँ, हाँ, वह रूपवती है, इसमें सन्देह नहीं ।" इस समय उन्होंने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा ।,विवाह के दिन से आज तक कृष्णचन्द्र ने उसे नहीं देखा था ।,इस समय उन्होंने उसकी ओर करुण नेत्रों से देखा । वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं ।,तुम तो इतने गुस्सेवर कभी न थे ।,वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गईं । "कहीं दो बीघे खेत और मिल गये, तो लिखा लेगा ।",तू भी अपने को मर्द कहेगा ?,"कहीं दो बीघे खेत और मिल गये, तो लिखा लेगा ।" ले उठ तो बैठ राम का नाम लेके ।,सहानुभूति प्रकट करने में अब कोई बाधा न थी ।,ले उठ तो बैठ राम का नाम लेके । रैरान का शासन इतने सुचारु रूप से कमी न हुआ था ।,"शाहजादा इत्रों से महकता, रत्नों से चमकता और मनोल्लास से खिलता हुआ आकर खड़ा हो गया ।",ईरान का शासन इतने सुचारु रूप से कभी न हुआ था । "तब झोपड़ी की छान टटोलकर एक थैली निकाली, जो उसके जीवन का सर्वस्व थी ।",द्वार पर एक नीम का वृक्ष था ।,"तब झोपड़ी की छान टटोलकर एक थैली निकाली, जो उसके जीवन का सर्वस्व थी ।" हम भी शिकार की तलाश में हैं |,वह रसिक मनुष्य थे ।,हम भी शिकार की तलाश में हैं । यह साँवले रंग के बेडौल मनुष्य थे।,यह कह कर विट्ठलदास उठ खड़े हुए और सेठ चिम्मनलाल की सेवा में पहुंचे ।,यह साँवले रंग के बेडौल मनुष्य थे । इस अभ्रसहाय वालिका को तुम्हारे सिवाय और कोई आश्रय नहीं है ।,हाय! यह अभागिनी सुमन बेचारी शान्ता को भी ले डूबी ।,इस असहाय बालिका को तुम्हारे सिवाय और कोई आश्रय नहीं है । "मैंने तुम्हें चार हरफ अंग्रेजी पढ़ा दिये, तुम्हारा इससे कोई उपकार न होगा ।","मुझसे कहने लगी, जीजा तो बडे रसिक जान पड़ते हैं ।","मैंने तुम्हें चार हरफ अंग्रेज़ी पढ़ा दिए, तुम्हारा इससे कोई उपकार न होगा ।" "उसने सोचा होगा, यह महाशय इस तरह नहीं आते, तो यह चाल चलूँ, देख॑ कैसे नहीं आते ।",आज अबुलवफा ने मेरे बग्घी पर से कूद पड़ने का वृत्तांत उससे कहा होगा ।,"उसने सोचा होगा यह महाशय इस तरह नहीं आते तो यह चाल चलूँ, देखूँ केसे नहीं आते ।" "नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ या ।",लेकिन बेगरज को दाँव पर पाना जरा कठिन है ।,"नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था ।" फुलोडियां अछुती थीं ।,उसने तुरन्त उन्हें सँभालकर रखा ।,फुलौड़ियाँ अछूती थीं । झाज वहाँ मुन्शी झवुलवफा का भावपुण ललित व्यास्यान हो रहा था ।,दूसरे दिन वह फिर कुईन्स पार्क की तरफ गया ।,आज वहाँ मुंशी अबुल वफा का भावपूर्ण ललित व्याख्यान हो रहा था । आनन्द जीवन का तत्व है,वह युवती वही मुन्नी थी जो खून के मुकदमे से बरी हो गई थी,आनंद जीवन का तत्व है लौटने के बाद दूसरे ही दिन से वह वर की खोज में निकले थे।,वे क्या समझेंगे कि हमारा भी कोई बाप था।,लौटने के बाद दूसरे ही दिन से वह वर की खोज में निकले थे। रमा के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं ।,रमा के संतोष के लिए अब इतना ही काफी था ।,रमा के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं । देनेवाले का हृदय देखना चाहिए ।,"जालपा रूंधे हुए स्वर में बोली--कारण यही है कि अम्मांजी इसे खुशी से नहीं दे रही हैं, बहुत संभव है कि इसे भेजते समय वह रोई भी हों और इसमें तो कोई संदेह ही नहीं कि इसे वापस पाकर उन्हें सच्चा आनंद होगा ।",देने वाले का ह्रदय देखना चाहिए । छोग एतिहास जौर भापा छोड़ छोड़कर दशेन की छक्षा में प्रविष्ट होने लगे ।,विद्यालय के खिलाड़ियों को इतना धैर्य कहाँ कि ऐसा शिकार देखें और उस पर निशाना न मारें ।,लोग इतिहास और भाषा छोड़-छोड़कर दर्शन की कक्षा में प्रविष्ट होने लगे । "यात्रियों के चले जाने के पश्चात्‌ राणा जंगबहादुर ते खड़े हो कर कहा-* सभा के उपस्थित सफ्जनो, भाज नैपाल के इतिहास में एक नयी घटना होतेबाली ' है, जिसे मैं आपकी जातीय नीतिमता वी पर्मेक्षा समझता हूँ ।",हम दोनों यही बातें कर रहे थे कि रानी प्रियंवदा सामने आ कर खड़ी हो गयीं ।,यात्रियों के चले जाने के पश्चात् राणा जंगबहादुर ने खड़े हो कर कहा-सभा में उपस्थित सज्जनो आज नेपाल के इतिहास में एक नयी घटना होनेवाली है जिसे मैं आपकी जातीय नीतिमत्ता की परीक्षा समझता हूँ । यहद्द विवाद्दिता स्त्रियों का त्रत है ।,"कैलासकुमारी के ससुराल से इस अवसर पर कपड़े, मिठाइयाँ और खिलौने आया करते थे ।",यह विवाहिता स्त्रियों का व्रत है । देखो भेया में सोने की कण्ठी छू गी,घर में भी न जा सका धीरे से सड़क पर आया और बाइसिकल पर बैठ ही रहा था कि भीतर से सिल्लो निकल आई,देखो भैया मैं सोने की कंठी लूंगी आँखें उठाकर भी न देखा,तुम और सिल्लो दोनों रहो,आँखें उठाकर भी न देखा "हिन्दूःसभा के मन्त्री ने आँखों में आँयू मरकर उनसे विनय की कि महाराज, यह बेड़ा आप ही उठा सकते दे ।","उनसे प्रार्थना की जाए कि वह तुरन्त मद्रास चले जाएें, और धर्म-विमुख बंधुओं का उद्धार करें ।","हिन्दू-सभा के मंत्री ने आँखों में आँसू भर कर उनसे विनय की कि महाराज, यह बीड़ा आप ही उठा सकते हैं ।" इसका वाच देखने के बाद अब दूसरों का रंग नहीं जम रहा है,युवती को देखकर अमर चौंक उठा,इसका नाच देखने के बाद अब दूसरों का रंग नहीं जम रहा है परिणाम यह हुआ कि एलियवालों ते दोनो को हिरासत में क्रिया और थाने की ओर चछे ।,काँग्रेस और पुलिस के नेताओं में वाद-विवाद होने लगा ।,परिणाम यह हुआ कि पुलिसवालों ने दोनों को हिरासत में लिया और थाने की ओर चले । जी चाहता हे दियासलाई दिखा दूँ,अपना पत्र चलाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार नहीं,जी चाहता है दियासलाई दिखा दूँ परिस्थिति उन्हें घर ही पर मालम हो गई थी ।,फौजी गारद ने गोलियाँ चलायीं ।,परिस्थिति उन्हें घर ही पर मालूम हो गयी थी । तुम्हारी बहन है कि बेटी ?,"जब बुरे दिन आते हैं, तो कोई साथी नहीं होता ।",तुम्हारी बहन है कि बेटी ? अगर तुम इसके संच्ण- लगन का कोई स्थायी प्रबन्ध कर सकते हो तो में आज इस्तीफ़ा दे सकता हूँ लेकिन बिना किसी आधार के में कुछ नहीं कर सकता,इसके बंद हो जाने पर मेरी बदनामी होगी,अगर तुम इसके संचालन का कोई स्थायी प्रबंध कर सकते हो तो मैं आज इस्तीफा दे सकता हूँ लेकिन बिना किसी आधार के मैं कुछ नहीं कर सकता तुम्हारा मुँह देखता भो पाप है ।,गोकुल मर्म-वेदना से तिलमिला उठा ।,तुम्हारा मुँह देखना भी पाप है । इसप्रे बेचंन द्योकर बार-बार द्वार पर खड़ा हो जाता |,"एक आदमी, जिसकी पीठ पर बड़ा गट्ठर बँधा था, कलकत्ते जा रहा था ।",इससे बेचैन होकर बार-बार द्वार पर खड़ा हो जाता । रूपा से बोला-- - तू कह दे कि सोना तो खखी पत्ती की तरह पीला होता है रूपा तो उंजला होता है जैसे सूरज,रूपा न हो तो रुपए कहाँ से बनें बता,रूपा से बोला - तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला होता है रूपा तो उजला होता है जैसे सूरज यथासाध्य अंधेरी घाटियों में न जाना चादिए |,जीवन में यह घटना भी स्मरणीय रहेगी ।,यथासाध्य अँधेरी घाटियों में न जाना चाहिए । "उन्हें भव हो -रहा था दि अब में चाहे कितनी क्षमा सागू, मिस जोशी के सामने झितनी सफाइयाँ 'पेश कुछ, मेरे भाक्षिपाँ का अप्तर कभी न मिटेगा ।","सब मुँह के सामने तो हाँ-हाँ करते, पर बाहर निकलते ही उसका मजाक उड़ाना शुरू करते ।","उन्हें भय हो रहा था अब मैं चाहे कितनी क्षमा मागूँ, मिस जोशी के सामने कितनी सफाइयाँ पेश करूँ, मेरे आक्षेपों का असर कभी न मिटेगा ।" "ईश्वर ने चाहा, तो यहाँ हमेशा तुम्हारा आना-जाना लगा रहेगा ।",यहाँ आया तब तुम मिल गये ।,"ईश्वर ने चाहा, तो यहाँ हमेशा तुम्हारा आना-जाना लगा रहेगा ।" "रमा ने हंसकर कहा -- दादा तुम्हें अपना बड़ा भाई समझेंगे, तुम्हारी इतनी खातिर करेंगे कि तुम ऊब जाओगे ।","ईश्वर ही जाने, अब तक मेरी क्या गति हुई होती, किस घाट लगा होता!' देवीदीन ने चुहल से कहा, 'और जो कहीं तुम्हारे दादा ने मुझे घर में न घुसने दिया तो ?","' रमा ने हंसकर कहा, 'दादा तुम्हें अपना बडा भाई समझेंगे, तुम्हारी इतनी ख़ातिर करेंगे कि तुम ऊब जाओगे ।" "पष्डितजी को क्रोध तो ऐए भाया कि इस पाजों को खोटौ-खरी सुवाऊ, लेकिन ' गछे पे आवाज़ न निकलो ।","जब वह बिलकुल सामने आ गया, तो पण्डितजी ने जल्दी से सारी मिठाई निगल ली ।","पण्डितजी को क्रोध तो ऐसा आया कि इस पाजी को खोटी-खरी सुनाऊँ, लेकिन गले से आवाज न निकली ।" प्रताप संकेत समझ गया,मानो अच्छा न होना उसका अपराध था,प्रताप संकेत समझ गया विल्नायत जाकर घर्म तो खो ही भाया था अत्र यहाँ हिन्दू-धर्म क्रो जड़ खोद रद्दा है,आज वही इन लोगों का नेता बना हुआ है,विलायत जाकर धर्म तो खो ही आया था अब यहाँ हिन्दू-धर्म की जड़ खोद रहा है "एक सप्ताह बीता, दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गया; पर हरखू चारपाई से न उठा ।",बड़े भाग्य से हाथ लगती है ।,"एक सप्ताह बीता, दूसरा सप्ताह बीता, पूरा महीना बीत गया, पर हरखू चारपाई से न उठा ।" दोनों शहर का नाम भी पूछेंगी ।,माघ-मेला भी होगा ।,दोनों शहर का नाम भी पूछेंगी । मगर दफ़्तर के वक़्त सैर-सपाटे करने की तो उसकी आदत न थी ।,"जालपा ने कदम आगे बढ़ाकर कहा, 'क्षमा कीजिए, बाबू साहब, आपको कष्ट हुआ ।",मगर दफ्तर के वक्त सैर - सपाटे करने की तो उसकी आदत न थी । क्रृष्णाचन्द्र का मुख पीला पड़ गया ।,कृष्णचन्द्र उन्हें देखते ही घबरा कर उठे कि एक थानेदार ने बढ़ कर उन्हें गिरफ्तारी का वारण्ट दिखाया ।,कृष्णचन्द्र का मुख पीला पड़ गया । उनकी धारणा थी कि भाहार का अनुष्य के नतिक विकास पर विशेष प्रभाव पढ़ता है ।,खेत में जाती तो उसे भी साथ ले जाती ।,उनकी धारणा थी कि आहार का मनुष्य के नैतिक विकास पर विशेष प्रभाव पड़ता है । खज़ाने को सभ कुछियाँ जवाबेआऊकी के सिपहसालार के हवाले कर दी गई हैं ।,"वजीर- जहाँपनाह, गुलामों से तो कोई खता सरजद नहीं हुई ।",खजाने की सब कुंजियाँ जनाबेआली के सिपहसालार के हवालेकर दी गई हैं । "आ्राँखें तरेरकर बोलीं--यह क्यों नहीं कहते, कि उल्लू बनाकर ले गया, ऊपर से हेकड़ी जताते हो ! दाल गिर जाने पर वुम्हें भी सूखा अच्छा लगे, तो कोई आश्रय नहीं |","देवीजी मुसकराकर बोलीं, 'क़ूड़ा न कहिए, एक-एक पत्र साहित्य का रत्न है ।","आँखें तरेरकर बोलीं -- 'यह क्यों नहीं कहते, कि उल्लू बनाकर ले गया, ऊपर से हेकड़ी जताते हो ! दाल गिर जाने पर तुम्हें भी सूखा अच्छा लगे, तो कोई आश्चर्य नहीं ।" संसार का कोई साहित्य इतना दरिद्र न होगा ।,अनुवादों को निकाल डालिए तो नवीन हिंदी साहित्य में हरिश्चंद्र के दो-चार नाटकों और चंद्रकांता संतति के सिवा ओर कुछ रहता ही नहीं ।,संसार का कोई साहित्य इतना दरिद्र न होगा । उपके वेयक्तिक तथा जातोय झतंव्य में घोर सम्राम होने लगा ।,कैलास के सामने अब एक जटिल समस्या उपस्थित हुई ।,उसके वैयक्तिक तथा जातीय कर्तव्य में घोर संग्राम होने लगा । "ज्योददो ख्व॒राज्य हुआ, अपने सारे इलाके असामियों के नाप द्वि्रा कर देंगे ।","जो लोग खुशी से न देंगे, उनकी जमीन छीननी ही पड़ेगी ।","ज्यों ही स्वराज्य हुआ, अपने इलाके असामियों के नाम हिब्बा कर देंगे ।" "हज़ारों बड़े-बड़े आदमियों से मुलाक़ात है, नौकरी मिलते क्‍या देर लगती हैं, हाँ, ज़रा अच्छी जगह चाहता हूँ ।","जालपा--मगर हैं मक्खीचूस पल्ले सिरे के! रमा०--मक्खीचूस न होते, तो इतनी संपत्ति कहाँ से आती! जालपा--मुझे तो किसी की परवा नहीं है जी, हमारे घर किस बात की कमी है! दाल-रोटी वहाँ भी मिल जायगी ।","हज़ारों बड़े-बडे आदमियों से मुलाकात है, नौकरी मिलते क्या देर लगती है, हाँ, ज़रा अच्छी जगह चाहता हूँ ।" "रढइती हो, लड़ो ; छेकिन भर में अंधेरा क्यों कर रख! है ।",सारे शहर में जन्माष्टमी का उत्सव हो रहा था ।,"लड़ती हो, लड़ो; लेकिन घर में अंधेरा क्यों रखा है ?" मित्रों को आँखों से आनन्द के आाँसू बहने लगे ।,बैलों को देखते ही दौड़ा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा ।,मित्रों की आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे । ऊँट पहाड़ के नीचे आकर अपनी ऊँचाई देख घुका था,मैं खुद भी कुछ पैदा कर सकती हूँ थोड़ा मिलेगा थोड़े में गुजर कर लेंगे बहुत मिलेगा तो पूछना ही क्या,ऊँट पहाड़ के नीचे आकर अपनी ऊँचाई देख चुका था "मैंने, इस प्रसग को कोई महत्त्व देने की कोई बात भी न थी, महत्त्व न दिया ।",चुनांचे मैंने हाकिम-जिला का निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और यद्यपि उनके स्वभाव में कुछ अनावश्यक अफसरी की शान थी; लेकिन उनके स्नेह और उदारता ने उसे यथासाध्य प्रकट न होने दिया ।,"मुझे इस प्रसंग को कोई महत्त्व देने की कोई बात भी न थी, महत्त्व न दिया ।" सच बात तो यह है कि सम्पादकजी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था,उसे हर एक विद्या हर एक कला में पारंगत होना चाहिए लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं,सच बात तो यह है कि संपादक जी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था फोई कहाँ तक दौड़े ।,गरीब को यों न दुत्कारना चाहिए ।,कोई कहाँ तक दौड़े । फिर तो मैंने पदाना शुरू किया ।,"देखते नहीं हो, कोस-भर पर खड़ी है ।",फिर तो मैंने पदाना शुरू किया । कहती हूँ कुछ न बोलूँगी कह तो,जल में अवरोध के कारण जो चक्कर था फेन था शोर था गति की तीव्रता थी वह अवरोध के हट जाने से शांत मधुर-ध्वनि के साथ सम धीमी एक-रस धार में बहने लगा,कहती हूँ कुछ न बोलूँगी कह तो "बाबू विट्ठलदास शहर के आदमियों के पास दौड़े, क्या वह उन सेठों के पास न गये होंगे, जो यहाँ झ्राते हैं?",यदि में कुचेष्टाओं के कारण आग में कूद पड़ी तो उसमें शर्माजी का या किसी और का क्या दोष ?,"बाबू विट्ठलदास शहर के आदमियों के पास दोड़े, क्या वह उन सेठों के पास न गए होंगे जो यहाँ आते हैं ?" छ फ्लू को मरे छः मद्दीने दो गये ।,यह सब मेरे कारण हुआ; यह बात उसे नहीं भूलती ।,कल्लू को मरे छ: महीने हो गये । हम दोनो साथ-साथ बाहर आये और अपनी-अपनी बीती सुनाने लगे |,उन्हें पूरा विश्वास हो गया कि सारा अपराध हलधर का है ।,हम दोनों साथ-साथ बाहर आये और अपनी-अपनी बीती सुनाने लगे । सच कहती हूँ गोवर तुरन्त कोठरी में गया और दस-दस के च नोट निकालकर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट मीन पर गिरा दिये और द्वार की ओर चली तो उसने मेरा हाथ डड़ लिया,तुम मुझे दिखा तो देना,सच कहती हूँ गोबर तुरंत कोठरी में गया और दस-दस के पाँच नोट निकाल कर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट जमीन पर गिरा दिये और द्वार की ओर चली तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया तुम भर सिल्लो दोनों रहो,आज यह नहीं है आज वह नहीं है यह तो न सुनना पड़ेगा,तुम और सिल्लो दोनों रहो जिज्ञासा की अप्नि प्रचण्ड हो गई ।,"ऐसा न हो कि पीछे से कोई बात हो जाय, तो आपकी बदनामी हो ।",जिज्ञासा की अग्नि प्रचण्ड हो गयी । एक बार सुवामा ने डस्ते-डरते फीस के रुपये एक पात्र मे रखकर सामने रखे,वे प्रताप को गोद में बेठाकर बातें करते रहे,एक बार सुवामा ने डरते-डरते फीस के रुपये एक पात्र में रखकर सामने रखे "जिसे में जानता हैँ कि मक्कारी और स्पार्य-साथव और निन्‍्दा के सिवा और कुछ नहीं करता, जिसे में जातता हूँ कि रिशवत और सूद्‌ तथा ,ख॒शासद की कम्ताई खाता है, अगर वह ब्रह्मा की आयु लेकर भी मेरे सामने आये, तो में उसे सलाम न कर ।",मैं लकीर-पीटू सम्मान को नैतिक अपराध समझता हूँ ।,"जिसे मैं जानता हूँ कि मक्कारी , स्वार्थ-साधन और निन्दा के सिवा और कुछ नहीं करता , जिसे मैं जानता हूँ कि रिश्वत और सूद तथा खुशामद की कमाई खाता है , वह अगर ब्रह्मा की आयु लेकर भी मेरे सामने आये , तो भी मैं उसे सलाम न करूँ ।" "नशा ' इंख़री एक बढ़े ज़मीदार का लड़का था और में एक शरीब कलके का, जिसके पास मेहर्त-सजूरी के सिवा भौर कोई जायदाद न थी ।","रूपया दे दो, तो किसी तरह यह विपत्ति टले ।","ईश्वरी एक बड़े जमींदार का लड़का था और मैं एक गरीब क्लर्क का, जिसके पास मेहनत-मजूरी के सिवा और कोई जायदाद न थी ।" "आप अपना भला-बुरा स्वयं समझते है, श्र यह भी नहीं कि सेठजी मेरे द्वारा अपनी प्रशंसा के भूखे हों ।",उम्मीदवार मेम्बरों के सहायक अपने-अपने मुवक्किल के गुण गान करने लगे ।,"आप अपना भला- बुरा स्वयं समझते हैं, और यह भी नहीं कि सेठ जी मेरे द्वारा अपनी प्रशंसा के भूखें हों ।" "बैंक में रुपये हैं, उनका सूद आता है |","जमींदारी है, उससे कई हजार का नफा है ।","बैंक में रूपये हैं, उनका सूद आता है ।" "कई मिनट तौनों आदमी विर्वाकू,' निस्पन्द बठे रहे ।",मिसेज टंडन ने पूछा- रात क्या तुम मेरे घर आयी थीं ?,कई मिनट तीनों आदमी निर्वाक् निस्पंद बैठे रहे । द्वाय ] भभो तो बेचारी की चू दरी भी नहीं मेली हुई ।,माताजी को कुछ लोग आग्रहपूर्वक एक मरदाने डिब्बे में ले गये ।,"हाय, अभी तो बेचारी की चुंदरी भी नहीं मैली हुई ।" इस मातृ स्नेह से उसे तृप्ति हो न होती थी,प्रात: का नाश्ता भी वह वहीं करता,इस मात्-स्नेह से उसे त़प्ति ही न होती थी महल का सुख भोगने के बाद झोपड़ा किसे अच्छा लगता हैं ?,मैं सब ठीक कर दूँगा ।,महल का सुख भोगने के बाद झोंपडा किसे अच्छा लगता है ? "मैं तो समभता हूँ, दान भौर उपकार के लिए इससे उत्तम और कोई अ्रवमर न होगा।",अतएव वह निःसंकोच होकर बोले -- तो यह कैसे मान लिया जाए कि विवाह आनन्दोत्सव ही का समय है ?,"में तो समझता हूँ, दान और उपकार के लिए इससे उत्तम और कोई अवसर न होगा ।" अगर मेरे मन में तुम से रत्ती भर भी मेल हो तो भगवान्‌ मुझे सौ वार नरक दें,घर में आग लग जाए मुझे चिंता नहीं,अगर मेरे मन में तुमसे रत्ती भर मैल हो तो भगवान् मुझे सौ बार नरक दें भगर उसके पर होते तो उड़ जाता,आखिर सातवें दिन उसकी अर्जी पर हुक्म हुआ कि सामने पेश किया जाय,अगर उसके पर होते तो उड़ जाता "आन पर मरनेवाली सारधा इस समय साधारण ल्लिपो की भोति शक्विहान हो गयी, छेतिन एक अंश दक यह निर्वेछता स्त्री आाति की झोगा है ।",सारंधा ने उन्हें सँभालकर बैठाया और रो कर बोलने की चेष्टा की परन्तु मुँह से केवल इतना निकला-प्राणनाथ ! इसके आगे मुँह से एक शब्द भी न निकल सका ।,आन पर मरने वाली सारंधा इस समय साधारण स्त्रियों की भाँति शक्तिहीन हो गयी लेकिन एक अंश तक यह निर्बलता स्त्रीजाति की शोभा है । पिता ने साफ़ कह दिया -- मैं तुम्हारी डिगरी के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता ।,बडा लड़का दो ही महीने तक कालेज में रहने के बाद पढ़ना छोड़ बैठा ।,पिता ने साफ कह दिया--मैं तुम्हारी डिग्री के लिए सबको भूखा और नंगा नहीं रख सकता । "शरण दोगी तो रहेंगी, नहीं कहीं मुँह में कालिख लगाकर इुब मरूगी ।",अब तो तुम्हारी शरण आई हूँ ।,"शरण दोगी तो रहूँगी, नहीं कही मुँह में कालिख लगाकर डूब मरूँगी ।" यह तो आजकल का शिष्टाचार है ।,हेलेन आकर रोज की बातें आइवन से कह सुनाती ।,यह तो आजकल का शिष्टाचार है । इनकी सारी चौकढ़ी भुला देगी ।,इस वक्त बिगड़ने का अवसर न था ।,इनकी सारी चौकड़ी भुला देगी । सुधामा ने उसे ऐसे गुण सिखाये थे कि जिसने उसे देखा मोह गया,उधर पालकी उठी इधर सुवामा मूच्छित हो भूमि पर गिर पड़ी मानों उसके जीते ही कोई उसका प्राण निकालकर लिये जाता था,सुवामा ने उसे ऐसे गुण सिखाये थे कि जिसने उसे देखा मोह गया "जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा -- मेरी बला से, रानी रूठेंगी अपना सुहाग लेंगी ।",अभी डाक का वक्त हो तो लौटा दो ।,"जालपा ने नाक सिकोड़कर कहा--मेरी बला से, रानी ऱूठेंगी अपना सुहाग लेंगी ।" पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी ।,फिर जालपा की मान-प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई ।,पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी । मैं किसी के निजी मुआमले में दखल देना उचित नहीं समम्ते,मैं आपसे हाथ जोड़ कर कहती हूँ मेरे सामने खन्ना का कभी नाम न लीजिएगा,मैं किसी के निजी मुआमले में दखल देना उचित नहीं समझती "में दिखा दूं गो, जाक्ता तुम्दारे साय नहीं, मेरे साथ है ।",वहीं सड़क किनारे मेरी जान निकलेगी ।,"मैं दिखा दूँगी, जनता तुम्हारे साथ नहीं, मेरे साथ है ।" "मै उसे गोद में लिए, उसके कोमल स्पर्श का आनन्द उठाता घर की ओर दौड़ा |",मैंने अकड़ कर कहा -पहिले दिखा ।,"मैं उसे गोद में लिये, उसके कोमल स्पर्श का आनन्द उठाता घर की ओर दौड़ा ।" अपने फटे कंबल पर बैठा हुआ वह गर्व और बात्मगौरव की लहसें में डूब जाता है ।,कोई उनकी रचना-शैली की प्रशंसा करता है कोई उनके सद्विचारों पर मुग्ध हो जाता है ।,अपने फटे कंबल पर बैठा हुआ वह गर्व और आत्मगौरव की लहरों में डूब जाता है । .उसने बेपरवाढ़ी से पत्रों को लिया ओर मणाल के प्रकाश्न में देख कर कहा-ल्‍ञब मुझे विश्वास हुआ ।,यद्यपि यह संदेह निरर्थक था किंतु मनुष्य कमजोरियों का पुतला है ।,उसने बेपरवाही से पत्री को लिया और मशाल के प्रकाश में देख कर कहा-अब मुझे विश्वास हुआ । दिव-भर द्वार पर गप-शप फरते ।,शिवदास को पेंशन मिली ।,दिन-भर द्वार पर गप-शप करते । मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा को,नहीं दादा अबकी भूसा अच्छा हो गया था,मैंने तुमसे नाहक भूसे की चर्चा की कार्तिक का महीना था ।,"सूरदास एक बहुत ही क्षीणकाय, दुर्बल और सरल व्यक्ति था ।",कार्तिक का महीना था । अम्मा-अम्मी कह कर रोन छगा ।,सबने डुबकियाँ मारीं टटोला पर निर्मला का पता न चला ।,अम्माँ-अम्माँ कह कर रोने लगा । लेकिन शीघ्र ही मालूम हो गया कि बाँस आपस में रगड़ खा रहे हैं।,उसका कलेजा सन्न हो गया ।,लेकिन शीघ्र ही मालूम हो गया कि बाँस आपस में रगड़ खा रहे है । "भ्ूठा तो तू है, और तो सारा संसार सच्चा है; तेरा नाम निकल गया है न! तेरा बाप नौकरों' करता, बाहर से रुपये कमा लाता, चार जने उस्ते भला आदमी कहते, तो तू भी सच्चा होता ।","हल. -मैंने तुमसे कब कहा था कि बताओगे, तो मारूँगा ?","झूठा तो तू है, और तो सारा संसार सच्चा है, तेरा नाम निकल गया है न ! तेरा बाप नौकरी करता, बाहर से रुपये कमा लाता, चार जने उसे भला आदमी कहते, तो तू भी सच्चा होता ।" "जनाव, सुकसे वह न देखा गया ।",अफसोस यही है कि आपका यहाँ कयाम न रहेगा ।,"जनाब, मुझसे यह न देखा गया ।" शांत्तिकुम्ार ने शीशे में मुँद्द देखा तो वह भी फोर से हंसे,नैना ने दौड़कर उसके हाथ से दवात छीन ली और एक धौल जमा दिया,शान्तिकुमार ने शीशे में मुँह देखा तो वह भी जोर से हँसे "प्रभु सेवक-वह तो आने को तैयार थी, किंतु इसी शर्त पर कि मुझ पर कोई धार्मिक अत्याचार न किया जाए ।","काम की बातें न तुम्हें आती हैं, न उन्हें ।","प्रभु सेवक-वह तो आने को तैयार थी, किंतु इसी शर्त पर कि मुझ पर कोई धार्मिक अत्याचार न किया जाए ।" जनता कहीं यद्द तो न समझेगी कि उरकार डर गई १ ?,मुझे विश्वास है कि वह षडयंत्रकारियों का मुखिया है और मैं इसे सिध्द कर देना चाहती हूँ ।,' 'जनता कहीं यह तो न समझेगी कि सरकार डर गई ? "जज पढ़े-लिखे भादम्रियाँ के सन में ऐसे अधामिक भाव आने लगे, तो फिर घर्म को भग- वान्‌ ही रक्षा करें ।","नहीं, चुपके से चुहिया निकालकर फेंक देते ।","जब पढे-लिखे आदमियों के मन मे ऐसे अधार्मिक भाव आने लगे, तो फिर धर्म की भगवान ही रक्षा करें ।" खरो-पुरुष में विवाह को पहली शर्द यद्द है कवि दोनों सोलदों आने एक दूसरे के हो जाये ।,"बस यही जी चाहता है कि इसे अपने कलेजे में ऐसे रख लूँ, कि इसे कोई कड़ी आँख से देख भी न सके ।",स्त्री पुरूष में विवाह की पहली शर्त यह है कि दोनों सोलहों आने एक-दूसरे के हो जायें । कुन्दन तपकर भस्म हो गया था ।,लोहा लोहे से लड़ गया ।,कुन्दन तपकर भस्म हो गया था । देशऐे विका ने थानेदारों के रोब के साथ कद्ठा--याँ अपराध क्षप्ता नहीं दो सकता ।,"छकौड़ी ने महिला के लिए अन्दर से लोहे की एक टूटी, बेरंग कुरसी निकाली और लपककर उनके लिए पान लाया ।",देशसेविका ने थानेदारों के रोब के साथ कहा- यों अपराध क्षमा नहीं हो सकता । "बीच में एक दृष्ट-पुष्ट सनुष्य गले में रेशमी चादर डाले, माथे पर केसर का अर्ध लम्बाकार तिलक लगाये, मसनद के सहारे बैंठा सुनहरी मुँहनाल से लच्छेदार घुँआा फेक रहा था ।","जब मंगलसिंह ने रुपये गिनकर रख दिए और बैलों को ले चले, तब गिरधारी उनके कंधों पर सिर रखकर खूब फूट-फूटकर रोया ।","बीच में एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य गले में रेशमी चादर डाले, माथे पर केसर का अर्ध-लम्बाकार तिलक लगाए, मसनद का सहारे बैठा सुनहरी मुँहनाल से लच्छेदार धुँआ फेंक रहा था ।" ज़ोहरा नदी के तट पर बाढ़ का तमाशा देखने लगी ।,उसकी थल-सेनाओं ने पृथ्वी पर उत्पात मचा रक्खा था ।,ज़ोहरा नदी के तट पर बाढ़ का तमाशा देखने लगी । "जब हमारा-तुम्हारा विवाह हो जायगा, तो हम लोग इसी घर में आकर रहेंगे ।",ईर्ष्या और दम्भ के गन्दे नाले उसमें मिलकर उतने ही विशाल और पवित्र हो जाते हैं ।,"जब हमारा-तुम्हारा विवाह हो जायगा , तो हम लोग इसी घर में आकर रहेंगे ।" वचन देती हो ?,मगर तुम अपने दिल से उन्हें क्षमा कर दो ।,वचन देती हो ? हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है ।,इसीलिए तो उसे सारे उपदेश दिये जाते हैं ।,हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है । नईंम-- तुमने सारी दुनिया के सामने मेरी तौद्दोन नहीं की ?,"नईम ने मुझे अपना विश्वासपात्र बनाया है, मुझसे कभी परदा नहीं रखा ।",नईम- तुमने सारी दुनिया के सामने मेरी तौहीन नहीं की ? रमा को इस भांति जाते देखकर प्रश्न-सूचक नेत्रों से देखा |,"कल शाम को यहाँ काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फंसा कि वक्त क़ी कुछ ख़बर ही न रही ।",रमा को इस भांति जाते देखकर प्रश्न-सूचक नजरों से देखा । "बस, छुट्रो हुईं ।",कामतानाथ भी गर्म पड़ा- आपको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है ।,"बस, छुट्टी हुई ।" यहाँ तक कि उन्हें अपनी सहधमिणी से भी कभी-कभी श्रप्रिय बातें सुननी पडती थीं |,इनके सिवा कई गरीब लड़कों को छात्रवृत्तियाँ भी देते थे ।,यहाँ तक कि उन्हें अपनी सहधर्मिणी से भी कभी-कभी अप्रिय बातें सुननी पड़ती थीं । इसो लिए आया था,मैं बाद को खुद शमिऊदा हुआ और तुमसे मुआफी माँगने दौड़ा,इसीलिए आया था "मगर कसीशन एक सनोह्र वाटिका है, जर्हाँ न मनुष्य का टर न परमात्मा का भय, यहाँ तक कि वर्टा आत्मा की छिपी हुई चुटकियों का भी गुजर नह है ।",रिश्वत लोक और परलोक दोनों का ही सर्वनाश कर देती है ।,"मगर कमीशन एक मनोहर वाटिका है, जहाँ न मनुष्य का डर है, न परमात्मा का भय, यहाँ तक कि वहाँ आत्मा की छिपी हुई चुटकियों का भी गुजर नहीं है ।" तीन “वर्ष तक पहाड़ों और जंगली में छिपी रही ।,सबकी सम्मति इस दयालुता के अनुसार न थी किंतु महाराज ने राणा का समर्थन किया ।,तीन वर्ष तक पहाड़ों और जंगलों में छिपी रही । "संसार के कठोर व्यवहार मे उन्हें विरक्त कर दिया था, उद्धके प्रलोभव से कोर्ों भागते थे ।","न किसी से कुछ माँगते, न किसी के द्वार पर जाते ।","संसार के कठोर व्यवहार ने उन्हें विरक्त कर दिया था, उसके प्रलोभन से कोसों दूर भागते थे ।" "जालपा ने मेरी तरफ़ सहमी हुई आँखों से देखकर कहा -- तुम मुझसे यह सवाल क्यों करती हो, तुम खुद अपने दिल में इसका जवाब क्‍यों नहीं ढूंढ़ती ?","मैंने कहा, 'अच्छा, मान लो तुम्हारा पति ऐसी मुख़बिरी करता, तो तुम क्या करतीं ?","जालपा ने मेरी तरफ सहमी हुई आंखों से देखकर कहा, 'तुम मुझसे यह सवाल क्यों करती हो, तुम खुद अपने दिल में इसका जवाब क्यों नहीं ढूंढ़तीं ?" कारण जानते हो क्या है ?,हमेशा एक-न-एक गुल खिला ही करता है ।,कारण जानते हो क्या है ? घरवाले भी रो-धोकर चुप हो रहेंगे ।,"समझ गया, जमादार ने चरका दिया ।",घरवाले भी रो-धोकर चुप हो रहेंगे । "बटी ने कह्--जिनसे कुछ नहीं हो सकता, वही धरमात्मा बन जाते हैं ।",इस विषय पर दोनों में कितने ही संग्राम हो चुके थे; लेकिन भोंदू अपना परलोक बिगाड़ने पर राजी न होता था ।,"बंटी ने कहा, 'ज़िनसे कुछ नहीं हो सकता, वही धरमात्मा बन जाते हैं ।" "- “आटे का सबसे सुन्दर रूप छिपाव है, दिखाव नहीं ।",लेकिन वेश्याएँ भी तो इस तरह बेशर्मी नहीं करतीं ।,"आर्ट का सबसे सुन्दर रूप छिपाव है, दिखाव नहीं ।" ऐसा सुन्दर गाँव मेंने नहीं देखा,वह अपनी जात-पाँत भूल गई आचार-विचार भूल गई और ऊँची जाति की ठकुराइन अछूतों के साथ अछूत बनकर आनंदपूर्वक रहने लगी,ऐसा सुंदर गाँव मैंने नहीं देखा "दस-पाँच रुपये की बात होती, तो आपकी ज़बान न फेरता ।",' आप यों ही पहनें ।,"दस-पांच रूपये की बात होती, तो आपकी ज़बान ने उधरता ।" "एक क्षण के वाद फिर बोली--- चलो, थोड़ा-सा ही खा लो |",आज इतनी देर कहाँ लगा रहे हैं ?,"एक क्षण के बाद फिर बोली - चलो, थोड़ा-सा ही खा लो ।" बिट्टलदास ने लम्पी साँस लेकर कहा--यह तो वड़ा अन्याय हुआ ।,"वह इसी सुमन बाई की बहन निकली, भैया को ज्योंही मालूम हुआ, वह द्वार से बारात लोटा लाए ।",विट्ठलदास ने लम्बी सांस लेकर कहा -- यह तो बड़ा अन्याय हुआ । इसी बीच में मनो- रंजन की नयी सामग्री उपस्थित हो गयी,विरजन को प्यार से गले लगा दिया,इसी बीच में मनोरंजन की नयी सामग्री उपस्थित हो गयी "उस वक्त अगर कोई मेरा रास्ता रोक लेता, मुझे घमकाता कि उधर मत जाओ, तो में विमल बावू के पास जाकर ही दम लेता और आज मेरा जीवन कुछ और हो होता , पर वहाँ मना करनेवाला कौन बेठा था ।",क्या यह सूर्य की भाँति प्रकट नहीं है कि आज सैकड़ों परिवार इस राक्षस के हाथों तबाह हो रहे हैं ?,"आह ! उस वक्त अगर कोई मेरा रास्ता रोक लेता , मुझे धमकाता कि उधर मत जाओ , तो मैं विमल बाबू के पास जाकर ही दम लेता और आज मेरा जीवन कुछ और ही होता ; पर वहाँ मना करने वाला कौन बैठा था ।" "उन्मत्तता में उन्हे एकइम यह नहो जान पड़ा कि गिरिजा अब नही है, केवछ उसकी छोय है |",वे उछल पड़े और उमंग में भरे हुए पागलों की भाँति आनंद की अवस्था में दो-तीन बार कूदे ।,उन्मत्तता में उन्हें एकदम यह नहीं जान पड़ा कि गिरिजा अब नहीं है केवल उसकी लोथ है । "रानी ने उसे प्यान ते देखा,तो मल्लाह सोया हुआ था ।",जो कुछ उनके मुख से निकलता तुरंत लिख लेतीं ।,रानी ने उसे ध्यान से देखा तो मल्लाह सोया हुआ था । राजेश्वरी--मैं तो अब गाउन पहनना चाहती हैँ |,प्रभुदास यहाँ से चले तो धरती पर पाँव न पड़ते थे ।,राजेश्वरी- मैं तो अब गाउन पहनना चाहती हूँ । उसे देखते ही मेरी विकलता क्रोध मे बदल गयी |,प्रकाश के साथ मेरी आशा भी मलिन होती जाती थी ।,उसे देखते ही मेरी विकलता क्रोध में बदल गयी । "» द्वार पर हाने की आवाज़ सुनकर सनहर बाहर निकला और इस भ्रकार जेनी को देखने लगा, मानों उसे कभी देखा नहीं है ।","वह, जो बाजार से साग-सब्जी लाने में अपना अनादर समझता था, अब कुऐ से पानी खींचता, लकड़्यां फाड़ता और घर में झाड़ू लगाता थाऔर अपने घर में ही नहीं, सारे मुहल्ले में उसकी सेवा और नम्रता की चर्चा होती थी ।",द्वार पर हार्न की आवाज सुनकर मनहर बाहर निकला और इस प्रकार जेनी को देखने लगा मानो कभी देखा ही नहीं हो । "वह अपने चौदह साल के पाछे हुए हिसा-भाव से उन्मत्त, हेंलेन के पास जा रहा है, पर उसकी हिंसा में रक्त की प्यास नहीं है, केवल गहरी दाहक दुभविता है ।",आइवन को मालूम हुआ कि दुनिया अँधेरी हो गयी है और वह उसकी अथाह गहराई में धँसता चला जा रहा है ।,"वह अपने चौदह साल के पाले हुए हिंसा-भाव से उन्मत्त , हेलेन के पास जा रहा है ; पर उसकी हिंसा में रक्त की प्यास नहीं है , केवल गहरी दाहक दुर्भावना है ।" "देवीदीन ने कहा -- विश्वास न हो, घर की खाना-तलाशी ले लीजिए और क्या कीजिएगा |",सरपट साइकिल दौडाते हुए फिर देवीदीन के घर पहुंचे और धमकाना शुरू किया ।,"देवीदीन ने कहा,विश्वास न हो, घर की खाना-तलाशी ले लीजिए और क्या कीजिएगा ।" नाम चेचने पर लगो है ।,क्रोध न रुक सका ।,नाम बेचने पर लगी है । एक हमारे नौकर हैं. कि कोई काम करने का ढद्ग नहीं ।,खानसामों ने ईश्वेरी को सलाम किया ।,एक हमारे नौकर हैं कि कोई काम करने का ढंग नहीं । वह इव पत्रों का जवाब तक न देता था ।,देश की राजनीतिक स्थिति चिंताजनक हो रही थी ।,वह इन पत्रों का जवाब तक न देता था । भत्र साठ बरस की उम्र में उन्हें ठपदेश नहीं दिया जा सकता,सुखदा के पास जवाब तैयार था-तुम्हें भी तो अपना सिध्दांत अपने बाप से ज्यादा प्यारा है- उन्हें तो मैं कुछ नहीं कहती,अब साठ बरस की उम्र में उन्हें उपदेश नहीं दिया जा सकता "तुमने एक मौजदाब राजपूत को जान लो है, तुप भी जवानी में मारे पामोगे ।",वह अपने प्यारे पति का सिर अपनी गोद में लेती है और उस चिता में बैठ जाती है जो चंदन खस आदि से बनायी गयी है ।,तुमने एक नौजवान राजपूत की जान ली है तुम भी जवानी में मारे जाओगे । "इस हुआ धन * मिल गया, इसकी खुशी से फूला नही समाता था ।",कूपन पर केवल क्षमा लिखा हुआ था ।,डूबा हुआ धन मिल गया इसकी खुशी से फूला नहीं समाता था । इसको हमें जरा भी खबर न थी क्रि वह तुम्हें छेड़ने लगेगा |,"इधर तो मेरा यह बुरा हाल था, उधर डाक-बँगले में साहब बहादुर गिलास पर गिलास चढ़ा रहे थे ।",इसकी हमें जरा भी खबर न थी कि वह तुम्हें छेड़ने लगेगा । उनके कहने से राजा साहब ने वह जमीन मुझसे छीन ली है ।,राजा साहब ने कैसे ले ली ?,उनके कहने से राजा साहब ने वह जमीन मुझसे छीन ली है । दाऊर छो प्राण रक्षा के छिए अपने सदन्धियों के साथ भागना पड़ा ।,दाऊद विद्वान और साहसी था ।,दाऊद को प्राण-रक्षा के लिए अपने सम्बन्धियों के साथ भागना पड़ा । श्रपनी हमजोलियों को दिखाकर अपना गौरव और उनकी ईर्ष्या बढ़ाती हूँ |,इस अबला का मुँह वह एक डपट में बंद कर सकता था; पर डॉट-डपट उसने न सीखी थी ।,अपनी हमजोलियों को दिखाकर अपना गौरव और उनकी ईर्ष्या बढ़ाती हूँ । पहली हो मुलाक़ात में उप्तमे मेरी वेतकल्लफों दो गई,बड़ा शौकीन आदमी है मगर दिल का साफ,पहली ही मुलाकात में उससे मेरी बेतकल्लुफी हो गई जनता 'इतनौ समम्धशर तो है नहीं कि इस रहस्यों को समझे ।,उधर अरबों की रक्त-पिपासा प्रतिक्षण तीव्र होती जाती थी ।,जनता इतनी समझदार तो है नहीं कि इन रहस्यों को समझे । जिसके लिए मरो वही जान का दुसमन ॥ हो जाता है,वह इतनी सीधी गमखोर निर्छल न होती तो आज सोभा और हीरा जो मूँछों पर ताव देते फिरते हैं कहीं भीख माँगते होते,जिसके लिए मरो वही जान का दुसमन हो जाता है बन्दूक की आवाज़ झुवकर तुम्दारा दिल काँप उठेगा ।,मैं तुम्हारी तरह कालेज का मुँहफट छात्र नहीं हूँ कि क्रांति और आजादी की हाँक लगाता फिरूँ ।,बन्दूक की आवाज सुनकर तुम्हारा दिल काँप उठेगा । --यह कहते हुए सेठजी ने पान खाया और धाहर निकले ।,सारे शहर के लोग कह रहे हैं ।,यह कहते हुए सेठजी ने पान खाया और बाहर निकले । श्रव रास्ता स्वच्छु और चौड़ा था ।,"संन्यासी ने उत्तर दिया- नहीं, यह रईस नहीं है, एक बड़े मंदिर के महंत हैं, साधु हैं ।",अब रास्ता स्वच्छ और चौड़ा था । "ऐसो अच्छी साढ़ी है आपकी, कहां कोई दाग पढ़ जाय तो क्या हो १ ?","नहीं , नहीं बहूजी , आप हट जाइए , मैं पतीली उतार लूँगा ।","ऐसी अच्छी साड़ी है आपकी , कहीं कोई दाग पड़ जाय , तो क्या हो ?" कौन उपचा अयना है ?,"करूणा ने आज फिर उन कपड़ो को निकाला, मगर सुखाकर रखने के लिए नहीं गरीबों में बाँट देने के लिए ।",कौन उसका अपना हैं ? बसुधा चौंकर पति के कन्धों से लिपट गई ।,पहले उसने अपने भाग्य को सराहा था ।,वसुधा चौंककर पति के कन्धों से लिपट गयी । "कुरता ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ रखा है, वह अपना पुराना कुरता ही पहने हुए है ।",एक दिन की छुट्टी होगी ।,"कुरता ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ रखा है, वह अपना पुराना कुरता ही पहने हुए है ।" "घोड़ा बढ़ाकर बोले-यह तुम्हारे उस अन्याय का फल है, जो तुमने मेरे साथ किया है ।",सोफिया इसी समय उनके पास से होकर निकली ।,"घोड़ा बढ़ाकर बोले-यह तुम्हारे उस अन्याय का फल है, जो तुमने मेरे साथ किया है ।" "मैं गाने में निपुणा हूँ, गाना सिखाने का काम कर सकती हूँ ।","बताइए, आप मेरे लिए क्या प्रबन्ध कर सकते हैं ?","मैं गाने में निपुण हूँ,गाना सिखाने का काम कर सकती हूँ ।" "चलिए. आराम से एक, दो, तीन दिन रहिए ।",कहिए आप तो अच्छी तरह रहे ?,"चलिए, आराम से एक, दो, तीन दिन रहिए ।" शुँह से एक शब्द भी न निकछा ।,वे कर्त्तव्य और सेवा के भावों को जागृत भी कर सकती हैं ।,मुँह से एक शब्द भी न निकला । रामे० -मुझे! तरकारी ले रखने का हुक्म न मिला था ।,' चौधराइन -'राम का नाम लेकर ब्याह करो ।,रामे.-' मुझे तरकारी ले रखने का हुक्म न मिला था । मुल कारणों का सुधार होना चाहिए ।,यहाँ तो नित्य ही ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं ।,मूल कारणों का सुधार होना चाहिए । "तंमर का खहाका मौत का ठह्दाका था, या मिरनेवाले बज का तढ़ाका ।",यजदानी ने उसकी सूरत देखी और जैसे अपनी खींची हुई तलवार म्यान में कर ली और खून के घूँट पीकर बोला- जहाँपनाह इस वक्त फतहमंद हैं लेकिन अपराध क्षमा हो तो कह दूँ कि अपने जीवन के विषय में तुर्कों को तातारियों से उपदेश लेने की जरूरत नहीं ।,तैमूर का ठहाका मौत का ठहाका था या गिरनेवा ले वज्र का तड़ाका । सरकारी डिनर में बढ़-बढ़कर हाथ मारने का गौरव कैसे मिले ?,बड़े-बड़े अंगरेजों से हाथ मिलाने का सोभाग्य कैसे प्राप्त हो ?,सरकारी डिनर में बढ़-चढ़कर हाथ मारने का गोरव कैसे मिले ? मकान तो निकालना ही पड़ेगा ।,बिरादरी का भोज है या दोष मिटाना है ।,मकान तो निकालना ही पड़ेगा । "चक्की पीसूँगी, कपड़े हि सीऊँगी भोर किसो तरह प्पना निर्वाह कर लूंगी ।","मैं आपसे कोई सहायता नहीं चाहती, केवल एक सुरक्षित स्थान चाहती हूँ ।","चक्की पीसूँगी, कपड़े सीऊँगी ओर किसी तरह अपनी निर्वाह कर लूँगी ।" "चोर नहीं, तुम साह हो, नाम क्‍यों नहीं बताते ?","' तीसरा आदमी मुसलमान था, उसने रमानाथ को ललकारा, 'ओ जी ओ पगड़ी, ज़रा इधर आना, तुम्हारा क्या नाम है ?","' 'चोर नहीं, तुम साह हो, नाम क्यों नहीं बताते ?" बाहर और भौतर में इतना आकाश पाताल का अन्तर मेंने कभी न देखा था ।,"वह आगरे गये , मैंने मुरादाबाद का रास्ता लिया ।",बाहर और भीतर में इतना आकाश-पाताल का अन्तर मैंने कभी न देखा था । "चुपके से भप्तामा पिर से उतारा, और नदिश्शाद् को तरफ बजा दिया ।",इनकार की गुंजाइश न थी ।,"चुपके से अमामा सिर से उतारा, और नादिरशाह की तरफ बढ़ा दिया ।" कहीां-ढ्ठी पावी भी जम्रा हो गया था ।,माधवी एक दिन अपने घर चली गई थी ।,कहीं-कहीं पानी भी जमा हो गया था । "कहर, साईस और रसोइया-महाराज तीनों ने असामियों को इस दृष्टि से देखा सानों बह उनके नोकर हैं ।","उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र ।","कहार, साईस और रसोइया-महाराज तीनों ने असामियों को इस दृष्टि से देखा मानो वह उनके नौकर हैं ।" उसकी दोनों मुद्ठियाँ बंध गईं |,गले की आवाज बंद-सी हो गई थी; पर वह वाक्य सुनते ही वह सचेत हो गया ।,उसकी दोनों मुट्ठियाँ बँध गयीं । अब जतन से रखना ।,अनुमान से मालूम हुआ कि रुपये भी उतने ही हैं ।,अब जतन से रखना । "गोबर रम्घू निकालता, बेलों को सानी रू देता ।",माँ के आते ही चक्की में जुतना पड़ा ।,"गोबर रग्घू निकालता, बैलों को सानी रग्घू देता ।" में घर में अकेला भूत की तरद्द पढ़ा रहूंगा,लड़की की किसी भर ले घर में शादी हो जाएगी,मैं घर में अकेला भूत की तरह पड़ा रहूँगा दास का घर राजनमर हैं ।,वह घड़ी-रात रहे उठता और हलवाइयों की दूकानों के सामने के दोने और पत्तल कसाईखाने के सामने की हड्डियाँ और छीछड़े चबा डालता ।,दास का घर राजनगर है । द्वार पर नौकर बैठा नारियल पी रहा था |,मैं उस देवी के योग्य न था ।,द्वार पर नौकर बैठा नारियल पी रहा था । समन ने कातर भाव से कहा--वकील साहव के घर को छोड़कर मैं झौ-. कहीं नहीं . - गयी; तुम्हें विश्वास न हो तो आप जाकर पूछ लो ।,"तेरा जहाँ जी चाहे जा, जो मन में आवे कर ।","सुमन ने कातर भाव से कहा -- वकील साहब के घर को छोड़कर में ओर कहीं नहीं गई, तुम्हें विश्वास न हो, तो आप जाकर पूछ लो ।" सझोना और अमर का प्रेम वही वृक्ष है,सभी उसकी लगाम खींचते रहते थे,सकीना और अमर का प्रेम वही वृक्ष है उसका हृदय वह विभूति पाकर विशाल हो गया ३,होरी बाहर खाट पर बैठ कर चिलम पीने लगा तो फिर भाइयों की याद आई,उसका हृदय यह विभूति पा कर विशाल हो गया था वह घोड़े पर बैठा और इस आश्चर्यजनक घटना की विवेचना करता घर की तरफ चल दिया ।,उसे सुमन के पास जाने का साहस न हुआ ।,वह घोड़े पर बैठा और इस आश्चर्य जनक घटना की विवेचना करता घर की तरफ चल दिया । "हाँ, सडक कदाचित्‌ कच्ची ही थी |",गाना आरम्भ हुआ और साथ ही साथ मद्यपान भी चलने लगा ।,"हाँ, सड़क कदाचित् कच्ची ही थी ।" उनका यह कहना यथार्थ ही था |,"नंगे सिर, एक गाढ़े का कुरता पहने, गाढ़े का ढीला पाजामा पहने चला आता था! पैरों में जूते थे ।",उनका यह कहना यथार्थ ही था । दो-चार दिन में लाला द्ाऊदयाल का भादमी भाता दोगा ।,"घर आया, तो दाऊदयाल के रुपयों की फिक्र सिर पर सवार हुई ।",दो-चार दिन में लाला दाऊदयाल का आदमी आता होगा । विनय ने कहा-यहीं तो आ रहा था ।,मारने दौड़े ।,विनय ने कहा-यहीं तो आ रहा था । सबसे पहले फ़ोल्खाने में घुसे,गूदड़ ने गर्दन हिलाते हुए कहा-भगवान् का दरबार है,सबसे पहले पीलखाने में घुसे में इधर-उधर से सारा ब्योरा पूछ आऊँगा ।,' दोनों एक क्षण चुपचाप बैठे रहे ।,मैं इधर-उधर से सारा ब्योरा पूछ आऊँगा । सारा शददर उमड़ पढ़ता है,दृष्टांतों के तो मानो वह सफर हैं और नाटय में इतने कुशल हैं कि जो चरित्र दर्शाते हैं उनकी तस्वीरें खींच देते हैं,सारा शहर उमड़ पड़ता है "पौधे उगे, बढ़े ओर फिर सूख गये ।",मां खड़ी यह दृश्य देखती थी और उमंग से फूली न समाती थी ।,"पौधे उगे, बढ़े और फिर सूख गए ।" "मेरा अपना कोई महत्त्व नहों, जो कुछ है वह बालक के नाते ।",इसमें बहुत सुविधा थी ।,"मेरा अपना कोई महत्त्व नहीं, जो कुछ है वह बालक के नाते ।" "उनका जी चाहता कि सारा घर मेरे पास बैठा रहे, सम्बन्धियों को भी बुला लिया जाय, जिसमें वह सबसे अंतिम भेंट कर लें ।","इस समय जो उसके साथ थोड़ी-सी भी सहानुभूति दिखा देता, उसी को वह अपना शुभचिंतक समझने लगती ।","उनका जी चाहता कि सारा घर मेरे पास बैठा रहे, संबंधियों को भी बुला लिया जाय,जिसमें वह सबसे अंतिम भेंट कर लें ।" शर्माता हुआ बोला --हाँ पठानिव मुझे याद चढ़ों भावा,रास्ते में बुढ़िया ने कहा-मैंने तुमसे कहा था वह तुम भूल गए बेटा- अमर सचमुच भूल गया था,शरमाता हुआ बोला-हाँ पठानिन मुझे याद नहीं आया वह अपनी सफाई न पेश कर सके ।,दूसरे दिन अभियोग चला ।,वह अपनी सफाई न पेश कर सके । टाती से चेरी हो कर भो प्रसन्न वित्त होता मेरे बच्च में नही है ।,गिरिजा जब अपने जीवन से निराश हो कर रोती तो वह उसे समझाते-गिरिजा रोओ मत शीघ्र ही अच्छी हो जाओगी ।,रानी से चेरी हो कर भी प्रसन्नचित्त होना मेरे वश में नहीं है । अब उनके सिवा और कौन आनेवाल है ।,वागेश्वरी निराशा में भी आस बाँधे बैठी हुयी थी ।,अब उनके सिवा कौन अने वाला है । वह यह दिखाना चाहती थी क्रि में तुम्हारे लड़कों को कितना चाहती हूँ।,मेरे लिए बैठने की जरूरत नहीं।,वह यह दिखाना चाहती थी कि मैं तुम्हारे लड़कों को कितना चाहती हूँ। मुस्तू--दालमण्डी मे सरकार के कोई रहते हैं क्या ?,"देवी- नहीं-नहीं; कहो, क्या बात है ?",मुन्नू- दालमण्डी में सरकार के कोई रहते हैं क्या ? "अगर एक दिव सालन फीका ही रहा, तो ऐसा क्या तूफान आ जायगा ।",लालाजी की आत्मा खिल उठी ।,"अगर एक दिन सालन फीका ही रहा , ऐसा क्या तूफान आ जायगा ?" "जिधर देखो, अशान्ति है, विद्रोह है, ब्राधा है ।","कहीं एक मुँह फुलाये बैठा है , कहीं दूसरा घर छोड़कर भाग जाने की धामकी दे रहा है ।","जिधर देखो , अशान्ति है , विद्रोह है , बाधा है ।" "सुमन अवश्य ही इजलास पर बुलायी जाएगी, मेरा नाम गली-गली विकेगा ।",जो बात अभी दो-चार गाँव में फेली है वह शहर में फेल जाएगी ।,"सुमन अवश्य ही इजलास पर बुलाई जाएगी, मेरा नाम गली-गली बिकेगा ?" मगर मूल पुजारी पूछ हो चंठा--छुना झिसी जुलाहे को लड़की से फंप गये थे १ यह अक्‍्खढ़ प्रदन सुनकर लोगों ने जीम काटकर सुद्द फेर लिये,साल-छ: महीने उसका मजा चख लेगा तो आँखें खुल जायेंगी,मगर मूर्ख पूजारी पूछ ही बैठा-सुना किसी जुलाहे की लड़की से फंस गए थे- यह अक्खड़ प्रश्न सुनकर लोगों ने जीभ काटकर मुँह फेर लिए न जाने मेरे मुंह से यद बात क्यों न निक- लती कि करा बाहर खेल रद्दा था ।,स्त्री के जीवन में प्यार न मिले तो उसका अन्त हो जाना ही अच्छा ।,न जाने मुँह से यह बात क्यों न निकलती कि जरा बाहर खेल रहा था । नहीं तो कौन जानेगा कि अंधा कौन था ।,"सोचता-क्या इसी दिन के लिए, मैंने इस जमीन का इतना जतन किया था ?",नहीं तो कौन जानेगा कि अंधा कौन था । "बोले--जी नहीं, इस .. नाटक के खेलने की सलाह नहीं हुईं ।",इस समय अकस्मात उन्हें एक बात सूझ गई ।,"बोले -- जी नहीं, इस नाटक के खेलने की सलाह नहीं हुई ।" "कुप्पी चुपके से छे छो, और झूठ मृठ इधर-उधर देखरूर लौटा दी |","पण्डितजी को क्रोध तो ऐसा आया कि इस पाजी को खोटी-खरी सुनाऊँ, लेकिन गले से आवाज न निकली ।",कुप्पी चुपके से ले ली और झूठ-मूठ इधर-उधर देखकर लौटा दी । कुछ ऋणग भो लेता पड़ा ।,करूणा का कण्ठ रूँध गया और कुछ न कह सकी ।,कुछ ऋण भी लेना पड़ा । इससे बेहतर यही है कि अ्रभी से फिक्र करूँ |,"मुंशी- अजी तब देखी जायगी, मैं आज मरा थोड़े ही जाता हूँ ।",इससे बेहतर यही है कि अभी से फिक्र करूँ । "श्यामाचरण ने पद्मसिह से कहा--मेरे भोजन का समय झा गया, भव जाता हूँ, श्राप संध्या समय मुझसे मिलिएगा।",ग्यारह बज गए थे ।,"श्यामाचरण ने पद्मसिंह से कहा -- मेरे भोजन का समय आ गया, अब जाता हूँ, आप संध्या समय मुझ से मिलिएगा ।" ' स्नेह-भरे उलहने से बोले--ुम्हारा मत भी विचित्र है ।,आप खाने बैठेंगे तो यों ही उठ जायेंगे ।,"स्नेह-भरे उलाहने से बोले , ‘ तुम्हारा मन भी विचित्र है ।" "वह अखाड़े में दरड पेलते, भेंस का ताजा दूध पीते, संध्या को दूधिया भंग छानते और गाँजे-चर॒स की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी ।",महंत रामदास के यहाँ दस-बीस मोटे-ताजे साधु स्थायी रूप से रहते थे ।,"वह अखाड़े में दंड पेलते, भैंस का ताजा दूध पीते, संध्या को दूधिया भंग छानते और गांजे-चरस की चिलम तो कभी ठंडी न होने पाती थी ।" अब भी उसीका मन्त्र पढ रहा हे ।,"मेरे साथ इतने दिन रही, यही बहुत था ।",अब भी उसी का मन्त्र पढ़ रहा है । "ऐसो कुछपा स्रियाँ भी संसार में हैं, इसका मुझे भब तक पता न था ।",नादिर उठ बैठा और गौर से देखने लगा कि ये कौन आदमी हैं ।,"ऐसी कुरूपा स्त्रियाँ भी संसार में हैं, इसका मुझे अब तक पता न था ।" जब तक इस घर में हो इस घर की हाति-लाभ का तुम्हें विचार ऋूरना पढ़ेगा,अगर तुम्हारे जीवन में कुछ सत्य है तो उसका उन पर प्रभाव पड़े बगैर नहीं रह सकता,जब तक इस घर में हो इस घर की हानि-लाभ का तुम्हें विचार करना पड़ेगा भगवान सबको बराबर दे बनाते हैं,यह सब मन को समझाने की बातें हैं,भगवान सबको बराबर बनाते हैं "अगर पद-त्याग कर देते, तो दूसरा आदमी आकर सरकारी आज्ञा का पालन करता ।",नैतिक रूप से तो उन पर कोई जिम्मेदारी न थी ।,"अगर पद-त्याग कर देते, तो दूसरा आदमी आकर सरकारी आज्ञा का पालन करता ।" उसकी छाया ओर फल को मोग करना वह अपना अधिकार समझती थी ।,घर में बिलकुल सन्नाटा था ।,उसकी छाया और उसके फ़ल का भोग करना वह अपना अधिकार समझती थी । यही समम्त छे कि तू इन्हें बठाई पर दे रद्दो है,कठोर मुद्रा से बोली-तुम्हारी मंशा है अपनी जमीन इनके नाम करा दूँ और मैं हवा खाऊँ यही तो- चौधरी ने हँसकर कहा-नहीं-नहीं जमीन तेरे ही नाम रहेगी पगली,यही समझ ले कि तू इन्हें बटाई पर दे रही है उस दिन सन्ध्या समय अमरकान्त उसके पास आया तो वह जलो बेठो थी,वह तरह-तरह के दु:स्वप्न देखती रहती थी इससे चित्ता और भी सशंकित रहता था,उस दिन सन्ध्या समय अमरकान्त उसके पास आया तो वह जली बैठी थी "इतना ही नहीं, वह वहीं बैठे-बेठे सिठाइयाँ भी खा लेते हैं ।",मुझे एक बार कठिन ज्वर में स्नानादि के बिना दवा पीनी पड़ी थी; उसका मुझे महीनों खेद रहा ।,"इतना ही नहीं, वह वहीं बैठे-बैठे मिठाइयाँ भी खा लेते हैं ।" कहने को तो प्रहतन था सगर करुणा से भराहुआ,केवल मिस्टर मेहता देखने गये और आदि से अंत तक जमे रहे,कहने को तो प्रहसन था मगर करुणा से भरा हुआ लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक नहीं है जो आपका ग्राहक न बन जाय,जिन्होंने धन और भोग-विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया वह क्या लिखेंगे,लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक नहीं है जो आपका ग्राहक न बन जाय आँखें उसकी ओर लगी हुई थीं ।,फिर लौटकर जाने में गाड़ी न मिलेगी और बडा भारी नुकसान हो जाएगा ।,आँखें उसकी ओर लगी हुई थीं । वहुत दिमाग लड़ाने पर मी सेतूराम पाठक का आशय उनकी समझ में न आया ।,सुन लिया होगा किसी का नाम ।,बहुत दिमाग लड़ाने पर भी सेतूराम पाठक का आशय उनकी समझ में न आया । "अपने घर चली गयी तो प्रछना ही क्या, किन्तु वहाँ वह कंदापि न गयी होगी ।",न मालूम वह कहाँ गई ।,"अपने घर चली गई तो पूछना ही क्या, किन्तु वहाँ वह कदापि न गई होगी ।" उसने सिगरेट की एक डिबिया मेंगवायी और वारनिश की एक बोतल मेँगाकर ताक पर रख दी और एक कुर्सी का एक पाया तोड़कर कुर्सी छज्जे पर दीवार के सहारे रुख दो ।,"जिस प्रकार अंधकार के बाद अरुण का उदय होते ही पक्षी कलरव करने लगते है और बछड़े किलोलों में मगन हो जाते है, उसी प्रकार सुमन के मन में क्रीड़ा करने की प्रबल इच्छा हुई ।",उसने सिगरेट की एक डिबिया मँगवाई ओर वारनिश की एक बोतल मूँगा कर ताक पर रख दी ओर एक कुर्सी का एक पाया तोड़कर कुर्सी छज्जे पर दीवार के सहारे रख दी । "जिस प्रकार कोई भ्रालसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुनकर जाग जाता है, किन्तु इधर-उधर देखकर फिर निद्रा में मन्‍नन हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्ण- चन्द्र क्रोध और ग्लानि का आ्रावेश शान्त होने पर अपने कर्तव्य को भूल गए ।",जो लोग समझते है कि वह किसी महात्मा के आशीर्वाद से कूद कर स्वर्ग में जा बेंढेंगे वह उन से अधिक हास्यास्पद नहीं है जो समझते है कि चोक से वेश्याओं को निकाल देने से भारत के सब दुख दारिद्रय मिट जाएँगे ओर एक नवीन सूर्य का उदय हो जाएगा ।,"जिस प्रकार कोई आलसी मनुष्य किसी के पुकारने की आवाज सुन कर जाग जाता है किन्तु इधर-उधर देख कर फिर निद्रा में मग्न हो जाता है, उसी प्रकार पंडित कृष्णचन्द्र क्रोध ओर ग्लानि का आवेग शांत होने पर अपने कर्तव्य को भूल गए ।" एक दिन जमुना किनारे सैर करने चला गया ।,बहुत होगा रोटी पड़ जायगी ।,एक दिन जमुना किनारे सैर करने चला गया । उसे नित्यग्रति खूब घलवाते भी थे ।,"कहीं नौकर उसे खराब चारा या गंदा पानी न खिला-पिला दें, इस आशंका से वह अपने हाथों से उसे खोलने-बाँधने लगे ।",उसे नित्यप्रति खूब धुलवाते भी थे । मुलिया ठट्टा मारकर हँसती हुई बोली--यह न होगा देवरजी |,अच्छे-अच्छे माल चुनकर कोतवाली पहुँचाता हूँ ।,"' मुलिया ठट्ठा मारकर हँसती हुई बोली, 'यह न होगा, देवरजी ।" "विद्या भी ऐसो नहीं कि कही मौकरी करते, परिवार को प्रतिष्ठा दान लेने में बाधक थी ।",वाणिज्य के लिए धन और बुद्धि की आवश्यकता थी ।,विद्या भी ऐसी नहीं थी कि कहीं नौकरी करते परिवार की प्रतिष्ठा दान लेने में बाधक थी । कई' दिन गुज़र गये थे ।,अवश्य ही इसका चित्त कुछ अव्यवस्थित है ।,कई दिन गुजर गये थे । मिल के द्वार पर कास्टेवलों का पहरा है ।,प्रातः काल का समय है ।,मिल के द्वार पर कांस्टेबलों का पहरा है । राजा--तुमसे एक वरदान मांगता हूँ ।,चम्पतराय-तुमने मेरा मतलब नहीं समझा ।,राजा-मैं तुमसे एक वरदान माँगता हूँ । इस गुण में भी ये हमसे बढ़े हुए हैं ।,"वेतन भी सबका बराबर है, लेकिन इनकी योग्यता को कोई नहीं पहुँचता ।",इस गुण में भी ये हमसे बढ़े हुए हैं । तुम खुद क्यों नहीं कर लेते १ में यह कह सकता हूँ कि उसके साथ तुम्द्ारी ज़िन्दगों जन्वत्‌ बन जायगी,यह तो मैं खुद नहीं समझ रहा हूँ,तुम खुद क्यों नहीं कर लेते- मैं यह कह सकता हूँ कि उसके साथ तुम्हारी जिंदगी जन्नत बन जाएगी "उनका अनुमान था कि क्रियाओं में स्वयं कोई शक्ति नहीं, अगर कुछ फल होता है, तो वह मूर्खों के दुर्बल मस्तिष्क के कारण ।","आपको इसलिए तकलीफ दी है कि अगर आपके पास कुछ रुपये हों, तो मुझे कर्ज के तौर पर दे दीजिए ।","उनका अनुमान था कि क्रियाओं में स्वयं कोई शक्ति नहीं, अगर कुछ फल होता है, तो वह मूर्खों के दुर्बल मस्तिष्क के कारण ।" युवकों का यही स्वभाव है ।,मन की इस दुर्बल अवस्था में जालपा अपने भार से अधिक भाग अपने ऊपर लेने लगी ।,युवकों का यही स्वभाव है । उसके मुख पर उद्यान था और भांखो' में गये ।,हरिधन का निरवलंबन मन यह आश्रय पाकर मानो तृप्त हो गया ।,उसके मुख पर उल्लास था और आँखों में गर्व । "जो अभी इतने निर्दयों हैं, वह कुछ अधिकार पा जाने पर वया न्याय करेंगे ?",प्रधान जी को मेरी बातों पर विश्वास ही नहीं आया ।,"जो अभी इतने निर्दयी हैं, वह कुछ अधिकार हो जाने पर न्याय करेंगे ?" यों कई बड़ी-बड़ी कोठियों से मेरा परिचय हैं; मगर आपके रहने से कुछ और ही बात होगी ।,मानो प्रभात की सुनहरी ज्योति उसके रोम-रोम में व्याप्त हो रही है ।,यों कई बडी-बडी कोठियों से मेरा परिचय है; मगर आपके रहने से कुछ और ही बात होगी । मुझे अब अनुभव हो रहा है कि ताल्लुकेदारों के अपने इलाके पर न रहने से प्रजा को कितना कष्ट होता है ।,राजा ने लज्जित होकर कहा-ऐसा ही एक जरूरी काम था ।,मुझे अब अनुभव हो रहा है कि ताल्लुकेदारों के अपने इलाके पर न रहने से प्रजा को कितना कष्ट होता है । "गोपा ने द्वाथ जोड़कर फद्दा--नहीं भेया, भूलकर भी न जाना ; सुन्वो सुनेगी तो प्राण ही दे देगी ।",मैंने गोपा को सांत्वना दी- मैं जाकर केदारनाथ से मिलूँगा ।,"गोपा ने हाथ जोड़कर कहा- नहीं, भूलकर भी न जाना; सुन्नी सुनेगी तो प्राण ही दे देगी ।" "ज्यॉ-ज्यों सम्य निकट भांता था, उसी इत्तियाँ (शथिल द्वोतो जातो थीं ।",उन्हें किसी-न-किसी काम में फॅंसाये रखो ।,"ज्यों-ज्यों समय निकट आता था, उसकी वृत्तियाँ शिथिल होती जातीं थीं ।" विचार तीज होकर मूतिमान हो जाता है ।,वह इस अपराध से दबे जाते थे ।,विचार तीव्र होकर मूर्तिमान हो जाता है । "उसने सकुचाते हुए सुभद्रा से कहा--गाड़ी रुकवा दीजिए, मेरा घर आ गया ।",कितनी सज्जनता है कि मुझे भीतर बिठा दिया और आप कोचवान के साथ जा बेठे! वह इन्हीं विचारों में मगन थी कि उसका घर आ गया ।,"उसने सकुचाते हुए सुभद्रा से कहा -- गाड़ी रुकवा दीजिए, मेरा घर आ गया ।" आज अभो मुद्द में पानो भो न गया था ।,संध्योपासना का समय इसी प्रतीक्षा में गया ।,आज अभी मुँह में पानी भी न गया । अमर ने ढाँट बताई--आप हरेक से पेशगी फ़ीस नहीं छेते,गरजते हुए बोले-हम इस वक्त नहीं जा सकता,अमर ने डाँट बताई-आप हरेक से पेशगी फीस नहीं लेते स्कूल से लौटकर अमंरकान्त नियमानुसार अपनी छोटी कोठरी में जाकर चरखे पर वेठ गया,दोनों के विचार अलग व्यवहार अलग संसार अलग,तीन स्कूल से लौटकर अमरकान्त नियमानुसार अपनी छोटी कोठरी में जाकर चरखे पर बैठ गया में नहीं कह सकता कि सूयप्रकाश की उन्नति देखकर मुझे कितना श्राश्रर्य- मय आनद हुआ |,अब वह व्यसन भी इस कठिन व्रत की भेंट हो गया ।,' मैं नहीं कह सकता कि सूर्यप्रकाश की उन्नति देखकर मुझे कितना आश्चर्यमय आनंद हुआ । "परन्तु इन निराशननक शकाओं के होने पर भी वह घोरे-घोरे आगे बढ़ा चला जाता था, जे कोई अनाय विधवा थाने में फ्ररियाद करने जा रही दो ।","खेत हैं, तो जमींदार के, उन पर अपना कोई काबू ही नहीं ।","परन्तु इन निराशाजनक शंकाओं के होने पर भी वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा चला जाता था, जैसे कोई अनाथ विधवा थाने फरियाद करने जा रही हो ।" यह कितनी अनोखी लेकिन यथाथ वात है कि सोए हुए मनुष्य को जगाने की अपेक्षा जागते हुए मनुष्य को जगाना कठिन है।,इसलिए उन्हें जगाने के लिए चिल्‍लाकर पुकारने की इतनी जरूरत नहीं थी जितनी किसी विशेष बात की ।,यह कितनी अनोखी लेकिन यथार्थ बात है कि सोए हुए मनुष्य को जगाने की अपेक्षा जागते हुए मनुष्य को जगाना कठिन है । “अजी ओर कुछ न सदी तमाशा तो रहेगा,बड़ा ही आचारनिष्ठ आदमी है,अजी और कुछ न सही तमाशा तो रहेगा "सम्भव था कि कालान्तर में यह अग्नि झाप-ही-भाप शान्त हो जाती, पर पद्मसिह के जलसे ने इस आग्ति को भड़का दिया ॥ इसके वाद मेरी जो दुर्गति हुईं, वह आप जानते ही हैं।",कभी अपने भावों को किसी से प्रकट नहीं किया ।,संभव था कि कालांतर में यह अग्नि आप ही आप शांत हो जाती पर पद्मसिंह के जलसे ने इस अग्नि को भड़का दिया । "हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था ।","अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा , कौन जाने , पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दाँतों पसीना आ गया ।","हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था ।" इतना तो आप जानते ही हैं कि संसार में सवकी प्रकृति एक-सी नहीं होती ।,आप अगर सुन सकें तो मैं अपनी रामकहानी सुनाऊँ ।,इतना तो आप जानते ही हैं कि संसार में सब की प्रकृति एक सी नहीं । "शर्मा--तव तो वह लोग घबराते होंगे; ऐसा ही था, तो किसी को साथ ले लेते ।","सदन - पूछा क्यों नहीं, लेकिन आप तो उन लोगों को जानते है, अम्माँ राजी न हुई ।","शर्मा -- तब तो वह लोग घबराते होंगे; ऐसा ही थी,तो किसी को साथ ले लेते ।" क्लार्क-तुम्हारे पापा जरूर ही नाराज हो जाते ।,क्लार्क-तुम नाराज न हो जातीं ?,क्लार्क-तुम्हारे पापा जरूर ही नाराज हो जाते । भवजान राघ्ते पर चलना कितना कष्ट-प्रद द्वोगा ।,"जाने हुए रास्ते से हम नि:शंक आँखें बन्द किये जाते हैं, उसके ऊँच-नीच, मोड़ और घुमाव सब हमारी आँखो में समाये हुए हैं ।",अनजान रास्ते पर चलना कितना कष्टप्रद होगा । "हे मुसलमान ने दाऊदपाऊ फो देखा, तो प्रवन्न-प्ुत्त उनके समोप जाकर बोला-- हाँ दजूर, वेचता हूँ ।","पूछा- क्यों जी, यह गऊ बेचते हो ?","मुसलमान ने दाऊदयाल को देखा तो प्रसन्नमुख उनके समीप जाकर बोला- हाँ हजूर, बेचता हूँ ।" "वह स्वाधीनता का देश है, वहाँ छोयों के विचार स्वाधीव हैं ।",अमेरिका में एक कटुवचन कहने पर सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है ।,"वह स्वाधीनता का देश है , वहाँ लोगों के विचार स्वाधीन हैं ।" एक अनिष्ठ के भय से श्रच्चाश रोने लगा ।,यह बातें प्रकाश को उस समय क्यों न नजर आयी ?,अनिष्ट के भय से प्रकाश रोने लगा । भगत उसके मन का भाव समझकर आश्वासन देते हुए बोलें--वस ।,कितने ही भाट और भिक्षुक भगत जी को घेरे हुए थे ।,भगत उसके मन का भाव समझ कर आश्वासन देते हुए बोले - बस । "चेहरे के नीचे पेट था और पेट के नीचे टाँगे, मानो किसी पीपे में दो मेखें गाड़ दी गई हों |","सिर के बाल झड़ गये थे और खोपड़ी ऐसी साफ-सुथरी निकल आई थी, जैसे ऊसर खेत ।","चेहरे के नीचे पेट था और पेट के नीचे टाँगें, मानो किसी पीपे में दो मेखें गाड़ दी गई हों ।" "अम्मों ने पूछा--कहों है कजाकी, जरा उस चुला तो लाओ |","अम्माँ जी, कजाकी की तरह कोई दुनिया भर में नहीं दौड़ सकता, इसी से तो देर हो गयी ।","अम्माँ ने पूछा-कहाँ है कजाकी, जरा उसे बुला तो लाओ ।" इस खयाल को सामने रखकर तो मैं इखराज की तहरीक पर एतराज करने की जुरअत कर सकता हूँ ।,तवायफों को शहर से खारिज कर देने से उनकी इसलाह नहीं हो सकती ।,इस खयाल को सामने रख दो तो में इखराज की तहरीक पर एतराज करने की जुरअत कर सकता हूँ । "मैं सहानुभूति की भूखो थी, वह मुझे मिल गई ।",आप लोगों को वृथा कष्ट नहीं देना चाहती ।,मैं सहानुभूति की भूखी थी वह मुझे मिल गई । अम्पतराय--तुमने मेरा मतलव नही समझा ।,मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि मरूँ तो यह मस्तक आपके पद-कमलों पर हो ।,चम्पतराय-तुमने मेरा मतलब नहीं समझा । "मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा भी उतर आवें, पर में न मानूँगी ।","तुम्हें क्या, तुम तो सहेलियों के साथ विहार करोगी, मेरी खबर तक न लोगी, और यहाँ मेरी जान पर बन आवेगी ।","मैंने आज पक्का इरादा कर लिया था कि चाहे ब्रह्मा भी उतर आएं, पर मैं न मानूंगी ।" जन्म-जन्मान्तर की संचित मर्यादा कम्बल लेकर ही आहत हो उठी थी ।,"रमा ने देखा कि बिना मांगे एक चीज़ मिल रही है, ज़बरदस्ती गले लगाई जा रही है, तो वह दो बार और नहीं - नहीं करके मुनीम के साथ अंदर चला गया ।",जन्म-जन्मांतर की संचित मर्यादा कंबल लेकर ही आहत हो उठी थी । कहीं प्रचम्रुच यह बीमारो हो तो बेचारी भग्वा कद्दीं की न रहे ।,गुलजारीलाल- यही तो मैं भी सोच रहा हूँ ।,कहीं सचमुच वह बीमारी हो तो बेचारी अम्बा कहीं की न रहे । "उस पर न पुलिस का जोर था, न अदालत का ।","समझते हैं, वह कोई ऋषि है ।","उस पर न पुलिस का जोर था, न अदालत का ।" न कोई भाचार न विधार उसो शोददे सलीम के साथ खाता-पीता है,यह सब उसी शान्तिकुमार का पाजीपन है,न कोई आचार न विचार उसी शोहदे सलीम के साथ खाता-पीता है तू इनमें से कोई एक ले ले ।,लेकिन देर न कर ।,तू इनमें से कोई एक ले ले । "इसका आशय क्या था, न में समझ सकी, न अम्माँ समझ सकीं ; पर वह बराबर यही रटे जाते थे -- पेट भक हो गया ! पेट भक हो गय्रा ! आओ कमरे में चलें ।",उस वक्त हंसी रोकनी मुश्किल हो जाती है ।,"इसका आशय क्या था, न मैं समझ सकी, न अम्मां समझ सकीं, पर वह बराबर यही रटे जाते थे,पेट भक हो गया! पेट भक हो गया! आओ कमरे में चलें ।" मुझे भ्रव यह नि३च्य हो गया है कि मेरे उसी जलसे ने सुमन- वाई को घर से निकाला !,उन दिनों मुझे न जाने क्या हो गया था ।,मुझे अब यह निश्चय हो गया है कि मेरे उसी जलसे ने सुमन बाई को घर से निकाला । तो हमें भी दिखा देना है. कि हम चाहे भूखो मरेगे ; मगर अन्याय न सहेंगे ।,सबकी सलाह है कि तुम एक बार मनीजर के पास जाकर दोटूक बातें कर लो ।,"तो हमें भी दिखा देना है कि हम चाहे भूखों मरेंगे, मगर अन्याय न सहेंगे ।" "कोई उनसे पूछे, हिलोर लय होते समय क्या चमक उठती है ?",इसकी रट लगा दी ।,"कोई उनसे पूछे, हिलोर लय होते समय क्या चमक उठती है ?" "सुने तुर्को ,के खूत के बहते दरिया में अपने धोंड़ों के सम नहीं भिगोये हैं, बल्कि हसलाम को जढ़ से खोदकर फेछ दिया दे ।","हाथ में पैसे हो जायँ, तो ले लेना ।","तूने तुर्कों के खून बहते दरिया में अपने घोड़ों के सुम नहीं भिगाये हैं, बल्कि इस्लाम को जड़ से खोदकर फेंक दिया है ।" तीमारदारों दो ८मी न थी,जिसे उन्होंने जीवन का मूल सत्य समझा था वह अब उतना दृढ़ न रह गया था,तीमारदारों की कमी न थी कल मेरी बड़ी लड़की को सुना-सुनाकर न जाने _ कौन कवित्त पढ़ रहे थे ।,लाज आती है मेरे घर वाले सुन ले तो सिर काटने पर उतारूँ हो जाएँ ।,कल मेरी बड़ी लड़की को सुना-सुना कर न जाने कौन कवित्त पढ़ रहे थे । "उघर उन्हीं के छोटे भाई शिवट्हल साधु-भक्त, धर्म-परायण और परोपकारी जीव थे ।",मुझे इतने आदर-सत्कार की कदापि आशा न थी ।,"उधर उन्हीं के छोटे भाई शिवटहल साधु-भक्त, धर्म-परायण और परोपकारी जीव थे ।" क्लार्क-क्या करती हो सोफी ?,हुक्म हुआ है कि एक सप्ताह तक कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए ।,क्लार्क-क्या करती हो सोफी ? "वही जंगल और पहाड़, जो कभी झापकों सुनसान और वीहड़ प्रतीत होते थे, वही नदियाँ और भोलें जिनके तट पर से आप आँखें वन्द किए निकल जाते थे, कुछ समय के पीछे एक अत्यन्त मनोरम, श्ान्तिमय रूप धारण करके स्मृतिनेन्नों के सामने आती हैं और फिर आप उन्हीं दृश्यों को देखने की श्राकांक्षा करने लगते हैं।",किसी आनन्द का अनुभव इतना सुखद नहीं होता जितना उसका स्मरण ।,"वही जंगल और पहाड़ जो कभी आप को सुनसान ओर बीहड़ प्रतीत होते थे, वह नदियाँ ओर झीलें जिन के तट से आप आँखें बन्द किए निकल जाते थे, कुछ समय के पीछे एक अत्यन्त मनोरम, शांतिमय रूप धारण करके आप के स्मृति नेत्रों के सामने आती है और फिर आप उन्हीं दृश्यों को देखने की आकांक्षा करने लगते है ।" हृदय से 'एक करुणात्मक ठडो आए निकलो ।,उस समय वे धैर्य और उत्साह के नशे में मस्त थे ।,हृदय से एक करुणात्मक ठंडी आह निकली । "यह कहकर अरब ने दाऊद का द्वाप पकड़ लिया, भर उप्ते घर में ले जाकर एक कोठरी में छिपा दिया ।",मैं भी उठकर खड़ा हो गया ।,"यह कहकर अरब ने दाऊद का हाथ पकड़ लिया, और उसे घर में ले जाकर एक कोठरी में छिपा दिया ।" "एक सज्जन ने कद्दा--साहब, मुझे! तो सब आम एक ही से मालूम होते हैं |",देवगढ़ में नये-नये और रंग-बिरंगे मनुष्य दिखायी देने लगे ।,"एक सज्जन ने कहा साहब, मुझे तो सब आम एक ही से मालूम होते हैं ।" "कोन भाने, बाहिम ' को मेरी यह गुएगुड़ी दी पतन्‍द आ जाय ।",यह निश्चय करके उसने हीरे को फर्शी में डाल दिया ।,"कौन जाने, जालिम को मेरी यह गुड़गुड़ी ही पसनद आ जाय ।" पर यहाँ सभी को कृत्रिमता के रंग में डूबा पाती हूं ।,रमेश तो रमते जोगी थे ही; खाना खाकर बात करते-करते सो गये ।,पर यहाँ सभी को कृत्रिमता के रंग में डूबा पाती हूँ । अम्माँ दिया-बत्ती कर रही थी ।,पहले उसका नामकरण संस्कार हुआ ।,अम्माँ दिया-बत्ती कर रही थीं । अबकी न बचूंगा ।,अपराधी मुस्कराहट उसके मुख पर रो पड़ी ।,अबकी न बचूंगा । "जिस समय जनता एक स्वर से कहेगी कि हम वेश्याझों को चौक में नहीं देखना चाहते, तो संसार में ऐसी कौन-सी शक्ति है, जो उसकी वात को अनसुनी कर सके ?",इस विषय में समाज को स्वच्छुंंद रखना चाहता हूँ ।,"जिस समय जनता एक स्वर से कहेगी कि हम वेश्याओं को चोक में नहीं देखना चाहते, तो संसार में ऐसी कौन-सी शक्ति है जो उसकी बात को अनसुनी कर सके ?" "कभी की चाहता था, अपता प्िर पीठ छू ।","जमाल जातीय गर्व से उन्मत्त होकर बोला- जब तक मिथ्या के भक्त रहेंगे, तब तक तलवार की जरूरत भी रहेगी ।","कभी जी चाहता था, अपना सिर पीट लूँ ।" कितने खूबसूरत खिलीने हैँ |,"औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके ।",कितने खूबसूरत खिलौने हैं । जेपे गुलियों पर वशोकरण ढाल देता हो ।,गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी ।,जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो । ज़रा-सा इजलास पर खड़े क्या हो जाते हैं गोया सारे संसार को उनकी उपासना करनी चाहिए,एक दिन अमरकान्त ने पठानिन को कचहरी में देखा,जरा-सा इजलास पर खड़े क्या हो जाते हैं गोया सारे संसार को उनकी उपासना करनी चाहिए कृष्णचन्द्र को बलि देकर बढ़ो-से-बढ़ो रिआायत भी उनकी निगाहों में हँच थी ।,"सिपाहियों की तरह औरतें भी कवायद करती हैं , बन्दूक चलाती हैं , मैदानों में खेलती हैं ।",कृष्णचन्द्र की बलि देकर बड़ी-से-बड़ी रियासत भी उनके निगाहों में हेय थी । कुवाप्तताओं में ऐपा लिप्त हो गया कि मादाने कमरे में दो अमधघटे होने लगे ।,"इतना ही नहीं, वह दिल में मनाता था कि वह मर जाती तो गला छूटता, अबकी खूब देख-भालकर अपनी पसनद का विवाह करता ।",कुवासनाओं में ऐसा लिप्त हो गया कि मरदाने कमरे में ही जमघट होने लगे । पृथ्री्तिह दुर्गकुबरि के लिए एक अजुयावी कटार छाये है. ।,रात-दिन मंजिल काटते चले आते हैं न थकावट मालूम होती है न माँदगी ।,पृथ्वीसिंह दुर्गाकुँवरि के लिए एक अफगानी कटार लाये हैं । रुपये कब मिलेंगे ?,"फिर बोला-'सरकार, है तो घाटा ही, पर आपकी बात नहीं टालते बनती ।",रूपये कब मिलेंगे ? अंधेरा हो गया ।,"मालूम होता था, बरसों का रोगी है ।",अँधेरा हो गया । "सुमन--रात को कौन देखता है, चुपके से निकल जाइएगा ।",अब घर तक पहुँचना मुश्किल है ।,"सुमन -- रात को कौन देखता है, चुपके से निकल जाइएगा ?" प्नब आ गए तो किसी मदरसे में नाम लिखागो ।,"खेर, अच्छा हुआ; मेरा जी भी तुम्हें देखने को लगा था ।",अब आ गए तो किसी मदरसे में नाम लिखाओ । ' “5मेशा के लिए ।,फिर इस उमर में अब उन्हें नौकर ही कौन रखेगा ।,'हमेशा के लिए । वह एक नये स्वर्ग की कल्पना करने लगतो-- एक नये आनन्द का स्वप्न देखने लूगती,मेघ का वह अल्पांश जो आज एक साल हुए उसके हृदय-आकाश में पंक्षी की भाँति उड़ता हुआ आ गया था धीरे-धीरे संपूर्ण आकाश पर छा गया था,वह एक नए स्वर्ग की कल्पना करने लगती-एक नए आनंद का स्वप्न देखने लगती उसकी विनयशीलता से उन्होंने समझ लिया था कि मेरी नजर-भेंट ने अपना काम कर दिखाया ।,शायद आज से उसके दिल से मेरा सम्मान उठ गया ।,उसकी विनयशीलता से उन्होंने समझ लिया था कि मेरी नजर-भेंट ने अपना काम कर दिखाया । सलोम ने पूछा--जो चीजु खाने की थी वद्द तो आपने निक्रालग्र रख दो,अमर ने बहस को तूल देना उचित न समझा क्योंकि बहस में वह बहुत गर्म हो जाया करता था,सलीम ने पूछा-जो चीज खाने की थी वह तो तुमने निकालकर रख दी इन सब भमेलों में क्‍यों व्यर्थ पड़ते हो ?,चैन से जीवन व्यतीत करो ।,इन सब झमेलों में क्यों व्यर्थ पड़ते हो ? "बस, यही कहने आया था ।",सब कुछ क्षमा करना ।,"बस, यही कहने आया था ।" यह अपमान मेरे सहे न सहा जाएगा ।,"यद्यपि वह उससे बहन का-सा बर्ताव करती थी, उसकी योग्यता का आदर करती थी, उससे प्रेम करती थी, किंतु दिल में उसे अपने से नीचा समझती थी ।",यह अपमान मेरे सहे न सहा जाएगा । छहकों ने भो उसे खूब नचाया-छुदाया ।,कहीं बीमार पड़ जायें तो लेने के देने पड़ें ।,लड़कों ने भी उसे खूब नचाया-कुदाया । "यद्यपि वह बाजी मारकर आये थे, पर मुख पर विजय-गर्व की जगह खिसियानापन छाया हुआ था ।","हाँ, मुफ्त की पीने में इनकार नहीं ।","यद्यपि वह बाजी मार कर आये थे, मुख पर विजय गर्व की जगह खिसियानापन छाया हुआ था ।" मेरा तुम्हारा क्या साथ,थोड़ी देर तक दोनों भावों से भरे भूमि की ओर ताकते रहे,मेरा तुम्हारा क्या साथ "कुबर साहव समझ गये कि इस वाद-वियाद से रामेंद्र ओर भी जिद पकड़ लेंगे, और मुख्य विषय लुप्त हो जायगा , इसलिये नम्न स्वर में बोले--- लेकिन बेटा, यह क्यों ख्याल करते द्वो कि एक ऊँचे दरजे की पढ़ी लिखी स््री दुसरों के प्रभाव में आ जायगो, अपना प्रभाव न डालेगी ! |","बोले, 'मैं यह कभी पसंद न करूँगा कि कोई बाजारी औरत किसी भेष में मेरे घर आये ।","कुँवर साहब समझ गये कि इस वाद-विवाद से रामेन्द्र और भी जिद पकड़ लेंगे और मुख्य विषय लुप्त हो जायगा, इसलिए नम्र स्वर में बोले, 'लेकिन बेटा, यह क्यों ख्याल करते हो कि ऊँचे दरजे की पढ़ी-लिखी स्त्री दूसरों के प्रभाव में आ जायगी, अपना प्रभाव न डालेगी ?" बातें बनाने की उनको आदत नहीं,ज्योंही अंधेरा हो गया मैं स्टेशन जा पहुंची,बातें बनाने की उनकी आदत नहीं "जब किसी बात का उपाय मेरे पास नहीं, तो इस सुआमले के पीछे क्‍यों अपनी ज़िन्दगी खराब करू ।",मैं क्यों उसके पीछे गली-गली ठोकरें खाऊँ ।,"जब किसी बात का उपाय मेरे पास नहीं , तो इस मुआमले के पीछे क्यों अपनी जिन्दगी खराब करूँ ?" मुन्नी ने कछसा ज़मीन पर रख दिया और बोली--में तुमसे बातों में न जीतूँगी लाला लेकिन तुम न थे तब में बढ़े आनंद से थी,मैंने तो रो-रोकर तुम्हें दिक ही किया है,मुन्नी ने कलसा जमीन पर रख दिया और बोली-मैं तुमसे बातों में न जीतूँगी लाला लेकिन तुम न थे तब मैं बड़े आनंद से थी तालाब की ओर पहुँचा ।,बदहवास होकर बाबा को खोजने लगा ।,तालाब की ओर पहुँचा । "हाँ, मुके उसपर दया प्रवश्य आती थी और अपने व्यवद्यार से में यह दिखाना चाहता था कि मेरी दृष्टि में उसका आदर अन्य चपरासियों से कम नहीं ।","यही प्रेरणा थी कि जिसने कठिन से कठिन परीक्षाओं में भी मेरा बेड़ा पार लगाया; नहीं तो मैं आज भी वही मंदबुद्धि सूर्यप्रकाश हूँ, जिसकी सूरत से आप चिढ़ते थे ।","हाँ, मुझे उस पर दया अवश्य आती थी, और आपने व्यवहार से मैं यह दिखाना चाहता था कि मेरी दृष्टि में उसका आदर चपरासियों से कम नहीं ।" यहाँ अभी तक वही चहल-पहल थी ; मगर रमा उसी जदन्नाठे से मोटर लिये जाता था |,"सारा वृत्तांत समाचार-पत्रों में छपवा दूँगा, तब तो सबकी आँखें खुलेंगी ।","यहाँ अभी तक वही चहल-पहल थी,, मगर रमा उसी ज़न्नाटे से मोटर लिये जाता था ।" "युवक क्ृष्णचन्द्र ने कहा -आप लोग तेयार हैं, ?",दोनों तरफ से तैयारी हो गयी है ।,"युवक कृष्णचन्द्र ने कहा, आप लोग तैयार हैं ?" में अपनी ही तरफ़ से वेफ़िक नहीं हूँ तुम्दारी तरफ़ से भी बेफ़िक ह,तुम्हारी बदनामी के सिवा मुझे अपनी बदनामी का भी खौफ था पर अब मुझे जरा भी खौफ नहीं है,मैं अपनी ही तरफ से बेफिक्र नहीं हूँ तुम्हारी तरफ से भी बेफिक्र हूँ "लड़की जब ठक मेक्के में बवाँरी रहती है, वह अपने को उसी घर का सममती है ; झेकित जिस दिन ससुराल चली जाती है, वह अपने घर को दूसरों का घर समझने लगती है ।","इसके लिए स्वाधीनता के भावों का दमन करना जरूरी है; अगर कोई मजिस्ट्रेट इस नीति के विरूद्ध काम करता है, तो वह मजिस्ट्रेट न रहेगा ।","लड़की जब तक मैके में क्वाँरी रहती है, वह अपने को उसी घर की समझती है, लेकिन जिस दिन ससुराल चली जाती है, वह अपने घर को दूसरों का घर समझने लगती है ।" "खेर, मेने तीसरा पत्र खोला--- “तीसरा पत्र प्रियतम, अव मुझे माछम हो गया कि मेरी ज़िन्दगी निरुद्देश्य है ।","मैं तो समझता हूँ , कुसुम नहीं, उसका अभागा पति ही दया के योग्य है , जो कुसुम-जैसी स्त्री की कद्र नहीं कर सकता ।","खैर , मैंने तीसरा पत्र खोला प्रियतम ! अब मुझे मालूम हो गया कि मेरी जिन्दगी निरुद्देश्य है ।" "खैरियत इसी मे है कि इन्हे छोड़ दीजिए, ।","ज्यों ही स्त्री दरवाज़े की तरफ चली और काज़ी साहब ने उसका हाथ पकड़कर खींचा, जामिद ने तुरन्त दरवाज़ा खोल दिया और काज़ी साहब से बोला-- इन्हें छोड़ दीजिए ।",ख़ैरियत इसी में है इन्हें छोड़ दीजिए । सूरदास-तुम्हारे चोर का पता मिल गया ।,एक बच्चा भी उसे मार गिराएगा ।,सूरदास-तुम्हारे चोर का पता मिल गया । ओर भी छूटा साँड़ हो गया ।,आखिर इस टालमटोल की कोई हद भी है ।,और भी छूटा साँड़ हो गया । "वह उधर बाजार को तरफ्र चला, इधर पण्डितजी ने खाँचे पर 'निगाह दौद़ाई, तो बहुत इताश हुए ।",किसी की नीयत सदा ठीक नहीं रहती ।,"वह उधर बाजार की तरफ चला, इधर पण्डितजी ने खोंचे पर निगाह दौड़ायी, तो बहुत हताश हुए ।" "कावसजी को यश के साथ घन दरबीन से देखने पर भी न दिखाई देता था , इसलिए जापूरजी के जीवन में शाति थी, सहृदयता थी, आशाघाद था, क्रोड़ा थी ।",पल्भर जैसे निस्संज्ञ खड़ा रहा फिर बडी तेजी से अपनी झोपड़ी की ओर चला ।,"कावसजी को यश के साथ धन दूरबीन से देखने पर भी दिखायी न देता था ; इसलिए शापूरजी के जीवन में शान्ति थी , सह्रदयता थी , आशीर्वाद था , क्रीड़ा थी ।" सौदागर ने अभो कुछ जवाब न दिया था कि पीछे से पडित और उनके दोनो लिफ्मतगार भी आ पहुँचे ।,तीनों इस तरह इधर-उधर ताक रहे थे मानो किसी को खोज रहे हों ।,सौदागर ने अभी कुछ जवाब न दिया था कि पीछे से पंडित और उनके दोनों खिदमतगार भी आ पहुँचे । सहमी हुई आँखों से सिपाहियों को देखा ।,शब्द-विन्यास की तो आप रानी हैं ।,सहमी हुई आँखों से सिपाहियों को देखा । भगवान्‌ सातवें दान्रु के घर भी तेंतर छा जन्‍म न दें ।,"किंतु पण्डितजी इतने सूक्ष्मदर्शी, इतने कुशाग्रबुद्धि न थे ।",भगवान् सातवें शत्रु के घर भी तेंतर का जन्म न दें । "मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था, वह किसी से विवाह न करेगी ।",जॉन सेवक-तुम्हारी समझ का फर्क था ।,"मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था, वह किसी से विवाह न करेगी ।" मैं इतनी उदार नहीं ।,मन की गति तो विचित्र है ।,मैं इतनी उदार नहीं । "काउ्य, अलंकार, उपन्यास सभी को त्याज्य समझते ।",हास-परिहास से कोसों भागते और उनसे प्रेम की चर्चा करना तो मानो बच्चे को जूजू से डराना था ।,काव्य अलंकार उपन्यास सभी को त्याज्य समझते थे । द्स बजे जब मदरसा लगा और मुशी भवानीसहाय ने बाग की यह दुदशा देखी तो क्रोध से आग हो गये ।,"बाजबहादुर-हमने कह दिया कि चुगली न खायँगे लेकिन मुंशीजी ने पूछा, तो झूठ भी न बोलेंगे ।",दस बजे जब मदरसा लगा और मुंशी भवानीसहाय ने बाग की यह दुर्दशा देखी तो क्रोध से आग हो गए । ये जड़ाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयों पर कितने खिलेंगे ।,"उंह, बनेंगे-बनेंगे, नहीं कौन कोई गहनों के बिना मरा जाता है ।",ये जडाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयों पर कितने खिलेंगे । पहले तो देह का अतर था ।,"' मुलिया ने घृणा से उसकी ओर देखकर कहा, 'भैया नहीं रहे, तो क्या हुआ; भैया की याद तो है, उनका प्रेम तो है, उनकी सूरत तो दिल में है, उनकी बातें तो कानों में हैं ।",पहले तो देह का अन्तर था । शायद दो-चार साल के लिए सरकार की मेहमानी खानी पड़े ।,कोई ग्रह सिर पर सवार था ।,शायद दो-चार साल के लिए सरकार की मेहमानी खानी पड़े । शायद मेरे मरने से लोगों को खुशी होगी ।,सोचने लगी-मेरी स्वार्थ-सेवा का यही उचित दंड है ।,शायद मेरे मरने से लोगों को खुशी होगी । "मूठ फेरना साँप के बिल में हाथ डालना है, आग में कूदना है ।",मूठ फेरना हँसी नहीं है ।,"मूठ फेरना साँप के बिल में हाथ डालना है, आग में कूदना है ।" यह कहते-कहते छर्माजी की आँखें सजल हो गईं ।,मैं शरम के मारे भाई साहब को मुँह न दिखा सकूँगा ?,यह कहते-कहते शर्माजी की आँखें सजल हो गईं । हीरा ने तिरस्कार किया--गिरे हुए बेरी पर सींग न चलाता चाहिए ।,दोनों मित्र जीत के नशे में झूमते चले जाते थे ।,हीरा ने तिरस्कार किया- ‘ गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिए । आपके पास घड़ी भर बैठकर मैं भी आदमीयत सीख जाऊंँगी ।,"मैंने कहा, 'मैं मुंगेर की रहने वाली हूँ और वहाँ मुसलमानी औरतों के साथ बहुत मिलती-जुलती रही हूँ ।",आपके साथ घड़ी भर बैठकर मैं भी आदमीयत सीख जाऊँगी । उसका द्ृदय अधीर हो रहा था |,"वायसराय की निगाह जरा तिरछी हो जाय, तो कोई पास न फटके ।",उसका हृदय अधीर हो रहा था । "एक बूढा खुर्रट, जिसका पेशा हिमालय कौ परियाँ को फेंसाकर राजाओं को लूटना था, और जो इसी पेशे की बद्देलत: राज-दरबारों में पुजता था, इस विभाग का अध्यक्ष बना दिया गया ।","सेठजी ने उसे गले लगाते हुए कहा, ‘भगवान् तुम्हारी रक्षा करेंगे ।","एक बूढ़ा खुर्राट , जिसका पेशा हिमालय की परियों को फँसाकर राजाओं को लूटना था और जो इसी पेशे की बदौलत राजदरबारों में पूजा जाता था , इस विभाग का अधयक्ष बना दिया गया ।" इस वक्त तो वह इस वादे को धोखा साबित दरने को चेटा करते थे और यद्यपि जनता उनके द्वाथ में न थो पर कुछ-न-कुछ आदमी उनको पातें उन द्वी लेते थे,संध्या समय वह गाँव में पहुंचा तो कितने ही उत्सुक किंतु अविश्वास से भरे नेत्रों ने उसका स्वागत किया,इस वक्त तो वह इस वादे को धोखा साबित करने की चेष्टा करते थे और यद्यपि जनता उनके हाथ में न थी पर कुछ-न-कुछ आदमी उनकी बातें सुन ही लेते थे ठम सीघे-सादे आदमी हो ।,मुंशी- ऐसा तो मैंने मर्द ही नहीं देखा जो एक बार इसके चंगुल में फँस कर निकल जाय ।,तुम सीधे-सादे आदमी हो । अ्ेगरेजो पर उनका असीम विश्वास था ।,भोजन भी प्रायः अँग्रेजी ही करते थे ।,अँग्रेजों पर उनका असीम विश्वास था । "गजाधर---चली जा मेरे घर से राँड़, कोसती है ।","सुमन -- तुम मुझे मिथ्या पाप लगाते हो, ईश्वर तुमसे समझेंगे ।","गजाधर -- चली जा मेरे घर से राँड, कोसती है ।" तेमर लड़ने नहों सुरूह करने जाया है |,"तैमूर अगर तलवार से काम लेना चाहता है, तो उसका जवाब तलवार से दिया जायगा ।",तैमूर लड़ने नहीं सुलह करने आया है । "बार वादे किये, दोनों बार झूठा पड़ा ।",बोला- यहाँ का हाल तो देख रहे हो न ?,"दो बार वादे किये, दोनों बार झूठा पड़ा ।" "उत्तका सातृत्व जो पिंजरे में बन्द, सूछ, निशचेष्ट पढ़ा हुआ था, समीप से आनेवाली मातृत्व को चद्कार सुनकर जेप्ते जाग पढ़ा और चिन्ताओं के उप्र पिंजरे से निकलने के लिए पख फहफड़ाने लगा ।",मुझे महात्मा जी का चेला समझकर मेरा बड़ा लिहाज करता था; पर मुझसे कुछ पूछते संकोच करता था ।,"उसका मातृत्व जो पिंजरे में बन्द, मूक, निश्चेष्ट पड़ा हुआ था, समीप से आनेवाली मातृत्व की चहकार सुनकर जैसे जाग पड़ा और चिन्ताओं के उस पिंजरे से निकलने के लिए पंख फड़फड़ाने लगा ।" अमरकान्त में उहण्डता व थी पर इस समय वह सछाकर बोला--मुझे ऐसे कमीने आदमियों की परवाद्द नहीं है,मैं तुमसे बदगुमानी नहीं करता लेकिन वहाँ बहुत आमदोरर्ति न रखना नहीं बदनाम हो जाओगे,अमरकान्त में उद़डंता न थी पर इस समय वह झल्लाकर बोला-मुझे ऐसे कमीने आदमियों की परवाह नहीं है बुढ़िया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली ।,जब अपने ही अपने न हुए तो बेगाने तो बेगाने हैं ही!' वह चला गया ।,बुढिया भी पीछे-पीछे भुनभुनाती चली । समय सफल चोर का सबसे बडा मित्र है ।,इसी भय से उसने बाजार में खूब देर की थी ।,समय सफल चोर का सबसे बड़ा मित्र है । "उस दिन मैंने कितना ज़ोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है/तुम भूल गये ।",पत्र लिखकर जालपा को दे दूँगा और बाहर के कमरे में आ बैठूंगा ।,"उस दिन मैंने कितना जोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है तुम भूल गए ।" "मेरो उम्र आठ साल थी, हलधर ( वह अब स्वर्ग में निवास कर रहे हैं ) मुझसे दो साल जेठे थे |","गरम पनुए रस में जो मजा था, वह अब गुलाब के शर्बत में भी नहीं; चबेने और कच्चे बेरों में जो रस था, वह अब अंगूर और खीरमोहन में भी नहीं मिलता ।","मेरी उम्र आठ साल थी, हलधर (वह अब स्वर्ग में निवास कर रहे हैं) मुझसे दो साल जेठ थे ।" वह पवित्तर है |,महुए के पत्ते तोड़कर एक पत्तल बना लूँ तो ठीक हो जाय ।,वह पवित्तर है । जब हाथ-पैर घोकर आशा-भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा तब वह उसे क्‍या खाने को देगी ?,पति दिन भर का थका-माँदा घर आया है ।,"जब हाथ-पैर धोकर आशा-भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा, तब वह उसे क्या खाने को देगी ?" उनझ् मुख पर विपाद की रेखा मलझ रही थी भर भोठ इप्त त्तरद्द फडक रहे थे मानो मन का शावेश पाहर निकलने के लिए विकल हो रहा द्ो,आज नौजवान-सभा के दस-बारह युवकों को तैनात कर आया हूँ नहीं इसकी चौथाई हड़ताल भी न होती,उनके मुख पर विषाद की रेखा झलक रही थी और होंठ इस तरह गड़क रहे थे मानो मन का आवेश बाहर निकलने के लिए विकल हो रहा हो इस मुइल्ले के दूसरे सिरे पर बड़े साहब का एक अरदली रहता था ।,पत्नी की स्मृति दाम्पत्य-सुख के रूप में विलीन होने लगी ।,इस मुहल्ले के दूसरे सिरे पर बड़े साहब का एक अरदली रहता था । "अगर मुझे इसका विश्वास न होता, तो मैं ज़िक्र ही न करता ।","गहनों से तो बुड्ढे नई बीवियों का दिल खुश किया करते हैं, उन बेचारों के पास गहनों के सिवा होता ही क्या है ।","अगर मुझे इसका विश्वास न होता, तो मैं जिक्र ही न करता ।" बुद्धू का घर भी बढ़ने लूगा ।,मुये ने गले से निकाल लिया ।,बुद्धू का घर भी बढ़ने लगा । यह लोग तीन दिन अ्रयोध्या रहे |,रेलगाड़ी की रगड़-झगड़ और चिकित्सालय की नोच-खसोट के सम्मुख कृपाशंकर की सहृदयता और शालीनता प्रकाशमय दिखायी देती थी ।,यह लोग तीन दिन अयोध्या रहे । जालपा उससे इन जमघटों की रोज़ चर्चा करती ।,रमा आदर्श पति था ।,जालपा उससे इन जमघटों की रोज़ चर्चा करती । पर वहाँ पहुंचे तो दूकानें बन्द दो चुकी थीं ।,पुराने जमाने का पक्का मसाला था; कुल्हाड़ी उचट-उचट कर लौट आती थी ।,पर वहाँ पहुँचे तो दूकानें बन्द हो चुकी थीं । शाम्र फो खेलने की छुट्टो मिरेगी ।,"मेम.- तेरा जी चाहे न बनना, कोई जबरदस्ती थोड़े ही बना देगा ।",शाम को खेलने को छुट्टी मिलेगी । उसकी द्वार्दिक इच्छा दोती है छि छोड संकट पढ़ने पर उसके संगे-सम्बन्धी आूर उसे घेर लें,यहाँ लोग बातें कर रहे थे कि लाला धानीराम खाँसते लाठी टेकते हुए आकर बैठ गए,उसकी हार्दिक इच्छा होती है कि कोई संकट पड़ने पर उसके सगे-संबंधी आकर उसे घेर लें इसके साथ ही मुर्के आ्राज मालूम हुआ कि पशु भी अपने स्वत्व की रक्षा किस प्रकार कर सकता है ।,मीर साहब इतवार को कचहरी न जाते थे ।,इसके साथ ही मुझे आज मालूम हुआ कि पशु भी अपने स्वत्व की रक्षा किस प्रकार कर सकता है । अब सब-के-सब एक जगह खड़े हो गए थे ।,अब तक लोग अपने माल और असबाब समेटने में लगे हुए थे ।,अब सब-के-सब एक जगह खड़े हो गए थे । "भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने बहाना कर दिया कि मेरा जी अच्छा नहीं है ।",चिक की आड़ में अब उन्हें कोई न दिखाई देता था ।,"भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने बहाना कर दिया कि मेरा जी अच्छा नहीं है ।" रमेश यह अन्येर देखकर चुप रहनेवाला मनुष्य न था ।,यशवंत अपने पुराने मित्र के लेखों को पढ़-पढ़कर काँप उठते थे ।,रमेश यह अँधेर देखकर चुप बैठनेवाला मनुष्य न था । पूछा--आज दिया नहीं जलाया अम्मा १ सकीना बोलो--भम्माँ तो एक जगह सिलाई का काम लेने गई हैं,दूसरे दिन अमरकान्त ने दूकान बढ़ाकर जेब में पाँच रुपये रखे पठानिन के घर पहुँचा और आवाज दी,पूछा-आज दिया नहीं जलाया अम्माँ- सकीना बोली-अम्माँ तो एक जगह सिलाई का काम लेने गई हैं यह जवानी बहुत दिन न रहेगी ।,सिर चक्कर खा रहा था ।,यह जवानी बहुत दिन न रहेगी । "अधिकारी-वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील- मुख्तार उनके आश्वापालक और श्ररदली, चपरासी, तथा चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे |",किन्तु अदालत में पहुँचने की देर थी ।,"अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञा पालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे ।" अतिरुद्धसिह धीर रागपूत था ।,इतने में पंडित देवदत्त नंगे सिर नंगे बदन लाल आँखें डरावनी सूरत कागज का एक पुलिंदा लिये दौड़ते हुए आये और औषधालय के द्वार पर इतने जोर से हाँक लगाने लगे कि वैद्य जी चौंक पड़े और कहार को पुकार कर बोले कि दरवाजा खोल दे ।,अनिरुद्धसिंह वीर राजपूत था । उसे ब्राह्मणी पर कुछ क्ोध-सा आ रहा था कि यह क्यों मेरे गले का हार हुईं ।,उस अलौकिक भक्ति के सामने उसके जीवन का क्या मूल्य था ?,उसे ब्राह्मणी पर कुछ क्रोध-सा आ रहा था कि यह क्यों मेरे गले का हार हुई ? क्‍या रतन उनका जीवन सुखी न बना सकती थी ?,' 'मैं तुम्हारा दिल दुखाने के लिए नहीं कहती ।,क्या रतन उनका जीवन सुखी न बना सकती थी ? फिर भी पाप छा भय प्रत्येक हृदय में है ।,"हत्यारे ने आग लगा ही दी, और मेरे पीछे सारे गाँव को चौपट किया ।",फिर भी पाप का भय प्रत्येक हृदय में है । गाँव भर को ख्रियाँ उसे देखने आई ।,उधर अनूपा के मैकेवाले एक जगह बातचीत पक्की कर रहे थे ।,गाँव-भर की स्त्रियाँ उसे देखने आयीं । रजिस्टर पटक दिया और लड़ने पर उतारू हो गए।,क्रोध से शरीर जल उठा ।,रजिस्टर पटक दिया ओर लड़ने पर उतारू हो गए । मद्ल्ले छी दस-पाँच कन्याएं पढ़ने के लिए बुला लो जाये ।,"आपने समाचार-पत्रों में देखा होगा, कुछ लोगों की सलाह है कि विधवाओं से अध्यापकों का काम लेना चाहिए ।",मुहल्ले की दस-पाँच कन्याएँ पढ़ने के लिए बुला ली जायें । "मैं सबेरे उनके दशन करने जाऊँगी, शायद मुझे देखकर उनका दिल पिचल जाय |","उन्हें मेरी मौत मंजूर है; लेकिन तुम मेरे ह्रदय की रानी बनो, यह मंजूर नहीं ।","मैं सबेरे उनके दर्शन करने जाऊँगी, शायद मुझे देखकर उनका दिल पिघल जाय ।" "उसछा हृदय बेठा जाता था, मार्नों नदी में डूबने जा रद्दी दो |","अबकी भी बहुत से सींग , सिर, पंजे, खालें जमा कर रखी थीं ।","उसका हृदय बैठा जाता था, मानों नदी में डुबने जा रही हो ।" बुलाकी--क्रोधी तो सदा के हैं |,"दिन भर चाहे जितना काम कर लूँ, पर रात को मुझसे नहीं उठा जाता ।","बुलाकी , क्रोधी तो सदा के हैं ।" चन्दे से होने दीजिए,उन्हें यों बाजी मारते देखकर और लोग भी गरमाए,चंदे से होने दीजिए ब्राह्मण देबता का भी उसद्ा प्रायरिचत कराने में उत्घाण होता पा ।,"मैं लाख कहूँ, मैंने बछिया नहीं बाँधी, मानेगा कौन ?",ब्राह्मण देवता का भी उसका प्रायश्चित्त कराने में कल्याण होता था । कम-से-कम् तुमको यह अधिकार नहीं है,मुझे तो तुम्हारी ही ज्यादती मालूम होती थी,कम-से-कम तुमको यह अधिकार नहीं है गरीबों का गला कौटना दूसरी बात है,पहना दो मेरे हाथ में हथकड़ियाँ,गरीबों का गला काटना दूसरी बात है हाय-हाय करने पे कुछ द्वोने का नहीं,हड़ताल दस-पाँच दिन चली तो हमारा रोजगार मिट्टी में मिल जाएगा,हाय-हाय करने से कुछ होने को नहीं "पद्मा ने दीन भाव से कहा--मेंने तो ऐसो कोई वात नहीं कही, जो तुम इतना विग्रढ़ उठे ।",प्रसाद अपना ट्रक सँभाल रहा था ।,"पद्मा ने दीन-भाव से कहा , ‘ मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं कही , जो तुम इतना बिगड़ उठे ।" प्रधान--बर कुछ नहीं तो उम्हें नियम का पालन रे ही के लिए प्रतिज्ञ-्पक्त पर हस्ताक्षर कर देना णाहिए पा ।,आज जिले के सारे हाकिम उनके खून के प्यासे हो रहे हैं ।,प्रधान-और कुछ नहीं तो उन्हें नियम का पालन करने ही के लिए प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर कर देना चाहिए था । आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं,अच्छे कामों के लिए भी सहयोग उतना ही जरूरी है,आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं "सुमन भ्रभी तक करवर्टे बदल रही थी, उसका मन बलातू सदन की झोर खिंचता था ।",रात के तीन बजे थे ।,"सुमन अभी तक करबवटें बदल रही थी, उस का मन बलात सदन की ओर खिंचता था ।" सामने चला जाऊँ तो पहचानेंगे भी नहों,एकाएक उन्हें ऐसा जान पड़ा कि उनके मुँह से एक अनुचित बात निकल गई है,सामने चला जाऊँ तो पहचानेंगे नहीं रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दूकान पर वठता ; पर बिक्री अच्छी हो जाती थी ।,जैसे दो चिडियां प्रभात की अपूर्व शोभा से मग्न होकर चहक रही हों ।,"रात को भी अधिकतर देवीदीन ही दुकान पर बैठता,पर बिक्री अच्छी हो जाती थी ।" "ऐसी सूरत बना ली कि वह क्‍या, कोई भी न भाँप सकता था ।",इस शक्ल में मैं वहाँ पहुँची ।,"ऐसी सूरत बना ली कि वह क्या, कोई भी न भांप सकता था ।" "उसमें स्वार्थ का भाव न था, केवल अपनेपन का गर्व था, वही ममता थी ; पर पति की आँखें बन्द होते ही उसके पाले और गोद के खेलाये बालक भी उसकी गोद से छीन लिये गये ।","उसे इस जायदाद के खरीदने में, उसके संवारने और सजाने में वही आनंद आता था, जो माता अपनी संतान को फलते-फलते देखकर पाती है ।","उसमें स्वार्थ का भाव न था, केवल अपनेपन का गर्व था, वही ममता थी, पर पति की आँखें बंद होते ही उसके पाले और गोद के खेलाए बालक भी उसकी गोद से छीन लिए गए ।" "साफ-साफ़ बताओ, तुम झब तक कहाँ रहीं ?",गजाधर -- अब यह धाँधली एक न चलेगी ।,"साफ-साफ बताओ, तुम अब तक कहाँ रही ?" "गंगाजी अगर धर से दूर हों और वह रोज स्नान करके दोपहर तक घर न लीड सकता हो, तो पर्बो के दिन तो उसे श्रवश्य ही नहाना चाहिए ।","घमंड तो छू नहीं गया, अपने हाथ से पत्तल उठाता फिरता था, कुल का नाम जगा दिया ।","गंगा जी अगर घर से दूर हों और वह रोज स्नान करके दोपहर तक घर न लौट सकता हो, तो पर्वों के दिन तो उसे अवश्य ही नहाना चाहिए ।" कई मिनट के बाद उन्होंने फिर आँखें खोलीं ओर इधर-उधर खोयी हुई आँखों से देखा ।,उसे ख़याल आया कि जिस ताक पर रमानाथ की बिसात और मुहरे रक्खे हुए हैं उस पर एक किताब में कई नक्शे भी दिए हुए हैं ।,कई मिनट के बाद उन्होंने फिर आँखें खोलीं और इधर-उधर खोई हुई आंखों से देखा । "मेरा ल़झ्ा बढ़ा हो भायगा, तो में द्वार पर बेठरर मजे से हुक्का पिया करूँगा ।","उपज बनिये की नहीं होती, किसान की होती है ।","मेरा लड़का बड़ा हो जायगा, तो मैं द्वार पर बैठकर मजे से हुक्का पिया करूँगा ।" बुधिया रोई--डाढ़ीजार मेरे सारे गहने ले गया ।,आज साँझ को देने को कहा था ।,बुढ़िया रोयी – दाढीजार मेरे सारे गहने लेगया । एक दिन वह सुभद्रा के साथ बैठी हुई रामायण पढ़ रही थी कि पद्मसिह प्रसन्नचित्त . धर में झाकर वोले--भ्राज वाजी मार ली ।,सबकी- सब उसकी मातृभक्ति की प्रशंसा करने लगीं ।,एक दिन वह सुभद्रा के साथ बेठी हुई रामायण पढ़ रही थी कि पद्मसिंह प्रसन्नचित्त घर में आकर बोले -- आज बाजी मार ली । कं बहुत जल्द चला आऊेगा अम्माँ; तुम्हारे पेरो पड़ता हूँ ।,"‘ प्रमीला ने बिगड़कर कहा, ‘तू कहीं जाता है तो तुझे घर की सुधि ही नहीं रहती ।","'मैं बहुत जल्दी चला आऊँगा अम्माँ, तुम्हारे पैरों पड़ता हूँ ।" कहने लगे कि तुम यहाँ आवारों की तरह इधर-उधर फिरा करते हो।,उसे लड़कों से सचमुच स्नेह था।,कहने लगे कि तुम यहाँ आवारों की तरह इधर-उधर फिरा करते हो। "मुझे तू जब तक बता-न देगी कि तू सारी रात कहाँ रही, तब तक मैं तुझे घर में वैठने न दंगा।","कितना समझाता रहा कि इन चुड़ेलों के साथ न बेठ, मेले-ठेले मत जा; लेकिन तूने न सुना -- न सुना ।","मुझे तू जब तक बता न देगी कि तू सारी रात कहाँ रही, तब तक में तुझे घर में बेठने ने लूँगा ।" पंडितजी बोले -में ने कुछ नहीं किया |,"चौधरी ने कहा , महाराज, तुम साक्षात् भगवान् हो ।","पंडित जी बोले , मैंने कुछ नहीं किया ।" "सोना--देख लेना,आज वह तुम्हे पछाड़ेगा |",' रानी - टमेरी मोटर ले लीजिए ।,"' सोना- 'देख लेना, आज वह तुम्हें पछाड़ देगा ।" गांगुली-सरदी पड़ने लगी ।,वह डॉक्टर गांगुली चले आ रहे हैं ।,गांगुली-सरदी पड़ने लगी । "दया० -- मैंने सैकड़ों अँगरेज़ों के ड्राइंग-रूम देखे हैं, कहीं आईना नहीं देखा ।",रमा दुविधो में चुपचाप खडाथा ।,"दयानाथ-'मैंने सैकड़ों अंगरेज़ों के ड्राइंग-ईम देखे हैं, कहीं आईना नहीं देखा ।" लीं जालपा का चेहरा सख्त पड़ गया ।,"सोया तो इसी सबब से था कि बहुत सबेरे उठ जाऊँगा, पर नींद खुली, तो कमरे में धूप की किरणें आ-आकर उसे जगा रही थीं ।",' जालपा का चेहरा सख्त पड़ गया । जानते हैं न कि जरा भी गरम हुए कि बजरंगी ने गरदन पकड़ी ।,दुलारे लड़के तिनके की मार भी नहीं सह सकते ।,जानते हैं न कि जरा भी गरम हुए कि बजरंगी ने गरदन पकड़ी । मुझसे तो इस दशा में एक दिन भी न रहा जाता ।,विनय को आज राजा से घृणा हो गई ।,मुझसे तो इस दशा में एक दिन भी न रहा जाता । "हमे पता है कि तुम्हारे पास एक लाख को मोहरें रखी हुईं हैं, लेकिन 'विनाशकाले विपरीत-बुद्धि अब हम तुम्हे और ज्यादा न समम्ायेंगे ।","गालियाँ तो क्या , किसी से तू-तकार भी न करते ।",हमें पता है कि तुम्हारे पास एक लाख की मोहरें रखी हुई हैं ; लेकिन विनाशकाले विपरीत बुद्धि ; अब हम तुम्हें और ज्यादा न समझायेंगे । खाबसामा बेचारा अपनी बात का घी था ।,न प्रतिज्ञा कुछ काम आयी; न शपथ का कुछ असर हुआ ।,खानसामा बेचारा अपनी बात का धनी था । में तैस्ने में अम्पस्त थी ।,धारा प्रबल वेग से प्रवाहित थी और जल बर्फ से भी अधिक शीतल ।,मैं तैरने में अभ्यस्त थी । सभी दुर्बल मनुष्यों की भाँति रमा भी अपने पतन से लज्जित था |,"अख़बार से दिल बहलाना चाहा, उपन्यास लेकर बैठा, मगर किसी काम में भी चित्त न लगा ।",सभी दुर्बल मनुष्यों की भांति रमा भी अपने पतन से लज्जित था । वारबार जी में आया कि कहीं डूब मम; पर जाने वड़ीं दरों होती हैं ।,यह कह कर उसने वही तलवार अपने हृदय में चुभा ली ।,बार-बार जी में आया कि कहीं डूब मरूँ पर जान बड़ी प्यारी होती है । खाने-पीने को कोई बात नहीं,तुम बटाई पर लेते हो तो ले लो,खाने-पीने की कोई बात नहीं विट्वल--तुम्हें श्रपना वचन याद है ?,"वह इन्हें देखते ही कुछ अनमनी सी हो कर बोली -- कहिए महाशय, केसे कृपा की ?",विट्ठलदास -- तुम्हें अपना वचन याद है ? लोग राह चलते-चलते उसे एक आँख देखने के लिए ठिठक जाते ।,"युवक उसे ईर्ष्या से देखते, बूढ़े स्नेह से ।",लोग राह चलते-चलते उसे एक आँख देखने के लिए ठिठक जाते । "'हां-दां, यह झोन-सी बड़ी वात है ।","” पुजारी ने समर्थन किया -- हाँ सरकार , भक्तों की रक्षा के लिए तो भगवान् क्षीरसागर से दौड़े और गज को ग्राह के मुँह से बचाया ।","'हाँ-हाँ, यह कौन-सी बड़ी बात है ।" "अल देर तक तो चुपचाप मेरी बातें सुनती रही, फ़िर रोने लगी ।",वह भोली-भाली स्त्री अब दालमंडी की रानी है; मालूम नहीं इतनी जल्दी वह ऐसी चतुर केसे हो गई ।,"कुछ देर तक तो चुपचाप मेरी बातें सुनती रही, फिर रोने लगी ।" ऐसा मालूम हुआ कि रमा की मोटर कुछ धीमी हो गयी है ।,"जालपा ने इशारे से कुछ कहना चाहा, पर संकोच ने रोक दिया ।",ऐसा मालूम हुआ कि रमा की मोटर कुछ धीमी हो गई है । देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा ।,बहुतेरे वहीं जाकर जमे ।,देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा । रेणुका भी दो-तीन बार डाक्टर साहव को देखने गई,रेजिमेंट के कप्तान ने डॉक्टर साहब से अपने आदमियों के अपराध की क्षमा मांगी और विश्वास दिलाया कि भविष्य में सैनिकों पर ज्यादा कड़ी निगाह रखी जाएगी,रेणुका भी दो-तीन बार डॉक्टर साहब को देखने गईं "झाःमपतन को वह दार्शनिक की उदार दृष्टि से नहीं, दुष्क योगी की दृष्टि से देखता था |",सुभद्रा ने अपनी सास का शासन भी ऐसा कठोर न पाया था ।,"आत्म पतन को वह दार्शनिक की उदार दृष्टि से नहीं, शुष्क योगी की दृष्टि से देखता था ।" दूसरा फेर किया ।,"जब शेर भैंसे पर आ गया , तो उन्होंने निशाना मारा ।",दूसरा फैर किया । उसकी आत्मा लजित थी और उसे घिकार रद्दी थी,दादा से पुलिस के किसी बड़े अफसर ने कहा है,उसकी आत्मा लज्जित थी और उसे धिक्कार रही थी किसी विचार में तन्‍्मय हो रही थी ।,"‘ आइवन ने विस्मय से उसकी ओर देखा —‘ तुम समझती हो , उसे कत्ल करना आसान है ?",किसी विचार में तन्मय हो रही थी । पति मुझे क्षमा भी कर दे,मेरा एक छोटा-सा बच्चा है,पति मुझे क्षमा भी कर दे "वेतन भी सबका बराबर है, लेकिन इनकी योग्यता को कोई नहीं पहुँचता ।",प्रभुदास अपने कमरे में लेटे हुए थे ।,"वेतन भी सबका बराबर है, लेकिन इनकी योग्यता को कोई नहीं पहुँचता ।" “इन्ही गयारियों में हमने भगो को भाँति कछोल किये थे ।,ईश्वरचंद्र की पत्नी एक ऊँचे और धनाढ्य कुल की लड़की थी और वह ऐसे कुलों की मर्यादाप्रियता तथा मिथ्या गौरवप्रेम से सम्पन्न थी ।,इन्हीं क्यारियों में हमने मृगों की भाँति किलोल किये थे । "महिला ने मकान को इधर-उधर देखकर कहा --नहीं जी, मुझे अच्छी तरह खाल है, यह उनका मकान नहीं है |",मुसाफ़िरों की आमदरफ़्त कम हो चली थी ।,"महिला ने मकान को इधर-उधर देखकर कहा-- नहीं जी, मुझे अच्छी तरह ख्याल है, यह उनका मकान नहीं है ।" "साराश यह कि उसकी जात से दूसरों को चाद्दे कितना ही फायदा पहुँचे, अपना कोई उपकार न होता था, यहाँ तक कि वह रोदियों के लिए भी दूसरा का मुहताज था ।",और बात भी यही थी ।,"सारांश यह है कि उसकी जात से दूसरों को चाहे कितना ही फ़ायदा पहुँचे, अपना कोई उपकार न होता था, यहाँ तक कि वह रोटियों तक के लिए भी दूसरों का मुहताज था ।" “हीं मुन्नी में तुम्हें न जाने दूँगा,अंधेरी रात में शहर वालों को डर लगता है,नहीं मुन्नी मैं तुम्हें न जाने दूँगा "खाने बैठता हूँ, तो कौर मुँह में नहीं जाता।","जब कोई काम करने की कहा गया, तो रोने लगता है।","खाने बैठता हूँ, तो कोर मुँह में नहीं जाता।" "यहाँ तक कि वालू उडी हो ययी, सेक्ड़े निकलने लगे ।",अतएव तीसरा पहर हो गया और आधा काम भी न हुआ ।,"यहाँ तक कि बालू ठंडी हो गयी, सेवड़े निकलने लगे ।" क्लार्क-क्या करता ?,लड़कों में लड़ाई-झगड़ा होता ही रहता है ।,क्लार्क-क्या करता ? मुँकलाकर मुंशीजी अपने को मृत्यु का कलेवा बनाने पर उतारू हो गये तो इसमें उनका कुछ दोप न था ।,दाम जल्दी या देर से मिल ही जाते ।,"झुँझलाकर मुंशीजी अपने को मृत्यु का कलेवा बनाने पर उतारू हो गए, तो इसमें उनका कुछ दोष न था ।" में सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊँगी ।,"यह डींग मारना तब शोभा देता, जब कि नीयत भी साफ रहती और जीवन भी सुख से कटता ।",मैं सबसे पहले चन्द्रहार बनवाऊँगी । "कोई इधर भागता, कोई उधर, कोई गाली दकता था, कोई गार-पीट करने पर उतारू था ।",एक हलचल सी मच गई ।,"कोई इधर भागता, कोई उधर गाली बकता था, कोई मारपीट करने पर उतारु था ।" आज के लिए उसने पहले हसे सजीले वस्र बनवा रखे थे ।,आइवन का मन आज बहुत चंचल हो रहा था ।,आज के लिए उसने पहले ही से सजीले वस्त्र बनवा रखे थे । "फिर दक्षिण की ओर सिधारे, लेकिन अब वह केवल सेवा-कार्य ही नहीं करते, उन्हें पक्षियों से बहुत प्रेम हो गया है ।","उठना चाहती थी, पर उठने की शक्ति न थी ।","फिर दक्षिण की ओर सिधारे, लेकिन अब वह केवल सेवा-कार्य ही नहीं करते, उन्हें पक्षियों से बहुत प्रेम हो गया है ।" "यदि आप अपनी मातानी के दशन करवा सके, तो में आपका बड़ा आभारी होऊ गा ।",' नवयुवक -'यह तो आपकी वक्तृता ही से सिद्ध हो गया है ।,"यदि आप अपनी माताजी के दर्शन करवा सकें, तो आपका बड़ा आभारी होऊँगा ।" आप चलकर कुछ खा लीजिए न ।,आप चलकर भोजन कर लीजिए ।,आप चलकर कुछ खा लीजिए न । मेघ के जल-शुन्य टुकड़े कभी-कभो आकाश में दौड़ते नज़र आ जाते थे ।,यहाँ से जाकर तो मैं निराशा से पागल हो जाऊँगी ।,मेघ के जल-शून्य टुकड़े कभी-कभी आकाश में दौड़ते नज़र आ जाते थे । घमण्डीलाल दौड़े हुए आयेंगे और तुम्दारे ऊपर प्राण निछावर करेंगे ।,अभिप्राय केवल यही है कि कोई ऐसा काम होना चाहिए जिसमें लड़की का मन लगे ।,घमण्ड ी दौड़े हुए आयेंगे और तुम्हारे ऊपर प्राण निछावर करेंगे । "ऐसी धमकी वही दे सकता है, जो न मिल सकने की व्यपा को जानता हो, उसका अनुभव करता हो |","कोई चिंता है, तो यही कि फेल न हो जाऊँ ।","ऐसी धमकी वही दे सकता है, जो न मिल सकने की व्यथा को जानता हो, उसका अनुभव करता हो ।" ” पाँचवी वार एक सज्जन से स्पाग मँगने पर उन्होंने एक मुट्ठी शने मेरे हाय पर रख दिये ।,वे भारत के बहुमूल्य जातीय रत्न उच्चकोटि के जातीय स्मारक और गगनभेदी जातीय तुमुल ध्वनि हैं ।,पाँचवीं बार एक सज्जन से स्थान माँगने पर उन्होंने एक मुट्ठी चने मेरे हाथ पर रख दिये । आप अपने को एक हो रसिया सममते हैं ।,"राजों , रईसों को अलग घरों में रहने दीजिए , वह एक की जगह दस खर्च कर सकते हैं ।",आप अपने को एक ही रसिया समझते हैं । "देवी ने छुब्जे पर खड़े होकर सड़क की ओर देखा, तो शारदा की लोथ पडी हुई थी |","उनमें से एक भी न टूटा था ! खिलौने रह गये, खेलनेवाला चला गया ।","देवी ने छज्जे पर खड़े हो कर सड़क की ओर देखा, तो शारदा की लोथ पड़ी हुई थी ।" "अगर हमारी कुछ मदद न हुई, तो वहाँ एक घुसल- मान भी ज़िन्दा न बचेगा |",मुझे अब मालूम हो गया कि मैं उसे तबाही के रास्ते पर लिये जाता था ।,अगर हमारी कुछ मदद न हुई तो वहाँ एक मुसलमान भी जिंदा न बचेगा । लेकिन सदन को कैसे भरुलाऊँगी ?,"बस, वहाँ से आकर इस पाप के मायाजाल से निकल भागू ।",लेकिन सदन को कैसे भुलाऊँगी ? फिर तो ; .. वह नियमित रूप से नहाने लगी।,उसके आग्रह से सुमन कई दिन लगातार स्नान करने गई ओर उसे अनुभव हुआ कि उसका जी कुछ हल्का हो रहा है ।,फिर तो वह नियमित रूप से नहाने लगी । "-5सका हूंब्य बड़े वेग से थड़क रहा था और, पतिउश्नत का आनंद आँखों से आँसू बन कर निकछता था ।",मैंने दौड़ कर विद्याधरी के चरणों पर सिर झुका दिया ।,उसका हृदय बड़े वेग से धड़क रहा था और पतिदर्शन का आनन्द आँखों से आँसू बन कर निकलता था । "जालपा -- उस नमूने का तो बना-बनाया मुशकिल से मिलेगा, और बनवाने में महीनों का झंझट ।","छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको यही रोग लगा हुआ है ।","' जालपा-'उस नमूने का तो बना-बनाया मुश्किल से मिलेगा, और बनवाने में महीनों का झंझट ।" "जिंसके सामने बैठ गयी, उससे कुछ-न-ऊुछ ले ही लिया ।",और उसकी अदाएँ तो इस गज़ब की थीं कि मेरी तबीयत भी मस्त हुई जाती थी ।,"जिसके सामने बैठ गयी, उससे कुछ न कुछ ले ही लिया ।" कसाई भी सदय और निर्दय हो सकते हैं ।,मैं तुम्हें कभी यों सचेत न करता ।,कसाई भी सदय और निर्दय हो सकते हैं । किसी के सम्मुख उसका सिर नीचा नहीं होता था।,वह अपनी पड़ोसिनों के सामने अपनी कुलीनता पर गर्व कर सकती थी; अपनी धार्मिकता और भक्तिभाव का रोब जमा सकती थी ।,किसी के सम्मुख उस का सिर नीचा नहीं होता था । मेरे न रहने से उनके रुपये बच जाएँगे।,"यही न कि वह मेरे पति की कमाई खाता है, इसके पढ़ाने-लिखाने में रुपये खर्च होते हैं, कपड़ा पहनता है।",मेरे न रहने से उनके रुपये बच जायँगे। "शिक्षा ऐसी कितने बातो को मानती है, जो राति-नीति और परपरा की दृष्टि से त्याज्य है ।","जब तक संसार में इस विधान का राज्य है और स्त्री कुलमर्यादा की रक्षक समझी जाती है, उस वक्त तक कोई मर्द यह स्वीकार न करेगा कि उसकी पत्नी बुरे आचरण के प्राणियों से किसी प्रकार का संसर्ग रक्खे ।","शिक्षा ऐसी कितनी बातों को मानती है, जो रीति-नीति और परंपरा की दृष्टि से त्याज्य हैं ।" कुण्डो खटकते द्वी द्वार खोल दिया और द्वाथ पकड़कर बोलौ--तुम तो मुझे भूल दी गये,आज अम्मीजान बिरादरी में जाने वाली थीं,कुंडी खनकते ही द्वार खोल दिया और हाथ पकड़कर बोली-तुम तो मुझे भूल ही गए दोनों नाले के किनारे-किनारे चलते जा रहे थे,मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि तुम नारी-हृदय तक पहुँच जाते हो,दोनों नाले के किनारे-किनारे चले जा रहे थे "गजाधरप्रसाद की दद्ा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों के बीच में अरदशर्फियों की थैली लिये बैठा हो ।",कर्णधार-रहित नोका के समान उसका जीवन फिर डाँवाडोल होने लगा ।,"गजाधर प्रसाद की दशा उस मनुष्य की-सी थी, जो चोरों की बीच में अशर्फियों की थेली लिये बेठा हो ।" "गजाधर ने उसकी ओर करुण दृष्टि से देखकर कहा--नहीं सुमन, वास्तव में यही बात है ।",सुमन ने सरल भाव से पूछा -- फुसला रहे हो या सच कह रहे हो ?,"गजाधर ने उसकी ओर करुण दृष्टि से देखकर कहा -- नहीं सुमन, वास्तव में यही बात है ।" तो चलो फिर खाना खा लें |,"उम्मीद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जाएगी, मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात-भर खेलना होगा ।",तो चलो फिर खाना खा लें । 'इस दुष्ट को ऐसा दंड देना चाहिए कि उम्र-भर याद रहे ।,सारे शहर में बदनाम कर रहा है ।,'इस दुष्ट को ऐसा दंड देना चाहिए कि उम्र-भर याद रहे । तिलकधारी जवान को काई कुछ नहीं कहता |,"उसका गिरना था कि भक्तों का समुदाय, जो अब तक मंदिर में बैठा तमाशा देख रहा था, लपक पड़ा और जामिद पर चारों तरफ से चोटें पड़ने लगीं ।",तिलकधारी जवान को कोई कुछ नहीं कहता । ज़रा उसका नाम तो बताइए ?,बंगले को बेच देने को कहते हैं ।,ज़रा उसका नाम तो बताइए ? इस डांदी-में आग लगे आधी बाद) भो ने निकली,आजकल तो कहीं घास भी नहीं मिलती,इस डांडी में आग लगे आधी बाकी भी न निकली नागपंचमी के दिन मुहल्ले की कई युवतियाँ जालपा के साथ कजली खेलने आयीं : मगर जालपा अपने कमरे के बाहर नहीं निकली ।,"उन गरीबों की आमदनी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ गई थी ।","नागपंचमी के दिन मुहल्ले की कई युवतियां जालपा के साथ कजली खेलने आइ, मगर जालपा अपने कमरे के बाहर नहीं निकली ।" "यदि उस निर्दय मनुष्य ने श्रपनी बदनामी के भय से मेरी अवहेलना न की होती, तो मुझे इस पापकुरड में कूदने का साहस न होता ।",तब उसका व्यथित हृदय पद्मसिंह पर दाँत पीसकर रह जाता था ।,"यदि उस निर्दय मनुष्य ने अपनी बदनामी के भय से मेरी अवहेलना न की होती, तो मुझे इस पापकुंड में कूदने का साहस न होता ।" "सदन---खैर, देखा जाएगा ।","सुमन -- नहीं, अब से मुझे क्षमा कीजिएगा ।","सदन - खैर, देखा जाएगा ।" "परिवार तुम्हारे लिए फूलों की सेज नहीं, काँटों की शय्या है ; तुम्हारा पार लगानेवाली नौका नहीं, तुम्हें निगल जानेवाला जन्तु ।","अगर तुम्हारे पुरूष ने कोई लङका नहीं छोडा, तो तुम अकेली रहो चाहे परिवार में, एक ही बात है ।","परिवार तुम्हारे लिए फूलों की सेज नहीं, कांटों की शय्या है, तुम्हारा पार लगाने वाली नौका नहीं,तुम्हें निगल जाने वाला जंतु ।" अगर इतनी देर में पूरे पचास रुपयेन आये तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी,उन्हें जरूर आपकी खातिर करनी चाहिए,अगर इतनी देर में पूरे पचास रुपए न आये तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी देखते-ठेखते एक फटेहाल युवक जिम्मेदार मेनेजर बन बेठा ।,बात पक्की हो गयी और विवाह का सामान होने लगा ।,देखते-देखते ही फटेहाल युवक जिम्मेदार मैनेजर बन बैठा । "घर में जाकर स्त्री से बोला--आखिर वहो हुआ, जो में कहता था ।",तब तो सभी अपनी गरीबी के प्रमाण देने लगेंगे ।,"घर में जाकर स्त्री से बोला आखिर वही हुआ, जो मैं कहता था ।" गाना-बजाना ऐश नहीं लेकिन यह सब काम फुरसत के हैं,संगत को मैं बुरा नहीं कहता,गाना-बजाना ऐब नहीं लेकिन यह सब काम फुरसत के हैं छुट्टियों के दिन वह प्रायः दिन भर रेणुका दी के यहाँ रहता,इस मात्-स्नेह से उसे त़प्ति ही न होती थी,छुट़टियों के दिन वह प्राय: दिन-भर रेणुका ही के यहाँ रहता और भी जो बढ़े-बढ़े सेठ-साहकार हैं उन्हें भी फूछकर कुप्पा होते ही देखा है,व्यवसायियों को जितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है वह अगर संन्यासियों को झेलनी पड़ें तो सारा संन्यास भूल जाए,और भी जो बड़े-बड़े सेठ-साहूकार हैं उन्हें भी फूलकर कुप्पा होते ही देखा है "यद्द हवा संसार-भर मे फेली हुई है; पर इसका मर्म क्‍या है, यह दिल में सभी समझते है, चाहे कोई खोल- कर न कहे |","किंतु आज देखता हूँ, वृन्दा ने सबके लिए एक ही भोजन बनाया है ।","यह हवा संसार भर में फैली हुई है पर इसका मर्म क्या है, यह दिल में भी समझते हैं, चाहे कोई खोल कर न कहे ।" सच कहता हूँ अजरे पर बढ़ी बहार रहेगी ।,"वह जाती तो थी , मगर बहुत टाल-टूट करने के बाद ।","सच कहता हूँ , बजरे पर बड़ी बहार रहेगी ।" सोफिया ज्यों-की-त्यों बैठी रही ।,आजकल इन छोटी-छोटी चालों के बगैर काम नहीं चलता ।,सोफिया ज्यों-की-त्यों बैठी रही । "बोछो--भरमात् तो नही, और बातो का जवाब देता हैं ! सत्य०--जिनके भाग्य में भीख माँगना होता हे, वही वचपन मरे अत्ाथ ह्दौ जाते है ।",तल्लीनता अत्यंत रचनाशील होती है ।,बोली-शरमाता तो नहीं और बातों का जवाब देता है ! सत्य.-जिनके भाग्य में भीख माँगना होता है वही बचपन में अनाथ हो जाते हैं । वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी: है,हम जौ-जौ और अंगुल-अंगुल और पोर-पोर भस्म हो रहे हैं,वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है "इतना दुब॒ला-पतला, कमजोर ओर गरीब लड़का था हि पहले ही दिन से मुझे उसपर दया आने लगी |",उसकी उम्र आठ-नौ साल से ज्यादा न थी ।,"इतना दुबला-पतला, कमजोर और गरीब लड़का था कि पहले ही दिन से मुझे उस पर दया आने लगी ।" "तुम क्या जानती हो कि जो बड़े-वड़े लोग उसके घर आते हैं, यह कौन लोग हैं ?",मैं अपनी स्त्री को वेश्या से मेल-जोल करते नहीं देख सकता ।,"तुम क्या जानती हो कि वो बड़े-बड़े लोग उसके घर आते है, यह कौन लोग है ?" "उप्ने निश्चय किया, सवेरा द्ोते ही माँ को खोजने चलेगा कौर अगर**- छिी ने द्वार खटखठाया ।",अनिष्ट के भय से प्रकाश रोने लगा ।,"उसने निश्चय किया, सवेरा होते ही माँ को खोजने चलूँगा और अगर.... किसी ने द्वार खटखटाया ।" यह फटकार पाने के बाद तो में इस घर में पानी पीना भी हराम सममतो हूँ,आखिर म्युनिसिपैलिटी के लिए खड़े होने में क्या बुराई थी- मान और प्रतिष्ठा किसे प्यारी नहींहोती - इसी मेंबरी के लिए लोग लाखों खर्च करते हैं,यह फटकार पाने के बाद तो मैं इस घर में पानी पीना हराम समझती हूँ इस पर दोनों में मुबाहसा हुआ ।,"जालपा ने कहा, 'घर चलकर रतन से थोड़ी-सी ज़मीन ले लें और आनंद से खेती-बारी करें ।",' इस पर दोनों में मुबाहसा हुआ । "मॉपड़े के बदले अब वह सरघट पर, नदी के किनारे खण्डहरों में घूमती दिखायी देती ।",तुम लखपती होगे तो अपने घर के होगे ।,"झोपड़ी के बदले अब वह मरघट पर, नदी के किनारे खंडहरों में घूमती दिखाई देती ।" आखिर किस बिरते पर ?,दूध लाना कोई चोरी नहीं है।,आखिर किस बिरते पर? बेफ़िकर चले गये थे ।,दस-पाँच रुपये भी छीन- झपटकर ले ही लेती हो ।,बेफिक्रे चले गऐ थे । हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने-भर छा खर्च महोता-भर केसे चछे ।,"दादा को तार देने के सिवा तुम्हें और कुछ न सूझेगा; लेकिन तुम्हारी जगह पर दादा हों, तो किसी को तार न दें, न घबरायें, न बदहवास हों ।",हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने भर का खर्च महीने भर कैसे चले । रमा० -- आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं ।,"यह लीजिए, शह! तो तुम कल अर्जी दे दो ।",रमा०--आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं । "गोपीनाथ दा निक थे, पर अभी दझ उनके मन के वोसछ भाव शिविल न हुए थे ।",मर भी जाऊँगी तो कौन रोनेवाला बैठा हुआ है ।,गोपीनाथ दार्शनिक थे पर अभी तक उनके मन के कोमल भाव शिथिल न हुए थे । "एक चमार से, जो बाजार से सिगरेट पीता आ रहा था, पूछा-तेरा नाम क्या है ?",फिर यह बकाया कैसा ?,"एक चमार से, जो बाजार से सिगरेट पीता आ रहा था, पूछा-तेरा नाम क्या है ?" ३६ देवीदीन ने चाय की दुकान उसी दिन से बन्द कर दी थी और दिन भर उस अदालत की खाक छानता फिरता था जिसमें डकेती का मुक़दमा पेश था और. रमानाथ की शहादत हो रही थी ।,' रतन ने पति की छाती पर हाथ रक्खा ।,छत्तीस देवीदीन ने चाय की दूकान उसी दिन से बंद कर दी थी और दिन-भर उस अदालत की खाक छानता फिरता था जिसमें डकैती का मुकदमा पेश था और रमानाथ की शहादत हो रही थी । "रतन समझती, अब यह अच्छे हो रहे हैं ।","वह पूछती, आज कैसी तबीयत है ?","रतन समझती, अब यह अच्छे हो रहे हैं ।" अपसान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता ।,आपको कष्ट देने न आऊँगा ।,अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता । घह उसके लिए असह्य थी झौर कभी-कभी एकान्त में वह अपनी वर्तमान दशा की पूर्वावस्था से तुलना किया करती थी ।,"इसमें संदेह नहीं कि वह विलास की सामग्रियों पर जान देती थी, लेकिन इन सामग्रियों की प्राप्ति के लिए जिस बेहयाई की जरूरत थी",वह उसके लिए असहय थी और कभी-कभी एकांत में वह अपनी वर्तमान दशा की पूर्वावस्था से तुलना किया करती थी । "खेती में जी, चना, मक्का, जुवार, घासपात के सिवाय ओर फ्या होता है ! श्राप लोग राजा हैं, यह मोटी-मोटी चीर्जे क्रिस मँद से श्रापको भेंट करूँ ।",' 'दफ्तर के बाबू लोगों की भी कभी कुछ खातिर करते हो ?,"खेती में जौ, चना, मक्का, जुवार, घासपात के सिवाय और क्या होता है ! आप लोग राजा हैं, यह मोटी-झोटी चीजें किस मुँह से आपको भेंट करूँ ।" सिलिया उसे देखते ही हाय-हाय करके रोने लगी ।,बाहर का कोई चोर तो आया नहीं ।,सिलिया उसे देखते ही हाय-हाय करके रोने लगी । दूसरा द्ोता तो मेरी सूग्त न देखता,सकीना ने हँसने की चेष्टा करके कहा-मैं तो मोटी-ताजी कभी न थी,दूसरा होता तो मेरी सूरत न देखता "यह देखो, पहला पत्थर में अपने द्वार्थां से रखतो हूँ ।",देवी की आज्ञा है कि पासोनियस फिर बाहर न निकलने पाये ।,"यह देखो, पहला पत्थर मैं अपने हाथों से रखती हूँ ।" यहाँ तक कि रमेश से कुछ छोग जलने लगे ।,पर रमेश खुद अपने सिद्धान्तों का पालन न कर सका ।,यहाँ तक कि रमेश से कुछ लोग जलने लगे । पर्माजी उसके निकट आकर बोले- तुम्हें यह्‌ कंगन कहाँ मिला !,सुमन बग्घी की तरफ कई कदम जा चुकी थी ।,शर्माजी उसके निकट आकर बोले -- तुम्हें यह कंगन कहाँ मिला ? इस तरह की दृकानदारी हम लोग नहीं करते ।,अभी तक रमा को पार्टी की तैयारियों से इतनी फुर्सत नहीं मिली थी कि गंगू की दुकान तक जाता ।,इस तरह की दुकानदारी हम लोग नहीं करते । मगर दाद को मालूम हुआ कि यह स्याल-ही-स्याल है ।,शुरू में मुझे भी यही झिझक होती थी ।,मगर बाद में मालूम हुआ कि यह ख्याल-ही-ख्याल है । "इस समय मुंशीजी का रोब-दाब, उनकी प्रवल लेखनी का भय और उनकी कानूनी प्रतिमा एक भी कास न आयी ।","मनुष्य हवा में एक गिरह भी नहीं लगा सकता, पर इसने हवा में एक संसार रच डाला है ।","इस समय मुंशीजी का रोबदाब, उनकी प्रबल लेखनी का भय और उनकी कानूनी प्रतिभा एक भी काम न आयी ।" ऐसा जी होता है माहुर खा हूँ,दूध थोड़े ही पीता है कि खो जायगा,ऐसा जी होता है माहुर खा लूँ हमें उड़ना न पड़ेगा |,"हम अच्छे हैं या बुरे, वे इसी दशा में हमें अपने पास बुला रहे हैं ।",हमें उड़ना न पड़ेगा । डाक्टर साहब को द्वोश आ गया है,अस्पताल में पहुँची तो देखा हजारों आदमियों की भीड़ लगी हुई है और यूनिवर्सिटी के लड़के इधर-उधर दौड़ रहे हैं,डॉक्टर साहब को होश आ गया है झात हो सप्ताह के भीतर पृथ्वीसिह दिल्‍्लों में करे किये गये और दुर्गाडुभारी सतो हो गयी ।,पर जब रात को उसने देखा कि मेरा पति इसी स्त्री के सामने दुखिया की तरह बैठा हुआ है तब वह संदेह निश्चय की सीमा तक पहुँच गया और यही निश्चय अपने साथ सत लेता आया था ।,सात ही सप्ताह के भीतर पृथ्वीसिंह दिल्ली में कत्ल किये गये और दुर्गाकुमारी सती हो गयी । वह अवश्य जायगी और ठाकुरजी के चरणी पर गिरकर रोयेगी |,"यदि मैं ठाकुर जी के चरणों को अपने आँसुओं से भिगो देती और बच्चे को उनके चरणों में सुला देती, तो क्या उन्हें दया न आती ?",वह अवश्य जायगी और ठाकुर जी के चरणों पर गिर कर रोयेगी । रस्सी को साँपबनाकर*पीटो और तीसमारखाँ बनों,छूटे सांड़ बने दूसरों के खेत में मुँह मारते फिरते हो और समझते हो संसार में सब सुखी हैं,रस्सी को साँप बना कर पीटो और तीसमारखाँ बनो "आँखों के 'सासने यह अत्याचार देखते हैं, और ज़रा भी नहीं चौंकते ।",एक दिन में उसने न जाने कितनी शराब पी ली थी ।,आँखों के सामने यह अत्याचार देखते हैं और जरा भी नहीं चौंकते । यह वह बलिदान दे जी हत्या होते हुए भी घर्म का एक अश हे ।,और कहाँ तक कहें उसकी ओर बदनामी आँख भी नहीं उठा सकती ।,यह वह बलिदान है जो हत्या होते हुए भी धर्म का एक अंश है । आग के मोंके ज्ोर-जोर से दरहराते हुए चल रहे थे ।,तो भाई जो गुड़ खाय वह कान छिदावे ।,आग के झोंके जोर-जोर से हरहराते हुए चल रहे थे । दोनों एक क्षण भूमि और आकाश को ओर ताकते रहे,उसे इस दशा में लाने का अपराधी वह है इसलिए इस भार को सह्य बनाने के लिए वह सुखदा का मुंह जोहता रहता था,दोनों एक क्षण भूमि और आकाश की ओर ताकते रहे जगमोहन पर सममरमर के चौके जड़े हुए थे; मगर श्रॉगन में जगह-जगह गोबर और कूड़ा पड़ा था ।,उसकी दृष्टि में मज़हब का जितना सम्मान था उतना और किसी सांसारिक वस्तु का नहीं ।,"जगमोहन पर संगमरमर के चौके जड़े हुए थे, मगर आंगन में जगह-जगह गोबर और कूड़ा पड़ा था ।" तबियत तो अच्छी है ?,ऐसी मोटर इस शहर में दूसरी है ही नहीं ।,तबियत तो अच्छी है ? कहीं का न रहूँ ।,"कहीं ऐसा न हो, थैली किसी को दे दे, या और रूपयों में मिला दे, तो गजब ही हो जाए ।",कहीं का न रहूं । दोनों कुछ देर तक खुप-चाप रहे,तुम्हीं ने उनसे कहा होगा गहने मत ले जाना,दोनों कुछ देर तक चुपचाप रहे में एक पेला भी न दँँगा ।,‘ बड़े ठाकुर ने बीवी की जबान पकड़ी --‘ क्यों आधे ले लेंगे ?,मैं एक धोला भी न दूँगा । पन्द्रद-बीस मिनट में इक्का गोवर्धन की सराय पहुँच गया,अमरकान्त इक्का ला चुका था,पंद्रह-बीस मिनट में इक्का गोवर्धन की सराय पहुँच गया सोचा था महाजन से कुछ ल्षेकर भूसा ले लेंगे लेकिन महाजन का पहला ही नहीं चुका,तुमसे क्या कहूँ भैया घर में चंगुल-भर भी भूसा नहीं रहा,सोचा था महाजन से कुछ ले कर भूसा ले लेंगे; लेकिन महाजन का पहला ही नहीं चुका वह इन्हें खूब लथेडेगा ।,"मिस्टर गोपालदास बोले, अब आटे-दाल का भाव मालूम हो जायगा ।",वह उन्हें खूब लथेड़ेगा । छितने हो बूढे जवानों ऐे ज़्यादा भड्यल होते हैं ।,' 'मैं इसका कायल नहीं ।,कितने ही बूढ़े जवानों से ज्यादा कड़ियल होते हैं । इस क्रिध्म को बातों को में पागलपन समता हूँ,मेरा विचार तो है कि सेवा-व्रतधारियों को जाति से गुजारा-केवल गुजारा लेने का अधिकार है,इस किस्म की बातों को मैं पागलपन समझता हूँ 'तब्र तो आपके कमरे के द्वार पर जा बेठती है ।,"हँसी को रोकना चाहती थी , पर वह इस तरह निकली पड़ती थी जैसे भरी बोतल उँड़ेल दी गयी हो ।",तब तो आपके कमरे के द्वार पर जा बैठता हूँ । "चील और कौए दोनों तरफ तस्तों पर बैठे अपना राग अलापते हों, भौर बुलवुलें किसी गोश-ए-तारीक में दर्द के तराने गाती हों?","क्या वह बाग, बाग कहलाने का मुस्तक है जहाँ सरो की कतारें एक गोशे में हों, बेले ओर गुलाब के तख्ते दूसरे गोशे में ओर रविशों के दोनों तरफ नीम और कटहल के दरख्त हों, वस्त में पीपल का ढूंढ ओर किनारे बबूल की कलमें हो ?","चील ओर कोए दोनों तरफ तख्तों पर बेठे अपना राग अलापते हों, और बुलबुलें किसी गोए तारीक में दर्द के तराने गाती हों ?" अप भूलझइर भी यह शच्द मुद्द से न निकालना ।,"दाऊ.- गुलाम छुटकारा पाने के लिए जो रुपये देता है, उसे मुक्तिधन कहते हैं ।",अब भूलकर भी यह शब्द मुँह से न निकालना । मुन्नो ने सिस्दद रा बहाना झिया,मुन्नी उदास होकर बोली-तो तुम इतनी जरा-सी बात पर रूठ गए- जरा किसी से पूछो मैं आज कितने दिनों के बाद नाची हूँ,मुन्नी ने सिरदर्द का बहाना किया "में स्कूल आता, तो,हरदम यही खटका लगा रहता था कि देखें श्राज क्या विपत्ति आती है ।","बीस-बाईस अनुभवी और शिक्षाशास्त्र के आचार्य एक बारह-तेरह साल के उद्दंड बालक का सुधार न कर सकें, यह विचार बहुत ही निराशाजनक था ।","मैं स्कूल आता, तो हरदम यही खटका लगा रहता था कि देखें आज क्या विपत्ति आती है ।" क्या संसार में सब ह्ल्रिप्रों के पति होते हैं ?,"में ऐसी गई-बीती हूँ कि अब वह मेरा मुँह भी देखना नहीं चाहते, तो फिर क्यों में उन्हें मुँह दिखाऊँ ?",क्या संसार में सब स्त्रियों के पति होते है ? "द्ाइशाह--अपना राज्य मी 2. /पशानी-हाँ, राग्य भमो ।",उसने दबी हुई दृष्टि से दोनों कोमलांगी रमणियों को देखा और सिर झुका कर बैठ गया ।,बादशाह-अपना राज्य भी रानी-हाँ राज्य भी । पर चीन में अफीम खाने की कुप्रथा मिटाने के लिए सरकार ने इतनी भीषण हानि उठाने में जरा भी झागा-पीछा नहीं किया ।,१८ करोड़ से कुछ अधिक ही हो ।,पर चीन में अफीम खाने की कुप्रथा मिटाने के लिए सरकार ने इतनी भीषण हानि उठाने में जरा भी आगा-पीछा नहीं किया । मर थही समय था जय अनिरुद्ध ने सारपी का चम्पतराय से बियराहू कर दिया |,मुसलमानों की सेनाएँ बार-बार उन पर हमले करती थीं पर हार कर लौट जाती थीं ।,यही समय था कि जब अनिरुद्ध ने सारंधा का चम्पतराय से विवाह कर दिया । जात्मनिर्भर भी अब वह कहीं ज्यादा हो गई है,उसी प्रतिमा से आज उनका विपद्ग्रस्त मन विद्रोह कर रहा था,आत्मनिर्भर भी अब वह कहीं ज्यादा हो गई है सब सममठी होंगी यह छोग कितने मूखत हैं,मुझे मजबूर होकर दूसरा विवाह करना पड़ेगा,सब समझती होंगी यह लोग कितने मूर्ख हैं "इस दुरवस्था से निकलने के लिए, उन्होंने बडे-बडे यत्ष किये थे |","पंडितजी को यह व्यवहार असह्य लगता था, किन्तु इन लोगों को नाराज करने का साहस न कर सकते थे, उनकी बदौलत कभी-कभी दूध-दही के दर्शन हो जाते, कभी अचार-चटनी चख लेते ।",इस दुरवस्था से निकलने के लिए उन्होंने बड़े-बड़े यत्न किए थे । में तो तभी से उनकी एक बात भी सत्य नही मानती,में पान लेकर गयी चारपाई पर लेटे थे मुझे देखते ही उठ बेठे,में तो तभी से उनकी एक बात भी सत्य नहीं मानती इन तीन महीनों में बहुत प्रयत्न करने पर भी वह सौ रुपये से अधिक संग्रह न कर सका था ।,"आगे भी वही होगा, जो लिखा है ।",इन तीन महीनों में बहुत प्रयत्न करने पर भी वह सौ रूपये से अधिक संग्रह न कर सका था । माननेवाली औरत नहीं है ।,"बस, जालपा से दो बातें करना चाहता हूँ ।",मानने वाली औरत नहीं है । मैं खामखाह अपने दुराचार का दोष उनके सिर रखती हूँ ।,वह बड़े सज्जन पुरुष हैं ।,मैं खामखाह अपने दुराचार का दोष उन के सिर रखती हूँ । ः धनिया के हृदय में उल्लास का कम्पन हो रहा था,वही जानती है छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए,धनिया के हृदय में उल्लास का कंपन हो रहा था स्नो--तुम भी देख लेना में उनकी कितनी सेवा करती हैँ ।,"और यह साहब डाँट ही तो बतायेंगे , सिर झुकाकर सुन लेंगे , बाधा टल जायगी ।","‘ स्त्री –‘ तुम भी देख लेना , मैं उनकी कितनी सेवा करती हूँ ।" रमा ने आराम की लम्बी साँस ली ।,उसका साथ छोड़ने के लिए वह एक तंबोली की दूकान पर पान खाने लगा ।,रमा ने आराम की लंबी सांस ली । आन-की-आन में लोगों मे मन्द्रि को छत और ऋकछूस ढा दिये ।,आखिर यह निश्चय हुआ कि मन्दिर की छत खोदकर फेंक दी जाय और पासोनियस दोपहर की तेज धूप और रात की कड़ाके की सरदी से आप ही आप अकड़ जाय ।,आन की आन में लोगों ने मन्दिर की छत और कलस ढा दिये । भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते हैं ।,क्वार का महीना लग चुका था ।,भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते हैं । हम क्या खाकर घरम करेंगे ।,"समझा था इस तपस्या से देवीजी का मुँह सीधा हो जायगा; लेकिन आकर देखा, तो वह अब भी कोप भवन में थी ।",हम क्या खाकर धरम करें । "रमा ने जिस वक़्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी, उन्होंने समझा था कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है ।","अभी तक केवल उनकी आँखें जागी थीं, अब चेतना भी जाग्रत हो गई ।","रमा ने जिस वक्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी, उन्होंने समझा था कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है ।" द्वो्ों वच्चियाँ चर में छिए जातो हैं छि कोई बढ़ा सयंरर काण्ड होनेवाढा है ।,"महाशयजी दो-ढाई घण्टे के बाद लौटते हैं; हैरान, परेशान और बदहवास ।",दोनों बच्चियाँ घर में छिप जाती हैं कि कोई बड़ा भयंकर कांड होनेवाला है । मेरी देद में आग लग गई,उसके पहले दोनों सेठों में मित्र-भाव था,मेरी देह में आग लग गई "थालो उठाद्वर चली गई, पर उसका दिल कह रह था--इतना तो यह कभी न खाते थे ।","आदित्य ने क्षुधापूर्ण, नेत्रों से थाली की ओर देखा, मानो आज बहुत दिनों के बाद कोई खाने की चीज सामने आयी है ।","थाली उठाकर चली गयी, पर उसका दिल कह रहा था- इतना तो कभी न खाते थे ।" मझोधुर भो भोजन करके व्दों बेठा था ।,"प्रातःकाल भोजन करके उठा ही था (क्योंकि रात का भोजन सबेरे मिला) कि एक आदमी ने आकर खबर दी- बुद्धू, तुम यहाँ बैठे हो, उधर भेड़ों में बछिया मरी पड़ी है ! भले आदमी, उसकी पगहिया भी नहीं खोली थी ! बुद्धू ने सुना, और मानो ठोकर लग गई ।",झींगुर भी भोजन करके वहीं बैठा था । मेरे लिए बैठने की ज़रूरत नहीं।,"खाना ठण्डा हो जायगा, तो कहोगे मुझे भूख नहीं है।",मेरे लिए बैठने की जरूरत नहीं। "मांटे०--मैं न कहता, तो रानी तुम्हे पूछती भी न ! मोटेराम ने बहुत बहाने किये; पर चिस्तामणि ने एक न सुना ।","' मोटे - 'जरा रुक जाओ, मेरे पैर में काँटा गड़ गया है ।","' मोटे - 'मैं न कहता, तो रानी तुम्हें पूछती भी न ! ' मोटेराम ने बहुत बहाने किये, पर चिन्तामणि ने एक न सुना ।" उसने तातारी सिपहसाजार को तरफ क्रातिल नक्षरों से देखा और तत्क्षण एक देव-सा आदमी तलवार सौंतकर यप्षदानी के सिर पर भा पहुँचा ।,"सान पर चढ़े हुए, इस्पात के समान उसके अंग-अंग से अतुल क्रोध की चिनगारियाँ निकल रही थीं ।",उसने तातारी सिपहसालार की तरफ कातिल नजरों से देखा और तत्क्षण एक देव-सा आदमी तलवार सौंतकर यजदानी के सिर पर आ पहुँचा । रमा ने अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने कष्टों को ख़ूब बढ़ा-बढ़ाकर बयान किया ।,"अगर वह गहने ही बनवाती, तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी, पर उसने इन बातों को कभी उचित सीमा से आगे न बढ़ने दिया ।",रमा ने अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने कष्टों को ख़ूब बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया । सलीम ने खट्टे होकर कह्ा--पण्डितजी के बस की वात थोड़े हौ है,बोला -पंडितजी आज मान न जायेंगे,सलीम ने खड़े होकर कहा-पंडितजी के बस की बात थोड़े ही है "रोम, यूनान, ईरान, अतीरिया किसी का अब निशान भी नहीं है ।",मैं तुम्हें केराया कहाँ से दूँगी ।,"रोम, यूनान, ईरान, सीरिया किसी का अब निशान भी नहीं है ।" दूसरे दिन अभियोग चला ।,पाप को क्षमा करना पाप करना है ।,दूसरे दिन अभियोग चला । पहले ही से लोग बदनाम कर रहे हैं ।,"अगर कोई उसे देखने न आया, तो वह मिठुआ था ।",पहले ही से लोग बदनाम कर रहे हैं । "सदन--जी हाँ, कर चुका ।",पद्म -- वाह अच्छे रहे! कुछ भोजन किया ?,"सदन - जी हाँ, कर चुका ।" निःक्षाक पानी में घुस पढ़ा पर लहरें तेज़ थीं पाँव उखड़ गये बहुत सँभालवा चाहा पर न संभल सका,कहाँ थे- भभूत और आशीर्वाद का भरोसा था,निशंक पानी में घुस पड़ा पर लहरें तेज थीं पाँव उखड़ गए बहुत संभलना चाहा पर न संभल सका पयाग ने अपना ठपला ओर चिज्ञम बड़ों पय्क दिया ओर ऊन्वे पर लोहबन्द लाठी रखकर वेतहाशा मैया को तरफ दौढ़ा ।,"आग की एक लपट, केवल एक जरा-सी चिनगारी सारे हार को भस्म कर देगी ।",पयाग ने अपना उपला और चिलम वहीं पटक दिया और कंधो पर लोहबन्द लाठी रख कर बेतहाशा मड़ैया की तरफ दौड़ा । सौन्द्य को बाजारी चीज़ समझना कुछ बहुत अच्छी बात तो नहीं है ।,"तुम्हें तो पता नहीं है , पर यहाँ तुम्हारे बीसों दुश्मन हैं ।",सौन्दर्य को बाजारू चीज समझना कुछ बहुत अच्छी बात तो नहीं है । "एक महाशय ने कहा--इसे थोडी-सी शराब पिला दीजिए, नशे में आकर खूब चौकड़ियाँ भरने लगेगा ।",यहाँ स्त्रियों और बालकों का मेला लग गया ।,"एक महाशय ने कहा 'इसे थोड़ी-सी शराब पिला दीजिए, नशे में आ कर खूब चौकड़ियाँ भरने लगेगा ।" "अबकी उसने तिरुपमा को बुलाया नदों, जानती थी कि लोग बिदा द्वी न करेंगे, पति को लेकर स्वयं भापहुचौ |",नईम- तुमने सारी दुनिया के सामने मेरी तौहीन नहीं की ?,"अबकी उसने निरुपमा को बुलाया नहीं, जानती थी कि लोग विदा ही न करेंगे, पति को लेकर स्वयं आ पहुँची ।" सुखदा को इस कथन में अपने ऊपर लांछत का आभास हुआ,अपनी दलीलों का यह अनादर न सह सकी,सुखदा को इस कथन में अपने ऊपर लांछन का आभास हुआ "रमा करवट पौढ़ गया ; पर ऐसा जान पड़ता था, मानों चिन्ता और शंका दोनों आँखों में बैठी हुई निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं ।","' रमा ने लज्जित होकर कहा, -- हाँ जी, न जाने क्या देख रहा था कुछ याद नहीं ।","' रमा करवट पौढ़ गया, पर ऐसा जान पड़ता था, मानो चिंता और शंका दोनों आंखों में बैठी हुई निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं ।" "यह कौतुक देखकर मुझे रोमाश्व होने लगा, मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी |","कितने ही कुत्ते भी उन पत्तलों पर झपट रहे थे, पर वे कंगले कुत्तों को मार-मार कर भगा देते थे ।","यह कौतुक देख कर मुझे रोमांच होने लगा, मेरी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी ।" देवी--ठ॒म्हार घर में बहुत-सी ओरते होगी ?,प्रेम अपमानित हो कर द्वेष में बदल जाता है ।,देवी- तुम्हारे घर में बहुत-सी औरतें होंगी । "पद्म--नहीं, मुझे! संदेह यही है कि वह सुख-विलास छोड़कर विधवाश्रम में क्‍यों जाने लगी और सभावाले उसे लेना स्वीकार कब करेंगे ?",विट्ठलदास -- तो क्या आप कोई प्रतिज्ञापत्र लिखवाना चाहते हैं ?,"पद्म--नहीं, मुझे संदेह यही है कि वह सुखविलास छोड़ कर विधवाश्रम में क्यों जाने लगी ओर सभा वाले उसे लेना स्वीकार कब करेंगे ?" तुम मेरे साथ क्‍यों परेशान होगे |,मैं आजकल बहुत सबेरे उठ जाता हूँ ।,तुम मेरे साथ क्यों परेशान होगे ? कोई पन्द्रह मिनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बाद वकील साहब की साँस कुछ थमी ।,स्टोव जलाकर उसने रूई के गाले से छाती को सेंकना शुरू किया ।,कोई पंद्रह मिनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बाद वकील साहब की सांस कुछ थमी । छुढ़िया को तो उसने आठा-दाल देकर बिंदा किया ; किन्तु प्रकाश दा कुतक उसके हृदय में फोड़े के समान टीक्षता रद्दा ।,"दूसरे मुल्कों में अगर कोई भीख माँगे, तो कैद कर लिया जाय ।","बुढ़िया को तो उसने आटा-दाल देकर विदा किया, किन्तु प्रकाश का कुतर्क उसके हृदय में फोड़े के समान टीसता रहा ।" निर्मला सौर में थी।,किसी को सहसा विश्वास न आता था।,निर्मला सौर में थी। सन्ध्या का समय उसके लिए निकाल रखा था।,आज वह बहुत देर तक बेठा रहा ।,संध्या का समय उसके लिए निकाल रखा था । "कभी मालिक मकान श्राकर गालियाँ सुना जाता है, कभी दूधवाला, कभी बनिया, कभी कपड़ेवाला ।",बेचारा रेलवे के दफ्तर में नौकर था ।,"कभी मालिक मकान आकर गालियाँ सुना जाता है, कभी दूधवाला, कभी बनिया, कभी कपड़ेवाला ।" आज गफलत हो गयी ।,"तुरन्त कूदकर बाहर निकला और युवक के सामने आकर बोला---बुड्ढे को क्यों मारते हो, भाई ?",आज गफ़लत हो गई । "एक सप्ताह के बाद इद्धा का कष्ट निबारण हुआ, भरने में कोई कसर न थी, वह दो कहो, पुरुषाओं का पुण्य-प्रताप था ।",मरती हूँ तो भोजन को तरस-तरस क्यों मरूँ ।,"एक सप्ताह के बाद वृद्धा का कष्ट निवारण हुआ, मरने में कोई कसर न थी, वह तो कहो पुरुखाओं का पुण्य-प्रताप था ।" यह बेअद्बी कौन सह सकता है ।,वह युवक दो आदमियों के साथ अभी तक डटा खड़ा था ।,यह बेअदबी कौन सह सकता है । अब मुशी सत्यनारायण के अधिकार और भी बढे |,धीरे-धीरे मुंशी जी का विश्वास इतना बढ़ा कि पंडित जी ने हिसाब-किताब का समझना भी छोड़ दिया ।,अब मुंशी सत्यनाराण के अधिकार और भी बढ़े । "इस दुधटना के पश्चात्‌ एक सप्ताह तर कालेज खुला रहा, किन्तु पण्डितजो को किसी ने इंपते नहीं देखा |",पण्डित ने खूब उच्च स्वर से गिन-गिनकर बीस की संख्या पूरी की और गर्व से सिर उठाये अपने कमरे में चले गये ।,इस दुर्घटना के पश्चात् एक सप्ताह तक कालेज खुला रहा; किन्तु पण्डितजी को किसी ने हँसते नहीं देखा । अच्छी-अच्छी पुस्तकें मँगवा देना।,देखने वाले समझते होंगे कि यह बहुत प्रेम करता है।,अच्छी-अच्छी पुस्तकें मंगवा देना। "सणनप्तिंद्द ने उसके माथे पर हाथ रखकर कद्दा--बेटी, तुम्हारा सोहाग मर हो ।",सुभागी - मैं तो आपको अपना पिता समझती हूँ ।,"सजनसिंह ने उसके माथे पर हाथ रखकर कहा- बेटी, तुम्हारा सोहाग अमर हो ।" "सुभद्रा--चलो, ऐसी वातें न करो ।",मैं उसका यह घमंड तोड़ दूँगी ।,"सुभद्रा -- चलो, ऐसी बातें न करो ।" ऐसे अवसरो पर जनता की इच्छा के विरुद्ध किसी ने चू किया और उसे घिकार मिली,डॉक्टर कहता था उसमें अस्थिरचित्त होने के कोई चिह्न नहीं मिलते,ऐसे अवसरों पर जनता की इच्छा के विरूद्वद्व किसी ने चूं किया और उसे घिक्कार मिली "'या कहते हो, वह तीन बार अपने पतियों के पास से नहीं भाग आई १ ?","गंगू ने आँखों-देखी बात की तरह कहा, ‘सब झूठ है सरकार, लोगों ने हकनाहक उसको बदनाम कर दिया है ।","क्या कहते हो, वह तीन बार अपने पतियों के पास से नहीं भाग आयी ?" "द्ी--राम का नाम छेके विवाद करो, कोई किसी का भाग्य थोड़े द्वी पढ़े बेठा दे ।","सेवक, हजारीलाल ।",स्त्री- राम नाम ले के विवाह करो कोई किसी का भाग्य थोड़े ही पढ़े बैठा है । "अब भी कभी उस स्त्री की चर्चा आ जाती है, तो रोने लगते हैं ।",चन्द्रहार नहीं है क्या ?,"अब भी कभी उस स्त्री की चर्चा आ जाती है, तो रोने लगते हैं ।" दिन-ऊे दिन बच्चा खुर्स खाट पर पड़ा माता को नेराश्य-दृष्टि से देखा करता ।,"जानती हो, कै बजे हैं ?",दिन के दिन बच्चा खुर्रा खाट पर पड़ा माता को नैराश्य-दृष्टि से देखा करता । भागे न जा सका ।,यह सोचते ही उसके पैर बँध गए ।,आगे न जा सका । "हवलदार-अपने भाइयों का गला काटने के लिए नहीं, उनकी रक्षा करने के लिए नौकरी की थी ।",सेवकों की गिरफ्तारी से उनकी उत्सुकता और भी बढ़ गई थी ।,"हवलदार-अपने भाइयों का गला काटने के लिए नहीं, उनकी रक्षा करने के लिए नौकरी की थी ।" सीधी-सी बात तो थीं |,"मैं बेखबर खड़ा था, चारों खाने चित सड़क पर गिर पड़ा ।",सीधी-सी बात तो थी । "मिस्टर सोरावणी--मेने सुना है, भापटे बिलकुछ गयार-सा आदमी है ।",मिसेज़ पेटिट बोलीं- मिस जोशी दिलों का शिकार करने ही के लिए बनायी गईहैं ।,मिस्टर सोराबजी- मैंने सुना है आपटे बिलकुल गँवार-सा आदमी है । "किंतु ऐसा शब्द एक भी न मिला, जिससे वह खींच-तानकर भी कोई गुप्त आशय निकाल सकती ।","एक दिन इन भावनाओं ने उसे इतना व्याकुल किया कि वह रानी के कमरे में जाकर विनय के पत्रों को पढ़ने लगी और एक क्षण में जितने पत्र मिले, सब पढ़ डाले ।","किंतु ऐसा शब्द एक भी न मिला, जिससे वह खींच-तानकर भी कोई गुप्त आशय निकाल सकती ।" "यदि लील्य कभी कहतो, ज़रा और सबेरे आ जाया करो तो विगढ़ जाते और कहते --तुम्दहारे लिए कया दूकान छोढ़ दूँ या रोज़गार बन्द कर दूँ ।",प्रातःकाल दोनों मित्र कांजी हौस में बन्द कर दिए गए ।,"यदि लीला कभी कहती , जरा और सबेरे आ जाया करो , तो बिगड़ जाते और कहते तुम्हारे लिए क्या दूकान छोड़ दूँ , या रोजगार बन्द कर दूँ ?" पभो के दिन हँसौ-खुशों में कटे तो रोये कौन ।,सहेलियाँ कैलासी की यह गर्वपूर्ण बातें सुनतीं और उसकी और भी प्रशंसा करतीं ।,सभी के दिन हँसी-खुशी से कटें तो रोये कौन । सच पूछो तो माधवो छो तपस्या ने बालऊ को बचाया ।,किसी तरह सबेरा हुआ ।,सच पूछो तो माधवी की तपस्या ने बालक को बचाया । अन्त में श्राश्रम का सारा भार हमीं लोंगों पर आ पड़ेगा ।,पद्मसिंह ने यह सुनकर चिंतित भाव से कहा -- तो अब हम को ओर सतर्क होने की जरूरत है ।,अन्त में आश्रम का सारा भार हमीं लोगों पर आ पड़ेगा । इसी को उसने अपनी जीविका का साधन घनाया ।,हम दोनों में परस्पर बहसें होती रहती थीं ।,इसी को उसने अपनी जीविका का साधन बनाया । उसे हरएक विद्या हरएक कला में पारंगत होना चाहिए लेकिन उसे जीवित रहने का अरशि कार नहीं,उनकी बहन कमरे की बत्ती बुझा दिया करती थी,उसे हर एक विद्या हर एक कला में पारंगत होना चाहिए लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं गूदढ़ का द्वार ही चौपाल का काम देता था,किसी लड़के ने हाथ न उठाया,गूदड़ का द्वार ही चौपाल का काम देता था उस पर वह इस कदर बिगडा कि जब उसके चने खलिहान में आये तो उसने आग लगा दी |,"हाँ, तो जब घरवालों को कोई इसकी फिक्र नहीं तो तुम क्यों व्यर्थ जान देते हो ।","उस पर वह इस तरह बिगड़ा कि जब उसके चने खलिहान में आये, तो उसने आग लगा दी ।" गाड़ी के और मुसाफ़िर भी बूढ़े को श्रद्धा के नेत्रों से देखने लगे ।,दस रूपये में तुम्हारा काम चल जाएगा ?,गाड़ी के और मुसाफिर भी बूढ़े को श्र'द्धा की नजरों से देखने लगे । "तीत्र स्वर में बोली--क्या ठुम चाहते हो कि मै इस कैद मे अ्रकेले जान दे दू ! कोई तो हो जिससे आदमी हंसे, बोले ! रामेट्र ने गम होकर कह्- हँसने-बोलने का इतना शोक था, तो मेरे साथ विवाह न करना चाहिए था |",' सुलोचना अपने विचार में मर्यादा-रक्षा के लिए काफी आत्मसमर्पण कर चुकी थी ।,"तीव्र स्वर में बोली, 'क्या तुम चाहते हो कि मैं इस कैद में अकेले जान दे दूँ ! कोई तो हो जिससे आदमी हँसे, बोले !' रामेन्द्र ने गर्म होकर कहा, 'हँसने-बोलने का इतना शौक था, तो मेरे साथ विवाह न करना चाहिए था ।" उसने मेद-नोत का अपना लक्षंय बना लिया था |,' रुक्मिन ने पूरा रुपया ला कर पयाग के हाथ पर रख दिया ।,उसने भेद-नीति को अपना लक्ष्य बना लिया था । "इतने में कुत्ता उठ बैंठ,, लाडली को ढादस हुआ |","उनकी पूँछ, उनकी गदा, वह स्पष्ट दिखलाई दे रही है ।","इतने में कुत्ता उठ बैठा, लाडली को ढाढ़स हुआ ।" "अब इस घर से कदापि न रहेगा, कितवा ही समक्ताओ |",प्रकाश – आप कहें; लेकिन मैं समझता हूँ मेरे सिर बड़ा भारी अपराध लग गया ।,"अब इस घर में कदापि न रहेगा, कितना ही समझाओ ।" पति दिन मर का थका-माँदा घर आया है ।,गाँव का साहूकार भी पतिव्रता स्त्रियों की भाँति आँखें चुराने लगा ।,पति दिन भर का थका-माँदा घर आया है । वह दिन फिर कब आयेंगे ?,"लीला मुस्कराकर बोली , तुमसे मतलब ?",वे दिन फिर कब आयेंगे ? उसका विनोद भी गाली से झुरू होता था और गाली तो गाली थी ही,नौकर पान-इलायची की तश्तरी रख गया,उसका विनोद भी गाली से शुरू होता था और गाली तो गाली थी ही "कुछ लिखाई कट गर, कुछ नक़राना निकल गया, कुछ दलाऊी में गया ।","तीन साल किसी तरह कौशल से कट गये और मजे में कट गये, लेकिन अब विपत्ति सिर पर मँडरा रही है ।","कुछ लिखाई कट गई, कुछ नजराना निकल गया, कुछ दलाली में आ गया ।" सदसा सलीम की मोटर भाई और सलीम ने उतरकर द्वाथ मिलते हुए कद्दा-- भब तो आप भच्छे माद्म होते हैं,इधर आठ दिन से सलीम नहीं आया,सहसा सलीम की मोटर आई और सलीम ने उतरकर हाथ मिलाते हुए कहा-अब तो आप अच्छे मालूम होते हैं "वकील साहब को रतन से पति कास्सा प्रेम नहीं, पिता का-सा स्नेह था ।","' वकील --'लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी ।","' वकील साहब को रतन से पति का-सा प्रेम नहीं, पिता का-सा स्नेह था ।" महज़ कुर्सी की शोभा बढ़ाने के लिए ?,यह तो डाक्टरों का हाल है ।,महज़ कुर्सी की शोभा बढ़ाने के लिए ? मैने फिर कभी उनकी डॉट-डपथ वी परवा नहीं की ।,इतने में शायद वह घर पहुँच जाएँ ।,मैंने फिर कभी उनकी डॉट-डपट की परवा नहीं की । इतने रुपये ढे देना तुम्हारे लिए कुछ भी मुश्किल नहीं ।,"पुलिस उस वक्त आयेगी , जब हम अपना काम करके सौ कोस निकल गये होंगे ।",इतने रुपये दे देना तुम्हारे लिए कुछ भी मुश्किल नहीं । सोम० --छम लोगा ने गॉव मे मुझे कही मुंह दिखाने के याग्य नहीं रखा ।,"जिस दिन मैं ज्ञानचंद से यह बात कह दूँगा, तुम्हें इस घर से निकलना पड़ेगा ।",सोम. -तुम लोगों ने गाँव में मुझे कहीं मुँह दिखाने के योग्य नहीं रखा । दौलत कोई दीपक तो है नहीं जिससे प्रक्मश फेलता रहे,मेरे जानवरों के खिलाने-पिलाने का भार ट्रस्ट पर होगा,दौलत कोई दीपक तो है नहीं जिससे प्रकाश फैलता रहे "शुसछमानों की सेनाएँ वार-यार उन पर हमले दग्तों थी, पर हार कर छोट जाती थी ।",इस घटना के तीन महीने पीछे अनिरुद्ध महरौनी को जीत करके लौटा और साल भर पीछे सारंधा का विवाह ओरछा के राजा चम्पतराय से हो गया मगर उस दिन की बातें दोनों महिलाओं के हृदय-स्थल में काँटे की तरह खटकती रहीं ।,मुसलमानों की सेनाएँ बार-बार उन पर हमले करती थीं पर हार कर लौट जाती थीं । संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमेहन भी आ पहुँचा।,"जो बात करो, सफाई से करो, बुरा हो या अच्छा।",संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ पहुंचा। - एक दिन ख़बर मिलो लाला समरकान्त को ज्वर आ गया है,फीस ही तो लेगा,एक दिन खबर मिली लाला समरकान्त को ज्वर आ गया है उन्हें भारत की देवियों को ईंट और पत्थर के सामने सिर झुकाते देखकर हार्दिक वेदना होती थी ।,रानीजी भी दिन में एक बार जरूर आ बैठतीं ।,उन्हें भारत की देवियों को ईंट और पत्थर के सामने सिर झुकाते देखकर हार्दिक वेदना होती थी । "धनीराम ने कटाक्ष किया--देखो दुबलदास, माल तो ले जाते हो ; पर तीन हज़ार से बेसी की है ।",इसलिए सौदा इन्हीं के हाथ हुआ ।,"धनीराम ने कटाक्ष किया 'देखो दुर्बलदास, माल तो ले जाते हो; पर तीन हजार से बेसी का है ।" "वही देव रा-सा जवान जो को प्रो तक साँड़ को अगराता चला आया था, तत्तों के विरोध का एक वार सी न सह सछा ।",लेकिन दर्द बढ़ने लगा और मथुरा का आगे जाना कठिन हो गया ।,"वही देव का-सा जवान जो कोसों तक साँड़ को भगाता चला आया था, तत्तवों के विरोध का एक वार भी न सह सका ।" सुमन--हाँ और कौन है ?,भोली -- और अकेली ही रहोगी ?,सुमन -- हाँ और कौन है ? व अब पहले को भांति भोरु न थे ।,"उन्हें यकीन था कि असहयोग एक हवा है, जब तक चलती रहे उसमें अपने गीले कपड़े सुखा लें ।",वह अब पहले की भाँति भीरु न थे । सोफिया कुछ चिंतित-सी हो गई ।,शायद लकड़ी बटोरने चली गई थी ।,सोफिया कुछ चिंतित-सी हो गई । माना कि परोपकार आदर्श जीवन है; लेकिन स्वार्थ भी तो सर्वथा त्याज्य नहीं ।,"जब तक सोफी सामने बैठी थी, उसे सामने आने का साहस न हुआ ।",माना कि परोपकार आदर्श जीवन है; लेकिन स्वार्थ भी तो सर्वथा त्याज्य नहीं । अगर सेरे ज्यवद्धार का यहो तत्त्व तुमने निकाला है तो तुम्हें इक्षसे बहुत पहले मुझे विप दे देना चाहिए था,इन दो सालों में मुझमें कितना परिवर्तन हो गया है कभी-कभी मुझे इस पर स्वयं आश्चर्य होता है,अगर अब तक मेरे व्यवहार का यही तत्व तुमने निकाला है तो तुम्हें इससे बहुत पहले मुझे विष दे देना चाहिए था हमें कौन छातो पर लादकंर ले जाना है ।,माता ने विस्मित होकर बालिका की ओर देखा - क़ैसे रुपये ?,हमें कौन छाती पर लादकर ले जाना है ? "जो कुछ थे, बच्चे थे, वह्ठ कुछ न थी ।",दिन-भर खाते और आये-दिन बीमार पड़े रहते ।,"जो कुछ थे बच्चे थे, वह कुछ न थी ।" यह कहते-कहतते गोविन्दी का गला मर आया ।,मेरी ओर आँख उठा कर देखा तक नहीं ।,यह कहते-कहते गोविंदी का गला भर आया । भगवान्‌ तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है।,कोई सौदा उनके मन ही नहीं भाता।,भगवान तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है। दारोगाजी कोई बिराने आदमी नहीं हैं ।,चौकीदार-हरजाई तो है ही ।,दारोगाजी कोई बिराने आदमी नहीं हैं । "एक हिचकी भी नहीं, एक उच्छवास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती ! सागर की हिलोरों का कहाँ भकतँ होता है, कौन बंता सकता है ।","इसका आशय क्या था, न मैं समझ सकी, न अम्मां समझ सकीं, पर वह बराबर यही रटे जाते थे,पेट भक हो गया! पेट भक हो गया! आओ कमरे में चलें ।","एक हिचकी भी नहीं, एक उच्छवास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती! सागर की हिलोरों का कहाँ अंत होता है, कौन बता सकता है ।" मैं तुम्हें कल बुलाऊँगी ।,"सुभद्रा ने कहा -- नहीं बहिन, अभी तो तुमसे कुछ बातें भी न करने पाई ।",में तुम्हें कल बुलाऊँगी । बात कुछ बनौ नहों ।,"हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शुरू की— मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा ।",बात कुछ बनी नहीं । उनकी चमक-दमक ने उन्हें ऐसा मोहित कर लिया कि गुण-दोष की विवेचना करने की उनमें शक्ति ही न रही ।,"कितनी अपार वेदना है, जिसने विश्वास का भी अपहरण कर लिया है ।",उनकी चमक-दमक ने उन्हें ऐसा मोहित कर लिया कि गुण-दोष की विवेचना करने की उनमें शक्ति ही न रही । मुकदमे की पेरवी का सार भार उसके ऊपर था,उसका शासन किसी तरह की नर्मी नहीं करता,मुकदमे की पैरवी का सारा भार उनके ऊपर था माता ने बालक से कहा--अव जाता क्यों नहीं रे घुला तो रही हैं,सहसा बालक चिल्लाकर मां की तरफ भागा मानो उसने कोई भयानक रूप देख लिया हो,माता ने बालक से कहा-अब जाता क्यों नहीं रे बुला तो रही हैं "रुई से धन कमाया है , रूह को चिता पर जले ।",एक-एक को भूनकर रख देता; मगर क्या जानता था कि यहाँ इतनी भयंकर परिस्थिति आ खड़ी होगी ।,"रुई से धन कमाया है, रुई की चिता पर जले ।" में कपडे उत्तारना भूल गया ।,"मैंने एक बोया हुआ खेत लिया, तो क्या उसकी फसल को इसलिए छोड़ दूंगा, कि उसे किसी दूसरे ने बोया था ?",मैं कपड़े उतारना भूल गया । "इनके पास हपये छेते समय तो अतुछझ श्रपत्ति दोती है, केकित रुपये द्वाथ में आते द्वी वह सारो संपत्ति यायव हो णाती है ।","वह कचहरी में मुख्तारगिरी करते थे और जो कुछ बचत होती थी, उसे २५-३० रुपये सैकड़ा वार्षिक ब्याज पर उठा देते थे ।",इनके पास रुपये लेते समय तो बहुत सम्पत्ति होती है; लेकिन रुपये हाथ में आते ही वह सारी सम्पत्ति गायब हो जाती है । आदिर मैंने किसो स्वार्थ से हो उसे अमरूद खिलाया होगा ।,तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद ?,आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा । पड़ावों में उसकी रातें इसी भाँति चिन्ता के खेमे के पाछे बैठे-बैंठे कव्ती थीं ।,यही रत्नसिंह था ।,पड़ावों में उसकी रातें इसी भाँति चिंता के खेमे के पीछे बैठे-बैठे कटती थीं । "उस स्वाधीनता के साथ जो श्रापत्तिकाल में हृदय पर अभ्रधिकार पा जाती है, उसने दर्माजी को दुरात्मा, भीर, दयाशुन्य तथा नीच ठहराया |",सुमन को शर्माजी से ऐसी आशा न थी ।,"उस स्वाधीनता के साथ जो आपत्तिकाल में हृदय पर अधिकार पा जाती है, उसने शर्माजी को दुरात्मा, भीरु, दयाशून्य तथा नीच ठहराया ।" द्वार पर मोटर रुको तो छाला समरकान्त ने आकर डाक्टर को सलाम किया और बोले--हुज्ूर के अक्बाल से सब चेन-चान है,बंदूकें छूट रही थीं,द्वार पर मोटर रूकी तो लाला समरकान्त ने आकर डॉक्टर को सलाम किया और बोले-हुजूर के इकबाल से सब चैन-चान है "सनी आपने रसिकलाल जी, कवि की मद्िमा ।","मस्तराम - आपका यही एक वाक्य है, जिस पर सैकड़ों कविताएंन्योछावर हैं ।","सुनी आपने रसिकलालजी, कवि की महिमा ।" "बेटों को गंगा में सौंपकर में सीधे बजाजे पहुँचा और उसी जगह खड़ा हुआ, जहाँ दोनों बीरों की लहास गिरी थी ।","तुम्हारे चरन छूकर कहता हूँ भैया, उस बखत ऐसा जान पड़ता था कि मेरी छाती गज-भर की हो गई है, पांव ज़मीन पर न पड़ते थे, यही उमंग आती थी कि भगवान ने औरों को पहले न उठा लिया होता, तो इस समय उन्हें भी भेज देता ।","बेटों को गंगा में सौंपकर मैं सीधे बजाजे पहुँचा और उसी जगह खडा हुआ, जहाँ दोनों बीरों की लहास गिरी थी ।" "न आँखों में ज्योति रही, न पेरो मे शक्ति ।",मुझ-जैसे अभागे के लिए इससे अधिक वह और कर ही क्या सकती है ! उस भूमि को एक बार देखने के लिए वह अपना जीवन दे सकता था; पर यह अभिलाषा न पूरी होती थी ।,"न आँखों में ज्योति रही, न पैरों में शक्ति ।" सारा लखवऊ पहाड़ों पर चला गया है |,उसे सेर उठाने की फ़ुरसत न मिलती थी ।,सारा लखनऊ पहाड़ों पर चला गया है । बेचारे रमेश बाब॒ दिन में कई-कई बार .आकर पूछ जाते हैं ।,"कोई कुछ कहता है, कोई कुछ ।",बेचारे रमेश बाबू दिन में कई-कई बार आकर पूछ जाते हैं । कुछ विश्राम करने का जी चाहता था,पहले किसी ने हाथ न उठाया,कुछ विश्राम करने का जी चाहता था ऊँची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे ।,"यद्यपि विट्ठलदास के अनुयायियों की कमी न थी, लेकिन उनमें प्रायः सामान्य अवस्था के लोग थे ।",ऊँची श्रेणी के लोग उनसे दूर भागते थे । जो संस्थाएं राष्ट्रीय उत्थान के लिए उद्योग कर रही थीं उनसे उसे सद्दानुभूति हो गई,हां जलसों में उसे अब और अधिक उत्साह हो गया,जो संस्थाएं राष्ट्रीय उत्थान के लिए उद्योग कर रही थीं उनसे उसे सहानुभूति हो गई कम-से-कम्र इतना तो करना चाहिये था कि उसे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देते ओर उसके निर्वाह का कोई प्रबन्ध कर देते |,मुझे कई बार कालिंदी से बातचीत करने का अवसर मिला है ।,कम से कम इतना तो करना चाहिए था कि उसे किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देते और उसके निर्वाह का कोई प्रबंध कर देते । "बढ़ा लड़का वेदार बोला- काकी, रम्घ्‌ दादा ने हमारे लिए दो बाड़ियाँ बता दीं हैं ।","अब द्वार पर कौन है, जो उनकी देखभाल करेगा ?","बड़ा लड़का केदार बोला- काकी, रग्घू दादा ने हमारे लिए दो गाड़ियाँ बना दी हैं ।" विट्टलदास क्री गुप्त छुरी के आघात ने उन्हें निस्‍्तेज वना दिया था ।,यह कहकर शर्माजी घर चले आए ।,विट्ठलदास गी गुप्त छुरी के आघात ने उन्हें निस्तेज बना दिया था । "अकस्मात्‌ एक बार बिजली का भयकर नाद सुनायी दिया, एक ज्वाला-न्सी दिखायी दी ओर अमरनाथ अदृश्य हो गये ।","शिखर पर एक मनुष्य नंगे सिर बैठा हुआ है, उसकी आँखों का अश्रु-प्रवाह साफ दीख रहा है ।","अकस्मात् एक बार बिजली का भयंकर नाद सुनायी दिया, एक ज्वाला-सी दिखायी दी और अमरनाथ अदृश्य हो गये ।" विनय-तुम पाषाण-हृदय हो ।,यही दोस्ती है ?,विनय-तुम पाषाण-हृदय हो । "सबसे बढ़कर दु:ख उसे इस बात का था कि मुहल्ले के लोग उन दोनों के साथ पहले ही का-सा व्यवहार करते थे, कोई उन्हें न रगेदता था, न लताड़ता था ।","अरे अभागे युवक ! तुझे खबर नहीं , तू अपने भविष्य की गर्दन पर कितनी बेदर्दी से छुरी फेर रहा है ?","सबसे बढ़कर दु:ख उसे इस बात का था कि मुहल्ले के लोग उन दोनों के साथ पहले ही का-सा व्यवहार करते थे, कोई उन्हें न रगेदता था, न लताड़ता था ।" "अगर आप चोर हैं, तो किसी हिन्दू के घर डाका डालिए; अगर आपको हुस्न या इश्क का खब्त है, तो किसी हिन्दू नाजनीन को उड़ाइए, 'तब श्राप कौम के खादिम, कौम के मुहसिन, कौमी किश्ती के नाखुदा--सव कुछ हैं ।","सब इंस्पेक्टर पुलिस है तो हिन्दुओं पर झूठ मुकदमें दायर कीजिए, तहकीकात करने जाइए तो हिन्दुओं के बयान गलत लिखिए ।","अगर आप चोर है तो हिंदु के घर डाका डालिए, अगर आपको हुस्न या इश्क का खब्त है तो किसी हिंदु नाजनीन को उड़ाइए, तब आप कोम के खादिम, कौम के मुहकिन, कौमी किश्ती के नाखुदा -- सब कुछ हैं ।" कहीं घर से तो नहीं उठा लाये ?,सुमन के मन में प्रश्न हुआ कि इतने रुपए इन्हें मिले कहाँ ?,कहीं घर से तो नहीं उठा लाए ? 'मगर है बहुत सम्भव ।,' मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता था ।,' ' मगर है बहुत सम्भव । उजागर०-- आज्ञ स्राहव के स्राथ मेरी होडी मचेगी- ।,ग्वाला- खूब गुलाल उड़ाऊँगा ।,उजागर- आज साहब के साथ मेरी होली मचेगी । प्यारी की मनोशृत्तियों में भो एक विचित्र परिवर्तत आ गया ।,"केवल इसलिए नहीं कि वे हमारे जन्मभदाता है, बल्कि इसलिए कि उन्हें दुनिया का हमसे ज्यादा तजरबा है और रहेगा ।",प्यारी की मनोवृत्तियों में भी एक विचित्र परिवर्तन आ गया । ऐसे लोग कुए ते पानी भरने देंगे ?,बैठ चुपके से ।,ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ? "विनय-कब आए, कब ?",ऐसी सूरत बना ली थी कि पहचान ही में न आते थे ।,"विनय-कब आए, कब ?" महन्तजी की सजा में कमी न हुई ।,जज के फेसले की हाईकोर्ट में अपील हुई ।,महंतजी की सजा में कमी न हुई । "चम्पा ज्योो सोजन पकाने लगी, उसने सन्दूक खोला और आमूषणो को देखने लगा ।","ऊपर एक साफ-सुथरा बरामदा था, जो बरसात में सोने के लिए ही शायद बनाया गया था ।","चम्पा ज्यों ही भोजन पकाने लगी, उसने सन्दूक खोला और आभूषणों को देखने लगा ।" सभी उनको कारगुज़ारी की प्रशसा कर रहे थे ।,"मैं तो ईश्वर से चाहती हूँ कि जो मैंने आज किया , वह बार-बार करने का मुझे अवसर मिले ।",सभी उनकी कारगुजारी की प्रशंसा कर रहे थे । सब के-सब छटे हुए गुंडे हैं,दूसरे दिन जलपान के बाद शिकार का प्रोग्राम था,सब-के-सब छटे हुए गुंडे हैं सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही,चारों ओर भयावह सन्नाटा छाया हुआ था,सुवामा इसी प्रकार देर तक विनती करती रही तिस पर गाहक रुपये के आठ सेर दूध माँगता है,बँधी पर दूध न पहुँचे तो गुजर कैसे हो,तिस पर गाहक रुपए का आठ सेर दूध माँगता है "चलो, खाना ठंडा हुआ जाता है ।","अंतर केवल यह था कि तब सिर पर अपना पति था, अब सिर पर कोई न था ।","चलो, खाना ठंडा हुआ जाता है ।" "मुन्नी बोडो--हाँ, सारे खेत का सत्यानास दो गया ।","जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था ।","मुन्नी बोली- हाँ, सारे खेत का सत्यानाश हो गया ।" उम्र समर उतका दृदप उदारता के निर्गल प्रकाश से प्रकाशित हो रहा धा ।,पं. दुर्गानाथ ने उनके पास जा कर प्रार्थना की कि मुझे भी अपनी सेवा में रख कर कृतार्थ कीजिए ।,उस समय उनका हृदय उदारता के निर्मल प्रकाश से प्रकाशित हो रहा था । कुछ रात गये दुर्गा बाजार से लौगा ।,दूसरे सज्जन ने बोले यहाँ भी वही हाल है ।,कुछ रात गये दुर्गा बाजार से लौटा । अनाज का एक दाना भी घर में न रहने पाया ।,न हो समधियाने पठवा दो ।,अनाज का एक दाना भी घर में न रहने पाया । साले सेप जायेंगे ।,"बोली, भगवान् ने सहायता की , नहीं मेरे प्राण संकट में पड़े हुए थे ।",' साले झेंप जायेंगे । "हम लोग दौड़कर पकड़ न लें, तो जान दी दे दी थी ।",अपने लिए कभी एक पैसे की तम्बाकू भी लेता है तो पैसा उसी से माँगता है ।,"अगर हम लोग दौड़कर पकड़ न लेते, तो जान ही दे दी थी ।" "तब आहिस्ता से उतरा और काँटेद[र फेंसिंग के पास आकर सोचने लगा, उस पार कैसे जाऊँ ?",वह अंधेरे बरामदे में एक मिनट खडा रहा ।,"तब आहिस्ता से उतरा और काँटेदार गेंसिंग के पास आकर सोचने लगा, उस पार कैसे जाऊँ ?" लब्द को वह एंक क्षण के लिए भो भाँखों से ओमल व द्ोने देती,पथिकों को राह चलते देखने में भी अब एक विचित्र आनंद था,मुन्ने को वह एक क्षण के लिए भी आँखों से ओझल न होने देती वश्चीधर स्नी को फटकारें छुनाकर द्वार पर उद्धग कौ दशा में खुल श्हे थे ।,"बस, लड़के पर टूट पड़ीं ।",वंशीधर स्त्री को फटकारें सुनाकर द्वार पर उद्वेग की दशा में टहल रहे थे । "बेंगरेजो ओर अन्य मभासदों ने इस प्रकार काना-कूसो शुरू की, जैसे कोई महान्‌ अनर्थ हो यया ।",बा.-इमामहुसैन की कसम अगर यहाँ कोई आदमी तुम्हें तकलीफ दे तो मैं उसे फौरन जिंदा दीवार में चुनवा दूँ ।,अँग्रेजों और अन्य सभासदों ने इस प्रकार कानाफूसी शुरू की जैसे कोई महान् अनर्थ हो गया । "वशीकरण के जितने मन्त्र हैं, उन सभी की परीक्षा करूँगा ।",कुछ न पूछिए ।,"'यह न पूछिये ! वशीकरण के जितने मन्त्र हैं, उन सभी की परीक्षा करूँगा ।" "दो-चार महीने भी आराम से न रहेगी, तो क्या याद करेगी |","हाँ, देख दो-चार दिन इस बेचारी को खिला-पिला दे, फिर तो आप ही काम करने लगेगी ।","दो-चार महीने भी आराम से न रहेगी, तो क्या याद करेगी ।" छावार के अन्दर क़दम रखते ही एक आँगव था जिएमें सुशकिल से दो खटोले पढ़ सकते थे,ऐसा नेक-शरीफ लड़का तो मैंने देखा ही नहीं,द्वार के अंदर कदम रखते ही एक आंगन था जिसमें मुश्किल से दो खटोले पड़ सकते थे दैविक आघातों से जनता की रक्षा करना उन्हें निरर्थक-सा जान पड़ता था ।,"सेवक-दल में प्राय: सभी लोग शिक्षित थे, सभी विचारशील ।",दैविक आघातों से जनता की रक्षा करना उन्हें निरर्थक-सा जान पड़ता था । एक भूरी का हाथ चाट रहा था ।,"हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था ।",एक झूरी का हाथ चाट रहा था । सेठजी झपने बंगले में आरामकुर्सी पर लेटे हुए हुबका पी रहे थे |,पहले उनकी सेवा में उपस्थित हुए ।,सेठजी अपने बंगले में आरामकुर्सी पर लेटे हुए हुक्का पी रहे थे । भमरकान्त को बाज़ार के सभी लोग जानते थे,उनसे किसी काम को कहूँगी,अमरकान्त को बाजार के सभी लोग जानते थे ",उन्हीं कौ देखा-देखी ,उसे वताव-यूगाद वी 3चांट पड़ी उन्हीं के, मता करने से उसने कंगन का भेद पंडित जी से छिपाया ।",वह मेरी प्यारी सखी थी ।,उन्हीं की देखा-देखी उसे बनाव-शृंगार की चाट पड़ी उन्हीं के मना करने से उसने कंगन का भेद पंडित जी से छिपाया । मैंने सारा कलकत्ता छान मारा ।,"खेल लो, दिल का अरमान निकल जाय ।",मैंने सारा कलकत्ता छान मारा । परिडतजी घर लोटने की तैयारियों कर रहे थे ।,महीने भर के बाद पंडित जी चलने-फिरने लगे और अब उन्हें ज्ञात हुआ कि इन लोगों ने मेरे साथ कितना उपकार किया है ।,पंडित जी घर लौटने की तैयारियाँ कर रहे थे । "लोगों ने जाकर पणिटतजी से कहा कि घुढिया को भाड जलाने की आज्ञा दे दीजिए, लेकिन पछितजी ने कुछ ध्यान न दिया ।","यह तो बिलकुल सेवड़े हैं, इनका सत्तू कैसे बनेगा ।","लोगों ने जा कर पंडित जी से कहा कि बुढ़िया को भाड़ जलाने की आज्ञा दे दीजिए, लेकिन पंडित जी ने कुछ ध्यान न दिया ।" २३ कई दिनों के बाद एक दिन कोई आठ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई युवक शतरंज के किसी नक़्शे की बातचीत करते मिले ।,"संयत विस्मृति से उसे अचेत ही रखना चाहता था, मानो कोई दुद्यखिनी माता अपने बालक को इसलिए जगाते डरती हो कि वह तुरंत खाने को मांगने लगेगा ।",सत्ताईस कई दिनों के बाद एक दिन कोई आठ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई युवक शतरंज के किसी नक्शे की बातचीत करते मिले । बजरंगी-मैं तो जैसे घबरा गया ।,जमुनी अपने द्वार पर खड़े-खड़े यह तमाशा देख रही थी ।,बजरंगी-मैं तो जैसे घबरा गया । ५० दज़ार सालाना इलाके से मिलते थे |,मैंने ही इसे बनवाया और मैंने ही इसे बिगाड़ भी दिया ।,५० हजार सालाना इलाके से मिलते थे । देखिए लखनऊ के इसीनों की रानी एक ज़ाहिद पर अपने हुस्न का मंत्र कैसे चलाती है,जिसके पास जो कुछ हो सच्चे सूरमा की तरह निकाल कर रख दे,देखिए लखनऊ के हसीनों की रानी एक जाहिद पर अपने हुस्न का मंत्र कैसे चलाती है आप तो इधर आये नहीं |,एक सेकिंड भी नहीं ।,आप तो इधर आये नहीं । "उसे उसकी, इच्छा के विरुद्ध या अ्पसान-सूचक काम में लगाना दुस्तर था ।","देखने में तो उसमें कोई ऐब न था, पर कदाचित् आत्म-सम्मान की मात्र अधिक थी ।",उसे उसकी इच्छा के विरुद्ध या अपमानसूचक काम में लगाना दुस्तर था । सिर से पाँव तक सोने-चाँदी के ज़ेवरो छे लदी हुईं ।,मनहर- जिससे हाथ लाल हो जायें ।,सिर से पाँव तक सोने चांदी के गहनों से लदी हुयी । अमर कहता है भाधा सेर दूध काफ़ी है सुखदा कहती है सेर भर आयेगा और सेर भर ही मेंगाती है,सुखदा इस दरिद्रावस्था में भी उस पर शासन कर रही है,अमर कहता है आधा सेर दूध काफी है सुखदा कहती है सेर भर आयेगा और सेर भर ही मंगाती है वह सामने आ पहुँचा ।,पहले दोनों ने डकार ली ।,वह सामने आ पहुंचा । "जब उन्होंने मिठुआ को नहीं छोड़ा, जिसे बेटे की तरह पाला, तो दूसरों की बात ही क्या ।",यह विद्या हमारे किस काम आवेगी ?,"जब उन्होंने मिठुआ को नहीं छोड़ा, जिसे बेटे की तरह पाला, तो दूसरों की बात ही क्या ।" पाँच हजार बचेंगे ।,मकान तो निकालना ही पड़ेगा ।,पाँच हजार बचेंगे । में तुमसे कोई परदा नहीं रखती ला मैंने बाबूजो की ओर छूमी आँख ठठाकर देखा भी न था पर यह घुदेल मुझे कलंक लगा रही थी,मन में ऐसी ज्वाला उठी कि अभी इसका मुँह नोच लूँ,मैं तुमसे कोई परदा नहीं रखती लाला मैंने बाबूजी की ओर कभी आँख उठाकर देखा भी न था पर यह चुड़ैल मुझे कलंक लगा रही थी मि० कैलाश उनकी कुछ परवा न करते थे |,"आभूषणों से आत्मा तो ऊँची नहीं हो जाती ! पति महाशय ने होंठ चबा कर कहा चुप भी रहो, बेसुरा राग अलाप रही हो ।",मि. कैलाश उनकी कुछ परवाह न करते थे । "मही, अवद्य कोई और बात हैं ।",राजा को ऐसा संदेह क्यों हुआ ?,"नहीं, अवश्य कोई और बात है ।" "अगर वह मुझे चार दिन भी पड़ा रहने देते, तो कदांचित्‌ मैं अपने घर लौट जाती भ्रथवा वह ( गजाघर ) ही मुझे मना ले जाते, फिर उसी प्रकार लड़-भगड़कर जीवन के दिन काटने-कटने लगते ।","यदि उस निर्दय मनुष्य ने अपनी बदनामी के भय से मेरी अवहेलना न की होती, तो मुझे इस पापकुंड में कूदने का साहस न होता ।","अगर वह मुझे चार दिन भी पड़ी रहने देते, तो कदाचित में अपने घर लौट जाती अथवा वह (गजाधर) ही मुझे मना ले जाते, फिर उसी प्रकार लड़-झगड़ कर जीवन के दिन कटने लगते ।" "आपको मुझसे कहीं अधिक रूपवतो, बुद्धिमती स्री मिलनी चाहिए थी , लेकिन मेरे देवता, दण्ड अपराधों का मिलता चाहिए, त्रूटियों का नहीं ।","बेशक मैं अँगरेजी नहीं पढ़ी, अँगरेज़ी-समाज की रीति-नीति से परिचित नहीं, न अँगरेज़ी खेल ही खेलना जानती हूँ ।","आपको मुझसे कहीं अधिक रूपवती, गुणवती, बुद्धिमती स्त्री मिलनी चाहिए थी; लेकिन मेरे देवता, दंड अपराधों का मिलना चाहिए, त्रुटियों का नहीं ।" "हममें हैं इतनी हिम्मत ! यहाँ तो कोई मेहमान आ जाता है, तो वह भी भारी हो जाता है ।","एक परदेशी आदमी को छः महीने तक अपने घर में ठहराया, खिलाया, पिलाया ।","हममें है इतनी हिम्मत! यहाँ तो कोई मेहमान आ जाता है, तो वह भी भारी हो जाता है ।" उसके पास ही एक गुजराती जौहरी बैठा सन्दृक़ से सुन्दर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था ।,"आप बडे ईमानदार की दुम बने हैं! ढोंगिया कहीं का! अगर अपनी जरूरत आ पड़े, तो दूसरों के तलवे सहलाते गिरेंगे, पर मेरा काम है, तो आप आदर्शवादी बन बैठे ।",उसके पास ही एक गुज़राती जौहरी बैठा संदूक से सुंदर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था । "सामन्त नादिर के खूब के प्यासे हो गये, प्रजा ला छो जानी दुश्मन ।",शेष रुपये प्रजा-हित के कामों में खर्च कर दिये जाते थे ।,"सामन्त नादिर के खून के प्यासे हो गये, प्रजा लैला की जानी दुश्मन ।" "मेरा जीवन कितना अधम, कितना पतित है, यह मुझ पर उस वक़्त खुला, और जब में जालपा से मिली, तो उसकी निष्कराम सेवा, उसका उज्ज्वल तप देखकर मेरे मन के रहे-सहे संस्कार भी मिट गये ।","जालपा देवी के प्रति उसकी श्रद्धा, उसका अटल विश्वास देखकर मैं अपने को भूल गई ।","मेरा जीवन कितना अधाम, कितना पतित है, यह मुझ पर उस वक्त ख़ुला, और जब मैं जालपा से मिली, तो उसकी निष्काम सेवा, उसका उज्ज्वल तप देखकर मेरे मन के रहेसहे संस्कार भी मिट गए ।" उसका लबोलहज़ा भी अग्नेजो से मिलता जुलता था ।,"वह अब यहाँ के भरतीय समाज का प्रमुख अंग बन गया था, जिसके आथित्य और सौजन्य की सभी सराहना करते थे ।",उसका लबो-लहजा भी अंग्रेजों से मिलता जुलता था । आपकी एक वेश्या से आदनाई है |,"मैं कहती हूँ , तुम उनके सर्वनाश का सामान किये जाते हो , उनके लिए जहर बोये जाते हो ।",आपकी एक वेश्या से आशनाई है । "जिन भावों को उसने ग्रुत्त रखना चाहा, स्वयं उन्हीं भावों की मूतति बन गया ।",पर उसे यह ध्यान न रहा कि में अपनी जगह पर मूर्तिवत खड़ा हूँ ।,"जिन भावों को उसने गुप्त रखना चाहा, स्वयं उन्हीं भावों की मूर्ति बन गया ।" अगर जानती कि तुम्दारा स्वभाव इतना नीच ६ तो तुम्दारों परछाई से भागती,कोई मरे या जिए तुम्हारी बला से,अगर जानती कि तुम्हारा स्वभाव इतना नीच है तो तुम्हारी परछाईं से भागती "ये लोग बड़े व्यापारी, धनवान्‌ और प्रभावशाली मनुष्य थे |",लेकिन मेम्बरों में कुछ ऐसे सज्जन भी थे जिनकी ओर से घोर विरोध होने का भय था ।,"वे लोग बड़े व्यापारी, धनवान और प्रभावशाली मनुष्य थे ।" हाली का त्योहार परस्पर प्रेम ओर मेल बढ़ाने के लिए है,लालाजी ने भी प्रत्युत्तर दिया,होली का त्योहार परस्पर प्रेम ओर मेल बढ़ाने के लिए है "देखें, अह बहका हुआ कबूतर किस छतरी पर उतरता है ?",वेश्याएं छज्जों पर आ कर खड़ी हो जाती ओर प्रेम कटाक्ष के बाण उस पर चलातीं ।,देखें यह बहका हुआ कबूतर किस छतरी पर उतरता है ? तुमसे अच्छा वर में कहाँ पाऊँगी |,"समझती होगी, फीस पंचजी दे देंगे ।",तुमसे अच्छा घर मैं कहाँ पाऊँगी । "वह उन्हें धर्मात्मा, विद्वान समभती थी।",उनमें से कितनों ही को सुमन नित्य गंगास्नान करते देखती थी ।,"वह उन्हें धर्मात्मा, विद्वान समझती थी ।" "हम दस अस्वाभाविक त्ीवन, इस सम्यता के तिलिस्म से वाहर निकलने की चेरठा नहीं करते |",फिर पीछे लौटे और एक विस्मित दशा में सुफेदे के वृक्ष के नीचे आ कर रुक गये ।,"हम इस अस्वाभाविक जीवन, इस सभ्यता के तिलिस्म से बाहर निकलने की चेष्टा नहीं करते ।" "बिल्ली के पंजें में फेंसे हुए चूहे की तरह दीन भाव से उमानाथ ने उत्तर दिया-- महाराज, मुझसे कौन-सा अपराध हुआ है ?","जी तिलकधारी महाराज, तुम्हें संसार में ओर कोई न मिलता था कि तुमने अपने मुख की कालिख मेरे मुँह लगाई ?","बिल्ली के पंजे में फँसे हुए चूहे की तरह दीन भाव से उमानाथ ने उत्तर दिया -- महाराज, मुझ से कौन-सा अपराध हुआ ?" "मेरा विचार है कि समाज को जिस सुधार की झ्रावश्यकता होती है, वह स्वयं कर लिया करता है ।",उन्होंने कहा -- सामाजिक विप्लव पर मेरा विश्वास नहीं है ।,मेरा विचार है कि समाज को जिस सुधार की आवश्यकता होती है वह स्वयं कर लिया जाता है । होरी सचमुच आपे मेंन था,संसार-भर की विद्दा तुम्हीं नहीं पढ़े हो,होरी सचमुच आपे में न था जमीन का मुआमला भी तय हो गया ।,"कविता रच लेना दूसरी बात है, काम कर दिखाना दूसरी बात ।",जमीन का मुआमला भी तय हो गया । कुछ जवाब न दिया ।,"थोड़ी देर और देख लो, फिर खाना उठाकर रख देना ।",कुछ जवाब न दिया । छाला दाऊदयाल एक दिन कचहरो से घर आ रहे थे ।,ईसाई हुआ तो फिर सदा के लिए हाथ से निकल गया ।,लाला दाऊदयाल एक दिन कचहरी से घर आ रहे थे । इन कविराजजी से उसे कुछ-कुछ निराशा हो चली थी ।,उनकी चेष्टा से अच्छे होने का कोई लक्षण उसे न दिखाई देता था ।,इन कविराज जी से उसे कुछ-कुछ निराशा हो चली थी । बंटी ने धोती से पानी निचोड़ते हुए कह्य--ज़रा आईने में सूरत देखो ।,"भोंदू ने क्षीण स्वर में कहा, 'तू इतना भीग रही है, कहीं बीमार पड़ गयी, तो कोई एक घूँट पानी देनेवाला भी न रहेगा ।","बंटी ने धोती से पानी निचोड़ते हुए कहा, 'ज़रा आईने में सूरत देखो ।" इन दिनों उनकी दशा उस पुरुष की-सी थी जो कोई मनन्‍्य जगा रहा हो |,चबूतरा लम्बा-चौड़ा था ।,इन दिनों उनकी दशा उस पुरुष की-सी थी जो कोई मंत्र जगा रहा हो । पर एक क्षण में फिर लौटकर बोला--भच्छा ३०) ही दे दो,एक कौड़ी नहीं,पर एक क्षण में फिर लौटकर बोला-अच्छा तीस रुपये ही दे दो अन्त में उमानाथ ने निश्चय किया कि शहर में कोई बर दंढ़ना चाहिए ।,"सुमन कितनी रूपवती, कितनी गुणशीला, कितनी पढ़ी-लिखी लड़की है, इन मूर्खो के घर पड़कर उसका जीवन नष्ट हो जाएगा ।",अन्त में उमानाथ ने निश्चय किया कि शहर में कोई वर ढूँढना चाहिए । स्त्रो के पिर में पीढ़ा हो रद्दा थो ।,"विष पिलाने आयी थी, सुधा पिला रही थी ।",स्त्री के सिर में पीड़ा हो रही थी । जब वहाँ भी उसका पता न मिला तो पशुशाला में गया |,"दिन भर लोग शिकार खेला किये, शाम को मूसलाधार पानी बरसने लगा ।",जब वहाँ भी उसका पता न मिला तो पशुशाला में गया । "हाँ, तुम अलबत्ता मेरा सवेनाश करने पर तुले हुए हो ।",सास- वही तो कहूँ कि महात्मा की बात कैसे निष्फल हुई ।,"हाँ, अलबत्ता मेरा सर्वनाश करने पर तुम तुले हुए हो ।" अगर किसौ मुसलमाच का छुआ हुआ भौजन खाने के लिए बिरादरो मुझे काले पाती भेजना चाहे तो में उप्ते कभी न मार्देधा ।,अपने गौं पर कोई नहीं चूकता ।,अगर किसी मुसलमान का छुआ भोजन खाने के लिए बिरादरी मुझे कालेपानी भेजना चाहे तो मैं उसे कभी न मानूँगा । रास्ते ही मे समल गये ।,अन्याय और निर्दयता का यह करुणात्मक अभियान उनके लिए असह्य था ।,रास्ते ही में सँभल गये । गिरिघर ने एक पत्र के टुकड़े पर कई वावय लिख दिये ।,किसका लेटर-राइटर सबसे अच्छा है ?,गिरिधर ने एक पत्र के टुकड़े पर कई वाक्य लिख दिये । अपनी इज्जत तो सभी को प्यारी होती है।,"बताओ, ओर में क्या करता ?",अपनी इज्जत तो सभी को प्यारी होती है । जत्र छोग अपने-अपने गाँवों को लौटे तो चंद्रमा का प्रकाश फेक गया था,सुखदा की गिरफ्तारी और जेल-यात्रा का वृत्तांत था,जब लोग अपने-अपने गाँवों को लौटे तो चन्द्रमा का प्रकाश फैल गया था - खुखदा ने बात सभाली-- यद्द बात नहीं है डावटर साहब अम्मा ने तो हँसी की थी,आदमी यही चाहता है कि धन सुपात्रों को दे जो दाता के इच्छानुसार खर्च करें यह नहीं कि मुर्ति का धन पाकर उड़ाना शुरू कर दें,सुखदा ने बात संभाली-यह बात नहीं है डॉक्टर साहब अम्माँ ने हँसी की थी आज बहुत देर हो गई,अमर इस चुनौती का जवाब न दे सका,आज बहुत देर हो गई सामने श्राँगन में कल्लू सोया हुआ था |,"वृद्धा कहती है हाँ, तूने छुरी-कटार से नहीं मारा, उस दिन तेरा तप छीन हो गया और इसी से वह मर गया ।",सामने आँगन में कल्लू सोया हुआ था । द्वार पर पहुँचकर फिर दोनों गले मिलों,सुखदा ने पाँच-छ: कौर खाकर कहा-बस अब पानी पिला दो,द्वार पर पहुँचकर फिर दोनों गले मिलीं "बरात का नाटक उस वक़्त पास होता हैं, जब राह चलते आदमी उसे पसन्द कर लेते हैं ।",दयानाथ उसकी उच्छृंखलता देखकर चिंतित तो हो जाते थे पर कुछ कह न सकते थे ।,"बरात का नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पंसद कर लेते हैं ।" छोडे-छोदे भाँवों में मो आपको लालदेनें जूतों हुई मिलेंगी ।,से०-भैया ने दावत के इंतजार में आज दोपहर को भी न खाया होगा ।,छोटे-छोटे गाँवों में आपको लालटेनें जलती हुई मिलेंगी । "उसे जब रोने का अवसर मिलता था, तो माँ के पास फरियाद लेकर जहर आता था ।",सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोंपू बजाने लगे ।,"उसे जब रोने का अवसर मिलता था , तो माँ के पास फरियाद लेकर जरूर आता था ।" सुमन ने विचारपूर्ण भाव से कहा--मैं समझती थी कि वेश्याप्रों को लोग बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते हैं ।,"वह सेठजी भी आए हुए थे, जिनके यहाँ में शाम को काम करने जाया करता हूँ ।",सुमन ने विचारपूर्ण भाव से कहा -- मैं समझती थी वेश्याओं को लोग बड़ी घृणा की दृष्टि से देखते है । "जो औरत एक वार किभी वजह से ग्रुमराह हो गईं, उसकी तरफ से इस्लाम हमेशा के लिए अपनी आँखें बन्द कर लेता है ।",हिन्दुओं की देखा-देखी इस्लाम ने भी उन्हें दायरे से खारिज कर दिया है ।,"जो ओरत एक बार किसी वजह से गुमराह हो गई, उसकी ओर से इस्लाम हमेशा के लिए अपनी आँखें बन्द कर लेता है ।" "जिनके लिए अपने आका का बुरा चेता, वही अपने दुश्मन हो गए ।",कुल्सूम ने उन्हें चमारों से बातें करते सुना ।,"जिनके लिए अपने आका का बुरा चेता, वही अपने दुश्मन हो गए ।" "' जागेश्वरी ने अनुमोदन किया --- मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिन्ता में पड़ा रहे, में गहने पहने बठी रहूँ ।","मैं एक बार नहीं, हजार बार कह चुका कि मुझसे कोई आशा मत रक्खो ।","जागेश्वरी ने अनुमोदन किया--मुझसे तो नहीं देखा जाता था कि अपना आदमी चिंता में पडा रहे, मैं गहने पहने बैठी रहूं ।" "माटे०--रोते ही थे न, रोने देती |","' मोटेराम ने दाँत पीस कर कहा , 'जी चाहता है कि तुम्हारी गरदन पकड़ कर ऐंठ दूँ ।","' मोटे - 'रोते ही थे न, रोने देती ।" शायद आज में इनके दोषों को शु्णों से मदलमे पर भो तेयार न हूँगो ।,"यह धर्म की बेड़ी नहीं है, कदापि नहीं ।",शायद आज मैं इनके दोषों को गुणों से बदलने पर भी तैयार न हूँगी । अन्त को वह भ्रधीर हो गया ।,"जैसे बीमारी के बाद मनुष्य का चित्त उदास रहता है, किसी से बातें करने को जी नहीं चाहता, उठना-बेठना पहाड़ हो जाता है, जहाँ बेठता वहीं का हो जाता है, वही दशा इस समय सदन की थी ।",अन्त को वह अधीर हो गया । एक क्षण के बाद सलीम ने छेड़ा--इघर एक मद्दीने से सकीना ने कोई झमाल नहीं भेजा क्‍या अमर ने गंभीर होकर कहा--तुम तो यार मजाक करते हो,सलीम हतोत्साह न हुआ,एक क्षण के बाद सलीम ने छेड़ा-इधर एक महीने से सकीना ने कोई रूमाल नहीं भेजा क्या- अमर ने गंभीर होकर कहा-तुम तो यार मजाक करते हो सीधा रामचन्द्र के पास पहुँचा |,उनका एक-एक रोम पुलकित हो रहा था; मगर ईश्वर ने मेरी लाज रख ली ।,सीधा रामचन्द्र के पास पहुँचा । "यदि आपको शिकार करना हो तो इनका शिकार कोजिए, ।",जान पड़ता है इनका दल कहीं पास ही है ।,यदि आपकों शिकार करना हो तो इनका शिकार कीजिए । "साधु-सन्‍्तों को नहीं, न मोटे ब्राह्मणों को; वल्कि उनको, जिनके लिए यह ज़िन्दगी बोस हो रही है, जिनकी यही एक आरजू है कि मौत आकर उनकी विपत्ति का अन्त कर दे ।","जब तक तलाक का कानून न जारी होगा , आपका स्वराज्य आकाश-कुसुम ही रहेगा ।","साधु-सन्तों को नहीं , न मोटे ब्राह्मणों को बल्कि उनको , जिनके लिए यह जिन्दगी बोझ हो रही है , जिसकी यही एक आरजू है कि मौत आकर उनकी विपत्ति का अन्त कर दे ।" इतने सारे कँगलों में ब्राह्मणों की संख्या बहुत कम थी ।,"उसके माथे पर तिलक देखकर मुनीमजी ने समझ लिया, यह ब्राह्मण है ।",इतने सारे कंगलों में ब्राह्मणों की संख्या बहुत कम थी । "पर लोक-नीति पर न चलें, तो लोग उँगलियाँ उठाते हैं।",दहेज लेना कौन-सी अच्छी बात है ?,पर लोकनीति पर न चले तो उँगलियाँ उठती है । में मछली की भाँति काटे में फँंध्ा हुआ हूँ,शान्तिकुमार ने जल्दी से हाथ बढ़ाकर खत ले लिया और मीठे क्रोध के दो-चार शब्द कहकर पत्र पढ़ने लगे- भाई साहब मैं जिंदा हूँ और आपका मिशन यथाशक्ति पूरा कर रहा हूँ,मैं मछली की भांति कांटे में फँसा हुआ हूँ वह थोरे से अन्दर घुस गया ।,बाबूजी और सुरेश खा चुके होंगे ।,वह धीरे से अन्दर घुस गया । यहाँ से जाकर मैं बड़ी मुश्किल में फेंस गया |,कोई पन्द्रह मिनट के बाद दरवाजा खुला ।,यहाँ से जाकर मैं बड़ी मुश्किल में फॅस गया । नहीं अमर अब घर नहीं जा सकता,रक्त और मांस का आवरण हट जाने पर वही कंकाल कितना भयंकर हो जाता है,नहीं अमर अब घर नहीं जा सकता ठाकुरदीन भी आ गया था ।,उसके आचार-विचार में परिवर्तन होने लगा ।,ठाकुरदीन भी आ गया था । थोड़े ही दिनों में उसने बाबू साइब का विश्वास प्रात्त कर लिया ।,अनाथ के भाग्य जाग उठे ।,थोड़े ही दिनों में उसने बाबू साहब का विश्वास प्राप्त कर लिया । भाॉगव कुछ गहरा था पाती रुक ज्ञाया करता था,मनीराम उन्हें हाथों से संभाले हुए था,आँगन कुछ गहरा था पानी रूक जाया करता था "जब न मानेगा, तो देखी जाएगी ।",मैंने तो यही सोच रखा है ।,"जब न मानेगा, तो देखी जाएगी ।" "इन्स०--पाद रख्षिएं, यहू इज्जत खाक में मिल जायगी ।",वे सँभल कर बोले-सम्भवतः हों ।,इन्स.-याद रखिए यह इज्जत खाक में मिल जायगी । "विधि की क्रर-कीडा ही उनका सवंनाश कर रही: है, हसभ उन्हें लेशमात्र भी सन्देह न था |","गोविंदी दूध की हाँड़ी लिये घर चली, गर्वपूर्ण आनन्द के मारे उसके पैर उड़े जाते थे ।",विधि की क्रूर-क्रीड़ा ही उनका सर्वनाश कर रही है; इसमें उन्हें लेशमात्र भी संदेह न था । यह सब इसी शांतिकुमार का पाजीपन है,फिर उसने देखा कि डॉक्टर आया और शान्तिकुमार को एक डोली पर लेटाकर ले गया पर वह अपनी जगह से नहीं हिली,यह सब उसी शान्तिकुमार का पाजीपन है "उसे हमेशा यही धुन सवार रहती है कि रुपये कहाँ से आवें; तरह-तरह के मन्‍्सूबे बाँधता है, भाँति-भाँति की कल्पनाएँ करता है, पर घर से बाहर नहों निकलता ।",वह अभी तक देवीदीन के घर पडाहुआ है ।,"उसे हमेशा यही धुन सवार रहती है कि रूपये कहाँ से आवें, तरह-तरह के मंसूबे बांधाता है, भांति-भांति की कल्पनाएं करता है, पर घर से बाहर नहीं निकलता ।" वोली--मैं इसका जवाव आपको कल दूँगी।,"इस समय अगर विट्ठलदास १०० रु० मासिक का लोभ दिखाते तो भी वह खुश न होती, किंतु एक बार जो बात खुद उठाई थी उससे फिरते हुए शर्म आती थी ।",बोली -- मैं इस का जवाब आप को कल दूँगी । इसलिए कि उसे पाकर इसे जितनी खुशी होगी मुझे या ऋ न होगी,मुझे मालूम हो गया तू भला आदमी है,इसलिए कि उसे पा कर इसे जितनी खुशी होगी मुझे या आपको न होगी अधिक से अधिक इतना दी होगा कि चार पाँच वर्ष में वालक को श्रक्षर-शान हो जायगा |,"आधे तो बीमारी में बिक गये, आधे बचे हैं ।",अधिक-से-अधिक इतना ही होगा कि चार-पाँच वर्ष में बालक को अक्षर-ज्ञान हो जायगा । उसकी प्रेम-कल्पनाओं से -अव भी उसका हृदय सजग होता रहता था ।,सुमन अब भी उसके हृदय में बसी हुई थी ।,उसकी प्रेम कल्पनाओं से अब भी उसका हृदय सजग होता रहता था । दौड-कूद के खेल बच्चों के खेल समझे जाते थे ।,"एक दिन वे दफ्तर से आये तो उनकी पत्नी ने स्नेहपूर्ण ढंग से कहा, तुम्हारी यह सज्जनता किस काम की, जब सारा संसार तुमको बुरा कह रहा है ।",दौड़-कूद के खेल बच्चों के खेल समझे जाते थे । "आपके सिवा ऐसा कोई दूसरा मनुष्य भारत वर्ष में नहीं है, जो इस धोर विपत्ति में काम आये |",तुरन्त एक विशेष अधिवेशन हुआ और नेताओं के सामने यह समस्या उपस्थित की गयी ।,"आपके सिवा ऐसा कोई दूसरा मनुष्य भारतवर्ष में नहीं है, जो इस घोर विपत्ति में काम आये ।" मुझे अकेले जाने दो ।,बलि-जीवन का उपभोग अनिष्टकारक होता है ।,मुझे अकेले जाने दो । घोड़े भी उसका मुकाबला न कर सकते ।,लड़का जवान हो गया था ।,घोड़े भी उसका मुकाबला न कर सकते । वह प्रत्येक काम में बहुत सोच-समभकर हाथ डालते थे ।,"बहुत ही दुबले-पतले गोरे चिट्टे आदमी थे, बड़े रसिक, बड़े शौकीन ।",वह प्रत्येक काम में बहुत सोच-समझकर हाथ डालते थे । समझ गये कि हजरत आज ज्यादा चढा गये ।,"असबाब उतारा, पर जल्दी में ट्रंक उतारना भूल गई ।",समझ गए कि हजरत आज ज्यादा चढ़ा गए । ” नेउर के मन में जेसे ज्ञान उदय हो गया ।,सरल हृदय नेउर बाबाजी का सबसे बड़ा भक्त था ।,नेउर के मन में जैसे ज्ञान-उदय हो गया । "केसा कपटी, बृत है !”","उसने सोचा, कहीं वह मुझे देखे ओर अपने मन में कहे, 'वह जा रहे है कुँवर साहब मानो सचमुच किसी रियासत के मालिक है ।",कैसा कपटी धूर्त है । "देह पर साबित कपड़े नहीं है , मगर जमा खा है, मानो में कुछ हूँ ही नहीं ।","जिधर देखो , अशान्ति है , विद्रोह है , बाधा है ।","देह पर साबित कपड़े भी नहीं हैं; मगर जमा खड़ा है, मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं ।" उस समय मरडली में बैठे हुए अपने जेल के भ्रनुभव वर्णान किया करते ।,वे नित्य संध्या समय नीच जाति के आदमियों का साथ चरस की दम लगाते दिखाई देते थे ।,उस समय मंडली में बेठे हुए वह अपने जेल के अनुभव वर्णन किया करते । इस दछ्या में तुम्हारे जानें में कोई हस्तक्षेप नहीं ।,तुमने मुझे कभी इतनी स्वतंत्रता नहीं दी ।,इस दशा में तुम्हारे जाने में कोई हस्तक्षेप नहीं । भमर कई लड़कों के साथ गंगा-स्वाव करके लौटा पर आज अभी तक कोई आदमी काम करने नहीं आया,न उतनी जिद ही करते हैं,अमर कई लड़कों के साथ गंगा-स्नान करके लौटा पर आज अभी तक कोई आदमी काम करने नहीं आया यह कलंक अपने माथे लगाकर उनके विवाह में क्‍यों बाधा डाल ?,मुझे भी अपनी दो लड़कियों का विवाह करना है ।,यह कलंक अपने माथे लगा कर उन के विवाह में क्यों बाधा डालूँ । जिद्दा-रस भोगने के लिए पति से कपट करने लगी ।,अब से अकेली ही खा जाती ।,जिह्वा-रस भोगने के लिए पति से कपट करने लगी । "सच कहकर कोई सौ जूते मार ले, लेकिन झूठी बात सुनकर मेरे बदन में आग लग जाती है ।",अब हम दोनों सेवक-दल का काम खूब उत्साह से करेगा ।,"सच कहकर कोई सौ जूते मार ले, लेकिन झूठी बात सुनकर मेरे बदन में आग लग जाती है ।" न उदयभान--अ्रच्छा तो अब कानून भी बघारने लगी |,"ये लोग मुझे न जाने कहाँ ले जायेंगे, लौंडा आसन का पक्का जान पड़ता है, मुझे दौड़ायेगा, एँड़ लगायेगा, चाबुक से मार-मार कर अधमुँआ कर देगा, फिर न जाने भोजन मिले या नहीं ।",उदयभान- अच्छा तो अब कानून भी बघारने लगी । ", ' छालचिन सही ।",लालाजी का सारा खिसियानापन मिट गया था ।,लालचिन ही सही । "परशुराम--नहीं, एक हौ बात है ।","अगर यह अन्याय है तो ईश्वर की ओर से है, मेरा दोष नहीं ।","परशुराम- नहीं, एक ही बात है ।" यह विचित्र साहस था ।,"इतना ही नहीं, उसने पीपल की परिक्रमा की ओर उसे दोनों हाथों से बलपूर्वक हिलाने की चेष्टा की ।",यह विचित्र साहस था । "माता विधवा थी, वेटी क्वारी, घर मे और कोई आदमी न था ।",आपको बीवी मुबारक और कुत्तों की तरह उसके पीछे-पीछे चलना तथा बच्चों को संसार की सबसे बड़ी विभूति और ईश्वर की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक ।,"माता विधवा था , बेटी क्वांरी , घर में और कोई आदमी न था ।" खाली दिनेस तबाह है ।,भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते हैं ।,खाली दिनेस तबाह है । "सुफेंदे, मोहनभोग, लज्ञडे, वम्बई, फजरी, दशहरी इनमें कोई मेद ही नहीं मालूम होता, न जाने श्राप लोगों को कैसे उनके स्वाद में फक मालूम होता है ।",यह सुफेदे न सही दूसरे फल सही ।,"सुफेदे, मोहनभोग, लँगड़े, बम्बई, फजली, दशहरी इनमें कोई भेद ही नहीं मालूम होता, न जाने आप लोगों को कैसे उनके स्वाद में फर्क मालूम होता है ।" सिनद्वा-- एक मद्दोने को नोटिस दिये बगेर तुम नहों जा सकते ।,साहब ने हुलिया पूछा और खुश हो कर कहा- फौरन बुला लो ।,सिनहा- एक महीने की नोटिस दिये बगैर तुम नहीं जा सकते । "सामने कमरे में लेम्प जल रहा था, वह उठकर कमरे में गयी और आइने के सामने खड़ी हो गयी ।",उसकी बडी इच्छा हुई कि ज़रा आईने में अपनी छवि देखे ।,"सामने कमरे में लैंप जल रहा था, वह उठकर कमरे में गई और आईने के सामने खड़ी हो गई ।" महतो ने न समाला होता तो आज मुझे कहाँ सरन मिलती,वैशाख तो किसी तरह कटा मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा,महतो ने न सँभाला होता तो आज मुझे कहाँ सरन मिलती में ठीक-ठाक करके तब तुमसे कहूँगा,बाल-बच्चा भी कोई नहीं,मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे कहूँगा "कुछ दिनों तब तो केलासौ को यद्द विचार-परिवर्तन बहुत कष्टजनक मालूम हुआ, पर धर्मनिष्ठा नारियों का स्वाभाविक शुण है, थीढ़े दो दिनों में उसे धर्म परे रुवि हो गई ।",मन्दिरों में नित्य जातीं ।,"कुछ दिनों तक तो कैलासी को वह विचार-परिवर्तन बहुत कष्टजनक मालूम हुआ, पर धर्मनिष्ठा नारियों का स्वाभाविक गुण है, थोड़े ही दिनों में उसे धर्म से रुचि हो गयी ।" देवी-देवता मनाने लगी ।,"और कई लड़कों ने भी सबक सुना दिये थे, वे सभी मेला देखने चल पड़े ।",देवी-देवता मनाने लगी । क्लार्क-नीचे कुछ लिखने की जरूरत नहीं ।,क्लार्क ने टोका-यह शब्द मत रखो ।,क्लार्क-नीचे कुछ लिखने की जरूरत नहीं । रमा० -- अभी दो-तीन महीने हुए आप अपने साले को कहों नौकर रखा चुके हैं न ?,"फिर देखना, कैसी दौड़-धूप करता है ।",' रमा-'अभी दो-तीन महीने हुए आप अपने साले को कहीं नौकर रखा चुके हैं न ? "सेठजी ने एक मिनिय तक तो, हाँ! हाँ ! किया, फिर दोनों हाथ बढाकर उसे हटाने की चेष्टा की, फिर ज़ोर से दोनों ओठ बंद कर लिये ; पर जब सुन्दरी किसी तरह न मानी, तो सेठजी अपना धर्म लेकर बे-तहाशा भागे |","' सुन्दरी उनकी ओर कटाक्षपूर्ण नेत्रों से देखकर बोली, 'क्या मेरे लगाये पान तम्बोली के पानों से भी खराब होंगे ?","सेठजी ने एक मिनिट तक तो हाँ ! हाँ ! किया, फिर दोनों हाथ बढ़ाकर उसे हटाने की चेष्टा की, फिर जोर से दोनों ओंठ बन्द कर लिए पर जब सुन्दरी किसी तरह न मानी, तो सेठजी अपना धर्म लेकर बेतहाशा भागे ।" दमडी को देखते दी दोनों पूछें खडी करके हँँऊरने लगे |,"अभी वेतन मिलने में कई दिन की देर थी, मोल ले न सकता था ।",दमड़ी को देखते ही दोनों पूँछें खड़ी करके हुँकारने लगे । "बह बेसुध पड़ी हुई थी, विछावन चिथड़ा हो रहा था, साड़ी फटकर तार-तार हो गई थी ।","एक रोज उनकी स्त्री किसी पड़ोसी के घर गई हुई थी, उमानाथ बहन के कमरे में गए ।","वह बेसुध पड़ी हुई थी, बिछावन चिथड़ा हो रहा था, साड़ी फट कर तार-तार हो गई थी ।" उसे एकान्त विचार का अवसर ही नहीं दिया जाता ।,उसे कभी इसका ख़याल भी नहीं आता कि मैं क्या कर रहा हूँ और मेरे हाथों कितने बेगुनाहों का ख़ून हो रहा है ।,उसे एकांत-विचार का अवसर ही नहीं दिया जाता । "एक के लिए जोवन आनंद को स्वप्र था, और दुसरे के लिए विपत्तियाँ रा बोक्त ।",कैलास एक साधारण व्यवसायी के कई पुत्रों में से एक ।,"एक के लिए जीवन आनंद का स्वप्न था, और दूसरे के लिए विपत्तियों का बोझ ।" सेठजी के हृद्गत भावों ने उन्न रूप घारण किया ।,इनकी यह विनयशीलता और सज्जनता केवल अपना मतलब गाँठने के लिए है ।,सेठजी के हृद्गत भावों ने उग्र रूप धारण किया । "जड़ाऊ गहने अब उसको आँखों में उतने मूल्यवान्‌ नहीं रहे, जितनी यह फकोर की दी हुईं ताबीज़ ।","माधुरी को अब तक जितने आदमियों से साबिका पड़ा था , वे सब सिंगारसिंह की ही भाँति कामुकी , ईर्ष्यालु , दंभी और कोमल भावों से शून्य थे , रूप को भोगने की वस्तु समझनेवाले ।","जड़ाऊ गहने अब उसकी आँखों में उतने मूल्यवान नहीं रहे , जितनी यह फकीर की दी हुई तावीज ।" इतमे में भोली ने उसे देखा ओर इशारे से ऊपर बुलाया ।,किसी पड़ोसिन के घर जाने से काम न चलेगा ?,इतने में भोली ने उसे देखा ओर इशारे से ऊपर बुलाया । होटलवाले दूसरा महीना शुरू होते ही रुपये पेशगी माँगेंगे |,और मदन कंपनी के मैनेजर ने उसे बधाइयाँ दी थीं ।,होटलवाले दूसरा महीना शुरू होते ही रुपये पेशगी माँगेंगे । "देखें, हम दोनों में पहले कौन चलता है ।",कोई तो सुनेगा ।,"देखें, हम दोनों में पहले कौन चलता है ।" गजाधर सुमन से कुछ न कह सकता था ।,दो दिन घर में चूल्हा नहीं जला ।,गजाधर सुमन से कुछ न कह सकता था । केकिन साल-भर में तो सात सौ के नी सी हो जायेंगे ।,अजामिल को तुम्हीं ने तारा था ।,लेकिन साल-भर में तो सात सौ के नौ सौ हो जायेंगे । "कोई अपना भ्रपमान सह सकता है, कोई नहीं सह सकता ।",इतना तो आप जानते ही हैं कि संसार में सब की प्रकृति एक सी नहीं ।,कोई अपना अपमान नहीं सह सकता । दादाजी पढ़े-लिखे आदमी हैं दुनिया देख चुके हैं,सुखदा को इस कथन में अपने ऊपर लांछन का आभास हुआ,दादाजी पढ़े-लिखे आदमी हैं दुनिया देख चुके हैं दिन बहुत थाड़ा रह गया था ।,ऐसा सच्चा आनंद उन्हें कभी प्राप्त न हुआ था ।,दिन बहुत थोड़ा रह गया था । "हमर यहाँ बजवा करने नहीं, फेवल संसार छी नेतिक सहानुभूति प्राप्त करने के लिए जमा हुए थे, और हमारा उहेश्य पूरा हो गया ।",मैं तुमसे सविनय अनुरोध करता हूँ कि अपने-अपने घर जाओ ।,"हम यहाँ बलवा करने नहीं, केवल संसार की नैतिक सहानुभूति प्राप्त करने के लिए जमा हुए थे, और हमारा उद्देश्य पूरा हो गया ।" मिसतेज़ टडन ने अन्त में कह्ा--हमें आश्रप्त मे ऐसी महिलाओं को छाना भजु- चित है ।,और वह राँड बैठी तमाशा देखती रही ।,मिसेज टंडन ने अन्त में कहा- हमें आश्रम में ऐसी महिलाओं को लाना अनुचित है । चह मितव्ययता और चरल जीवन पर विद्वत्ता से भरे हुए व्याख्यान ठे सकता था ; पर उप्तका रहन-पहन फेशन के अंधर्षक्तों से जी-भर घटकर न था ।,तेरी संपूर्ण कामनाएँ पूरी हो जाएँगी ।,"वह मितव्ययता और सरल जीवन पर विद्वत्ता से भरे हुए व्याख्यान दे सकता था, पर उसका रहन-सहन फैशन के अंधभक्तों से जौ-भर घटकर न था ।" सेवाश्रम्त का ट्रस्ट बन गया,मैं कल ही आपसे मिलकर सारी बातें तय कर लूँगा,सेवाश्रम का ट्रस्ट बन गया "विजेता को द्वारनेवार्लों से जो सत्कार मिलता स्वाभाविक है, वह दामिद को भी प्रिला ।",तुम्हें तो लोग दयालु कहते हैं ।,"विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिला ।" "उसके अनन्य भक्तों मे एक सुन्द्री युवती भी थी, जिसके पति ने उसे त्याग दिया था ।",वे दिन फिर कब आयेंगे ?,हाय लोभ! लोभ! उनके अनन्य भक्तो में एक सुन्दरी युवती भी थी जिसके पति ने उसे त्याग दिया था । "में समझती हूँ, जब मुझे जीवन ही व्यतीत करना है, जब में केवल तुम्हारे मनोरंजन की ही वस्तु हूँ, तो क्यों अपनी जान विपत्ति में डालूँ ?","बातें करते समय देखती हूँ, तुम्हारा मन किसी और तरफ रहता है ।","मैं समझती हूँ, जब मुझे जीवन ही व्यतीत करना है, जब मैं केवल तुम्हारे मनोरंजन की ही वस्तु हूँ, तो क्यों अपनी जान विपत्ति में डालूँ ?" ऐसो दशा में हमारे लिए और क्या उपाय है ।,और फिर अपने कमरे में जाकर विचारों में डूब गये ।,ऐसी दशा में हमारे लिए और क्या उपाय है । दो आने भी रात के काम के मिल जायें तो चाँदी है,उसे रात को कोई काम मिल जायगा तो उसे भी न छोड़ेगा,दो आने भी रात के काम में मिल जायें तो चाँदी है "बडे ठाकुर जो कद्द दे, वह छोटे ठाकुर के लिए फकानूत था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर हो बढ़े ठाकुर कोई बात कहते थे ।",राम और लक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी ।,"बड़े ठाकुर जो कह दें , वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे ।" "चाहे जो दर॒ड दो, सिर तुम्हारे सामने मुका हुआ है ।","हाथ जोड़कर कहूँगा, सरकार, बुरा हूँ तो, भला हूँ तो -- अब आप का सेवक हूँ ।","चाहे जो दंड दो, सिर तुम्हारे सामने झुका हुआ है ।" एक-एक करके प्यारी के गहने उसके द्वाथ से निकलते जाते थे ।,"उसकी आँखें मानों उस दृश्य पर जम गयीं, दम्पति का वह सरल आनन्द, उनका प्रेमालिंगन, उनकी मुग्ध मुद्रा- प्यारी की टकटकी-सी बँध गयी, यहाँ तक कि दीपक के धुँधले प्रकाश में वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गये और अपने ही अतीत जीवन की एक लीला आँखों के सामने बार-बार नये-नये रूप में आने लगी ।",एक-एक करके प्यारी के गहने उसके हाथ से निकलते जाते थे । "उसे सुमन से जो प्रेम था, उसमें तृष्णा ही का आधिक्य था ।",सदन की प्रेम लालसा इस समय ऐसी प्रबल हो रही थी कि विवाह की कड़ी धर्म बेड़ी को सामने रखकर भी वह चिंतित न हुआ ।,"उसे सुमन से जो प्रेम था, उसमें तृष्णा का आधिक्य था ।" दीदी से बोलचाल बन्द है,वह जहन्नुम में जा रहे हैं तो हम भी जहन्नुम जायेंगे मगर उनके पीछे-पीछे,दादी से बोलचाल बंद है "बरगद के नीचे ठंडी-ठंडी हवा जो लगी, तो बैठे-बैठे सो गए ।",विनय को रूखी रोटियों और वृक्ष की छाया के अतिरिक्त और किसी वस्तु से प्रयोजन नहीं ।,"बरगद के नीचे ठंडी-ठंडी हवा जो लगी, तो बैठे-बैठे सो गए ।" "रात को रसने सबको भोजन कराया, खुद भी भोजन किया, और बड़ी देर तक इारमोनियम पर गातो रहो |","ऐसा मालूम पड़ा , मानो , अब तक वह कोई सुनहला स्वप्न देख रही थी ; पर आँख खुलने पर वह सब कुछ अदृश्य हो गया ।","रात को उसने सबको भोजन कराया , खुद भी भोजन किया और बड़ी देर हारमोनियम पर गाती रही ।" क्रिसी बाकीदार असामी के सामने इस पीपे का उछुलना-कूदना और पेनरे बदलना देखकर किसी नट का चिंगिया भी लजन हो जाता ।,मगर यह प्रश्न उन्होंने बहुत धीमे स्वर में न किया था ।,किसी बाकीदार असामी के सामने इस पीपे का उछलना-कूदना और पैंतरे बदलना देखकर किसी नट का चिगिया भी लज्जित हो जाता । यौवन-काल की स्वाभाविक वृत्तियाँ अपने घर पर रास्ता बन्द पाकर यहाँ किलोलें करने लगती थीं |,"जिसने उसे उसके घर पर देखा हो, वह उसे यहाँ देखकर चकित रह जाता।",योवन-काल की स्वाभाविक वृत्तियाँ अपने घर पर रास्ता बन्द पाकर यहाँ किलोलें करने लगती थीं। "भर्काद जानता है, अबकी कौढ़ो फोड़ो बेवाक क्षर देता ।","रहमान- जमादार, सारी ऊख जल गई ।","अल्लाह जानता है, अबकी कौड़ी-कौड़ी बेबाक कर देता ।" जयक्ृप्ण समझ यया कि कोध की मशीनगन चक्कर से है और घातक स्फोट होने ही वाला है ।,"उसने भाषण पर सरसरी नजर डालकर उसे मेज पर रख दिया और अपनी स्पष्टवादिता का बिगुल फूँकता हुआ बोला , मैं राजनीति के रहस्यों को भला क्या समझ सकता हूँ लेकिन मेरा खयाल है कि चाणक्य के ये वंशज इन चालों को खूब समझते हैं और कृत्रिाम भावों का उन पर कोई असर नहीं होता बल्कि इससे आदमी उनकी नजरों में और भी गिर जाता है ।",जयकृष्ण समझ गया कि क्रोध की मशीनगन चक्कर में है और घातक विस्फोट होने ही वाला है । "“अरे पागल, में हिसाब में नहीं देने को कहतो ।",' जुगल ने दूर की बात सोची ।,’ ' अरे पागल ! मैं हिसाब में नहीं देने कहती । गौरा नींद में मग्न थी ।,दस-बारह कोस से आ रहा था ।,गौरा नींद में मग्न थी । वह अब उसकी दया के पात्र नहीं भरद्धा के पात्र हो गये थे,युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग-भरी आँखों से देख रही थी,वह अब उसकी दया के पात्र नहीं श्रद्धा के पात्र हो गये थे उसने तुरन्त पयाग के सामने आकर «गरदन कुछायी ओर जलती हुई मड़ेया के नीचे पह़ुँचकर उसे दोनों हाथों पर ले लिग्रा ।,"मरने के बाद भी तुम्हें गालियाँ मिलेंगी, तुम अनंत काल तक आहों की आग में जलते रहोगे ।",उसने तुरन्त पयाग के सामने आ कर गरदन झुकायी और जलती हुई मड़ैया के नीचे पहुँच कर उसे दोनों हाथों पर ले लिया । गाँव के द्विजों में से केवल सोमदच साथ था |,कालिंदी थोड़ा-सा दूध दे गयी थी ।,गाँव के द्विजों में से केवल सोमदत्त साथ था । "बंविताएँ तो मेरी समझ में खाक न आयी, पर मेने तारोफो के पुल बाँध » दिये ।",पान-इलायची से खातिर की ।,कविताएँ तो मेरी समझ में खाक न आयीं पर मैंने तारीफों के पुल बाँध दिये । वसुधा ने खाल को अपनी ओर खींचकर कद्दा-- रहने दीजिए अपनी प्रलाह ।,कुँवर साहब की यह सबसे बहुमूल्य वस्तु थी ।,"वसुधा ने खाल को अपनी ओर खींचकर कहा , रहने दीजिए अपनी सलाह ।" "अवुलवफा--जनात्र, भझाखिर वजह भी तो कुछ होनी चाहिए ।",शर्माजी ने क्रोध से कहा -- आप मेरा अपमान करना चाहते हैं ।,"अबुलवफा -- जनाब, आखिर वजह भी तो कुछ होनी चाहिए ।" में आपके सम्पादत-छाय्ये में भो आपको मदद करूँ गो ।,"सोचा, रास्ते में आपके दर्शन करती चलूँ; लेकिन जब आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तो मुझे यहाँ कुछ दिन रहकर आपका स्वास्थ्य सुधारना पड़ेगा ।",मैं आपके सम्पादन-कार्य में भी आपकी मदद करूँगी । मिस्र ल्सो शो भी बुलाया जाय ।,चक्रधर यह पत्र पाते ही बौखला उठे ।,मिस लूसी को भी बुलाया जाय । ", पाप्ठा, क्या मरे, मेरी सोहाग ही उठ;गया ।",महाशय 'ख' तो बहुत निहंग हैं ।,"पापा क्या मरे , मेरा सोहाग ही उठ गया ।" "क्रोध तो बरोबरवाललों पर करना चाहिए, में भला आपके क्रोध का आघात केसे सह सकती हूँ ?","मेरे सिरताज ! शायद आपको पता नहीं , आजकल मेरी क्या दशा है ।","क्रोध तो बराबर वालों पर करना चाहिए , मैं भला आपके क्रोध का आघात कैसे सह सकती हूँ ?" “बह बहुत रो रही है ।,' ' और आप सैर करने जा रहे हैं ?,' ' वह बहुत रो रही हैं । "धर्माजी ने सिर न उठाया, फिर विचार में हुव गए।","लेकिन अब मुझे स्वयं पछतावा हो रहा है, मुझे क्षमा कीजिए ।","शर्माजी ने सिर न उठाया, फिर विचार में डूब गए ।" विमल बाबू से और तुम्हारे चचाजी से आज एक मड़प हो गई ।,"मेरी अपेक्षा जिन्हें रुपये मिलने का चौगुना चांस है , उनकी नीयत बिगड़ जाय , तो लज्जा और दु:ख की बात है ।",विमल बाबू से और तुम्हारे चचाजी से आज एक झड़प हो गयी । "सुल्यि सिर पर सौआ रखे घास छोलने चली, तो उसका गेहुभो रंग प्रभात कौ सुनहरी किरणों से कुन्दन की तरद दमक उठा ।","प्रभात का समय था, पवन आम की बौर की सुगंधि से मतवाला हो रहा था, आकाश पृथ्वी पर सोने की वर्षा कर रहा था ।","मुलिया सिर पर झौआ रक्खे घास छीलने चली, तो उसका गेहुआँ रंग प्रभात की सुनहरी किरणों से कुन्दन की तरह दमक उठा ।" िसु जद राजा साहद ते मेज़न्योल बढ़ा तो उनके आग्रह से विवश हो कर राजमहल में चछे आये ।,जिस समय उन्होंने इसका काम अपने हाथ में लिया यह रियासत एक ऊजड़ ग्राम के सदृश थी ।,किंतु जब राजा साहब से मेल-जोल बढ़ा तो उनके आग्रह से विवश हो कर राजमहल में चले आये । सद्दसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी ।,उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है ।,सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी । "सदन--जी नहों, चला तो था नौ वजे रात को, किन्तु गाड़ी में सो गया और मुगलसराथ पहुँच गया ।",इसी एक बजेवाली गाड़ी से ?,"सदन - जी नहीं, चला तो था नो बजे रात को, किन्तु गाड़ी में सो गया और मुगलसराय पहुँच गया ।" मेरा सारा जीदन संघर्ष सें कटा ।,यह भावना ही न हो सकती थी कि इसके भीतर और बाहर में कोई अंतर हो सकता है ।,मेरा सारा जीवन संघर्ष में कटा । वह आमदनी केवल जेवरों में खचे होगी ।,वह आप ही घर छोड़ रहे हैं ।,वह आमदनी केवल जेवरों में खर्च होगी । पहिले यह शब्द मुनकर आनन्द होता था,मेरा प्रण लेना चाहते हो ले लो,पहिले यह शब्द सुनकर आनन्द होता था "वे लोग ज्यों ही नहाकर उठते, श्रद्धा उनकी धोती छाँटने लगती ।","मैं हर तरह से उनकी सेवा करूँगी, उनकी धोतियाँ धोऊँगी, उनके पैर दाबा करूँगी, मैं वह सब करूँगी, जो उनकी मनचाही बहू करती ।","वे लोग ज्योंही नहाकर उठते, श्रृद्धा उनकी धोती छाँटने लगती ।" हरिधव का क्रोध आँसू बन गया ।,"हरिधन ने देखा, उसके दोनों साले और बड़े साले के दोनों लड़के भोजन किये चले आ रहे थे ।",हरिधन का क्रोध आँसू बन गया । दूसरे दिन कालेज में आकर पण्डितणी को हुसो के सम्निकट बेठने को फिक्र हुईं ।,केवल आप एक ऐसे सज्जन हैं जिनके हृदय में मुझे सद्भाव और सदनुराग की झलक दीख पड़ती है ।,दूसरे दिन कालेज में आकर पण्डितजी को लूसी के सन्निकट बैठने की फिक्र हुई । प्रभु सेवक-यह रईसों की पुरानी दलील है ।,"मुझे रईसों पर पहले भी विश्वास न था, और अब तो निराशा-सी हो गई है ।",प्रभु सेवक-यह रईसों की पुरानी दलील है । "आज अगर इन लोगों ने रुपये न दिये, तो फिर बात भी न पूछेगा ।",' एक मिनट सन्नाटा रहा ।,"आज अगर इन लोगों ने रूपये न दिए, तो फिर बात भी न पूछूंगा ।" दिन को दिन और रात को रात न समम्का ।,दो साल में कोई सात सौ रुपये हो जायँगे ।,दिन को दिन और रात को रात न समझा । उसे वह कहाँ-कहाँ बाँचे फिरता,झुनिया के लिए हाथ का कंगन जरूर बनवायगा और दादा के लिए एक मुंड़ासा लाएगा,उसे वह कहाँ-कहाँ बाँधे फिरता उसके सामने आबरू बचाती फिरतो हूँ कि किसीके मुंह पर मुझे कोई अनुचित शब्द न कह बेठे ।,"कहती थीं , यही तो शौक-सिंगार , पहनने-ओढ़ने , खाने-खेलने के दिन थे ।","उसके सामने अपनी आबरू बचाती फिरती हूँ , कि किसी के मुँह पर मुझे कोई अनुचित शब्द न कह बैठे ।" "उमानाथ शाज़््ता के विवाह के सम्बन्ध में जब उनसे कुछ कहते, तो वह बड़े सरल भाव से उत्तर देते--भाई तुम चाहो जो करो, इसके तुम्हीं मालिक हो |",उनकी आत्मा निर्बल हो गई थी ।,"उमानाथ शान्ता के विवाह के संबंध में जब उनसे कुछ कहते तो वह बड़े सरल भाव से उत्तर देते -- भाई, तुम चाहो जो करो, इसके तुम्हीं मालिक हो ।" जिद सामने की चोट नहीं सह सकती उस पर बगली वार करना चाहिए ।,सदन भी बाहर चला आया ।,"जिद सामने की चोट नहीं सह सकती, उस पर बगली बार करना चाहिए ।" इस पत्र को खोलना उचित नहीं ।,मनोभावों के अनुचित आवेश को हम बहुधा मुस्कराहट से छिपाते हैं ।,इस पत्र को खोलना उचित नहीं । सूद की एक कौडी भी छोड़ना उनके लिए. हराम था ।,"यदि लोकलाज न होती तो इसे लेकर कभी यहाँ न आता, परन्तु यह अधर्म इसी लाज निबाहने के कारण करना पड़ा है ।",सूद की एक कौड़ी भी छोड़ना उनके लिए हराम था । "पति की आय ही कभी इतनी न हुई, कि बाल-बच्चों के पालन-पोषण के उपरान्त कुछ बचता ।",उसके हाथ में केस देखते ही दोनों स्त्रियाँ टूट पड़ीं और उन चीज़ों को निकाल-निकालकर देखने लगीं ।,पति की आय ही कभी इतनी न हुई कि बाल-बच्चों के पालन-पोषण के उपरांत कुछ बचता । अब क्या हो ?,"मैं परीक्षा में गिर गया, बुरी तरह गिर गया ।",अब क्या हो ? मिसेज सेवक के हृदय में अब एक नई आशा अंकुरित हुई थी ।,मुझे गोद में उठाकर प्यार करता था ।,मिसेज सेवक के हृदय में अब एक नई आशा अंकुरित हुई थी । "इसके अतिरिक्त वह पत्रों के लिए लेख लिखते, सभाएँ करते और उनमें फड़कते हुए व्याख्यान देते थे |","इस आत्म-विजय पर एक जातीय ड्रामा खेला गया, जिसके नायक हमारे शर्मा जी ही थे ।","इसके अतिरिक्त वह पत्रों के लिए लेख लिखते, सभाएँ करते और उनमें फड़कते हुए व्याखान देते थे ।" मेरा इरादा हाकिम-ज़िला से कुछ कहने का नहीं था ।,"' 'अच्छा, यह भी कह दूंगा ।",मेरा इरादा हाकिम-जिला से कुछ कहने का नहीं था । ् आओआ०>-मेरे साथ बैठ कर एक ही थालो में खावा ।,यह तम्बाकूवाले की दूकान है इसके बाद चौथा मकान मेरा ही है ।,आ०-मेरे साथ बैठ कर एक ही थाली में खाना । भय नशे में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता ।,"रात ज्यादा भीग चुकी थी, बजरंगी के द्वार बंद थे ।",भय नशे में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता । रतन को कल से वकील साहब के आश्वासन पर कुछ सन्देह होने लगा था ।,"आज क्या, शाम को रोज़ घंटे-भर के लिए निकल जाया करो ।",' रतन को कल से वकील साहब के आश्वासन पर कुछ संदेह होने लगा था । "मुत्ते मादम हो रहा है ऊि सब में तुम्हारी नज़ररों हे विए गई, तुम्हारे दिल से निदयाल दो गई ।",एक हफ्ता मुझे रोते गुजर गया ।,"मुझे मालूम हो रहा है कि अब मैं तुम्हारी नजरों से गिर गई, तुम्हारे दिल से निकाल दी गई ।" वह रसिक मनुप्य थे ।,शर्मा जी ने इस बकवाद को बड़े ध्यान से सुना ।,वह रसिक मनुष्य थे । वर्दा पहुँचते-पहुँचते बारह का अमल हो आया,सड़कों पर भी सन्नाटा था,वहां पहुँचते-पहुँचते बारह का अमल हो आया "अन्त में जब मुझसे न देखा गया, तो एक फोट बनवा दिया ।",ईश्वर ने उन्हें हृदय भी एक विचित्र प्रकार का दिया है ।,"अंत में जब मुझसे न देखा गया, तो एक कोट बनवा दिया ।" रमा एक ही उड़ान में वास्तविक संसार से कल्पना और कवित्व के संसार में जा पहुँचा ।,इसके रूपये देकर ही मेरे दिल का बोझ हल्का होगा ।,' रमा एक ही उडान में वास्तविक संसार से कल्पना और कवित्व के संसार में जा पहुँचा । जालपा पति की आथ्थिक दशा अच्छी तरह जानती थी ।,रूपये की चर्चा को ही वह तुच्छ समझता है ।,जालपा पति की आर्थिक दशा अच्छी तरह जानती थी । नित्य हो एक-न-एक -अद्दाशय उधार माँगने के लिए सिर पर सवार रहते हैं. और बिना लिये गला नहीं छोड़ते ।,"मैंने भी समझा, जब इनका मित्र है और वह भी बचपन का, तो कहाँ तक दोस्ती का हक न निभायेगा ।",नित्य ही एक-न-एक महाशय उधार माँगने के लिए सिर पर सवार रहते हैं और बिना लिये गला नहीं छोड़ते । उमानाथ बोले--मुझ्ले अपना औषधायल खोलने के लिए कम-से-झम्र पाँच हज़ार की ज़रूरत है ।,एक-एक के हिस्से में पाँच-पाँच हजार आते हैं ।,' उमानाथ बोले- 'मुझे अपना औषधालय खोलने के लिए कम-से-कम पाँच हजार की जरूरत है । उत समय वह अपने घसियारे दमड़ी को डाँट रहे थे |,गरीब आकर चुपके से बरामदे के सामने पेड़ के नीचे खड़ा हो गया ।,उस समय वह अपने घसियारे दमड़ी को डाँट रहे थे । ' उस बँगले के आसपास कया है ?,पहरे वालों को दस-पांच रूपये देने से तो शायद ख़त पहुंच जाय ।,' 'उस बंगले के आसपास क्या है ? मजीद-- तो भई यह दोस्ती किस दिन काम आयेगी,चन्दूलाल -- मित्र तुम बड़े भाग्यवान हो,मजीद -- तो भई यह दोस्ती किस दिन काम आयेगी सूरे से कोई बात तय न होगी ।,"सहसा नायकराम ने कहा-कहिए मुंसीजी, आज सूरे से क्या बातचीत हुई ?",सूरे से कोई बात तय न होगी । मि० सेहता अपनी स्वामि-भक्ति पर यह आक्षिप न सह सके |,"बेहतर हो कि तुम किसी से यह शिक्षा प्राप्त कर लो कि स्वामी के प्रति उसके सेवक का क्या धर्म है और जो नमकहराम है , उसके साथ स्वामी को कैसा व्यवहार करना चाहिए ।",मि. मेहता अपनी स्वामिभक्ति पर यह आक्षेप न सह सके । तुम्हारा नाम साफ़ लिखा था।,तब पूछूँगी कि आपने फूल-सी लड़की ले जाकर उसकी यह गत बना डाली।,तुम्हारा नाम साफ लिखा था। इन्हीं ऐसा सरदार था कि सबकी संभाल लिया ।,"जिसको देखो, उसके मुँह से यही बात निकलती है कि लाला बाबू ने जालसाजी से पंडिताइन का कोई हलका ले लिया ।",इन्हीं में एक सरदार था कि सबको सँभाल लिया । दयानाथ ने पूछा --- कोई बात सूझी ?,"लड़कों की शिक्षा का खर्च मुश्किल से दस रूपये था, रमानाथ ने चालीस बतलाए थे ।",दयानाथ ने पूछा--कोई बात सूझी ? इस समय ऐसे आदमी का भरा जाना असावारण बात सषोी ।,सराफे में सबसे ज्यादा रौनक थी ।,इस समय ऐसे आदमी का आ जाना असाधारण बात न थी । "बुरा न मानो तो कहूँ * जिसको देखो, उसके मुंह से यही बात निकलती हे कि लाला वाबू ने जालचाजी से परिडताइन का कोई हलका ले लिया |","अब तक लोग उन्हें विवेकशील और सच्चरित्र मनुष्य समझते, शहर के धनी-मानी उन्हें इज्जत की निगाह से देखते और उनका बड़ा आदर करते थे ।","जिसको देखो, उसके मुँह से यही बात निकलती है कि लाला बाबू ने जालसाजी से पंडिताइन का कोई हलका ले लिया ।" "मैंने तो श्रापकी बात नहीं ठाली, आप मेरे बड़े हैं |","जब मर्यादा ही न रही, तो क्या रहा ।",मैंने तो आपकी बात नहीं टाली; आप मेरे बड़े हैं । निस्सन्देह वह उसकी खातिरदारी में फोई अंश शेष न रखती थी परन्तु यह व्यवह्र-पालन के विचार से होती थी न कि रुच्चे प्रेम से,जब तक वह स्वयं अपने कष्ट में मग्न थी कमलाचरण की व्याकुलता ओर कष्टों का अनुभव न कर सकती थी,निस्सन्देह वह उसकी खातिरदारी में कोई अंश शेष न रखती थी परन्तु यह व्यवहार-पालन के विचार से होती थीन कि सच्चे प्रेम से वसुधा को एक हथेलो पर अँगुलियों से रेखा खांचने में मप्त थे ।,एक बार साथ के एक शिकारी ने किसी शेर का जिक्र किया था ।,वसुधा की एक हथेली पर अँगुलियों से रेखा खींचने में मग्न थे । दाऊद--मैंने एक मुपलमान युवक को हत्या कर डाली है ।,मुझसे कहा था कि इसे पढ़ना ।,दाऊद- मैंने एक मुसलमान युवक की हत्या कर डाली है । उनवा हा उठा ही रह गया ।,शब्द भी निकालते हुए डरता था ।,उनका हाथ उठा ही रह गया । सेठ बलभद्रदास को विश्वास हो गया कि भव अवश्य हमारी विजय होगी।,इसके सिवा ओर हम कर ही क्या सकते हैं ?,सेठ बलभद्रदास को विश्वास हो गया कि अवश्य हमारी विजय होगी । तेमूर को जेसे कोई रत्न मिल गया ।,मै खुद अपना दुश्मन हो जाऊँगा ।,तैमूर को जैसे कोई रत्न मिल गया । खूब जी तोड़कर गाये,चुपके से न्यायालय की ओर चला,खूब जी तोड़कर गाया रोरी और चदन देवताओं की प्रतिभा प्रदान कर रही थी |,दस बजते-बजते वह पूजन से उठते और भंग छानकर बाहर आते ।,रोरी और चंदन देवताओं की प्रतिभा प्रदान कर रही थी । भमरकान्त सपा हुआ था,तुम कुएँ से पानी लाना मैं चौका-बर्तन कर लूंगी,अमरकान्त झेंपा हुआ था ससुरर चार कदम पर थी पर छः महीने से पहले भाने का अवप्तर न मिला,यह कहकर उन्होंने लकड़ी उठाई और धीरे-धीरे अपने कमरे की तरफ चले,ससुराल चार कदम पर थी पर छ: महीने से पहले आने का अवसर न मिला मंगर जोवन-सगिनी का यह अर्थ तो नहीं कि तुम मेरे ऊपर सवार होकर मुझे चछाओ ।,"मेरे घर तो तुमसे कोई नहीं कहता कि तुम देर में क्यों उठे , तुमने अमुक महोदय को सलाम नहीं किया , अमुक के चरणों पर सिर क्यों नहीं पटका ?",मगर जीवन-संगिनी का यह अर्थ तो नहीं कि तुम मेरे ऊपर सवार होकर मुझे जलाओ । आदमी लेटे-लेटे दिन-भर राना छुन सकता है; हिसाव लगाते हुए जोर वी आवाज से ध्यान बट जाता है ।,"बाबू जी मुझे प्यार तो कभी न करते थे; पर पैसे खूब देते थे, शायद अपने काम में व्यस्त रहने के कारण, मुझसे पिंड छुड़ाने के लिए इसी नुस्खे को सबसे आसान समझते थे ।",आदमी लेटे-लेटे दिन भर रोना सुन सकता है; हिसाब लगाते हुए जोर की आवाज से ध्यान बँट जाता है । मोठे फल मे जैसे कोड़े पड़ गये हों ।,इस अवस्था में श्रृंगार उसे और भद्दा लगता ।,मीठे फल में जैसे कीड़े पड़ गये हों । जगल में घमता है ।,ऐसी वक्तृता का उत्तर देने की कोशिश करना व्यर्थ था ।,जंगल में घूमता है । "वह जवान है, उसके आते ही जालपा को ये बुरे दिन भूल जायेंगे ।",मैत्री परिस्थितियों का विचार नहीं करती ।,"वह जवान है, उसके आते ही जालपा को ये बुरे दिन भूल जाएंगे ।" उसका मुँह उदास हो गया,पानी न हो तो गगरा ला मैं खींच दूँ,उसका मुँह उदास हो गया "अगर मेरी मोजूढगी में यह वारदात हुई होती, तो आर तो क्या कर सकता था, मगर मोय्रवाले की विला सजा कराये न छोड़ता, चाहे वह किसी राजा ही की मोय्र होती ।","बाहर ही से बोला - खुदा जानता है, जब से यह खबर सुनी है दिल के टुकड़े हुए जाते हैं ।","अगर मेरी मौजूदगी में यह वारदात हुई होती, तो और तो क्या कर सकता था; मगर मोटरवाले को बिला सजा कराये न छोड़ता, चाहे वह किसी राजा ही की मोटर होती ।" ", शपने सम्मान की रक्षा के लिए वह ऊँचे वण्वाकों ढासा भानरण रखने ढगा ।",नाथूराम ने वहाँ खूब नाम कमाया ।,अपने सम्मान की रक्षा के लिए वह ऊँचे वर्णवालों का-सा आचरण रखने लगा । नो घजते-बजते पंडित मोटेराम बाल-गोपाल सहित रानी साहब के द्वार पर जा पहुँचे |,सब के सब ऊपर बैठे खा रहे हैं ।,नौ बजते-बजते पंडित मोटेराम बाल-गोपाल सहित रानी साहब के द्वार पर जा पहुँचे । बेगुनाहों का ख़न अपनी गर्दन पर न लूँगा ।,"पुलिस की तरफ से शहादत नहीं देना चाहता, मैं आज जज साहब से साफ कह दूँगा ।",बेगुनाहों का ख़ून अपनी गर्दन पर न लूँगा । "वह घातक के लिए जीविका है, किन्तु शिक्षारी के लिए केवल दिल बदहलाने का एक सामान ।","चलिए, आराम से एक, दो, तीन दिन रहिए ।","वह घातक के लिए जीविका है, किन्तु शिकारी के लिए केवल दिल बहलाने का एक सामान ।" "मैं देखना चाहती थी कि , सचमुच मुझे; उबारना चाहते हैं या केवल धर्म का शिष्टाचार कर रहे हैं ।","लेकिन मैंने उस समय जो कुछ कहा था, वह केवल परीक्षा के लिए था ।",मैं देखना चाहती थी कि सचमुच मुझे उबारना चाहते हैं या केवल धर्म का शिष्टाचार कर रहे है । "वह थीम स्व॒रो में सल्हार गा रहे थे; किलु विद्याघरी जब पटरे पर आयी तो उसका मुख डूबते हुए सूर्य को भाँति छाल हो रहा था, नेत्र अरणवर्ण हो रहे थे |",मैं झूले के पास पहुँच कर पटरे पर जा बैठी किंतु कोमलांगी विद्याधरी ऊपर न आ सकी ।,वह धीमे में मल्हार गा रहे थे किंतु विद्याधरी जब पटरे पर आयी तो उसका मुख डूबते हुए सूर्य की भाँति लाल हो रहा था नेत्र अरुणवर्ण हो रहे थे । जभ्ी तो यहाँ ऐसे-ऐसे अत्याचार द्ोते हैं और पापियों को दण्ड नहीं मिलता |,"सहसा अनूपा ने जाकर सास से कहा- अम्माँ, मैं तो लाज के मारे मरी जाती हूँ ।",जभी तो यहाँ ऐसे-ऐसे अत्याचार होते हैं और पापियों को दण्ड नहीं मिलता । ! और क्या ।,"खैरियत यही हुई कि अपने बच्चे लेती गयी , नहीं तो मेरी जान गाढ़े में पड़ जाती ।",' 'और क्या । नता माथा सिश्चेड़कर बोली-भाभों तुम मुझे दिक करती हो लेकर ऋसम रखा दी,अच्छा सच बताना पतिदेव तुमसे प्रेम करते हैं,नैना माथा सिकोड़कर बोली-भाभी तुम मुझे दिक करती हो लेकर कसम रखा दी जरा-सी बात के लिए आप इतनी हाय-हाय मचा रहे हैं ।,महीने दो महीने में फिर निकल आएँगे ।,जरा सी बात के लिए आप इतनी हाय-हाय मचा रहे है । यही कारण था जिसने विसर्जन को इतना गर्वशील बना दिया था,उसे वृजरानी से सच्ची प्रीति थी,यही कारण था जिसने विरजन को इतना गर्वशील बना दिया था कोचवान से बार-बार घोड़ा तेज़ करने को कहती ।,जालपा को अब यही शंका होती थी कि ईश्वर ने मेरे पापों का यह दंड दिया है ।,कोचवान से बार-बार घोडातेज़ करने को कहती । सारे दिन अपनी कोठरी * में पड़ी रहती ।,पड़ोसिनों का आना-जाना भी कम हो गया था ।,सारे दिन अपनी कोठरी में पड़ी रहती । दारोगाजी के अफसर भी उनसे प्रायः प्रसन्न न रहते ।,"रूखी रोटियां चांदी के थाल में परोसी जाएं, तो भी...वे पूरियाँ न हो जायेगी ।",दारोगाजी के अफसर भी उनसे प्रायः प्रसन्न न रहते । "वही दृश्य श्राँखों में फिरा करते, रमणियों के हाव-भाव और मृद्ु मुस्कान के स्मरणा में मग्न _हता |",उस का मन हर घड़ी बाजार की ओर लगा रहता ।,"वही दृश्य आँखों में फिरा करते, रमणियों के हावभाव और मूदु मुसकान के स्मरण में मगन रहता ।" "उसके स्वर में अब क्रोध न था, केवल एक उन्‍्म्रादमय प्रवाह था |",वह जगह से हिलती भी न थी ।,"उसके स्वर में अब क्रोध न था, केवल एक उन्मादमय प्रवाह था ।" आज बढ़ी मुस॒किल से कुआं खाली हुआ ।,"चिढ़कर बोला- मालकिन, दाहने-बायें दोनो ओर चलती हो ।",आज बड़ी मुश्किल से कुआँ खाली हुआ था । तेरे वात्सल्य का धन्य दै ! कालिन्दी दीपक लिये दालान मे खड़ी गाय्र दुहा रही थी |,"जब तक गोविंदी के पास गहने थे, तब तक भोजन की चिंता न थी ।",माता ! तेरे वात्सल्य को धन्य है ! कालिन्दी दीपक लिये दालान में खड़ी गाय दुहा रही थी । प्रकाश को पकोढ़ियाँ पसन्द भी थीं ।,"चम्पा ज्यों ही भोजन पकाने लगी, उसने सन्दूक खोला और आभूषणों को देखने लगा ।",प्रकाश को पकौड़ियाँ पसन्द भी थीं । "सुमन ने गम्भीर भाव से उत्तर दिया--आप ऐसा समभते होंगे, और तो कोई ऐसा नहीं समझता ।","सुमन, तुम ने हिंदू जाति का सिर नीचा कर दिया ।","सुमन ने गंभीर भाव से उत्तर दिया -- आप ऐसा समझते होंगे, और तो कोई ऐसा नहीं समझता ।" "( ३ ) सेठजी की मोटर जितनी तेज्ञी से जा रही थी, उत्तनी ही तेज़ो से उनकी अाँखों के सामने आहत गोपी का छायाचित्र सी दोड़ रहा था ।","मेरा दुर्भाग्य था, कि आपको भ्रम हुआ ।","सेठजी की मोटर जितनी तेजी से जा रही थी, उतनी ही तेजी से उनकी आँखों के सामने आहत गोपी का छायाचित्र भी दौड़ रहा था ।" उस पर अमर भेया कद्दते हैं--मदहन्तजी से फ़रियाद करो,दरिद्र को सिंहासन पर भी बैठा दो तब भी उसे अपने राजा होने का विश्वास न आएगा,उस पर अमर भैया कहते हैं-महन्तजी से फरियाद करो उनका हृदय टूट जाएगा ।,यह मिल उसी लूट के माल पर बन रही है ।,उनका हृदय टूट जाएगा । तुमने मुझे जानकर ग्रिराया ।,"चिम्मन -- अजी रहने भी दो, झूठमूठ की बातें बनाती हो ।",तुमने मुझे जान कर गिराया । चैत में जब विप्रजी पहुँचे तो उन्हें डेढ़ पसेरी के लगभग गेहूँ दे दिया ओर अपने को उऋक्रण समझकर उसको कोई चरचा नकी ।,"वह अब अपने लिए नहीं, माथुर के लिए दुखी था ।",चैत में जब विप्रजी पहुँचे तो उन्हें डेढ़ पंसेरी के लगभग गेहूँ दे दिया और अपने को उऋण समझकर उसकी कोई चरचा न की । यह कहकर गिन्नियों कौ एक गड़डी निकालकर मेज़ पर रस दी ।,सब मुफ्त में जमीन जोतना चाहते हैं ।,यह कहकर गिन्नियों की एक गड्डी निकालकर मेज पर रख दी । इसलिए उनके विधार में साइपा को अमंनुष्ट रहने का कोई उचित कारण नही हो सकता था ।,उन्होंने चम्पतराय की वीरता की कथाएँ सुनी थीं इसलिए उनका बहुत आदर-सम्मान किया और कालपी की बहुमूल्य जागीर उनको भेंट की जिसकी आमदनी नौ लाख थी ।,इसलिए उनके विचार में सारन्धा को असन्तुष्ट रहने का कोई उचित कारण नहीं हो सकता था । "_गर अपराधिनी हूँ, तो मैं हुँ, जिसके कारण उन्हें इतने कष्ट भेलने पड़े ।","मुझे प्रसन्न करने के लिए, मुझे सुखी रखने के लिए उन्हाेंने अपने ऊपर बडे से बडाभार लेने में कभी संकोच नहीं किया ।","अगर अपराधिनी हूँ, तो मैं हूँ, जिसके कारण उन्हें इतने कष्ट झेलने पडे ।" सदन इस समय आात्मसुधार की लहर में वह रहा था।,जैसे कोई दरिद्र मनुष्य सोने की एक गिरी हुई चीज पा जाए ओर उसे अपने प्राणों से भी प्रिय समझे ।,सदन इस समय आत्मसुधार की लहर में बह रहा था । मेने उसे पकड़कर पीछे ढकेल दिया और दो तमाचे ज़ोर-क्ोर से लगाये ।,"राजा भी किसी पर अन्याय करे, तो अदालत उसकी गर्दन दबा देती है ।",मैंने उसे पकड़कर पीछे ठेल दिया और दो तमाचे जोर-जोर से लगाये । रक्षक उनके पीछे-पीछें सेवकों की भाँति चल रहा था ।,"उन्होंने बन्दरों को चने खिलाए, चिड़ियों को दाने चुनाए, कछुए की पीठ पर खड़ी हुई, फिर सरोवर में मछलियों को देखने चली गई ।",रक्षक उनके पीछे-पीछे सेवकों की भाँति चल रहा था । "कदाचित हम उसे भूल जाते हैं, किन्त॒ वे सामथ्येवान होकर हमें न पूछे, हमारे यहाँ तीज और चौथ न मेजें, तो हमारे कक्तेजे पर साँप लोटने लगता है ।","अब बड़े बाबू भी खुले, संकोच दूर हुआ ।","कदाचित् हम उसे भूल जाते हैं, किंतु वे सामर्थ्यवान हो कर हमें न पूछें, हमारे यहाँ तीज और चौथ न भेजें तो हमारे कलेजे पर साँप लोटने लगता है ।" में अकेली नहीं जाने की ।,यह तो मुँह से कहते हो ।,मैं अकेली नहीं जाने की । हर एक अपना छोटा-सा मिट्टी का घरौंदा बनाये बेठा हैं ।,"' जालपा ने सिर नीचा करके कहा, 'आदमी जैसा करेगा, वैसा भोगेगा ।",हर एक अपना छोटा-सा मिट्टी का घरौंदा बनाए बैठा है । अगर इस बच्चे ने सूये की भाँति उदय द्ोइर उप्के अंधेरे जीवन को प्रदोप्त न कर दिया होता तो कदाचित्‌ ठोकरों ने उप्के जोवव का अन्त कर दिया द्वोता ।,करुणा ने एक दिन पहले ही घर लीप-पोत रखा था ।,"अगर इस बच्चे ने सूर्य की भाँति उदय होकर उसके अंधेरे जीवन को प्रदीप्त न कर दिया होता, तो कदाचित् ठोकरों ने उसके जीवन का अंत कर दिया होता ।" "अन्त में गवर्नमेण्ट को भी चेडेज दिया कि जो उसमें साहथ हो, तो मेरे प्रमाणों को झूठा साबित कर दे ।",यहाँ तक कि वह धन की संख्या भी लिख दी जो इस कुत्सित व्यापार पर परदा डालने के लिए उसे दी गयी थी ।,"अन्त में गवर्नमेंट को भी चैलेंज दिया कि जो उसमें साहस हो, तो मेरे प्रमाणों को झूठा साबित कर दे ।" सदसा लछा समरकान्त आऊर द्वार पर साड़े हो गये,अमरकान्त ने रुपये जमीन पर फेंक दिए थे और वह सारी कोठरी में बिखरे पड़े थे,सहसा लाला समरकान्त आकर द्वार पर खड़े हो गए "मदरनासह ने बदनामी का जो सहारा लिया था, वह इन प्रस्तावों के सामने न ठहर सका ।",रुपयों का प्रबन्ध में कर दूँगा ।,मदनसिंह ने बदनामी का जो सहारा लिया था वह इन प्रस्तावों के सामने न ठहर सका । "बस, अनुमान से दवा की जाती है और निर्दयता से रोगियों की गर्दन पर छूरी फेरी जाती हैं ।",रमा ने पिंजड़े में बंद पक्षी की भांति उन दोनों को कमरे से निकलते देखा और एक लंबी सांस ली ।,"बस, अनुमान से दवा की जाती है और निर्दयता से रोगियों की गर्दन पर छुरी ट्ठरी जाती है ।" मुझे भी ऐसा ही जान पड़ता है |,सब लोग कहते हैं कि यह वही चंदा है ।,मुझे भी ऐसा जान पड़ता है । बात यह है कि हम दोनों ने भी लाटरी का टिकट लिया है ।,आँखों ही में हमने सलाह कर ली और निश्चय भी कर लिया ।,बात यह है कि हम दोनों ने भी लॉटरी का टिकट लिया है । "साईस तो किसी तरद् जागा, परन्तु अली के उपरासियों का पता नहीं ।",रात को उसे अच्छी तरह सहेज दिया था कि पौ फटने के पहले गाड़ी तैयार कर लेना ।,"साईस तो किसी तरह जागा, परंतु अर्दली के चपरासियों का पता नहीं ।" वे सामाजिक क्रप्रणओों तथा अन्य-विश्वास के प्रचल शत्र थे ।,"बाबू साहब उसके सेक्रेटरी थे, और इस कार्य को असाधारण उत्साह से पूर्ण करते थे ।",वे सामाजिक कुप्रथाओं तथा अंध-विश्वास के प्रबल शत्रु थे । राजा साहब-लेकिन मैं नगर के मुख्य व्यवस्थापक की हैसियत से एक व्यक्ति के यथार्थ या कल्पित हित के लिए नगर का हजारों रुपये का नुकसान तो नहीं करा सकता ?,तुम मेरी जगह होतीं तो क्या करतीं ?,राजा साहब-लेकिन मैं नगर के मुख्य व्यवस्थापक की हैसियत से एक व्यक्ति के यथार्थ या कल्पित हित के लिए नगर का हजारों रुपये का नुकसान तो नहीं करा सकता ? "पहले जूडी चढी होती थी पर वह काम करने अवश्य जाता था, अब काम पर न जाने के लिए बद्दाना खोजा करता |",शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया ।,"पहले जूड़ी चढ़ी होती थी, पर वह काम करने अवश्य जाता था, अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता ।" अभी बहुत चक्कर लगाना है ।,यह सावरेन सूरदास की नैतिक विजय का स्मारक है ।,अभी बहुत चक्कर लगाना है । यह पहली होली थी कि पद्मसिह घर नहीं भाये ।,"दूसरे दिन भी दोनों जून सवारी गई, लेकिन वहाँ तो भोलीबाई के मुजरे की ठहर चुकी थी,घर कौन आता ?",यह पहली होली थी कि पद्मर्सिंह घर नहीं आए । शुभ उ्यागः कुछ संक्रामक होता है,तुम उनसे तो कहीं अच्छे हो,शुभ उद्योग कुछ संक्रामक होता है लड़की दिन-दिन दुबंठ और अच्वस्थ होती जाती थी ।,"मँझला और छोटा ऐसे मग्न हो रहे थे मानो वह मनोहर दृश्य आँखों के सामने है, उनके सरल नेत्र- मनोल्लास से चमक रहे थे ।",लड़की दिन-दिन दुर्बल और अस्वस्थ होती जाती थी । दमड़ी के द्ाथ काँपने लगे ।,हँसिया निकाली और चारे की फिक्र में चला ।,दमड़ी के हाथ काँपने लगे । बर्फ अधिकता में पडने छूगो ।,राजा साहब इस बात पर अड़े हुए थे कि इसे जान से न मारा जाय केवल नजरबन्द कर दिया जाय ।,बर्फ अधिकता से पड़ने लगी । हा ! इस सरला के साथ में ऐसा विश्वासघात करूँ ?,' बुढिया के ह्रदय में भी जाति-गौरव का भाव उदय हुआ ।,हा! इस सरला के साथ मैं ऐसा विश्वासघात करूं ? थोड़ी देर बाद सुमन ऊपर से उतरी ।,दीनानाथ ने एक बार चौंककर उन्हें देखा और छड़ी उठा कर शीतक्रतापूर्वक नीचे गए ।,थोड़ी देर बाद सुमन ऊपर से उतरी । "लोगों के दिल में जो यद्द सदेद पदा हुआ था दि पण्डितजी ने कुछ ले-देकर यद्द स्वॉग रचा है, स्वार्थ के वश सूत्र होकर यह पाखड खड़ा किया दै, यही उन मनाने में बाधद होता था ।","आप तो रात को भर-पेट खाकर सोयी होंगी, इस वक्त भी जलपान कर ही चुकी होंगी, पर इधर भूलकर भी न झाँका कि मरे या जीते हैं ।","लोगों के दिल में जो यह संदेह पैदा हुआ था कि पण्डितजी ने कुछ ले-देकर वह स्वाँग रचा है, स्वार्थ के वशीभूत होकर यह पाखंड खड़ा किया है, वही उनको मनाने में बाधक होता था ।" "गाँव के आदमी जमा हो गये, पश्चायत होने लगी |","उसके लिए तो जीवन का एक आधार चाहिए था, जिसे वह अपना सर्वस्व समझे, जिसके लिए वह जिये, जिस पर वह घमण्ड करे ।","गाँव के आदमी जमा हो गये, पंचायत होने लगी ।" "फिर बहुओ की ओर से क्यों उनका हृदय इतना कठोर हो जाता है, यह मेरी समक्त मे नहीं आता ।","तपेदिक उछलता चला आता है , प्रसूत की बीमारी आँधी की तरह चढ़ी आती है और हम हैं कि आँखें बन्द किये पड़े हैं ।","फिर बहुओं की ओर से क्यों उनका ह्रदय इतना कठोर हो जाता है , यह मेरी समझ में नहीं आता ।" "आप चाहे फटे पहनूँ , पर उसे फटे-पुराने नद्दी' पहलने देतो ।",पहले दो-चार घरों में चौका-बरतन कर चुकी थी; पर रानियों से अदब के साथ बातें करना अभी न सीख पाई थी ।,आप चाहे फटे पहनूँ ; पर उसे फटे-पुराने नहीं पहनने देती । रास्ते में वुढ्िया ने कहा-- से छुछ कह्दा था चह तुम भूल गये बेटा अमर सचमुच भूल गया था,मेरा जी तो चाहता है उसका चुंबन ले लूं,रास्ते में बुढ़िया ने कहा-मैंने तुमसे कहा था वह तुम भूल गए बेटा- अमर सचमुच भूल गया था सच्चा इश्क या है हम दिखा देगा,इतना आदमी तुम्हारा आशिक है मगर कोई सच्चा आशिक नईं है,सच्चा इश्क क्या है अम दिखा देगा चौधरी--रईस उससे ब्याद न करेगा--रख लेगा ।,' भगतराम -'उनका घर नखास पर है ।,' चौधरी-' रईस उससे ब्याह न करेगा रख लेगा । "एकाएक जी में विचार उठा, कहीं मेरे ही घर में किसी ने रुपये उठा लिये हों तो ?","सियार बड़े डरपोक होते हैं, आदमी के पास नहीं आते; पर फिर संदेह हुआ, कहीं इनमें कोई पागल हो तो उसका काटा तो बचता ही नहीं ।",एकाएक जी में विचार उठा कहीं मेरे ही घर में किसी ने रुपये उठा लिये हों तो । किन्तु विवाह के लिए यद बाते नहीं देखी जाती,देह का दुर्बल बुध्दि का मंद,किंतु विवाह के लिए यह बातें नहीं देखी जातीं "मेरे लिए डाक्टर बोस की भाज्ञा नहीं कि किसी से मिलने जाओ, या कहीं सर करने जाओ ।",बहू की मुद्रा सहसा कठोर हो जाती है ।,"मेरे लिए डाक्टर बोस की आज्ञा नहीं कि किसी से मिलने जाओ , या कहीं सैर करने जाओ ।" किसे शंका थी कि मत्य की ऐसी भीषण क्रीड़ा उनको देखनी पड़ेगी ।,"मालूम था कि वह थोड़े दिनों की मेहमान है, मगर ज़ोहरा की मौत तो वज्राघात के समान थी ।",किसे शंका थी कि मृत्यु की ऐसी भीषण पीडा उनको देखनी पड़ेगी । ओर जो दोड़ाये व्तो फिर कोई उपाय सोचो जत्द [” “उपाय यही है कि उस पर दोनों जनें एक साथ चोट करें ।,’ ‘ तो फिर यहीं मरो ।,’ ‘ तो फिर कोई उपाए सोचो जल्द! ’ ‘ उपाय यह है कि उस पर दोनों जने एक साथ चोट करें । आरंधा ने मुँहमाँगी मुगई पायी ।,यही समय था कि जब अनिरुद्ध ने सारंधा का चम्पतराय से विवाह कर दिया ।,सारंधा ने मुँहमाँगी मुराद पायी । केवल मिस्टर मेहता शिकार हट द् के सच्चे उत्साह से जा रहे थे,रस्सी को साँप बना कर पीटो और तीसमारखाँ बनो,केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने के सच्चे उत्साह से जा रहे थे "चसाए दोष लड़भीवाके का है, न सादा दोष लड़केवाले का ।","चौथे- अजी, कितने तो ऐसे बेहया हैं जो साफ-साफ कह देते हैं कि हमने लड़के की शिक्षा-दीक्षा में जितना खर्च किया है, वह हमें मिलना चाहिए ।","न सारा दोष लड़कीवाले का है, न सारा दोष लड़केवाले का ।" जालपा -- क्या तुम चाहते हो कि में यहीं धुट-घुटकर मर जाऊँ ?,"वर्षा बंद हो चुकी थी, केवल छत पर रूका हुआ पानी टपक रहा था ।",जालपा--क्या तुम चाहते हो कि मैं यहीं घुट-घुटकर मर जाऊँ ? रत्ना भी लज्जित दो गई |,चिन्तामणि से अब न रहा गया ।,रत्ना भी लज्जित हो गई । लज्जा के मारे उसने कुछ न पूछा ।,समझ गई कि इन्होंने सारा काम किया ।,लज्जा के मारे उसने कुछ न पूछा । लज्जा ने सदव वीरों को परास्त किया हैं ।,ख्वामख्वाह लज्जित होना पड़ेगा ।,लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है । भाई उसका बुरा चेतें वह क्‍यों उनका बुरा चेते,ऐसा तो उसका धरम नहीं है,भाई उसका बुरा चेतें वह क्यों उनका बुरा चेते "अपने घर में ही सुधार न कर सका, तो दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी घूर्तता है !",उन्होंने निश्चय कर लिया कि नाच न ठीक करूँगा ।,अपने घर में ही सुधार न कर सका तो दूसरों को सुधारने की चेष्टा करना बड़ी भारी धूर्तता है । 'सहसा वही जफ़मी आदमी उठकर मजूरों के सामने आया और उन्हे सममाकर मेरी ग्राण-रक्षा की ।,"जब मैं चारों तरफ से घिर गया, तो क्या करता, मैंने भी रिवाल्वर छोड़ दिया ।",'सहसा वही जख्मी आदमी उठकर मजूरों के सामने आया और उन्हें समझाकर मेरी प्राणरक्षा की । अपनी गिरफ़्तारी का उसे भय न था ; लेकिन कहीं पुलिसवाले रमा पर अत्याचार न करें ।,"कभी-कभी जब गवाह बदलने लगता है, या कलई खोलने पर उताई हो जाता है, तो पुलिस वाले उसके घर वालों को दबाते हैं ।","अपनी गिरफ्तारी का उसे भय न था, लेकिन कहीं पुलिस वाले रमा पर अत्याचार न करें ।" सुभद्रा--बहुत अच्छा होगा।,ये सब चन्दे बन्द कर दूँ तो केसा हो ?,सुभद्रा -- बहुत अच्छा होगा । उनके मन में जो एक प्रकार की फुरहरी-सी उठ रही थी - उसने गम्भीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया,ओंकारनाथ पर कुछ नशा-सा चढ़ने लगा,उनके मन में जो एक प्रकार की फुरहरी-सी उठ रही थी उसने गंभीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया "स्वामी घनानन्द ने मुन्शीजी और उनके बाकी तीनों साथियों से कहा-- बच्चा, यह पद्मामृत लेते जाओ, ठम्हारा कल्याण होगा ।",कोई चूँ तक नहीं कर सकता ।,"स्वामी घनानन्द ने मुंशी जी और उनके बाकी तीनों साथियों से कहा- बच्चा, यह पंचामृत लेते जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा ।" यह नहीं कि हरदम छाती पर सवार |,विदेश से लौटकर मैं सीधा दिल्ली पहुँचा ।,यह नहीं कि हरदम छाती पर सवार । कितनी सफ़ाई से बेल-बूटे बनाये गये थे,सकीना का रंग सांवला था और रूप-रेखा देखते हुए वह सुंदरी न कही जा सकती थी अंग-प्रत्यंग का गठन भी कवि-वर्णित उपमाओं से मेल न खाता था पर रंग-रूप चाल-ढाल शील-संकोच इन सबने मिल-जुलकर उसे आकर्षक शोभा प्रदान कर दी थी,कितनी सफाई से बेल-बूटे बनाए गए थे "जालपा -- लालाजी के सामने तो वह सिर तक नहीं उठाते, पान तक नहीं खाते, भला झगड़ा क्या करेंगे ।","प्रयाग के सबसे अधिक छपने वाले दैनिक पत्र में एक नोटिस निकल रहा है, जिसमें रमानाथ के घर लौट आने की प्रेरणा दी गई है, और उसका पता लगा लेने वाले आदमी को पांच सौ रूपये इनाम देने का वचन दिया गया है, मगर अभी कहीं से कोई ख़बर नहीं आई ।","' जालपा-'लालाजी के सामने तो वह सिर तक नहीं उठाते, पान तक नहीं खाते, भला झगडा क्या करेंगे ।" "बस, आगे यह डॉगा चलता बज़र वहीँ आता ।",आपने एक गरीब की फूस की झोपड़ी में आग लगा दी है; लेकिन मन यह स्वीकार नहीं करता कि यह केवल विनोद-क्रीड़ा है ।,"बस, आगे यह डोंगा चलता नजर नहीं आता ।" इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था ।,कुछ मालूम हुआ ?,इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था । सबके-सब मुझे तुच्छ दृष्टि से देखते हैं।,"यहाँ जितने भले आदमी है, उनमें से कौन मेरे साथ बैठना चाहता है ?",सबके सब मुझे तुच्छ दृष्टि से देखते है । मुझे तो तुमने कभी नहीं फोसा ।,यह नहीं कि बैठी अपने भाग्य को कोसा करें ।,मुझे तो तुमने कभी नहीं कोसा । जागेश्वरी ने पानी लाकर रख दिया और पूछा --- आज तुम दिन भर कहाँ रहे ?,घर में आकर मुँह लटकाए हुए बैठ गया ।,जागेश्वरी ने पानी लाकर रख दिया और पूछा--आज तुम दिनभर कहाँ रहे ? "सारी रात सुमन उनके हृदय में बैठी हुईं उन्हें कोसती रही, तुम विद्वान वनते हो, तुमको अपने वुद्धि-विवेक पर घमंड है, लेकिन तुम फूस के _ ओोंपड़ों के पास वाहूद की हवाई फुलभड़ियाँ छोड़ते हो।",सुभद्रा ने भोजन करने का आग्रह किया तो उसे सिर-दर्द का बहाना करके टाला ।,"सारी रात सुमन उनके हृदय में बेठी हुई उन्हें कोसती रही तुम विद्वान बनते हो, तुमको अपने बुद्धि विवेक पर घमंड है, लेकिन तुम फूस के झोंपड़ों के पास बारूद की हवाई फुलझड़ियाँ छोड़ते हो ।" "अचकन है, वद् एक साइब के पास है, कोट दूसरे साहब ले गये ।","अब रोज डाक्टर को बुलाओ, सेवा सुश्रूषा करो, रातभर सिरहाने बैठे पंखा झलते रहो, उस पर यह शिकायत भी सुनते रहो कि यहाँ कोई हमारी बात भी नहीं पूछता ! मेरी घड़ी महीनों से मेरी कलाई पर नहीं आयी ।","अचकन है, वह एक साहब के पास है, कोट और दूसरे साहब ले गये ।" रियासत अली ने समर्थन किया-- आपने मद्दाराजा चाँगली को देखा होता तो दांतों उंगली दबाते ।,"वह चाहती थी, मेरा घर गाँव में सबसे संपन्न समझा जाय, और इस महत्वाकांक्षा का मूल्य देना पड़ता था ।",रियासत अली ने समर्थन किया- आपने महाराजा चाँगली को देखा होता तो दाँतों तले उंगली दबाते । ससार इसके पीछे-बहुत पीछे है ।,"उपहास और निंदा की तो बात ही क्या है, दुर्दैव का कठोरतम आघात भी मेरे व्रत को भंग नहीं कर सकता ।","संसार इसके पीछे , बहुत पीछे है ।" पुलिस के वातावरण में उसका ओचित्यजज्ञान भ्रष्ट हो गया था |,अगर तुम किसी तरह जालपा को प्रयाग जाने पर राज़ी कर सको ज़ोहरा -' तो मैं उम्र-भर तुम्हारी गुलामी करूंगा ।,पुलिस के वातावरण में उसका औचित्य-ज्ञान भ्रष्ट हो गया था । "रमा० --- कुछ नहीं, ज़रा पानी पीने उठा था ।","जालपा ने चौंककर पूछा--कहाँ जाते हो, क्या सवेरा हो गया ?","रमा०--कुछ नहीं, ज़रा पानी पीने उठा था ।" ब्राह्मण-ठाकुर थोड़े ही थी रि नाक कट जायगों ।,तैमूर जोर से हँसा और उसके सिपाहियों ने तलवारों पर हाथ रख लिये ।,"ब्राह्मण, ठाकुर थोड़ी ही थी कि नाक कट जायगी ।" "दो आदमी मिले, दोनों एक-दूसरे के दुश्मन ।","ईश्वर सेवक बोले-ईश्वर, इस पापी को अपनी शरण में ले ।","दो आदमी मिले, दोनों एक-दूसरे के दुश्मन ।" काशी के मुक़्दमे की वात याद करो,आज मौका पाकर उसने पूछा-तुम मुझे नहीं पहचानती हो लेकिन मैं तुम्हें पहचानता हूँ,काशी के मुकदमे की बात याद करो उस ज़मौन पर दिन भर जनता की भीड़ छगो रहती शेर३ है,सुखदा ने चटपट मुन्ने का मुँह धोया नए कपड़े पहनाए जो कई दिन पहले जेल में सिले थे और उसे गोद में लिए मेटन के साथ बाहर निकली मानो पहले ही से तैयार बैठी हो,उस जमीन पर दिन-भर जनता की भीड़ लगी रहती है उसकी ख्वार्य-सेवा ने जेसे ठप्तकों सारी कोमल भावनाओों को कुचल खाला था यहाँ तक कि वह हात्यात्द हो गई थी,सब समझती होंगी यह लोग कितने मूर्ख हैं,उसकी स्वार्थ-सेवा ने जैसे उसकी सारी कोमल भावनाओं को कुचल डाला था यहाँ तक कि वह हास्यास्पद हो गया था पिताजी के साथ उन्हें शारीरिक सुखों की कमी नहीं ; पर मेरे लिए उनकी आत्मा तड़पती रहती है ।,एक जर्मन एजेंसी उसे रखने पर तैयार थी; अगर तुरन्त सौ रुपये की जमानत दे सके ।,रो-रोकर प्राण दे देंगी ! पिताजी के साथ उन्हें शारीरिक सुखों की कमी नहीं; पर मेरे लिए उनकी आत्मा तड़पती रहती है । "रात-भर उन्हें तकलीफ देने और आप तकलीफ उठाने की कोई जरूरत उसकी समझ मे न आई , लेकिन प्रक्राश आग्रह करता ही रहा, यहाँ तक कि ठाकुर साहब राजी हो गये ।",भोजन करने के बाद ठाकुर साहब चलने को तैयार हुए ।,"रात-भर उन्हें तकलीफ देने और आप तकलीफ उठाने की कोई जरूरत उसकी समझ में न आयी; लेकिन प्रकाश आग्रह करता ही रहा, यहाँ तक कि ठाकुर साहब राजी हो गये ।" क्या विट्ठलदास से इतना भी नहीं होगा !,केवल एक सज्जन पुरुष की आड़ चाहिए ।,क्या विट्ठलदास से इतना भी नहीं होगा ? थह व्यर्थ घबड़ाकर चले आये और फिर ऐसी चुप्पी साधी कि अपनी खबर तक न दी ।,उसका मिज़ाज इन दिनों बहुत तेज़ हो गया था ।,यह व्यर्थ घबडाकर चले आए और फिर ऐसी चुप्पी साधी कि अपनी ख़बर तक न दी । "पद्म--मैंने प्रीतिभोज का प्रस्ताव किया, किन्तु इसे कोई स्वीकार नहीं करता।","सुभद्रा - हाँ, कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा और यह उचित भी है ।","पद्म -- मैंने प्रीतिभोज का प्रस्ताव किया, किन्तु इसे कोई स्वीकार नहीं करता ।" "रुपया माँगते हैँ तो रुपया, अनाज माँगते हैं तो अनाज देता हूँ, पर सूद नही लेता ।","पर आप एक बार उनके विश्वासपात्र बन जाइए, फिर आप कभी उनकी शिकायत न करेंगे ।","रुपया माँगते हैं तो रुपया, अनाज माँगते हैं जो अनाज देता हूँ, पर सूद नहीं लेता ।" "किन्तु मुझमें न विद्या 0, न बुद्धि, न वह श्रभुभव जो इन त्ुटियों की पूरति कर देता है ।","वंशीधर बोले- 'मैं किस योग्य हूँ, किंतु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी ।","किंतु मुझमें न विद्या है, न बुध्दि, न वह स्वभाव जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है ।" "अगर उसके लिए जोढ़ का वर नदीं पा सकते तो लक्ष्की को क्याँरी रख छोड़ी, फ़ह्दर देकर मार डालो, गला घाट डालो, पर किसी बूढे खूसट से मत ज्याहो |","मैं सुशीला का-सा सुख चाहती थी, कुलटाओं की विषय-वासना नहीं ।","अगर उसके लिए जोड़ का वर नहीं पा सकते तो लड़की को क्वाँरी रख छोड़ो, जहर देकर मार डालो, गला घोंट डालो, पर किसी बूढ़े खूसट से मत ब्याहो ।" आपएरे के मोतोचूर और दिल्ली के इलवा-पोहन के छामने जौनपुर की अम्तियों की तो कोई गणना ही नहीं है ।,कुछ सज्जनों ने इस ज्ञान-वर्षा और धर्मोपदेश से मुग्ध होकर उन पर फूलों की वर्षा की ।,आगरे के मोतीचूर और दिल्ली के हलुवा-सोहन के सामने जौनपुर की अमृतियों की तो गणना ही नहीं है । "जवाव से कुछ तन बोछे, पर तीवर बदल गये और मुँह छाल हो गया ।","कुलीना ने स्वयं भोजन बनाया था, स्वयं थाल परोसे थे और स्वयं ही सामने लाई थी, पर दिनों का चक्र कहो, या भाग्य के दुर्दिन, उसने भूल से सोने का थाल हरदौल के आगे रख दिया और चांदी का राजा के सामने ।","जबान से कुछ न बोले, पर तेवर बदल गए और मुँह लाल हो गया ।" "हितैपी मित्र का जितना मम्भान होता है, स्वामिभक्त सेवक का उठना नहों हो सकता ।",कप्तान साहब निरुत्तर हो गये ।,हितैषी मित्र का जितना सम्मान होता है स्वामिभक्त सेवक का उतना नहीं हो सकता । "हाँ, माधुरी के गोरे, प्रसन्न, सशझ्ोच हीन सुख पर लज्जा-मिश्चित सघुरिसा कौ ऐसी छठा उसने कभी न देसी थी ।",माधुरी एक काश्मीरी शाल ओढ़े अँगीठी के सामने बैठी हुई थी ।,"हाँ , माधुरी के गोरे , प्रसन्न , संकोचहीन मुख पर लज्जामिश्रित मधुरिमा की ऐसी छटा उसने कभी न देखी थी ।" दमारे पाँवों में तो दो्री बेढ़ियाँ हैं --समाज की अलग सरकार को अलग लेकिन आगे-पीछे भो दो देखना होता दै,फिर तुम्हारे सामने ऐसी शिकायत आए तो मेरे कान पकड़ना,हमारे पाँवों में तो दोहरी बेड़ियाँ हैं-समाज की अलग सरकार की अलग लेकिन आगे-पीछे भी तो देखना होता है इस प्रेम का फल इसके सिवा और क्या होगा कि तुम अपने साथ उसे भी ले डूबोगी और मेरी चिर संचित अभिलाषाओं को मिट्टी में मिला दोगी ?,"तुम्हें मालूम है, तुमसे उसका विवाह नहीं हो सकता ।",इस प्रेम का फल इसके सिवा और क्या होगा कि तुम अपने साथ उसे भी ले डूबोगी और मेरी चिर संचित अभिलाषाओं को मिट्टी में मिला दोगी ? मुझे तो झुन्‍्नी की मौत से प्रसन्नता हुई ।,गोपा एक लालटेन लिए निकली ।,मुझे तो सुन्नी की मौत से प्रसन्नता हुई । दी काँटा था जो अमरकान्त के हृदय में चुभ रहा था,उन्हें अपना धान मुझसे ज्यादा प्यारा है,यही कांटा था जो अमरकान्त के हृदय में चुभ रहा था दूर होने के कारण छाहर के लोग वहाँ कम जाते थे ।,वहाँ एकांत रहता था ।,दूर होने के कारण शहर के लोग वहाँ कम जाते थे । बीच-बीच में चुहल भी हो जाती थी ।,दो चौकीदार खड़े पंखा झल रहे थे ।,बीच-बीच में चुहल भी हो जाती थी । ठिठक गए ।,दोनों ही आदमियों ने वास्तविक स्थिति को समझने में गलती की थी ।,ठिठक गए । / भाज वह अपनी विशाल सम्पत्ति और मद्दतौ फुलीनता के साप ठपके सामने भिखारिन-प्ी मठ हुई थी,इस दरिद्र ने उसे आज पूर्ण रूप से परास्त कर दिया था,आज वह अपनी विशाल संपत्ति और महती कुलीनता के साथ उसके सामने भिखारिन-सी बैठी हुई थी "लिफाफा खोला गया, तो चेक निकला ।","न हुए, तो तुम मेरी गर्दन पर सवार होना ।","लिफाफा खोला गया, तो चेक निकला ।" "उस पथिक की भाँति, जो दिन-भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के वाद सन्ध्या को उठे और सामने एक ऊँचा पहाड़ देखकर हिम्मत हार बैठे, दारोगाजी भी घबरा गए ।",उसका मूल कारण उनकी अकर्मण्यता थी ।,"उस पथिक की भाँति, जो दिन भर किसी वृक्ष के नीचे आराम से सोने के बाद संध्या को उठे और सामने एक ऊँचा पहाड़ देखकर हिम्मत हार बैठे, दारोगाजी भी घबरा गए ।" कभो मेरे शरीर पर शस्त्र न सजाये ।,उसका यह अपार दुःख देख कर मैं अपना दुःख भूल गयी ।,कभी मेरे शरीर पर शस्त्र न सजाये । वद अपने खेत की मेड पर खढ़ा झपवी तबाही क्षा इप्य देख रहा था ।,बैल भी ऐसे कौन-से तैयार हैं कि दो-चार सौ मिल जायें ।,वह अपने खेत की मेड़ पर खड़ा अपनी तबाही का दृश्य देख रहा था । "जो कुछ खर्चे था, वह सुन्नो कौ ज़ात से था ।","इस अवसर पर मुझे यह बहुमूल्य अनुभव हुआ कि जो लोग सेवा भाव रखते हैं और जो स्वार्थ- सिद्धि को जीवन का लक्ष्यो नहीं बनाते, उनके परिवार को आड़ देनेवालों की कमी नहीं रहती ।","जो कुछ खर्च था, वह सुन्नी की जात से था ।" यह कहते हुए कु दनलाल बाहर चले गये ।,"जब उसने देखा कि कुन्दनलाल का क्रोध बढ़ता जाता है और मेरे कारण रामेश्वरी को घुड़कियाँ सुननी पड़ रही हैं, तो वह सामने जाकर बोली, 'बाबूजी, अब तो कसूर हो गया ।",यह कहते हुए कुन्दनलाल बाहर चले गये । ह सुखदा ने मुस्कराकर कहा--बोर्ड के फ़ेसले को अपील बद्दी है जो इस वस्त तुम्दारे सामने हो रही है,हाईकोर्ट न सुने तो बादशाह से फरियाद की जाय,सुखदा ने मुस्कराकर कहा-बोर्ड के फैसले की अपील वही है जो इस वक्त तुम्हारे सामने हो रही है "अवश्य ही उनमे कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जोवो मे श्रेष्ठता का दावा करनेवाला मनुष्य बचित दे ।",बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था ।,"अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी , जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है ।" इतने बुद्धू नहीं हो,मालती का हृदय धक-धक करने लगा,इतने बुद्धू नहीं हो "समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे ।",ये मिठाइयाँ डोमड़ों के लिए नहीं बनायी गयी थीं ।,"समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ और पैर जवाब दे चुके थे ।" एक कदम आगे बढ़ना संगीन की नोक को छाती पर लेना था ।,"न आगे जाते बनता था, न पीछे ।",एक कदम आगे बढ़ना संगीन की नोक को छाती पर लेना था । "कान्ति, जरा अपनी लेडी भ्रिसपल की चिट्ठी इन्हें दिखा दो ।",लेडी प्रिंसिपल ने अब की इनकी प्रशंसा की है ।,"कांति, जरा अपनी लेडी प्रिंसिपल की चिट्टी इन्हें दिखा दो ।" कुल दस हिन्दू थे ।,उन्हें मुसलमानों से जो आशा थी वह भंग हो गई ।,कुल दस हिंदू थे । और लड़की का यह दिसाय कि खाना पकाने से सिर मे दर्द होता है ।,‘ बेटा –‘ इसीलिए कि हमने रईसों का स्वाँग बना रखा है ।,और लड़की का यह दिमाग कि खाना पकाने से सिर में दर्द होता है । आज-कल अग्न्नों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा हुआ है ; पर इन्हें चक्रवर्ती नहीं कद्ट सकते |,"भाई साहब ने इसे भाँप लिया- उनकी सहज बुद्धि बड़ी तीव्र थी और एक दिन जब मैं भोर का सारा समय गुल्ली-डण्डे की भेंट करके ठीक भोजन के समय लौटा, तो भाई साइब ने मानो तलवार खींच ली और मुझ पर टूट पड़े- देखता हूँ, इस साल पास हो गये और दरजे में अव्वल आ गये, तो तुम्हें दिमाग हो गया है; मगर भाईजान, घमंड तो बड़े-बड़े का नहीं रहा, तुम्हारी क्या हस्ती, है, इतिहास में रावण का हाल तो पढ़ा ही होगा ।","आजकल अंग्रेजों के राज्य का विस्तार बहुत बढ़ा हुआ है, पर इन्हे चक्रवर्ती नहीं कह सकते ।" "शतरंज खेलता, सैर-सपाटे करता और माँ और छोटे भाइयों पर रोब जमाता ।","पढ़ना चाहते हो, तो अपने पुरूषार्थ से पढ़ो ।","शतरंज खेलता, सैर - सपाटे करता और माँ और छोटे भाइयों पर रोब जमाता ।" डण्ड ही भरना पड़ेगा ।,शाम को भी एक बार आ जाया करूंगी ।,डंड ही भरना पड़ेगा । "रतन बुलाती, तो वह चला जाता ।",वह बरामदे में बैठी थी ।,"रतन बुलाती, तो वह चला जाता ।" सदन इन वातों को चाव से सुनता ।,इस बाजार में नित्य यह चर्चा रहती ।,सदन इन बातों को चाव से सुनता । इस समय उस पत्र को पढ़ने की प्रबल इच्छा हुईं |,उसे उन्होंने कालेज से मेरे पास भेजा था ।,इस समय उस पत्र को पढ़ने की प्रबल इच्छा हुई । आधा असाढ़ बीत गया और वर्षा न हुई,ऊख में थोड़ी-सी चरी बो दी गई थी,आधा असाढ़ बीत गया और वर्षा न हुई "जब उससे देखा फ़रि कु दनलाल का क्रोघ बढता ह्वी जाता है, और मेरे कारण रामेश्वरी को घुड- कियाँ सुननी पड़ रही हैं, तो वह सामने जाकर बोली--बाबूजी, अब तो कसूर हो गया ।",बूढ़े बाबा ने मुझे इसकी सहर्ष अनुमति दे दी ।,"जब उसने देखा कि कुन्दनलाल का क्रोध बढ़ता जाता है और मेरे कारण रामेश्वरी को घुड़कियाँ सुननी पड़ रही हैं, तो वह सामने जाकर बोली, 'बाबूजी, अब तो कसूर हो गया ।" यहाँ हानि की धम्मावना नहों रहतो ।,"इस सजधज से आप कालेज चले तो मित्रों का एक गोल सम्मान का भाव दिखाता आपके पीछे-पीछे चला, मानों बरातियों का समूह है ।",यहाँ हानि की सम्भावना नहीं रहती । मैं ही आपके कुल की कलकिनी हूँ ।,बालक का मुख पीला पड़ गया था और पुतलियाँ ऊपर चढ़ गयी थीं ।,मैं ही आपके कुल की कलंकिनी हूँ । यह काम आपको खुद करना चाहिए,भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी,यह काम आपको खुद करना चाहिए "लड़की का ज्यों ही विवाह हो जायगा, वह अपने घर की हो रहेगी |",मंगला को मरे अभी तीन ही महीने गुजरे थे कि चौबेजी ससुराल पहुँचे ।,"लड़की का ज्योही विवाह हो जायगा, वह अपने घर की हो रहेगी ।" बहुत पहन चुकी ।,अब गहने-कपड़े की तरफ ताकने को जी नहीं चाहता ।,बहुत पहन चुकी । "अब आपसे प्राथंना फेवल यहो है कि मुझे अपने अनत और अविरक प्रेम का कोई चिह्न प्रदान कोजिए, जिसे में सदेव अपने पास रखे ।",यह प्रस्ताव हुआ कि इस चंडूल से वास्कट के रुपये वसूल करने चाहिए मय सूद के ।,"अब आपसे प्रार्थना केवल यही है कि मुझे अपने अनंत और अविरल प्रेम का कोई चिह्न प्रदान कीजिए, जिसे मैं सदैव अपने पास रखूँ ।" "क्रव ससार को कोई आरक्षा मुसते इस स्थान से नहीं. हटा ध्फती, क्योंकि यह मेरा प्यारा देश और यहो प्यारी मातृभूमि है ।",मैं नित्य प्रातः-सायं गंगा-स्नान करता हूँ और मेरी प्रबल इच्छा है कि इसी स्थान पर मेरे प्राण निकलें और मेरी अस्थियाँ गंगा माता की लहरों की भेंट हों ।,अब संसार की कोई आकांक्षा मुझे इस स्थान से नहीं हटा सकती क्योंकि यह मेरा प्यारा देश और यही प्यारी मातृभूमि है । "कहीं उसने न देखा हो तो समभेगा, मुझे चोरी लगाती हे",शर्मा -- हर्ज क्यों नहीं है ?,"कहीं उसने न देखा हो, तो समझेगा, मुझे चोरी लगाती है ।" उनकी छाती धड़कने लगी ।,कोई आध घंटे के बाद मुख्तार के आने की आहट मिली ।,उनकी छाती धड़कने लगी । अब गरमी निकल गई ।,नायकराम की धमकी तो तुमने अपने कानों से सुनी ।,अब गरमी निकल गई । अब तक वह रनिवास में रही है ।,फिर देखता इनकी बहादुरी ।,अब तक वह रनिवास में रही है । चिन्ता स्पष्ट स्वर में बोली--खूब पहचानती हूँ ।,शोक और संतोष से सबके चेहरे उदास और सिर झुके हुए थे ।,चिंता स्पष्ट स्वर में बोली - खूब पहचानती हूँ । कोई एक हजार |,"हाँ, भाई साहब बतलाइए, अमोला में दर्शकों की संख्या क्या होगी ?",कोई एक हजार । शायद नशा में भूल गया ।,हम तुमको दौड़ना सिखायेगा ।,शायद नशा में भूल गया । "ऐसा खुश था, मानो उससे ज्यादा सुखी जीव संसार में कोई नहीं है ।",मुझे दो रात से नींद नहीं आती।,"ऐसा खुश था, मानो उससे ज्यादा सुखी जीव संसार में कोई नहीं है।" "गरदन उठाकर देखा, तो प्रिरज़ा नहंम था ।",जगत ने देखा कि यहाँ काइयाँपन से काम न चलेगा तो चुपके से ५ गिन्नियाँ और निकालीं ।,"गरदन उठाकर देखा, तो मिरज़ा नईम था ।" फिर ज़रा आवाज़ को सेभालकर बोलीं -- हम लोग इलाहाबाद के रहनेवाले हैं ।,अपनी या अपनों की बुराइयों पर शर्मिन्दा होना सच्चे दिलों का काम है ।,"फिर ज़रा आवाज़ को संभालकर बोलीं,हम लोग इलाहाबाद के रहने वाले हैं ।" दुश्मन के साथ नेकी करना रोगियों की सेवा से छोटा काम नहीं है ।,"तो भैया, तुम लोग चंदे भी उगाहते होगे ?",दुश्मन के साथ नेकी करना रोगियों की सेवा से छोटा काम नहीं है । "रूघू कभी इसे मताता, कभी उसे ; पर न यद्द उठती, न वह ।",आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गरूर है इस वाक्य को मन-ही-मन दोहरा कर उसने कहा- तुम मेरे काबू में कभी न आओगे हबीब ।,"रग्घू कभी इसे मनाता, कभी उसे;पर न यह उठती, न वह ।" चन्दा क्यों पानी लेने गयी थी ?,"नीचे जलती हुई रेत थी, ऊपर जलता हुआ सूर्य ।",चंदा क्यों पानी लेने गयी थी ? वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती ।,तुम ईमान से कह सकती हो कि तुमने उनसे परदा नहीं रक्खा ?,वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती । बड़ा भारी जवान था ।,"मेरे जीवन की उपयोगिता, सार्थकता ही लुप्त हो जाएगी ।",बड़ा भारी जवान था । "टीमल ने उनके अस- मंजस को भाँपकर कहा -- हरा क्‍यों नहीं हुआ है, हाँ, जितना होना चाहिए उतना नहीं हुआ ।","सो देख लेव,आप मानो चाहे न मानो, मैं तो एक सयाने को लाऊँगा ।","टीमल ने उनके असमंजस को भांपकर कहा, 'हरा क्यों नहीं हुआ है, हाँ, जितना होना चाहिए उतना नहीं हुआ ।" "जिस समय ये समाचार सवाठपत्रों में छुपेंगे, उस समय हजारों मनुष्यों को तुम्हारे दशन की अभिलाण होगी |","सारे हवाई किले जो अभी-अभी तैयार हुए थे, गिर पड़े ।","जिस समय ये समाचार संवादपत्रों में छपेंगे, उस समय हजारों मनुष्यों को तुम्हारे दर्शन की अभिलाषा होगी ।" यह कह्दता हुआ वह उठ खड़ा हुआ और ठेजी से गोवर्थेचसराय की तरफ़ चला,अगर सकीना ने मायूस कर दिया तो जिंदगी का खात्मा कर दूँगा,यह कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ और तेजी से गोवर्धन सराय की तरफ चला किसी परदेशी को अपने घर ठह- राना पाप नहीं है ।,"इतने में मानकी ने आकर कहा--तुम तीनों यहाँ बैठी क्या कर रही हो , चलो वहाँ लोग खाना खाने आ रहे हैं ।",किसी परदेशी को अपने घर ठहराना पाप नहीं है । "वह कामातुरता जो कलुषित प्रेम में व्याप्त होती है, सच्चे अनुराग के प्रधीन होकर सहृदयता में परिवर्तित हो गईं थी, पर सुमन की अनिच्छा दिनोंदिन बढ़ती देख-कर उसने अपने मन में यह निर्धारित किया कि पवित्र प्रेम की कदर यहाँ नहीं हो सकती ।","वह वही करना चाहता था, जो सुमन को पसंद हो ।","वह कामातुरता जो कलुषित प्रेम में व्याप्त होती है, सच्चे अनुराग के अधीन हो कर सहृदयता में परिवर्तित हो गई थी,पर सुमन की अनिच्छा दिनोंदिन बढ़ती देख कर उसने अपने मन में यह निर्धारित किया कि पवित्र प्रेम की कदर यहाँ नहीं हो सकती ।" विक्रम के -बढ़े भाई प्रकाश को साधु-महात्माओं पर अधिक विज्वास था ।,छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्नान करते और गठिया से ग्रस्त होने पर भी राम-नाम लिखना शुरू कर देते ।,विक्रम के बड़े भाई प्रकाश को साधु-महात्माओं पर अधिक विश्वास था । (ुम फ़ोस लाया है,अमर ने दीन आग्रह के साथ कहा-आप चलें मैं जरा सिविल सर्जन के पास होता आऊँ,तुम फीस लाया है "पेंदा फटा हुआ है, तख्ते टूटे हुए, नाव में पानी भरा हुआ है; और एक आदमी उसमें से पानी उलीच रहा है।",वह भयभीत होकर इधर-उधर देखती है कि यह आवाज कहाँ से आई?,"पेंदा फटा हुआ है, तख्ते टूटे हुए, नाव में पानी भरा हुआ है और एक आदमी उसमें से पानी उलीच रहा है।" "कृष्ण--इतने जोर से न वोलो, बाहर झावाज जाती होगी ।",यह पाप मेंने बोया है ।,"कृष्णचन्द्र -- इतने जोर से न बोलो, बाहर आवाज जाती होगी ।" "खलील--जी ऐसा भूलकर भी न कहिएगा, वरना एक की जगद्ट दो बौडम हो जायेंगे ।","अब मुंशी जी को क्रोध आया, अलगू पर नहीं, स्वराज्यवालों पर ।","खलील- ऐसा भूल कर भी न कहिएगा, वरना एक ही जगह दो बौड़म हो जायेंगे ।" उसने अपनी घुद्धिमानी से सारी स्थिति ताड़ ली और तरन्त फैसला कर लिया |,"उनका समस्त जीवन क्षोभ और ग्लानि को भेंट हो जायेगा, उन्हें कभी शांति न मिलेगी ।",उसने अपनी बुद्धिमानी से सारी स्थिति ताड़ ली और तुरंत फैसला कर लिया । "अब भी जब उत् हसीना की याद श्राती है, तो आँखों से आँसू निकल आते हैं |","जब जरा चित्त शान्त हुआ, मैंने दारोगाजी से पूछा, 'यह कौन आदमी है, साहब ?","अब भी जब उस हसीना की याद आती है, तो आँखों से आँसू निकल आते हैं ।" में भी काछेफ़ में था तब सोचा करता था कि अकेला रहूँगा और मजे से सर-सपाटा करूँगा ।,"बैठा रोता रहा, फिर उठकर चला गया ।",मैं भी कालेज में था तब सोचा करता था कि अकेला रहूँगा और मजे से सैर-सपाटा करूँगा । "बोले --- भगवान सब अच्छा ही करेंगे बहूजी, घबड़ाने से क्या होगा ।","हंसता-खेलता फांसी पर चढ़जाए तो वह सच्चा वीर है, लेकिन अपने प्राणों की रक्षा के लिए स्वार्थ के नीच विचार से, दंड की कठोरता से भयभीत होकर अपने साथियों से दगा करे, आस्तीन का सांप बन जाए तो वह कायर है, पतित है, बेहया है ।","बोले, 'भगवान सब अच्छा ही करेंगे बहूजी, घबडाने से क्या होगा ।" "अगर आपके पिता कहते कि जाकर किसी के घर में आग लगा दो, तो आप आग लगा देते ?",पिता के सामने हमको यह कहने का हिम्मत नहीं हुआ कि हम कानून नहीं पढ़ेगा ।,"अगर आपके पिता कहते कि जाकर किसी के घर में आग लगा दो, तो आप आग लगा देते ?" "हँसो को रोकना चाहती थी, पर वह इस तरह निकल पढ़ती थी, जसे भरी बोतल उड़ेंल दो गई हो ।","आप बैठी रहती हैं , तब मेरी अक्ल ठिकाने रहती है ।","हँसी को रोकना चाहती थी , पर वह इस तरह निकली पड़ती थी जैसे भरी बोतल उँड़ेल दी गयी हो ।" "माया--नदीं-नहीं, खपरेल पर से उतरे हैं ।",माया- मुझसे तो मारे डर के उठा नहीं जाता ।,"माया- नहीं, नहीं, खपरैल पर से उतरे हैं ।" "यहाँ जो स्नेह मिला, वह मानों आकाश से टपका था ।","घर पर जो स्नेह मिलता था, वह उसे मिलना ही चाहिए था ।","यहाँ जो स्नेह मिला, वह मानो आकाश से टपका था ।" "स्थानीय कौंसिल में जब सूद का प्रस्ताव उपस्थित था, तो प्रभाकरराव ने उसका घोर विरोध किया था ।",वे नहीं जानते कि अपने दुरुत्साह से अपनी जाति को कितनी हानि पहुँचा रहे हैं ।,स्थानी कोंसिल में जब सूद का प्रस्ताव उपस्थित था तो प्रभाकरराव ने उसका घोर विरोध किया था । "अभो तुम्हारा राज नहीं है, तत्र तो तुम भोग-बिलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हारा राज हो जायगा, तब तो तुम गरीबों को पीसकर पी जाओगे ।",तुम्हारा ध्यान कभी उनकी ओर जाता है ?,"अभी तुम्हारा राज नहीं है,तब तो तुम भोग-बिलास पर इतना मरते हो, जब तुम्हारा राज हो जायगा, तब तो तुम ग़रीबों को पीसकर पी जाओगे ।" "जैसे पुआाल जलता है, उसी तरह एक क्षण में दाढ़ी झाधी से ज्यादा जल गई ।","अबुलवफा ने सिगरेट को जलाने के लिए मुँह आगे बढ़ाया, लेकिन न मालूम केसे आग सिगरेट को न लगाकर उनकी दाढ़ी में लग गई ।","जैसे पुआल जलता है, उसी तरह एक क्षण में दाढ़ी आधी से ज्यादा जल गई ।" "अगर सन्न न आता हो, तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूँगी ।",सब घरों का यही हाल है ।,"अगर सब्र न आता हो, तो मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूँगी ।" मिस जोशी के ऊंचे बरामदे में नगर के सभी बद्े-बढ़े रईंस और राज्याधिद्धारी तमाशा देखने के लिए बेठे हुए थे ।,"वे जानते हैं कि इन्हें जितना दबाते जाओ, उतना दबते जायेंगे, सिर नहीं उठा सकते ।",मिस जोशी के ऊँचे बरामदे में नगर के सभी बड़े-बड़े रईस और राज्याधिकारी तमाशा देखने के लिए बैठे हुए थे । लाला भगतराम के हृदय में यही भाव काम कर रहा था ।,उस समय हम संकोच को छोड़कर अपने संबंध में ऐसी- ऐसी बातें कह डालते हैं कि जिन के गुप्त रहने ही में हमारा कल्याण है ।,लाला भगतराम के हृदय में यही भाव काम कर रहा था । बोले --यह मेरी बदनामी की बात है ।,"तुम्हें उस दिन भी देखा था; जब तुम महल में रहती थीं और आज भी देख रही हूँ, जब तुम अनाथ हो ।",बोले-यह मेरी बदनामी की बात है । में यह सब फुछ न करके उलटे और सुंद्द लटकाये रहती हूँ |,"उनकी बात का जवाब तो यही था कि उसी क्षण घर से चल खड़ी होती, फिर देखती मेरा क्या कर लेते! इन्हें मेरा उदास और विमन रहने पर आश्चर्य होता है ।",मैं यह सबकुछ न करके उलटे और मुँह लटकाये रहती हूँ । "पूरे पाँच साल हुए, मेंने शराब का नाम नहीं लिया, पीने की कोन कहे ।",फिर तो मेरा हौसला बढ़ा ।,"पूरे पाँच साल हुए, मैंने शराब का नाम नहीं लिया, पीने की कौन कहे ।" "तीन पाल किसी तरह कौशल से कट गये और मजे में कट गये, केदिन अब विपत्ति प्रिर पर महरा रही है ।",जाकर संदूक से नोटों के पुलिंदे निकाले और उन्हें चादर में छिपाकर मिस्टर सिनहा के साथ चलीं ।,"तीन साल किसी तरह कौशल से कट गये और मजे में कट गये, लेकिन अब विपत्ति सिर पर मँडरा रही है ।" वह तो तेरे सामने ही खडा है ।,एक बार मुझे दिखा देना ।,वह तो तेरे सामने ही खड़ा है । "खड़े दोते थे, तो भाँखें तिलमिछाने ढगतो था, सिर में चक्कर भा जाता था |","पर सबसे ज्यादा खुशी उसे मुगलेआजम हीरा पाने की थी, जिसे बार-बार देखकर भी उसकी आँखें तृप्त न होती थीं ।","खड़े होते थे, आँखें तिलमिलाने लगती थीं, सिर में चक्कर आ जाता था ।" "हम प्रान्त के सारे ""संता जा + पन्नों फो अपने सदाचार का राग अलापने के लिए मोल ले सकते हैं ।",हमारी मंशा सिर्फ यह थी कि आइंदा से हम रिआया को कभी ऐसा मौका न देंगे कि वह हुजूर की शान में बेअदबी कर सके ।,हम प्रांत के सारे समाचार-पत्रों को अपने सदाचार का राग अलापने के लिए मोल ले सकते हैं । "सोचा, यह आश्ञातीत रकम मिलती है, इसे क्यों छोड़ ।",मुँह-माँगी मुराद पूरी हुई ।,"सोचा , यह आशातीत रकम मिलती है , इसे क्यों छोङूँ ।" अब तो राजकुमार का तिलक हो जाना चाहिए ।,उन्हीं के आशीर्वाद से तो मुझे पिताजी के दर्शन हुए ।,अब तो राजकुमार का तिलक हो जाना चाहिए । "सम्भव है, मेरा जीवन उनके निर्दिष्ट मार्ग में वाधक हो |",पिस्तौल की दो गोलियाँ छाती से पार हो गयी थीं ।,"सम्भव है, मेरा जीवन उनके निर्दिष्ट मार्ग में बाधक हो ।" रूपा बाप की थाली में खाने बेठी,जमीन पर कूद पड़ी और उछल-उछल कर यही रट लगाने लगी - रूपा राजा सोना चमार - रूपा राजा सोना चमार ए लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी,रूपा बाप की थाली में खाने बैठी "इस लड़के से कह दो, जल्दी महाराज को बुलाये ।","कहीं पतीली पाँव पर गिरा ली , तो महीनों झींकोगे ।",इस लड़के से कह दो कि जल्दी महाराज को बुलाये । "समन का हृदय काँप उठा, किवाड़ खटखटाने का साहस न.हुआ |","उसने किवाड़ की दरारों से झाँका, ढिबरी जल रही थी, उसके धुएँ से कोठरी भरी हुई थी ओर गजाधर हाथ में झंझा लिये चित्त पड़ा, जोर से खर्राटे ले रहा था ।","सुमन का हृदय काँप उठा, किवाड़ खटखटाने का साहस न हुआ ।" "रतन उसके मुह की ओर अपेक्षा के भाव से ताकती रही, मानों कुछ कहना चाहती हैं और संकोचवश नहीं कह सकती ।",यह सच है कि उसने कभी आभूषणों के लिए आग्रह नहीं कियाऋ लेकिन उसने कभी स्पष्ट रूप से मना भी तो नहीं किया ।,"रतन उसके मुँह की ओर अपेक्षा के भाव से ताकती रही, मानो कुछ कहना चाहती है और संकोचवश नहीं कह सकती ।" उसका दवाई में बहुत खरच हो गया,दाई उसे संभालती रहेगी,उसका दवाई में बहुत खर्च हो गया "यद्ट जानवर केसे मारा गया, उ -के मारने में क्या-क्या बाधाएँ पढ़ीं, क्या-क्या उपाय करने पड़े, पहले कहाँ गोली लगी, भादि ।","वसुधा हरेक खाल नयी उमंग से देखती , जैसे बायस्कोप के एक चित्र के बाद दूसरा चित्र आ रहा हो ।","यह जानवर कैसे मारा गया , उसके मारने में क्या-क्या बाधाएँ पड़ीं, क्या-क्या उपाय करने पड़े , पहले कहाँ गोली लगी आदि ।" जुरी ने कहा--मेरे बेल हैं ।,मैं तो अब घर भागता हूँ ।,झूरी ने कहा- ‘ मेरे बैल हैं । "वाबू साहब चुपरे होके बैठ गदे, यह भी कोई बात है ।","अगर मेरी मौजूदगी में यह वारदात हुई होती, तो और तो क्या कर सकता था; मगर मोटरवाले को बिला सजा कराये न छोड़ता, चाहे वह किसी राजा ही की मोटर होती ।","बाबू साहब चुपके होके बैठ रहे, यह भी कोई बात है ।" यहाँ तक कि बूढे शिवदास भी कभी-कभी उप्को बदगोई करते हैं ।,"यों कहिए कि आप ही की बदौलत मैं इलाहाबाद पड़ा हुआ हूँ, नहीं कब का लखनऊ चला आया होता ।",यहाँ तक कि बूढ़े शिवदास भी कभी-कभी उसकी बदगोई करते हैं । गाड़ी तेज हो गई ।,"जॉन सेवक-है तो भिखारी, पर बड़ा घमंडी है ।",गाड़ी तेज हो गई । "' अगर मेरी ज़रूरत मालूम हो, तो तुरन्त लिखना ।","यही बल और शांति का वह अक्षय भंडार है जो किसी को निराश नहीं करता, जो सबकी बाँह पकड़ता है, सबका बेडापार लगाता है ।","'अगर मेरी जरूरत मालूम हो, तो तुरंत लिखना ।" "तो भाई, यह सव बातें हमारे मान की नहीं हैं ।",और तो और कुछ ऐसे महाशय भी है जो जाति ओर वर्ण को भी मिटा देना चाहते है ।,"तो भाई, ये सब बातें हमारे मान की नहीं है ।" उन्दोंने मुझे गिकाद की दावत दी,मैं खुदा को गवाह करके कहती हूं कि उन्होंने मुझे एक बार भी ऐसी निगाहों से नहीं देखा और न एक कलाम भी ऐसा मुँह से निकाला जिससे छिछोरेपन की बू आई हो,उन्होंने मुझे निकाह की दावत दी "देखते नहीं हो, खत कण्रेरे की तरह गहरा हो गया है |","तुम बैलों को ले कर चलो, मैं डॉड़ फेंक कर आता हूँ ।","देखते नहीं हो, खेत कटोरे की तरह गहरा हो गया है ।" "मेरे भतीजे ने एक सब्जा धोड़ा ले रखा है, उसी पर बैठकर चला जाया करूँगा ।","शर्मा - जी नहीं, किराए की गाड़ी की जरूरत नहीं पड़ेगी ।","मेरे भतीजे ने एक सब्जा घोड़ा ले रखा है, उसी पर बेठ कर कर चला जाया करूंगा ।" कुछ लोग तो ज़मीन मिलने पर हपये लगायेंगे मगर कम-से-कम दस लाख #ी ज़हरत और होगो,शान्तिकुमार नक्शों का एक पुलिंदा लिए हुए सुखदा के पास आए और एक-एक नक्शा खोलकर दिखाने लगे,कुछ लोग तो जमीन मिलने पर रुपये लगायेंगे मगर कम-से-कम दस लाख की जरूरत और होगी बराबर उसे अच्छो- अच्छी किताब सुनाकर उसे प्रत्न करने का प्रयत्न करता रहता था,सुखदा उससे कुछ फरमाइश करे यही इन दिनों उसकी सबसे बड़ी कामना थी,बराबर उसे अच्छी-अच्छी किताबें सुनाकर उसे प्रसन्न करने का प्रयत्न करता रहता था उम्रद्दी व्यज्ञवाशक्ति उछल-कूद और नेत्रों तक परि- मित थी--तालियं बजा-षज्ाकर नाच रही थी ।,खुन्नू ने कहा- काकी सब पेड़ दौड़ रहे थे ।,उसकी व्यंजना-शक्ति उछल-कूद और नेत्रों तक परिमित थी-तालियाँ बजा-बजाकर नाच रही थी । "वह तकाजों से उतना ही डरते थे, जितना शैतान से ।","खुदा ने चाहा, तो अबकी तुम्हारी एक पाई भी न रहेगी ।","वह तकाजों से उतना ही डरते थे, जितना शैतान से ।" मारंधा ने तछवार को विकाक कर अपने वक्ष.स्थल पर रख छिया और कहा--यह्‌ आपकी आज्ञा नदी है ।,वह राजा की ओर विश्वासोत्पादक भाव से देख कर बोली-ईश्वर ने चाहा तो मरते दम तक निभाऊँगी ।,सारन्धा ने तलवार को निकाल कर अपने वक्षस्थल पर रख लिया और कहा-यह आपकी आज्ञा नहीं है । लोग कहेंगे हमारे यहाँ काम आ थढ़ा त्तो मोह छिपाने लो,कौन रोज-रोज यह दिन आता है,लोग कहेंगे हमारे यहाँ काम आ पड़ा तो मुँह छिपाने लगे कुंबर साहब ( कुछ संतुष्ट हो कर )--झह बहुत अच्छा हुआ ।,अब मैं चाहता हूँ कि इन बदमाशों को इस सरकशी का मजा चखाया जाय ।,कुँवर साहब (कुछ संतुष्ट हो कर)-यह बहुत अच्छा हुआ । साइसों ने दलाली के लोभ से दत्तचित्त होकर तलाश की ।,सदन ने अपने दोनों साईसों से कह रखा था कि कहीं घोडा बिकाऊ हो तो हम से कहना ।,साईसों ने दलाली के लोभ से दत्तचित्त हो कर तलाश की । अब अपने मुँह की लाली रखने का सारा भार उसी पर था |,वह पछता रहा था कि मैंने क्यों जालपा से डींगें मारीं ।,अब अपने मुँह की लाली रखने का सारा भार उसी पर था । "आज तो इस तरह खोल रही है, मारतों में कुछ हूँ द्वी चहीं ।",कोई चीज तो इतनी बन जायेगी कि मारी-मारी फिरेगी ।,"आज तो इस तरह खोल रही है, मानो मैं कुछ हूँ ही नहीं ।" बरमसो तनस्‍््वाह का हिसाव नहीं करते ।,उनके दरवाजों पर घोड़े बँधे हुए हैं ।,बरसों तनख्वाह का हिसाब नहीं करते । "उन पर किसी तरद्ट का बन्धव, शासन या दबाव थे धोना चाहिए ।",' आपने एक नया सिद्धांत निकाला है कि दंड देने से लड़के खराब हो जाते हैं ।,"उन पर किसी तरह का बंधन, शासन या दबाव न होना चाहिए ।" जो लोग मेद-भाव में विश्वास रखते हैं जो लोग प्रथकता और कद्टरता केः _ उपासक हैं उनके लिए हमारी सभा में स्थान नहीं है,हम सब एक ही माता के बालक एक ही गोद के खेलने वाले एक ही थाली के खाने वाले भाई हैं,जो लोग भेद-भाव में विश्वास रखते हैं जो लोग पृथकता और कट्टरता के उपासक हैं उनके लिए हमारी सभा में स्थान नहीं है "इसमें सन्देह नहीं कि नगर के प्रतिष्ठित और संपन्न घरों से रतन का परिचय थः ; लेकिन जहाँ प्रतिष्ठा थी, वहाँ तकल्लुफ था, दिखावा था, ईर्ष्या थी, निन्‍दा थी ।",उसका अपना जीवन तो व्रत की वेदी पर अर्पित हो गया था ।,"इसमें संदेह नहीं कि नगर के प्रतिष्ठित और संपन्न घरों से रतन का परिचय था, लेकिन जहां प्रतिष्ठा थी, वहाँ तकल्लुग था, दिखावा था, ईर्ष्या थी,निंदा थी ।" भूमि गीली द्वो रही थी ।,नौकर ने बाहर ले जाकर हरी-हरी घास पर बैठा दिया ।,भूमि गीली हो रही थी । अपनी पु जी के सदुपयोग का यद सर्वोत्तम खाधन है ।,ये सब रकमें भी किसी न किसी तरह महाजन ही की जेब में जाती हैं ।,अपनी पूँजी का सदुपयोग का यह सर्वोत्तम साधन है । मेने तो किसीसे कहा ही नहीं ।,मगर वहाँ कैसे खबर पहुँची ?,मैंने तो किसी से कहा ही नहीं । जब उसको माता का अवसान हुआ तब वह बहुत छोटा था,उसके नारीत्व पर धब्बा आता था,जब उसकी माता का अवसान हुआ तब वह बहुत छोटा था कोई झूम रहा था कोई सूँढ़ घुम्ता रहा था कोई बरगद के डाल-पात चबा रद्द था,सबसे पहले पीलखाने में घुसे,कोई झूम रहा था कोई सूंड घुमा रहा था कोई बरगद के डाल-पात चबा रहा था अमर को क्रोध तो ऐसा आया कि इसी वक्त मदन्तजी को फटकारे पर ज़ब्त करना पढ़ा,आधा घण्टे के बाद उसने फिर साधु-द्वारपाल से कहा तो पता चला इस वक्त नहीं दर्शन हो सकते,अमर को क्रोध तो ऐसा आया कि इसी वक्त महन्तजी को फटकारे पर जब्त करना पड़ा "बोंली, दादाजी, आचाय महाशय मेरा हाल जानते हैं, उत्तकों मेरे परिचय की ज़छहरत नहीं ।",इसे मैंने बी०ए० तक पढ़ाया ... रत्ना का चेहरा शर्म से लाल हो गया ।,"बोली- दादाजी, आचार्य महाशय मेरा हाल जानते हैं, उनको मेरे परिचय की जरूरत नहीं ।" भेरे पिता स्कूलों के इंस्पेक्टर के यहाँ अ्रदंली थे ।,"कह नहीं सकता, क्यों मुझे उससे प्रेम हो गया ।",मेरे पिता स्कूल के इंस्पेक्टर के यहाँ अर्दली थे । क्या में इतना भी नहों जानता कि यह सब पाखढ है ।,आप तो फरमाते थे कि शिखा द्वारा विधुत्प्रवाह शरीर में प्रवेश करता है ।,क्या मैं इतना भी नहीं जानता कि यह सब पाखंड है ? समस्त शिक्षित-समुदाय राष्ट्रीयता पर जान देता है ।,"नौकरों के लिए मोटा चावल, मटर की दाल और तेल की भाजियाँ बनती थीं ।",समस्त शिक्षित समुदाय राष्ट्रीयता पर जान देता है । "भ्राह ! मैंने उनका प्रेमालिगन भी देखा है, कितना भावमय |",जब वह घर में आते थे केसी प्रेम विहवल हो कर उन से मिलने दोड़ती थी ।,"आह ! मैंने उसका प्रेमालिंगन भी देखा है, कितना भावमय!" वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता ।,पौधा और भी लहलहा उठा ।,वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता । "उसके गले में लोच नहीं, मेरी प्रावाज उससे वहुत श्रच्छी है।",क्या लोग उसके स्वर-लालित्य पर इतने मुग्ध हो रहे है ?,"उसके गले में लोच नहीं, मेरी आवाज उससे बहुत अच्छी है ।" उस घर में कदम रखते ही दरिघन को ऐसी शान्त महिमा का अनुभव हुआ मानों वह अपनी माँ की थोद में बंठा हुआ है ।,मेरे लिए वह मर गयी ।,उस घर में कदम रखते ही हरिधन को ऐसी शांत महिमा का अनुभव हुआ मानो वह अपनी माँ की गोद में बैठा हुआ है । निराशा निर्बलता से उत्पन्न होती है; पर उसके गर्भ से शक्ति का जन्म होता है ।,"राजा साहब बार-बार हतोत्साह हो जाते, सरकार से मेरा मुकाबला करना चींटी का हाथी से मुकाबला करना है ।",निराशा निर्बलता से उत्पन्न होती है; पर उसके गर्भ से शक्ति का जन्म होता है । कभी-कभो भार कुशल-समाचार पूछ णाते हैं ।,"गोपा ने दाँतों तले जीभ दबाकर कहा- अरे नहीं भैया, तुमने उन्हें पहचाना न होगा ।",कभी-कभी आकर कुशल- समाचार पूछ जाते हैं । फिर जीवन के मनसूबे बाँधे जाने लगे ।,क्यों वह इसी वक्त सारा वृत्तांत नहीं कह सुनाती ।,फिर जीवन के मनसूबे बांधो जाने लगे । "इतनी बड़ो जायदाद और इतनो विशाल संपत्ति को स्वासिनी होकर मुम्ते फलछे न समाना चाहिए था, आर्ठों पहर इसका यश गान करते रहना चाहिए था ।",उसी दम कपड़े बदल डाले और प्रण कर लिया कि अब कभी दर्शन करने न जाऊँगी ।,"इतनी बड़ी जायदाद और इतनी विशाल सम्पत्ति की स्वामिनी होकर मुझे फूले न समाना चाहिए था, आठों पहर इनका यशगान करते रहना चाहिए था ।" "दस-पाँच की चीज़ तो है नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का खर्च है, फिर कारीगर तो हमेग़ा अच्छे नहीं मिलते ।","यह आभूषण लालसा उसके लिए हंसने की बात नहीं, रोने की बात थी ।","दस-पाँच की चीज़ तो है नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का खर्च है, फिर कारीगर तो हमेशा अच्छे नहीं मिलते ।" "वादी ने वह तीर छोड़ा था, जिसकी उनके पास कोई काट न थी ।","वह अब वकील साहब की कन्या नहीं, आपकी कन्या है।","वादी ने यह तीर छोड़ा था, जिसकी उनके पास कोई काट न थी।" तुम उनसे तो कही अच्छे है,इसलिए वह लोग मरे हुए जानवर ही खाते हैं,तुम उनसे तो कहीं अच्छे हो आधी रात को नागिन नींद से चॉक पड़ी |,"परन्तु तो भी, इन उपायों से भी मूँगा की मूर्ति उनकी आँखों के सामने से न हटती थी ।",आधी रात को नागिन नींद से चौंक पड़ी । "मेरी यहो इल्तजा है कि आन्न से तुम इस वादशाइत के अमीन हो जाओ, मेरी जिन्दपों में मो और मेरे मरने के बाद भी ।",मेरा काम अब खत्म हो चुका ।,"मेरी यही इल्तजा है कि आज से तुम इस बादशाहत के अमीर हो जाओ, मेरी ज़िन्दगी में भी और मरने के बाद भी ।" जंगल भी पीछे रह गया था ।,तिथि सप्तमी थी ।,जंगल भी पीछे रह गया था । "आशा के कंगन देवियाँ पहनती होंगी, मेरे लिए जरूरत नहीं ! “मा० -- एक महीना न लगेगा, मैं जल्दी ही बनवा दूँगा ।",ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने में पूरी न हुई! आप उससे कह दीजिएगा मेरे रूपये वापस कर दे ।,"आशा के कंगन देवियां पहनती होंगी, मेरे लिए जरूरत नहीं!' रमानाथ-'एक महीना न लगेगा, मैं जल्दी ही बनवा दूँगा ।" हमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा है,एक-एक को अपने पत्र में रगेदेगा,अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा है "जागेश्वरी -- भूृंख क्‍यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था ! इस तरह दाना-पानी छोड़ देने से महाजन के रुपये थोड़े ही अदा हो जायेंगे ?","बोले--तुम लोग जाकर खा लो, मुझे भूख नहीं है ।","जागेश्वरी--भूख क्यों नहीं है, रात भी तो कुछ नहीं खाया था! इस तरह दाना-पानी छोड़ देने से महाजन के रूपये थोड़े ही अदा हो जायेंगे ।" उसके मन का भ्रम दूर हो गया ।,गजाधर रोने लगा ।,उसके मन का भ्रम दूर हो गया । ईंजवर साक्षौ है कि ममके कभी दःभी अपनी दशा पर कितना दु.ख होता है ।,"भगवन्, आपने मुझ पर जो आक्षेप किये वह सत्य हैं ।",ईश्वर साक्षी है कि मुझे कभी-कभी अपनी दशा पर कितना दु:ख होता है । "बोली -- नहीं, यह बात नहीं है जल्ली, आग्रह करने से सब कुछ हो सकता है, सास-ससुर को बार-बार याद दिलाती रहना ।","दस-पाँच की चीज़ तो है नहीं, कि जब चाहा बनवा लिया, सैकड़ों का खर्च है, फिर कारीगर तो हमेशा अच्छे नहीं मिलते ।","बोली--नहीं, यह बात नहीं है जल्ली; आग्रह करने से सब कुछ हो सकता है, सास-ससुर को बार-बार याद दिलाती रहना ।" "इस तरह का कोई-न-कोई प्रसग नित्य ही सेरे पास आने लगा , छेक्षिन भेरे पास उन सबके लिए एक ही जवाब था--सुभसे कोई मतलब नहीं ।",किसी के साथ पुलिस ने बेजा ज्यादती की थी ।,"इस तरह का कोई-न-कोई प्रसंग नित्य ही मेरे पास आने लगा, लेकिन मेरे पास उन सबके लिए एक ही जवाब था मुझसे कोई मतलब नहीं ।" "अब आप कृपा करके उन्हें आज . ही लेते आइएगा, वहाँ रहने से उनकी बीमारी बढ़ जाने का भय है।",इसलिए उधर ही से हाता हुआ कचहरी जाऊँगा।,"अब आप कृपा करके उन्हें आज ही लेते आइएगा, वहाँ रहने से उनकी बीमारी बढ़ जाने का भय है।" रमा ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा करके कहा -- वारंट लाओ तब हम चलेंगे ।,तब उसने एक छलांग मारकर रमा के ऊपर तलवार चलाई ।,"रमा ने हाथ छुडाने की चेष्टा करके कहा, 'वारंट लाओ तब हम चलेंगे ।" "श्यामकिशोर ने फिर गरजकर पूछा-बोलती क्या नहीं, तुके किसने खिलाने दिये ?",श्यामकिशोर खिलौने देखते ही झपट कर शारदा के पास जा पहुँचे और पूछा-तूने ये खिलौने कहाँ पाये ?,"श्यामकिशोर ने फिर गरज कर पूछा-बोलती क्यों नहीं, तुझे किसने खिलौने दिये ?" इलाहाबाद बक में वकील साहब के बीस हज़ार रुपये जमा थे ।,"पहले एक दवात टूट जाने पर इसी टीमल को उसने बुरी डांट बताई थी, निकाले देती थी, पर आज उससे कई गुने नुकसान पर उसने ज़बान तक न खोली ।",इलाहाबाद बैंक में वकील साहब के बीस हज़ार रूपये जमा थे । विनय ने कहा-ऐसा व्यसन क्यों करते हो कि एक दिन भी उसके बिना न रहा जाए ?,मैं घर से कोई असबाब लेकर नहीं आया था ।,विनय ने कहा-ऐसा व्यसन क्यों करते हो कि एक दिन भी उसके बिना न रहा जाए ? "रोऊंगो- रोना तो मेरी तक्दौर में लिखा दी दै-- रोगी, ऊेकिन हँस-हंसकर ।","मैं तन-मन से इनकी सेवा-सुश्रूषा करती, ईश्वर से प्रार्थना करती, देवताओं की मनौतियाँ करती ।","रोऊँगी, रोना तो तकदीर में लिखा ही है- रोऊँगी, लेकिन हँस-हँसकर ।" मुसाफिर ने जरा दम लेकर क्हा--दिन दिन घुलती जाती थी |,गाँववालों ने बहुत चाहा कि उसका विवाह हो जाए ।,मुसाफिर ने जरा दम लेकर कहा -दिन-दिन घुलती जाती थी । यह च दोती तो व जाने क्या दोता ।,स्त्री के सिर में पीड़ा हो रही थी ।,यह न होती तो न-जाने क्या होता । अबुलवफा ने कहा--आदाव श्रर्ज है वन्दानवाज ! आज कुछ तबीयत परेशान है क्या ?,"जी में तो आया कि दोनों को दुत्कार दूँ, पर घेर्य से काम लिया ।","अबुलवफा ने कहा -- आदाब अर्ज है बन्दानवाज, आज कुछ तबीयत परेशान है क्या ?" "चिन्ता का हृदय इस समय स्व के अखण्ड, अपार सुख का अनुमव कर रहा था ।","क्षीण स्वर में बोला - चिन्ता, पंखा मुझे दे दो, तुम्हें कष्ट हो रहा है ।","चिन्ता का हृदय इस समय स्वर्ग के अखंड, अपार सुख का अनुभव कर रहा था ।" "लेकिन सुमन को ज्षीघत्र ही मालूम हुआ कि: मैं इसे जितना नीच समभती हूँ, उससे वह कहीं ऊँची है ।","बस, अपने कोठे पर बेठी अपनी निर्लज्जता और अधर्म का फल भोगा करे ।","लेकिन सुमन को शीघ्र ही मालूम हुआ कि में इसे जितना नीच समझती हूँ, उससे वह कहीं ऊँची है ।" "अब दूसरी नाव वह कहाँ से लद््वाये ; अगर वह नाव डूबी है, तो उसके साथ ही वह भी दब जायगी ।",इस आनन्द की शुभ-स्मृति में उस पक्षी की ममी बनाकर रखी गयी ।,अब दूसरी नाव कौन वहाँ से लदवाये ; अगर वह नाव टूटी है तो उसके साथ वह भी डूब जायगी । घन- वानों का पेट कभी नहों सरता ।,केवल उसमें शीरीं को प्रतिष्ठित करने की कसर थी ।,धनवानों का पेट कभी नहीं भरता । "मुक पर दपतर में न-जाने कितनी घुड़कियाँ पढ़ती हैं, रोज ही तो जवाब-तलब होता है , लेकिन तुम्हे मेरे साथ सहानुभूति होतो है ।","‘ माँ –‘( प्रसन्न होकर), ‘ तुमसे सच कहती हूँ बेटा , चारपाई से उठती तक नहीं , सब औरतें थुड़ी-थुड़ी करती हैं , मगर उसे तो शर्म जैसे छू ही नहीं गयी और मैं हूँ , कि मारे शर्म के मरी जाती हूँ ।","मुझ पर दफ्तर में न-जाने कितनी घुड़कियाँ पड़ती हैं ; रोज ही तो जवाब-तलब होता है , लेकिन तुम्हें उलटे मेरे साथ सहानुभूति होती है ।" "उन्हें इसका विश्वास न आया था कि रमा जो कुछ कह रहा है, उसे पूरा भी कर दिखायेगा ।","गहनों का संदूकचा आलमारी में रक्खा हुआ था, रमा ने उसे उठा लिया, और थरथर कांपता हुआ नीचे उतर गया ।","उन्हें इसका विश्वास न आया था कि रमा जो कुछ कह रहा है, उसे भी पूरा कर दिखाएगा ।" मेरी नानी मर गयी ।,मेरे दो हाथ हैं ।,मेरी नानी मर गयी । लेकिन मन पर कोई वश न था ।,मालूम नहीं फिटन कब निकल जाय ।,लेकिन मन पर कोई वश न था । में तो कहती हूँ उपेक्षा तो दूर रही ठक- राने को तो बात ही क्या आप उस नारी के चरण धो-घोकर पियेंगे और बहुत दिन गुज़रने के पहले वह आपकी हृदयेश्वरी होगी,उसके विरुद्ध आप कितने ही तर्क और प्रमाण ला कर रख दें लेकिन मैं मानूँगी नहीं,मैं तो कहती हूँ उपेक्षा तो दूर रही ठुकराने की बात ही क्या आप उस नारी के चरण धो-धो कर पिएँगे और बहुत दिन गुजरने के पहले वह आपकी हृदयेश्वरी होगी उन्हीं दिनों पिताजी का वहाँ से तबादला दो गया ।,उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया ।,उन्हीं दिनों पिताजी का वहाँ से तबादला हो गया । इस तरह मन बढ़ाना कौन-सी अच्छी बात है?,"कह देते, भाई रुपए नहीं हैं, तब तक किसी तरह काम चलाओ ।",इस तरह मन बढ़ाना कौन सी अच्छी बात है ? गोपी कलकत्ते की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्‍यों न खुश होता ।,अब उन्हें यहाँ लाने की फिक्र करनी है ।,गोपी कलकत्ता की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्यों न ख़ुश होता । गिल्टी का निकलना मानो मृत्यु का सदेशा था,उस समय नगरों में प्लेग का प्रकोप हुआ,गिल्टी का निकलना मानो मृत्यु का संदेश था जाप जुर्स में न जायेगी तो इन्हें कितनी निराशा होगी,अब उससे ऊपर जाने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है सिर में चक्कर आ जाएगा,आप जुलूस में न जायेगी तो इन्हें कितनी निराशा होगी जिन द्वार्लों लेला रहतो थी उन द्वालों वह भी रहता था ।,"नादिर दिन-भर लैला के नगमे सुनता; गलियों में, सड़कों पर जहाँ वह जाती उसके पीछे-पीछे घूमता रहता ।",जिन हालों लैला रहती थी उन हालों वह भी रहता था । "अगर उसने मुझे कोई सनन्‍्तोषप्रद उत्तर न दिया, तो में उसका और अपना खून एक कर दूं गा ।","जयकृष्ण ने अपने आवेश को दबाकर कहा , राष्ट्रीय आन्दोलनों की आपने खबर ली , यह अच्छा किया ; लेकिन हरिजनोद्धार को तो सरकार भी पसन्द करती है , इसीलिए उसने महात्मा गाँधी को रिहा कर दिया और जेल में भी उन्हें इस आन्दोलन के सम्बन्ध में लिखने-पढ़ने और मिलने-जुलने की पूरी स्वाधीनता दे रखी थी ।","अगर उसने मुझे कोई सन्तोषप्रद उत्तर न दिया , तो मैं उसका और अपना खून एक कर दूँगा ।" शायद पहली बार उसमे पति से अपने दिल की बात कहीं पर अमरकान्त को घुरा लगा,मैं बुरी सही तुम्हारी दुश्मन नहीं,शायद पहली बार उसने पति से अपने दिल की बात कही अमरकान्त को बुरा लगा यह बात क्या है १ और दिन तो उसके स्नान करके लोटने के पहले ही कारीगर आ जाते थे,आस-पास के गांवों में भी जब कोई पंचायत होती है तो उसे अवश्य बुलाया जाता है,यह बात क्या है- और दिन तो उसके स्नान करके लौटने के पहले ही कारीगर आ जाते थे "शहर में इतने लक्ष्मी के पुत्र हैं, पर आपका किसी से परिचय नहीं ।",अम्मा भी आयेंगी ही ।,"शहर में इतने लक्ष्मी के पुत्र हैं, पर आपका किसी से परिचय नहीं ।" हम मुखालिफत के लिए मुखालिफत नहीं कर सकते ।,"मगर जिस तजवीज से उनके साथ हम को भी फायदा पहुँचता है ओर उनसे किसी तरह कम नहीं, उनकी मुखालिफत करना हमारे इमकान से बाहर है ।",हम मुखालिफत के लिए मुखालिफत नहीं कर सकते । कोई बात हो जाएगी तो सारी बिरादरी की नाक न कटेगी ?,"बहन, तुम से कौन परदा है ?",कोई बात हो जाएगी तो सारी बिरादरी की नाक कटेगी ? "उसे हृदय से लगा- कर बोले-प्रिये, ऐसी वातो से मुझे दुश्बी न करो ।",इतने में ज्ञानचंद्र तेली के यहाँ से तेल ले कर आ पहुँचे ।,"उसे हृदय से लगा कर बोले - प्रिय, ऐसी बातों से मुझे दुखी न करो ।" "जिस तरह पुरुष के चित्त से अभिमान और स्त्री की आँख से लजा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से गेटी कमानेवाला किसान भी मजदूरी की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता ।",गर्दन झुक गई और हृदय-पीड़ा आँखों में न समा सकी ।,"जिस तरह पृरुष के चित्त अभिमान और स्त्री की आँख से लज्जा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमाने वाला किसान भी मजदूरी की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता ।" सुमन--पर धर्म से तो होती है ?,मान-मर्यादा धन से नहीं होती ।,सुमन -- पर धर्म से तो होती है ? "मन मे कहते हाँग्रे, इततो बड़ो लड़की, अकेलो मारो-मारी फिरती है ।",ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गए ।,"मन में कहते होंगे, इतनी बड़ी लड़की अकेली मारी-मारी फिरती है ।" तुम्हारे साथ तो फिर भी बड़ी नर्मी कर रहा हूँ ।,"वरना तुम्हें मालूम है, मैं सरकारी काम में किसी प्रकार की मुरौवत नहीं करता ।",तुम्हारे साथ तो फिर भी बडी नर्मी कर रहा हूँ । में उत्तकी तरफ ताक न सका ।,"तीन-चार साल हुए , एक बार मैं उसके घर गया था ।",मैं उसकी तरफ ताक न सका । वह इससे भी कठिन अवसरों पर अपने रण-फोशल से विजय-लाभ कर चुका था ।,फिर भी वे निराश न थे ।,वह इससे भी कठिन अवसरों पर अपने रण-कौशल से विजय-लाभ कर चुका था । "दोनों तरफ सैकड़ों भ्रादमी वहाँ खड़े थे, लेकिन सबके सब सन्नाटे में झा गए।",आपका जी चाहे तो उसे दालमंडी में देख आइए ।,"दोनों तरफ के सेकड़ों आदमी वहाँ खड़े थे,लेकिन सब के सब सन्नाटे में आ गए ।" चोर आया किस रास्ते से ?,चोर-कला में उसका यह पहला ही प्रयास था।,चोर आया किस रास्ते से? इन अविरल प्रहारों से वह चौंधिया-सा गया ।,ऐसा जान पड़ता था कि वह अपने होश में नहीं है ।,इन अविरल प्रहारों से वह चौंधिया-सा गया । "यद्यपि पण्डितजी के पाप्त इस्त सम्रय रुपये न ये, घरवाके उनकौ फिजूल-खर्ची को - कई बार शिकायत कर चुके थे, मगर पण्डितजोी का आत्माभिम्राठ यह कब मानवता था कि प्रीतिमेज् का भार लूसी पर रखा जाय |",मिस लूसी को भी बुलाया जाय ।,"यद्यपि पण्डितजी के पास इस समय रुपये न थे, घरवाले उनकी फिजूलखर्ची की कई बार शिकायत कर चुके थे, मगर पण्डितजी का आत्माभिमान यह कब मानता कि प्रीतिभोज का भार लूसी पर रखा जाय ।" "इसके साथ-साथ भाषा, गणित और विज्ञान में उसझी घुद्धि ने अपनी प्रखरता का, परिचय दिया ।",उसे सोने का तमगा इनाम मिला ।,"इसके साथ-साथ भाषा, गणित और विज्ञान में उसकी बुद्धि ने अपनी प्रखरता का परिचय दिया ।" वह अब और किसी के साथ न नाचेगी,अब फिर कभी मत नाचना,वह अब और किसी के साथ न नाचेगी सव लोग यही समझ रहे ये कि क्षुण-भर में यह तीनों उसे ग्रिरा लेंगे ।,बाजबहादुर दुर्बल लड़का था ।,सब लोग यही समझ रहे थे कि क्षण-भर में यह तीनों उसे गिरा लेंगे । "बहुत चोखने-चि्लाने पर उपने भाँखें खोलों, पर जगह से द्विछ ने सका ।",प्रातःकाल लोगों ने किवाड़ खोले तो पासोनियस को भूमि पर पड़े देखा ।,बहुत चीखने-चिल्लाने पर उसने आँखें खोलीं; पर जगह से हिल न सका । "विन, भौर सब दुःख था, पर यह सन्तोय तो था कि नारायण इज्जत से निबाहे जाते ..... हैं; पर कलंक की कालिख मुँह में लग ही गई ।",उन्होंने मुझे कहला भेजा कि यहाँ से चली जाओ ।,"बहिन, और सब दुःख था,पर यह सनन्‍्तोष तो था कि नारायण इज्जत से निबाहे जाते हैं; पर कलंक की कालिख मुँह में लग ही गई ।" एक दिन भाधवी ने कहा-पश्वे के लिए कोई सेशगाढ़ी क्‍यों नहीं मंगवा देतों ।,केवल माधवी थी जो उसके स्वभाव को समझती थी ।,एक दिन माधवी ने कहा- बच्चे के लिए कोई तेज गाड़ी क्यों नहीं मँगवा देतीं । हुकूमत करने के लिए तो आपके गुलाम हम हैं ।,आपकी अनुमति की देर है ।,हुकूमत करने के लिए तो आपके गुलाम हम हैं । "अगर यही दशा रही तो स्वामीजों चाहे सनन्‍्याप ले या न ले, लेकिन में संसार को अवश्य त्याप दू थी ।",उसे तो मैं ही खूब जानता हूँ ।,"अगर यही दशा रही तो स्वामी जी चाहे संन्यास लें या न लें, लेकिन मैं संसार को अवश्य त्याग दूँगी ।" "जब आदमी अपने लिए ससार में कोई स्थाव न निकाल सके, तो यहाँ से प्रस्थान कर जाय |","पहले तो उसे सम्पूर्ण जगत की यात्रा करनी थी , एक-एक कोने की ।","जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्थान न निकाल सके , तो यहाँ से प्रस्थान कर जाय ?" परंतु लोगों में किसी विषय पर बहुत दिनों तक आलोचना करते रहने की आदत नहीं होती ।,"लोग कहते-रुपये न लौटा देता, तो क्या करता ।",परंतु लोगों में किसी विषय पर बहुत दिनों तक आलोचना करते रहने की आदत नहीं होती । "रासू पा आकर बोलय--तुम क्यों बीच में कूद पढ़े, में तो उसकों कहता था ।",दूसरों के बल पर वाहवाही लेना आसान है ।,"रामू पास आकर बोला- तुम क्यों बीच में कूद पड़े, मैं तो उसको कहता था ।" "स्वार्थ सेवा ही पहले उसके जीवन का लक्ष्य था, इसी काँ टे से वह परिस्थितियो को तोलता था ।","साधारण मनुष्य को अगर झूठ का दंड एक मिले, तो भगत को एक लाख से कम नहीं मिल सकता ।","स्वार्थ-सेवा ही पहले उसके जीवन का लक्ष्य था, इसी काँटे से वह परिस्थितियों को तौलता था ।" यह जाति ही पाजी होती है |,"ऐसे रंगीले, कोमल, कमनीय फल मैंने अपने जीवन में कभी न देखे थे ।",यह जाति ही पाजी होती है । स्कूल से आकर चरसा ले बटठते हो,नैना कहीं एकांत में जाकर खूब रोना चाहती थी पर हिल न सकती थी और अमरकान्त ऐसा विरक्त हो रहा था मानो जीवन उसे भार हो रहा है,स्कूल से आकर चरखा ले बैठते हो इस चहारदीदारी के भीतर झ्ब उसी का राज्य है।,सब प्रत्येक बात में उसी की राय लेती है ।,इस चहारदीवारी के भीतर अब उसी का राज्य है । ... दूसरे महाश्षय इनसे अ्रधिक नीतिकुशल थे |,"एक सज्जन ने कहा- महाशय, मैं स्वयं इस कुप्रथा का जानी दुश्मन हूँ, लेकिन क्या करूँ अभी पिछले साल लड़की का विवाह किया, दो हजार रुपये केवल दहेज में देने पड़े दो हजार और खाने पीने में खर्च करने पडे़, आप ही कहिए यह कमी कैसे पूरी हो ?",दूसरे महाशय इनसे अधिक नीतिकुशल थे । उसने तारों के बीच से होकर निकल जाने का निश्चय किया ।,केवल यही तार उसकी राह रोके हुए था ।,उसने तारों के बीच से होकर निकल जाने का निश्चय किया । "यह कदहती हुई सुशीला अदर गई, बच्चों को भोजन कराया, एक रोटी श्राप किसी तरह निगली, बरतन धोये, फिर एक एका मेंगवाकर उसपर अपना मुख्ततर सामान लादा और भारी द्वदय से उस घर से हमेशा के लिए विदा हो गई |",तुम्हारे सेठजी का रात-भर का किराया मारा जायगा ।,"यह कहती हुई सुशीला अन्दर गयी, बच्चों को भोजन कराया, एक रोटी आप किसी तरह निगली, बरतन धोये, फिर एक एक्का मँगवाकर उस पर अपना मुख्तसर सामान लादा और भारी ह्रदय से उस घर से हमेशा के लिए विदा हो गयी ।" "कपड़े उतारकर सावधानी से अलगनी पर रखे, जूता उतारा और पश पर बैठकर एक पुस्तक के पते उलय्ने लगा ।",ज्ञानचंद्र की ओर से यों तिरस्कृत होने का भी उसे दु:ख न था ।,"कपड़े उतार कर सावधनी से अलगनी पर रखे, जूता उतारा और फर्श पर बैठ कर एक पुस्तक के पन्ने उलटने लगा ।" "रमा की आँखें खुल गयीं, जी लोट-पोट हो गया ।",दिखाऊँ कोई जडाऊ चीज़ ?,"रमा की आँखें खुल गई, जी लोट-पोट हो गया ।" श्रव॒ तो वह मुभसे और भी नगीच हो गये हैं ।,"और इधर-उधर की बातें करने के बाद बोला, 'भाभी, अब तो मेरी अभिलाषा पूरी करोगी या अभी और कुछ बाकी है ?",अब तो वह मुझसे और भी नगीच हो गये हैं । "बच्चों पर रहम आए, तो दो नेवाले इन्हें भी दे दें ।","खैर, उन्हें उनके मीठे टुकड़े मुबारक रहें, हमारा भी अल्लाह मालिक है ।","बच्चों पर रहम आए, तो दो नेवाले इन्हें भी दे दें ।" सुझे उस वक्त ऐसा क्रोध आता था कि उसे खूब टॉट,बात-बात पर उस नन्हें-से बालक को झिड़क देतीं कभी-कभी मार बैठती थीं,मुझे उस वक्त ऐसा क्रोध आता था कि उसे खूब डांटूँ उनके लिए बाजार में अ्रलग भाव था ।,उन दोनों महाशयों को आता देखकर बनिये उठकर सलाम करते ।,उनके लिए बाजार में अलग भाव था । बेचारे शर्म के मारे घर न आते होंगे ।,संसार के और किसी देश में इन धातुओं की इतनी खपत नहीं ।,बेचारे शर्म के मारे घर न आते होंगे । "वह उनके साथ उस समय तक रहता चाहतो थो, जब तक जाबता उस्ते छधक न कर दे ; लेकिन सेठजी उसे छोड़कर जत्दी से घाहर निकल गये और वह वहों खढ़ी रोतो रह गई ।","और वह वेदनामय विवशता, जो हमें मृत्यु के समय दबा लेती है, उन्हें भी दबाये हुए थी ।","वह उनके साथ उस समय तक रहना चाहती थी, जब तक जनता उसे पृथक् न कर दे; लेकिन सेठजी उसे छोड़कर जल्दी से बाहर निकल गये और वह खड़ी रोती रह गयी ।" "रुदन के पश्चात्‌ एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन, एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है ।","उस मीठी वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो,जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है ।","रूदन के पश्चात एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन, एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है ।" मोहित हो गया ।,"सदन खुद गया, घोडे को देखा, उस पर सवार हुआ, चाल देखी ।",मोहित हो गया । रेणुका ने तिरस्कार-भरी चितवनों से देखा और बोली--और अगर आज लाला समरकान्त का दीवाला पिट जाय सुखदा ने इस सम्भावना की कभी कत्पना द्वी न को थी,वह अपने मन की करेंगे मेरे आराम-तकलीफ की बिलकुल परवाह न करेंगे तो मैं भी उनका मुंह न जोहूंगी,रेणुका ने तिरस्कार भरी चितवनों से देखा और बोली-और अगर आज लाला समरकान्त का दीवाला पिट जाए- सुखदा ने इस संभावना की कभी कल्पना ही न की थी में छडेजा थामकर बेठ गया ।,"पुलिस आयी, शव की परीक्षा हुई ।",मैं कलेजा थामकर बैठ गया । "इस समय यदि गजाबर मनाने भी आता, तो सुमन राजी न होती ।","विनती की, खुशामद की, रोई; किन्तु उसने सुमन का अपमान ही नहीं किया, उस पर मिथ्या दोषारोपण भी किया ।","इस समय यदि गजाधर मनाने भी आता, तो सुमन राजी न होती ।" में उन्हें दिखा दूँगी कि जिन गरीबों के तुम अच » तक छुचलते आये द्वो वही अव साँव बनकर तुम्दारे परें से लिपट जायेंगे,अब उनके ऊपर एक संस्था का भार था और अन्य साधाकों की भाँति वह भी साधाना को ही सि समझने लगे थे,मैं उन्हें दिखा दूँगी कि जिन गरीबों को तुम अब तक कुचलते आए हो वही अब साँप बनकर तुम्हारे पैरों से लिपट जायेगे "उनमें चारी घटना ऐसी सफाई से वयान की गई थी, श्राक्षेपों के ऐसे सवल प्रमाण दिये गए थे, व्यवस्था की ऐसी उत्तम विवेचना की गई थी कि हाकिमों के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया ।",उधर हाकिमों के पास गुप्त चिट्ठियाँ पहुँच रही थी ।,"उनमें सारी घटना ऐसी सफाई से बयान की गयी थी, आक्षेपों के ऐसे सबल प्रमाण दिये गए थे, व्यवस्या की ऐसी उत्तम विवेचना की गई थी कि हाकिमों के मन में सन्देह उत्पन्न हो गया ।" अंधकार था पर उपा-कराल का,अभी तो मैं जीती ही हूँ,अंधकार था पर ऊषाकाल का थोढ़ी-थोढ़ी दूर पर दो-एक मजूर या राह गोर मिल जाते थे,तुमने देखा नहीं सलीम गरीब के बदन पर चिथड़े तक न थे,थोड़ी-थोड़ी दूर पर दो-एक मजूर या राहगीर मिल जाते थे "यह देखो, तुम्हारी बेठक है, तुम यहीं बेठकर पढोगे ।","उस दिन से चचा और चची में अक्सर यही चर्चा होती ... कभी सलाह के ढंग से , कभी मजाक के ढंग से ।","वह देखो , तुम्हारी बैठक है , तुम यहीं बैठकर पढ़ोगे ।" कोई चिन्ता नहीं ।,"जैसे कुत्ता मार खा कर थोड़ी देर के बाद टुकड़े की लालच में जा बैठता है, वही दशा उनकी थी ।",कोई चिंता नहीं । जमीन गई तो ऐसी कोई तदबीर सोचो कि उस पर फिर तुम्हारा कब्जा हो ।,"नायकराम तो इतने बिगड़े कि सूरदास के द्वार का रास्ता ही छोड़ दिया, चक्कर खाकर आते-जाते ।",जमीन गई तो ऐसी कोई तदबीर सोचो कि उस पर फिर तुम्हारा कब्जा हो । उसको आश्रय हो रहा है कि दादा कैसे इतनी मेहनत कर रहे हैं ।,सुजान से कुछ बोलने की उसकी हिम्मत न पड़ी ।,सबको आश्चर्य हो रहा है कि दादा कैसे इतनी मिहनत कर रहे हैं । डाक्टर साहब ज़मोन पर गिर पढ़े,छात्र-मंडली को कौतूहल हुआ,डॉक्टर साहब जमीन पर गिर पड़े सामने के कई दूकानदार जमा दो गये,वह भाग सकती थी कोई उसका पीछा करने का साहस न करता पर भागी नहीं,सामने के कई दूकानदार जमा हो गए महफिल में कन्या की ओर के भी कितने ही आदमी थे |,छोलदारी के द्वार पर आदमियों की भीड़ बढ़ती ही जाती थी ।,महफिल में कन्या की ओर के भी कितने ही आदमी थे । भगर छुखदा ज्री न होती भौर वह भी प्रिय शिप्य और मित्र को तो कदायित्‌ वह शहर छोड़कर भाग जाते,वह दु:ख उन्हें और भी घुलाए डालता था,अगर सुखदा स्त्री न होती और वह भी प्रिय शिष्य और मित्र की तो कदाचित वह शहर छोड़कर भाग जाते रानीजी भी दिन में एक बार जरूर आ बैठतीं ।,यह कहकर जाह्नवी चली गई ।,रानीजी भी दिन में एक बार जरूर आ बैठतीं । प्यारी के कण्ठ में आसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह काँप उठी ।,"महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं ।",प्यारी के कंठ में आँसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह काँप उठी । कौन जाने अब मेरी याद भी उन्हें है या नहीं ।,उसके दिल में लहरें-सी उठने लगीं ।,कौन जाने अब मेरी याद भी उन्हें है या नहीं । इसे धर्म-ग्रंथों से इतनी रुचि है कि विवाह को जंजाल समझती है ।,रानी-आप मुझसे मिलने आईं ही कब ?,इसे धर्म-ग्रंथों से इतनी रुचि है कि विवाह को जंजाल समझती है । "संसार को तो उन लोगों की प्रशसा करने में आनन्द आता है, जी अपने घर को भाड़ में मोड रहे हों, गेरों के पोछे अपना स्े-' नाश किये डालते हाँ ।",वह बैठकर घास छीलने लगी और एक घण्टे में उसका झाबा आधे से ज्यादा भर गया ।,"संसार को उन लोगों की प्रशंसा करने में आनन्द आता है, जो अपने घर को भाड़ में झोंक रहे हों, गैरों के पीछे अपना सर्वनाश किये डालते हों ।" "मदर्नासह---जुमने जो गाड़ियाँ भेजी हैं, वह कल शाम तक अमोला पहुँच जाएँगी ?",दरवाजे पर शहनाई बज रही थी ओर भीतर गाना हो रहा था ।,"मदनसिंह -- तुमने जो गाड़ियाँ भेजी है,वे कल शाम तक अमोला पहुँच जाएँगी ।" प्रभु सेवक-तुम प्रहसन लिखने में निपुण हो ।,तुमने प्रहसन लिखने का कब से अभ्यास किया ?,प्रभु सेवक-तुम प्रहसन लिखने में निपुण हो । ठसकी विलासिता से अब उसे उतना भय न रहा,वह कॉलेज से लौटकर सीधे रेणुका के पास जाता,उसकी विलासिता से अब उसे उतना भय न रहा "गऊ का वध होते तो चाहे देख सके, पर सुमन को इस दशा में नहीं देख सकता ।","कदाचित मैं गाड़ी से उतरते ही भागता, पागलों की भांति बाजार में दोड़ता ।","गऊ का वध होते तो चाहे देख सकूँ, पर सुमन को इस दशा में नहीं देख सकता ।" "इन्दिरा के साथ वह भी घर में चले गये, पर एक ही मिनट के बाद बाहर आकर जामिद से बोले --भाई साहब, शायद आप वनाव८ समझे, पर मुझे आपके रूप भे इस समय अपने इृष्ट देव के दशन हो रहे हैं ।",पंडित जी पूरी कथा सुनने के लिए और भी व्याकुल हो उठे ।,"इन्दिरा के साथ वह भी घर में चले गए, पर एक ही मिनट बाद बाहर आकर जामिद से बोले-- भाईसाहब, शायद आप बनावट समझें, पर मुझे आपके रूप में इस समय इष्टदेव के दर्शन हो रहे हैं ।" आज से अपना मुँह सी रूँगा,तब अमरकान्त ने परास्त होकर कहा-अच्छी बात है,आज से अपना मुँह सी लूँगा "बेजनाथ--जी नहीं, उनकी भांजी है ।",मदनसिंह -- तो क्या लड़की उमानाथ की नहीं है ?,"बेजनाथ -- जी नहीं, उनकी भानजी है ।" हा अनथे ! इससे कही अच्छा होता कि शारदा मांन ही रहती ।,अभी तो बाबू जी ऊपर हैं; कौन इतनी जल्दी आये जाते हैं ।,हा अनर्थ ! इससे कहीं अच्छा होता कि शारदा मौन ही रहती । "रामे०--जाइए, मेरा जी कुछ न चाहेगा और न कुछ करूँगी |","नहीं, ऐसा क्यों करूँ ।","' रामे०-' ज़ाइए, मेरा जी कुछ न चाहेगा और न कुछ करूँगी ।" "मैं जब अकेला जाता हूँ, कभी खाली नहीं लौगता ।",घनी अंधियारी छायी हुई थी ।,"मैं जब अकेला जाता हूँ, कभी खाली नहीं लौटता ।" हिन्दू छोग तो मुम्के पक्षपात का पुतठा समस्‍्धते हैं ।,जो शहादतें मिल सकीं; उन्हें मैंने गायब कर दिया ।,हिंदू लोग तो मुझे पक्षपात का पुतला समझते हैं । लड़के का मन तो रह जाएगा ।,"कौन बड़ा खर्च है, तुम्हें ईश्वर कुशल से रखें, ऐसे चार-पाँच सो रुपए कहाँ आएंगे ओर कहाँ जाएंगे ।",लड़के का मन तो रह जाएगा । "कोई बहुत जरूरी काम है, तभी तो मोटर से उतरते ही आपको सलाम दिया ।",किसी ने रिश्वत की शिकायत तो नहीं कर दी ?,"कोई बहुत जरूरी काम है, तभी तो मोटर से उतरते ही आपको सलाम दिया ।" एक दुढिया ने पडितजी से कहा--अब सुर्दा फेकवाते क्‍यों नहीं ।,' अब पंडितजी को कुछ शंका हुई ।,"एक बुढ़िया ने पण्डितजी से कहा, अब मुर्दा फेंकवाते क्यों नहीं ?" "उतक्ो बात का णव्रार तो यही था कि ठसी क्षण घर से चल खड़ी होती, फिर देखतौ, मेरा क्या कर छेते ] इन्हें मेरे उदास और व्मिद रहने पर आश्चय द्वोता है ।",ऐसा क्रोध आया कि बस अब क्या कहूँ ।,"उनकी बात का जवाब तो यही था कि उसी क्षण घर से चल खड़ी होती, फिर देखती मेरा क्या कर लेते! इन्हें मेरा उदास और विमन रहने पर आश्चर्य होता है ।" "चिन्तामणि--छौछ नहों, अपना सिर है ] अब वह चसीणा दो नहीों रहा ।","मोटेराम- कहो मित्र, क्या समाचार लाये ?","चिंतामणि- डौल नहीं, अपना सिर है ! अब वह नसीब ही नहीं रहा ।" "पर उसके रीति- व्यवहार गें वह गुण था, जो ऊँचे कुलों में स्वाभाविक होता है |",सुमन उन्हें नीच दृष्टि से देखती; उनसे खुलकर न मिलती ।,"पर उसके रीति-व्यवहार में वह गुण था, जो ऊँचे कुलों में स्वाभाविक होता है ।" दिन-भर तो लू-लपट में मरना / है ही,आस-पास के गाँवों की गउएँ यहाँ चरने आया करती थीं,दिन-भर तो लू-लपट में मरना है ही "उसके बाद आध घटे तक चदन रगड़ते, फिर आइने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते ।",' इन बातों की ताकीद करके दुखी ने लकड़ी उठाई और घास का एक बड़ा-सा गट्ठा लेकर पंडितजी से अर्ज करने चला ।,"उसके बाद आधा घण्टे तक चन्दन रगड़ते, फिर आईने के सामने एक तिनके से माथे पर तिलक लगाते ।" साध-असाध किसी का विचार है इन सब्यो को |,उसे यह भी मंजूर न था कि उनकी पापमयी दृष्टि भी उस पर पड़े ।,साध-असाध किसी का विचार है इन सबों को । अपराधिनी ने अपराध स्वीकार हो कर लिया था,मुकदमे को सबूत की जरूरत न थी,अपराधिानी ने अपराध स्वीकार ही कर लिया था इस अघेरे महल को अपने कोमल चरणों से प्रकाशभान कीजिए ।,जब मधुर अलाप बन्द हुआ तब तारा होश में आयी ।,इस अँधेरे महल को अपने कोमल चरणों से प्रकाशमान कीजिए । दिन-दिव जनता कौ शक्ति घटतो जातो थो और रईपे दा ज़ोर बढ़ता जाता था ।,अब मुझे विश्वास हो गया कि तुम्हारा प्रेम पवित्र है ।,दिन-दिन जनता की शक्ति घटती जाती थी और रईसों का जोर बढ़ता जाता था । दफ्तर में गया था तो माठम हुआ (कि वृह ऋछ अपने साहब के साथ यहाँ से कोई आठ दिन की राह पर चले गये ।,गौरा द्वार पर खड़ी पति की बाट देख रहीं थी ।,दफ्तर में गया था तो मालूम हुआ कि वह अपने साहब के साथ यहां से कोई आठ दिन की राह पर चले गये । कोई उसके घर जाके देखे तो,पर वह बहुत प्रसन्न हुए ओर स्वयं उन्होंने भी एक टीका लगाने के स्थान पर दोनों हाथों से उसके मुख पर अबीर मली,कोई उसके घर जाके देखा तो "एक क्षण बाद, रतन आँखों में आँसू और हँसी एक साथ भरे विदा हो गयी ।",आज उसे रतन का असली रूप दिखाई दिया ।,"एक क्षण बाद, रतन आंखों में आंसू और हंसी एक साथ भरे विदा हो गई ।" "उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनन्द मिलता था, उतना आप खा जाने में कभी न मिलता |","न घर ही जाने की छुट्टी मिलती थी, न भोजन का ही प्रबंध होता था ।","उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनंद मिलता था, उतना आप खा जाने में कभी न मिलता ।" लड़को उसे किसी तरद छोड़तो दी न भी ।,कैलासी एक घण्टे तक वहाँ रही ।,लड़की उसे किसी तरह छोड़ती ही न थी । "बोके -- क्यों थे सुअर, तू यद्द वया कर रहा है ?",यह सोचकर उसने पैर फर्श से पोंछे और चटपट पलंग पर आकर लेट गया और दुशाला ओढ़ लिया ।,"बोले- क्यों बे सुअर, तू यह क्या कर रहा है ?" "हक़ यह हैँ कि वहाँ आप लोग दिल-बहलाव के लिए जाते हैं, महज़ ग़म ग़लत करने के लिए, महज़ आनन्द उठाने के लिए ।",ऐसी कांति उसके चेहरे पर कभी न दिखाई दी थी ।,"हक यह है कि वहाँ आप लोग दिल-बहलाव के लिए जाते हैं, महज़ ग़म ग़लत करने के लिए, महज़ आनंद उठाने के लिए ।" "देश पं ऐसे छोग विद्यमान है, मिन्दोने आपका नमक खाया है और उसे भूले पहों हैं ।",मैंने उत्सुक नेत्रों से इस गुफा की ओर देखा तो वहाँ एक विशाल राजप्रासाद आसमान से कंधा मिलाये खड़ा था ।,देश में ऐसे लोग विद्यमान हैं जिन्होंने आपका नमक खाया है और उसे भूले नहीं हैं । लोगों की मीड न थी ।,अन्त में वे ओझे के घर के पास जा पहुँचे ।,लोगों की भीड़ न थी । एक आदमी ठीकू कर लिया जाय जो ऐन उस वक्त जब दज़रत फ्रेसला सुनाकर बठने लगें एक जूता ऐसे निशाने से चलथे कि सुद्द पर छा,बिलकुल फजूल-सी बात है,एक आदमी ठीक कर लिया जाए तो ऐन उस वक्त जब हजरत फैसला सुनाकर बैठने लगें एक जूता ऐसे निशाने से चलाए कि उनके मुँह पर लगे "ठुमकझो जब कुछ काम पढे, तो मुझे लिखता, में भरसक तुम्हारी मदद करूँगा ।","तीन दिन, तीन रात छटपटाती रही ।","तुमको जब कुछ काम पड़े तो मुझे लिखना, मैं भरसक तुम्हारी मदद करूँगा ।" "में चाहता हूँ कि ठुम लोग इसाफ़ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर अलग दो जाऊं ।","रात को तुलसी लेटे तो वह पुरानी बात याद आयी, जब रामू के जन्मोत्सव में उन्होंने रुपये कर्ज लेकर जलसा किया था, और सुभागी पैदा हुई, तो घर में रुपये रहते हुए भी उन्होंने एक कौड़ी न खर्च की ।","मैं चाहता हूँ कि तुम लोग इंसाफ से जो कुछ मुझे दे दो, वह लेकर अलग हो जाऊँ ।" मुझे तो तुम्हारी बातें सुनकर डर लग रहा है ।,"सूरदास ने ये बातें बड़े गंभीर भाव से कहीं, जैसे कोई ऋषि भविष्यवाणी कर रहा हो ।",मुझे तो तुम्हारी बातें सुनकर डर लग रहा है । साहब ने कह्दा--अभी छुट्टी नहीं मिल सकती ।,कोई महाजन तो नहीं है ?,"‘ साहब ने कहा , ‘ अभी छुट्टी नहीं मिल सकती ।" विनय इसी छिछोरी स्त्री पर जान देता है ।,मैं उससे नीची बनकर नहीं रह सकती ।,विनय इसी छिछोरी स्त्री पर जान देता है । "क्या हरज है, अगर गोमती के रुपये दे दूँ ।",सिलिया उसे देखते ही हाय-हाय करके रोने लगी ।,"क्या हरज है, अगर गोमती के रुपये दे दूँ ।" मेरो समस्त में तो ऐसी दशा में लड़के के पिता से यह शिक्वायत न द्वोनों चाहिए ।,"न सारा दोष लड़कीवाले का है, न सारा दोष लड़केवाले का ।",मेरी समझ में तो ऐसी दशा में लड़के के पिता से यह शिकायत न होनी चाहिए । "तवायफें ६० फीसदी मुसलमान हैं, जो रोजे रखती हैं, इजादारी करती हैं, मौलृद और उर्स करती हैं.।",यह हमारी तादाद को घटाने की सरीह कोशिश है ।,"तवायफें ९० फीसदी मुसलमान है; जो रोजे रखती है, इजादारी करती है, मोलूद ओर उर्स करती है ।" बहुत सम्भव था कि कोई शहादत न पाकर पुलिस इन मुलज़िमों को छोड़ देती और उन पर कोई मुक़दमा न चलाती ; पर इस युवक के चकमे में आकर उसने अभियोग चलाने का निश्चय कर लिया ।,पुलिस ने उसका खूब आदरसत्कार किया और उसे अपना मुख़बिर बना लिया ।,"बहुत संभव था कि कोई शहादत न पाकर पुलिस इन मुलजिमों को छोड़ देती और उन पर कोई मुकदमा न चलाती, पर इस युवक के चकमे में आकर उसने अभियोग चलाने का निश्चय कर लिया ।" उन्हें क्या मालूम था कि भगत पर इस समय कौन-सा नशा था ।,देवी-देवता मनाने लगी ।,उन्हें क्या मालूम था कि भगत पर इस समय कौन-सा नशा था । "जय वह तठकर जाने छगे, तो उसके पोछे चलें ।","तुम केवल खड़े रहना, पाश तो मैं डालूँगा ।",जब वह उठकर जाने लगे; तो उसके पीछे चलें । "पद्मसिह वोले--हाँ, ऐसी ही वात मालुम होती है ।",विध्न डालने के लिए लोग बहुधा झूठ-मूठ कलंक लगा दिया करते है ।,"पद्मसिंह बोले -- हाँ, ऐसी ही बात मालूम होती है ।" उससे सौदा पटेगा भी या नहीं ।,जॉन सेवक-तब तो मेरा काम बन गया ।,उससे सौदा पटेगा भी या नहीं । गजावर भ्वब उसे दायद अपने घर में न रखेगा ।,यहाँ तो उसका कोई ठिकाना नहीं मालूम होता ।,गजाधर अब उसे शायद अपने घर में न रखेगा । जो बात मैंने कही है उसका खयाल रखना,हमसे अब उसका कोई स्वार्थ नहीं निकलता,जो बात मैंने कही है उसका खयाल रखना इसी एक वबजेवाली गाड़ी से ?,पद्म -- कब चले थे ?,इसी एक बजेवाली गाड़ी से ? अनुमात से जाते पह्तां या हि समय में इसकी यह दशा कर रखो है ।,आँखें डबडबा गयीं ।,अनुमान से जान पड़ता था कि समय ने इसकी वह दशा कर रखी है । वह जानते थे कि मैं उनसे भी नीचे गिर गया हूँ।,"अब वह नीच मनुष्यों के पास भी नहीं जाते थे, जिनके साथ बैठ कर वह चरस की दम लगाया करते थे ।",वह जानते थे कि में उन से भी नीचे गिर गया हूँ । तुम उसी वक्त रिवाल्वर लिये आ जाओगे और वहीं पृथ्वी उसके बोझ से हलकी हो जायगी ।,प्रकाश ने गुच्छा उठा लिया ।,तुम उसी वक्त रिवाल्वर लिये आ जाओगे और वहीं पृथ्वी उसके बोझ से हलकी हो जायगी । इस प्रकार दो महीने और बीत गये ।,ऐसे-ऐसे स्वार्थी भी इस देश में पड़े हैं जो नौकरी या थोड़े-से धन के लोभ में निरपराधों के गले पर छुरी उधरने से भी नहीं हिचकते! ' जालपा ने कोई जवाब न दिया ।,इस प्रकार दो महीने और बीत गए । सरोजनी नायडू के सिवा ऐसी कविता मेंने भौर कहां नहों देखी ।,"जन्म किसने दिया, यह मैं स्वयं नहीं जानता ।",सरोजिनी नायडू के सिवा ऐसी कविता मैंने और कहीं नहीं देखी । "बढ़ा शक्को है, मेरा मुँह सँँघा करता दे थि इसमे पींनलोदडों ।",ख़ान.- आपके लिए जान हाजिर है; पर एक बोतल 10 रु. में आती है ।,"बड़ा शक्की है, मेरा मुँह सूँघा करता है कि इसने पी न ली हो ।" "एक सप्ताह तक तो उन्होंने अपना वचन पालन किया, लेकिन शनैः-शनेः पत्रों में विलमम्प होने लगा ।",क्षुधा-पीड़ा ने भक्ष्याभक्ष्य की पहचान मिटा दी थी ।,"एक सप्ताह तक तो उन्होंने अपना वचन पालन किया, लेकिन शनैः-शनैः पत्रों में विलम्ब होने लगा ।" दूसरे गाँवों के ऊँची जातियों केलोग भी भक्सर आजते थे,सारे गाँव में एक नया जीवन प्रवाहित होता हुआ जान पड़ता,दूसरे गाँवों की ऊँची जातियों के लोग भी अक्सर आ जाते थे कली खिलकर फूल द्वो रद्दी थी ।,शूद्रों की बिरादरी बहुत छोटी होती है ।,कली खिल कर फूल हो रही थी । "माताजी, जबसे यह आने छगे हैं, कह नहीं सकती, मेरा जीवन कितना खुखी हो गया है ।",उमस ऐसी थी कि दम घुटा जाता था ।,"माताजी, जब से यह आने लगे हैं, कह नहीं सकती, मेरा जीवन कितना सुखी हो गया ।" उम्रानाथ---एक हजार तो दहेज ही माँगते हैं और सव खर्च झलग रहा ।,गज़ानन्द -- सुयोग्य वर मिलने के लिए आपको कितने रुपयों की आवश्यकता है ?,उमानाथ -- एक हजार तो दहेज ही माँगते है और सब खर्च अलग रहा । "पहले तो दोनों सारे दिन, सुभागी के मना करने पर भी, कुछ-न-कुछ करते द्वी रहते थे ; पर अब उन्हें पूरा विश्राम था ।","बाबा के जमाने में पाँच बीघा से कम नहीं रोपा जाता था, बिरजू भैया ने उसमें एक-दो बीघे और बढ़ा दिये ।","पहले तो दोनों सारे दिन, सुभागी के मना करने पर भी कुछ-न-कुछ करते ही रहते थे; पर अब उन्हें पूरा विश्राम था ।" "रास्ते में वह सोचता जाता था, आज बिल्कुल संकोच न करूँगा ।","भूखा आदमी इच्छापूर्ण भोजन चाहता है, दो-चार फुलकों से उसकी तुष्टि नहीं होती ।","रास्ते में वह सोचता जाता था, आज बिलकुल संकोच न करूँगा ।" ऐपी परिस्थिति में वया बह इस साँति निश्वल और संयमित बेठा रहता १ शायद पहले ही भाषात में उसने या तो प्रतिकार किया दोता या नमाज़ छोड़कर अलग हो जाता,मगर चाहे किसी के कानों में आवाज न जाती हो उसके होंठ अब भी खुल रहे थे और अब भी अल्लाहो अकबर की अव्यक्त ध्वनि निकल रही थी,ऐसी परिस्थिति में क्या वह इस भांति निश्चल और संयमित बैठा रहता- शायद पहले ही आघात में उसने या तो प्रतिकार किया होता या नमाज छोड़कर अलग हो जाता "मेरी शरफलत से चोरी हुईं, उसका मुझे प्रायश्रित्त करना ही पड़ेगा ।","मोटर चलाते हो , तो छींटे उड़ाते चलते हो , मारे घमण्ड के अन्धे हो जाते हो ।","मेरी गफ़लत से चोरी हुई, उसका मुझे प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा ।" "आप बड़े मौके से आ गये, नहीं तो ये सब जबरदस्ती गऊ को छोन के जाते ।",समाचार-पत्रों में लेख लिखकर जो कुछ मिलता उसे दे देते और इस भाँति गृह-प्रबंध की चिंताओं से छुट्टी पाकर जीवन व्यतीत करते थे ।,"आप बड़े मौके से आ गये, नहीं तो ये सब जबरदस्ती से गऊ को छीन ले जाते ।" कोई दो-ढाई हजार हाथ में आ गये ।,सहसा किसी ने द्वार खोला ।,कोई दो-ढाई हजार हाथ में आ गये । आजकल धर्म तो धृत्तों का श्रड्डा बना हुआ है ।,गजाधर -- तो तुमने उन लोगों के बड़े-बड़े तिलक-छापे देखकर ही उन्हें धर्मात्मा समझ लिया ?,आजकल धर्म तो धूर्त्तो का अड्डा बना हुआ है । "रत को भूख लगी हुई थी, पर इस समय भोजन की विलकुल इच्छा न थी ।",उनके जीते-जी इसकी यह भग्न दशा नहीं रह सकती ।,रात को भूख लगी हुई थी; पर इस समय भोजन की बिलकुल इच्छा न थी । दोनों में समान सारस्य है।,मौके पर धन की परवाह न करते थे।,दोनों में समान सारस्य है। सभी तरह के लालच देकर हार गये ।,इनमें से किसी को एप्रूवर बनना होगा ।,सभी तरह के लालच देकर हार गए । उधर नौकरों में भो कानाफूधों होने लगी ।,"इसलिए वह उनके शतरंज-प्रेम की कभी आलोचना न करती थीं; बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं ।",उधर नौकरों में भी कानाफूसी होने लगी । उसका चुय हो जाना ही ग़ज़ब था ।,"वह दृष्टि बाण के समान उसके ह्रदय को छेदने लगी; उसने सोचा, शायद मुझे भम्र हुआ ।",उसका चुप हो जाना ही गजब था । दीना--जवांन औरत उसकी कया बरावरी करेगी ।,"उस छाया में वह सदैव प्रमोद का रूप देखा करते थे आभूषण, मुस्कान और लज्जा से रंजित ।",दीना – जवान औरत उसकी क्या बराबरी करेगी ? "जोंडी से कहा--जारूर रूद, अभी चलिए, वहाँ तो वह आप ही इकौम के यहाँ चंली जायेगी ।",बेगम साहबा का मिजाज गरम था ।,"लौंडी से कहा- जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जायेंगी ।" समय आ जाने पर सर कुछ भाप ही द्ो जाता है,नैना ने आपत्ति की-डरना मनुष्य के लिए स्वाभाविक है,समय आ जाने पर सब-कुछ आप ही हो जाता है जब हम दोनों अपने देश में थी तो जब में कहो जाती तो वियाधरों के लिए कोई न कोई उपदार अवश्य छाती ।,खूब आयीं बहुत दिनों से जी तुम्हें देखने को तरस रहा था ।,जब हम दोनों अपने देश में थीं तो तब मैं कहीं जाती तो विद्याधरी के लिए कोई न कोई उपहार अवश्य लाती । सुलोचना ने इस सवाल को जड़ा देना चाहा |,"बोली, यह इनकी पुरानी आदत है ।",' सुलोचना ने इस सवाल को उड़ा देना चाहा । "उसके सिर पर उत्तर- दायित्व का इतना बड़ा भार कहाँ था, जो उसके पति पर आ पड़ा था ?",निर्मला सौर में थी।,"उसके सिर पर उत्तरदायित्व का इतना बड़ा भार कहाँ था,जो उसके पति पर आ पड़ा था?" चिता के चारो ओर जी और पुरुष जमा ये ।,और किले में चिता बन रही थी ।,चिता के चारों ओर स्त्री और पुरुष जमा थे । "यहाँ आकर उसे अनुभव होता था कि मैं भी संसार में हूँ, उस संसार में जहाँ जीवन है, लालसा हैं, प्रेम है, विनोद है ।",वहाँ घड़ी-भर हंस-बोल लेने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था ।,"यहाँ आकर उसे अनुभव होता था कि मैं भी संसार में हूँ, उस संसार में जहाँ जीवन है, लालसा है, प्रेम है, विनोद है ।" उसी अत्याचार का अरव प्रायरिचित्त कर रहा हैं।,"महाशय, मैंने उनके साथ जो अत्याचार किए उन्हें स्मरण करके आज मुझे अपनी क्ररता पर इतना दुःख होता है कि जी चाहता है कि विष खा लूँ ।",उसी अत्याचार का अब प्रायश्वित कर रहा हूँ । "यदि मैंने उसे घर से निकाल न दिया होता, तो इस भाँति उसका पतन न होता ।",उनकी विवेचना शक्ति पिछली बातों की आलोचना कर रही थी ।,यदि मैंने उसे घर से निकाल न दिया होता तो इस भांति उस का पतन न होता । "बेचारी माया तक-शाल्न न पढ़ी थी, इन युक्तियों के, पामने निरुत्तर हो जातो थी ।",तीन दिन के बाद चक्रधर को फिर एक पत्र मिला ।,"बेचारी माया तर्कशास्त्रं न पढ़ी थी, इन युक्तियों के सामने निरुत्तार हो जाती ।" दया मनुष्य का स्वाभाविक शुण है ।,मुझे अपनी स्वार्थवृत्ति पर लज्जा आयी ।,दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है । जॉन सेवक-नियमावली का निकलना कहिए कि एक सिरे से अधिकारी वर्ग की निगाहें मुझसे फिर गईं ।,आपने मेरे सिगरेट के कारखाने की नियमावली तो देखी होगी ?,जॉन सेवक-नियमावली का निकलना कहिए कि एक सिरे से अधिकारी वर्ग की निगाहें मुझसे फिर गईं । "भीख माँगनों सी किसो-किसो दशा में क्षम्य है, लेकिन मेने उप भवस्था में ऐसे-ऐसे के छिये, जिन्हें कहते छज्जा भाती है--- चोरों को, विश्वासघात किया, यहाँ तक कि चोरों के अपराध में केद की सज़ा भी पाई ।",2 लीला ने जिस दिन घर में पाँव रखा उसी दिन उसकी परीक्षा शुरू हुई ।,"भीख माँगनी भी किसी-किसी दशा में क्षम्य है, लेकिन मैंने उस अवस्था में ऐसे-ऐसे कर्म किये, जिन्हें कहते लज्जा आती है- चोरी की, विश्वासघात किया, यहाँ तक कि चोरी के अपराध में कैद की सजा भी पायी ।" पचि-8ः स्वय- सेविकाएं और इतने ही स्वयसेव द्वार पर स्थापा करने लगे ।,उसी दिन तीसरे पहर छकौड़ी के घर की पिकेटिंग शुरू हो गयी ।,पाँच-छ: स्वयंसेविकाएँ और इतने ही स्वयंसेवक द्वार पर स्यापा करने लगे । युवतियाँ अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहती,अगर वह अपने बारे में स्वतंत्र हैं तो स्त्रियाँ भी अपने विषय में स्वतंत्र हैं,युवतियाँ अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं "मन में भक्ति न हो, तो लाप कोई भगवान्‌ के चरनों पर गिरे, कुछ न होगा ।",वह मुझसे ले लो; पर मुझे एक छन भर ठाकुर जी के चरनों पर गिर लेने दो ।,"मन में भक्ति न हो, तो लाख कोई भगवान् के चरणों पर गिरे, कुछ न होगा ।" "यह वाक्य आज पहली बार उसने न सुना था ; पर आज इसमें जो ज्ञान, जो आदेश, जो सदूभेरणा उसे मिलो, वह कभी न मिली थो ।",तैमूर को जैसे कोई रत्न मिल गया ।,"यह वाक्य पहली बार उसने न सुना था पर आज इससे जो ज्ञान, जो आदेश जो सत्प्रेरणा उसे मिली, वह कभी न मिली थी ।" सभी उप्तके लिए मुँह कलाये हुए थे ।,"पहले ही दिन मालूम हो गया, मिस खुरशेद के आने से आश्रम में एक नये जीवन का संचार होगा ।",सभी उसके लिए मुँह फैलाये हुए थे । नहीं तो मुझ जैसे कपूद में तो इतनी भी योग्यता नहीं हैं जो अपने को उन छोगों की संतति कह सकूँ ।,मेरे पूर्वजों पर आपके पूर्वजों ने बड़े अनुग्रह किये हैं ।,नहीं तो मुझ जैसे कपूत में तो इतनी भी योग्यता नहीं है जो अपने को उन लोगों की संतति कह सकूँ । "जंबउ सुम्तत सिर भुकाए हुए उनके सामने आकर खड़ी हो गई, तो! वह “मेपे हुएदीनतापूर्ण नेन्रों से इघारुऊ उधर देखने लगे, मानो छिपनें कें लिए कोई बिल ढूंढ़ रहे-हों॥","एक बार उसकी ओर दबी आँखों से देखा,फिर जैसे हाथपाँव फूल गए हों ।","जब सुमन सिर झुकाए हुए उनके सामने आ कर खड़ी हो गई, तो वह झेंपे हुए दीनतापूर्ण नेत्रों से इधर-उधर देखने लगे, मानो छिपने के लिए कोई बिल ढूँढ़ रहे हों ।" मैं भी उनके पीछे थाने में पहुँचा ।,"' देवीदीन उसकी मनोव्यथा का अनुभव करता हुआ बोला, 'कोई बात नहीं ।",मैं भी इनके पीछे थाने में पहुंचा । "उसके रूप-लावण्य, वस्त्र-आभूषण और शील-विनय ने मुहल्ले की स्त्रियों में उसे जल्दी ही सम्मान के पद पर पहुँचा दिया ।",कुछ दिनों के बाद सास की जरूरत भी न रही ।,"उसके रूप-लावण्य, वस्त्र-आभूषण और शील-विनय ने मुहल्ले की स्त्रियों में उसे जल्दी ही सम्मान के पद पर पहुँचा दिया ।" "जब रात-भर करवणट बदलने के वाद वह सवेरे उठी, तो उसके विचार चारो ओर से ठोकरें खाकर केवल एक ऊेन्द्र पर जम गये |","इस बड़े भारी काम में वह गंगा और यमुना से सहायता मॉँग रही थी, प्लेग और विसूचिका की खुशामदें कर रही थी कि ये दोनों मिल कर उस गिरधारीलाल को हड़प ले जाएँ! किंतु गिरधारी का कोई दोष नहीं ।","जब रात भर करवटें बदलने के बाद वह सबेरे उठी, तो उसके विचार चारों ओर से ठोकर खा कर केवल एक केन्द्र पर जम गये ।" एक क्षण में बादशाह को उदडता और घम्ड़ ने दीतता और विनयद्यीलला का आशय छिया ।,राजा ने हुक्म दिया-खबरदार ! इस प्रेमी पर कोई हथियार न चलाये इसे जीता पकड़ लो यह मेरे अस्तबल की शोभा बढ़ायेगा ।,एक क्षण में बादशाह की उद्दंडता और घमंड ने दीनता और विनयशीलता का आश्रय लिया । "हाँ पचास, कहाँ एक सौं ।",सारी लेई-पूँजी जल गयी ।,"‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ ।" वह अब कभी-कभी देर में दफ्तर आता ।,वह गरीब से गरीबदास बना ।,वह अब कभी-कभी देर से दफ्तर आता । रासे --मैं श्रपमान नहीं सह सकती |,"राय साहब ने दमड़ी को फँसे हुए देखा, तो हमदर्दी के बदले कठोरता से काम लिया ।",' रामे.-' मैं अपमान नहीं सह सकती । यह युक्ति राजा साहब को विचारणीय जान पड़ी ।,कुछ लोग तो इससे भी आगे बढ़ जाना चाहते थे ।,यह युक्ति राजा साहब को विचारणीय जान पड़ी । उतारे के लिए बडे-बडे जतन करने पड़ेंगे |,"बुद्धू -- राजी करना बड़ा कठिन है, पाँच सौ रुपये दीजिए तो इसकी जान बचे ।",उतारने के लिए बड़े-बड़े जतन करने पड़ेंगे । बोस साल गुज़र गये ।,रग्घू ने आहत स्वर में कहा— इसी बात का तो मुझे गम है ।,बीस साल गुजर गए । दुकाने बन्द थीं ।,विद्रोहियों ने एक विजय-ध्वनि के साथ उनका स्वागत किया; पर सब-के-सब किसी गुप्त प्रेरणा के वश रास्ते से हट गये ।,दूकानें बंद थीं । पौडीदारिन ने धमकाकर कद्दा--रोज़ सबेरे यहाँ भा जाया कर,सुखदा ने समीप जाकर चौकीदारिन को हटाया और कैदिन का हाथ पकड़कर कमरे में ले गई,चौकीदारिन ने धमकाकर कहा-रोज सबेरे यहाँ आ जाया कर "साहसी पी रत प्य की कोई सहारा नहीं होता तो वह चोरी करता है, कायर. पुरुष को कोई द है ता तो वह भीख माँगता है; लेकिन क्री को कोई सहारा नहीं होता, तो दे जाती है |",कौन जाने कहीं उसने भी घोरतर दुष्टाचारियों के हाथ में न पड़ जाए ।,"साहसी पुरुष को कोई सहारा नहीं होता तो वह चोरी करता है, कायर पुरुष को कोई सहारा नहीं होता तो वह भीख माँगता है; लेकिन स्त्री को कोई सहारा नहीं होता, तो वह लज्जाहीन हो जाती है ।" मैने जय उन्हें पहले देसा था तो निश्घय किया था कि यह ईश्वरीय अलानैपुष्प की पराकाष्ठा है; परंतु अब जब मैने उन्हें दोवारा देखा तो शांत हुआ कि बह इस असछ को नकछू भी ।,मुझे आज अनुभव हुआ जो बहुत दिनों से पुस्तकों में पढ़ा करता था कि सौंदर्य में प्रकाश होता है ।,मैंने जब उन्हें पहले देखा था तो निश्चय किया था कि यह ईश्वरीय कलानैपुण्य की पराकाष्ठा है परंतु अब जब मैंने उन्हें दोबारा देखा तो ज्ञात हुआ कि वह इस असल की नकल थी । एक ज़मींदार की सजी-सजायी कोठी में डेरा पड़ा ।,उसे अपना सौभाग्य-सूर्य उदय होता हुआ मालूम होता था ।,एक ज़मींदार की सजी-सजाई कोठी में डेरा पड़ा । भगर अपना और बाल-च्बों का सुख देखना चाहते हो तो सब तरद को भाफ़तबला दिर पर लेनी पढ़ेगो,मुरली खटीक ने ललकारकर कहा-जब कुछ करने का बूता नहीं तो लड़ने किस बिरते पर चले थे- क्या समझते थे रो देने से दूध मिल जाएगा- वह जमाना अब नहीं है,अगर अपना और बाल-बच्चों का सुख देखना चाहते हो तो सब तरह की आफत-बला सिर पर लेनी पड़ेगी "इस उद्विग्न दशा में वह कभी एक कोट पहनता, कभी उसे उतारकर दूसरा पहनता, कभी कमरे के बाहर चला जाता, कभी अंदर आ जाता ।","अभी हाथ मिलाओ, तो मालूम हो ।","इस उद्विग्न दशा में वह कभी एक कोट पहनता, कभी उसे उतारकर दूसरा पहनता, कभी कमरे के बाहर चला जाता, कभी अंदर आ जाता ।" छड्ष्के का नाम जानकीसरन रखा गया और लड़को का नाम छामिनों ।,उसी रात को बुद्धू के यहाँ सत्यनारायण की कथा हुई ।,लड़के का नाम जानकीसरन रखा गया और लड़की का नाम कामिनी । "कभो सब-को-सब बेठकर ताश खेलतों, कभो गातों-बजातों ।","कभी गंगा-स्नान की ठहरती, वहाँ माँ-बेटी किश्ती पर बैठकर नदी में जल-विहार करतीं, कभी दोनों संध्या -समय पार्क की ओर चली जातीं ।","कभी सब-की-सब बैठकर ताश खेलतीं, कभी गाती-बजातीं ।" "वे बोलना चाहते थे, लेकिन लोगों ने उन्हें घेर लिया और उनकी निन्‍्दा शोर अपसान करने लगे |","हमें विश्वास है कि ऑनरेबुल मिस्टर मेहता ने जिन विचारों का प्रतिपादन किया है उन्हें वे अन्तःकरण से मिथ्या समझते हैं; लेकिन सम्मान-लालसा, श्रेय-प्रेम और पदानुराग ने उन्हें अपनी आत्मा का गला घोंटने पर बाध्य कर दिया है ... किसी ने उच्च स्वर से कहा: यह मिथ्या दोषारोपण है ।","वे बोलना चाहते थे, लेकिन लोगों ने उन्हें घेर लिया और उनकी निंदा और अपमान करने लगे ।" सुमन के मन में बात झा गई ।,"मैं तुम्हें सचेत कर देता हूँ कि आज से फिर उधर मत जाना, नहीं तो अच्छा न होगा ।",सुमन के मन में बात आ गई । "जिस प्रथा से इतनी बुराइयाँ उत्पन्न हों, उसका त्याग करना क्या अनुचित है !","वे हजारों परिवार जो आए दि इस कुवासना की भँवर में पड़ कर विलुप्त हो जाते है, ईश्वर के दरबार में हमारा ही दामन पकड़ेंगे ।",जिस प्रथा में इतनी बुराइयाँ हो उसका त्याग करना क्या अनुचित है ? पुराने विचार हो गस्ग्यों को तो हमारे यहाँ यों भी कमी न थी पर वह लेटडियों का सेवा-सत्कार तो नहीं झर सकतों,इस शादी से तो वह बात पूरी हुई नहीं,पुराने विचार की स्त्रियों की तो हमारे यहाँ यों भी कमी न थी पर वह लेडियों की सेवा-सत्कार तो नहीं कर सकतीं बड़ा लगता है -घोखे-घढ़ी की कभाई खाने से,अमर के अंत:करण में क्रांति का तूफान उठ रहा था,बक्रा लगता है-धाोखे-धाड़ी की कमाई खाने से "अमरनाथ--मैं पुरुष हूँ, आवश्यकता पडने पर सभी तकलीफों का सासना कर सकता हूँ ।",घोड़े के नेत्र रक्तवर्ण हो रहे थे और अश्वारोही के सारे शरीर का रुधिर उबल-सा रहा था ।,"अमरनाथ- मैं पुरुष हूँ, आवश्यकता पड़ने पर सभी तकलीफों का सामना कर सकता हूँ ।" "अपने कमरे के प्रत्येक ताक भौर आलमारी को देखा, ;' रसोई के कमरे में चारों ओर दंढ़ा ।",इस पर वह घबरायी ।,"अपने कमरे के प्रत्येक ताक और अलमारी को देखा, रसोई के कमरे में चारों ओर ढूँढ़ा ।" "सेठ वलभद्रदास शहर के प्रधान नेता, आनरेरी मजिस्ट्रेट और म्युनिसिपल बोर्ड के चेयरमैन थे ।",लेकिन इन बाधाओं के होते हुए भी चन्दे के सिवा धन संग्रह का उन्हें और कोई उपाय न सूझा ।,"सेठ बलभद्रदास शहर के प्रधान नेता, आनरेरी मजिस्ट्रेट ओर म्युनिसिपल बोर्ड के चेयरमेन थे ।" "डा रह ! दमड़ी ने चौककर पीछे देखा, तो पुलिस का सिपाही ! हाथ पाँव फूल गये, काँपते हुए बोला--हजूर, थोडा ही सा काटा है, देख लीजिए ।","आग तक तो घर से निकलती नहीं, खटिया देंगे ! कैथाने में जाकर एक लोटा पानी माँगूँ तो न मिले ।","खड़ा रह! दमड़ी ने चौककर पीछे देखा, तो पुलिस का सिपाही ! हाथ-पाँव फूल गये, काँपते हुए बोला-हुजूर, थोड़ा ही-सा काटा है, देख लीजिए ।" "भाप अपना सब कुछ निसार कर रहे हैं, तो क्या मुकसे इतना भी न होगा ?","एक, दो, चार, दस बार आने में हम को इंकार नहीं है ।",आप अपना सब कुछ निसार कर रहे हैं तो क्या मुझ से इतना भी न होगा । हर एक मनुष्य अपने जीवन को ब्रपनी बुद्धि के श्रनसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था ।,"रंगीन एमामे, चोगे और नाना प्रकार के अंगरखे और कंटोप देवगढ़ में अपनी सज-धज दिखाने लगे ।",हर एक मनुष्य अपने जीवन को अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छे रूप में दिखाने की कोशिश करता था । "जब विश्वास द्रो गया कि अरमम्माँ सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूँ |",उन पूड़ियों को काकी के पास ले जाना चाहती थी ।,"जब विश्वास हो गया कि अम्मा सो रही हैं, तो वह चुपके से उठी और विचारने लगी, कैसे चलूँ ।" उसे उस दुकान से उस मकान से उस वाता- वरण से यहाँ तक कि स्वयं अपने आप से घृणा दोने लगी,तो फिर निकलो रुपये मुझे देर हो रही है,उसे उस दूकान से उस मकान से उस वातावरण से यहाँ तक कि स्वयं अपने आपसे घृणा होने लगी उस पर भी यदि दुर्भाग्यवश किसी चन्दे के सम्बन्ध में जाता हूँ तो लोग मुझे यम का दूत समसते हैं |,"मैं जो अपना जीवन पत्रों के लिए लेख लिखने में काटता हूँ, देश-हित की चिंता में मग्न रहता हूँ, उसके लिए मेरा इतना सम्मान बहुत समझा जाता है ।","उस पर भी यदि दुर्भाग्यवश किसी चंदे के सम्बन्ध में जाता हूँ, तो लोग मुझे यम का दूत समझते हैं ।" "दयानाथ ने कहा -- भाई, तुम जानो तुम्हारा काम जाने ।",ईश्वर से मनाती थी कि कहीं से बात आए ।,"दयानाथ ने कहा, भाई, तुम जानो तुम्हारा काम जाने ।" हलवा और पूरी खाकर भी काम चल सकता है,मुट्ठी-भर चने में भी काम चल सकता है,हलुवा और पूरी खा कर भी काम चल सकता है शुरू के दस-पाँच दिन तो ज़रूर जोहरा ने उसे लुब्ध करने की चेष्टा की थी ।,एक हफ्ते तक उसे ज़ोहरा के दर्शन न हुए ।,शुरू के दस-पाँच दिन तो जरूर ज़ोहरा ने उसे लुब्ध करने की चेष्टा की थी । ऐसा यातनाएँ वह कितनी वार भोग चुका था ।,"बस, जो आता है, मुझ ही पर हाथ साफ़ करता है ।",ऐसी यातनाएँ वह कितनी बार भोग चुका था । "यह मेरे विपत्ति की गठरी है, प्रेम की स्मृति नहीं ।","जब देखने वाला ही न रहा, तो इन्हें रखकर क्या करूँ ?","यह मेरी विपत्ति की गठरी है, प्रेम की स्मृति नहीं ।" "मेंने अभी ऐसा बुरा सरता देखा है. कि भ्रभों तक कलेजा घड़क रहा है, जाव सक्ट में पढ़ी हुईं थी ।",मुँह से शब्द न निकलता था ।,"मैंने अभी ऐसा बुरा सपना देखा है कि अभी तक कलेजा धड़क रहा है, जान संकट में पड़ी हुई है ।" "पैसा खाने-पीने के लिए, है कि गादने के लिए. ?","भोजन करके वह बाहर जाने लगा, तो सिलिया बरोठे में खड़ी मिल गयी ।",पैसा खाने-पीने के लिए है कि गाड़ने के लिए ? फिर उसे एक विचित्र भय उत्पन्न हुआ,एक कार्ड भी न डाला,फिर उसे एक विचित्र भय उत्पन्न हुआ सीरी-सीरी वायु चल रही थी,भीतर जाकर विरजन से पूछा तो उसने साफ इन्कार किया,सीरी-सीरी वायु चल रही थी मिटी हुईं मर्यादा के पुनरुद्धार का इसके सित्राप कोई उपाय नहीं ।,"यही आँखें कभी उसे खेलती देख कर प्रसन्न होती थी, अब उसे रक्त में लोटती देख कर तृप्त होगी ।",मिटी हुई मर्यादा के पुनरुद्धार का इसके सिवा कोई उपाय नहीं । गजाधर---तो वह बड़ी धर्मात्मा है ?,सुमन -- पर धर्म से तो होती है ?,गजाधर -- तो वह बड़ी धर्मात्मा है ? मैं कहाँ जा रही हैँ ?,"यह सोचते हुए सुमन आगे चली, पर थोड़ी दूर चलकर उसके विचारों ने फिर पलटा खाया ।",मैं कहाँ जा रही हूँ ?